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चुराया हुआ सुख

ज़किया मशहदी

चुराया हुआ सुख

ज़किया मशहदी

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    स्टोरीलाइन

    एक ऐसी औरत की कहानी है जिसका पति हमेशा बिज़नेस टूर पर शहर से बाहर रहता है। औरत सारा दिन घर में अकेली रहती है। सोसाइटी में उसकी मुलाक़ात एक ऐसे मर्द से होती है जिससे वह अपने पति की गै़र-मौजूदगी में थोड़ा-सा सुख चुरा लेती है।

    हमेशा की तरह आज भी अजीत ने सोने से पहले कॉफ़ी का प्याला ख़त्म किया, फिर दो-तीन सिगरेट फूँके, लेकिन हमेशा की तरह उसने अमिता के गिर्द बाज़ुओं का हलक़ा नहीं बनाया। बहुत देर तक वो छत की तरफ़ यूँ ही बे मक़सद देखता रहा। इंतज़ार करते-करते जब अमिता के धीर का पैमाना लबरेज़ हो गया तो वो ख़ुद ही क़रीब गई और अजीत की चौड़ी छाती पर बालों का आबशार बिखर गया। अजीत को नथुनों में चुभन का एहसास हुआ। फ़ों-फ़ों करते हुए उसके बाल पीछे हटाए मगर अमिता किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह उससे चिमटी रही।

    अजीत डार्लिंग, जब तक मैं तुम्हारे क़रीब जाऊँ, मुझे नींद नहीं आती।

    ये बाल तो पीछे करो। नाक में घुसे आते हैं। अजीत कुछ झुँझला कर बोला, आख़िर तुम बाल बाँध कर क्यों नहीं सोती हो?

    उसे मिसेज़ खन्ना के बग़ैर मांग के ऊँचे बने हुए बालों की कस कर बाँधी हुई चोटी याद गई। एक दिन जब वो गई रात उनके यहाँ टेस्ट मैच का स्कोर पूछने गया था तो मिसेज़ खन्ना सोने की तैयारी कर रही थीं। ऊँचे बालों और सख़्त गूँधी हुई चोटी में उनका बैज़वी चेहरा और तीखे नुक़ूश ज़ियादा वाज़ेह हो उठे थे। बड़ी चौड़ी मुस्कुराहट अजीत के होटों पर फैल गई। अमिता की आँखें हैरत से फैल गईं। आज ये नई बात कैसी। अजीत ही तो कहता था कि उसे अमिता के घने बाल खुले हुए ही अच्छे लगते हैं। फिर दिन में उनसे खेलने का मौक़ा मिलता भी कहाँ था। वो रात को अपना सर उसकी चौड़ी छाती पर टिकाती तो अजीत की उंगलियाँ देर तक उसके बालों में उलझी रहतीं।

    तुम्हीं ने तो कहा था। वो धीरे से बोली, कि रात को बाल खुले रखा करो।

    मैंने! मैंने कब कहा था? अजीत साफ़ मुकर गया।

    तुम्हारी तबियत कुछ ख़राब है? मुतफ़क्किर हो? अमिता ने हौले से सर उसके सीने से हटा लिया। बालों को समेटते हुए पहले उसने उसके माथे पर हाथ रखा फिर नर्म-नर्म होंट टिका दिये। अजीत की झुँझलाहट ग़ुस्से में तब्दील होने लगी मगर वो ख़ामोश रहा। ये औरत की ज़ात अगर शक में मुब्तिला हो जाए तो इसकी सांसों तक में ज़ह्र घुल जाएगा। काले नाग की तरह ज़ह्र उगलती, फ़ों-फ़ों करती, नाचती फिरेगी। कब किसको डस ले।

    अमिता की उंगलियाँ उसके बालों में घूम रही थीं। लंबी-लंबी नर्म उंगलियाँ। उसे मीठी सी ख़ुनकी का एहसास हुआ। नींद धीरे-धीरे ग़लबा पा रही थी। कभी आँखें खुलतीं, कभी बंद होतीं। नींद की आती-जाती तरंगों में मिसेज़ खन्ना का चेहरा कभी ऊपर आता कभी नीचे जाता। अमिता कैसी अच्छी है, मूड पहचानती है, अजीत को मुतफ़क्किर देखा तो ख़ामोशी से हट गई। होगा कोई ऑफ़िस का मसला। ज़ियादा से ज़ियादा उसने यही सोचा होगा। अजीत के दिल में सोया हुआ प्यार पल के पल जागा। जब से उसके मकान के ऊपर वाले हिस्सा में मिसेज़ खन्ना आन कर रही थीं, यही हो रहा था। अमिता के लिये कभी उसका दिल झुँझलाहट से भर उठता, कभी ग़ुस्से से और कभी प्यार से। उसकी समझ में नहीं रहा था कि वो अपने इन एहसासात को किस ख़ाने में रखे।

    बड़ी मुश्किल से वो अपने ख़ूबसूरत दो-मंज़िला मकान की ऊपरी मंज़िल से उस मोटे अन-कल्चर्ड मारवाड़ी किराये-दार को हटा पाया था। सारे ड्रॉइंग रूम में कीलें ठोंक-ठोंक कर लाल-पीले कैैलेंडर लटका रखे थे, ऊपर से कभी कद्दू के छिलकों की बारिश होती, कभी शरीफ़े के बीजों की और कभी सिर्फ़ राख की। बदतमीज़ बच्चे लॉन पर खिले हुए गुलाब तोड़ ले जाते। नौकर सलीक़े से तराशी हुई घास पर उनके दो महीने के नन्हे बच्चे के पोतड़े फैला जाता। ऊपर धूप नहीं आती जी। वो दाँत निकोस कर कहता। सेठ की बीवी अमिता के हाथ की बनाई हुई कोई चीज़ नहीं खाती। तुम माँस-मच्छी खाती हो, हम ठहरे सात्विक भोजन वाले। वो नाक चिढ़ा कर कहती और अजीत ग़ुस्से से लाल-पीला हो जाता। बड़ी मुश्किलों से जान छूटी।

    सरन के तवस्सुत से नये किराये-दार आए तो अजीत को लगा किराए-दार नहीं आए बल्कि ड्राइंग रूम के लिये डेकोरेशन पीस ख़रीदा गया। खन्ना साहब तो स्मार्ट थे ही, उनकी बीवी का भी जवाब था। वाह, वाह, वाह! गोरी भी बहुत सी औरतें होती हैं, लंबी भी बहुत होती हैं, तीखी सी, छोटी सी नाक भी बहुत सी औरतों की होती है, मगर इन तमाम चीज़ों का सही इमतिज़ाज और इस इमतिज़ाज का सही इस्तेमाल शायद सबमें नहीं होता। जैसे क़ोरमे की बुनियादी तरकीब तो एक ही होती है, कुछ मिर्चें, कुछ गर्म मसाला, कुछ दही, कुछ प्याज़, नर्म मुलाइम गोश्त, लेकिन इनका सही इमतिज़ाज कुछ ही लोगों को आता है। वर्ना हर बावर्ची के पकाए हुए सालन के ज़ाइक़े में फ़र्क़ क्यों होता। अजीत का दिल चाहता ज़रा इस हाँडी को भी सूँघ कर देखे।

    बला-ए-जाँ है ग़ालिब उसकी हर बात... बस अजीत के ज़ेहन में ये मिसरा यूँ ही गूँजता रहता था। जैसे किसी पुराने रिकॉर्ड पर सूई कर अटक जाए। बला-ए-जाँ है ग़ालिब। बला-ए-जाँ है ग़ालिब। नींद से बोझल आवाज़ में ग़ैर-शऊरी तौर पर फिर वो यही गुनगुनाने लगा। धत तेरी की। अमिता सोचेगी अभी झुँझला रहे थे, अभी ग़ालिब का शे'र पढ़ने लगे। फिर कान खाना शुरू कर देगी। हे भगवान? तूने औरत कियों बनाई। उसने आँखों के कोनों से चोर अंदाज़ में झाँक कर देखा। अमिता तक़रीबन सो चुकी थी। उसने ख़ुदा का शुक्र अदा किया। अच्छा है सो गई। अब कम-अज़-कम जागती आँखों के ख़्वाबों पर पहरा तो नहीं बिठाएगी।

    मिसिज़ खन्ना की नाक में पड़ी हुई हीरे की जगर-जगर करती लौंग फिर अँधेरे में कूंदने लगी। अजीत आज कल कुछ ज़ियादा ही कन्फ़्यूज़्ड हो रहा था। कल की बात... अमिता ने कहा था, अजीत डार्लिंग ज़रा मिसेज़ खन्ना से उनका कॉफ़ी पर्कोलेटर तो मांग लाओ, मैं ज़रा नहाने जा रही हूँ। उसके हाथ में पकड़ी हुई छोटी सी प्लास्टिक की ट्रे पर जाने क्या-क्या ढेर था। क्रीम की शीशियाँ, शैम्पू, नेल फ़ाइल, क्लिनीज़िंग मिल्क, उबलते हुए पानी का जग... तो अमिता तफ़सील से नहाने जा रही है। एक घंटे की छुट्टी। मारे ख़ुशी के अजीत ने उसके गाल पर चुटकी भरी और एक-एक क़दम में दो-दो सीढ़ियाँ फलाँगता ऊपर पहुँच गया। दीवान पर दराज़ मिसेज़ खन्ना फ़िल्म फ़ेयर की वरक़-गरदानी कर रही थीं और अपने सजे सजाए ड्रॉइंग रूम का एक हिस्सा ही मालूम हो रही थीं।

    हाई... उन्होंने अपने मोती जैसे दांत चमका कर कहा।

    मिसेज़ खन्ना! वो बात ये है कि अमिता को...

    उन्होंने बात काट दी, देखिए हम लोगों को एक दूसरे को जानते हुए छ: महीने से ज़ियादा हो गए हैं और अभी तक इस क़दर तकल्लुफ़ बरतते हैं। मेरा नाम शीला है।

    बात ये है... अजीत उनका नाम लेते हुए हकला गया।

    बात-वात कुछ नहीं। शीला कहिए तब ही सुनूँगी।

    अच्छा तो शीला जी... अजीत की समझ में आया कि इस उबलते हुए एहसास को क्या नाम दे। ख़ून कनपटियों पर ठोकरें मार रहा था।

    शीला जी। मैं इसलिये आया था कि अमिता को आप का काफ़ी पर्कोलेटर चाहिये।

    ज़रूर... वो तो मैं दे ही दूँगी लेकिन पहले आप यहाँ जो काफ़ी पी लें... और उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। अजीत सँभल कर बैठ गया फिर गप्पें चलीं तो चलीं। साथ बैठने के मवाक़े तो बहुत आते थे मगर एक तरफ़ तो खन्ना जी होते थे दूसरी तरफ़ अमिता। ये मौक़ा शायद अपनी नौईय्यत का दूसरा ही था।

    तन्हाई का पहला मौक़ा आया था तो तकल्लुफ़ की दीवार ख़ासी मोटी थी। इस मर्तबा इसमें रख़ने पड़ते दिखाई पड़ रहे थे। शायद अगली बार ऐसा मौक़ा आए तो कुछ और रख़ने पड़ें और फिर शायद बैठ ही जाए... हूँ। बिल्ली के ख़्वाब में छीछड़े। छी-छी मैं क्या सोच रहा हूँ, अमिता जैसी बीवी के होते हुए... अजीत ने ख़ुद पर लानत भेजनी चाही ही थी कि उनका नौकर कॉफ़ी लेकर गया। भला मिसेज़ खन्ना को ख़ुद उठ कर प्याला बढ़ाने की क्या ज़रूरत थी। वो क़रीब कर झुकीं तो उनके गहरे कटे हुए ब्लाउज़ का गिरेबान कुछ और नीचा हो गया। और बड़ी मद्धम, बड़ी प्यारी सी ख़ुशबू अजीत की नाक से टकरा कर उसके हवास पर सवार हो गई और उस वक़्त तक सवार रही जब तक अमिता ने नीचे से हाँक नहीं लगाई।

    मैंने कहा, मैंने तो सिर्फ़ पर्कोलेटर मँगाया था। तुम ख़ुद काफ़ी बनाने बैठ गए क्या?

    अमिता के लहजे में फ़ितरी ख़ुश-मिज़ाजी से पैदा होने वाली शोख़ी थी मगर अजीत के दिल में छिपे चोर ने उसको घूर कर देखा। ये ख़ुश-मिज़ाजी सच्ची है या झूटी? जुमला खरा है या तंज़ में डूबा हुआ। उसका ज़हन तराज़ू ले कर अमिता को तौलने लगा। वो पर्कोलेटर ले कर किचन में घुस गई।

    सुनो मीतू। मिसेज़ खन्ना पूछ रही थीं कि आपकी मिसेज़ ने इनटीरिअर डेकोरेशन में कोई डिप्लोमा लिया है क्या? आपका घर बे-हद सलीक़े से सजा हुआ होता है।

    अमिता का मसरूर चेहरा किचन से झाँका। अजीत ने इतमीनान का साँस लिया। भगवान तेरा शुक्र है। औरत बनाई थी सो बनाई थी लेकिन अगर उसे अक़्ल भी दे दी होती तो मुझ जैसे मर्दों को तो मर जाने के अलावा कोई चारा रहता। इतमीनान का साँस लेता हुआ वो तौलिया उठा कर ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस गया। जिस्म पर साबुन रगड़ते हुए वो सोच रहा था कि मिसेज़ खन्ना की बे तकल्लुफ़ी को किस ख़ाने में फ़िट करे। महज़ ख़ुश-मिज़ाजी, साफ़ दिली... या कहीं... कहीं उनके दिल में भी नर्म गोशे जाग रहे हैं। अजीत के दिल में अनार छूटने लगे। साबुन रगड़-रगड़ कर उसने आधा कर दिया। वो तो शायद पूरा ही घिस देता अगर अमिता काफ़ी तैयार हो जाने की इत्तिला देती।

    क़िस्मत आज़माने में क्या हर्ज है। अजीत ने नर्मी से सोई हुई अमिता का बाज़ू गले से हटाते हुए सोचा। देखेंगे इस हाँडी का क़ोरमा कैसा है। वो अपनी बारीक तराशी हुई मूंछों में मुस्कुराया।

    सुबह अजीत की आँख खुली तो अमिता चाय की ट्रे लिये दरवाज़े पर खड़ी हुई थी। बिस्तर के पास तिपाई रख कर उसने चाय रखी और नाज़ुक सुनहरी प्यालियों में चाय डालने लगी। अजीत का ड्रेसिंग गाउन उसके सिरहाने टँगा हुआ था। स्लीपर मसहरी के नीचे मौजूद थे। अमिता के चेहरे पर बड़ी मीठी सी मुस्कुराहट थी। रात की तल्ख़ गुफ़्तगू वो यकसर भूल चुकी थी। उसके ताज़ा शैम्पू किये हुए बालों से हल्की-हल्की ख़ुशबू रही थी। अजीत ने फिर अपने ऊपर लानत भेजी। कैसी अच्छी बीवी है। भला मैं कहाँ पराई औरत के चक्कर में पड़ रहा हूँ। लेकिन चाय पी कर नींद का ख़ुमार उतरा तो हवासों पर वही आठ इंच के कटे ब्लाउज़ का गला नाच गया। मिसेज़ खन्ना अपनी तमाम-तर हश्र-सामानियों के साथ लॉन पर खड़ी थीं।

    मैंने कहा अजीत जी। शाम को फ़ुर्सत हो तो शाम को चाय ऊपर ही पी लीजिएगा। खन्ना साहब आज टूर पर जा रहे हैं। मुझे तन्हा चाय पीना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। अजीत को लगा उसके सर पर एक ऐसा बम फटा जिसमें रंग-बिरंगे तारे भरे हुए थे। वो सारे तारे अब उसकी आँखों के सामने थिरक रहे थे।

    आप रहे हैं ना? मिसेज़ खन्ना ने दोहराया।

    शाम को अमिता की सहेली की शादी की सालगिरह है। हम दोनों वहाँ मदऊ हैं। अजीत बड़ी मरी हुई आवाज़ में बोला।

    वो अपनी नुक़रई हँसी हँस कर बोलीं, तो ये तक़रीब तो अमिता जी की सहेली की हुई। आपकी सहेली की तो नहीं। आप उन्हें जाने दीजिये। हम लोग चाय पियेंगे।

    अजीत बिल्कुल ही हवास-बाख़्ता हो गया। ये सवा नेज़े पर आया हुआ आफ़ताब उसके सर पर गिर रहा है क्या?

    शाम को अजीत ने सिर दर्द का बहाना किया। सुबूत के तौर पर वो अमिता को दिखा कर ए. पी. सी. की दो टिकियाँ इकट्ठी खा गया। मीतो डार्लिंग। तुम चली जाओ। उनकी शादी की पहली सालगिरह है। तुम्हारा जाना ज़रूरी है। मैं ज़रा आराम चाहता हूँ। कुछ मतली सी भी मालूम हो रही है।

    अमिता का सीधा-सादा चेहरा फ़िक्र से भर उठा, ऑफ़िस कैंटीन से उल्टा-सीधा ले लिया होगा कुछ। मैंने जो चिकन सैंडविच दिए थे वो बदमाश अनवर खा गया होगा। तुम फ़ौरन डॉक्टर सक्सेना को फ़ोन कर लो। तुम भला क्या करोगे। लाओ मैं ही कर देती हूँ। ज़ियादा तकलीफ़ हो तो मैं भी नहीं जाऊँगी? वो हस्ब-ए-आदत एक साँस में बोलती चली गई।

    मारे ग़ुस्से के अजीत की मूंछें फड़फड़ाने लगीं। उसका बस चलता तो अमिता की एक-एक बोटी अलैहदा कर देता। नाक अलग, कॉन अलग, आँखें अलग, बाज़ू अलग। और सबको बिल्कुल अलैहदा-अलैहदा दफ़्न करता ताकि वो कभी एक जगह हो कर फिर अमिता की शक्ल इख़्तियार कर सकें।

    ग़ुस्सा दबा कर जल्दी से बोला, नहीं-नहीं तुम ज़रूर जाओ डार्लिंग। मैं सिर्फ़ हंगामे से बचना चाहता हूँ। सर में दर्द कोई ऐसी बड़ी बात तो नहीं। फिर बाईं आँख दबा कर बोला। वैसे रुकना चाहो तो रुक भी सकती हो। हम भी अपनी शादी की सालगिरह आज ही मना लेंगे। बिल्कुल दुल्हन नज़र रही हो।

    अमीता फ़िक्र भूल कर हँसने लगी।

    बदमाश! अच्छा आराम करो। और एक हवाई बोसा फेंकती हुई बाहर निकल गई। उसके जाते ही अजीत ने कंबल फेंका। आईने में अपना ज़ायज़ा लिया और हस्ब-ए-मामूल एक क़दम में दो-दो सीढ़ियाँ फलाँगता हुआ ऊपर चढ़ गया। ड्राइंग रूम में सन्नाटा था। ड्राइंग रूम से मुत्तसिल बेड रूम से मिसेज़ खन्ना के गुनगुनाने की आवाज़ रही थी, बालम आए बसो मोरे मन में।

    उसने पुकारा, शीला जी!

    यस, कम इन। खनकती हुई आवाज़ में जवाब मिला।

    वो झिझका। उनके बेडरूम में वो कभी दाख़िल नहीं हुआ था।

    आईए भई? क्या सोच रहे हैं। खिड़की का पर्दा उठा। मिसेज़ खन्ना की नाक की लौंग जगमगाई।

    अजीत अंदर दाख़िल हुआ। कमरे की हर चीज़ मियाँ-बीवी के नफ़ीस ज़ौक़ और आराम-तलब मिज़ाज़ की ग़म्माज़ थी। उसने एक नज़र मिसेज़ खन्ना पर डाली। वो बे नियाज़ी से बालों में ब्रश फिरा रही थीं। तक़रीबन बैक-लेस चोली से उनकी सुनहरी कमर झाँक रही थी। अजीत पर फिर वही दौरा पड़ा। जी चाहा उन्हें छू कर देखे। कुछ लोग असली नहीं मालूम होते। तख़य्युल का वाहिमा महसूस होते हैं।

    आपकी ख़ातिर मैंने अमिता को तन्हा भेज दिया। अजीत 'आपकी ख़ातिर' पर ज़ोर देता हुआ बोला।

    थैंक यू अजीत जी। आप बे-हद अच्छे इंसान हैं। बे-हद अच्छे। यक़ीनन आपकी बीवी ख़ुश-क़िस्मत है जो आप जैसा शौहर मिला। एक खन्ना जी हैं रोज़ टूर। रोज़ टूर। पता नहीं ये सारे टूर ऑफ़िशियल होते हैं या पर्दा-ज़ंगारी में किसी माशूक़ को छिपा रखा है। अजीत की तारीफ़ करते हुए मिसेज़ खन्ना की आवाज़ में तंज़ का शाइबा भी था। बे-हद अपनाइयत थी और वो बे-हद क़रीब कर सीधे उसकी आँखों में झाँक रही थीं। उसको अपने चेहरे पर उनकी सांसों के लम्स का एहसास हुआ और उसके अंदर ख़ून शराब बन कर झाग देने लगा।

    औरत और मर्द के इस अज़ली रिश्ते का ये कमज़ोर लम्हा कब और कैसे उनके दरमियान सरक आया, अजीत कुछ समझ ही नहीं सका। जब मिसेज़ खन्ना के बाज़ू उसके गले से अलैहदा हुए तो उसे महसूस हुआ कि वो एक हारा हुआ जुआरी है। मिसेज़ खन्ना का काजल फैल गया था, उड़े हुए पाउडर के धब्बे बर्स के दाग़ लग रहे थे। लिपस्टिक होंटों के दरमियानी हिस्से से ग़ायब होकर बांछों में भर गई थी। उनके चेहरे पर वही तमानीयत थी जो मोटा सा चूहा पा जाने वाली बिल्ली के चेहरे पर होती है।

    बड़ी हैरत से आँखें पट-पटा कर अजीत ने सोचा कि ये औरत उसे इस क़दर अनोखी, अछूती, आसमान से उतरी हुई मख़लूक़ क्यों मालूम हुई थी। ये औरत जो किसी भी आम औरत से अलग नहीं है। क्या ये चुराया हुआ सुख अमिता से मिलने वाले सुख से कुछ अलग था? हिसाब लगाया तो सारे जमा ख़र्च, ज़र्ब, तक़सीम का जवाब एक ही आया। फिर भला छ: महीनों से इसने अपनी नींदें क्यों हराम कर रखी थीं? महज़ बंद लिफ़ाफ़े को खोलने के लिये? एक बीमार से तजस्सुस की तस्कीन के लिये? या इसलिये कि वो एक ना-क़ाबिल-ए-हुसूल शय महसूस होती थीं और अजीत के लिये एक चैलेंज? उसे अमिता याद आई, जो अब आती ही होगी। एक सीधी-साधी, मासूम सी घरेलू बीवी जिसे वो पिछले छ: माह से ठगता चला रहा था। वो आहिस्ता से उठा और उनका ड्रेसिंग गाउन उन पर डालता हुआ नज़रें चार किये बग़ैर कमरे से निकल गया।

    पार्टी से लौट कर रात को जब अमिता मेक-अप उतारने के बाद अपने बालों को कस कर चोटी में गूँध रही थी तो अजीत ने अपना चेहरा उसके शानों में डुबोते हुए कहा, अमीता! इन बालों को खुला रहने दो। ये ऐसे ही अच्छे लगते हैं। फिर दिन में इनसे खेलने का मौक़ा मिलता भी कहाँ है?

    स्रोत:

    पराये चेहरे (Pg. 10)

    • लेखक: ज़किया मशहदी
      • प्रकाशक: बिहार-ए-उर्दू अकादमी, पटना
      • प्रकाशन वर्ष: 1984

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