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दो मुंही

MORE BYमुमताज़ मुफ़्ती

    स्टोरीलाइन

    कहानी दोहरे चरित्र से जूझती एक ऐसी औरत के गिर्द घूमती है, जो बाहरी तौर पर तो कुछ और दिखाई देती है मगर उसके अंदर कुछ और ही चल रहा होता है। अपनी इस शख़्सियत से परेशान वह बहुत से डॉक्टरों से इलाज कराती है मगर कोई फ़ायदा नहीं होता। फिर उसकी एक सहेली उसे त्याग क्लीनिक के बारे में बताती है और वह अपने शौहर से हिल स्टेशन पर घूमने का कहकर अकेले ही त्याग क्लीनिक में इलाज कराने के लिए निकल पड़ती है।

    सोचती हूँ कि मैं त्याग क्लीनिक में गई ही क्यों? क्या फ़ायदा हुआ भला? अपनी बीमारी दूर कराने के लिए गई थी, सारी मख़लूक़ को बीमार कर के गई। वही बात हुई ना। बुढ़िया बुढ़िया तेरा कूबड़ दूर हो जाये या सारी दुनिया कुबड़ी हो जाये।

    लेकिन त्याग बीती सुनाने से पहले में अपना तआरुफ़ तो करा लूं। मैं सांवरी हूँ। तीस साल की। सलमान से मैरिज हुए दो साल हुए हैं। लव मैरिज थी। मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल आम से हैं यानी एवरेज से कुछ बेहतर। हाँ ज़ेह्न की तीखी हूँ। काठी मज़बूत है जिस्म तना तना... लेकिन नहीं मैं ग़लत बयानी कर रही हूँ। कस्र-ए-नफ़सी से काम ले रही हूँ। मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल एवरेज सही लेकिन मुझमें बड़ा चार्म है। राह चलते सर उठा कर, गर्दन मोड़ मोड़ कर देखते हैं तो यूं देखते हैं जैसे सर से पांव तक उल्लू के पट्ठे बन गए हों। बस में नहीं रहते, कन्ट्रोल्ज़ हाथ से छूट जाते हैं। डोलते हैं, पतवार छूट जाये तो कश्ती डोलती है ना।

    मैं लड़कीपन से निकल आई हूँ। लेकिन अभी लड़की ही हूँ। औरत नहीं बनी। अल्लाह करे कि बनूँ।

    अजीब सा आलम है। जैसे शाम को डिस्क होती है, रात नहीं पड़ी। दिन भी नहीं रहा लेकिन दिन दिन सा लगता है।

    और एक बात तो मैं भूल ही गई। मुझमें एक अजीब सी बात है। जीती हूँ, भरपूर जीती हूँ। थ्री डाइमेनशनल ज़िंदगी से इश्क़ है। साथ ही साथ ख़ुद को जीते हुए देखती भी हूँ। परखती हूँ। सयाने कहते हैं, दोनों बातें एक साथ नहीं होतीं। नहीं हो सकती। या तो जीओ या ख़ुद को जीते रखो। वही ऐट दी केक ऐंड हैव एट वाली बात है। पता नहीं मेरी बात क्यों अलग है। केक खाती हूँ, पास भी रखे रहता है।

    है, मुसीबत है। बड़ी मुसीबत है। अपने बरताव की तफ़सीलात पर नज़र रखना बहुत तकलीफ़दह होता है। मसलन मैं झूट बोलती हूँ। सारी दुनिया बोलती है। मैं किस शुमार-क़तार में हूँ भला। लोगों के लिए झूट एक मासूम सी चमकीली सी आरामदेह बात है। है, ऐसा है मुझे तो पता था... लो मैंने ख़त लिखा था। पता नहीं क्यों नहीं मिला। मुझे तो उस लड़के से जज़्बाती लगाव नहीं। ऐसे ऐसे आरामदेह झूट। लेकिन ऐसे झूट मेरे लिए आरामदेह नहीं होते। कांफ्लिक्ट का बाइस बन जाते हैं। इधर झूट बोला, उधर अंदर से आवाज़े उठे। झूट, झूट, झूट।

    नहीं, ये मिसाल ग़लत है। मुझे ये मिसाल नहीं देनी चाहिए थी। मैंने तो कभी झूट बोला ही नहीं। क्यों बोलूँ ? झूट वो बोलते हैं जिन्हें डर होता है कि सुनने वाले को सच कड़वा लगेगा और वो थू थू करेगा। मैं तो उन लड़कियों में से हूँ जिनके मुँह से कड़वा सच सुनकर भी सुनने वाला बदमज़ा नहीं होता। फिर झूट बोलने का फ़ायदा? हाँ तो मैं कह रही थी कि मुझमें बड़ा चार्म है। राह चलते कोई बांका अच्छा लगे तो ऐसी छलकी छलकी भरपूर निगाह डालती हूँ कि उसका सारा कलफ़ उतर जाता है। 'गफ़या' हो कर गिर पड़ता है। फिर मेरे अंदर से आवाज़ आती है। तत् तत्। बेचारा, अपने आपसे भी गया।

    मुझे पता है कि मैं बड़ी ताक़तवर निगाह रखती हूँ। इतनी सादगी से तजज़िया करती हूँ कि कोई उसे नख़रा मान ही नहीं सकता। समझता है इनोसेंस ही इनोसेंस हूँ। मेक-अप करती हूँ लेकिन क्या मजाल कोई समझे कि मेक-अप है। समझते हैं, मेक-अप से बेनयाज़ हूँ। लो, वो मेक-अप ही किया जो मेक-अप नज़र आए। फटे मुँह ऐसे मेक-अप का।

    बस मेरी तरह ही मुश्किल है। मेरे अंदर कुछ है पता नहीं क्या है, पर है। जिस तरह मदफ़ून खज़ाने पर साँप होता है। जिस तरह एहराम मिस्र के अंदर जादू टोना किया हुआ है। वैसा ही कुछ है।

    उंह, ग़लत कह गई। मेरे अंदर एक नहीं दो हैं। दो रूहें हैं। कभी एक कंट्रोल पर बैठ जाती है कभी दूसरी। मैं दो मुंही साँप की तरह हूँ। कभी दो मुंही देखी है? इसके दो सर होते हैं। एक सर की जानिब, दूसरा दुम की जानिब। सर उठाया, चल पड़ी, फिर रुक गई। सरज़मीन पर रख दिया। फिर दुम वाला सर उठाया और उस जानिब चलने लगी। इस जानिब, कभी उस जानिब, पता नहीं चलता कि कब किस जानिब चलने लगूँगी। पेश ख़बरी से आरी हूँ। मतलब है Unpredictable हूँ। बस यही मेरी मुश्किल है। यही मेरी बीमारी है।

    लेकिन ठहरिये। शुरू शुरू में मुझे पता था कि Unpredictability बुरी चीज़ है। उल्टा मैं तो समझती थी कि ये बड़ी प्यारी ख़सुसीयात है। आपको क्या पता, जवान लड़की हो, छेड़ देने वाली निगाह हो। बेनियाज़ी से मख़मूर हो, ऊपर से बरताव Unpredictable हो। फिर तो वो तलवार बन जाती है।

    बचपन से ही दो दिली थी। कभी तो अपनी मिस इतनी अच्छी लगती। इतनी अच्छी लगती कि मैं उसके वारे न्यारे जाती। कभी आँख उठा कर देखती तो ऐसे देखती जैसे उकताई थकी हारी बेजान औरत हो। कभी माँ-बाप बड़े प्यारे लगते। कभी ऐसा लगता जैसे क़साई हूँ।

    दो एक मुहब्बतें भी हुईं। कभी मुहब्बत के जज़्बात से छलकती, छलके जाती। कभी सूखी काठ हो कर रह जाती।

    ये दो-धारी पन बचपन ही से मौजूद था। दो स्वादी थी। खट-मीठी, गंगा-जमुनी, गर्म-ठंडी, उल्टी-सीधी, सभी कुछ थी लेकिन उन दिनों मैं इस बात को अहमियत देती थी। जवान हुई तो दो मुंही उभरती आई। उभरती आई... छा गई। फिर दफ़्अतन मुझे एहसास हुआ। डर गई, बुरी तरह से डर गई।

    उन दिनों मैं सलमान की मुहब्बत में चूर थी। इतनी लत-पत थी कि दूसरा सर उठाने का ख़्याल ही नहीं आया था। इस दीवानगी में डेढ़ साल गुज़र गया। फिर एक रोज़ मैंने जो सर उठा कर देखा तो सामने सलमान था। पता नहीं कौन था। वो रंग, वो रूप, बेजान, जिससे मुश्क काफ़ूर की बू आती थी। मैं डर गई। अपनी दुनिया तबाह होने के ख़ौफ़ से डर गई। ख़ुद को बचाने के लिए मैंने झटपट सलमान से शादी कर ली। शादी की हमा-हामी में बात फिर चल निकली।

    बहरहाल मुझे एहसास हो गया कि ये एक बीमारी है। मैं मेंटल हूँ। मैंने इस एहसास को बहुत दबाया। जितना दबाती, उतना उभरता। मैंने बड़े जतन किए। डाक्टरों से मिली, हस्पतालों में इस क़दर घूमी फिरी कि लोग मुझे हॉस्पिटल वर्कर समझने लगे। स्पेशलिस्ट क्या दवा देते, उन्होंने मेरी बीमारी को समझा ही नहीं। मैंने बहुत समझाया लेकिन समझाना आसान होता है, समझना बहुत मुश्किल, डाक्टरों से मायूस हो गई।

    शादी से पहले तो सलमान मेरी Unpredictable पर इस क़दर मस्हूरकुन होता था जैसे साँप बीन पर होता है। मैं समझती थी कि शादी के बाद भी यूँही फन फैला कर मेरे हेरे फेरे लेता रहेगा। लेकिन जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया, उसका पेश ख़बरी का मुतालिबा बढ़ता गया। उसे मेरे दो मुंही पर ग़ुस्सा आने लगा। मैं घबरा गई, सोचती रही, सोचती रही। उधर मैं भी तो एक थी। मेरे अंदर की दूसरी मेरे कान में सरगोशी करने लगी। हटाओ सलमान को, कोई और सहमी जो तेरे दो मुंही पन पर मस्हूर हो जाये। अपने गिर्द कोई और फन फैला देखो। दुनिया में नौजवान सभी अदलती बदलतियों पर जान छिड़कते हैं। ये सरज़मीन पर रख दो, दूसरा उठाओ।

    दूसरा सर उठा कर सलमान की तरफ़ देखती तो वो सपाट नज़र आता। रूखा फीका। है... क्या मैं इस पर जान देती रही?

    फिर वो वाक़िया पेश गया और मैं लरज़ कर रह गई।

    एक रोज़ सलमान का एक नया दोस्त घर गया। उस वक़्त सलमान मौजूद था। मैं तो उसे देखकर शश्दर रह गई। वही... वही दो साल पहले का सलमान जिसे देखकर ख़ुद को मैंने उसके क़दमों में डाल दिया था। वही रंग, वही रूप, वही शोख़ी, वही ताज़गी। मैंने अनजाने में एक भरपूर छेड़ने वाली निगाह डाल दी। उसने फन फैलाया और बीन के हेरे फेरे लेने लगा। ऐन उस वक़्त सलमान गया। मैं जाग पड़ी, होश में आई तो देखा कि मेरी 'मैं' उलथ पुलथ हो रही है। डर गई। बुरी तरह से डर गई। उस रोज़ मैंने फ़ैसला कर लिया कि त्याग क्लीनिक जाऊँगी। ज़रूर जाऊँगी, चाहे कुछ हो जाये।

    छः महीने पहले त्याग क्लीनिक के मुताल्लिक़ मेरी एक सहेली ने मुझे बताया था। वो ख़ुद ज़ेह्नी बीमारी में मुब्तला थी। एक महीना त्याग क्लीनिक में ज़ेर-ए-इलाज रही। सेहत मंद हो कर लौटी।

    दो पहाड़ीयों में त्याग एक क़स्बा था। वहां डाक्टर दाऊद ने ज़ेह्नी बीमारों के लिए एक हस्पताल खोल रखा है। डाक्टर दाऊद एक ज़मींदार है। विलायत से एम.डी. कर के आया है। मक़सद प्रैक्टिस करना नहीं बल्कि इलाक़े के लोगों की ख़िदमत करना है। उम्र-भर के तजुर्बे और तहक़ीक़ के बाद उसने अपना तरीक़-ए-इलाज डिस्कवर किया है। जड़ी बूटियों और मशरूम्ज़ से ईलाज करता है। उसकी शोहरत दूर दूर तक फैल गई। दूर दूर से मरीज़ आते हैं। उनकी रिहायश के लिए डाक्टर ने एक होस्टल तामीर किया है।

    यहां तक तो बात ठीक थी लेकिन मेरी सहेली ने बताया है कि ईलाज शुरू करने से पहले वो मरीज़ों से ज़बानी और तहरीरी हलफ़ लेता है कि ईलाज के दौरान में बग़ैर चूं-ओ-चरा डाक्टर की हिदायत पर अमल करूँगा। इस दौरान मैं ज़ाती सोच-ओ-बिचार को अमल में नहीं लाऊँगा। मैं सच्चे दिल से अपनी विल सरेंडर करता हूँ। ये सुनकर में डर गई। नहीं, ये मुझसे नहीं होगा। मैं सभी कुछ त्याग सकती हूँ, अपनी विल नहीं त्याग सकती। मेरे पास ले देकर इक 'मैं' ही तो है। उसे में कैसे त्याग दूं ? कैसे किसी दूसरे शख़्स के ताबे कर दूं? नहीं नहीं, ये नहीं हो सकता। मेरी सहेली ने मुझे बहुत समझाया कि ज़ेह्नी बीमारी के ईलाज में सबसे बड़ी रुकावट मैं ही तो होती है। उसने बड़ी दलीलें दीं लेकिन मैं मानी।

    इस से कुछ देर पहले मेरे चचा ने मुझे एक बुज़ुर्ग की ख़िदमत में भेजा था। उन्होंने कहा कि सांवरी बेटी सारी मुश्किलात दूर हो जाएँगी।

    बुज़ुर्ग की ख़िदमत में पहुंची। उन्हें तफ़सील से अपनी ज़ेह्नी कैफ़ियत सुनाई। सुनकर बोले, बेटी, सब ठीक हो जाएगा। हमारी बैअत कर लो।

    बैअत क्या होती है? मैंने पूछा।

    बोले, बैअत का मतलब है। हवालगी, सुपुर्दगी, ख़ुद को हमारे सपुर्द कर दो।

    कैसे सपुर्द कर दूं? मैंने पूछा।

    बोले, अपनी 'मैं' त्याग दो। सारा शहर तुम्हारी 'मैं' का है। वो ख़ुद-सर हो गई है। बट कर दो हो गई है। जैसे साँप की ज़बान बट कर दो हो जाती है।

    ग़ुस्से में, मैं खौलने लगी और जवाब दिए बग़ैर भाग आई।

    हाँ तो उस रोज़ मैंने फ़ैसला कर लिया कि त्याग क्लीनिक जाऊँगी। लेकिन हलफ़ नहीं उठाऊँगी।

    उस रात मैंने सलमान से कहा, सलमान मैं एक महीने के लिए हिल स्टेशन जाना चाहती हूँ। मेरा जी चाहता है कि कुछ देर के लिए अकेली रहूं। किसी ऐसे पहाड़ी मुक़ाम पर जहां भीड़-भड़क्का हो, कराउड हो।

    उसने हैरत से मेरी तरफ़ देखा। देर तक चुप-चाप बैठा रहा। फिर बोला कि, देखो अगर वाक़ई तुम तन्हा तन्हा रहना चाहती हो तो ठीक है। मुझे क्या एतराज़ हो सकता है।

    त्याग का सफ़र ख़ासा दुशवार था। पहले तो गलियात की तरफ़ जाना पड़ा। रात वहां ठहरी। फिर फूल गली से त्याग जाने वाली सुज़ूकी मिल गई। सड़क बहुत तंग और नीम पुख़्ता थी। साठ मील का सफ़र सात घंटो में तै हुआ। शुक्र है क्लीनिक से मुल्हिक़ा होस्टल में जगह मिल गई। रात गोया घोड़े बेच कर सोई। अगले दिन नौ बजे के क़रीब क्लीनिक पहुंची। एक घंटा रिसेप्शन में इंतिज़ार करना पड़ा। फिर डाक्टर ने अंदर बुला लिया।

    अपने रूबरू एक नौजवान डाक्टर को देख मैं हैरान हुई। सहेली की बातें सुनकर मैं समझी थी कि डाक्टर दाऊद मुअम्मर आदमी होगा।

    आप डाक्टर दाऊद हैं? मैंने पूछा।

    मैं उनका बेटा डाक्टर ख़ालिद हूँ। वो बोला, वालिद साहिब इंतिक़ाल कर गए हैं। अब मैं उनकी जगह काम कर रहा हूँ। ये कहते हुए ख़ालिद ने एक लंबा सा काग़ज़ उठा लिया। बोला, सबसे पहले अपनी केस हिस्ट्री लिखवा दीजिए। हर वो तफ़सील बताईए जिसे आप अहम समझती हैं।

    पता नहीं उस वक़्त मेरे ज़ेह्न में ये बात कैसे आई। मैंने कहा कि, मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहती हूँ। ये बताईए मुझे कि इस गांव का नाम त्याग क्यों है?

    वो मुस्कुराया, कहने लगा, बस नाम है। जिस तरह आपका नाम सांवरी है हालाँकि आप गोरी हैं। थोड़े से वक़फ़े के बाद उसने फिर से बात शुरू की। कहने लगा, वालिद साहिब का उसके मुताल्लिक़ एक नज़रिया था। मफ़रूज़ा कह लीजिए।

    मैं फिर से बैठ गई। डाक्टर ख़ालिद में मुझे एक बेनाम सी कशिश महसूस होने लगी थी।

    बताईए ना! मैंने कहा, वो मफ़रूज़ा क्या था? लेकिन पहले तो ये बताईए कि त्याग का मतलब क्या है?

    कहने लगा, त्याग हिन्दी का लफ़्ज़ है। मतलब है छोड़ देना, तर्क कर देना। ये क़स्बा हिंदूओं ने आबाद किया। ऊपर टीले पर एक मंदिर बना हुआ था। मंदिर के साथ एक इमारत है। ग़ालिबन,

    इस इमारत का नाम त्याग भवन था। वो रुक गया।

    वालिद साहिब का नज़रिया भी तो बताईए ना। मैंने पूछा।

    मुस्कुरा कर बोला, वालिद साहिब का कहना था कि पहाड़ों की बुलंदी का इन्सानी जज़्बात से गहरा ताल्लुक़ है। जूँ-जूँ नीचे उतरो। जज़्बात की शिद्दत बढ़ती जाती है। वो गाढे हो जाते हैं। बोझल भारी, जूँ-जूँ ऊपर जाओ, जज़्बात में लताफ़त पैदा होती है। मिठास पैदा होती है। नीचे लॉग लगाओ बढ़ते हैं। ऊपर बेनियाज़ी का समां पैदा होता है।

    वालिद साहिब कहा करते थे, दस हज़ार की बुलंदी पर भोर समय का आलम होता है।

    भोर समय क्या?

    जिस तरह सुब्ह-सवेरे डॉन के वक़्त सपेदी सी होती है। एक अजीब सा सुकून, इत्मिनान, निरवान। दस हज़ार की बुलंदी पर जज़्बात की ऐसी कैफ़ियत होती है। नीचे के लोग तालाब में डूबे हुए होते हैं। ऊपर ख़्वाहिश तो होती है। पर उस में डंक नहीं होता। नीचे इन्सान की मैं में इतना मलबा होता है कि वो पत्थर बन जाती है। ऊपर रुई के गाले जैसी हल्की फुल्की रहती है। नीचे मुहब्बत-ओ-नफ़रत दोनों में धार होती है। ऊपर नफ़रत भी होती है, मुहब्बत भी। लेकिन धार नहीं होती।

    ऊपर से आपकी क्या मुराद है? मैंने पूछा।

    आठ दस हज़ार की बुलंदी। उसने जवाब दिया। आपको हैरत होगी कि यहां त्याग में कोई ज़ेह्नी बीमारी नहीं होती। ज़ेह्नी बीमारियां नीचे जन्म लेती हैं। वादीयों में, मैदानों में। एक बात यक़ीनी है ज़ेह्नी बीमारी में से फूटती है। मैं में गिरहें लग जाती हैं। आप एक साल यहां क़ियाम करें। सारी गिरहें खुल जाएँगी। आप ही आप डंक निकल जाऐंगे। धारें कुंद हो जाएँगी।

    मैं ख़ालिद की तरफ़ हैरत से देख रही थी। उसमें से एक अजीब सा इत्मिनान छनछन कर कमरे की फ़िज़ा को मुनव्वर किए जा रहा था। उसकी बातें मेरे लिए बहुत अनोखी थीं। मेरी मैं पिलपिली हुई जा रही थी। मैंने एक शदीद कोशिश की। उठ बैठी। थैंक यू।

    इस रात मैं अपने कमरे की टेरिस पर बैठी रही। बैठी रही। पता नहीं कब तक बैठी रही। मैं महसूस कर रही थी जैसे मेरा वज़न कम होता जा रहा हो। मेरा ताल्लुक़ धरती से कटता जा रहा हो।

    अगले रोज़ डाक्टर ख़ालिद ने कहा, मैंने आपका केस स्टडी कर लिया है। मेरा ख़्याल है कि आप दो हफ़्ते में ठीक हो जाएँगी। आज से आपका ईलाज शुरू हो जाएगा। ईलाज शुरू करने से पहले आपको एक फ़ॉरमेंलिटी अदा करनी होगी। ये एक हलफ़ है। उसने एक छपा हुआ काग़ज़ उठा कर मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, एक तो हाथ उठा कर हलफ़ पढ़िए और दूसरे इस फ़ार्म पर दस्तख़त कर दीजिए।

    नहीं डाक्टर साहिब, मैंने कहा, मैं अपनी 'मैं' किसी के हवाले नहीं कर सकती।

    उसने हैरत से मेरी तरफ़ देखा। इस हैरत में सताइश भी शामिल थी। मैंने जवाब में एक भरपूर निगाह छलकाई लेकिन ख़ालिद पर कलफ़ था ही नहीं जो टूटता। हाँ ज़रा सा लड़खड़ाया ज़रूर था।

    कहने लगा, मिसिज़ सलमान। तमाम ज़ेह्नी बीमारियां में से फूटती हैं। या तो मैं में गिरहें लग जाती हैं या दराड़ें पड़ जाती हैं। या कांटे उग आते हैं इसलिए 'मैं' को त्यागे बग़ैर शिफ़ा नहीं होती।

    हो शिफ़ा। मैंने जवाब दिया।

    वो मुझे समझाने लगा। बोला, साइकियाट्री में भी डाक्टर मरीज़ की तवज्जो ज़ात की जानिब से हटा कर अपनी जानिब मब्ज़ूल कर लेता है। यही वजह है कि बेशतर मरीज़ लड़कियों को डाक्टर से मुहब्बत हो जाती है।

    मुझे उस पर ग़ुस्सा गया। मैंने कहा, डाक्टर ख़ालिद, मैं इतनी दूर चल कर आपसे मुहब्बत रचाने नहीं आई। फिर मैंने एक ऐसी नज़र उस पर डाली जिसका मतलब था। आप बे-शक मुझसे मुहब्बत रचाएँ।

    वो घबरा गया। कहने लगा, अच्छा आप यूं करें कि आठ दस रोज़ यहां क़ियाम करें और इस मसले पर सोचें। शायद... वो रुक गया।

    क्या आप हलफ़ लिए बग़ैर ईलाज शुरू नहीं कर सकते? मैंने पूछा।

    हलफ़ ईलाज का एक हिस्सा है। अहम तरीन हिस्सा। वो चिड़ कर बोला।

    ख़ुदा-हाफ़िज़। मैं उठ बैठी।

    शाम के वक़्त जब मैं कमरे में अकेली बैठी थी तो दरवाज़ा बजा। मैंने बिन सोचे समझे कह दिया, कम इन, मेरे सामने डाक्टर ख़ालिद खड़ा था।

    बैठिए। मैंने कहा, मेरा ख़्याल था कि वो पूछेगा कि आपने क्या फ़ैसला किया। लेकिन उसने आते ही खिड़की की तरफ़ इशारा किया। बोला, वो सामने टीले पर जो जंगल है, उस जंगल में अजीब-ओ-ग़रीब किस्म के मशरूम उगते हैं। मसलन एक मशरूम है जो टहलता है।

    क्या मतलब, मैंने पूछा।

    एक फुट के दायरे में टहलता है। सुबह यहां है, दोपहर को आध फ़ुट सरका हुआ। शाम को पूरा एक फुट।

    मैं हंसी। अब मुझे अलिफ़ लैला की कहानियां सुनाईए।

    वो मुस्कुराया, बोला, हक़ीक़त, रियलटी आधी से ज़्यादा अलिफ़ लैला है। आप ख़ुद अलिफ़ लैला बरताव बरत रही हैं।

    दो-रुख़ी बरताव। उसने जवाब दिया। उसके बाद देर तक हम ख़ामोश बैठे रहे। फिर वो मुझे अजीब-ओ-ग़रीब किस्म के मशरूम्ज़ के मुताल्लिक़ बताता रहा।

    जब वो जाने लगा तो मैंने पूछा, आप मशरूम्ज़ से ईलाज करते हैं?

    कहने लगा, हाँ! बेशतर।

    मैंने पूछा, मशरूम कैसा असर रखता है?

    कहने लगा, सबसे पहले मरीज़ को हम वो मशरूम देते हैं जो मरीज़ की मैं से फूंक निकाल दे। ये कहते हुए वो कमरे से बाहर निकल गया।

    उसी रात ख़ानसामां खाना लेकर आया तो कहने लगा। बेगम साहिबा डाक्टर ख़ालिद कभी होस्टल में नहीं आए थे। आज पहली मर्तबा उन्हें होस्टल में देखकर मैं तो हैरान रह गया। ख़ानसामां की बात सुनकर मेरी 'मैं' में फूंक और बढ़ गई।

    अगले रोज़ शाम को वो फिर गया।

    मैंने पूछा, डाक्टर आप शादीशुदा हैं क्या?

    उसने नफ़ी में सर हिला दिया। कहने लगा, मैं लेडी डाक्टर से शादी करूँगा। हमारे तरीक़-ए-इलाज को अपना ले।

    मैंने उसे छेड़ा, और अपनी 'मैं' चांदी की प्लेट में रखकर आपको भेंट कर दे।

    नहीं। वो मुस्कुराया। मैं अपनी 'मैं' चांदी की प्लेट में रखकर उसे पेश करूँ। वो उसे क़बूल कर ले मुहतरमा। वो बोला, मुहब्बत क्या है? अपनी विल सरेंडर कर देना। अपनी 'मैं' दूसरे के ताबे कर देना।

    सारी दुनिया मुहब्बत करती है। मैंने तंज़न कहा, लेकिन...

    उंहू। वो मुहब्बत नहीं होती। ख़्वाहिश होती है। हिर्स होती है और ज़्यादातर महबूब से नहीं बल्कि अपनी अना से मुहब्बत होती है। महबूब तो एक बहाना होता है एक पर्दा होता है। एक डेलूझ़न। आप समझती हैं कि आपने सलमान से मुहब्बत की है। अगर आप सच्चे दिल से सलमान से मुहब्बत करतीं तो दो-रुख़ी मुद्दत से ख़त्म हो चुकी होती। आपको त्याग में आने की ज़हमत करना पड़ती।

    फिर दफ़्फ़अतन उसने मौज़ू बदला। कहने लगा, सुबह के वक़्त आप क्या करती हैं? क्लीनिक में जाया कीजिए। मरीज़ों की केस हिस्ट्रीयाँ बड़ी दिलचस्प होती हैं। दिलचस्प और बसीरत अफ़रोज़।

    अगले रोज़ में क्लीनिक में जा बैठी। डाक्टर ख़ालिद मुझे देखकर बहुत ख़ुश हुआ लेकिन उसने इज़हार किया। कहने लगा, आज एक ही मरीज़ है। बहुत दूर से आया है। बहुत बड़ा आबिद है।

    क्या तकलीफ़ है उसे? मैंने पूछा।

    पता नहीं। बोला, अभी आकर आपके सामने बयान करेगा।

    ऐन उसी वक़्त एक बारेश नूरानी शख़्स कमरे में दाख़िल हुआ। अस्सलाम अलैकुम।

    वाअलैकुम अस्सलाम! डाक्टर ने जवाब दिया, तशरीफ़ रखिए।

    फ़रमाईए आप किस तरह तशरीफ़ लाए हैं?

    बूढ़े ने बामअनी निगाहों से मेरी जानिब देखा।

    ये मेरी अस्सिटैंट हैं। डाक्टर ख़ालिद ने कहा।

    ये सुनकर बूढ़ा मुतमइन हो गया।

    फ़रमाईए? डाक्टर ने कहा।

    बूढ़े ने अपनी भारी भरकम आवाज़ में कहा, मेरी आप-बीती बहुत मुख़्तसर है।

    जी फ़रमाईए। ख़ालिद ने कहा।

    मैंने गुज़िश्ता बीस साल तख़लिए में बैठ कर अल्लाह की इबादत की है। बीस साल। उसकी आवाज़ जज़्बात की शिद्दत से काँपी। वो रुक गया। कमरे में गहरी बोझल ख़ामोशी छा गई। सदियां गुज़र गईं... लेकिन... उसकी आवाज़ फिर गूँजी।

    लेकिन... मैं आज तक अल्लाह को नहीं मान पाया। कोशिश के बावजूद नहीं मान पाया। मैं उसके वजूद को दिल से क़बूल नहीं कर सका। कमरे में फिर से बोझल ख़ामोशी छा गई।

    मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे सर पर पत्थर मारा हो। मेरी आँखों में तारे नाचे और फिर घुप अंधेरा छा गया। जब मुझे होश आया तो देखा कि बूढ़ा जा चुका था और ख़ालिद सर झुकाए बैठा है।

    डाक्टर ख़ालिद। मैंने कहा।

    वो चौंका। बोला, फ़रमाईए।

    मैंने फ़ैसला कर लिया है। मैंने जवाब दिया।

    क्या? वो बोला।

    मैं कल सुबह वापस जा रही हूँ।

    मैंने भी फ़ैसला कर लिया है। डाक्टर ख़ालिद ने कहा।

    क्या? मैंने पूछा।

    हम हलफ़ लिए बग़ैर आपका ईलाज करेंगे।

    मैं उठ बैठी। शुक्रिया। डाक्टर, अब इसकी ज़रूरत नहीं रही।

    तो क्या आप ईलाज नहीं कराईंगी?

    नहीं। मैं दरवाज़े की तरफ़ बढ़ती हुई बोली। अगर अपनी विल ही सरेंडर करना है तो मैं उसकी भेंट क्यों करूँ जिसके पर्दे में, मैंने दो साल टूट कर अपनी अना से मुहब्बत की है। ख़ुदा-हाफ़िज़ डाक्टर।

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