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एकलव्य का अंगूठा

सलाम बिन रज़्जाक़

एकलव्य का अंगूठा

सलाम बिन रज़्जाक़

MORE BYसलाम बिन रज़्जाक़

    स्टोरीलाइन

    इस कहानी का ताना-बाना एक पौराणिक कथा को आधार बनाकर आधुनिक संदर्भों में बुना गया है। कहानी और उसके पात्र वही हैं, बस उनकी स्थिति और शिक्षा का माध्यम बदल गया है। एकलव्य दलित समाज का एक होनहार छात्र है। मेडिकल डिग्री के लिए वह सनातन कॉलेज में दाख़िला ले लेता है। कॉलेज में उसका परफॉर्मेंस सबसे अच्छा होता है, और जब वह अच्छे अंकों से डिग्री प्राप्त कर लेता है तो गुरु द्रोणाचार्य उससे दक्षिणा मांगते हैं। दक्षिणा में वह उससे पहले की तरह ही दाएँ हाथ का अंगूठा मांगते हैं। एकलव्य अंगूठा काटकर दे देता है। परन्तु इस बार अपना अंगूठा देकर वह मात नहीं खाता, क्योंकि यह आधुनिक एकलव्य दाएँ हाथ से नहीं, बाएँ हाथ से कलम पकड़ता है।

    फिर यूँ हुआ कि साढे़ तीन हज़ार बरस के बाद एकलव्य ने एक ग़रीब दलित के घर दुबारा जन्म लिया। इत्तिफ़ाक़ से इस बार भी उसके बाप का नाम ​िहरण्यधनुष ही था मगर अब के ​िहरण्यधनुष जंगल में नहीं शहर में रहता था और एक मिल में मज़दूरी करता था।

    एकलव्य जब पाँच बरस का हुआ तो ​हिरण्यधनुष ने उसे एक म्युनिसपल स्कूल में दाख़िल कर दिया। एकलव्य बेहद ज़हीन था। पढ़ाई में हमेशा सबसे आगे रहता। वो बड़ा हो कर डाक्टर बनना चाहता था। आख़िर उसने हायर सैकण्डरी साईंस में इम्तियाज़ी नंबरों से कामयाबी हासिल कर ली। इसी दौरान सनातन मेडिकल कॉलेज के फ़ार्म निकले। एकलव्य ने फ़ार्म पुर कर के रवाना कर दिया। उसे यक़ीन था कि उसका दाख़िला हो जाएगा और जल्द ही उसका देरीना ख़्वाब हक़ीक़त में बदल जाएगा।

    पंद्रह दिन बाद उसे इंटरव्यू का बुलावा गया। एकलव्य दिल में उम्मीद और विश्वास की जोत जगाए कॉलेज पहुँचा। कॉलेज में उम्मीदवारों की काफ़ी भीड़ थी। वो अपनी बारी का इन्तिज़ार करने लगा। मगर उसे हैरत हुई कि उसे ज़ियादा इन्तिज़ार नहीं करना पड़ा, चन्द मिनट बाद ही चपरासी ने उसका नाम पुकारा। वो अपनी फाईल बग़ल में दबाए, धड़कते दिल के साथ प्रिंसिपल के केबिन में दाख़िल हुआ लेकिन ये देखकर उसके पैरों तले से ज़मीन खिसक गई कि सामने प्रिंसिपल की ऊँची कुर्सी पर गुरूदेव द्रोणाचार्य बिराजमान थे। एकलव्य बहुत घबराया। तभी द्रोणाचार्य की भारी आवाज़ उसके कानों से टकराई।

    “आओ एकलव्य...! आओ...”

    एकलव्य ने बौखला कर प्रणाम के लिए दोनों हाथ जोड़ दिए।

    “कहो एकलव्य! कैसे हो?” द्रोणाचार्य पूछ रहे थे।

    “अच्छा हूँ सर!” उसने मिसमिसी सूरत बना कर कहा। फिर एक अन्देश-नाक ख़याल से घबरा कर बोला। “सर आपने मुझे पहचान लिया...?”

    “तुम्हें हम कैसे भूल सकते हैं एकलव्य!” द्रोणाचार्य के होंठों पर एक मानी-ख़ेज़ मुस्कुराहट थी। एकलव्य फ़ैसला नहीं कर पाया कि उनके लहजे में क्या था... हमदर्दी... ख़ुशी... या तन्ज़... द्रोणाचार्य पूछ रहे थे, “तुम्हारे पिता हरन्य धनुष कैसे हैं?”

    “कुशल मंगल हैं...”

    “क्या करते हैं आजकल वो?”

    “मिल में मज़दूरी करते हैं सर!”

    “ओहो! मज़दूरी करते हैं और बेटे को डाक्टर बनाना चाहते हैं?”

    “डाक्टर बनना तो मेरी इच्छा है सर!”

    “हुम्म...” द्रोणाचार्य बराबर मुस्कुराए जा रहे थे। “हम जानते हैं तुम शुरू से काफ़ी क्‍रेज़ी रहे हो। तुम्हारी इच्छाएँ हमेशा तुमसे दो क़दम आगे चलती हैं।”

    “सर! बस आपकी कृपा का अभिलाषी हूँ।”

    “एकलव्य!” द्रोणाचार्य गंभीर आवाज़ में कह रहे थे। “क्या हर जन्म में तुम हमें इसी तरह धरम संकट में डालते रहोगे?”

    एकलव्य ने बौखला कर द्रोणाचार्य की तरफ़ देखा। द्रोणाचार्य उसी की तरफ़ देख रहे थे। एकलव्य उनकी तीखी नज़रों की ताब ला सका और निगाहें झुका लीं। द्रोणाचार्य कह रहे थे। “इस कॉलेज में सब ऊँचे घराने के लड़के आते हैं। उनका खान-पान, रहन-सहन, बात-चीत सबकी एक शान होती है। यही इस कॉलेज की पहचान है। ये ऊँची उड़ान भरने वाले परिन्दों का नशेमन है। तुम इस बुलन्दी तक पहुँचने की कैसे सोच सकते हो एकलव्य! तुम म्युनिसपल स्कूल से पढ़ कर आए हो। पिछड़ी बस्ती में रहते हो और ज़ात से...” द्रोणाचार्य रुक गए। एकलव्य का दिल बैठने लगा। उसने गिड़गिड़ाते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए।

    “सर ! अगर आपकी कृपा दृष्टि हुई तो मैं आस्मानों को भी छू सकता हूँ। इस बार बड़ी आशा लेकर आया हूँ। निराश मत कीजिए।”

    द्रोणाचार्य एक-टक उसे देखते रहे। अचानक उनके चेहरे के अज़लात नर्म पड़ गए। वो ठहरे हुए लहजे में बोले। “ख़ैर... ख़्वाब देखने का हक़ सबको है। तुम्हें भी है लेकिन तुम में एक ख़ूबी और भी है।” एकलव्य उन्हीं की तरफ़ देख रहा था। तुम में ख़्वाबों को चकना-चूर होते देखने की हिम्मत भी है। एकलव्य काँप गया। द्रोणाचार्य कह रहे थे।

    “ज़माना बदल गया है। समय के साथ ज़माने के मूल्य भी बदल जाते हैं। जो वर्तमान का साथ नहीं देता उसे आने वाला कल भी ठुकरा देता है। हम भी समय की धारा के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते। इस लिए हम तुम्हें बी.सी कोटे से सीट देने के पाबन्द हैं एकलव्य!”

    “थैंक यू सर!” एकलव्य की बाँछें खिल गईं। “मैं आपका ये उपकार ज़िन्दगी-भर नहीं भूलूँगा सर!” उसका लहजा एहसान-मन्दी के जज़्बे से सरशार था।”

    “नहीं एकलव्य! इस में उपकार की कोई बात नहीं। पिछले जन्म में हमने तुम्हें धनुर्विद्या सिखाने से मना किया था जिसके कारण इतिहास हमें आज तक कोस रहा है। अब तुम्हें शिष्य बना कर अपने दामन से इस दाग़ को मिटाने का हमें एक मौक़ा मिला है। हम इस मौक़े को खोना नहीं चाहते।”

    “आप महान हैं सर!” एकलव्य ने दोनों हाथ जोड़ते हुए लजाजत से कहा।

    द्रोणाचार्य ने हाथ उठा कर कहा। “जाओ... कोशिश करो कि इस कॉलेज ने जो माप-दण्ड बनाए हैं उस पर खरे उतर सको।”

    एकलव्य द्रोणाचार्य के एहसान-मन्दी के बोझ से दबा जा रहा था। उसकी आँखों में तशक्कुर के आँसू छलछला आए। उसने काँपती आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा।

    “सर! आप इजाज़त दें तो मैं एक बार आपके चरण स्पर्श करना चाहता हूँ।”

    द्रोणाचार्य मुस्कुराए। एकलव्य ने आगे बढ़कर उनके चरण छुए। द्रोणाचार्य मुस्कुराते रहे मगर उनके माथे की ​िसलवटें कम नहीं हुईं।

    आख़िर-कार सनातन मेडीकल कॉलेज में एकलव्य का दाख़िला हो गया और वो अपना मुख़्तसर-सा सामान लेकर कॉलेज के हॉस्टल में मुन्तक़िल हो गया। पढ़ना तो उसका मन पसन्द मशग़ला था ही। अब तो उसके सामने कॉलेज के मेयार को क़ायम रखने की चुनौती भी थी। वो कोई लेक्चर नाग़ा नहीं करता था। उसे खेल कूद और तफ़रीह से कोई रग़बत नहीं थी। लेक्चर अटेंड करने के बाद वो सीधे लाइब्‍रेरी चला जाता वहाँ उस वक़्त तक पढ़ता रहता जब तक लाइब्‍रेरी के बंद होने का वक़्त हो जाता। लाइब्‍रेरी से निकल कर सीधा मेस में जाता, खाना खाता। खाने के बाद दूसरे तलबा कैरम वग़ैरा खेलने बैठ जाते। बाज़ सिगरेटें फूँकने के लिए बाहर निकल जाते मगर वो सीधा अपने कमरे में जाता। दरवाज़ा बंद कर लेता और दुबारा पढ़ने में जुट जाता। कॉलेज के साथी पढ़ाई के इस जुनून की वजह से उसे कॉकरोच कह कर पुकारते थे। लेकिन प्रोफ़ेसर उससे ख़ुश थे क्योंकि क्लास-रूम में हर सवाल के जवाब के लिए सबसे पहले हाथ वही उठाता था।

    कभी-कभी क्लास-रूम से हॉस्टल आते-जाते उसे प्रिंसिपल द्रोणाचार्य भी नज़र जाते। वो उनको देखते ही निहायत अदब से दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करता। द्रोणाचार्य गर्दन हिला कर मुस्कुरा देते। शुरू-शुरू में कॉलेज के बाज़ लड़के उसके पढ़ाकू-पन की वजह से उस से एलर्जिक थे मगर जब उन्हें ये मालूम हुआ कि वो एक ग़रीब दलित घराने से आया है तो उन पर उसकी असलियत आशकार हो गई। वो समझ गए कि बेचारा गाँठ का कच्चा है भला मौज-मस्ती करना उसकी क़िस्मत में कहाँ? वो दूसरे लड़कों की तरह बियर-बारों या डिस्को अड्डों की सैर कर सकता है चरस और हशीश की सिगरेटें फ़ूँक सकता है। उसके पास नित-नए फ़ैशन डिज़ाइन की क़ीमती पतलूनें, शर्ट्स हैं कि लड़कियाँ उसकी तरफ़ राग़िब हो सकें, उसके पास कोई मोटर बाइक या कार है कि वो अपनी किसी गर्लफ्रेंड को लेकर डेट पर जा सके। ऐसे में किताबों में सर गड़ाने के इलावा वो क्या कर सकता था। धीरे-धीरे लड़कों ने उसकी तरफ़ ध्यान देना ही छोड़ दिया। एक तरह से ये एकलव्य के हक़ में अच्छा ही हुआ कि अब उसे कोई परेशान नहीं करता था। उसने पूरी दिल-जमई से ख़ुद को पढ़ाई के लिए वक़्फ़ कर दिया। उसे अब खाने की सुध रहती सोने की। बस जब देखो किताबों में मुन्हमिक रहता। प्रैक्टीकल में भी उसके इन्हिमाक का यही आलम था। प्रैक्टीकल के दिन वो सबसे पहले लैबोरेट्री में दाख़िल होता और सबसे आख़िर में बाहर निकलता।

    एक दिन द्रोणाचार्य ने रात में अचानक हॉस्टल का वि​िज़ट किया। उनके साथ हॉस्टल के वार्डन मिस्टर गोखले भी थे। रात के दस बज रहे थे। बहुत से लड़के अपने-अपने कमरों में रौशनी गुल करके सो चुके थे। जब द्रोणाचार्य मुख़्तलिफ़ कमरों का मुआइना करते हुए एकलव्य के कमरे के पास पहुँचे तो देखा उसके कमरे में रौशनी हो रही थी। वार्डन ने दरवाज़ा खट-खटाया। थोड़ी देर बाद एकलव्य ने दरवाज़ा खोला। सामने प्रिंसिपल और वार्डन को देख कर वो घबरा गया। हकलाते हुए बोला,

    “नम... नमस्कार... स... सर...”

    प्रिंसिपल और वार्डन कमरे में दाख़िल हुए। वार्डन ने एकलव्य से पूछा,

    “तुमने लाईट आफ़ नहीं की?”

    “मैं पढ़ रहा था सर!” एकलव्य की घबराहट बरक़रार थी।

    “मगर जानते हो ना कि दस बजे तक सबको सो जाने का आर्डर है। फिर तुम क्यों जाग रहे थे?”

    “सर! मुझे नींद नहीं रही थी इसलिए...”

    द्रोणाचार्य कमरे का जायज़ा लेने लगे। सिंगल बेड का छोटा सा कमरा था। उन्होंने देखा बेड के सिरहाने किताबों की ढेरी बनी है। दो एक किताबें बिस्तर पर भी पड़ी थीं। फिर उनकी नज़र अचानक बैड के सिरहाने दीवार पर पड़ी। उन्होंने हैरत से देखा कि दीवार पर उनका बड़ा सा पोर्ट्रेट आवेज़ाँ है। उन्होंने एकलव्य की तरफ़ देखा जो अब भी क़दरे घबराया हुआ था और रुक-रुक कर वार्डन के सवालों के जवाब दे रहा था।

    “एक मिनट मिस्टर गोखले!” द्रोणाचार्य ने उनकी गुफ़्तुगू में मुदाख़िलत करते हुए कहा।

    फिर एकलव्य से मुख़ातिब हुए, “तुमने ये हमारा पोर्ट्रेट यहाँ क्यों लटका रखा है?”

    एकलव्य गर्दन झुकाए ख़ामोश खड़ा था। वार्डन ने कहा,

    “एकलव्य! प्रिंसिपल साहिब तुमसे कुछ पूछ रहे हैं।”

    एकलव्य ने डरते झिजकते नज़रें उठाईं। एक नज़र पोर्ट्रेट पर डाली। फिर नज़रें झुकाए झुकाए बोला,

    “सर! वो आपकी एक फ़ोटो मुझे मिल गई थी। मैंने अपने एक आर्टिस्ट दोस्त से ये पोर्ट्रेट बनवाया है।”

    “मगर क्यों?”

    एकलव्य चुप खड़ा अपने पाँव के अंगूठे से ज़मीन कुरेद रहा था।

    “बोलो... एकलव्य! हम तुम्हारा जवाब सुनना चाहते हैं।”

    एकलव्य की आँख में आँसू आगए। उसने लरज़ती आवाज़ में धीरे से कहा।

    “सर... मैं रोज़ाना इसकी पूजा करता हूँ।”

    “क्या...?” द्रोणाचार्य ने हैरत से कहा। उन्होंने वार्डन की तरफ़ देखा। वार्डन भी हैरत-ज़दा सा कभी पोर्टरेट को तो कभी एकलव्य को देख रहा था।

    “पूजा करते हो... हमारी?” द्रोणाचार्य के लहजे में इस्तिजाब बरक़रार था।

    एकलव्य ने मुँह से कोई जवाब देने की बजाए इस्बात में सिर्फ़ गर्दन हिला दी।

    “मगर क्यों?”

    “सर! आपने एडमीशन के समय कहा था कि हमारा गुरु-शिष्य का रिश्ता बहुत पुराना है, मैं आपका नाम लेकर अभ्यास शुरू करता हूँ तो सब कुछ तुरंत याद हो जाता है, इसलिए...”

    “इसलिए तुम हमारी पूजा करते हो।” द्रोणाचार्य के होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट थी।

    “जी...” एकलव्य ने गर्दन झुका ली।

    “मगर पूजा तो सिर्फ़ इश्वर की की जाती है।”

    एकलव्य ने अदब से दोनों हाथ जोड़े और वो प्रार्थना दोहराने लगा जो वो स्कूल के ज़माने से पढ़ता आया था।

    एकलव्य आँखें बंद किए प्रार्थना दोहरा रहा था और द्रोणाचार्य उसे हैरत से देखे जा रहे थे।

    “गुरु ब्‍रह्मा, गुरु विष्णु, गुरुवर देवा महेश्वरा... गुरु साक्षात ब्‍रह्मा...”

    जब एकलव्य पूरी प्रार्थना दोहरा चुका तब द्रोणाचार्य चौंके। चौंक कर खिसियानी हँसी हँस के बोले, “एकलव्य, तुम पागल हो।”

    वार्डन एकलव्य की इस अदा से इतना मुतास्सिर हुआ कि उसकी आँखों में आँसू आगए। उसने भीगी आवाज़ से कहा, “रहने दीजिए सर! करने दीजिए इसे पूजा। इसे मना मत कीजिये। इस की श्रद्धा को ठेस पहुँचेगी। इसका दिल टूट जाएगा। ऐसी श्रद्धा रखने वाले छात्र आजकल कहाँ मिलते हैं सर... जो वो करता है उसे करने दीजिए।”

    द्रोणाचार्य थोड़ी देर ख़ामोश रहे। फिर एकलव्य के काँधे पर हाथ रखकर बोले, “ठीक है। अगर तुम्हें इस से आनंद मिलता है तो हम तुम्हें मना नहीं करेंगे।”

    “थैंक यू सर!” एकलव्य ने झुक कर द्रोणाचार्य के चरण छूए। द्रोणाचार्य ने आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया। वार्डन ने प्यार से एकलव्य का गाल थप-थपाया और दोनों कमरे से बाहर निकल गए।

    वक़्त की मसाफ़त में सदियाँ ग़ुबार बन कर उड़ जाती हैं। फिर पाँच बरस का अर्सा ही क्या! पलक झपकते पाँच बरस बीत गए। देखते ही देखते इम्तिहानात भी ख़त्म हो गए और एक दिन रिज़ल्ट भी गया, मगर इस रिज़ल्ट ने सनातन मेडिकल कॉलेज के दर-ओ-दीवार की जड़ हिला दी। एकलव्य के बारे में सबको अन्दाज़ा था कि वो अच्छे नंबरों से कामयाब होगा मगर ये किसी के वहम-ओ-गुमान में नहीं था कि वो पूरे कॉलेज में अव्वल नंबर से कामयाब होगा। सनातन मेडीकल कॉलेज की तारीख़ में पहली बार ऐसा हुआ था कि एक पिछड़ी ज़ात के लड़के ने आला ज़ात के होनहार सपूतों को शर्मसार कर दिया था। सबकी गर्दनें झुक गईं। उनके जज़्बा-ए-इफ़्तिख़ार को ठेस लगी थी। कॉलेज की हुर्मत दाग़दार हुई थी, उसकी इम्तियाज़ी शान को बट्टा लग गया था।

    दूसरी तरफ़ रिज़ल्ट की ख़बर मिलते ही एकलव्य के मुहल्ले में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सभों ने ​िहरण्यधनुष के घर को घेर लिया। लोग एकलव्य ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे थे। एक दूसरे को मुबारक-बाद दे रहे थे। मिठाई तक़्सीम कर रहे थे। लड़के तालियाँ बजा रहे थे। पूरे मुहल्ले में जश्न का सा माहौल था। आख़िर उनकी बिरादरी का एक लड़का डाक्टर बन गया था। उनकी गली के एक नौजवान ने वो कारनामा अन्जाम दिया था जिसकी कल्पना वो सपने में भी नहीं कर सकते थे। सब ख़ुशी से पागल हुए जा रहे थे। शाम तक पूरे मुहल्ले में इसी तरह धमाचौकड़ी मचती रही।

    दूसरे दिन एकलव्य कॉलेज पहुँचा। उसने सोचा रिज़ल्ट-शीट लेकर वो सबसे पहले प्रिंसिपल साहिब के ऑफ़िस में जाएगा और उनके चरण छू कर उनसे आशीर्वाद लेगा। जब वो रिज़ल्ट-शीट लेने ऑफ़िस क्लर्क मिश्रा जी के पास गया तो उन्होंने उसे मुबारकबाद दी और बोले,

    “एकलव्य बाबू! आपकी रिज़ल्ट-शीट तो प्रिंसिपल साहिब के पास है। उन्होंने आपको ऑफ़िस में बुलाया है। वो अपने हाथों से आपको रिज़ल्ट-शीट देना चाहते हैं।”

    एकलव्य ख़ुश हो गया। वो “थैंक यू मिश्रा जी” कहता हुआ प्रिंसिपल के केबिन में दाख़िल हो गया। द्रोणाचार्य फ़ोन पर किसी से बात कर रहे थे, उसे देखकर अन्दर आने का इशारा किया। एकलव्य एक तरफ़ हाथ बाँधे चुप-चाप खड़ा हो गया। प्रिंसिपल ने फ़ोन पर बात ख़त्म की और ​िरसीवर को क्‍रैडल पर रखते हुए बोले, “अरे एकलव्य, तुम खड़े क्यों हो। बैठो...”

    “नहीं सर, मैं ठीक हूँ।”

    “अरे भई, अब तुम डाक्टर बन कर हमारी रैंक में गए हो। बैठो, बैठो।”

    एकलव्य झिजकता हुआ कुर्सी पर बैठ गया। द्रोणाचार्य उसे थोड़ी देर तक ग़ौर से देखते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले, “आख़िर तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई, एकलव्य!”

    “सर! सब आपकी कृपा है।”

    द्रोणाचार्य ने मेज़ पर रखी रिज़ल्ट-शीट उठाई। उस पर नज़र डाली फिर बोले, “तुमने नंबर तो कमाल के लिये हैं एकलव्य! सनातन कॉलेज की पिछले दस सालों की हिस्ट्री में किसी ने इतने अच्छे नंबर नहीं लिये।”

    “थैंक यू सर!”

    “एकलव्य! जानते हो हमने तुम्हें ऑफ़िस में क्यों बुलाया है?”

    एकलव्य इस्तिफ़हामिया नज़रों से उनकी तरफ़ देख रहा था। उन्होंने रिज़ल्ट-शीट टेबल पर रखते हुए कहा,

    “एकलव्य याद है जब हम हॉस्टल में तुम्हारे कमरे में आए थे तो तुमने दीवार पर हमारा पोर्ट्रेट लगा रखा था।”

    “यस सर”, एकलव्य ने जल्दी से गर्दन हिला दी।

    “और तुमने कहा था कि तुम रोज़ाना इस पोर्ट्रेट की पूजा करते हो, क्योंकि तुम हमें अपना गुरु मानते हो।”

    “यस सर, मुझे सब याद है।”

    “फिर तो तुम ये भी जानते होगे एकलव्य कि शिक्षा पूरी करने के बाद गुरु को गुरु दक्षिणा दी जाती है। ये हमारी परंपरा है।”

    “यस सर...” एकलव्य को अचानक महसूस हुआ कि कुछ अन-होनी होने वाली है। द्रोणाचार्य की आवाज़ और उनका लहजा बदल गया था। जैसे उनके कंठ से किसी और की आवाज़ निकल रही हो।

    उनके लहजे में ऐसी धार थी कि उसे अपने भीतर कोई शय कटती सी महसूस हुई।

    द्रोणाचार्य की आवाज़ फिर गूँजी, “तो एकलव्य! तुम हमारे लिए गुरु-दक्षिणा में क्या लाए हो?”

    “जी...” एकलव्य अब पूरी तरह बौखला गया था।

    “हाँ... एकलव्य तुम्हारी शिक्षा पूरी हो चुकी है। अब तुम गुरु-दक्षिणा में हमें क्या देने वाले हो?”

    “सर, आप आज्ञा दीजिए, अपनी जान भी निछावर कर सकता हूँ।”

    “एकलव्य!” द्रोणाचार्य पुरसुकून लहजे में कह रहे थे, “ये एक विडंबना है कि इतिहास ने हमें फिर उसी स्थान पर ला खड़ा किया है जहाँ हम हज़ारों वर्ष पहले खड़े थे। उस सनातन परंपरा के अनुसार जिसने हमें गुरु-शिष्य के रिश्ते में बाँध दिया था। हम तुमसे वही गुरु-दक्षिणा तलब करते हैं जो तुमने पिछले जन्म में हमें भेंट की थी।”

    “सर...!” एकलव्य हैरत और ख़ौफ़ से चीख़ पड़ा।

    “हाँ, एकलव्य हमें गुरु-दक्षिणा मैं तुम्हारे दाएँ हाथ का अँगूठा चाहिए।”

    एकलव्य काँप गया। उसका रंग हल्दी की मानिन्द ज़र्द पड़ गया। वो फटी-फटी आँखों से अपने प्रिंसिपल की तरफ़ देख रहा था मगर अब वहाँ प्रिंसिपल कहाँ थे। उसके सामने प्रिंसिपल की कुर्सी पर जो शख़्स बैठा था वो तो कोई और ही था। माथे पर बड़ा सा तिलक, सर मुँडा हुआ, गद्दी के पीछे बड़ी सी चोटी। उसकी वेश-भूषा भी बदल गई थी। रेशमी धोती, गले में जनेऊ ,हाथों में बाहू-त्राण। कानों में जग-मग करते रत्न जड़ित कर्ण आभूषण।

    उसे लगा वो ऐसी वेश-भूषा में इससे पहले भी किसी व्यक्ति को देख चुका है। उसकी याद-दाश्त में एक झमाका हुआ और उसे याद गया कि उसने साढे़ तीन हज़ार बरस पहले जब वो गुरु द्रोणाचार्य से मिलने राजमहल के रनांगन में गया था और उनसे धनुर्विद्या सिखाने की प्रार्थना की थी तब वो इसी वेश-भूषा में मिले थे।

    अब शक की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं थी। वक़्त का पहिया पीछे की तरफ़ घूम चुका था। तारीख़ पूरी सफ़्फ़ाकी के साथ एक बार फिर उस से ख़िराज तलब कर रही थी। उसे एक बार फिर इतिहास के माथे पर अपने लहू से तिलक लगाना था। उसे उस रिवायत की लाज रखनी थी जिस से उसकी ज़ात मन्सूब हो गई थी। अब वो पीछे नहीं हट सकता था। पीछे हटना बुज़-दिली थी और वो अपने दामन पर बुज़-दिली का दाग़ लेकर ज़िन्दा नहीं रह सकता था। उस ने देखा कि माज़ी के धुँदलके से एक बार फिर वही मन्ज़र उभर रहा था। जब उड़ने से पहले उसकी क़िस्मत के पर कुतर दिए गए थे। वही जंगल, वही भील-पुत्र और वही राज-गुरु... उसने लम्हा भर तवक़्क़ुफ़ किया। दो क़दम आगे बढ़ा। दोनों हाथ जोड़ कर द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और बिजली की सुरअत के साथ टेबल पर रखा क़लम-तराश चाक़ू उठा कर एक झटके से अपने दाईं हाथ के अंगूठे को खीरे की तरह काट कर अपने जिस्म से अलग कर दिया।

    इस वाक़िया को गुज़रे कई बरस बीत गए। प्रिंसिपल द्रोणाचार्य अब रिटायर्ड हो चुके थे।उनकी गिराँ-क़द्र ख़िदमात के पेश-ए-नज़र दौरान-ए-मुलाज़मत ही सरकार ने शहर की सबसे पाश कॉलोनी में उन्हें एक बंगला अलॉट कर दिया था। वो नौकरों की एक पूरी टीम के साथ उसी बँगले में सुकूनत-पज़ीर थे। उन्होंने शादी नहीं की थी। अपनी तीस-साला मुलाज़मत के दौरान उन्होंने सनातन मेडीकल कॉलेज को ऐसी सर-बुलन्दी अता कर दी थी कि आज उसका शुमार मुल्क के बेहतरीन कॉलेजों में होता था। अपनी ज़हानत, इलमीयत, उसूल-पसन्दी और ख़ुश-इन्तिज़ामी के सबब उन्हें सरकारी और नीम-सरकारी इदारों की जानिब से दर्जनों ऐवार्ड और एज़ाज़ात से नवाज़ा जा चुका था। उनकी पुर-जलाल शख़्सियत के सामने बड़े से बड़ा आदमी बौना नज़र आता था और अच्छे अच्छों की ज़बान गुंग हो जाती थी। रिटायरमेंट के बाद भी उनकी शोहरत और मक़बूलियत में कोई कमी वाक़े नहीं हुई बल्कि रिटायरमेंट के बाद उनके चाहने वालों का 'हल्क़ा मज़ीद वसी हो गया। अब उन्हें मुल्क और बैरून-ए-मुल्क मुख़्तलिफ़ दानिश-गाहों और यूनीवर्सिटियों में मेमोरियल लेक्चर्स और तौसीई ख़ुतबात के लिए मदऊ किया जाता था। वो जहाँ जाते लोग उन्हें सर आँखों पर बिठाते और उनके लेक्चर निहायत शौक़ और तवज्जो से सुनते। क्योंकि उनके लेक्चरों में मेडीकल साईंस की दुनिया में आए दिन होने वाली ईजादात और इन्किशाफ़ात की तफ़्हीम-ओ-तशरीह के इलावा ख़ुद उनकी ज़िन्दगी के तजर्बात का निचोड़ होता था। उनकी फ़िक्‍र-ओ-नज़र, इल्म-ओ-दानिश और नुक्ता संजी का एक ज़माना लोहा मानता था।

    सब कुछ उनकी मर्ज़ी और मन्शा के मुताबिक़ था मगर कभी-कभी एक ख़लिश उन्हें बेचैन कर देती। एकलव्य ने जिस बे-जिगरी से अपना अँगूठा काट कर उनके क़दमों में डाल दिया था वो मन्ज़र उनकी याद-दाश्त में खन्ज़र की तरह गड़ गया था। ऐसा नहीं कि उन्हें इस वाक़िआ का कोई मलाल था या उस वाक़िआ का उनके ज़मीर पर कोई बोझ था। अलबत्ता एकलव्य की इस तुरत-फुरत कार्रवाई ने उन्हें एक हैरत-ख़ेज़ सदमे से दो-चार किया था। उन्हें हरगिज़ तवक़्क़ो नहीं थी कि एकलव्य इतनी सहजता से उनके मुतालिबे को अमली जामा पहना देगा। अस्ल में उन्होंने गुरु-दक्षिणा का पाँसा इसलिए फेंका था कि वो एकलव्य को ऐसी आज़माईश में डालना चाहते थे जिससे वो कभी ओहदा बर-आ हो सके। वो चाहते थे कि उनके मुतालिबे पर एकलव्य घबरा जाए। उन से दया की भीक माँगे, रोये, गिड़गिड़ाए, तब वो उस पर तरस खाते हुए एक शान-ए-इस्ति़ग़ना के साथ बख़्शिश का फ़र्मान जारी कर दें ताकि वो उम्‍र भर इस ​िख़जालत-आमेज़ एहसास के साथ ज़िन्दा रहे कि वो उनके मुतालिबे को पूरा करने का अहल नहीं है। वो उस पर तरस खा कर अपनी पुर-ग़ुरूर अना को एक बार फिर आसूदा करना चाहते थे जो साढे़ तीन हज़ार बरस से उनके नफ़्स में उसी तरह कुण्डली मारे बैठी थी। भला उन्हें उसके अंगूठे से क्या लेना देना था। वो उसका अँगूठा नहीं... उसकी ख़ुद्दारी, ख़ुद-एतिमादी और अज़्म-ओ-हौस्ले को हमेशा के लिए ख़स्सी कर देना चाहते थे वो उसे ता-हयात अपने अंगूठे के नीचे दबाए रखना चाहते थे मगर पाँसा उल्टा पड़ गया और उसने ख़ुद अपना अँगूठा काट कर उन्हें उम्‍र-भर के लिए हैरानी की एक ऐसी अंधी गुफा में धकेल दिया जिस से बाहर निकलने का कोई रास्ता उन्हें सुझाई नहीं देता था।

    इस वाक़िआ के बाद एकलव्य अचानक ग़ायब हो गया। उसकी तलाश में जब उनके कारिन्दे उसके घर गए तो चाली मुहल्ले वालों ने बताया कि एकलव्य और उसके घर वाले किसी से कुछ बताए बग़ैर रातों-रात कहीं चले गए। कहाँ? किसी को नहीं मालूम... बस यही बात द्रोणाचार्य के लिए सबसे ज़ियादा परेशान-कुन थी कि आख़िर एकलव्य अचानक कहाँ चला गया होगा? अपना अँगूठा गँवाने के बाद यक़ीनन उसे एहसास हो गया होगा कि अब वो डॉक्टरी पेशे का अहल नहीं रहा। मुम्किन है दिल-बर्दाश्ता हो कर उसने ख़ुदकुशी करली हो या मुम्किन है कोई दूसरा पेशा इख़्तियार कर लिया हो। या फिर ये भी मुम्किन है किसी दूर-उफ़्तादा गुम-नाम मक़ाम पर कोई मामूली नौकरी कर रहा हो, या फिर... जब कोई बात ठीक से सुझाई नहीं देती तो वो सोचने लगते। उन्हें उसके बारे में इतना सोचने की क्या ज़रूरत है और वो अपने ज़ेहन से उसके ख़याल को झटक कर दूसरे कामों में लग जाते।

    द्रोणाचार्य को रिटायर्ड हुए दस साल का अर्सा गुज़र चुका था। एक दिन वो अपने स्टडी में बैठे अपने लेक्चर के नोट्स तैयार कर रहे थे। कल एक मेडीकल कान्फ़्रैंस में उन्हें शरीक होना था। वो कान्फ़्रैंस उन्हीं की सदारत में मुनाक़िद हो रही थी। कान्फ़्रैंस में मुख़्तलिफ़ शहरों से कई नामी गिरामी डॉक्टर शरीक हो रहे थे। बैरून-ए-मुल्क से भी कई मन्दूबीन की आमद मुतवक़्क़े थी। उन्होंने नोट्स मुकम्मल करने के बाद एक अंगड़ाई ली और रिवाल्विंग चेयर की पुश्त से टिक कर आँखें बंद कर लीं और पाँव फैला कर सुस्ताने लगे। अभी चन्द मिनट भी नहीं गुज़रे थे कि फ़ोन की घंटी बजी। उस वक़्त उन्हें ये घंटी बहुत ना-गवार मालूम हुई। वो थोड़ी देर तक यूँही आँखें बंद किए पड़े रहे। घंटी मुतवातिर बजती रही। आख़िर उन्होंने आँखें खोल दीं और पड़े-पड़े ही आलस के साथ हाथ बढ़ा कर ​िरसीवर उठा लिया।

    “हेलो...” उन्होंने भर्राई आवाज़ में कहा।

    “प्रणाम सर!” दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई।

    “कौन?” उनकी भवें सिकुड़ गईं।

    “सर! आपने शायद मुझे नहीं पहचाना।”

    उनके माथे के बल मज़ीद गहरे हो गए। वो ऐसी बे-तकल्लुफ़ी के आदी नहीं थे। वैसे आवाज़ उन्हें जानी-पहचानी सी लग रही थी। उन्होंने क़दरे दुरुश्त लहजे में पूछा, “कौन हैं आप?”

    “सर में एकलव्य बोल रहा हूँ। आपका ऐक्स स्टूडेंट, एकलव्य ​हिरण्यधनुष।”

    “एकलव्य...?” वो यक-ब-यक सीधे हो कर बैठ गए। उनकी पेशानी के बल ढीले पड़ गए। दिल की धड़कन तेज़ हो गई।

    “कहाँ से बोल रहे हो?” उन्होंने अपने लहजे को हत्तल-इम्कान पुर-सुकून बनाते हुए पूछा।

    “यहीं शहर में हूँ सर!”

    अगर्चे उनके ज़ेहन में एक हैजान बरपा था लेकिन वो ख़ामोश रहे।

    “सर! में आपसे मिलना चाहता हूँ।”

    द्रोणाचार्य चन्द लम्हे तक कुछ सोचते रहे। दस बरस से जिसका ख़याल उन्हें रह-रह कर हन्ट करता रहा था, आज वो उनसे मुख़ातिब था। जवाब पाकर दूसरी तरफ़ से फिर आवाज़ आई।

    “अगर आपकी इच्छा हो तो कोई बात नहीं सर, फिर कभी...”

    “नहीं... ऐसी बात नहीं... जाओ...” द्रोणाचार्य ने ​िरसीवर रख दिया। उनका तजस्सुस इज़तिराब में बदलता जा रहा था। वो सोच रहे थे, दस बरस बाद अचानक ये कहाँ से वारिद हो गया? कहाँ था इतने बरस? क्या करता रहा? अंगूठे के बग़ैर उसके शब-ओ-रोज़ कैसे गुज़रे? एक के बाद एक सवाल उनके ज़ेहन पर दस्तक दे रहे थे मगर किसी भी सवाल का जवाब उनके पास नहीं था। वो कुर्सी से उठकर स्टडी में टहलने लगे। उनकी बेचैनी में इज़ाफ़ा होता रहा था। एकलव्य से मुत'ल्लिक़ दस बरस पहले की बातें उन्हें याद आने लगीं। कई मन्ज़र उभरे, हर मन्ज़र एक फ्लैश की तरह चमक कर मादूम हो जाता। आख़िरी मन्ज़र याद आते ही वो टहलते टहलते रुक गए। कुर्सी पर बैठ कर आँखें बंद कर लीं। पूरा कमरा सुर्ख़-रंग से भर गया था। खिच-खिच की आवाज़ के साथ चारों तरफ़ से बेशुमार अंगूठे कट-कट कर गिर रहे थे। एकलव्य के चेहरे के नुक़ूश उनके तसव्वुर में उभरने लगे। हैरत-अंगेज़ तौर पर उसका चेहरा पुर-सुकून था। आँखों में दर्द का शाइबा तक था, चेहरे पर कर्ब के आसार थे। उल्टा वो मुस्कुरा रहा था जैसे कह रहा हो। लीजिए मैंने तो आपकी आज्ञा का पालन कर दिया। अब आप क्या करेंगे? सच-मुच उसके बाद वो कुछ भी तो नहीं कर सके। उसने उन्हें कुछ करने का मौक़ा ही कहाँ दिया था... और अब दस बरस बाद...

    इतने में नौकर ने आकर इत्तिला दी कि कोई उनसे मिलने आया है। साथ ही उसने एक विजिटिंग कार्ड उनकी तरफ़ बढ़ा दिया। विजिटिंग कार्ड पर लिखा था, डॉक्टर एकलव्य ​हिरण्यधनुष... नीचे लिखा था, फिजिशियन एँड सर्जन, साथ ही कई डिग्रियाँ दर्ज थीं। पता लंदन का था। द्रोणाचार्य चकरा गए। नौकर हुक्म के इन्तिज़ार में खड़ा उन्हीं की तरफ़ देख रहा था। उन्होंने हड़बड़ा कर कहा,

    “उन्हें... बिठाओ, हम आरहे हैं।”

    नौकर चला गया। द्रोणाचार्य ने एक-बार फिर ग़ौर से कार्ड को देखा। कार्ड पर बिल्कुल साफ़-साफ़ हर्फ़ों में डॉक्टर एकलव्य हिरण्यधनुष। फिजिशियन एण्ड सर्जन लिखा हुआ था। और नीचे चूँटियों की क़तार की तरह डिग्रियों की लाइन थी। ये कैसे हो सकता है। वो बड़बड़ाए। फिर लड़खड़ाते हुए वाश-रुम में गए। हाथ-मुँह धोया, आईने में अपनी शक्ल देखी। एक थका-थका सा झुर्रियों-दार चेहरा उन्हें घूर रहा था। आज पहली बार उन्हें महसूस हुआ वो बहुत बूढ़े हो गए हैं।

    तैयार हो कर जब उन्होंने ड्राइंग-रूम में क़दम रखा तो उन्हें लग रहा था कि वो एक लंबी मसाफ़त तै करके आए हैं।

    ड्राइंगरूम में कोई पाँव पर पाँव रखे सोफ़े पर नीम-दराज़ अख़बार पढ़ रहा था। उनके क़दमों की आहट सुनकर वो चौंका। उन पर नज़र पड़ते ही यक-लख़्त खड़ा हो गया। उन्हें उसे पहचानने में क़दरे दिक़्क़त हुई मगर वो सच-मुच एकलव्य ही था। पहले काफ़ी दुबला पतला था। लेकिन अब जिस्म मुतनासिब हो गया था। उसके साँवले रंग पर क्‍रीम कलर का सूट बहुत खिल रहा था। जिस पर नीले रंग की टाई उसकी शख़्सियत को मज़ीद जाज़िब बना रही थी। उसके स्याह चमकीले बाल सलीक़े से जमे हुए थे और आँखों पर सुनहरी फ्रे़म की ख़ूबसूरत ऐनक थी। उसके होंठों पर एक अजीब आसूदा सी मुस्कुराहट रक़्साँ थी। उसने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया। उनकी नज़रें उसके हाथों को टटोलने लगीं मगर वो जो देखना चाहते थे वो नहीं देख सके क्योंकि उसके दोनों हाथों में दस्ताने थे। एकलव्य ने आगे बढ़कर उनके चरण छूए। द्रोणाचार्य आदतन सिर्फ़ हाथ उठा कर रह गए। दोनों आमने-सामने बैठ गए। द्रोणाचार्य अब भी बे-यक़ीनी से उसे देख रहे थे। एकलव्य ने मुस्कुराते हुए पूछा, “आप कैसे हैं सर!”

    “आँ... अच्छा हूँ।” द्रोणाचार्य ने चौंक कर कहा। फिर सँभल कर बोले,

    “और तुम...? कहाँ थे इतने बरस?” उसका विजिटिंग कार्ड अब भी उनके हाथ में था। उन्होंने एक-बार फिर विजिटिंग कार्ड पर एक नज़र डाली और पूछा, “ये कार्ड तुम्हारा ही है ना?”

    एकलव्य मुस्कुरा रहा था, “यस सर...”

    “मैं कल मुन्अक़िद होने वाली कान्फ़्रैंस में लंदन के डेलीगेशन के साथ आया हूँ सर! कल कान्फ़्रैंस के बाद मुझसे दरख़्वास्त की गई है कि मैं एक ओपन हार्ट सर्जरी का डिमांसट्रेशन करूँ जिसे तमाम चैनल्ज़ पर ब-यकवक़्त टेलीकास्ट किया जाएगा।”

    “बट हाव इज़ इट पॉसिबल?” द्रोणाचार्य ने एक-बार फिर दुज़-दीदा निगाहों से उसके हाथों की तरफ़ देखा जो अब भी दस्तानों में छुपे थे। एकलव्य ने एक लम्हा तवक़्क़ुफ़ किया फिर एक एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देता हुआ निहायत ए'तिमाद से बोला,

    “सर! ज़िन्दगी शतरंज का खेल है। शतरंज में एक बार मात खाने वाला दूसरी बाज़ी खेलते हुए ज़ियादा चौकस रहता है। इसलिए एक ही चाल से किसी को दुबारा मात नहीं दी जा सकती। माज़ी में आपने एक चाल चली और मुझे मात दे दी थी। साढे़ तीन हज़ार बरस के बाद आपने फिर वही चाल चली और यहीं आप मात खा गए।”

    “क्या मतलब?” द्रोणाचार्य के लहजे में ख़ौफ़, तजस्सुस और हैरत की मिली जुली कैफ़ियत थी।

    “सर! आपने सनातन परंपरा के अनुसार गुरु-दक्षिणा में मुझसे सीधे हाथ का अँगूठा मांगा था। सो मैंने दे दिया। मगर आपको शायद नहीं मालूम कि मैं यसारी हूँ। मैं अपने सारे काम बाएँ हाथ से करता हूँ। हत्ता-कि सर्जरी भी... मेरे बाएँ हाथ का अँगूठा आज भी सलामत है।”

    द्रोणाचार्य आँखें फाड़े हैरत और तशवीश से उसे यूँ देख रहे थे जैसे एकलव्य के सर पर अचानक सींग निकल आए हों।

    उसके बाद उन्हें याद नहीं कि एकलव्य कब तक उनके पास बैठा रहा और उसने उनसे क्या बातें कीं। जब वो रुख़्सत लेकर चला गया तो वो उठे। थके-थके क़दमों से स्टडी में गए और वो तमाम नोट्स जो उन्होंने कल के सदारती ख़ुत्बे के लिए तैयार किए थे, फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिए।

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