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ग्रन्थि

बलवंत सिंह

ग्रन्थि

बलवंत सिंह

MORE BYबलवंत सिंह

    स्टोरीलाइन

    "ताक़त-ओ-हिम्मत की दहशत और प्रभाव की कहानी है। गाँव के गुरूद्वारे का ग्रंथी केवल इसलिए प्रताणित किया जाता है कि उसकी पत्नी ने धनाड्य लोगों के घर मुफ़्त काम करने से मना कर दिया था। ग्रंथी पर एक औरत लाजो को छेड़ने का आरोप लगाया जाता है और उसे संक्रान्ति के अगले दिन गाँव छोड़ने का हुक्म मिलता है। ग्रंथी गुरु नानक जी का सच्चा श्रद्धालु है, उसे यक़ीन है कि उसकी बेगुनाही साबित होगी और उसे गाँव नहीं छोड़ना पड़ेगा लेकिन जब संक्रान्ति वाले दिन उसका हिसाब किताब कर दिया जाता है तो उसकी रही सही उम्मीद ख़त्म हो जाती है। संयोग से उसी दिन गाँव का बदमाश बनता सिंह मिलता है जो एक दिन पहले ही डेढ़ साल की सज़ा काट कर आया है, वो ग्रंथी का हौसला बढ़ाता है और उसे गाँव न छोड़ने के लिए कहता है। ये ख़बर जैसे ही आम होती है तो गाँव के लोग लाजो को ताने देने लगते हैं कि उसने ग्रंथी पर झूटा इल्ज़ाम लगाया।"

     

    सत् नाम। ये अलफ़ाज़ हसब-ए-मा’मूल ग्रंथी जी के मुँह से निकले और उनके क़दम रुक गए। लेकिन उनके कच्छे का लटकता हुआ इज़ारबंद घुटनों के क़रीब झूलता रहा।

    ग्रंथी जी! तुमको सौ मर्तबा कहा है कि यूँ दनदनाते हुए अंदर नहीं बढ़े आया करो। ज़रा परे-खड़े रहा करो। किसी वक़्त आदमी ना-मा’लूम कैसी हालत में होता है... नल के क़रीब बैठी हुई, औरत ने अपनी पिंडली शलवार का पाइँचा खिसका कर ढाँप ली और एड़ियाँ रगड़ने लगी। ग्रंथी कब का पीछे हट चुका था। औरत ने मुफ़्त में रामायण छेड़ दी। उसका मुँह ऊपर को हुआ था। मुँह ऊपर उठाए रखने की भी उसे ‘आदत सी हो गई थी। उसकी दाढ़ी बहुत घनी थी। ठोड़ी के नीचे गर्दन के क़रीब बाल पसीना से तर रहते। गर्दन का वो हिस्सा उसको हमेशा बेचैन रखता। ग़ैर-शऊ’री तौर पर मुँह ऊपर रखने से हवा का कोई न कोई भूला-भटका झोंका आता और उसको ठंडक का एहसास होने लगता।

    वो बेवक़ूफ़ी की हद तक सीधा-सादा ज़रूर था। लेकिन उसके ये मा’नी नहीं कि वो बिल्कुल अहमक़ ही था... वो जानता था कि आज उस, औरत ने वो बात क्यों कही। पिंडली, आख़िर पिंडली में क्या रखा है। अगर कोई देख भी ले तो ये सौ मर्तबा की भी ख़ूब रही। हालांकि ये बात उसको पहली मर्तबा कही गई थी। वो हर्गिज़ इस तरह दनदनाता हुआ अंदर दाख़िल न हो, अगर बाहर खड़ा रहने पर उसकी मद्धिम आवाज़ सुन ली जाए। उसकी आवाज़ अच्छी ख़ासी थी लेकिन ज़ोर से आवाज़ देने पर उसको टोका गया था। ये क्या बदतमीज़ी है। इस क़दर हलक़ फाड़ने की भी क्या ज़रूरत है। अगर वो खड़ा उनकी मन-पसंद आवाज़ में बड़े तरन्नुम के साथ सुबह से शाम तक सत् नाम सत् नाम कहता रहे तो कोई उसकी आवाज़ न सुन पाए और न उसको रोटी दे।

    गुरुद्वारे के मुसाफ़िर भी एक मुसीबत थे। न वो रोज़-रोज़ आवें न उसको रोटियाँ माँगनी पड़ें। अपने वास्ते तो वो कभी भी रोटियाँ माँगने न आए... एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर पाँव धोने वाली की सूरत तो देखो। ये तो ख़ैर! इस आफ़त की परकाला की सूरत भी क़ाबिल-ए-दीद थी जिसने उस पर बद-नियती का इल्ज़ाम थोप रखा था। सबसे अहमक़ाना बात जो उसकी बाबत कही जा सकती थी, ये थी कि उसने फ़लाँ, औरत की तरफ़ बुरी नियत से देखा, लेकिन वही इल्ज़ाम उसपर लगा कर वो तूमार बाँधा गया था कि तौबा ही भली। इतने में फ़तेह सिंह चौकीदार सहन में दाख़िल हुआ।

    औरत ने बे-तकल्लुफ़ी से पूछा, आफतिया! क्या बात है? चौकीदार फत्ते ने ग्रंथी की तरफ़ चुभती हुई नज़रों से देखा। वो सरदार जी घर पर नहीं? वो आएँ तो कहना कि रात को कुँए पर आ जाएँ। लस्सी का कटोरा पेश किये जाने पर वो उसे एक ही साँस में चढ़ा गया। ग्रंथी के कंधे से कंधा भिड़ा कर बाहर निकल गया... ‘औरत की पेशानी ना-हमवार हो गई। ग्रंथी इन सब बातों का मतलब समझता था... आज उसको उसके ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा मिलने वाली थी।

    उस रात गाँव के बड़े कुँए पर गाँव भर के सर-कर्दा अश्ख़ास जमा हुए। ग्रंथी पर जर्ह की गई और अगर कोई बात उसके हक़ में निकल आती तो झल्लाते... सब लोग उससे ख़फ़ा थे। किसी को असली शिकायत ये थी कि वो उनके घर वालों को प्रशाद हमेशा कम दिया करता था। किसी के बच्चों को उसने गुरुद्वारे की फुलवारी उजाड़ने से मना‘ किया था। किसी के घर में जा कर कुछ काम करने से उसकी बीवी ने इंकार कर दिया था लेकिन उस पर इल्ज़ाम ये था कि लाजो एक दिन गुरुद्वारे में माथा टेकने के लिए गई तो उसने उसका हाथ पकड़ लिया...

    लाजो को गाँव के तीन सगे भाई कहीं से भगा लाए थे। वो बराए नाम पर्दा-दारी के साथ तीनों की बीवी थी। वो तीनों बेकार थे। जो दाँव लगता, कर गुज़रते। एक भाई ने पंसारी की दुकान खोल रखी थी। कभी जलेबियाँ निकाल लेते। कभी एक ताँगा तैयार कर लेते। मौक़ा’ पड़ने पर अच्छे पैमाने पर चुरियाँ भी करते, कभी किसी राहगीर की घोड़ी छीन लाते। क्यों लाजो! क्या ये बात दुरुस्त है कि ग्रंथी ने तुम्हारा हाथ पकड़ा? लाजो ने बड़ी तफ़्सील से बताया कि क्योंकर ग्रंथी ने उसका हाथ पकड़ा और उसको गले लगाने की कोशिश की।

    ग्रंथी जी तुम को कुछ कहना है?

    मैंने उसका हाथ नहीं पकड़ा।

    लाजो चमक कर कुछ कहने को थी कि उसको रोक दिया गया, तो ग्रंथी जी आज तुम ने लाजो का हाथ पकड़ा। कल किसी और का आँचल खींचोगे। गाँव की बहू-बेटियों की इज़्ज़त तुम्हारे हाथों महफ़ूज़ नहीं।

    मैंने उसका हाथ नहीं पकड़ा...

    तुमने काम तो वो किया है कि तुमको... ख़ैर कल शंकरात का काम भुगता कर परसों यहाँ से चले जाओ।

    ग्रंथि वापस आकर बिस्तर पर लेट गया... नींद नहीं आती थी। एक ‘अर्सा तक ठोकरें खाने के बाद वो उस गुरुद्वारे में ग्रंथी मुक़र्रर हुआ था। यहाँ उसको हर तरह का आराम मुयस्सर था। एक तरफ़ तवारीख़ी ‘इमारत, दूसरी तरफ़ नई ‘इमारत बन रही थी। चक 35 और 36 का ये मुशतर्का गुरुद्वारा था। ये गाँव चौंकि एक दूसरे के बिल्कुल क़रीब-क़रीब थे, इस लिए 'अलाहिदा-'अलाहिदा गुरुद्वारे की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। नतीजा ये था कि चढ़ावा भी ज़ियादा चढ़ता था।

    थोड़ी देर तक उसकी बीवी उसके क़रीब बैठी रही। वो उदास थी लेकिन उसको अपने ख़ावंद पर भरोसा था। वो जानती थी कि उसके ख़ावंद पर जो इल्ज़ाम धरा गया था वो सरासर बे-बुनियाद था। वो दोनों उस आफ़त का अस्ल सबब भी जानते थे लेकिन लाचार थे। अगर उस जगह रहने का मतलब ये था कि बात-बात में बे-इज़्ज़ती बर्दाश्त की जाए, उसकी बीवी दूसरों के घरों में जा कर न सिर्फ़ काम करे बल्कि उनकी ख़ुशामद भी करे तो इससे बेहतर यही था कि वो इस ग़ुलामी को ख़ैर-बाद कह कर अपने गाँव को चले जाएं... लेकिन आइन्दा वो क्या करेगा? ये बात उसकी समझ में नहीं आती थी।

    गर्मियों की चाँदनी रात में वो खुले आसमान तले चारपाई पर बैठा सही मा’नों में तारे गिन रहा था। उसने तारों की तरफ़ कभी ध्यान नहीं दिया था। वरना तारों की दुनिया भी किस क़दर ख़ूबसूरत और अनोखी थी। कितनी दूर तक फैले हुए बे-शुमार तारे और बादलों की सूरत के वो तारे, जिनकी बाबत कहा जाता था कि मरने के बाद इंसान की रूह उसी रास्ता से होकर जाती थी। ना-मा’लूम वो रास्ता कैसा होगा? कैसी जगह होगी? दरख़्त होंगे या रेत के टीले। जब रूह थक जाती होगी तो उसको दम लेने की इजाज़त होगी या नहीं। ये रास्ता आख़िर-कार कहाँ ख़त्म होता होगा?

    उसकी आँख लग गई। जब जागा तो तारे झिलमिला रहे थे। हवा में ख़ुनकी थी। बाड़े में बूढ़ा बैल सींग हिला रहा था और उसके गले में पड़ी हुई घंटियाँ बज रही थीं। गुरुद्वारे के अंदर उसके छोटे से मकान के सहन में उसकी बीवी दही बिलो रही थी। दही बिलोने की आवाज़ इस बात का यक़ीनी सबूत थी कि अब सुबह होने वाली थी। वो उठा। कुल्हाड़ी पकड़ कर बबूल के दरख़्तों की तरफ़ चला गया। एक नाज़ुक सी शाख़ काट कर उसने तीन दातूनें बनाईं। अपने लिए, अपनी बीवी के लिए और अपनी नौ साला बच्ची के लिए। एक झाड़न काँधे पर डाले, वो खेतों में से होता हुआ बाड़े में वापस आया और बैल की रस्सी खोल कर रहट की तरफ़ बढ़ा।

    पुरानी तरज़ का ये रहट सतह ज़मीन से बहुत ऊँचा था। एक ऊँचा गोल चबूतरा जहाँ से गोबर मिली मिट्टी नीचे गिरती रहती थी। चबूतरे के दोनों तरफ़ गारे की बे-डोल सी टेढ़ी-मेढ़ी दो दीवारें खड़ी थीं। उनपर दरख़्त काट कर एक तवील लट्ठ टिका दिया गया था। उसके बीचों-बीच चर्खड़ी की लकड़ी घुसी हुई थी। पास ही दूसरी चर्खड़ी उसमें दाँत जमाए खड़ी थी। निचली चर्खड़ी के पास लकड़ी का कुत्ता जो उसके पीछे की जानिब घूमने से रोकता था। जब बैल को जोत दिया गया और चर्खड़ियाँ घूमने लगीं तो कुत्ता कट-कट बोलने लगा। कुँए वाला बड़ा चर्खड़ा भी घूमा, रस्सियों से बँधी हुई टुंडें 1 पानी की तरफ़ लपकीं। जो टुंडें रात की भरी बैठी थीं उन्होंने पानी उंडेल दिया। झाल में से पानी की धारा तेज़ी से निकली। कुँआ ‘अजीब सरों में रों-रों की आवाज़ निकालने लगा। कभी ऐसा जान पड़ता जैसे गा रहा हो। कभी रोने की सी आवाज़ निकलने लगती। कभी उसमें से दिल-सोज़ चीख़ की सी आवाज़ पैदा होती... तारीकी में ये ‘अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें, छोटी-बड़ी घूमती हुई चर्खड़ियाँ यूँ दिखाई देती थीं जैसे कोई ‘अजीब-उल-ख़िल्क़त जानवर रेंग रहा हो।

    शोर-ओ-ग़ुल से फ़िज़ा में ज़िंदगी की लहर दौड़ गई। इधर-उधर से दो-चार कुत्ते भी भौंकने लगे। ग्रंथी ने झाल की तरफ़ तख़्ता लगाकर पानी रोक लिया ताकि ये टोंटियों की तरफ़ चला जाए। जब खेतों को पानी देना होता तो पानी का रुख़ झाल की तरफ़ कर दिया जाता। चार-दीवारी पर बैठ कर उसने दातून की। दातून की कोंची से दाँत और मसूड़े साफ़ किये, फिर दातून बीचों-बीच फाड़ कर उसे कमान की सूरत घुमाया और ज़बान पर रगड़ा। मुँह में उंगली फेर-फेर कर वो खाँसता और थूकता रहा। कुँए पर झुके हुए शह्तूत के पेड़ पर परिंदे फड़फड़ाने लगे। दातून फेंक कर उसने कपड़े उतारे। टोंटी के मुँह से लकड़ी हटा दी। मुँह और दाढ़ी धो कर वाहेगुरू वाहेगुरू का विर्द करता हुआ पानी की धारा के नीचे बैठ गया। ये रोज़ का मा’मूल था। कल वो उस जगह को छोड़ कर जा रहा था। उस वक़्त ये बात किस क़दर ना-क़ाबिल-ए-यक़ीन थी। कच्छा निचोड़ कर उसने बग़ल में दबाया। पानी से लबरेज़ बाल्टी उठा कर वो गुरुद्वारे के अंदर चला गया। बड़े सहन में उसकी बीवी झाड़ू दे रही थी। कच्छा झटक कर रस्सी पर डालने के बाद उसने फ़र्श पर पानी छिड़कना शुरू’ किया।

    आज शंकरात थी। सफ़ाई और छिड़काव के बाद टाट फ़र्श पर बिछाया गया। ग्रंथ साहब पर सिल्क के रुमाल डाल दिए गए। चोरी 2 भी साफ़ करके क़रीब रख दी गई। फिर वो अंदर से हार्मोनियम, ढ़ोलकी, चिमटा, छेने वग़ैरह गाने बजाने के साज़ उठा लाया। उसकी बीवी पास खड़ी दाँतून कर रही थी। उन्होंने एक दूसरे की तरफ़ देखा। दोनों को इस बात का एहसास था कि जब उनको वहाँ रहना ही नहीं तो उसकी बला से, वो काम भी क्यों करें। लेकिन ये गुरू घर का काम था। ये तो गुरुद्वारे की सेवा थी। किसी पर क्या एहसान था। अपनी ही आख़िरत का सवाल था... और दोनों के दिलों में एक मुबहम सा एहसास भी था कि मुम्किन है कोई ऐसी सूरत निकल आए कि उनका जाना मंसूख़ हो जाए।

    लड़की आज अच्छे-अच्छे कपड़े पहने फूली नहीं समाती थी। कितनी प्यारी बच्ची थी। धूप निकल आई। उसकी बीवी चेहरे पर छडी 3 मल कर घड़ी की घड़ी धूप में जा बैठी। ग्रंथी ने बड़े-बड़े मटकों में पानी भरना शुरू’ किया ताकि संगत को प्यास लगे तो पानी की दिक़्क़त न हो। गुरुद्वारे का बूढ़ा बैल कमज़ोर हो चुका था। काम कम करता और आराम ज़ियादा। ये तो हो न सकता था कि संगत को पानी पिलाने के लिए वो बैल को शाम तक कुँए के आगे जूते रखे।

    सँख हाथ में लिए वो गुरुद्वारे की टूटी-फूटी चारदीवारी से बाहर निकल आया। दरवाज़े के क़रीब दरख़्त का एक भारी भरकम तना पानी के गड्ढे में धंसा पड़ा था। इर्द-गिर्द गुरुद्वारे के वो खेत थे जिनमें उसने ख़ुद हल चलाया था, बीज बोया था। चाँदनी और अंधेरी रातों में पानी से सींचा था। नलाई की थी। उन खेतों से उसका कितना गहरा ता‘अल्लुक़ था। उसका पसीना उन खेतों की भुरभुरी मिट्टी में जज़्ब हो चुका था। अब वो अपनी अमानत किसी सूरत में भी वापस लेने का हक़दार नहीं था। क़रीब ही बड़ का एक बूढ़ा दरख़्त था, जिसकी बाबत एक रिवायत मशहूर थी। गुरुओं के ज़माने में एक निहायत पाक-बाज़ शख़्स उस गुरुद्वारे में सेवा किया करता था। उसने अपनी उम्र उसी जगह गुरु के चरणों में बिता दी। यहाँ तक कि वो बूढ़ा हो गया... लेकिन उसकी मेहनत में फ़र्क़ नहीं आया।

    उसका दिल उसी जोश और ख़ुलूस से लब्रेज़ था। एक मर्तबा का ज़िक्र है कि गर्मियों की दोपहर में वो खेतों की नलाई कर रहा था। उसकी पगड़ी के अंदर उसके उलझे हुए बाल पसीने में तर हो रहे थे। उसे प्यास महसूस हुई। उसने टिंड में पानी भर कर रस्सी का बगना बांध कर उसे बड़े दरख़्त की टहनी से लटका रखा था। जब उसने टिंड को छुआ तो वो इस क़दर ठंडी थी जैसे बर्फ़। किस क़दर ठंडा पानी है। उसने दिल में कहा। गुरु साहब सच्चे पादशाह उसी तरफ़ को आने वाले हैं। क्यों नहीं पानी उन्हीं के लिए रहने दूँ। वो उसमें से पानी पी लेंगे तो बाक़ी पानी से मैं अपनी प्यास बुझा लूंगा...

    बेशक गुरु साहब दौरा करते हुए उस तरफ़ को आने वाले थे लेकिन उनके आने में अभी बहुत देर थी। उस वक़्त वो इत्मीनान से दरबार में बैठे संगतों को दर्शन दे रहे थे। एका-एक गुरु साहब उठ बैठे, और फ़िल-  फ़ौर कूच का हुक्म सादिर फ़रमाया। सब हैरान कि आख़िर इसमें भेद क्या है। ये बैठे-बिठाए एक-दम इतनी ‘उजलत क्यों? गुरु साहब सच्चे पादशाह ने फ़रमाया, मेरा एक सिख मुंतज़िर है, वो प्यासा है। जब तक मैं वहाँ जाकर पानी नहीं पियूँगा वो प्यासा ही रहेगा... गुरू साहब घोड़ा सरपट दौड़ाते हुए उस जगह पहुंचे। जाते ही पानी माँगा। बूढ़े सिख ने वो टिंड आगे बढ़ा दी... वो किस क़दर ख़ुश था। उसकी आँखों में आँसू आ गए।

    ग्रंथी दरख़्त के तने पर खड़ा हो गया। जब उसने सँख मुँह से लगाया तो दिल में सोचने लगा। गुरु साहब दिलों का हाल जानते हैं। वो मेरी बे-गुनाही से वाक़िफ़ हैं। वो यहाँ से नहीं जाएगा। उसको यक़ीन था कि ज़रूर कोई ऐसी सूरत निकल आएगी। सँख पूर्ने के बाद वो देर तक गाँव की तरफ़ देखता रहा, जैसे वो भी किसी की आमद का मुंतज़िर हो। कितनी तेज़ धूप हो गई थी और लोग अभी घर से भी नहीं निकले थे। मटियाले-मटियाले मकान। मकानों के बीच में से सर उठाए हुए सर-सब्ज़ दरख़्त... कच्ची सड़क से आगे ढ़लवान पर भंगियों के काले-कलूटे नंग-धड़ंग बच्चे खेल रहे थे। दो-तीन बछड़े इधर-उधर क़ुलांचें भरते फिरते थे।

    वो गुरुद्वारे के छोटे से बाग़ में गया। अंगूर की बेलें आड़ी-तिरछी लकड़ियों पर से गिर पड़ती थीं। एक कोने में से उसने उलझी हुई रस्सियाँ उठाईं। बेलों को लकड़ियों के साथ लगाकर रस्सियों के टुकड़ों से, कुछ ढ़ील दे दे कर बाँधने लगा। उसकी मोटी-मोटी उंगलियाँ अपने काम में माहिर थीं। क़रीब ही हरे धनिए और मिर्चों की क्यारी थी। वो उसके किनारे पँजों के बल बैठ गया। बीच-बीच में खट-मीठी बूटी के छोटे-छोटे पौदे भी थे। उसने एहतियात से उनको उखाड़ना शुरू’ किया। बच्चे उन बूटियों को शौक़ से खाते थे। अनार के पेड़ ख़ामोश समाधि में बैठे हुए दरवेशों की मानिंद नज़र आते थे। हवा बंद थी। पेड़ों की पत्तियाँ तक नहीं हिलती थीं। मा’लूम होता था जैसे परमात्मा से उसकी लौ लगी हुई हो। बाग़ का कितना हिस्सा बेकार पड़ा था। उसका ख़्याल था, वो झाड़ियों और मदार के ख़ुदरू पेड़ों से वो हिस्सा साफ़ करके वहाँ सब्ज़ियाँ लगाए। मटर, टमाटर, गोभी...

    हर पेड़ और पौदे को देखता हुआ वो बाहर निकला। फिर इसी तने पर खड़े हो कर उसने दूसरी मर्तबा सँख बजाया। कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। मर्द तो ख़ैर खेतों पर काम कर रहे थे लेकिन, औरतें घरों में घुसी पड़ी थीं। बीवी से कहने लगा, दो मर्तबा सँख पूर चुका हूँ कोई शख़्स नज़र नहीं आता। कम-अज़ कम, औरतों को आ जाना चाहिये। उसकी बीवी चुप रही। औरतों की बाबत वो जानती थी। अव्वल तो हर औरत के चार-चार पाँच-पाँच बच्चे थे। उनको नहलाना धुलाना। फिर हर, औरत को बनाओ सिंघार भी तो करना था। यही वो जगह थी जहाँ अपने कपड़ों और गहनों की नुमाइश की जा सकती थी। उसके ‘इलावा दुनिया भर की बातें यहीं की जाती थीं। कई पेचीदा मसाएल यहीं बैठ कर सुलझाए जाते थे।

    छोटी बच्ची ने ख़ुशी में ढ़ोलकी धपधपानी शुरू’ की। ग्रंथी चम्बेली के पौदों के गिर्द ईंटों के उखड़े हुए जंगलों की मरम्मत करने लगा। कहीं कोई ईंट गिरी पड़ी थी। कहीं कोई टहनी ईंटों में उलझ कर रह गई थी। किसी जगह पौदे इस क़दर फ़ेल गए थे कि जंगले को और वसी’ करने की ज़रूरत महसूस होती थी।

    लोहे के डोल भर-भर कर उसने फूलों को पानी देना शुरू’ किया। बेचारे गेंदे के फूल तो निरे यतीम ही थे। कोई उनकी ख़बर-गीरी नहीं करता था। बेचारे ख़ुश्क और सख़्त ज़मीन में ही नश्व-    ओ-नुमा पाते। कूड़ा करकट भी उन्हीं पर फेंक दिया जाता। इसके बावजूद जब फूल आते तो हर तरफ़ पीला ही पीला नज़र आता। फूलों के हार गूंधे जाते, बच्चे झोलियाँ भर-भर कर घरों को ले जाते। कुछ ग्रंथ साहब के सामने चढ़ा दिये जाते, बड़ी दुर्गत हुई बेचारों की। वो जब कभी गेंदे के किसी खिले हुए फूल की तरफ़ देखता तो उसको उसके यतीम होने का ख़्याल आने लगता जैसे कि वो ख़ुद यतीम था। वो पौदे के क़रीब बैठ जाता। फूल हवा में इधर-उधर झूमने लगता।

    वो फूल को प्यार से दोनों हाथों में ले लेता जैसे वो किसी बच्चे का चेहरा हो। उसको एक बात याद आ जाती, एक मर्तबा (ग़ालिबन) गुरु अर्जुन देवजी के लिबादा की झपट में आकर फूल की एक पँखुड़ी ख़ाक पर गिर पड़ी तो गुरू साहब की आँखों में आँसू उमंड आए... ये सोचते-सोचते ना-मा‘लूम जज़्बे के ज़ेर-ए-असर ग्रंथी पर रिक़्क़त सी तारी हो जाती। वो कितनी-कितनी देर तक दम साधे बैठा रहता। वो कुछ समझ नहीं सकता था। वो जानता था कि उसकी ‘अक़्ल मोटी थी। लेकिन इसके बावजूद वो एक ना-क़ाबिल-ए-फ़हम कैफ़ियत में डूब जाता।

    भट्टी के क़रीब उसने कड़ाह प्रशाद का कुल सामान इकट्ठा कर दिया। लकड़ियाँ और मोटे-मोटे उपले भी एक तरफ़ ढ़ेर कर दिए और सँख लेकर फिर दरख़्त के तने पर जा खड़ा हुआ। तीसरी मर्तबा सँख पूर कर वो देर तक उसी जगह खड़ा रहा। धूप चिलचिला रही थी। आँखें धूप में तपी हुई हवा की गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उसने आँखों पर हाथ रख कर गाँव पर नज़र जमा दी। शायद कोई सूरत नज़र आ जाए। उसको फ़िक्र थी काम ख़त्म करने की। चंद-एक नीले-पीले दुपट्टे हवा में लहराए। कुछ नौ-उम्र लड़के और लड़कियाँ अठखेलियाँ करते दिखाई देने लगे। रंग-बिरंग के रूमालों से ढ़की हुई थालियाँ हथेलियों पर रखे ज़ाहिद-सूरत बूढ़ी औरतें पीछे-पीछे चली आती थीं। रफ़्ता-    रफ़्ता दोनों गाँव के लोग च्यूँटियों की तरह रेंगते हुए निकले। और छोटी-छोटी टोलियों में गुरुद्वारे की तरफ़ बढ़े।

    ग्रंथी ने हाथ-पाँव धोकर पगड़ी को दुरुस्त किया। गले में ज़र्द रंग का तवील सा कपड़ा डाले वाहेगुरु वाहेगुरु कहता गुरू ग्रंथ साहब के पास जा बैठा। ग्रंथ साहब से रूमाल हटा कर उनको एहतियात से लपेट जिल्द के नीचे दबाते मुतबर्रिक किताब को खोला और आँखें मूँद कर चूरी हिलाने लगा।

    लम्बे-लम्बे घूँघट निकाले ‘औरतें चारदीवारी के अंदर दाख़िल हुएँ। उनमें से बा‘अज़ नई-नवेली दुल्हनें थीं, जिन्होंने कहानियों तक चूड़ियाँ पहन रखी थीं। सुर्ख़ रंग की क़मीस और शलवार में गठरी सी बनी हुई वो बीरबहूटियों की मानिंद दिखाई देती थीं। गुरू ग्रन्थ साहब के सामने पैसे, बताशे, फूल, थालियों में दालें, चावल, आटा वग़ैरह रख कर वो माथा टेकतीं और एक तरफ़ बैठ जातीं। लड़कों में बा'ज़ ने हार्मोनियम पकड़ लिया। एक लड़का पिछले तख़्ते को हिला-हिला कर हवा देने लगा। दूसरा अपनी उंगलियों से लकड़ियों के स्याह-ओ-सपीद सरों को बे-तहाशा दबाने लगा। एक ने ढ़ोलकी बजानी शुरू’ की। दो लड़के बड़े चिमटे को बजाने लगे। छीने भी छना-छन बोलने लगे। उधर औरतें आपस में तबादला-ए-ख़्याल करने लगीं। उनकी आवाज़ें हर पाबंदी से आज़ाद दूर-दूर तक सुनी जा सकती थीं।

    कुछ लड़कों ने इधर-उधर भागना शुरू’ किया। नई ’इमारत के ईंटों के चक्के लगे हुए थे। लड़कों ने ईंटों की रेल गाड़ी बनाई। एक लंबी क़तार में ईंट के पीछे ईंट कुछ-कुछ फ़ासले पर रख दी गई। फिर एक को जो ठोकर लगाई तो सारी ईंटें धड़ाधड़ गिरने लगीं। लड़के उछल-उछल कर शोर मचाने लगे। उनकी ढ़ीली-ढ़ाली पगड़ियाँ खुल गईं। उन्होंने अज़ सर-ए-नौ बाँधने के बजाए पगड़ियों को बग़लों में दबाया और बाग़ के दौरे पर निकल गए। आज वो निडर हो रहे थे। वो अपनी माँओं के हमराह थे। ग्रंथी का अव्वल तो आज कुछ ख़ौफ़ भी नहीं था, दूसरे वो उस वक़्त आँखें बंद किये ग्रंथ साहब के पास बैठा था।

    अब मर्दों की आमद शुरू’ हुई। मोटे खद्दर के तहबंद बाँधे, घुटनों तक लम्बे कुर्ते पहने, सरों पर आठ-आठ दस-दस गज़ क्लिफ़ लगी पगड़ियाँ लपेटे, हाथों में लोहे और पीतल की शामों वाली मज़बूत लाठियाँ थामे और अपनी दाढ़ियों को ख़ूब चिकना किये हुए आए और माथा टेक-टेक कर वो इधर-उधर बैठने लगे। उन में सर-ओ-क़द मज़बूत नौजवान भी थे, जिनके तहबंद रंग-दार थे। तहबंद के पिछले हिस्से एड़ियों में घिसटते आते थे। बा‘ज़ जो शलवारें पहने हुए थे, उनके रंगीन रेशमी इज़ारबंद ख़ास तौर पर घुटनों तक लटक रहे थे। पगड़ियों के शिमले ख़ूब अकड़े हुए। ऐसे छैल-छबीले भी थे जिन्होंने पगड़ी का आख़िरी सिरा घुमा-फिरा कर पगड़ी के अगले सिरे पर आन ठूँसा था जैसे किसी पले हुए मुर्ग़ के सर पर उसकी शानदार कलग़ी।

    मर्दों के पहुँच जाने पर कार्रवाई शुरू’ हुई। चँद नौजवानों ने बढ़ कर साज़ सँभाले। एक-एक इलायची और लौंग मुँह में डाल कर साज़ बजाने शुरू’ किए, हार्मोनियम के साथ ताल पर ढ़ोलकी बजने लगी। चिमटे वाले ने झूम-झूम कर चिमटा बजाना शुरू’ किया। उधर छीने भी टकराए, हार्मोनियम वाले ने मुँह खोल कर एक तवील हो की आवाज़ निकलने के बाद गाया।

    एथे बैठ किसे नहीं रहना मेला 4 दो दिन दा

    इतना कह कर वो मुसलसल मुँह हिलाने लगा। ढ़ोलकी वाले की गर्दन हिलती थी तो चिमटे वाले का धड़। जब एक मर्तबा कार्रवाई शुरू’ हो गई तो सर-कर्दा अस्हाब ने काना फूसी शुरू’ कर दी। कई मसाएल ज़ेर-ए-बहस थे। शब्द कीर्तन के बाद श्री गुरु ग्रन्थ साहब की पवित्र बानी पढ़ कर हाज़िरीन को सुनाई गई। उसके बाद ग्रंथी चौकी पर से उतरा और अरदास (दु‘आ) के लिए गुरु ग्रन्थ साहब के सामने हाथ बांध कर खड़ा हो गया। हाज़िरीन ने भी उसकी पैरवी की। सब लोग हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। ग्रंथी ने आँखें बंद कर लीं और अरदास शुरू’ कर दी।

    प्रथम भगवती सिमर के गुरु नानक लेई ध्याय

    फिर अंगद गुरते अमरदास रामदा से हो सहाय...

    इस तरह दसों गुरुओं के नाम दोहराए गए। और फिर, पंज प्यारे, चार साहब-ज़ादे (साहब अजीत सिंह जी, साहब जुझार सिंह जी, साहब ज़ोरावर सिंह जी, साहब फ़तेह सिंह जी) चालीस मुकते, शहीदों, मुरीदों, सिद्क़ रखने वाले सिखों की कमाई का ध्यान धर के ख़ालसा जी, बोलो जी वाहेगुरू... ग्रंथी के वाहेगुरू कहने पर हाज़िरीन उसके वाहेगुरू वाहेगुरू कहते। इधर हाज़िरीन की आवाज़ गूंजती, उधर एक बड़े तबल पर चूब पड़ती और तबल की आवाज़ हाज़िरीन की आवाज़ के साथ घुल-मिल कर देर तक लरज़ती रहती और दलों पर एक हैबत सी तारी हो जाती।

    जिन लोगों ने धर्म के लिए जानें क़ुर्बान कीं, चर्खड़ियों पर चढ़े, (बदन के) जोड़ जुदा करवाए, जिनकी खालें खींच ली गईं, जिन्होंने खोपड़ियाँ उतरवाएं, लेकिन अपना धर्म नहीं छोड़ा, जिन्होंने सखी सिदक़ अपने सर के पवित्र केसों (बालों) और अपने आख़िरी साँसों तक निभाया, इन सिंहों (शेरों) और सिंहनियों (शेरनियों) की कमाई का ध्यान करके ख़ालसा साहब बोलो जी वाहेगुरू...

    वाहेगुरू वाहेगुरू।

    जिन गुरमुखों ने गुरूद्वारों के सुधार की ख़ातिर श्री ननकाना साहब जी में और श्री तरण-तारण के सिलसिले में अपने जिस्मों पर तकालीफ़ बर्दाश्त कीं, जीते जी तेल में डाल कर जलाये गए, दहकती भट्टियों में झोंक दिए गए, और वो इस तरह शहीद हो गए, उन गुरू की सूरत रखने वाले सिखों की कमाई का सद्क़ा ख़ालसा साहब बोलो जी वाहेगुरू...

    वाहेगुरू वाहेगुरू।

    जिन माँओं, बीबियों ने अपने बच्चों के टुकड़े-टुकड़े करवा कर अपनी झोलियों में डलवाए, उनकी कमाई का सदक़ा ख़ालसा साहब बोलो जी वाहेगुरु।

    वाहेगुरु वाहेगुरु।

    तवील दु‘आ के आख़िर में, (ऐ गुरु साहब) हमको नफ़सानी ख़ाहिशात, ग़ुस्सा, लालच, मोहब्बत और ग़ुरूर से बचिए, आपके हुज़ूर अमृत देने की अरदास। अगर भूल-चूक में कोई लफ़्ज़ कम-ओ-बेश हो गया हो तो उसके लिए हम मु‘आफ़ी के ख़्वास्तगार हैं। सबके काम संवारिए, गुरु नानक नाम चढ़दी कला तेरे भाने सब का भला। सबने झुक कर पेशानियाँ फ़र्श पर टेक दीं। ग्रंथी ने दिल ही दिल में कहा, वाहेगुरू सच्चे पादशाह से दिलों का हाल छिपा नहीं। फिर खड़े होकर जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल के तीन ना’रे लगाए गए। उसके बाद कड़ाह प्रशाद (हल्वा) बाँटा गया। रफ़्ता- रफ़्ता प्रशाद हाथों में छिपाए या कटोरियों में लिए रुख़सत हो गए। चंद सर-बर-आवुर्दा अश्ख़ास बैठे रहे। जब तन्हाई हो गई तो उन्होंने ग्रंथी से कहा कि अगर प्रशाद बाक़ी हो तो लाया जाए। ग्रंथी ने प्रशाद उन को बाँट दिया। चेहरों को अपने चिकने हाथों से मलते हुए उन्होंने बही खाता संभाला। पौन घंटे के बहस-मुबाहिसे के बाद सब हिसाब साफ़ हुआ। ग्रंथी से कह दिया गया कि दूसरे दिन रुख़सत होने से पहले वो चाबियाँ सरदार बग्गा सिंह नंबरदार को दे जाए।

    उनके चले जाने के बाद ग्रंथी की सब उम्मीदें ख़त्म हो गईं। उसकी बीवी ने घर का सामान समेटना शुरू’ कर दिया। ग्रंथी के दिल में अब तक कुछ ख़लिश सी थी। वो इज़्तिराब में इधर-उधर घूमने लगा। अपने दोनों हाथ पुश्त पर बाँधे वो तालाब के क़रीब खड़े हो कर उसके सब्ज़ी माएल पानी को देखने लगा। उसके किनारे टूट-फूट गए थे। एक-दो जगह से सीढ़ियों की ईंटें भी उखड़ गई थीं। काई जमी हुई थी। उस तालाब में कोई नहीं नहाता था। नहीं मा’लूम उसमें कब से बरसात का पानी जमा था। बबूल के पीले-पीले फूलों की तह सी जमी हुई, बरगद के बड़े-बड़े ज़र्द रंग के पत्ते पाश-पाश हो जाने वाले जहाज़ के शिकस्ता तख़्तों की तरह तैर रहे थे।

    उसके क़रीब पुरानी समाध थी जिसकी दीवारों पर से जा-ब-जा चूना उखड़ा हुआ था। उसकी दीवारों पर पुराने ज़माने की रंगदार तसावीर बनी हुई थीं। कई जगह से रंग उखड़े हुए ज़रूर थे लेकिन जहाँ कहीं भी मौजूद थे, किस क़दर चमकदार और दिलकश नज़र आते थे, ख़ास कर गुरू नानक साहब की तस्वीर। दरख़्त की छाँओं तले बाबा नानक जी बैठे थे। एक जानिब भाई बाला और दूसरी तरफ़ भाई मर्दाना। दरख़्त की शाख़ से पिंजरा लटक रहा था। जिसमें एक सुर्ख़ चोंच वाला तोता साफ़ दिखाई दे रहा था। उसी हुजरे में सातवें गुरु साहब परमात्मा की याद में मसरूफ़ रहते थे। तीन-चार बरस पहले की बात थी एक सिख उसी हुजरे में बैठ कर बिला-नाग़ा भक्ती किया करता था। एक मर्तबा रात के वक़्त हुजरा मुनव्वर हो गया। ज़र्रा-ज़र्रा दिखाई देने लगा। इतने में एक नूरानी सूरत नज़र आई... लेकिन वो सिख जलवे की ताब नहीं ला सका। वो भाग कर बाहर निकल आया। और फ़िल- फ़ौर गूँगा हो गया। उसके बाद किसी ने उसको बोलते नहीं सुना... ग्रंथी ने हुजरे का दरवाज़ा खोल कर उसके नमदार फ़र्श पर अपना नंगा पाँव रखा और चुप-चाप खड़ा हो गया। इतने में उसकी बीवी वहाँ आई और उसकी मुतग़य्यर सूरत देख कर कुछ परेशान सी हो गई। वो उसको अपने साथ ले गई।

    सेहन में दस्ती चर्खड़ी वाले छोटे से कुँए के इर्द-गिर्द बने हुए चौड़े चबूतरे पर नीले रंग की लंबूतरी पगड़ियाँ बाँधे नहंग सुख पत्थर के बड़े कूँडे में शरवाई घोंट रहे थे। पगड़ियों पर लोहे के चक्र, गले में आहनी मनकों की माला, लम्बे-लम्बे चुग़े... वो लोग बारी-बारी बादाम, चारों मग़ज़, काली मिर्चें और क़द्रे भंग वाली शरवाई की घुटाई कर रहे थे। एक शख़्स ने अपने हाथों और पाँव से कूँडे को दोनों तरफ़ से जकड़ रखा था। और दूसरा घोंटने का एक लंबा-चौड़ा डंडा, जो नीचे से कम मोटा और ऊपर से बहुत ज़ियादा मोटा था, हाथों में लिए घुमा रहा था। डंडे के ऊपर घुंघरू बाँधे हुए थे जो छनाछन बोल रहे थे। ग्रंथी कुछ देर तक ख़ामोशी से देखता रहा।

    सूरज ग़ुरूब हो चुका था, हवा बंद थी। जब उसकी बीवी दूध दूह कर घर के अंदर जा रही थी। उसने हस्ब-ए-मा’मूल अपनी चारपाई बाड़े के क़रीब डाल दी। जूते उतार दोनों घुटनों पर कोहनियाँ टेक चारपाई पर हो बैठा। कुँओं के झुंड के झुंड काँएं-काँएं करते गाँव के चक्कर लगा रहे थे। छोटी सी नहर की ऊँची मेंड चक्कर लगाती उफ़ुक़ में गुम हो रही थी। दूर चंद ऊँट बे-मुहार इधर-उधर घूम रहे थे।

    ग्रंथि खोई-खोई नज़रों से उफ़ुक़ की तरफ़ यूँ देख रहा था जैसे वो किसी का मुंतज़िर हो। जैसे आसमान से कोई नूरानी सूरत नमूदार होगी... तारीकी बढ़ रही थी, पूरा चाँद बुलंद हो रहा था। इतने में बंता सिंह कंधे पर फावड़ा रखे आ निकला। बंता सिंह किसी ‘औरत को अग़्वा करने के जुर्म में डेढ़ बरस क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त भुगत कर कल ही अपने गाँव में वापस आया था, जेल की सख़्तियों का उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ था, वो ब-दस्तूर हट्टा-कट्टा था। जब उसको सज़ा हुई उस वक़्त ग्रंथी गुरुद्वारे में आया ही था। क़रीब पहुँच कर बंता सिंह ने बुलंद आवाज़ में सत श्री अकाल का ना’रे लगाया। चारपाई पर बैठ गया... उसके फावड़े से गाढ़ा-गाढ़ा कीचड़ टपक रहा था।

    इधर-उधर की बातों के बाद उसने पूछा, ग्रंथी जी! सुना है कुछ आप के ख़िलाफ़ झगड़ा खड़ा किया गया है... मैं तो कल रात वापस आया था। आज सुबह से मैं चक 156 में मामूँ से मिलने चला गया था। अब मैं सीधा खेतों की तरफ़ चला आया। आख़िर माजरा क्या है? बंता सिंह काना सिर्फ़ अपने गाँव में दबदबा था बल्कि ‘इलाक़े भर में लोग उससे ख़म खाते थे। जब ग्रंथी ने उसको बताया कि उसकी क़िस्मत का फ़ैसला भी हो चुका तो वो झुला कर उठ खड़ा हुआ।

    किस की मजाल है कि तुमको यहाँ से निकाले। ग्रंथी जी! तुम इसी जगह रहोगे और डंके की चोट रहोगे। मैं देखूँगा कौन माई का लाल तुमको यहाँ से निकालने के लिए आता है। ये सुन कर ग्रंथी ने, जो अब तक बे-हिस सा बैठा था आँखें झपकाईं, उसकी भौओं को हरकत हुई। वो मिस्कीन आवाज़ में बोला, और सरदार बंता सिंह वाहेगुरू जानता है, मैंने लाजो को छुआ तक नहीं।

    सरदार बग्गा सिंह के दो आदमी उधर से गुज़रते हुए ये बातें सुन रहे थे। बंता सिंह उनको सुना कर बुलंद आवाज़ में ललकार कर बोला, ग्रंथी जी! तुम ये क्यों कहते हो कि तुमने उसका हाथ नहीं पकड़ा। तुम हज़ार मर्तबा लाजो का हाथ पकड़ सकते हो... मैं बग्गा सिंह को भी देख लूँगा। बड़ा नंबरदार बना फिरता है... और जिन लोगों ने तुम्हारे ख़िलाफ़ पंचायत में हिस्सा लिया था, उनमें से एक-एक से निबट लूँगा...

    अपनी भरपूर आवाज़ में उसने ये मोटी-मोटी गालियाँ भी सुनाईं... ये ख़बर दोनों गाँव में आग की तरह फैल गई... सब लोग लाजो को गालियाँ देने लगे। हराम ज़ादी! मुफ़्त में बेचारे ग्रंथी पर इल्ज़ाम धर दिया।

    हाशिया
    (1) टिंडः मिट्टी का बड़ा आबख़ोरा।
    (2) चूरीः मक्खियाँ झलने के इस्ते’माल में आती है।
    (3) छड्डीः छाछ कपड़े में छानने के बाद जो तलछट सी रह जाती है उसको छड्डी कहते हैं।
    (4) दुनिया का ये मेला ’आर्ज़ी हैः कोई शख़्स भी यहाँ दाएमी तौर पर नहीं बैठा रहेगा।

     

    स्रोत:

    Balwant Singh Ke Behtareen Afsane (Pg. 100)

      • प्रकाशक: साहित्य अकादमी, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1995

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