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एक आम आदमी की कहानी

ताहिर नक़्वी

एक आम आदमी की कहानी

ताहिर नक़्वी

MORE BYताहिर नक़्वी

    मैं थका मांदा घर में दाख़िल हुआ तो ठिठक कर रह गया। बीवी फ़र्श पर बैठी हस्ब-ए-आदत अपने नसीब को कोस रही थी। पहले तो मैंने मुआमले का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की। फिर उसे सवालिया नज़रों से देखा। उसने अपनी पेशानी पर हाथ मार कर बैन करते हुए गोया ख़ुद को कहा कि इस घर में आकर कभी कोई सुख नहीं मिला। ये उसका पुराना शिकवा था। इस नई उफ़्ताद के बारे में उससे कुछ दर्याफ़्त करने के बजाय मैं कपड़े बदलने और मुँह हाथ धोने चला गया। मेरा ज़ह्न इसी उलझन में गिरफ़्तार रहा। वापस आया तो वो अब तक उसी तरह सर पकड़े बैठी थी और बेटी उसे समझाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। मैं खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। बीवी ने जले कटे लहजे में बताया कि इस वक़्त खाने को घर में कुछ नहीं। मैं उससे उलझाना नहीं चाहता था। इसलिए चुप ही रहा। उसने मुँह फेर कर बताया:

    मेरे पास जो पैसे थे, वो तुम्हारा लाडला ले गया।

    तो अब ये नौबत आगई। मुझे ग़ुस्सा आगया।

    इनकार करती तो छीन कर ले जाता।

    मुझे बिफरा हुआ देखकर बेटी ने हस्ब-ए-आदत मुझे ग़ुस्सा करने का मश्वरा दिया। इस के सिवा कोई चारा भी था। मेरे पास कुछ रक़म थी। उससे खाना पकाने की ज़रूरी अजनास लेने के लिए मुहल्ले की दुकान पर पहुंचा। मुझे देखते ही दुकानदार ने बिगड़ कर बताया कि आपका बेटा रोज़ाना सिगरेट और दूसरी चीज़ें उधार ले जाता है। अब काफ़ी रक़म बन चुकी है। तक़ाज़ा करता हूँ तो एक सियासी जमात की धमकी देता है। मेरा ज़ह्न झनझनाने लगा। उस रक़म से मैंने दुकानदार का क़र्ज़ चुका दिया और ख़ाली हाथ घर चला आया। मैंने बीवी को कोई बात नहीं बताई। इसी तरह मेरा बेटा अक्सर घर से रक़म चुरा लिया करता था। मैं उससे पूछगछ करता तो मेरी बात मानने के बजाय चीख़ने लगता। अपनी इज़्ज़त रखने की ख़ातिर में मजबूरन चुप साध लेता। ऐसे मौक़ा पर बीवी भी मुझे ख़ामोश रहने को कहती। यही नहीं, कॉलेज की माहाना फ़ीस जमा कराने के बजाय वो जाने कहाँ उड़ा देता। वहां से नोटिस आता तो मेरी पूछगछ पर कोई मुनासिब जवाब देने की बजाय वहां से खिसक जाता। मैं रोकता तो बदतमीज़ी पर उतर आता। मुझे उसके सुधार की कोई तवक़्क़ो नहीं रही थी।

    घर की ज़रूरियात पूरी करने के लिए मैं अक्सर-ओ-बेशतर ऑफ़िस में ओवर टाइम करता रहता। इस से सिर्फ़ माली मदद हो जाती बल्कि कुछ वक़्त बीवी की बदमिज़ाजी से भी महफ़ूज़ रहता था। रात को जब थका मांदा घर लौटता तो वो हस्ब-ए-आदत किसी किसी बात पर कजबहसी करने लगती। बेटी अपनी माँ के मिज़ाज से वाक़िफ़ थी, इसलिए मुझे चुप रहने का इशारा करती रहती। जहां बेटी का रिश्ता तय हुआ था, उन्होंने शायान-ए-शान जहेज़ देने के लिए तवील फ़हरिस्त पकड़ा दी थी। मैं मुख़्तलिफ़ हीलों से शादी को टालता रहा। वो इंतिज़ार करते करते अब बेज़ार हो चुके थे। बीवी उठते-बैठते मुझे यही ताने देती रहती। क़ल्लाश आदमी की बेटी की शादी किसी अच्छे घराने में नहीं हो सकती। तुम उसे घर में बिठाए रखो। मैं कोई जवाब देता। क्योंकि इस तरह और बदमज़गी पैदा हो जाती। ऐसी नाज़ुक सूरत-ए-हाल में कभी बेटा घर में दाख़िल होता तो ये सब देखकर झुँझला जाता: इसी लिए मेरा जी घर में नहीं लगता।

    इस बहाने वो उल्टे पांव लौट जाता। घर के माहौल में हर वक़्त तनाव सा रहता था। बेटी को बख़ूबी एहसास था कि ये सब उसकी माँ की बदमिज़ाजी की वजह से था मगर कुछ कह पाती क्योंकि हर लम्हे हंगामे का अंदेशा रहता था। एक शाम ओवर टाइम करके मैं ऑफ़िस से निकला तो शहर की हालत बदली हुई नज़र आई। सड़क से ट्रैफ़िक ग़ायब और बाज़ार बंद। मैंने हैरान हो कर एक राहगीर से सबब दर्याफ़्त किया तो पहले उसने मुझे ताज्जुब से देखा, फिर बताया कि किसी सियासी जमात के कारकुन को क़त्ल कर दिया गया है। इसी लिए ये हड़ताल हुई है। वैसे भी इस शहर में हड़ताल की कोई वजह नहीं होती, बस हो जाती है।लाशऊरी तौर पर सबसे पहले मुझे यही ख़याल आया कि कहीं मेरा बेटा किसी फ़साद में मुलव्वस हो जाए। मैं घर वालों को अपनी ख़ैरीयत बताना चाहता था मगर मोबाइल फ़ोन होने की वजह से मजबूर हो गया। चंद रोज़ क़ब्ल मेरा मोबाइल फ़ोन घर से ग़ायब हो गया था...वक़फ़े वक़फ़े से कोई रिक्शा नज़र आता तो मैं उसके पीछे लपकता। शहर की ऐसी सूरत-ए-हाल से रिक्शा टैक्सी वाले नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं। मुझे ये अंदाज़ा था मगर मजबूरन एक रिक्शे को रुकने का इशारा किया। मैंने जगह का नाम बताया तो उसने मेरे अंदाज़े से कहीं ज़्यादा किराया मांगा, इसलिए मैंने पैदल घर जाने का इरादा किया। आगे बढ़ा तो एक वैगन आकर रुकी। लोग सिर्फ़ उसकी छत पर सवार थे बल्कि गेट से बाहर तक निकले हुए थे। दो तीन मुसाफ़िर उतरे तो मैं अपनी तमाम क़ुव्वत इस्तिमाल करके वैगन में सवार हो गया। गर्मी और हब्स की वजह से सांस लेना दुशवार हो रहा था। मुसाफ़िर हस्ब-ए-मामूल एक दूसरे से उलझते और सीटों पर बैठे बूढ़े सियासत पर ख़याल आराई करते रहे। मैंने सोचा कि शायद पाकिस्तान वक़्त से बहुत पहले आज़ाद हो गया था। मेरा स्टॉप आया तो गेट पर धब् धब् करने के बावजूद वैगन नहीं रुकी बल्कि सिर्फ़ उसकी रफ़्तार कम हुई। मुझे कूद कर उतरना पड़ा। ऐसा महसूस हुआ गोया मैं ख़ुद नहीं उतरा बल्कि मुझे बाहर की तरफ़ धकेला गया।

    घर पहुंचा तो बेटी ने मुझे देखते ही इत्मिनान का सांस लिया। गर्मी की वजह से पंखा आन किया तो बिजली ग़ायब थी। मुँह-हाथ धोने के लिए वाश बेसिन के नलों में पानी नहीं रहा था। मेरी कोफ़्त में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया। हस्ब-ए-आदत बीवी मुझे देखकर बुरा सा मुंह बनाती रही। अब शायद उसका चेहरा वैसा ही हो चुका था। मैंने ओवर टाइम की रक़म उसके हाथ पर रख दी। इसके बावजूद उसका मूड उसी तरह बिगड़ा रहा। मैंने वजह मालूम करने के लिए बेटी की तरफ़ देखा तो उसने गर्दन झुका ली। अब मुझे परेशानी लाहक़ हो गई। मैंने झल्लाकर बीवी से पूछा, आख़िर क्या हुआ?

    वही, जिसका ख़ौफ़ था। उसने तुनक कर जवाब दिया।

    लम्हे भर में कई बुरे-बुरे ख़्यालात मेरे ज़ह्न में घूम गए। बेटी वहां से उठकर चली गई। मैंने बीवी को फिर कुरेदा। तब उसने तंज़िया लहजे में बताया, लड़के वालों ने रिश्ते से इनकार कर दिया।

    क्यों? मैं उछल पड़ा।

    कोई वजह नहीं बताई। उसने सर थाम लिया।

    कुछ पूछा तो होता।

    बीवी ने मुझे हक़ारत से देखा और जले-कटे लहजे में जवाब दिया, अंजान क्यों बने हुए हो?

    अब मैं उसकी बात की तह तक पहुंच गया था।

    अपनी सी मेहनत कर तो रहा हूँ। शिकस्ता लहजे में जवाब देते हुए मैं अपना सर थामे पलंग पर बैठ गया। उसने बिगड़ कर फिर कहा: आख़िर वो कब तक इंतिज़ार करते।

    अपनी बेबसी पर मेरी आँखों से बेइख़्तियार आँसू बह निकले। उसी लम्हे बेटा दाख़िल हुआ। वो मुझ पर तंज़िया अंदाज़ में हंसा। शायद उसने सारी बात सुन ली थी। फिर उसी तरह हँसता हुआ वापस चला गया। अब बीवी ने मुझे हस्ब-ए-आदत नफ़रत से देखा, तुम्हारा ज़िंदा रहना हमारे लिए बेकार है।

    कोई जवाब देने के बजाय मैं उसे फटी फटी आँखों से देखता रहा। अपने आपको पलंग पर गिरा कर मैं अपने हालात के मुताल्लिक़ सोचने लगा। जाने किस वक़्त आँख लग गई। शायद अभी ज़्यादा देर नहीं हुई थी कि दरवाज़े पर ज़ोरदार दस्तक से मैं हड़बड़ा कर जाग उठा। मैंने जा कर दरवाज़ा खोला। पड़ोसी ने तंज़िया अंदाज़ में बताया: तुम्हारा बेटा डकैती के जुर्म में गिरफ़्तार हो गया।

    ये बता कर वो उल्टे क़दम वापस चला गया। चंद लम्हे मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मेरा ज़ह्न माऊफ़ हो गया। ये सुनकर बेटी रोने लगी और बीवी ने अपना फ़िक़रा दुहराया कि इस घर में आकर उसकी क़िस्मत फूट गई। उसे ख़ुद अपनी तर्बीयत में कभी कोई नुक़्स नज़र नहीं आया। बेटी ने रोते हुए कहा कि भय्या के लिए कुछ कीजिए। बीवी ने मुझे उसी अंदाज़ से देखा मगर चुप रही। मैं भारी क़दमों से इलाक़े के थाने पहुंचा। ये मेरा पहला तजुर्बा था। जब थानेदार को मालूम हुआ कि मैं किस मक़सद से आया हूँ तो यकायक उसने करख़्त लहजा इख़्तियार कर लिया। मेरी कोई बात नहीं सुनी। मैं मायूस हो कर उसके कमरे से बाहर निकला तो एक पुलिस वाला क़रीब आया। मेरी कैफ़ियत देखकर उसने सरगोशी की, सिर्फ़ एक ही तरकीब है। मैंने उसे सवालिया अंदाज़ में देखा तो उसने बताया कि मैं थानेदार की टेबल पर पाँच हज़ार रुपया रख दूं। एफ़ आई ऑर कट गई तो केस बिगड़ जाएगा। ये कह कर वो मेरे क़रीब से हट गया। यही सोचता हुआ मैं मायूस क़दमों से घर में दाख़िल हुआ तो बीवी और बेटी दोनों मेरी तरफ़ लपकीं। मैंने सारी बात बताई तो बेटी रोने लगी और बीवी ने अपना सर पकड़ लिया। किसी अज़ीज़ रिश्तेदार या आस पड़ोस से इतनी रक़म उधार मिलने की कोई तवक़्क़ो नहीं थी। अब मैं अपनी ज़िंदगी से तंग आचुका था। चंद लम्हे चारपाई पर बैठा कुछ सोचता रहा। फिर ग़ैरइरादी तौर पर मेरे क़दम बाहर की तरफ़ उठ गए। मेरे क़दमों में अब जान नहीं रही थी।

    घर से निकल कर एक दुकान पर जा पहुंचा और अपनी जेबों को टटोला। चंद सिक्के हाथ आए तो मैंने दुकानदार के सामने रख दिये। उसने मुझे सवालिया नज़रों से देखा। मैंने अपनी आँखों में आए हुए आँसू ज़ब्त करते हुए सिर्फ़ इतना कहा, ज़हर।

    उसने नफ़ी में सर हिलाते हुए पैसे वापस मेरी तरफ़ सरका दिये। मैंने उसे सवालिया अंदाज़ में देखा तो उसने बताया, उसकी क़ीमत में अब बहुत इज़ाफ़ा हो चुका है।

    क्यों?

    मांग जो बढ़ गई है।

    ये कह कर वो अपने किसी काम में मसरूफ़ हो गया।

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