Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ज़ेवर का डिब्बा

प्रेमचंद

ज़ेवर का डिब्बा

प्रेमचंद

MORE BYप्रेमचंद

    स्टोरीलाइन

    ठाकुर साहब के बेटे वीरेंद्र को तीस रूपये महीना ट्यूशन के साथ चंद्र प्रकाश को रहने के लिए मुफ़्त का मकान भी मिल गया था। ठाकुर साहब उस पर काफ़ी भरोसा करते थे। घर में बेटे की शादी की बात चली तो सारी ज़िम्मेदारी चंद्र प्रकाश को ही दी गई। एक रोज़ हवेली से गहनों का डिब्बा चोरी हो गया। इसके बाद चंद्र प्रकाश ने वह मकान छोड़ दिया। मगर समस्या तो तब शुरू हुई जब उसकी बीवी को पता चला कि ज़ेवर का डिब्बा किसी और ने नहीं चंद्र प्रकाश ने ही चुराया है।

    बी.ए. पास करने के बाद चन्द्र प्रकाश को ट्यूशन करने के सिवा कुछ सूझा। उनकी माँ पहले ही मर चुकी थी। उसी साल वालिद भी चल बसे, और प्रकाश ज़िंदगी के जो शीरीं ख़्वाब देखा करता था, वो मिट्टी में मिल गये, वालिद आ’ला ओह्दे पर थे। उनकी वसातत से चन्द्र प्रकाश कोई अच्छी जगह मिलने की पूरी उम्मीद थी, मगर वो सब मंसूबे धरे ही रह गये। और अब गुज़र-औक़ात के लिए सिर्फ़ तीस रुपये माहवार की ट्यूशन ही रह गई है। वालिद ने कोई जायदाद छोड़ी उल्टा भूक का बोझ और सर पर लाद दिया। और बीवी भी मिली तो ता’लीम-याफ़्ता, शौक़ीन, ज़बान की तर्रार जिसे मोटा खाने और मोटे पहनने की निस्बत मर जाना क़ुबूल था। चन्द्र प्रकाश को तीस की नौकरी करते शर्म आती थी। लेकिन ठाकुर साहब ने रहने के लिए मकान देकर उनके आँसू पोंछ दिये। ये मकान ठाकुर साहब के मकान से मिला हुआ था, पुख़्ता हवा-दार साफ़-सुथरा और ज़रूरी सामान से आरास्ता, ऐसा माकन बीस रुपये माहवार से कम में मोल सकता था। लड़का तो लगभग उन्हीं की उ’म्र का था। मगर बड़ा कुंद ज़ेह्न, काम चोर, अभी नौवीं दर्जे में पढ़ता था। सबसे बड़ी बात ये कि ठाकुर और ठकुराइन दोनों प्रकाश की बड़ी इ’ज़्ज़त करते थे, बल्कि अपना ही लड़का समझते थे। गोया मुलाज़िम नहीं, घर का आदमी था, और घर के हर एक मुआ’मले में उससे मशविरा लिया जाता था।

    2

    शाम का वक़्त था, प्रकाश ने अपने शागिर्द वीरेंद्र को पढ़ाकर चलने के लिए छड़ी उठाई तो ठकुराइन ने कहा, “अभी जाओ बेटा, ज़रा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ कहना है।”

    प्रकाश ने दिल में सोचा, वो क्या बात है जो वीरेंद्र के सामने नहीं कही जा सकती। प्रकाश को अलाहदा ले जा कर उमा देवी ने कहा, “तुम्हारी क्या सलाह है? वीरू का ब्याह कर दूँ एक बहुत अच्छे घर का पैग़ाम आया है।”

    प्रकाश ने मुस्कुरा कर कहा, “ये तो वीरू बाबू ही से पूछिये।”

    “नहीं मैं तुमसे पूछती हूँ।”

    प्रकाश ने ज़रा तज़बज़ुब से कहा, “मैं इस मुआ’मले में क्या सलाह दे सकता हूँ? उनका बीसवाँ साल तो है। लेकिन ये समझ लीजिए कि ब्याह के बाद पढ़ना हो चुका।”

    “तो अभी करूँ, तुम्हारी यही सलाह है।”

    “जैसा आप मुनासिब ख़याल फ़रमाएँ, मैं ने तो दोनों बातें अ’र्ज़ कर दीं।”

    “तो कर डालूं? मुझे ये डर लगता है कि लड़का कहीं बहक जाए फिर पछताना पड़ेगा।”

    “मेरे रहते हुए तो आप उसकी फ़िक्र करें। हाँ मर्ज़ी हो तो कर डालिए कोई हर्ज भी नहीं है।”

    “सब तय्यारियाँ तुम्हें करनी पड़ेंगी ये समझ लो।”

    “तो मैं कब इनकार करता हूँ।”

    रोटी की ख़ैर मनाने वाले ता’लीम-याफ़्ता नौजवानों में एक कमज़ोरी होती है, जो उन्हें तल्ख़ सच्चाई के इज़हार से रोकती है। प्रकाश में भी यही कमज़ोरी थी।

    बात पक्की हो गई और शादी का सामान होने लगा। ठाकुर साहब उन अस्हाब में से थे जिन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं होता। उनकी निगाह में प्रकाश की डिग्री अपने साठ साला तजर्बे से ज़्यादा कीमती थी। शादी का सारा इन्तिज़ाम प्रकाश के हाथों में था, दस बारह हज़ार रुपये से ज़्यादा क़ीमती थी। शादी का सारा इंतिज़ाम प्रकाश के हाथों में था, दस बारह हज़ार रुपये ख़र्च करने का इख़्तियार कुछ थोड़ी इज़्ज़त की बात नहीं थी, देखते-देखते एक ख़स्ता-हाल नौजवान ज़िम्मेदार मैनेजर बन बैठा। कहीं बज़ाज़ उसे सलाम करने आया है। कहीं मोहल्ले का बनिया घेरे हुए है। कहीं गैस और शामियाने वाला ख़ुशामद कर रहा है। वो चाहता तो दो चार सौ रुपये आसानी से उड़ा सकता था, लेकिन इतना कमीना था। फिर उसके साथ क्या दग़ा करे जिसने सब कुछ उसी पर छोड़ दिया हो। मगर जिस दिन उसने पाँच हज़ार के जे़वरात ख़रीदे उसके कलेजे पर साँप लोटने लगा।

    घर कर चम्पा से बोला, “हम तो यहाँ रोटियों के मोहताज हैं, और दुनिया में ऐसे ऐसे आदमी पड़े हैं जो हज़ारों लाखों रुपये के जे़वरात बनवा डालते हैं। ठाकुर साहब ने आज बहू के चढ़ावे के लिए पाँच हज़ार के ज़ेवर ख़रीदे। ऐसी ऐसी चीज़ों को देखकर आँखें ठंडी हो जाएँ सच कहता हूँ, बा’ज़ चीज़ों पर तो आँख नहीं ठहरती थी।”

    चम्पा हासिदाना लहजे में बोली, “उंह हमें क्या करना है। जिन्हें ईश्वर ने दिया है वो पहनें यहाँ तो रो रो कर मरने को पैदा हुए हैं।”

    चन्द्र प्रकाश, “यही लोग मज़े उड़ाते हैं, कमाना धमाना बाप दादा छोड़ गये हैं। मज़े से खाते और चैन करते हैं। इसीलिए कहता हूँ, ईश्वर बड़ा ग़ैर मुन्सिफ़ है।”

    चम्पा, “अपना अपना मुक़द्दर है। ईश्वर का क्या क़ुसूर है। तुम्हारे बाप-दादा छोड़ गये होते तो तुम भी मज़े उड़ाते। यहाँ तो रोज़मर्रा का ख़र्च चलाना मुश्किल है, गहने कपड़े कौन रोये? कोई ढंग की साड़ी भी नहीं कि किसी भले आदमी के घर जाना हो तो पहन लूँ। मैं तो इसी सोच में हूँ कि ठकुराइन के यहाँ शादी में कैसे जाऊँगी। सोचती हूँ बीमार पड़ जाती तो जान बचती।”

    ये कहते-कहते उसकी आँखें भर आईं, प्रकाश ने तसल्ली दी, “साड़ी तुम्हारे लिए ज़रूर लाऊँगा, ये मुसीबत के दिन हमेशा रहेंगे, ज़िंदा रहा तो एक दिन तुम सर से पाँव तक ज़ेवर से लदी होगी।”

    चम्पा मुस्कराकर बोली, “चलो ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती, गुज़र होती जाये यही बहुत है।”

    प्रकाश ने चम्पा की बात सुनकर शर्म और हया से सर झुका लिया। चम्पा उसे इतना काहिल-उल-वुजूद समझती है।

    3

    रात को दोनों खाना खा कर सोये तो प्रकाश ने फिर ज़ेवरों का ज़िक्र छेड़ा। ज़ेवर उसकी आँखों में बसे हुए थे, “इस शहर में ऐसे बढ़िया ज़ेवर बनते हैं। मुझे इसकी उम्मीद थी।”

    चम्पा ने कहा, “कोई और बात करो, ज़ेवरों की बात सुनकर दिल जलता है।”

    “ऐसी चीज़ें तुम पहनो तो रानी मालूम होने लगो।”

    “ज़ेवरों से क्या ख़ूबसूरती मा’लूम होती है, मैंने तो ऐसी बहुत सी औरतें देखी हैं, जो ज़ेवर पहन कर भी भद्दी मा’लूम होती है।”

    ठाकुर साहब... मतलब के यार मालूम होते हैं, ये हवा कि कहते,

    “तुम इस में से कोई चम्पा के लिए लेते जाओ।”

    “तुम कैसी बच्चों की सी बातें करते हो।”

    “इसमें बचपन की क्या बात है कोई फ़राख़-दिल आदमी कभी इतनी कंजूसी करता।”

    “मैं ने सख़ी कोई नहीं देखा, जो अपनी बहू के ज़ेवर किसी ग़ैर को बख़्श दे।”

    “मैं ग़ैर नहीं हूँ, हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं, मैं उनके लड़के को पढ़ाता हूँ और शादी का सारा इंतिज़ाम कर रहा हूँ, अगर सौ दो सौ की चीज़ दे देते तो कौन सी बड़ी बात थी। मगर अहल-ए-सर्वत का दिल दौलत के बोझ से दब कर सिकुड़ जाता है। इसमें सख़ावत और फ़राख़ हौसलगी के लिए जगह ही नहीं रहती।”

    यकायक प्रकाश चारपाई से उठकर खड़ा हुआ। आह चम्पा के नाज़ुक जिस्म पर एक गहना भी नहीं फिर भी वो कितनी शाकिर है। उसे चम्पा पर रहम गया। यही तो खाने पीने की उ’म्र है और इस उ’म्र में इस बेचारी को हर एक चीज़ के लिए तरसना पड़ता है। वो दबे पाँव घर से बाहर छत पर आया। ठाकुर साहब की छत उस छत से मिली हुई थी। बीच में एक पाँच फुट ऊंची दीवार थी। वो दीवार पर चढ़ गया और ठाकुर साहब की छत पर आहिस्ता से उतर गया, घर में बिल्कुल सन्नाटा था।

    उसने सोचा पहले ज़ीने से उतर कर कमरे में चलूं, अगर वह जाग गये तो ज़ोर से हंस दूँगा और कहूँगा, क्या चरका दिया। कह दूँगा। मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखाई दिया इसलिए मैं भी उस के पीछे पीछे आया कि देखूं ये क्या कर रहा है? किसी को मुझ पर शक ही नहीं होगा। अगर संदूक़ की कुंजी मिल गई तो पौ बारह हैं। सब नौकरों पर शुबहा करेंगे। मैं भी कहूँगा साहब नौकरों की हरकत है उनके सिवा और कौन ले जा सकता है, मैं नलवा निकल जाऊँगा। शादी के बाद कोई दूसरा घर ले लूँगा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता एक एक ज़ेवर चम्पा को दूँगा जिससे कोई शक गुज़रे। फिर भी वो जब ज़ीने से उतरने लगा तो उसका दिल धड़क रहा था।

    4

    धूप निकल आई थी प्रकाश अभी सो रहा था कि चम्पा ने उसे जगा कर कहा, “बड़ा ग़ज़ब हो गया रात को ठाकुर साहब के घर में चोरी हो गई, चोर ज़ेवरों का डिब्बा उठा कर ले गये।”

    प्रकाश ने पड़े पड़े पूछा, “किसी ने पकड़ा नहीं चोर को।”

    “किसी को ख़बर भी नहीं, वही डिब्बे ले गये जिसमें शादी के ज़ेवर रखे थे जाने कैसे चाबी उड़ा ली। और उन्हें कैसे मा’लूम हुआ कि इस संदूक़ में डिब्बा रखा है।”

    “नौकरों की कारस्तानी होगी, बाहर के आदमी का ये काम नहीं है।”

    “नौकर तो उनके तीनों पुराने हैं।”

    “नियत बदलते क्या देर लगती है, आज मौक़ा देखा उड़ा ले गये।”

    “तुम जा कर उनको तसल्ली दो ठकुराइन बे-चारी रो रही थी। तुम्हारा नाम लेकर कहती थीं कि बेचारा महीनों इन ज़ेवरों के लिए दौड़ा। एक एक चीज़ अपने सामने बनवाई और चोर मूँडी काटे ने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।”

    प्रकाश झटपट उठ बैठा और घबराया हुआ सा जाकर ठकुराइन से बोला, “यह तो बड़ा ग़ज़ब हो गया माताजी, मुझे तो अभी अभी चम्पा ने बतलाया।”

    ठाकुर साहब सर पर हाथ रखे हुए बैठे थे, बोले, “कहीं सेंध नहीं कोई ताला नहीं टूटा, किसी दरवाज़े की चूल नहीं उतरी समझ में नहीं आया कि चोर किधर से आया?”

    ठकुराइन ने रो कर कहा, “मैं तो लुट गई भय्या! ब्याह सर पर है, क्या होगा, भगवान तुमने कितनी दौड़ धूप की थी, तब कहीं जा कर चीज़ें तय्यार हो कर आई थीं जाने किस मनहूस साअ’त में बनवाई थीं।”

    प्रकाश ने ठाकुर साहब की कान में कहा, “मुझे तो नौकरों की शरारत मा’लूम होती है।”

    ठकुराइन ने मुख़ालिफ़त की, “अरे नहीं भय्या। नौकरों में कोई नहीं। दस हज़ार रुपये यूँ ही ऊपर रखे रहते हैं। कभी एक पाई का नुक़्सान नहीं हुआ।”

    ठाकुर साहब ने नाक सिकोड़ कर कहा, “तुम क्या जानो आदमी का दिल कितनी जल्दी बदल जाता है। जिसने अभी तक चोरी नहीं की वो चोरी नहीं करेगा, ये कोई नहीं कह सकता। मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा और एक एक नौकर की तलाशी कराऊँगा। कहीं माल उड़ा दिया होगा। जब पुलिस के जूते पड़ेंगे तो आप इक़बाल करेंगे।”

    प्रकाश ने पुलिस का घर में आना ख़तरनाक समझा। कहीं उनके घर की तलाशी लें तो सितम ही हो जायेगा। बोले, “पुलिस में रिपोर्ट करना और तहक़ीक़ात करना बिल्कुल बेफ़ायदा है।”

    ठाकुर साहब ने मुँह बना कर कहा, “तुम भी क्या बच्चों की सी बात कर रहे हो प्रकाश बाबू। भला चोरी करने वाला ख़ुद बख़ुद इक़बाल करेगा। तुम ज़द-ओ-कूब भी नहीं कर सकते, हाँ पुलिस में रिपोर्ट करना मुझे भी फ़ुज़ूल मा’लूम होता है, माल चला गया, अब क्या मिलेगा।”

    प्रकाश, “लेकिन कुछ कुछ तो करना ही पड़ेगा।”

    ठाकुर, “कोई फ़ायदा नहीं, हाँ अगर कोई ख़ुफ़िया पुलिस का आदमी हो जो चुपके पता लगा दे तो अलबत्ता माल निकल आये। लेकिन यहाँ ऐसे आदमी कहाँ, नसीबों को रो कर बैठ रहो और क्या।”

    प्रकाश, “आप बैठे रहिए, लेकिन मैं बैठने वाला नहीं। मैं इन्हीं नौकरों के सामने चोर का नाम निकलवाउँगा।”

    ठकुराइन: “नौकरों पर मुझे पूरा यक़ीन है। किसी का नाम भी निकल आये तो मुझे यही ख़याल रहेगा कि ये किसी बाहर के आदमी का काम है। चाहे जिधर से आया हो पर चोर आया बाहर से तुम्हारे कोठे से भी तो सकता है।”

    ठाकुर: “हाँ ज़रा अपने कोठे पर देखो शायद कुछ निशान मिले। कल दरवाज़ा तो खुला हुआ नहीं रह गया?”

    प्रकाश का दिल धड़कने लगा, “बोला मैं तो दस बजे दरवाज़ा बंद कर लेता हूँ, हाँ कोई पहले से मौक़ा पा कर कोठे पर चला गया हो। वहाँ छुपा बैठा रहा हो तो दूसरी बात है।”

    तीनों आदमी छत पर गये, तो बीच की मुंडेर पर किसी के पाँव के निशान दिखाई दिये जहां प्रकाश का पाँव पड़ा था, वहां का चूना लग जाने से छत पर पाँव का निशान पड़ गया था। प्रकाश की छत पर जा कर मुंडेर की दूसरी तरफ़ देखा तो वैसे ही निशान वहाँ भी दिखाई दिये। ठाकुर साहब सर झुकाए खड़े थे। लिहाज़ के मारे कुछ कह सके थे। प्रकाश ने उनके दिल की बात खोल दी, “अब तो कोई शक ही नहीं रहा।”

    ठाकुर साहब ने कहा, “हाँ मैं भी यही समझता हूँ। लेकिन इतना पता लग जाने से क्या माल तो जाना था, वो गया, अब चलो आराम से बैठो, आज रुपये की कोई तजवीज़ करनी होगी।”

    प्रकाश: “मैं आज ही ये घर छोड़ दूँगा।”

    ठाकुर: “क्यूँ हमें तुम्हारा...”

    प्रकाश, “आप कहें। लेकिन मैं समझता हूँ, मेरे सर पर बहुत बड़ी जवाब-देही गई, मेरा दरवाज़ा नौ दस बजे तक खुला ही रहता है। चोर ने रास्ता देख लिया है। मकान है दो चार दिन में फिर घुसे। घर में अकेली एक औरत है सारे घर की निगरानी नहीं कर सकती। उधर वो तो बावर्चीख़ाने में बैठी है उधर कोई आदमी चुपके से ऊपर चढ़ गया तो ज़रा भी आहट नहीं मिल सकती। मैं घूम-घूम कर कभी नौ बजे आया कभी दस बजे और शादी के दिनों में देर होती रहेगी। इधर का रास्ता बंद ही हो जाना चाहिए। मैं तो समझता हूँ चोरी सारी मेरे सर है।”

    ठकुराइन डरीं, “तुम चले जाओगे भय्या तब तो घर और फाड़ खाएगा।”

    प्रकाश: “कुछ भी हो माता जी। मुझे बहुत जल्द घर छोड़ देना पड़ेगा। मेरी ग़फ़लत से चोरी हो गई। इसका मुझे ख़मियाज़ा उठाना पड़ेगा।”

    प्रकाश चला गया तो ठाकुर की औरत ने कहा, “बड़ा लायक़ आदमी है चोर इधर से आया यही बात उसे खा गई कहीं ये चोर को पकड़ पाए तो कच्चा ही खाये।”

    “मार ही डाले।”

    “देख लेना कभी कभी माल बरामद करेगा।”

    “अब इस घर में हरगिज़ रहेगा। कितना ही समझाओ।”

    “किराये के बीस रुपये देने पड़ेंगे।”

    “हम क्यों किराया दें, वो आप ही घर छोड़ रहे हैं, हम तो कुछ कहे नहीं।”

    “किराया तो देना ही पड़ेगा, ऐसे आदमी के लिए कुछ गम भी खाना पड़े तो बुरा नहीं लगता।”

    “मैं तो समझती हूँ किराया लेंगे भी नहीं।”

    “तीस रुपये में गुज़र भी तो होगी।”

    5

    प्रकाश ने उसी दिन वो घर छोड़ दिया। उस घर में रहने में ख़दशा था, लेकिन जब तक शादी की धूम धाम रही, अक्सर तमाम दिन वहीं रहते थे। पेशबंदी के लिए चम्पा से कहा, “एक सेठ जी के हाँ 50 रुपये माहवार का काम मिल गया, मगर वो रुपये उन्हीं के पास जमा करता जाऊँगा। वो आमदनी सिर्फ़ ज़ेवरों में ख़र्च होगी उसमें से एक पैसा घर के ख़र्च में आने दूँगा।”ख़ाविंद की मोहब्बत का ये सुबूत पा कर उसे अपनी क़िस्मत पर नाज़ हुआ देवताओं में उसका ए’तिक़ाद और भी पुख़्ता हो गया।

    अब तक प्रकाश और चम्पा में कोई राज़ था। प्रकाश के पास जो कुछ था वो चम्पा का था। चम्पा ही के पास उसके ट्रंक, संदूक़ और अलमारी की चाबियाँ रहती थीं। मगर जब प्रकाश का एक संदूक़ हमेशा बंद रहता था उसकी चाबी कहाँ है? इसका चम्पा को पता नहीं। वो पूछती है, इस संदूक़ में क्या है! तो वो कह देते हैं, “कुछ नहीं पुरानी किताबें हैं मारी-मारी फिरती थीं उठा के संदूक़ में बंद कर दी हैं।”चम्पा को शक की गुंजाइश थी।

    एक दिन चम्पा उन्हें पान देने गई तो देखा वो उस संदूक़ को खोले कुछ देख रहे हैं। उसे देखते ही उनका चेहरा फ़क़ हो गया। शुब्हे का अखुवा सा निकला मगर पानी बह कर सूख गया। चम्पा किसी ऐसे राज़ का ख़याल ही कर सकी जिससे शुब्हे को ग़िज़ा मिलती।

    लेकिन पाँच हज़ार की पूँजी को इस तरह छोड़ देना कि उसका ध्यान ही आये, प्रकाश के लिए नामुमकिन था। वो कहीं बाहर जाता तो एक बार संदूक़ को ज़रूर खोलता।

    एक दिन पड़ोस में चोरी हो गई। उस दिन से प्रकाश कमरे ही में सोने लगा। जून का महीना था। गर्मी के मारे दम घुटता था। चम्पा ने बाहर सोने के लिए कहा मगर प्रकाश माना, अकेला घर कैसे छोड़ दे।

    चम्पा ने कहा, “चोरी ऐसों के घर नहीं होती। चोर कुछ देखकर ही जान ख़तरे में डालते हैं। यहाँ क्या रखा है।”

    प्रकाश ने ग़ुस्से से कहा, “कुछ नहीं, बर्तन तो हैं, ग़रीब के लिए तो अपनी हंडिया ही बहुत है।”

    एक दिन चम्पा ने कमरे में झाड़ू लगाई तो संदूक़ खिसका कर एक तरफ़ रख दिया। प्रकाश ने संदूक़ की जगह बदली हुई देखी तो बोला, “संदूक़ तुमने हटाया था?”

    ये पूछने की बात थी, झाड़ू लगाते वक़्त अक्सर चीज़ें इधर उधर खिसका दी जाती हैं बोली, “मैं क्यों हटाने लगी।”

    “फिर किस ने हटाया।”

    “घर में तुम रहती हो जाने कौन।”

    “अच्छा अगर मैं ने ही हटा दिया तो इसमें पूछने की क्या बात है।”

    “कुछ यूँ ही पूछा था।”

    मगर जब तक संदूक़ खोल कर तमाम चीज़ें देख ले प्रकाश को चैन कहाँ। चम्पा जैसे ही खाना पकाने लगी। वो संदूक़ खोल कर देखने लगा। आज चम्पा ने पकौड़ियाँ बनाई थीं, पकौड़ियाँ गर्म गर्म ही मज़ा देती हैं। प्रकाश को पकौड़ियाँ पसंद बहुत थीं। उसने थोड़ी सी पकौड़ियाँ तश्तरी में रखीं और प्रकाश को देने गई। प्रकाश ने उसे देखते ही संदूक़ धमाके से बंद कर दिया और ताला लगा कर उसे बहलाने के लिए बोला, “तश्तरी में क्या लाईं, आज जाने क्यों मुतलक़ भूक नहीं लगी। पेट में गिरानी मालूम होती हैं।”

    “अच्छा पकौड़ियाँ हैं।”

    आज चम्पा के दिल में शुब्हे का वो अखुवा जैसे हरा हो कर लहलहा उठा। संदूक़ में क्या है? ये देखने के लिए उसका दिल बेक़रार हो गया। प्रकाश उसकी चाबी छुपाकर रखता था। चम्पा को वो ताली किसी तरह मिली। एक दिन एक फेरी वाला बिसाती पुरानी चाबियाँ बेचने निकला। चम्पा ने उस ताले की चाबी ख़रीद ली और संदूक़ खोल डाला, अरे ये तो ज़ेवर हैं। उसने एक एक ज़ेवर निकाल कर देखा। ये कहाँ से आये। मुझसे तो कभी इनके मुतअ’ल्लिक़ बातचीत नहीं की। मअ’न उसके दिल में ख़याल गुज़रा ये जे़वरात ठाकुर साहब के तो नहीं, चीज़ें वही थीं जिनका तज़्किरा करते रहते थे। उसे अब कोई शक रहा। लेकिन इतनी बड़ी शर्म-ओ-निदामत से उसका सर झुक गया। उसने एक दम संदूक़ बंद कर दिया और पलंग पर लेट कर सोचने लगी। इनकी इतनी हिम्मत कैसे पड़ी? ये कमीना ख़्वाहिश इनके मन में आई कैसे? मैं ने तो कभी ज़ेवरों के लिए उन्हें तंग नहीं किया। गर तंग भी करती तो क्या इसका मतलब ये होता कि वो चोरी कर के लाएंगे। चोरी ज़ेवरों के लिए। इनका ज़मीर इतना कमज़ोर क्यों हो गया?

    6

    उस दिन से चम्पा कुछ उदास रहने लगी। प्रकाश से वो मोहब्बत रही, वो इज़्ज़त का जज़्बा बात बात पर तकरार हो जाती। पहले दोनों एक दूसरे से दिल की बातें कहते थे। मुस्तक़बिल के मंसूबे बाँधते थे। आपस में हमदर्दी थी। मगर अब दोनों में कई कई दिन तक आपस में एक बात भी होती।

    कई महीने गुज़र गये। शहर के एक बैंक में असिस्टेंट मैनेजर की जगह ख़ाली हुई। प्रकाश ने अकाउंटेंट का इम्तिहान पास किया हुआ था, लेकिन शर्त ये थी कि नक़द दस हज़ार रुपये की ज़मानत दाख़िल की जाये। इतनी रक़म कहाँ से आये, प्रकाश तड़प तड़प कर रह जाता।

    एक दिन ठाकुर साहब से इस मुआ’मले पर बातचीत चल पड़ी। ठाकुर साहब ने कहा, “तुम क्यों नहीं दरख़्वास्त भेजते?”

    प्रकाश ने सर झुका कर कहा, “दस हज़ार की नक़द ज़मानत मांगते हैं। मेरे पास रुपये कहाँ रखे हैं।”

    “अजी दरख़्वास्त तो दो, अगर और सब उमूर तय हो जाएँ तो ज़मानत भी दे दी जायेगी। इसकी फ़िक्र करो।”

    प्रकाश ने हैरान हो कर कहा, “आप ज़ेर-ए-ज़मानत दाख़िल कर देंगे?”

    “हाँ हाँ ये कौनसी बड़ी बात है।”

    प्रकाश घर की तरफ़ चला तो बड़ा उदास था। उसको ये नौकरी ज़रूर मिलेगी, मगर फिर भी ख़ुश नहीं है। ठाकुर साहब की साफ़ दिली और उनके इस पर इतने ज़बरदस्त ए’तिमाद से उसे दिली सदमा हो रहा है। उनकी शराफ़त उसके कमीना पन को रौंदे डालती है। उसने घर कर चम्पा को ख़ुशख़बरी सुनाई। चम्पा ने सुनकर मुँह फेर लिया, फिर एक मिनट बाद बोली, “ठाकुर साहब से तुमने क्यों ज़मानत दिलवाई? जगह मिलती सही रोटियाँ तो मिल ही जाती हैं। रुपये पैसे का मुआ’मला है, कहीं भूल चूक हो जाये तो तुम्हारे साथ उनके पैसे भी जायें।”

    “ये तुम कैसे समझती हो कि भूल चूक होगी, क्या मैं ऐसा अनाड़ी हूँ?”

    चम्पा ने कहा, “आदमी की नियत भी तो हमेशा एक सी नहीं रहती।”

    प्रकाश सन्नाटे में गया। उसने चम्पा को चुभती हुई नज़रों से देखा। मगर चम्पा ने मुँह फेर लिया था। वो उसके अंदरूनी ख़याल का अंदाज़ा लगा सका, मगर ऐसी ख़ुश-ख़बरी सुनकर भी चम्पा का उदास रहना खटकने लगा। उसके दिल में सवाल पैदा हुआ, उसके अलफ़ाज़ में कहीं तंज़ तो नहीं छुपा है। चम्पा ने संदूक़ खोल कर कहीं देख तो नहीं लिया, इस सवाल का जवाब हासिल करने के लिए वो उस वक़्त अपनी एक आँख भी नज़र कर सकता था।

    खाने के वक़्त प्रकाश ने चम्पा से पूछा, “तुमने क्या सोच कर कहा कि आदमी की नियत तो हमेशा एक सी नहीं रहती?” जैसे उसकी ज़िंदगी और मौत का सवाल हो।

    चम्पा ने आज़ुर्दा हो कर कहा, “कुछ नहीं मैंने दुनिया की बात कही थी।”

    प्रकाश को तसल्ली हुई, उसने पूछा,“क्या जितने आदमी बैंक में मुलाज़िम हैं, उनकी निय्त बदलती रहती है।”

    चम्पा ने गला छुड़ाना चाहा, “तुम तो ज़बान पकड़ते हो, ठाकुर साहब के हाँ शादी में ही तो तुम अपनी नियत ठीक रख सके, सौ दो सौ रुपये की चीज़ घर में रख ही ली।”

    प्रकाश के दिल में बोझ सा उतर गया। मुस्कुरा कर बोला, “अच्छा तुम्हारा इशारा उस तरफ़ था। लेकिन मैं ने कमीशन के सिवाए उनकी एक पाई भी नहीं छूई। और कमीशन लेना तो कोई पाप नहीं। बड़े बड़े हुक्काम खुले ख़ज़ाने कमीशन लिया करते हैं।”

    चम्पा ने नफ़रत के लहजे में कहा, “जो आदमी अपने ऊपर इतना यक़ीन रखे, उसकी आँख बचा कर एक पाई भी लेना गुनाह समझती हूँ। तुम्हारी शराफ़त जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये जा कर उनके हवाले कर देते। इन छः महीनों में उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या सुलूक किये। कुछ दिया ही है? मकान तुमने खुद छोड़ा लेकिन वो बीस रुपये माहवार दिये जाते हैं। इलाक़े से कोई सौग़ात आती है, तुम्हारे हाँ ज़रूर भेजते हैं। तुम्हारे पास घड़ी थी, अपनी घड़ी तुम्हें दे दी। तुम्हारी कहारिन जब नाग़ा करती है ख़बर पाते ही अपना नौ कर भेज देते हैं। मेरी बीमारी में डाक्टर के फ़ीस उन्होंने अदा की और दिन में दो-दो दफ़ा पूछने आया करते थे। ये ज़मानत की क्या छोटी बात है, अपने रिश्तेदारों तक की ज़मानत तो जल्दी से कोई देता ही नहीं। तुम्हारी ज़मानत के नक़द दस हज़ार रुपये निकाल कर दे दिये। इसे तुम छोटी बात समझते हो। आज तुमसे कोई ग़लती हो जाये तो उनके रुपये तो ज़ब्त हो जाएँ। जो आदमी अपने ऊपर इतनी मेहरबानी करे उसके लिए हमें जान क़ुर्बान करने के लिए हमेशा तय्यार रहना चाहिए।”

    प्रकाश खा कर लेटा तो उसका ज़मीर उसे मलामत कर रहा था। दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा है, ये उस वक़्त मा’लूम होता है जब नश्तर लगाया जाता है। दिल की स्याही उस वक़्त मा’लूम होती है जब कोई उसे हमारे सामने खोल कर रख देता है। कोई सोशल या पॉलिटिकल कार्टून देखकर क्यों हमारे दिल पर चोट लगती है। इसलिए कि वो तस्वीर हमारी हैवानियत को खोल कर हमारे सामने रख देती है। वो जो दिल के अथाह समुंदर में बिखरा हुआ पड़ा था, इकट्ठा हो कर घर से निकलने वाले कूड़े की तरह अपनी जसामत से हमें मुतवह्हिश कर देता है तब हमारे मुँह से निकल पड़ता है कि अफ़सोस। चम्पा के इन मलामत आमेज़ अलफ़ाज़ ने प्रकाश की इनसानियत को बेदार कर दिया। वो संदूक़ कई गुना भारी हो कर पत्थर की तरह उसे दबाने लगा। दिल में फैली हुई हरारतें एक नुक़्ते पर जमा हो कर शो’ला गीर हो गईं।

    7

    कई रोज़ गुज़र गये। प्रकाश को बैंक में मुलाज़िमत मिल गई। इस तक़रीब में उसके हाँ मेहमानों की दा’वत है। ठाकुर साहब, उनकी अह्लिया, वीरेंद्र और उसकी नई दुल्हन भी आये हए हैं। बाहर यार-दोस्त गा-बजा रहे हैं। खाना खाने के बाद ठाकुर साहब चलने को तय्यार हुए।

    प्रकाश ने कहा, “आज आपको यहाँ रहना होगा। दादा मैं इस वक़्त जाने दूँगा।”

    चम्पा को उसकी ये ज़िद बुरी मालूम हुई। चारपाइयाँ नहीं हैं, बिछौने नहीं हैं और काफ़ी जगह ही है। रात भर उनको तकलीफ़ देने और ख़ुद तकलीफ़ उठाने की कोई ज़रूरत उसकी समझ में आयी। लेकिन प्रकाश बराबर ज़िद करता रहा। यहाँ तक कि ठाकुर साहब राज़ी हो गये।

    बारह बजे थे, ठाकुर साहब ऊपर सो रहे थे और प्रकाश बाहर बर-आमदे में, तीनों औरतें अन्दर कमरे में थीं। प्रकाश जाग रहा था। वीरू के सिरहाने चाबियों का गुच्छा पड़ा हुआ था। प्रकाश ने गुच्छा उठा लिया, फिर कमरा खोल कर उसमें से जे़वरात का डिब्बा निकाला और ठाकुर साहब के घर की तरफ़ चला। कई माह पेश्तर वो इसी तरह लरज़ते हुए दिल के साथ ठाकुर साहब के मकान में घुसा था। उसके पाँव तब भी इसी तरह थरथरा रहे थे। लेकिन तब कांटा चुभने का दर्द था आज कांटा निकलने का। तब बुख़ार का चढ़ाव था, हरारत-ए-इज़्तिराब और ख़लिश से पुर, अब बुख़ार का उतार था। सुकून, फ़रहत और उमंग से भरा हुआ, तब क़दम पीछे हटा था। आज आगे बढ़ रहा था।

    ठाकुर साहब के घर पहुँच कर उसने आहिस्ते से वीरेंद्र का कमरा खोला और अंदर जा कर ठाकुर साहब के पलंग के नीचे डिब्बा रख दिया, फिर फ़ौरन बाहर कर आहिस्ते से दरवाज़ा बंद किया और घर लौट पड़ा। हनुमान जी संजीवनी बूटी वाला पहाड़ का टुकड़ा उठाए जिस रुहानी सुरूर का लुत्फ़ उठा रहे थे, वैसी ही ख़ुशी प्रकाश को भी हो रही थी। ज़ेवरों को अपने घर ले जाते हुए उसकी जान सूखी हुई थी। गोया कि किसी गहराई में जा रहा हो। आज डिब्बे को लौटा कर उसे ऐसा मा’लूम हो रहा था जैसे वो एरोप्लेन पर बैठा हुआ फ़िज़ा में उड़ा जा रहा है ऊपर ऊपर और ऊपर।

    वो घर पहुँचा तो वीरू सो रहा था, चाबियों का गुच्छा उसके सिरहाने रख दिया।

    8

    ठाकुर साहब सुबह तशरीफ़ ले गये।

    प्रकाश शाम को पढ़ाने जाया करता था। आज वो बेसब्र हो कर तीसरे पहर ही जा पहुँचा देखना चाहता था वहाँ आज क्या गुल खिलता है।

    वीरेंद्र ने उसे देखते ही ख़ुश हो कर कहा, “बाबूजी कल आपके हाँ की दावत बड़ी मुबारक थी। जो ज़ेवरात चोरी हो गये थे सब मिल गये।”

    ठाकुर साहब भी गये और बोले, “बड़ी मुबारक दा’वत थी तुम्हारी, पूरा का पूरा डिब्बा मिल गया। एक चीज़ भी नहीं गई, जैसे अमानत रखने के लिए ही ले गया हो।”

    प्रकाश को उनकी बातों पर यक़ीन कैसे आये जब तक वो अपनी आँखों से देख ले कहीं ऐसा भी हो सकता है कि चोरी गया हुआ माल छः माह बाद मिल जाये और जूँ का तूँ।

    डिब्बा खोल कर उसने बड़ी संजीदगी से देखा, तअ’ज्जुब की बात है। मेरी अक़ल तो काम नहीं करती।

    ठाकुर: “किसी की अक़ल कुछ काम नहीं करती भाई तुम्हारी ही क्यूँ? वीरू की माँ तो कहती है कोई ग़ैबी मो’जिज़ा है। आज से मुझे भी मो’जिज़ात पर यक़ीन हो गया।”

    प्रकाश: “अगर आँखों देखी बात होती तो मुझे यक़ीन आता।”

    ठाकुर: “आज इस ख़ुशी में हमारे हाँ दा’वत होगी।”

    प्रकाश: “आपने कोई मंत्र-वंत्र तो नहीं पढ़ाया ऐसा किसी से।”

    ठाकुर: “कई पंडितों से।”

    प्रकाश: “तो बस ये उसी की बरकत है।”

    घर लौट कर प्रकाश ने चम्पा को ये ख़ुशख़बरी सुनाई तो वो दौड़ कर उनके गले से चिमट गई, और जाने क्यूँ रोने लगी, जैसे उसका बिछड़ा हुआ ख़ाविंद बहुत मुद्दत के बाद घर गया हो।

    प्रकाश ने कहा, “आज उनके हाँ मेरी दा’वत है।”

    “मैं भी एक हज़ार भूकों को खाना ख़िलाऊँगी।”

    “तुम तो सैंकड़ों का ख़र्च बतला रही हो।”

    “मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि लाखों रुपये ख़र्च करने पर भी अरमान पूरा होगा।”

    “प्रकाश की आँखों में आँसू गये।”

    (प्रेमचंद के सौ अफ़साने, तर्तीब-ओ-इंतिख़ाब: प्रेम गोपाल मित्तल,स 610)

    RECITATIONS

    जावेद नसीम

    जावेद नसीम,

    जावेद नसीम

    Zewar Ka Dabba by Munshi Premchand जावेद नसीम

    स्रोत:

    (Pg. 611)

    • लेखक: प्रेमचंद
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए