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ग़ुलामा

MORE BYताहिरा इक़बाल

    स्टोरीलाइन

    यह गाँव के एक ऐसे सीधे सादे व्यक्ति गु़लामा की कहानी है, जिससे गाँव का हर व्यक्ति भला बुरा काम करा लेता है। वह व्यक्ति ज़मींदारों के खेतों में बेगार भी करता है और जब मस्जिद में नमाज़ियों की कमी से मस्जिद का इमाम परेशान होता है तो वह मस्जिद में भी पहुँच जाता है। किसी का हलाला होना है तो वह दुल्हा बन जाता है। एक रोज़़ गाँव वाले गु़लामा की शादी एक गर्भवती से करा देते हैं। न चाहते हुए भी इमाम साहब को यह निकाह पढ़ाना पड़ता है और उसके बाद इमाम साहब को गु़लामा से नफ़रत हो जाती है। गर्भवती के बच्चा पैदा होने के बाद वह औरत भाग जाती है। एक दिन गु़लामा अपने नवजात बीमार शिशु को लेकर इमाम साहब के पास हाज़िर हुआ तो उसकी हालत देखकर इमाम साहब का ग़ुस्सा स्वतः समाप्त हो गया।

    जून जुलाई के रोज़े थे और कपास की ब्वॉय का मौसम था। वुडी सरगी(फ़ज्र से पहले) जब किसान खेतों में भापें मारते सूरज के भुट्टे में दिन भर भुनने की तैयारी कर रहे होते तो मौलवी अबुलहसन मस्जिद के लाऊड स्पीकर से ऐलान करता।

    दरोज़े दारू अल्लाह के प्यारो सहरी का वक़्त हो गया है खाने पीने का इंतिज़ाम कर लू।

    ट्रैक्टर के साथ हल जोड़ते भल हिली की ट्रालियां भरते असपरे की मशीनें पुशत पर जमाते खाद बीज की झोलियाँ बाँधते किसान मीलोटी पगड़ियाँ मुँह पर खींच मौलवी की नादानी पर हलक़ के अंदर ही अंदर तज़हीक आमेज़ क़हक़हे उनडीलते।

    मुल्ला! या तो रोज़ा रखे या तेरा रब रखे जो जहाज़ पर आसमानों के हंडोले में झूले लेता है और ख़ुद तो मसीत के थोड़े फर्शों पर पानी छिड़क दिन भर वेला सोता है। पाँच अजानें कोक दें पाँच टीम माथा टेक लिया कभी धूप के कर है मैं अमन छोड़ती फसलों पर ज़हरीले असपरे छिड़क कभी आसमानों की दहकती अंगीठीयों तले गोडीयाँ कर सुहागे और जिन्द रे मार कभी हाड़ जेठ की भापें मारती खेतों की आवे में कूज़ों क़तरा दम पर लग ।जब पिंडे का सारा पानी प्यासी मिट्टी चूस ले जाती है और जेब हलक़ूम से चप्पा भर बाहर उलट आती है तो फिर मैं तुझसे पूछूँ।

    मुल्ला रोज़ा रखेगा अल्लाह का प्यारा बनेगा।

    परली बहक से कड़वे तंबाकू को स्याह चक़माक़ सी हथेलियों में मरोड़े देते हुए सोहना बग़लें बजाता सीने के बलग़म में हँसता गला जो दे रखा है तुझे मौलवी! वो काला ख़च्चर,लादू, जैसे तो गुलाम मुहम्मद कहता है। चाहे तो नमाज़ों के लादे डाल इस पर चाहे तो रोज़ों के भार उठवा इस से।

    अल्लाह दित्ते के उखड़ लफ़्ज़ों और सोहने की उजड्ड हंसी से फ़ौजी नसीर डर सा गया, ज़बान की नोक छू कर कानों की लवें पकड़ें और कलिमा तुय्यबा पढ़ा।

    हर कोई रब सोहने के हुक्म से अपना अपना काम कर रहा है। क्यों डराता है यार मिला! अगर हम मिट्टी में मिट्टी हो मेहनत ना करें तो फिर तो घी शुक्र के साथ दो दो चुपड़ी खा कर रोज़ा कैसे रखे और अगर हम भी तेरी तरह नहा धो रोज़ा रख सो रहें तो फिर ख़ून पसीना एक कर के अनाज कौन उगाए।

    फ़ौजी नसीर ने हुक़्क़े के लंबे सोटे में आँखों की मशक़्क़ती झुर्रियों को गुच्छा मछा खींच फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में नाक से धूवां छोड़ा और सुरमई लहरियों में से जवाब खोजा।

    हर एक की अपनी अपनी डयूटी है मिला तुझे रब सोहने ने नमाज़ रोज़े दे दिए। हमें मिट्टी और मशक़्क़त दे दी।

    मौलवी अबुलहसन ने अज़ान-ए-फ़ज्र के बाद इंतिज़ार खींचा लेकिन मुस्लमानों की इस बस्ती में से एक भी नमाज़ी मस्जिद की चौखट पर ना पहुंचा।

    मौलवी अबुलहसन के दिमाग़ में दिन में पाँच मर्तबा आने वाला ख़्याल फिर आया। ये बस्ती छोड़ देनी चाहिए यहां क़हर ख़ुदावंदी नाज़िल होने वाला है।मस्जिद के सामने से गुज़रती सड़क पर से चीख़ते धाड़ते, ट्रैक्टर ट्रालियां, भल सफ़ाई को जानेवाले किसानों के जत्थे आलिम लोहार की जुगनयां और नूरां लाल के गीत अलापते गुज़रते रहे। दुकानों के थड़ों पर बैठे नौजवान के फ़िल्मी गानों की ताल पर अपनी माशूक़ों को नंगे इशारे और जुमले कसते तो जैसे भिड़ों के छत्ते में धुआँ धख़ा दिया गया हो। ज़हरीले डंक नाक की करते फेंक और कानों की लवें डंकने लगे। मौलवी अबुलहसन ने कानों की बा-वज़ू लवें छू कर एक-बार फिर तौबा ताइब की और अपने दोनों लड़कों को बिलमुक़ाबिल खड़े होने का इशारा किया। काश उस की सातों बेटीयों में से कोई एक लड़का हो जाती तो कम अज़ कम घर की जमात तो बन जाती।

    वो नीयत बाँधने को ही था कि मस्जिद के दरवाज़े में से गुलामा स्याह आंधी का झूला सा दाख़िल हुआ। लंबी लंबी जा हुंगों से उठी तहमद के टुकड़े से स्याह छाल तने जैसे घुटने ढाँपता मुड़ी तुड़ि उनगलीयों और खुखड़ी से फटे तुलूओं वाले गोबर कीचड़ से लुथड़े पैर मस्जिद की होज़ी से धोते हुए कामयाबी भरे स्याह धब्बों वाले ज़र्द दाँत बाहर निकाले जैसे कहता हो।

    आख़िर में पहुंच गया ना।

    जमात बन गई थी और तक्बीरें पढ़ते हुए मौलवी अबुलहसन का बस्ती छोड़ने का इरादा फिर मुतज़लज़ल हो गया। हालाँकि उसे मालूम था कि गुलामे को नमाज़ छोड़ कलिमा भी नहीं आता, जब भी सुखाने की कोशिश की वो ऊओनट से धान्य के अंदर ख़ाली अलज़हन मुस्कुराहट के साथ शरमाता जैसे कहता हो।

    इस की भला का ज़रूरत है आपका काम तो उस के बग़ैर भी चल जाता है।

    लेकिन जब वो मौलवी अबुलहसन के इत्तबाअ में सज्जो दो क़ियाम करता तो अबुलहसन को वहम सा होने लगता कि कम अज़ कम इस नमाज़ में तो वो उन से ज़्यादा नंबर ले गया है। नमाज़ से फ़राग़त के बाद वो सरपट दौड़ता हुआ मालिक के खेत में जा कर जत जाता और नमाज़ के वक़्त के ज़िया ने में कई गुना ज़्यादा मेहनत चुका देता।

    बाछों के दोनों अतराफ़ हथेलियाँ खड़ी कर के दिन रात में कई कूकीं पड़तीं।

    गुलामा आँ गलाआअ

    गुलामा जहां कहीं होता रसा तुड़वा कर स्याह ख़च्चर सा, सांडों जैसे टेढ़े-मेढ़े खुर बजाता खाले बने ढाए हल वीड़ीं टापता कोक की सीध में आन हवाओं उतरता।

    शहतीर चिढ़ाने, अड़ोड़ी के गड्डे भरते, मरे हुए जानवरों की खाल उधीड़ कर उन्हें गांव से बाहर घसीट कर फेंकने, शर्तें पूरी करने और हलाले करवाने के लिए गांव वालों के पास शायद एक ही शख़्स बचा था।गला, गुलामा, गुलामा, गामा, ग़ुलाम मुहम्मद। जो सहरी से इफ़तारी तक खेतों की दहकती भट्टी में रोज़ा रख ऐसी जिगर तोड़ मेहनत करता कि गांव वाले भत उड़ाते। काला ख़च्चर,लादू, कुम्हार का खोता, मुश्की घोड़ा, कुमला सांड, जिस तरह वो यतीमी की कोख में आप ही आप पुल गया था। इसी तरह वो हाड़ जेठ के उठ पहरे रोज़े रख जलते बलते खेतों के कोल्हू से जुटा तनोमंद ख़च्चर की तरह हिनहिनाता रहता।

    गांव के नौजवान शर्तें बुधते।

    गुलामा तीन रोज़े पानी से रखेगा और नमक से खोलेगा। गुलामा शर्त बधने वाले को सौ रुपया जितवा देता। गला गड़ के शर्बत की पूरी बाल्टी पी जाएगा और ऊओपर से पाँच किलो जलेबी भी खाएगा। पूरे गांव के मर्द और बच्चे चौक में जमा होते और सब के बीज मदारी का बच्चा जम्हूर अया करतब भी दिखा जाता।

    गुलाम मुहम्मद रात के दो बजे पुराने क़ब्रिस्तान के बड़ से पत्ते तोड़ लाएगा।

    शर्त बधने वाले चुड़ेलों के ख़ूनी दाँतों से भनभोरी हुई गुलामे की लाश के मुंतज़िर होते लेकिन वो पत्ते तोड़ कर ज़िंदा लौट आता।

    गामा इस महीने तीन हलाले करवाएगा।

    वो शर्त बधने वालों को जीत की जलेबी खाते देख हब्शी शराद टूटी हुई हड्डी वाले फैले नथनों से मीठी महक सूँघता और कामयाबी से चूर शर्मीली मुस्कुराहट में गच हो जाता।

    मौलवी अबुलहसन दुखी होता रहता।

    सन ग़ुलाम मुहम्मद! ये ना-आक़िबत-अँदेश तुझ पर ग़ैर शरई बिद्दतों का गुनाह डाल रहे हैं। ढीमों जैसे बे-हिस डेल्लों और बड़े बड़े हब्शी नज़ाद जबड़ों के अंदर वो पूरी बत्तीसी खोल देता जैसे कहता हो।

    मुल्ला जी! में जैसे आपकी जमात खड़ी करवा देता हूँ वैसे ही उनकी शर्तें भी पूरी करवा देता हूँ।

    हाड़ जेठ सावन भादों की चिलचिलाती गर्मी में कपड़े मार अदवियात की उमस छोड़ती फसलों की हब्स में लुथड़े पथड़े किसानों के मुँह से सूरज की आग जैसे हज़यान निकलते रहते। खेत में रोटी पहुंचाने में ज़रा देरी हुई लस्सी में नमक ज़्यादा खुर गया। रोटी पर धरी मिर्च ज़्यादा बारीक कोई गई तो वो अपनी औरतों को दराँतियाँ मार मार लहूलुहान कर देते और ज़बान से तलाक़ तलाक़ तलाक़ का झाँपा बरस पड़ता।

    मौसम की शिद्दतों में से टपक पड़े ऐसी बेक़ाबू तलाक़ों के हलाले के निकाह मौलवी अबुलहसन को करवाने पड़ते क्योंकि वो उन्ही की ग़ुस्सैली मेहनत से छः माही फुज़ला ना वसूल करता और बख़ूबी जानता कि इन ग़ाफ़िलों की ख़ुदसाख़ता शरा पर वो दीन-ए-इस्लाम की शरा लागू नहीं कर सकता फिर भी कटे परों की तकलीफ़ में एक-बार फ़ड़फ़ड़ाता ज़रूर।

    ग़ुलाम मुहम्मद नादान है। फ़ातिरुलअक़ल है। शरण वो निकाह के काबिल ही नहीं है।नंबरदार हुक़्क़े का लंबा सोटा घड़घड़ा कर पंचायत में बैठे हर घराने के एक एक मोतबर की तरफ़ देखते हुए मौलवी की नादानी पर आँख मारता।

    क्यों मिला जी!जब उसे नमाज़ के कोल्हू में जोतते हो और रोज़ों के लादे इस पर चढ़ाते हो, उस वक़्त क्या वो फ़ातिरुलअक़ल नहीं होता।

    पंचायत का कोई दूसरा मोतबर मौलवी की बोदी दलील का भांडा फोड़ते हुए नंबरदार को दाद तलब नज़रों से देखता।

    मुल्ला जी! अगर वो जमात खड़ी करवाने को फिट(फुट) है तो फिर हलाला करवाने को भी बड़ा टेट(टाईड) है।

    मौलवी ज़बान से निकाह के कलिमे पढ़ते हुए दिल ही दिल में नऊज़-बिल-लाह का वरद भेजता।

    आख़िर ये नाफ़रमान मज़हब की बख् छोड़ क्यों नहीं देते। मस्जिद और मुल्ला को अपनी ख़रमसतियों के लिए ढाल क्यों बनाए हुए हैं।

    गुलामा ऊओनट जैसे छोछ फैला बैलों जैसी चितकबरी बत्तीसी निकाल दूल्हे की तरह शरमाता।

    अब हलाला करवाने वाला उसे अपनी बैठक में ले जाता। पेट भरकर खा लाता ।गुलामा दुलहन का चेहरा देखे बिना बे-सुध सो जाता। अगली सुबह हलाले वाला तलाक़ का गवाह बन मुल्ला से तस्दीक़-नामा लेने को जाता। कोशिश के बावजूद मौलवी अबुलहसन ये बस्ती छोड़ ना पा रहा था कि सतरह अफ़राद के कुन्बे को यही जाहिल पाल रहे थे जो कसमें भी अपनी ज़ात के हवाले से ना खाते। मुल्ला के रब की सोनहा।

    मुल्ला के नबी की क़सम।

    मुल्ला के क़ुरआन की क़सम।

    मिला की मसीत की सोनहा।

    मौलवी अबुलहसन सुनता तौबा इस्तिग़फ़ार पढ़ता।

    अपने बेटीयों की क़सम खाओ माल डंगर खेत खलियान की क़सम खाओ ना वाक़फ़ो बदबख़्तो।

    वो रमियां दराँतियाँ किसीयाँ फावड़े सुरों के ऊओपर ही ऊओपर लहराते।

    मुल्ला! अपनी मसीत और बाँग तक रह सोनहा क़िस्म माल औलाद के लिए नहीं होती रब सोहने को सोभती है क़सम।

    वो तो दुआ भी अपने लिए ख़ुद ना करते इसी काम के लिए तो वो अपनी मेहनत में से मिला को शुशमाही वज़ीफ़ा देते थे और जताते भी थे।

    मुल्ला दुआ कर बारिश हो। दुआ कर फ़सल को छाड़ लगे दुआ कर दूध पोत बढ़े, फ़सलाना ले घूस मार हुजरे में सोता है ना रिहा कर।

    अरे सूर खो! कभी ख़ुद भी दुआकर लिया करो। सिफ़ारशी दुआ भी कभी लगी है। फ़ौजी नसीर की ख़ाम दानिश उस की मशक़्क़त भरी झुर्रियों में सिमट आई।

    मुल्ला जी ! ये ग़रीब उन पढ़ मेहनत-कश अपना ख़ून पसीना दहकती चिलिम सी धरती को पिला देते हैं पोह माघ की बर्फ़ीली रातों में कोहरा जमे पानी बाँधते कई साँप डसे मर जाते हैं कई का कलेजा चुड़ैलें पंजा मार निकाल ले जाती हैं लेकिन तुम्हें कसैला ना बराबर देते हैं कि उनके और रब के बीज वास्ता रहे। आप दिल से दुआ किया करो मिला जी! किसानों की साँसों से कीड़े मार अदवियात की बदबू और कर बुरे ज़िरह बीमार दाँतों की बोचधटती जिनकी महकती हुई क़मीसों पर मेल और ज़रई अदवियात की तहें चढ़ी होतीं जैसे गन्ने की राब के ड्रम में ग़ोते हूँ। मौलवी जहां से गुज़रता हो कार्य पड़ते।

    मुल्ला जी कोई दम दारू कोई तावीज़ धागा, खाटे तुम पढ़े हुए हो फसलों को सूखा खा गया। ट्यूबवेल चलवा चलवा डीज़ल के उधार में लूं लूं जकड़ा गया। अल्लाह साएँ से मीणा की दुआ करो।

    अरे नाफ़िर मानो! ख़ुद कुछ ना करना सिर्फ ग़फ़लत और जहालत के कूज़े भरते रहना है। मौलवी अबुलहसन जली हुई ज़र्द फसलों पर इबरत की निगाह डालता और तौबा इस्तिग़फ़ार का वरद करता।

    नंबरदार ने दिखाई साँसों तले गिलहरी की दम जैसी मूंछों को फड़फड़ाते हुए आख़िरी फ़ैसला दिया।

    मुल्ला चला काटो जो ये कर सकते हैं वो ये करते हैं ग्यारहवीं का ख़त्म दिलाते हैं मुहर्रम में गड़ के शर्बत के कूड़े बाँटते हैं। मिन्नतें मानते चढ़ावे चढ़ाते हैं हर फ़सल पर मीठी सलोनी देगें पक्का ख़त्म दिलाते हैं। मस्जिद में जुमेरात भेजते हैं क़ब्रों वाले साएँ को तीन टीम रोटी भिजवाते हैं जो उनका काम है वो ये करते हैं जो तेरे करने का है तो कर मिला।

    मौलवी अबुलहसन ने मस्जिद में ऐलान किया। गांव के सारे मर्द रीड़े मैदान में बाद अज़ नमाज़-ए-ज़ुहर नमाज़ इस्तिस्क़ा के लिए जमा हो जाएं।

    मौलवी जब नमाज़-ए-ज़ुहर के बाद मैदान में पहुंचा तो अजब तमाशा देखा। रोड़ों वाले रेतले टीले पर गुलामा एक टांग पर खड़ा था और इस के गर्द जमा तमाशाई तालियाँ पीटते हिला शेरी देते बकरे बुलाते दूर से ही चीख़ते।

    मौलवी! परे परे गुलामा चला काट रहा है जब तक मीना नहीं बरसता ऐसे ही एक टांग पर खड़ा रहेगा। दोपहर ढलने लगी, गुलामे की पिघलती लक सी जलद पर स्याह आबले पड़ने लगे। ख़ाम डीज़ल सा पसीना नचड़ता, बासी रेत को भिगोता रहा। जिसके गर्म बुख़ारात उड़ उड़ कर शायद आसमान पर बादल बस्ते थे। मौलवी को वहम सा हुआ कहीं बारिश ना बरस पड़े फिर तो ये जाहिल इसी गले को साएँ बाबा बना लेंगे और बात बे बात कहेंगे, मुल्ला चला काटता है कि हम गले से कटवा लें।

    वो कानों की लोओं को छूते हुए।

    अस्र की अज़ान के लिए वापिस पल्टा। हालाँकि वो जानता था कि इस हंगामे और शोर में अज़ान की पुकार का जवाब देने वाला एक भी नहीं। आज तो गला भी नहीं, लेकिन मुस्लमानों की बस्ती में अज़ान ना गूँजे तो फिर।।

    तभी मजमा का शोर भयानक घुन-गरज में तबदील हो गया। गुलामे की स्याह मुहीब चट्टान तड़ख़ कर गिरी जैसे कोइले की कान मुनहदिम हुई हो जैसे भट्टी में उबलते लक का स्याल बह निकला हो चीख़ते धाड़ते मर्द घुटनों घुटनों तप्ती रेत में धंसे गुलामे पर घूंसों और ठडों से टूट पड़े वए काला ख़च्चर ख़िंज़ीर की औलाद थोड़ी देर और खड़ा रहता तो मीना बस बरसने को ही था।

    नंबरदार धाड़ा।

    के माँ के पारो! मैंने कहा ना था कि उसे कमर कमर तक रेत में पूर्व यहीं खड़ा खड़ा मर जाता लेकिन गिरता तो ना।

    मौलवी अबुलहसन ने ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि बारिश नहीं बरसी।

    नरम दिल औरतें सहरी इफ़तारी रोटी पक्का ले आतीं।

    मौलवी जोई अतों क़हर गर्मी दा घा पट्ठा करते माल डंगर की टहल सेवा करते तन्नूरों पर दस दस पूर रोटियों के लगाते टीम ही नहीं लगता। मुल्लाजी! मुड़ के (पसीना) से भीगी ओढ़नीयाँ निचोड़ें तो आप चाहे वुज़ू कर लू रोज़े रख तो नहीं सकतीं पर रखू! तो सकती हैं ना। मुल्ला जी दुआ करो अल्लाह सात बेटीयों ऊओपर तो बेटा बख़श दे। फनडर भैंस लग जाये। विक्की हुई भैंस को अल्लाह कटी दे।

    बी बीबियो! ग़ुलाम मुहम्मद को रखवाओ, रोज़ा उसे पक्का कर खिलाने वाली कोई नहीं है। ज़्यादा सवाब मिलेगा।।।

    मौलवी चार ख़ाना रूमाल के घूँघट में नज़रें हुजरे के फ़र्श में गाड़े रखता औरतें उस के पर्दे को बट बट देखतीं एक दूसरे को चुप्पे देतीं।

    हाय नी मर्द हो कर ज़नानियों से पर्दा करता है। अल्लाह साएँ का हुक्म आया है मर्द है औरतों से पर्दा करें।

    ना मिला जी! इस ख़च्चर को खाने की केडी लोढ़ है। उसे कोई नमाज़ रोज़े की सर समझ है भला वो तो तेरी रेस में भूक काटता और टुकड़ें मारता वो उस का नमाज़ रोज़ा कोई लगता है भल्ला।।।

    मस्जिद की सिफ़रों पर टुकड़ें मार मार गुलामे के कालक ज़र्रा बुझे दिए से माथे पर मसा पड़ गया, जैसे मुल्ला महिराब कहता, तो गांव की औरतें ओढ़नीयाँ मुँह में दबा दबा हँसतें।

    गला कुमला मसीत का दिया बन गया इस में जमाइयाँ का कड़वा तेल डालो।

    एक रात नंबरदार ने अपने डेरे से ओमला की हाँक मारने की बजाय बुलावा भिजवाया। बुलाने वाले ने ज़बान की तनाबें तालू में खींच होंट स्याह झाल सी ओक में छिपा कर सरगोशी की।

    मुल्ला जी! डीड़े पर हाज़िरी आई है। मौलवी जानता था ऐसे खु़फ़ीया बुलाऊँ का मतलब ग़ैर शरई वारदातों पर मज़हब का ठप्पा लगवाना होता है लेकिन नंबरदार के बुलावे को ठुकराना मस्जिद की सीप को ठुकराना था।

    मौलवी को दूर से देखते ही नंबरदार ने धुआई मचाई।

    बड़ा पाप मिला जी महापाप।

    लेकिन दीन इस्लाम में पर्दापोशी का हुक्म आया है। इस गंदी भित्ति पर निकाह की चादर डालो। ऐब कबीब जो कुछ भी है इस का जल्द छिप जाना ज़रूरी है।

    मौलवी ने चार ख़ाना साफा सर से उतार कर ज़ोर से झटका जैसे इस पर उड़ कर पड़ जाने वाली गंदगी झाड़ रहा हो। सामने कीकर से बंधी भैंस के इर्दगिर्द खुला सांड घूम रहा था। गांव भर के बच्चे और नौजवान दायरा बनाए सांड को हिला शेरी दे रहे थे।

    नंबरदार ने पुकार कर पूछा।

    वए! मुल्लाई हुई कि ना।

    नंबरदार जी! अभी काम ठंडा है।

    पर इधर तो काम गर्म है।

    नंबरदार ने रानों पर हाथ मार ले।

    अगर बदबख़त हमल गिराती है तो ये क़तल है एक मासूम जान का नाहक़ ख़ून, उस की सज़ा पूरी बस्ती पर आएगी। मौलवी जी! क़तल बड़ा जुर्म है कि गुनाह का छपा लेना।

    मौलवी के जवाब से पहले पंचायत ने धाय मचाई।

    बिना शक क़तल मुल्लाजी! मिट्टी पाओ दो बोल पढ़ाओ।

    बच्चों ने इश्तिहा अंगेज़ तालियाँ बजाएँ नौजवानों ने सांड की मर्दानगी पर लज़ीज़ नारे बुलंद किए भैंस लग गई थी।

    मौलवी जी! दिन रात खेत खलियान में अंधेरे उजाले में बेचारियों को भूरे(मशक़्क़त) करना पड़ते हैं हर तरफ़ सांड वहीं सूँघते फिरते हैं हमारी आपकी बहू बेटीयों की तरह ग़रीब पर्दे में थोड़ी बैठ सकती हैं, जब मफ़क़ा बहुत हूँ तो फिर बंदा भूलन हार ग़लती तो अम्मां हवा से भी हो गई थी। मुल्ला जी इला सितार है ग़फ़्फ़ार है, नबी भी लुज पाल है फिर हम आप नशर करने वाले कौन होते हैं।।।

    भैंस का मालिक मिलाई की मुबारकबादें वसूल करता भैंस को थपथपाता बाड़े को ले जा रहा था। मजमा टूट कर अब मौलवी के गर्द जमा हो गया था।

    मौलवी अबुलहसन ने क़फ़स की आख़िरी फड़फड़ाहट ली।

    हामिला औरत का निकाह ग़ैर शरई है। नंबरदार जी बस्ती पर क़हर ख़ुदावंदी नाज़िल हो जाएगा।।।

    मौलवी जी फिर कोई रस्ता निकालो आप दीन इस्लाम के आलम-ए-हू क़ुरआन के हाफ़िज़ हो नमाज़ रोज़े के मुहाफ़िज़ हो आप जो कहोगे वही शरा हो जाएगी। आसमानों से इनकार थोड़ी नाज़िल होगा। चलें पूछ लें अपने रब से आपकी तो गुल बुत रहती ही होगी ना।।।

    नंबरदार दीन इस्लाम में पर्दापोशी की अनगिनत मिसालें गँवाते हुए पूरों पर पटाख पटाख बोसे देता रहा और पंचायत उस की पैरवी में सुब्हान-अल्लाह, सुब्हान-अल्लाह के नारे बुलंद करती रही।

    आख़िर आठ माह की हामिला से अक़द करने को कौन तैयार होगा।

    मौलवी के इस अहमक़ाना इस्तिग़फ़ार पर पूरी पंचायत के गुदगुदी हुई। नंबरदार ने लंबा कश लेकर तज़हीक आमेज़ आँख दबाई।

    मौलवी जी! ये आपकी परेशानी नहीं बंद-ओ-बस्त है हमारे पास।

    गुलामा अपने बड़े बड़े जबड़ों के अंदर मुस्कुरा रहा था। तारकोल सी स्याह चुकती रंगत में से चिकना चिकना रोग़न छुटता था। लाल सुर्ख़ मसूड़ों के अंदर ज़र्द दाँत सच्चे सोने की तरह चमकते थे और वो कंधे पर गर्दन ढलका शरमाता था जैसे कहता हो।

    मौलवी जी! में आपकी जमात नहीं पूरी करवाता किया? आपके रोज़े नहीं रखता? आप मेरा निकाह नहीं पढ़वाईंगे?

    आठ माह की हामिला लाल तलेदार दुपट्टे में छपने से ज़्यादा उमडती छलकती पड़ रही थी।

    मौलवी जी! बिसमिल्लाह पढ़ो पर्दा डालो इस हाल में पंचायत में बैठी क्या ये गधी अच्छी लगती है।

    नंबरदार ने अबुलहसन के कमज़ोर हौसलों को एक और धक्का लगाया।

    गुलामा ग़रीब बिना सहरी खाए रोज़ा रखता और नमक चाट कर खौलता है। चक्कर रोटी पकाने वाली मिल जाएगी झुग्गी बस जाएगी उस की मुल्ला जी।

    पूरी फ़िज़ा में असपरे की ज़हरीली बू रच बस गई थी। तन्नूरों में हांडियों भरोलों मैं लस्सी के मटकों में किसानों के जिस्मों में साँसों में घास चारे जड़ी बोटियों में जैसे पूरी धरती-ओ-आसमान ज़हर में गुँधे हूँ कपास के पौदे अभी ज़मीन से सर निकाल कर ख़ुद को सीधा ना कर पाए थे कि बीमारीयों ने आन पकड़ा, ज़र्द टहनियों पर कुमला के सिकुड़े हुए पत्ते जैसे रूओठे हुए बच्चे मुँह बिसूरते रोते हुए किसान दिन भर असपरे वाली मशीनें कमर से बाँधे मुतअफ़्फ़िन सांस छोड़ती फसलों पर ज़हर छिड़कते कई एक को ज़हरीले असपरे चढ़ जाते खट्टा पिलाने से कई बच जाती कई मर जाते, जानवर ज़हरीला चारा खा मरने लगे। भैंस दूध घटा गईं। नहरों में बंदीयां गईं। डीज़ल सोने के भाव बिकने लगा। खाद नायाब हो गए।

    मौलवी अबुलहसन जिधर से गुज़रता हो कारा पड़ा।

    मुल्ला जी! कोई दम दुरूद कोई तावीज़ धागा। अब को अर्ज़ गुज़ारो बंदों पर रहम करते।

    मौलवी अबुलहसन ने तन्हा मस्जिद में जुमे का ख़ुतबा दिया।

    लोगो! ख़ुदा के अहकामात और नबी की शरा से मज़ाक़ मत करो। बस्ती पर क़हर ख़ुदावंदी नाज़िल हो जाएगा।

    है क़हर-ए-ख़ुदा का।।। मुल्ला भी बादशाह बंदा है।

    वो खाल के पेंदे में मुतअफ़्फ़िन पानी ओक भर पीते खाले बने खोदते हलक़ में भरी धूल में अंदर क़हक़हे पलटते।

    मुल्ला! चहार पहर खेतों के बेलन में निचुड़ते हैं। कहाँ हैं पाक कपड़े कि नमाज़ें पढ़ें ,तू तू मिला चटा बाना कर के मसीत के हुजरे में वेला जुमरातों के हलवे खाता है। रब भी उन्ही का पेट भरता है जिनका पहले फूला हुआ है। जब भी माराई हम-ग़रीबों पर ही आई। सूखा पड़ा तो सब सड़ गया मीना बरसा तो सब बहा ले गया। अरे मौलवी तो मसीत के गनबद में बैठा वैलीयाँ खाता है।रब सोहने को हमारी परेशानीयों से आगाह क्यों नहीं करता।

    मौलवी अबुलहसन कानों की लवें छू कर तौबा जो इस्तिग़फ़ार पढ़ता। वो इस मौकापरस्त जहालत के ख़िलाफ़ फ़तवा कैसे देता कि अगर उनकी फ़सल होगी तो उसे भी फ़सलाना मिलेगा। औरतें किताब खुलवाने को जूते समेत जोड़े लाएँगी और जुमेरातें भेजेंगी और हर मुश्किल में हलवे पक्का किताब खुलवाने आयेंगी

    मुल्ला जी! ज़रा किताब खोल कर बताओ मेरा मुंद्री छल्ला किस ने चुराया, मेरे शौहर पर तावीज़ किस ने डाले।

    मौलवी के बोलने से पहले ही निशानीयां वो ख़ुद ही बताती चली जातीं।

    मौलवी जी! कैरी आँख वाली है ना पैर में .........है ना, गाल पर सस्ता है ना।

    फिर माथा पीट कर कामयाबी भरी चीख़ मारतीं।

    बोझ लिया वही काले की रन पहले ही पक था।

    मौलवी के कुछ कहने से पहले ही वो किताब की गवाही उठा कर काले की रन के तो बे उधीड़ने चल पड़ती। लेकिन हलवे की रकाबी छोड़ जाती तो दूसरी गड़ की थाली भरे आन बैठती।

    मुल्लाजी! किताब फिर विल्लो भैंस का दूध किस ने बाँधा चूल्हे की राख में तावीज़ किस ने दबाए। रज़ाइयों में सोईयां किस ने परवीं। लस्सी पर मक्खन कमर क्यों चढ़ने लगा है। गोया ग़ैब के ये सारे इलम गड़ हलवे की पेटों के रूओबरो बोलने लगे हूँ। ज़रूरी था, वर्ना वो फुसलाने के काबिल नहीं।।।

    महीने भर बाद गुलामा बेटे का बाप बन गया जिसका नाम उस की माँ ने नवेद रखा गांव के लड़के गुलामे को अब्बू नवेद के नाम से छेड़ते तो वो ख़च्चर जैसे मज़बूत बदन के अंदर फूल सा खुलता और बच्चे सा खखलाता ,दो लतियायाँ झाड़ता और लंबी लंबी हचकोहचको करता।

    इस निकाह के बाद मौलवी अबुलहसन की कोशिश होती कि गुलामे के पहुंचने से पहले पहले वो नमाज़ की नीयत बांध ले लेकिन वो बड़े बड़े जबड़ों के अंदर दिखाती इंजन सा हो नुक्ता कीचड़ गोबर से लुथड़े उम्र-भर जूतों की क़ैद से आज़ाद खुरों पर भागता हुआ आन पहुंचा और मौलवी को ना चाहते हुए भी जमात करवानी पड़ती।इस शख़्स की ख़ातिर जो शरा की सरीहन ख़िलाफ़वरज़ी करवाने का मुर्तक़िब ठहरा था। बाद में वो अपने लड़कों को सुनाता।

    ना कलिमा आए ना अल्लाह रसूल का पता शरीयत को मज़ाक़ बनाने वाले जाते हैं जमात करवाने।

    जिस रोज़ मरादो दो महीने का बच्चा गुलामे के पहलू में सोता छोड़कर किसी और के साथ निकल गई।गुलामा अपने स्याह बदन पर उदासी के सारे रंग ओढ़े फटे फटे बुना पलकों वाले डेल्लों में से मेला मेला पानी बहाता रहा। भूका बच्चा तांत की तरह अकड़ता और फिर गुच्छा मछा हो कर रोता तो लगता तनी हुई रगों वरीदों में से फुट कर क़तरा-क़तरा बहने लगेगा। लेकिन जब वो बोतल के मुँह पर लगे निपल से दूध पीने लगा तो गुलामा अल्लाह हुवल्लाह हुवल्लाह हो का वरद मुसलसल करने लगा। गुलामा जो गूँगा बहरा तो ना था लेकिन यतीमी की चुप और भेड़ बकरीयों की सोहबत में वो जुमले ना सीख सका था। टानवां टानों लफ़्ज़ बोल लेता लेकिन आज एक सोगवार र्धम के साथ लफ़्ज़ों का तसलसुल उस के मुँह से उमडा चला रहा था।अल्लाह हुवल्लाह हुवल्लाह हो अड़ोस पड़ोस की औरतें हैरत की अनगशतिशहादत ख़ाक की फिंक पर जमाए जमा हो गईं। कुछ रोईं कुछ हँसें। क्यों रोता है झुला उसी का हो कुमला गुलामा! पता नहीं किसी राही की सिमट थी फेंक कर चली गई तेरा क्या लगता है क्यों लोरियाँ सुनाता है उसे।।।

    गुलामा उम्र में पहली बार रोने और बोलने के तजुर्बे से दो-चार हुआ था जी भर कैरो या सर लगा लगा लोरियाँ सुनाएँ।अल्लाह हुवल्लाह हुवल्लाह।

    चौकीदार के रजिस्टर में जब बच्चे की वलदीयत के ख़ाने में ग़ुलाम मुहम्मद रफ गला, लिखा गया तो वो बच्चे की झोली झल्लाता मज़ीद ऊओनचे और आज़ादाना सुरों में लोरी गाने लगा, जिसके लफ़्ज़ों में ख़ुदबख़ुद तबदीली हो गई थी।

    अल्लाह हुवल्लाह हो गले दातों

    अल्लाह हुवल्लाह हूँ।।। गले दातों

    सुनने वाले फेफड़ों के अंदर ही अंदर मख़सूस गुम देहाती हंसी हंसते।

    वए गलमे दा नें बेगी दा आख (किया)

    दिहात की रिवायत के मुताबिक़ बच्चों के नाम लेने की बजाय उन के बाप के हवाले से पुकारा जाता है,मसलन

    वरयामे दा, अल्लाह दित्ते दा, गला मैदा

    गुलामा जब लोरी का वरद करता तो लोग पुकार कर पूछते

    कहड़े दाये।(ये किस का है?)

    वो स्याह चमकदार रोग़न जैसे चेहरे में शरमाता।

    जी गले दा।

    के ख़चरा एतय बेगी दा ए।(ये तो बेगी का है)

    गांव में कई और बच्चे भी बेगी के कहलाते थे यानी जिस किसी के बाप के बारे में शक होता वो बेगी के खाते में डाल दिया जाता।

    गुलामा बैलों जैसी चितकबरी बस्ती पूरी खोल देता।

    नहीं अल्लाह दे गले दा बंदे दा।अल्लाह हुवल्लाह हो।

    इस रोज़ मौलवी अबुलहसन जमात ना करवा सका, वो अपने दोनों बेटों को पहलू बह पहलू खड़ा कर के नमाज़ से फ़ारिग़ हुआ तो दुरूद शरीफ़ का वरद करते हुए इस गांव से निकल जाने की तदबीरें पूरी संजीदगी से सोचने लगा।आज पता नहीं गुलामे को बाओला कुत्ता काट ले गया था जो कि वो भी ना पहुंच पाया था कि जमात तभी ही में जाती अल्लाह हुवल्लाह हो गले दातों का हैजानख़ेज वरद मस्जिद के बाहर से अंदर टपका और मस्जिद का दरवाज़ा पटाख सीखला, वो स्याह ख़च्चर टेढ़े-मेढ़े खुर डग डग मस्जिद के पुख़्ता फ़र्श पर बजाता हाथों में हरामी बच्चे को उठाए मौलवी के क़दमों में झुकता चला गया। मौलवी अबुलहसन का एक-बार तो जी चाहा कि इस गुनाह की पोट को ठोकर मार कर मस्जिद के हौज़ में उछाल दे लेकिन यूं तो वुज़ू वाला पानी नापाक हो जाएगा फिर उसे गुलामे पर बे-तहाशा ग़ुस्सा आया। इस गंदगी को मस्जिद जैसी पाक जगह पर ये क्यों उठा लाया है। इस के मुँह से बेसाख़ता निकला।

    वए बेगी दा।

    वो ऊओनट जैसे जबड़े के अंदर ज़र्द बत्तीसी पर गहिरी स्याह उदासी लीपे कपास की छड़ी जैसी स्याह मोटी शहादत की उनगली आसमानों की तरफ़ उठाए वरद करने लगा।

    अल्लाह दा गुलामे दा बंदे वा अल्लाह हुवल्लाह हुवल्लाह हो।

    बच्चे के बदन से छुटती हरारत मौलवी अबुलहसन के क़दमों पर भट्टी से दहकी मौलवी ने बच्चे को चार उनगलीयों के पंजे में यूं पकड़ा जैसे मुर्दा चूहे को दस्त पनाह से पकड़ कर कूड़े के ढेर में फेंकता हो।ये बेगी दाया नापाक हरामी बच्चा मरते हुए किस क़दर मासूम और बेगुनाह लग रहा था। मौलवी अबुलहसन को इस पर तरस गया। मस्जिद के हौज़ में दो-चार डूबे दिए और फिर हुजरे के ठंडे फ़र्श पर लिटा दिया।बुख़ार की शिद्दत से बेहोश बच्चा मस्जिद के ठंडे फ़र्श पर बे-सुध पड़ा था। स्याह होंट तप कर लाल बोटी हो गए थे।

    स्याह कर कुत्ते काग़ज़ जैसे नथुने भँभीरी की तरह फड़कते तो मौलवी के चेहरे पर गर्म राख सी झड़ती, जैसे दाने भूतनी दानी के छानते से गर्म रेत उड़ती हो।

    गुलामा मस्जिद के सेहन में कड़कती धूप के भरे हौज़ में एक टांग पर खड़ा था। स्याह नंगे बदन से छुटता पसीना पक्के फ़र्श को भिगो रहा था। स्याह देव, काला ख़च्चर मुश्की घोड़ा फ़ातिरुलअक़ल गुलामा लँगोट किसे जिसे कोई भिक्षू जैसे चिल्ला काटता कोई सूफ़ी मनिश जैसे बरगद के पेड़ तले ज्ञान ध्यान में लक्कड़ी बुना बुद्धा। जैसे योग लिए आलती पालती मारे कोई साधू।

    मौलवी अबुलहसन की तवज्जा बच्चे कीतरफ़ थी। दुरूद शरीफ़ के वरद के साथ पानी के छिड़काओ से इस की बजती हुई नसें और धकती हुई साँसें मोतदिल हो रही थीं और वो दूध के लिए मुँह खोल रहा था।

    सामने एक टांग पर खड़ा हुआ गुलामा स्याह मोटी गर्दन की तनी हुई नसें जैसे खौलता हुआ लहू धड़ धड़ पूरे वजूद का दौरा करता हो, जिसके स्याल में से तीन जुमले बटहते थे।

    अल्लाह दा, गला मैदा बंदे दा, अल्लाह हुवल्लाह हुवल्लाह हो

    गुलामे दातों अल्लाह हुवल्लाह हो

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