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ग़ाज़ी मर्द

ग़ुलाम अब्बास

ग़ाज़ी मर्द

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    मस्जिद के इमाम साहब की एक बेटी है। दीनदार और पाकबाज़, लेकिन ना-बीना। मरने से पहले इमाम साहब गाँव वालों को उसकी ज़िम्मेदारी दे जाते हैं। इमाम साहब की मौत के बाद गाँव में एक पंचायत होती है और नौजवानों से उस नाबीना लड़की से शादी करने के बारे में पूछा जाता है। उन नौजवानों में से एक हट्टा-कट्टा खू़बसूरत नौजवान, जिसे कई ओर लोग अपना दामाद बनाना चाहते हैं उससे शादी कर लेता है। घर के कामकाज के लिए एक लड़की रहमते को रख लेता है। लड़की ना-बीना को सारी बातें बताती रहती हैं। एक दिन वह बताती है कि उसके शौहर की एक खू़बसूरत लड़की से मुलाक़ात हुई है। इससे उसके मन में शक होता है और उस शक को दूर करने के लिए वह जो करती है वही उस नौजवान को एक ग़ाज़ी मर्द बना देता है।

    रात को जब कभी कुत्तों के भौंकने, या मुर्ग़ की बे-वक़्त अज़ान से चिराग़ बी-बी की नींद उचट जाती, तो वो दबे-पाँव अपनी कोठरी से निकलती, और राह टटोलती हुई बाहर आँगन में अपने शौहर की चारपाई पर आकर आहिस्ता से बैठ जाती और इसके पाँव दाबना शुरू कर देती और फिर जब तक उसे दुबारा नींद के झोंके आने लगते, वो बराबर दाबती रहती।

    अलिया उसके हाथों के गर्म-गर्म लम्स का ऐसा आदी हो गया था कि इससे उसकी नींद में ज़रा ख़लल पड़ता बल्कि ऐसा आराम मिलता कि वो और भी बे-ख़बर हो कर सोता रहता। अगर कभी वो जाग भी रहा होता तो चादर के नीचे दम साधे पड़ा रहता। ये चादर दरअसल उसका तह-बंद थी, जिसे वो मच्छरों से बचने के लिए रात को ओढ़ लिया करता था मगर इससे उसका पूरा जिस्म नहीं ढकता था। अगर सर छुपाता तो पाँव नंगे रहते।

    सुबह को जब अलिया बेदार होता तो चिराग़ बी-बी उससे पहले जागी होती और आँगन में वुज़ू करने या कोठरी में नमाज़ पढ़ने में मशग़ूल होती। वो नमाज़ के अलफ़ाज़ इस तरह अदा करती जैसे कोई सरगोशी कर रहा हो। खासतौर पर आख़िर के दुआइया फ़िक़रे अलिया को साफ़ सुनाई दिया करते “या पाक परवरदिगार अपने हबीब के सदक़े उसके सब दुश्मनों को नीचा दिखा। या पाक परवर दिगार अपने हबीब के सदक़े उसे हर बला से बचा। या पाक परवरदिगार मेरी दुआ क़ुबूल कर पहले मैं मरूँ। बाद में वो मरे आमीन।”

    अलिया चारपाई से उठता। चादर को झाड़ पटक कर कमर पर बाँध लेता। चादर का फटाका सुनकर चिराग़ बी-बी जल्दी से कोठरी से बाहर निकलती और बड़ी लजाजत से पूछती, “मुझे बुलाया है जी?”

    बाज़ दफ़ा अलिया हाज़िर भी होता तो वो उसे ग़ायब तसव्वुर करके आप ही आप बोलती रहती “मुझ ऐबों भरी को गले से लगाया। इसका अज्र अल्लाह और उसका हबीब उसको देगा। मैं अंधी मुहताज किस लायक़ हूँ। मैं इसका बदला क्या दे सकती हूँ। मैं तो आग भी नहीं जला सकती। रोटी भी नहीं पका सकती। कपड़ा भी नहीं सी सकती। कोई घर का या बाहर का काम नहीं कर सकती। हाँ एक पाँव दाबना है। लेकिन उससे किया होता है।”

    चिराग़ बी-बी गाँव की मस्जिद के बूढ़े इमाम की बेटी थी जिसकी माँ बचपन ही में मर गई थी। मौलवी-साहब ख़ुद तो बीना थे। मगर बेटी की आँखें चेचक में जाती रही थीं। मौलवी-साहब ने बिन माँ की बेटी को बड़ी मुसीबतों से पाला था। गाँव के सब छोटे-बड़े उनकी इज़्ज़त करते थे। गाँव के सब नौजवान बल्कि उनके बाप भी मौलवी-साहब से कम अज़ कम बग़दादी क़ायदा ज़रूर पढ़ चुके थे। जब इमाम साहब का आख़िरी वक़्त आया तो उन्होंने गाँव के बड़े-बूढ़ों को बुलवाया और उनसे बड़ी आजिज़ी से कहा।

    “मैं अपने पीछे एक यतीम बच्ची छोड़े जा रहा हूँ। वो कभी की ब्याहने के लायक़ हो चुकी है मगर अभी तक उसका ब्याह नहीं हुआ। अगर मेरे पीछे भी वो यूँ ही रही तो मेरी रूह हमेशा तड़पती रहेगी। मैंने उम्र-भर आप लोगों की जो बुरी-भली ख़िदमत की है उसके बदले में अगर मेरी बेटी को कहीं ठिकाने लगा दिया जाये तो इससे मेरी रूह ही ख़ुश नहीं होगी बल्कि आप लोगों को भी उसका अज्र मिलेगा इस दुनिया में भी, आख़िरत में भी।”

    और मौलवी-साहब चल बसे। उनकी तजहीज़-ओ-तक्फ़ीन के बाद गाँव के बड़े-बूढ़ों ने ये मसला पंचायत में पेश किया और खासतौर पर नौजवानों को ख़िताब करते हुए कहा “है कोई तुम में से वो ग़ाज़ी मर्द, जो ख़ुदा-तरसी करे और इमाम साहब के एहसान का बदला उतारे।”

    कुछ देर ख़ामोशी रही। आख़िर एक नौजवान की ग़ैरत जोश में आई। वो था तो ग़रीब ज़मींदार का बेटा मगर अपने मन चले पन की वजह से हर काम में सब नौ-जवानों से आगे-आगे रहता। उसने आगे बढ़कर इस कार-ए-ख़ैर के लिए ख़ुद को पेश कर दिया। ये अलिया था।

    इस पर कई बिन ब्याही बेटियों के बाप जो अलिया को दामाद बनाने के ख़्वाब देखा करते थे, गुम-सुम हो गए। वो अपने गाँव के नौजवानों में से किसी ऐसे शख़्स से इस क़ुर्बानी की तवक़्क़ो रखते थे जो उनकी नज़र में सीधा सादा हो और गाँव में उसकी कोई एहमियत हो। कि अलिया से जो अपनी कई ख़ूबियों की वजह से गाँव भर के नौजवानों में इंतेख़ाब था। और इस तरह चिराग़ बी-बी अलिया के घर में बस गई।

    अलिया को बाप से विरसे में ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा मिला था। बड़ी मेहनत से उस पर खेती बाड़ी करता, और जो थोड़ा-बहुत अनाज मिल जाता उस पर सब्र-ओ-शुक्र करके गुज़ारा होता। बीवी का कोई ख़ास ख़र्च नहीं था। उसे ज़ेवरों और नए कपड़ों की तमन्ना थी। वो मस्जिद के हुजरे में पली बढ़ी थी। रोज़ा नमाज़ गोया उसकी घुट्टी में पड़ा था। अभी बच्ची ही थी कि पाँचों वक़्त की नमाज़ बड़ी पाबंदी से अदा करने और रमज़ान के तीसों रोज़े रखने लगी थी। इस पर वो ना-बीना भी थी। उसे सिवाए अल्लाह को याद करने के और कोई काम ही था। बहुत सी दुआएँ उसने छोटी उम्र ही में बाप से सीख ली थीं। एक दो पारे भी उसे हिफ़्ज़ थे। अलिया के घर आकर उसके मज़हबी जोश में कोई कमी हुई। बल्कि इबादत गुज़ारी ने कुछ ज़्यादा ही शिद्दत इख़्तेयार कर ली।

    उसकी कोठरी में आठ-पहर उसका मुसल्ली बिछा रहता। जिस पर वो नमाज़ों के इलावा देर-देर तक वज़ीफ़े भी पढ़ती रहती। उसकी कोठरी से अक्सर अगर और लोबान की खूशबूएँ आती रहतीं, साथ-साथ या ग़फ़ूर, या रहीम, या ग़फ़ूर, या रहीम का विर्द भी जो धीरे-धीरे बुलंद होता जाता। ऐसे में अगर अलिया घर आता तो उसे यूँ महसूस होता जैसे वो किसी ख़ानक़ाह में दाख़िल हो गया हो। वो ख़ुद तो नमाज़-रोज़े का ज़्यादा क़ाइल था मगर चिराग़ बी-बी के इस मज़हबी वलवले को एहतेराम की नज़र से देखता था। वो अपने दिल को ये कह कर तसल्ली दे लिया करता कि ऐसी पाक हस्ती के साथ मुनाकहत के फ़राइज़ अंजाम देना भी इबादत से कम नहीं है।

    अलिया ने थोड़े से अनाज और चारे पर गाँव की एक बेवा की लड़की रहमते को हंडिया-रोटी और घर के दूसर कामों के लिए रख लिया था। ये लड़की जिसकी उम्र दस-ग्यारह बरस की थी, मेहनती तो थी ही मगर साथ शोख़ और चंचल भी थी। दिन-भर चिराग़ बी-बी के साथ उसकी ख़ूब गुज़रती। चिराग़ बी-बी उससे ख़ुदा और रसूल की बातें किया करतीं। और रहमते उसे इधर-उधर के लतीफ़े और चुटकुले और गाँव की रोज़-रोज़ की ख़बरें सुनाती। गाँव भर में सिर्फ रहमते ही एक ऐसी लड़की थी जिससे चिराग़ बी-बी अपने दिल के राज़ कहा करती “रहमते मेरा बाबा कहा करता था। बेटा सब्र कर। अल्लाह का कोई मददी आएगा। ज़रूर आएगा वो तुझे ख़ाक से उठाएगा। वो तुझे गले लगाएगा। बाबा का कहना सच हुआ। आख़िर मेरा शहज़ादा ही गया।”

    रहमते वो यूसुफ़ से ज़्यादा हसीन है उसमें पैग़म्बरों वाली शान है। वो ग़ाज़ी मर्द है। उसने मेरी ख़ातिर गदाई क़ुबूल की। गाँव का नंबरदार अपनी बेटी को उससे ब्याहना चाहता था और सैंकड़ों बीघे ज़मीन उसके नाम लिखना चाहता था। मगर उसने मुझ ऐबों भरी अंधी की ख़ातिर, दौलत को ठुकरा दिया। धन-दौलत आनी जानी है। मरने पर सारा माल-ओ-ज़र यहीं धरा रह जाता है। बस नेक-आमाल इन्सान के साथ जाते हैं।” रहमते कहती “चागाँ बी-बी। अल्लाह की सौं। चौधरी अलिया बड़ा गबरू जवान है। तू बड़ी भागों वाली है। उसके गले में चांदी का तावीज़ काले डोरे में बंधा बड़ा अच्छा लगता है।”

    इस पर चिराग़ बी-बी जोश में आकर कहती “रहमते, है गाँव में कोई और जवान जो घोड़े की सवारी में, कुश्ती में, कब्बडी में उससे बाज़ी ले जा सके। फ़सल काटने में उसका हाथ ऐसी तेज़ी से चलता है जैसे पानी में मछली चलती है। जितनी देर में चार जवान फ़स्ल काटें उतनी देर में वो अकेला उनके बराबर काट के रख देता है। उसके बाल घुंघरियाले हैं, उसका जिस्म सुडौल है। जब मैं उसके पाँव दाबती हूँ तो मुझे बड़ा मज़ा आता है। जब अखाड़े की मिट्टी उसके जिस्म को लगती है तो वो और भी चमकने लगता है।”

    इन बातों का सबसे अच्छा वक़्त वो होता, जब रहमते आँगन में चूल्हे के पास बैठी तवे पर रोटियाँ डाल रही होती, और चिराग़ बी-बी उसके पास ही चौकी पर बैठती। जब वो अलिया के बाज़ ऐसे कमालात जो ज़ाहिर में नज़र आते , बयान करती तो रहमते बे-इख़्तियार कह उठती, “अच्छा चागाँ बी-बी।”

    और जब चिराग़ बी-बी बोलते-बोलते थक जाती, तो रहमते शुरू होती। “सुना चागाँ बी-बी आज रसूलाँ के हाँ लड़की पैदा हुई। इतनी छोटी जैसे चूहिया हो... नंबरदार की बेटी करीमाँ की शादी की तैयारीयाँ हो रही हैं इन दिनों। सुना है कि शहर से बैंड बाजे वाले बुलाए जाऐंगे... रात मिट्ठू की दुकान से पाँच सेर तंबाकू चोरी हो गया।”

    एक दिन रहमते रोज़ से ज़रा जल्दी गई। वो जोश में भरी थी जैसे कोई बड़ी अनोखी ख़बर लाई हो। जैसे ही अलिया खेत पर रवाना हुआ, वो फूट पड़ी “सुना चागाँ बी-बी। हमारे क़रीब जो गाँव है “धूप चढ़ी” उसमें एक ज़मींदार उमरो रहता है उसने नई शादी की है। ख़ुद तो कम्बख़्त साठ बरस का है मगर दुल्हन सोला सतरह बरस से ज़्यादा की नहीं है। सब गाँव वाले उसे बुरा कह रहे हैं। मगर उसको किसी की पर्वा नहीं बल्कि उसने सबको जलाने के लिए दुल्हन का घूँघट उठवा दिया और बड़ी अजीब-अजीब बातें शुरू कर दीं।

    सुना है उसने दो सफ़ेद घोड़े ख़रीदे हैं। एक अपने लिए एक दुल्हन के लिए। हर-रोज़ सुबह को दोनों घोड़ों पर सवार हो कर सैर को निकलते हैं। कभी बुड्ढे को कोई काम होता है तो वो गुलनार को अकेला ही भेज देता है। सुना है कल गुलनार अकेली घोड़े पर सवार सैर करती हमारे गाँव की तरफ़ निकली। उसने गाँव वालों से बड़ी आज़ादी से बातें कीं। कुछ लड़के उसके सफ़ेद घोड़े के पीछे हो लिए। वो सब उसको बड़ी हैरानी से देखते थे। उसका रंग मेमों की तरह गोरा है और बाल सुनहरे हैं। सुना है वो बड़ी ख़ूबसूरत है। उसने रेशमी क़मीस और शलवार पहन रखी थी। उस पर बड़े-बड़े गुलाब के फूल बने थे। पाँव में ज़री की जूती थी। उसने सुर्ख़ दुपट्टे को जिसके किनारों पर गोटा लगा था, छाती पर बल देकर गिरह सी बाँध ली थी। वो बड़ी शान से घोड़े पर बैठी थी जैसे कहें की रानी हो। उसने हमारे खेतों की भी ख़ूब सैर की... और चागां बी-बी चौधरी अलिया ने भी तो उसे देखा था। बल्कि कुछ बातें भी की थीं। शायद वो रास्ता पूछ रही थी।”

    “क्या कहा तूने? उसने देखा था? उसने बातें की थीं?”

    “हाँ चागां बी-बी।”

    “मेरे शहज़ादे ने?”

    “हाँ अलिया चौधरी ने। चागां बी-बी।”

    “चल चुप रह। ज़्यादा बातें बना। मेरे सर में दर्द हो रहा है, मैं जाती हूँ।” ये कह कर वो चौकी से उठी और राह टटोलती हुई अपनी कोठरी में चली गई। उस दिन उसने रहमते से और कोई बात की।”

    शाम को अलिया खेतों से वापस आया। घर पर वो ज़्यादा-तर ख़ामोश ही रहा करता था मगर उस शाम वो घर में ज़्यादा चला फिरा भी नहीं। पहले ख़ामोशी से चारपाई पर बैठ कर खाना खाता रहा। फिर हुक़्क़ा भरा और देर तक पीता रहा। इस अर्से में चिराग़ बी-बी भी ख़ामोश रही। मगर जब अलिया सोने लगा और तह बंद को चादर की तरह ओढ़ कर चारपाई पर लेट गया तो वो हस्ब-ए-मामूल उसके पास आई और उसकी चारपाई पर बैठ कर उसके पाँव दाबने लगी। मगर अभी पंद्रह मिनट भी ना गुज़रे थे कि अलिया ने कहा, “चागां बस कर, मुझे नींद रही है।”

    अलिया के इस ख़िलाफ़-ए-मामूल रवैय्ये पर वो भौंचक्की रह गई। उसने एक दबी-दबी सी आह भरी और फिर ख़ामोशी से उठ कर अपनी कोठरी में चली गई। थोड़ी देर के बाद उसकी कोठरी से “या ग़फ़ूर या रहीम या ग़फ़ूर या रहीम” के अलफ़ाज़ सुनाई देने लगे। ये वज़ीफ़ा कोई घंटा भर जारी रहा। फिर चिराग़ बी-बी हाथों से राह टटोलती उसकी चारपाई के पास पहुँची और बड़ी मुलायमी से उसके पाँव को जो चादर से बाहर निकले हुए थे छुआ। उसका जी चाहा कि वो चारपाई पर बैठ जाये और मामूल की तरह उसके पाँव दाबना शुरू कर दे। मगर उसे जुर्रत हुई और वो वापस अपनी कोठरी में चली गई। थोड़ी देर के बाद कोठरी से फिर आवाज़ आने लगी जैसे कोई सरगोशी करता है।

    “मुझ ऐबों भरी को गले से लगाया। इसका अज्र अल्लाह और उसका हबीब उसको देगा, मैं अंधी मोहताज किस लायक़ हूँ। या पाक परवर दिगार अपने हबीब के सदक़े मेरे सर के साए को हमेशा-हमेशा क़ायम रख। या पाक परवर दिगार उसके दुश्मनों को ज़ेर कर। या पाक परवरदिगार उसे हर बला से महफ़ूज़ रख। या पाक परवर दिगार अपने हबीब के सदक़े जो कोई उस पर हुस्न का वार करे, उसके हुस्न को ग़ारत कर। या पाक परवर दिगार अपने हबीब के सदक़े मेरी दुआ क़ुबूल कर। या पाक परवर दिगार पहले मैं मरूँ बाद में वो मरे। आमीन।”

    दो घंटे बाद वो अपनी कोठरी से फिर निकली और उसकी चारपाई के पास पहुँच कर उसके पैरों को टटोलने लगी और ये इतमीनान करके कि वो चारपाई पर बदस्तूर चादर ताने सो रहा है, वो फिर अपनी कोठरी में चली गई। अभी कुछ-कुछ रात बाक़ी थी कि वो फिर कोठरी से निकली और साए की तरह चलती हुई अलिया की चारपाई के क़रीब आई, और अपने गर्म-गर्म हाथों से उसके पाँव मलने लगी। फिर उसके पाँयती ज़मीन पर बैठ गई और उसके दोनों पाँव के तुलवों को चूमा। अलिया ने सोते में करवट बदली, और अपनी टांगों को सिकोड़ कर चादर के अंदर कर लिया।

    जब सुब्ह-ए-सादिक़ नमूदार हुई तो चिराग़ बी-बी की कोठरी से फिर आवाज़ आने लगी। अब के आवाज़ में ग़ैर-मामूली जोश था और वो मामूल से ज़्यादा बुलंद थी। “उसने मुझ अंधी ऐबों भरी की ख़ातिर गदाई क़ुबूल की। उसने मुझे गले से लगाया। मेरा शहज़ादा यूसुफ़ से ज़्यादा हसीन है। उसमें पैग़म्बरों वाली शान है...”

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 351)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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