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दख़्मा

बेग एहसास

दख़्मा

बेग एहसास

MORE BYबेग एहसास

    सामने सोहराब की ना’श थी और उसके पीछे दो-दो पारसी सफ़ेद लिबास पहने हाथ में पैवंद का किनारा पकड़े ख़ामोशी से चल रहे थे। उनके पीछे हम लोग थे। “दख़्मा” की गेट पर हम लोग रुक गए। हमें अंदर जाने की इजाज़त नहीं थी।

    मैंने माहौल का जायज़ा लिया। सब कुछ वैसा ही था। कुछ भी नहीं बदला। मेरी बहन का घर भी। लेकिन उस घर में अब मेरा कोई नहीं रहता था। मेरी बहन और बहनोई का इंतिक़ाल हुए एक अ’र्सा हो चुका था। मेरी भांजी इसी शहर में अपने शौहर के साथ रहती थी।

    स्कूल की छुट्टियाँ होते ही मैं अपनी बहन के पास दौड़ा चला आता। वो मेरी सबसे बड़ी बहन थीं। दरमियान में छः और बहनें और उनके बा’द सबसे छोटा मैं। इकलौता भाई। मेरी भांजी मुझसे सिर्फ़ दो बरस छोटी थी। हम दोनों ख़ूब खेला करते।

    वो घर मुझे बहुत अच्छा लगता था। चट्टान पर बना हुआ ख़ूबसूरत मकान स्टेशन के उस पार। प्लैनिंग के साथ बनाए हुए बुन्गे। दरमियान में सीधी तारकौल की सड़कें। काफ़ी चढ़ाव और उतार थे। एक ज़माने में इस जुड़वाँ शहर में सिर्फ़ ताँगे चलते थे। साइकिल रिक्शाओं का दाख़िला ममनू’ था। मेरी बहन के घर पहुँचते-पहुँचते घोड़ा हांपने लगता। चढ़ाई पर घोड़े के पैर जमते थे। जब हम ताँगे से उतरने लगते तो ताँगे वाला ख़ास अंदाज़ में तवाज़ुन बनाए रखता। मशरिक़ी जानिब वाटर रेज़ रिवायर था। मग़रिब में जहाँ सड़क मुसत्तह हो जाती है सेंट फ्लोमीना चर्च था। चर्च में मिशनरी स्कूल भी था। खुली टांगों वाले यूनीफार्म के स्कूल को कम ही मुसलमान लड़कियाँ जाती थीं। मेरी भांजी भी इस्लामिया स्कूल में पढ़ती थी। लेकिन हम लोगों ने चर्च का चप्पा-चप्पा देखा था। क्योंकि बच्चों को कोई नहीं रोकता था। इतवार के दिन अतराफ़ के क्रिस्चन prayer के लिए जाते। फ़िज़ा में घंटे गूँजने लगते तो बड़ा अच्छा लगता। पता ही नहीं चलता कि घंटे कौन बजाता है। मस्जिद काफ़ी फ़ासले पर थी जहाँ छोटे-छोटे बे-तरतीब मकान थे।

    घर के मुक़ाबिल ऊंची चट्टान बल्कि पहाड़ पर एक दायरा-नुमा इ’मारत बनी हुई थी। कई एकड़ पर फैला हुआ इ’लाक़ा था। बहुत बड़ी बाउंड्री थी। नीचे बड़ा सा गेट था। लोग उसको पारसी गुट्टा कहते थे। अहाते में एक छोटा सा मकान बना हुआ था। जिसमें चौकीदार, उसकी बीवी और एक कुत्ता रहते। अ’जीब सा पुर-असरार कुत्ता। मुहल्ले के अक्सर घरों में अलसेशन थे। ये कुत्ता उनसे मुख़्तलिफ़ था। दूर से ऐसा लगता जैसे उसकी चार आँखें हों।

    मेरी बहन पारसी गुट्टा जाने से मना’ करती थीं। कहती थीं बच्चों को वहाँ नहीं जाना चाहिए।

    एक दिन हमने देखा पारसी गुट्टा का गेट खुला छोड़ दिया गया है और चौकीदार साहिब बेहद मसरूफ़ हैं। 11 बजे धूप में सफ़ेद कपड़ों में मलबूस दो-दो पारसी एक रूमाल के दो मुख़्तलिफ़ सिरे पकड़े हुए एक क़तार में चले रहे हैं। सबसे आगे दो पारसी थे। दरमियान में एक गाड़ी... फिर पारसियों की क़तार... तक़रीबन एक बजे तक वो लोग मसरूफ़ रहे फिर वापिस हो गए। शाम होने से पहले गधों के झुंड आना शुरू’ हुआ। वो सब उस दायरा-नुमा इ’मारत के किनारे पर बैठ गए। शाम होते-होते सारे गिध उड़ गए। मैंने एक साथ इतने सारे गिध पहली बार देखे थे। शाम तक वो मसरूफ़ रहे।

    मैंने अपनी बहन से पूछा कि, “इतने गिध इस इ’मारत पर क्यों जमा हो गए थे?”

    बहन ने बताया पारसी गुट्टा अस्ल में पारसियों का क़ब्रिस्तान है। पारसी मरने वाले की ना’श को छत पर रख देते हैं ताकि गिध उस ना’श को नोच खाएँ। ये सारे गिध इसीलिए आए थे।

    “ये कैसा तरीक़ा है आपी?”, मैंने झुरझुरी सी लेकर कहा।

    “बेटा अपना-अपना अ’क़ीदा है। कोई दफ़्न करता है। कोई जला देता है। ये लोग परिंदों को खिला देते हैं और इसी को सवाब समझते हैं।”, अँधेरा होने से क़ब्ल सारे गिध लौट गए। इसके बावुजूद हम उस रोज़ छत पर नहीं सोए। मैं और मेरी भांजी दोनों डर के मारे नीचे कमरे में ही सो गए। क्या पता कोई गिध हमें मुर्दा समझ कर...

    बेदार होते ही हम दोनों पारसी गुट्टा गए। कुत्ता हमें देखकर भौंकने लगा।

    “अरे बेटा तुम लोग?”

    “चाचा कल किसी का इंतिक़ाल हुआ था?”

    “हाँ बेटा।”

    “दो-दो आदमी क्यों क़तार बनाकर चलते हैं?”

    “यही तरीक़ा है। तन्हा कोई नहीं चलता।”

    “उन्होंने रूमाल क्यों पकड़ रखा था?”

    “वो रूमाल नहीं, उसे पैवंद कहते हैं”

    “और ये गोल इ’मारत?”

    “ये ‘दख़्मा’ है। इसकी छत दरमियान से ऊंची होती है। छत पर तीन दायरे बने हैं। मर्द की ना’श बैरूनी दायरे में, औ’रत की दरमियानी दायरे में और बच्चों की ना’श अंदरूनी दायरे में रखी जाती है ताकि उन पर तेज़-धूप पड़े और गिधों को दूर से नज़र जाए।”

    “चाचा ये कुत्ता इतना अ’जीब क्यों है?”, मेरी भांजी ने पूछा।

    “इसे “सग-ए-दीद” कहते हैं। चार आँखों वाला कुत्ता... इसकी चार आँखें नहीं हैं लेकिन आँखों पर ऐसे निशान हैं जिससे इसकी चार आँखें नज़र आती हैं। ये “सग-ए-दीद” ही आदमी के नेक-ओ-बद होने का फ़ैसला करता है।”

    “कैसे चाचा”

    “जब बड़े हो जाओगे तो ख़ुद ही पता चल जाएगा।”, चाचा ने हमारे सवालात से उकता कर कहा।

    “और चाचा ये गिध कहाँ से जाते हैं?”

    “अगर फ़र्श पर चीनी गिर जाए तो च्यूँटियाँ कहाँ से आती हैं?”, चाचा ने सवाल किया और अंदर चले गए। उस रोज़ भी हम छत पर नहीं सोए।

    (सोहराब भी इन तमाम मराहिल से गुज़र रहा होगा।)

    (2)

    सोहराब का “मैकदा” शहर के मसरूफ़ इ’लाक़े में था। मुम्किन है जिस वक़्त उसके अज्दाद ने “मैकदा” खोला होगा ये मसरूफ़-तरीन इ’लाक़ा रहा हो। क्योंकि सामने राजा साहिब की बहुत बड़ी हवेली थी... बग़ल में भी एक बहुत बड़ी हवेली थी... दाईं जानिब ड्रामा थेटर था। और बाईं जानिब बहुत आगे अंग्रेज़ों की रेज़ीडेन्सी थी। मुक़ाबिल में एक छोटी सी मस्जिद थी। मस्जिद से लग कर जो गली थी वो “मुजर्रिद-गाह” तक जाती थी। मुजर्रिद गाह अदीबों, शाइ’रों और फ़न-कारों का मीटिंग प्वाईंट था। उसमें फाइन आर्ट्स अकैडमी भी थी और रिसाले का दफ़्तर भी। हम लोग अदीबों, शाइ’रों और फ़न-कारों को देखने जाते थे। उन दिनों बा’ज़ अदीबों-ओ-शाइ’रों की शुहरत फ़िल्मी अदाकारों से कम थी। बैचलर क्वार्टर्स के मुक़ाबिल एक बड़ा शराब-ख़ाना भी था जहाँ सस्ती शराब फ़रोख़्त होती। अक्सर फ़नकार वहाँ चले जाते।

    जेब गर्म होती तो अक्सर अदीब-ओ-शाइ’र मैकदे का रुख़ करते। शहर का ये सबसे क़दीम शराब-ख़ाना था। एक तो सोहराब ख़ालिस शराब बेचता था। दूसरे वो अदीबों-ओ-शाइ’रों के मिज़ाज से अच्छी तरह वाक़िफ़ भी था। किसी अच्छे शे’र पर दाद भी दे दिया करता। पारसी वैसे भी ख़ुश-अख़्लाक़ और मुहज़्ज़ब होते हैं। फिर सोहराब सिर्फ़ शराब और सोडे की अस्ल क़ीमत लेता था। पानी और गिलास वो ख़ुद फ़राहम करता। अंदर टेबल और कुर्सियाँ भी थीं। गज़ग का कोई इंतिज़ाम था। लड़के टोकरियों में ग्रीन पीस, भुनी हुई मूंगफली, चिड़वा लिए घूमते। लोग हस्ब-ए-ज़रूरत उनसे चीज़ें ख़रीद लेते। दूसरे बार्स के मुक़ाबले में “मैकदा” निस्बतन कम-ख़र्च था।

    हमने जिस वक़्त “मैकदा” जाना शुरू’ किया। शहर कई इन्क़िलाबात से गुज़र चुका था। कम्यूनिस्टों की शाही के ख़िलाफ़ जद्द-ओ-जहद, तेलंगाना तहरीक कामयाब तो हुई लेकिन शाही का ख़ात्मा कांग्रेस की नई हुकूमत ने किया था। पुलिस ऐक्शन ने मुसलमानों को हवास-बाख़्ता कर दिया था। मज़हब के नाम पर मुल्क की तक़सीम से पूरी क़ौम संभली भी थी कि ज़बान की बुनियाद पर रियासतों की नई हद-बंदियाँ की गईं। रियासत के तीन टुकड़े कर दिए गए। बरसों गुज़र जाने के बा’द भी दूसरी रियासतों से जुड़े ये टुकड़े उनका हिस्सा बन सके। अपनी मुस्तहकम तहज़ीब की बुनियाद पर रियासत के ये हिस्से टाट में मख़मल के पैवंद लगते थे। मज़हब के नाम पर तक़सीम को अ’वाम ने क़ुबूल नहीं किया तो ज़बान के नाम पर रियासतों की नई हद-बंदियों को भी एक ही ज़बान बोलने वालों ने क़ुबूल नहीं किया। दो मुख़्तलिफ़ कल्चर। जिस शहर की तारीख़ नहीं होती उसकी तहज़ीब भी नहीं होती। नए आने वालों की कोई तारीख़ थी तहज़ीब। एक मुस्तहकम हुकूमत का दार-उल-ख़िलाफ़ा सियासी जब्र की वज्ह से उनके हाथों में गया। वो पागलों की तरह ख़ाली ज़मीनों पर आबाद हो गए। एक तरफ़ बड़ी-बड़ी हवेलियाँ हिस्से बख़रे करके फ़रोख़्त कर दी गईं। ज़मीन बेचना यहाँ की तहज़ीब के ख़िलाफ़ था। शर्मा-शर्मी में क़ीमती ज़मीनें कौड़ियों के मोल फ़रोख़्त कर दी गईं। आने वाले ज़मीनें ख़रीद-ख़रीद कर करोड़पती बन गए। नए इ’लाक़ों को ख़ूब तरक़्क़ी दी।

    किसी कोठी में सद्र टप्पा-ख़ाना गया, किसी हवेली में इंजिनियरिंग का ऑफ़िस, किसी हवेली में ए.जी. ऑफ़िस तो किसी हवेली में बड़ा होटल खुल गया। बाग़ात की जगह बाज़ार ने ले ली। लेडी हैदरी क्लब पर सरकारी क़ब्ज़ा हो गया। किंग कोठी के एक हिस्से में सरकारी दवाख़ाना गया। जेल की इ’मारत मुनहदिम करके दवाख़ाना बना दिया गया। रोमन तर्ज़ की बनी हुई थेटर में अब बहुत बड़ा माल खुल गया था। हवेलियों, बाग़ात, झीलों और पुख़्ता सड़कों के शहर की जगह दूसरे आ’म शहरों जैसा शहर उभर रहा था जिसकी कोई शनाख़्त थी।

    चंद बरसों में सब कुछ बदल गया। जो तहज़ीब के नुमाइंदे थे, जो तहज़ीब को बचा सकते थे उनमें से कुछ अपनी ज़मीनों को छोड़ कर सरहद के उस पार जा बसे थे और कुछ मग़रिबी ममालिक में आबाद हो गए। वली अ’हद ने एक मग़रिबी मुल्क को अपना मस्कन बना लिया। रिआ’या की मुहब्बत का ये हाल था कि जब भी वो इस शहर को आते तो इस तरह ख़ुशी से पागल होने लगते थे जैसे कोई फ़ातिह अपनी सल्तनत को लौटा हो। शाही ख़ानदान के अफ़राद को तहज़ीब की फ़िक्र थी। उमरा को और अ’वाम को। “मैकदे” के अतराफ़ का माहौल भी तब्दील हो गया। राजा जी की हवेली में सरकारी दवाख़ाना गया। सामने की कोठी में बैंक का मेन ऑफ़िस, रेज़ीडेन्सी में वीमेन्स कॉलेज, ड्रामा थेटर फ़िल्मी थेटर में तब्दील हो गया। शहर का नक़्शा तेज़ी से बदलता जा रहा था। तेलुगू फ़िल्म इंडस्ट्री मद्रास से यहाँ मुंतक़िल हो गई थी।

    शहर की चमक-दमक बढ़ गई। फ़िल्मी स्टूडियोज़, 70 ऐम.ऐम. थेटरज़, बड़े-बड़े मॉल्स, कपड़ों और ज़ेवरात की दुकानें। सब उनका था। सब पर उनकी छाप नुमायाँ हो रही थी। उनकी ग़िज़ाओं के होटल गए थे जहाँ मुतवस्सित तबक़े का आदमी पेट भर खाना खा सकता था। “फ़ुल मील” (full meal) मिलता था। वो आख़िर में बड़े इन्हिमाक के साथ चावल में दही मिलाकर खाने लगते तो अक्सर दही बह कर कोहनियों तक जाता। सड़कों और कॉलेजस में साँवले और सियाह-फ़ाम लड़के लड़कियों की ता’दाद बढ़ती जा रही थी। बड़ी-बड़ी काजल भरी आँखें... नमकीन चेहरे... पुश्त पर ब्लाउज़ दूर तक खुला हुआ... पता नहीं उन्हें पीठ की नुमाइश का शौक़ क्यों था? मुक़ामी लोग लैंड ग्रैबर्स की फ़रोख़्त की हुई ख़ुश्क तालाबों की ज़मीन पर मकानात बनाने पर मजबूर हो गए थे। हर बारिश क़यामत बन कर आती।

    मुसलसल फ़सादाद ने पुराने शहर की साख को बहुत मुतास्सिर किया था। हफ़्तों कर्फ़यू लगा रहता। हर तहवार-ओ-ई’द पर लोग सहम जाते। इस सूरत-ए-हाल से तंग आकर जो पुराना शहर छोड़ सकते थे। वो नए इ’लाक़ों में जा बसे। सारी रौनक, बड़ी-बड़ी सड़कें, फ़्लाई ओवर, हाईटेक सिटी सब कुछ नए शहर में थे। तमाम दफ़ातिर नए शहर को मुंतक़िल कर दिए गए थे। पुराने शहर में कुछ तारीख़ी इ’मारतें रह गई थीं। मशहूर-ए-ज़माना चूड़ियों का लाड बाज़ार था। पत्थर से ता’मीर की गई मार्किट पत्थर गिट्टी थी। ई’दों पर सारी रात ये बाज़ार जगमगाया करते। दो तहज़ीबों ने अलग-अलग जज़ीरे बना लिए थे। जब भी रियासत के मुक़ामी अफ़राद को महरूमी का एहसास बहुत सताता तो वो अ’लैहिदा रियासत का मुतालिबा करने लगते। इलैक्शन के ज़माने में कोई बाग़ी लीडर इस मसअले को गर्मा देता। कुछ महीनों ख़ूब हमा-हामी रहती फिर जज़बात सर्द पड़ जाते।

    “मैकदे” का इ’लाक़ा भी अब डाउन टाउन बनता जा रहा था। पुराने शहर से नए इ’लाक़े को मुंतक़िल होने वालों में ख़ुद मैं भी शामिल था। (“दख़्मा” में पारसी अभी तक मसरूफ़ थे। कोई बाहर नहीं आया था।)

    उन दिनों अदीबों का कोई मीटिंग प्वाईंट नहीं था। सब बिखर गए थे। हमारे दौर को इंतिशार का अ’हद मान लिया गया था। फ़र्द को मशीन क़रार दे दिया गया था और तन्हाई को हमारा मुक़द्दर। ये तस्लीम कर लिया गया था कि तारीख़ी, तहज़ीबी, क़ौमी, मुआ’शरती, जज़्बाती-ओ-ज़हनी हम-आहंगी की सारी रिवायतें मुनहदिम हो चुकी हैं। पूरा अदब दरून-ए-ज़ात के कर्ब में मुब्तिला था। इसलिए अब ज़रूरी नहीं था कि सब किसी एक ही बार या होटल में मिलें। शहर बहुत फैल गया था। जगह-जगह वाइन शॉप्स खुल गए थे। हम किसी दोस्त के घर जमा हो जाते। किसी क़रीबी दुकान से शराब मंगवा ली जाती। फ़ोन करने पर होटल से “गज़ग” भी पहुँची जाती। होम डिलीवरी का रिवाज हो गया था। अब “मैकदा” जाना ही नहीं होता था।

    लेकिन वो क्यों सोच रहा है शहर की तहज़ीब के बारे में, शहर के बारे में? शायद इसलिए कि “मैकदे” को बंद देखकर उसे बड़ा शाक लगा था। जैसे तहज़ीब का एक हिस्सा मर गया हो।

    मेरा दोस्त मुशीर जो बेहतर ज़िंदगी का ख़्वाब आँखों में सजाए अमरीका मुंतक़िल हो गया था। बीस बरस बा’द अमरीका से आया। अपना शहर छोड़कर बाहर बस जाने वाले एक तो नास्टालजिक हो जाते हैं दूसरे चैरिटी करने के लिए उतावले होते हैं। वो ऐसी हर जगह जाना चाहता था जहाँ बीस बरस क़ब्ल हम जाया करते थे। हर जगह साथ चलता बहुत चीज़ों की तब्दीली पर उदास हो जाता। ज़ाहिर है शहर बहुत तेज़ी से बदला था और उस पर ग्लोबलाइज़ेशन की परछाईयाँ साफ़ नज़र रही थीं। उसे इसलिए भी मायूसी हो रही थी कि जो चीज़ें वहाँ तरक़्क़ी-याफ़्ता शक्ल में देखकर आया है यहाँ उसी की नक़्ल की जा रही है। शहरों की शनाख़्त तेज़ी से ख़त्म हो रही है। सब शहर एक जैसे हो रहे हैं। मुझे याद आया कि पुरानी बाक़ियात में सिर्फ़ “मैकदा” बचा है जिसमें कोई तब्दीली नहीं आई। वही इ’मारत, वही इंतिज़ाम, वैसे ही काउंटर, वही मुस्तक़िल गाहक... जो बोतल ख़रीद कर हस्ब-ए-ज़रूरत पीते हैं और बची हुई शराब की बोतल महफ़ूज़ करवा देते हैं। उस बोतल से एक क़तरा भी कम होता... दियानत-दारी “मैकदे” की सबसे बड़ी ख़ूबी थी। मुस्तक़िल ग्राहकों को यहाँ बड़ी अपनाइयत महसूस होती थी। मुशीर के यहाँ रहने तक हम रोज़ाना “मैकदा” जाया करते थे। एक ख़ास वक़्त तक शग़्ल करते फिर अपनी राह लेते। पता नहीं मुशीर को मैकदे की याद क्यों नहीं आई। अमरीका से आने के बा’द उसने एक-बार भी शराब का नाम नहीं लिया था। मैंने उससे कहा कि उसे एक ऐसी जगह ले चलूँगा जो बिल्कुल नहीं बदली। दूसरे रोज़ मैं उसे “मैकदा” ले आया।

    लेकिन “मैकदा” बंद था। बरसों पहले “मैकदा” की पेशानी पर उभरे हुए लफ़्ज़ों में MAI KADA EST: 1904 उसी तरह मौजूद था नीचे उर्दू में भी “मैकदा” लिखा था। आस-पास दरियाफ़्त किया तो पता चला काफ़ी दिनों से बंद है। मुझे बड़ा शाक लगा। अपनी बे-ख़बरी पर अफ़सोस भी हुआ। पता नहीं ये सब कब और कैसे हुआ? ऐसा महसूस हुआ जैसे तहज़ीब का एक हिस्सा मर गया हो।

    पता नहीं सोहराब की सेहत कैसी है? कारोबार में नुक़्सान तो नहीं हुआ? किसी नागहानी मुसीबत में तो नहीं फंस गया?

    हम लोगों ने सोहराब के घर का पता चलाया। उसके घर पहुँचे। क़दीम पारसी तर्ज़ का मकान था। मुलाज़िम ने ड्राइंगरूम में बिठाया। हम दीवार पर टंगी तस्वीरें देखने लगे। सोहराब ने इंतिज़ार नहीं करवाया।

    “आप!”, वो मुझे देख कर चौंक पड़ा।

    “हाँ। और इन्हें पहचाना। मुशीर!”

    “ओह याद आया। आप तो पूरे अंग्रेज़ हो गए।”

    “अमरीका में जो रहता है।”, मैंने हँस कर कहा।

    “आप तो यहीं रहते हैं ना?”, उसने हँसकर कहा।

    मुझे शर्मिंदगी हुई।

    “कहिए क्या लेंगे?”

    “नहीं मैं दिन में नहीं लेता”, मैंने कहा, “और मुशीर तुम?”

    “नहीं मैं भी नहीं लूँगा।”

    “कोई तकल्लुफ़ नहीं।”, उसने मुलाज़िम से कुछ कहा।

    “आप लोगों को देखने आँखें तरस गईं।”

    “मैं शर्मिंदा हूँ।”

    “हाँ शहर भी तो बहुत फैल गया है।”

    “आपकी सेहत कैसी है।”

    “अच्छा हूँ।”

    “बिज़नेस में नुक़्सान हुआ?”, मैंने रास्त पूछ लिया।

    “नहीं।”

    “फिर मैकदा?”

    “छोड़िए कोई कब तक बिज़नेस करता रहे। आदमी को आराम भी करना चाहिए ना!”

    इतने में मुलाज़िम ट्रे सजा कर ले आया।

    “ख़ास फ़्रांसीसी शराब है। इतने दिन बा’द मिले हैं, इनकार कीजिए!”

    हम लोग इनकार कर सके। वाक़ई’ बड़ी नफ़ीस शराब थी। धीरे-धीरे सुरूर आने लगा।

    “आप बताईए”, मुशीर से मुख़ातिब हो कर उसने कहा, “अमरीका में कैसी गुज़र रही है?”

    “पहले जैसा तो नहीं है। यहाँ की घुटन से भागे कुछ दिन तो अच्छा लगा अब फ़िज़ा पर हब्स छाया हुआ है। शक के साये में ज़िंदगी गुज़ारना कितना मुश्किल हो जाता है। इसका तजरबा पहले

    कभी नहीं हुआ था।”

    “सारा मंज़र-नामा ही बदल गया।”

    मैंने कहा, “वतन के लिए जद्द-ओ-जहद, बैन-उल-अक़वामी फ़ैसलों की जारिहाना ख़िलाफ़-वर्ज़ियाँ, दहशत-गर्दी सब गड-मड हो गए हैं। एक पूरी क़ौम को दहशत-गर्दी के जाल में फंसा दिया गया। एक आग सी लगी हुई है जिसमें पता नहीं कौन-कौन हाथ सेंक रहा है। लेकिन मुल्ज़िम तैयार है जुर्म कहीं भी किसी ने किया हो। निशान-ज़दा मुल्ज़िमीन तैयार हैं। पुलिस ने भी ज़ुल्म के सारे हर्बे आज़मा लिए। अ’दालतें कभी छोड़तीं हैं कभी नहीं छोड़तीं। और बेवक़ूफ़ क़ौम दलदल में धँसती ही जा रही है।”

    “आप तो जज़्बाती हो गए। तारीख़ अपने रंग बदलती रहती है। देखिए ईरान से मुसलमानों ने हमको बाहर किया था। स्पेन में मुसलमानों को बाहर किया गया। इस रियासत को हम आसिफ़ जाही सल्तनत के चर्चे सुनकर आए थे। हमारे अज्दाद को सालार जंग अव्वल ने मदऊ’ किया था। इंतिज़ामिया में हमें शामिल किया गया। मीर महबूब अली ख़ान ने हमें ख़िताबात से नवाज़ा था। नवाब सोहराब नवाज़ जंग, फ्रॉम जीजंग, फ़रीदून-उल-मुल्क वग़ैरह-वग़ैरह। फ़ारसी यहाँ की सरकारी ज़बान थी और उर्दू अ’वामी ज़बान। बिरियानी, नवाबों और मोतियों का शहर। गुजराती, मारवाड़ी, सिंधी सभी बसे थे। सबको आज़ादी हासिल थी। सबने अपनी-अपनी इ’बादत-गाहें ता’मीर कर लीं। शाही ख़ज़ाने से मदद भी मिलती थी। हमारे लिए तो बहुत साज़-गार माहौल था। बड़ा अ’जीब मुआ’शरा था।”, उसने हँसते हुए कहा, “आपको याद है? नहीं आप तो बहुत छोटे रहे होंगे। थेटर में जब हम फ़िल्म देखने जाते तो दरमियान में एक स्लाइड दिखाई जाती। “वक़्फ़ा-बराए-नमाज़।” लोग जल्दी-जल्दी फ़र्ज़-ए-नमाज़ पढ़ कर थेटर लौट आते। रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत गई वाला मुआ’मला था।”

    “आपको शाही दौर पसंद था?”

    “नहीं रवा-दारी पसंद थी। मुआ’शरे का खुलापन अच्छा लगता था। अब तो कट्टरपन गया है हर क़ौम में!”

    “हाँ मुसलमान भी ख़ुदा-हाफ़िज़ की जगह अल्लाह हाफ़िज़ और नमाज़ के बजाए सलात कह कर बहुत ख़ुश होने लगे हैं।”, मैंने कहा।

    “मैकदा”

    “आपने क्यों बंद कर दिया?”, मुशीर ने अचानक पूछा।

    “अरे हाँ मैं तो अस्ल बात ही भूल गया।”, मैंने चौंक कर कहा।

    “छोड़िए।”

    “नहीं बताईए क्या हुआ था?”, मैंने इसरार किया। काफ़ी देर तक वो ख़ामोश रहा। फिर धीरे से कहा, “मुसलमानों ने हुकूमत से शिकायत की कि “मैकदा” मस्जिद से बहुत क़रीब है जो ख़िलाफ़-ए-क़ानून है।”

    मैं सन्नाटे में गया। तो ये मुसलमानों का कारनामा है। मैंने सोचा।

    “लेकिन मस्जिद और मैकदा बरसों से उसी जगह हैं फिर?”

    “वो शाही दौर था। अब जम्हूरियत है। मुसलमान इस मुल्क की सबसे बड़ी अक़ल्लियत हैं। इसका ख़याल रखना हुकूमत का फ़र्ज़ भी तो है।”

    “मुसलमान भी बहुत कट्टर होते जा रहे हैं।”, मुशीर ने कहा। नशा चढ़ने लगा तो हम कट्टर मुसलमानों को नवाज़ने लगे।

    “मुसलमान ही क्यों”, सोहराब ने हमें रोका, “सब का यही हाल है। ख़ुद मुझे देखिए। मैंने शादी नहीं की क्यों कि पारसी ग़ैर-मज़हब में शादी नहीं कर सकते। इस मज़हबी शर्त की वज्ह से हमारी ता’दाद घटती जा रही है। अक्सर ताख़ीर से शादी करते हैं या नहीं करते। अब पूरे शहर में बारह सौ पारसी रह गए हैं।”

    “वाक़ई?”

    “हाँ दूसरा मसअला मौत का है। वही पुराना दख़्मा। बरहना ना’श को जलती धूप में छोड़ देते हैं। अब तक़रीबन बीस बरस से गधों ने शहर का रुख़ करना छोड़ दिया है। अब मुख़्तलिफ़-उल-ख़याल ग्रुप बन गए हैं कोई कहता है ना’श को दफ़्न कर देना चाहिए। कोई जलाने के हक़ में है। इलेक्ट्रिक भट्टी के बारे में भी ग़ौर किया जा रहा है। कुछ लोग गिद्धों की Artificial Incimination के ख़ुतूत पर अफ़्ज़ाइश के बारे में सोच रहे हैं। मैं तो पुराने तरीक़े को तरजीह दूँगा। कहते हैं कोई नेक आदमी मरता है तो गिध आते हैं। पता नहीं हमारा क्या हश्र होगा।! आपके अ’क़ीदे के मुताबिक़ शराब बेचने वाला जहन्नुमी होता है ना?”, उसने ठंडी सांस भरी।

    “हाँ... और शराब पीने वाला भी। अल्लाह मुआ’फ़ करे!”, मैंने कहा।

    मुलाज़िम ने आकर इत्तिला दी कि खाना तैयार है।

    “आपने तकल्लुफ़ क्यों किया। इतनी अच्छी शराब पीने के बा’द खाने की बिल्कुल इशतिहा नहीं है।”

    “पारसी डिशेस बनवाई हैं आपके लिए...”

    हम खाने की मेज़ पर गए। ज़िंदगी में पहली बार पारसी डिशेस खाने का इत्तिफ़ाक़ हो रहा था। इसलिए भी ज़ियादा इनकार कर सके।

    “ये ब्राउन राईस है। ये धनसक ये सासइन मच्छी और ये कचूमर सलाद।”

    ब्राउन राईस बासमती चावल की उ’म्दा डिश थी जिसमें चीनी और काली मिर्च शामिल थी। धनसक तूर की दाल, मूंग की दाल और उड़त की दाल, अंडे, टमाटर और खीरे से बनाई गई डिश थी। सासइन मच्छी में बेहतरीन पमफ़र्ट थी साथ में करारे चिकन पारचा भी थे। खाना वाक़ई’ लज़ीज़ था। आख़िर में मवामी बोई नाम का मछली का मीठा पेश किया गया। हमने बहुत सैर हो कर खाया। सोहराब की मेहमान-नवाज़ी ने हमें बहुत मुतास्सिर किया।

    और आज इत्तिला मिली कि सोहराब मर गया।

    मुझे बार-बार यही ख़याल आता था कि “मैकदा” के बंद हो जाने का उस पर बहुत असर हुआ होगा। इसलिए शायद वो ज़ियादा जी सका हो। मैं Guilty महसूस कर रहा था। उसका अपना कोई था। दूर के रिश्तेदार और चंद अहबाब थे।

    पारसी बाहर रहे थे। सोहराब की बरहना ना’श को दख़्मा की छत पर छोड़ दिया गया होगा। मैं बार-बार आसमान की तरफ़ देखने लगा। बहुत से पारसी भी रुक गए थे। अगर गिध आएँ तो? क्या सोहराब की ना’श धूप में सूखती रहेगी? काश सोहराब ने इलेक्ट्रिक भट्टी को तरजीह दी होती। मैं सोच रहा था।

    मैंने ग़ैर-इरादी तौर पर आसमान की तरफ़ देखा। मुझे बचपन का वो मंज़र दुबारा नज़र आने लगा। गिद्धों का एक झुंड तेज़ी से दख़्मा की तरफ़ रहा था।

    पारसियों के चेहरे ख़ुशी से खिल उठे। बीस बरस बा’द ये मंज़र लौटा था।

    “पता नहीं कहाँ से आए हैं?”, वो एक दूसरे से सवाल कर रहे थे।

    “अगर फ़र्श पर चीनी गिर जाए तो च्यूँटियाँ कहाँ से आती हैं?”, कोई मेरे कान में फुसफुसाया।

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