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हमसाए

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    एक पहाड़ी पर दो मकान खड़े हैं। हालांकि वह एक ही मकान है लेकिन बीच में दीवार देकर उन्हें दो बना दिया गया है। मकानों में तीन बच्चें रहते हैं। एक में दो भाई अकबर और उसका छोटा भाई और दूसरे में बैरी। अकबर का बैरी के प्रति लगाव, पहाड़ी की आब-ओ-हवा और उन तीनों की दिलचस्प गुफ़्तुगू को ही कहानी में बयान किया गया है।

    इस पहाड़ी पर वो फ़क़त दो ही घर थे। मकान तो अस्ल में एक ही था। मगर बा'द में इसके मालिक ने इसके बीचों-बीच लकड़ी की एक पतली सी दीवार‏ खड़ी करके उसे दो हिस्सों में तक़सीम कर दिया था। और अब इसमें अलग अलग दो ख़ानदान रहते थे। पहाड़ों पर मकान वैसे ही छोटे-छोटे ‏होते हैं। इस पर दो हिस्सों में बट जाने से उसकी मकानियत महज़ नाम को रह गई थी। चुनाँचे उसके रहने वालों को अगर ये तसल्ली होती कि वो‏ गर्मी का ज़माना पहाड़ पर बसर कर रहे हैं। तो वो बहुत ही आज़ुर्दा रहा करते।

    लकड़ी का बना हुआ मख़रूती वज़्अ' का ये मकान जिस पर सुर्ख़ रोग़न किया गया था। पहाड़ी की एक ढाल पर वाक़े' था। इस तक पहुँचने के लिए लकड़ी का एक लंबा ज़ीना‏ चढ़ना पड़ता था। मकान के सामने थोड़ी सी ज़मीन थी जिसको हमवार करके फुलवारी बनाने की कोशिश की गई थी। मगर वो फुलवारी बे-तवज्जोही का शिकार‏ होके रह गई थी। और अब इसमें डेलिया का एक-आध पौदा ही रह गया था। जो गोया बड़ी ढिटाई से उसकी याद को क़ाएम रखने पर मुसिर था।

    इस फुलवारी के सिरे पर लकड़ी का एक बेंच रखा था। इस पर बैठे तो नीचे वादी का हसीन मगर उदास-उदास मंज़र दिखाई देता। जितनी देर सूरज ग़ाएब ‏रहता। हल्की-हल्की नीली धुंद मकड़ी के जाले की तरह इस मंज़र पर छाई रहती। और ऐसा नज़र आता जैसे पानी में अ'क्स देख रहे हों। जब सूरज निकलता तो‏ धंदा एका-एकी सुनहरी हो कर इस मुरक़्क़े' को और भी हसीन बना देती। मगर चंद ही लम्हों के बा'द आँखों में चका-चौंद होने लगती। और देखने वाला जल्द ही अपनी ‏नज़रें फेर लेता।

    अगस्त की एक सुब्ह को अभी आफ़ताब ने मशरिक़ी सिलसिला-ए-कोह की दो पहाड़ियों के बीच से सर निकाला ही था कि एक छोटा सा लड़का एक घर में से निकला। उसकी‏ उम्र मुश्किल से आठ नौ बरस की होगी। उसने सुर्ख़ ऊन का पुल-ओवर और नैकर पहन रखा था। पाँव में बादामी रंग का फ़ुल-बूट था जिसके किनारे ‏मेंह में भीग-भीग के सियाह पड़ गए थे।

    लकड़ी के बरामदे से उतरते ही लड़के की नज़र बे-इख़्तियार साथ वाले घर की तरफ़ उठ गई। मगर उसका‏ दरवाज़ा भी बंद था। लड़के की नज़रें उसकी तरफ़ से इस तरह मायूस पलटीं गोया वो कोई मिठाई या खिलौनों की दुकान हो। जिसे दुकानदार अपनी ‏सुस्ती की वज्ह से वक़्त पर खोलता हो।

    इसके बा'द उसकी नज़र सामने डेलिया के पौदे पर पड़ी। जिसमें एक बड़ा सा सुर्ख़ फूल सुब्ह की सुनहरी‏ धूप में बड़ी तमकनत से झमझमा रहा था। उस फूल ने लड़के के दिल को लुभा लिया। और वो लपक कर उसकी तरफ़ गया। वो कई लम्हों तक हैरत से‏ उस की तरफ़ तकता रहा। ओस की नन्ही नन्ही बूँदें उसकी पंखुड़ियों पर लरज़ रही थीं और उनमें फूल का उ'न्नाबी रंग झलकता हुआ बहुत भला लगता था। लड़के ‏ने एक-बार फिर साथ वाले घर पर नज़र डाली और फिर बड़ी एहतियात से फूल को तोड़ लिया।

    वो ख़ुशी-ख़ुशी फूल को हाथ में थामे साथ वाले घर के बरामदे में पहुँचा। और कमरे के दरवाज़े को आहिस्ता से धक्का दिया। मगर वो अंदर से‏ बंद था। इस दरवाज़े के ऊपर के हिस्से में शीशे जड़े हुए थे। जिनमें से अंदर का ऊदे रंग का मलगजा सा पर्दा नज़र रहा था। वो कुछ देर‏ दरवाज़े के पास ही खड़ा रहा। जैसे सोच रहा हो दरवाज़ा खटखटाए या नहीं कि इतने में लकड़ी के फ़र्श पर भारी-भारी क़दमों की चाप सुनाई दी ‏और साथ ही चिटख़िनी के खुलने की आवाज़ आई। लड़का सहम कर दो क़दम पीछे हट गया और उसका वो हाथ जिसमें डेलिया का फूल था आपसे आप पीठ के पीछे‏ चला गया।

    एक भारी भरकम आदमी शब-ख़्वाबी का लिबास पहने, कम्बल की बुक्कल मारे एक हाथ से मिस्वाक कुर्ता दूसरे में थैला थामे बाहर निकला। पहले तो एस‏ने लड़के की तरफ़ तवज्जोह की। मगर बरामदे से नीचे क़दम रखते ही वो मुड़ा।

    ‏‎‎“क्या बात है अकबर मियाँ?”‎ उसने लड़के से पूछा।

    ‏‎‎“जी कुछ नहीं।' लड़के के मुँह से बे-साख़्ता निकल गया। इसकी आँखों की चमक अचानक मद्धम पड़ गई थी।

    ‏‎‎“बैरी से खेलने आए हो?”‎‏

    ‏‎‎“जी...”‎, और वो मुस्कुराने की कोशिश करने लगा।

    ‏‎‎“बैरी तो सो रही है अभी।”‎‏

    लड़के ने नज़रें झुका लीं। मगर ज़बान से कुछ कहा।

    ‏‎‎“तुम्हारे हाथ में किया है अकबर मियाँ?”‎ उस शख़्स ने पूछा।

    ‏‎‎“जी फूल है।”‎ और उसने डरते डरते फूल सामने कर दिया। इसका छोटा सा हाथ शबनम से अभी तक गीला हो रहा था।

    ‏‎‎“बैरी के लिए?”‏

    ‏‎‎“जी...”‏

    ‏‎‎“बैरी तो सो रही है। और फिर अभी सवेरा भी तो है।”‏

    लड़के ने इसका भी कुछ जवाब दिया।

    ‏‎‎“आज इतवार है ना? तुम और बैरी दिन-भर ख़ूब खेलना।”‏

    ये उस शख़्स ने चलते चलते कहा। फिर वो मिस्वाक करता हुआ काठ के ज़ीने से उतर गया। और उस पगडंडी पर हो लिया जो बल खाती हुई नीचे पहाड़ी के दामन ‏तक चली गई थी। जब तक पगडंडी के पेच-ओ-ख़म उस शख़्स को कभी छुपाते कभी दिखाते रहे, अकबर बराबर बरामदे में खड़ा उसे देखता रहा। आख़िर‏ जब वो नज़रों से ओझल हो गया। तो अकबर ने एक और मायूसाना नज़र साथ वाले कमरे पर डाली। और फिर बरामदे से उतर कर वो डेलिया के पौदे के‏ पास चला आया। जिसमें अब कोई दिल-कशी नहीं रही थी। वो शाख़ जिससे उसने फूल तोड़ा था। लंजी-लंजी सी नज़र रही थी जैसे कह रही हो, ‏‏‎‎“अब मुझमें और कोई फूल नहीं आएगा”‏

    अकबर पौदे के पास से हट आया और बेंच पर बैठ गया। सूरज अब लंबे-लंबे पियाज़ी बादलों को पीछे छोड़कर पहाड़ियों के झुरमुट से निकल आया था। और‏ उसने निडर हो कर अपना सफ़र तय करना शुरू' कर दिया था। वो धुंद जो निचली वादी पर छाई हुई थी, धीरे धीरे धूप में तहलील हो रही थी।‏ और नीचे का मंज़र लम्हा-ब-लम्हा निखरता रहा था।

    आस-पास के मकानों की खिड़कियों में इंसानी चेहरे नमूदार होने शुरू' हो गए थे। तरह-तरह की‏ इज़्तिरारी हरकतें उनसे ज़ाहिर हो रही थीं। मा'लूम होता था कि दिमाग़ ने जिस पर अभी नींद का असर था, जिस्म की हरकात पर क़ाबू रखना शुरू' नहीं किया।‏

    नीचे दूर से अकबर के स्कूल की गिरजा-नुमा इ'मारत नज़र रही थी जिस पर बाद-नुमा मोर बना हुआ था। एक मकान की अंगनाई में जो नशेब में वाक़े' था। एक ‏गृहस्तन छोटे छोटे रंग बिरंगे कपड़े निचोड़ निचोड़ कर अलगनी पर डाल रही थी। क़रीब ही देवदार की एक शाख़ पर एक ख़ुश-रंग चिड़िया अपनी लंबी‏ चोंच से अपनी दुम के बाल सौंत रही थी। कभी कभी वो दासी से चहक भी उठती थी।

    अकबर इस नज़ारे में ऐसा महव हुआ कि उसे ख़बर भी हुई। और उसने डेलिया के फूल की एक पत्ती नोच ली। जब उसे इसका इ'ल्म हुआ तो उसने‏ एक-एक-एक करके सारी पत्तियाँ नोच डालीं। और डंठल को हवा में उछाल दिया। उसका ख़याल था कि वो डंठल को नीचे दूर तक खड में गिरते देखता‏ रहेगा। मगर वो थोड़ी ही दूर पर एक झाड़ी में अटक कर रह गया।

    एका-एकी ठंडी हवा चलने लगी। सूरज की सारी दौड़ धूप को बादलों के एक झुरमुट ने छिपा लिया और फिर एक ही दम बूँदियाँ आने लगीं।

    गृहस्तन ने मुँह उठाके आसमान की तरफ़ देखा और फिर जल्द-जल्द सारे कपड़े अलगनी पर से उतार लिए। जिस घर से अकबर निकला था, इसी में से एक और ‏लड़का दौड़ता हुआ बरामदे में आया, उसका लिबास भी क़रीब क़रीब वैसा ही था जैसा अकबर का था। मगर उसकी उम्र पाँच बरस से ज़ियादा थी

    ‏‎‎“भाई जान।” उसने चलाकर कहा। ‎‎“अम्मी बुला रही हैं।”‏

    अकबर ने कुछ जवाब दिया।

    ‏‎‎“भाई जान। अम्मी कहती हैं नाश्ता कर लो।”‏

    अकबर ने अब भी कुछ जवाब दिया। वो बदस्तूर घर की तरफ़ पीठ किए बेंच पर बैठा रहा।

    लड़का अंदर चला गया। मगर पल-भर के बा'द वो फिर आया,

    ‏‎‎“भाई जान। अम्मी ख़फ़ा हो रही हैं।” उसने कहा।

    ‏‎‎“सुन लिया सुन लिया।” बिल-आख़िर अकबर ने गर्दन फेरी। ‎‎“आता हूँ, आता हूँ।”‏

    छोटा लड़का फिर अंदर चला गया। एक लम्हा भी गुज़रा था कि एक औरत जिसकी जवानी ढल चुकी थी, बड़े-बड़े फूलों वाली बनफ़्शी रंग की सारी को‏ कूल्हे पर से सँभालती हुई बरामदे में नुमूदार हुई,

    ‏‎‎“अकबर बेटे।”, उसने मुहब्बत भरे लहजे में कहा। ‎‎“अंदर क्यों नहीं आते मेरे लाल नाश्ता क्यों नहीं करते। बूँदियाँ रही हैं और तुम मेंह में‏ बैठे भीग रहे हो। वाह भई वाह। और कहीं ज़ुकाम हो गया तो।अभी तो बीमारी से उठे हो। जल्दी से जाओ मेरे प्यारे।”‏

    ‏‎‎“मैं ही रहा था अम्मी जान।” अकबर ने बेंच से उठते हुए कहा। फिर वो मेंह से बचने की ज़रा भी कोशिश करता, सहज सहज क़दम उठाता बरामदे में‏ आया। अपने घर में दाख़िल होने से पहले उसने एक-बार फिर साथ वाले घर के दरवाज़े पर नज़र डाली।

    मेंह कोई पाँव घंटे तक बरसा किया। इसके बा'द एक दम मतला' साफ़ हो गया। और सूरज ने पहले से भी ज़ियादा बुलंद हो कर अपना सफ़र शुरू' कर दिया।

    दोनों लड़के फिर उसी घर से निकले। अकबर तो डेलिया के पौदे के पास जाकर खड़ा हो गया। और छोटा लड़का साथ वाले घर के बरामदे में पहुँचा और अपने ‏छोटे-छोटे हाथों से बे-धड़क दरवाज़ा पीटना शुरू' कर दिया।

    ‏‎‎“बैरी!”, उसने चिल्लाकर कहा।

    ‏‎‎“बैरी!”, उसने जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर और भी ज़ोर से चिल्लाकर कहा। ‎‎“तुम्हें भाई जान बुला रहे हैं। सच-मुच का हवाई जहाज़ है उनके पास। आओ‏ देखो।”‏

    ‏‎‎“क्या है मुनीर मियाँ?” अंदर से एक नन्ही सी आवाज़ आई।

    ‏‎‎“दरवाज़ा खोलो।”, मुनीर ने कहा।

    ‏‎‎“चिटख़िनी लग रही है। मेरा हाथ नहीं जाता। अम्मी ग़ुस्ल-ख़ाने में हैं।”‏

    ‏‎‎“रात मामूँ हमारे लिए बड़ा अच्छा हवाई जहाज़ लाए।” मुनीर ने कहा।

    ‏‎‎“कहाँ है वो हवाई जहाज़?”‏

    ‏‎‎“भाई जान के पास।”‏

    ‏‎‎“अच्छा मैं आती हूँ।”‏

    पाँच मिनट के बा'द दरवाज़ा खुला और एक नन्ही सी लड़की, जिसकी उम्र कोई सात बरस की होगी। बरामदे में आई। उसने हल्के सब्ज़-रंग का फूलदार ‏रेशमी कुर्ता और कलीदार पाजामा पहन रखा था। फ़्राक के ऊपर फ़ीरोज़ी ऊन का कोट-नुमा स्वेटर था। दोनों शानों पर एक एक चुटिया थी। जिसके सिरे ‏पर सफ़ेद रिबन बँधा हुआ था। सीने पर आसमानी रंग के हवाई रेशम का नन्हा सा दुपट्टा लहरा रहा था। पाँव में छोटे-छोटे सब्ज़ वेड के सैंडिल थे।

    उन दोनों भाइयों को बेंच पर बैठे देखकर वो एक झोंके की तरह उनके पास पहुँची। जैसे ही मुनीर की नज़र उसके चेहरे पर पड़ी वो ठट्ठा मार के हँसने‏ लगा।

    ‏‎‎“ओहो-हो-हो बैरी!” उसने कहा, ‎‎“कितना पोडर मल रखा है तुमने। तुम्हारी पलकें कैसी सफ़ेद हो रही हैं पोडर से।”

    ‏‎‎“कब?”, लड़की की सारी चोंचाली काफ़ूर हो गई।

    ‏‎‎“चुप रहो मुनीर।”, अकबर ने छोटे भाई को डाँट बताई।

    ‏‎‎“ज़रा शीशे में जाकर मुँह तो देखो”, मुनीर ने कहा।

    बैरी ने उँगली से अपने गाल को छुआ। थोड़ा सा पोडर उसकी उँगली के सिरे पर लग गया।

    ‏‎‎“देखा...”‏

    ‏‎‎“बस जी बस।”, बैरी ने अचानक बिगड़ कर मुनीर की बात को काटते हुए कहा, ‎‎“हम नहीं बोलते तुमसे।”‏

    ‏‎‎“मुनीर तुम चुपके नहीं रहे तो मैं पीट दूँगा तुम्हें।”, अकबर ने मुनीर पर आँखें निकालीं।

    ‏‎‎“अकबर मियाँ।” बैरी मुनीर को बिल्कुल नज़र-अंदाज करके, गोया वो वहाँ मौजूद ही था। अकबर की तरफ़ मुतवज्जेह हुई। ‎‎“कहाँ है वो हवाई जहाज़ जो तुम्हारे ‏मामूँ रात लाए हैं?”‏

    ‏‎‎“अभी दिखाता हूँ।”‏

    ‏‎‎“है कहाँ वो?”‏

    ‏‎‎“घर में रखा है।”‏

    ‏‎‎“तो लाओ अभी।”‏

    ‏‎‎“अभी लाता हूँ।”‏

    ‏‎‎“नहीं अभी लाओ।”‏

    ‏‎‎“घर में रखा है चल के देख लो अंदर।”‏

    ‏‎‎“न भई हम नहीं जाने के तुम्हारे घर।” बैरी ने आँखें फिराकर कहा। ‎‎“उस दिन तुम्हारी अम्मी ख़फ़ा हुई थीं हम पर।”‏

    ‏‎‎“वाह। तुम पर थोड़े ही ख़फ़ा हुई थीं। वो तो मुझ से कह रही थीं।”‏

    ‏‎‎“तो तुम यहीं ले आओ हवाई जहाज़!”‏

    ‏‎‎“अच्छी बात। तुम यहीं ठहरो जाना नहीं। मैं अभी लाता हूँ।” और वो घर की तरफ़ दौड़ा। मुनीर टकटकी बाँधे बैरी के चेहरे को तक रहा था। मगर‏ बैरी ने उसकी तरफ़ आँख उठा के भी देखा। वो नीचे वादी की तरफ़ देख रही थी। ऐ'न उस वक़्त वो शख़्स जो सुब्ह कम्बल ओढ़े थैला ले के‏ गया था। काठ के ज़ीने पर चढ़ता दिखाई दिया। और बैरी मारे ख़ुशी के ‎‎“अब्बा जान” ‎‎“अब्बा जान” चिल्लाती हुई उसकी तरफ़ दौड़ी।

    जिस वक़्त अकबर हवाई जहाज़ लेकर घर से बाहर आया। तो बैरी अब्बा के थैले को, जो फल और सब्ज़ी वग़ैरह से लबालब भरा हुआ था। एक तरफ़ से पकड़े ‏उनके साथ साथ घर में दाख़िल हो रही थी।

    पाँच मिनट गुज़र गए। अकबर और मुनीर बेंच के पास खड़े बैरी की राह देखा किए मगर वो बाहर आई।

    अकबर ने मुनीर को हवाई जहाज़ देकर कहा। ‎‎“ये हवाई जहाज़ ले जाकर बैरी को दिखा दो।”‏

    ‏‎‎“आप नहीं चलते?”‏

    ‏‎‎“नहीं मैं यहीं ठहरता हूँ। कहना भाई जान तुम्हें बुला रहे हैं। शाबाश।”‏

    लकड़ी का ये हवाई जहाज़ जिस पर हल्का हल्का आसमानी रंग किया गया था। ख़ासा बड़ा था। मुनीर उसे बड़ी मुश्किल से सँभालता हुआ बैरी के दरवाज़े पर पहुँचा। दरवाज़ा‏ खुला हुआ था मगर उसे अंदर जाने की जुरअत हुई।

    ‏‎‎“बैरी” उसने बाहर ही से चिल्लाकर कहा। ‎‎“लो देख लो ये रहा हवाई जहाज़!”

    बैरी आम चूसती हुई दरवाज़े के पास आई।

    ‏‎‎“चीख़ क्यों रहे हो तुम... अच्छा तो ये है हवाई जहाज़ जो कल तुम्हारे मामूँ लाए हैं? उफ़्फ़ुह कितना बड़ा है!”‏

    ‏‎‎“भाई जान सामने खड़े हैं। तुम्हें बुला रहे हैं।”‏

    बैरी और अकबर की आँखें चार हुईं। अकबर उसे देखकर बेंच से उठ खड़ा हुआ और मुस्कुराने लगा।

    ‏‎‎“मुनीर मियाँ।” बैरी ने कहा। ‎‎“अपने भाई जान से कहो मैं ठहर के आऊँगी। हम आम चूस रहे हैं इस वक़्त।”‏

    मुनीर हवाई जहाज़ लेकर अकबर के पास पहुँचा। दोनों बेंच पर बैठ गए और वादी की सैर देखने लगे। दस मिनट गुज़र गए। मगर बैरी आई।

    आसमान पर रफ़्ता-रफ़्ता बादल फिर छा गए थे। अबके बादल बहुत घने और क़रीब थे। चुनाँचे हर तरफ़ भाप ही भाप फैल गई। जिस ने हर चीज़ को‏ ओझल कर दिया। इसके साथ ही एक दम ज़ोर का झमाका पड़ने लगा। अकबर और मुनीर को हवाई जहाज़ उठाकर घर में घुसते ही बनी।

    ये बारिश कोई घंटा सवा घंटा तक रही। और इसके बा'द फिर धूप निकल आई।

    ‏‎‎“बैरी।” अकबर एक हाथ में एक बड़ी सी गेंद लिए, जिस पर अंग्रेज़ बच्चों की रंगीन सूरतों बनी हुई थीं। और दूसरे में एक बड़ी सी‏ किताब थामे, बैरी के दरवाज़े पर खड़ा था।

    ‏‎‎“बैरी।”, उसने दुबारा आहिस्ता से कहा।

    ‏‎‎“क्या है अकबर मियाँ?” बैरी ने इसकी तरफ़ आते हुए पूछा।

    ‏‎‎“तुम तो आईं ही नहीं!”‏

    ‏‎‎“कब?”‏

    ‏‎‎“उस वक़्त।”‏

    ‏‎‎“वाह। मेंह जो पड़ रहा था मूसलाधार। कहाँ है हवाई जहाज़?”‏

    ‏‎‎“वो तो मैंने रख दिया। लो देखो ये तस्वीरों की किताब!”

    ‏‎‎“उसी लड़की की कहानी होगी जो चुटिया नहीं कराती थी?’’

    ‏‎‎“हाँ।”‏

    ‏‎‎“वाह ये तो हम देख चुके हैं।” उसने तुनुक कर कहा।

    ‏‎‎“अच्छा तो आओ गेंद से खेलें।”‏

    ‏‎‎“हम गेंद से नहीं खेलते भई। अम्मी कहती हैं। फिसलन हो रही है। बाहर जाना पाँव रपट गया तो खड में गिर कर हड्डी पिसली चूर-चूर हो जाएगी।‏

    ‏‎‎“अच्छा तो हम तुम्हारे बरामदे ही में खेलेंगे।‏

    ‏‎‎“भई शाम को खेलेंगे। इस वक़्त तो हम अब्बा और अम्मी के साथ कपड़ा ख़रीदने जा रहे हैं।”‏

    और सच-मुच थोड़ी ही देर बा'द बैरी अब्बा की उँगली पकड़े, जिन्होंने इस वक़्त ढीला ढाला अंग्रेज़ी सूट और हैट पहन रखा था। काठ के‏ ज़ीने से उतरती दिखाई दे रही थी। पीछे-पीछे उसकी अम्मी मिस्री वज़्अ' का सियाह रेशमी बुर्क़ा पहने पान चबाती हुई रही थीं। अकबर बेंच पर बैठा उन लोगों को बड़ी दिलचस्पी से देखता रहा। उसकी नज़र बार-बार बैरी पर पड़ती थी। जिसने अब कलीदार पाजामा और दुपट्टा उतारकर फ़्राक पहन लिया था। दूर से‏ उसकी गोरी-गोरी भरी भरी पिंडलियाँ बहुत भली लगती थीं। उसके कान के पास भूरे बालों की एक लट हवा से उड़-उड़ के बार बार उसके‏ मुँह पर पड़ती थी जिसे वो अपने नन्हे से हाथ से हटा हटा देती थी।

    अकबर बेंच पर बैठा देर तक इस छोटे से सुस्त-गाम क़ाफ़िले को पगडंडी की भूल-भुलैयों में ग़ाएब होते और उभरते देखा किया। आख़िर जब वो पहाड़ी के‏ सबसे निचले मोड़ पर आख़िरी झलक दिखाकर ओझल हो गया तो उसने अपनी नज़रें उस तरफ़ से हटा लीं।

    बारिश कभी की थम चुकी थी। मगर हवा का कोई तेज़ झोंका चलता तो दीवार के दरख़्तों से बूँदियाँ झड़ने लगतीं। दूर कहीं कोई नाला था। जिसका पानी ‏बारिश की वज्ह से ज़ोर शोर से बहने लगा था। इसकी उसकी शाएँ-शाएँ की आवाज़ यहाँ ऐसी साफ़ सुनाई दे रही थी कि मा'लूम होता था नाला कहीं आस-पास‏ ही है।

    एक दरख़्त पर एक बड़ा सा नीलकंठ अपनी खोखली आवाज़ से चीख़ा। पर तोले। हवा में एक ज़क़ंद भरी और फिर दूसरे दरख़्त पर बैठा। ब-ज़ाहिर इस ‏नक़्ल-ए-मकानी की कोई वज्ह नज़र नहीं आती थी।

    दौर-ए-उफ़ुक़ के पास वो पहाड़ियाँ जो उ'मूमन बादलों के ग़ुबार में खोई खोई रहती थीं। अचानक मतला' साफ़ हो जाने से अब वाज़ेह तौर पर नज़र रही‏ थीं। वो दूर तक एक के पीछे एक इस तरह दिखाई दे रही थीं जैसे शर्मीली लड़कियाँ बड़ी उम्र की की लड़कियों की ओट लेकर झाँक रही हों... बा'ज़ पहाड़ियाँ हरी-भरी थीं और बा'ज़ रुंड-मुंड। मगर वो आपस में ऐसी ख़लत-मलत हो रही थीं कि मा'लूम होता था जैसे कोई लिहाफ़ को बे‏-तर्तीबी से हटाकर बिस्तर से उठ खड़ा हुआ है। और लिहाफ़ की कहीं तो ऊपर की सब्ज़ मख़मल दिखाई दे रही है और कहीं अंदर का ख़ाकिस्तरी अस्तर।

    अकबर इस नज़ारे को ऐसी महवियत से देख रहा था कि उसे मा'लूम भी हुआ कि इसके तीन हम-जमाअ'त उसकी बेंच को घेरे हँस रहे हैं।

    ‏‎‎“ओहो तुम लोग हो।”, वो चौंक उठा। ‎‎“तुम कब आए?”‏

    ‏‎‎“अकबर।”, उनमें से एक ने कहा। ‎‎“यहाँ बैठे क्या कर रहे हो। चलो हमारे साथ फ़ुटबाल खेलने!”‏

    ‏‎‎“तुम जाओ। मुझे काम है भई।”, अकबर ने कहा।

    ‏‎‎“वाह। ये ख़ूब कही।”, दूसरे लड़के ने कहा। ‎‎“नहीं तुम्हें चलना होगा। देखो हमने आज ही तो ये नया फ़ुटबाल ख़रीदा है।”‏

    ‏‎‎“नहीं मैं आज नहीं जाऊँगा”‏

    ‏‎‎“आख़िर क्यों?”‏

    ‏‎‎“मुझे काम जो करना है भई।”‏

    ‏‎‎“कैसा काम?”‏

    ‏‎‎“कैसा काम... वाह स्कूल का काम जो दिया था मास्टर साहिब ने!”‏

    ‏‎‎“तो तुम सच-मुच नहीं चलोगे”‏

    ‏‎‎“नहीं आज नहीं कल।”, और वो बेंच से उठ खड़ा हुआ और घर की तरफ़ चल दिया।

    ‏‎‎“रहने दो भई।” एक लड़के ने कहा। ‎‎“नहीं चलता तो चले।” और वो बड़बड़ाते हुए चले गए।

    शाम के छः बज चुके थे। जब बैरी अपने अब्बा और अम्मी के साथ वापिस आई। उसने एक बुक़्चा उठा रखा था।

    अब्बा जेब से चाबी निकाल कर कमरे का दरवाज़ा खोलने लगे। अम्मी बुर्क़ा उतारकर बरामदे की एक कुर्सी पर बैठ गईं। वो बहुत थकी हुई मा'लूम होती ‏थीं।

    ज़रा सी देर में बैरी घर में बुक़्चा छोड़कर बाहर बेंच के पास गई। जहाँ अकबर बैठा हुआ था।

    ‏‎‎“बैरी तुम गईं!” और वो जल्दी से बेंच से उठकर खड़ा हो गया। ‎‎“कपड़ा ख़रीद लिया?”‏

    ‎‎“हाँ। मेरा बड़ा ख़ूबसूरत रेशमी सूट बनेगा। उस पर गुलाब के बड़े बड़े फूल हैं। और फिर अब्बा ने हमें बनारसी ओढ़नी भी ले दी। और ‏नई सैंडिल भी। फिर हमने सेंट भी ख़रीदा। लबिस्टिक भी और नेल-पालिश भी।” उसकी आँखें ख़ुशी से नाच रही थीं।

    ‎‎“बैरी तुम...”‏

    ‎‎“मुझे बैरी कहा करो जी।” एक लम्हा ही में वो बिगड़ गई।‏

    ‏‎‎“फिर क्या कहा करूँ?”‏

    ‏‎‎“मेरा नाम है अमीर-उन-निसा बेगम।” ये कहते कहते उसके लहजा में बड़ों जैसी संजीदगी पैदा हो गई।

    ‏‎‎“मगर तुम्हारी अम्मी तो तुम्हें बैरी ही कहती हैं।”‏

    ‏‎‎“ऊँह।”‏

    ‏‎‎“और तुम्हारे अब्बा भी।”‏

    ‏‎‎“उन्हें कहने दो।”‏

    ‏‎‎“हम भी तो तुम्हें बैरी ही कहेंगे... बैरी!”‏

    ‏‎‎“देखो जी मैं फिर कहे देती हूँ। मुझे बैरी कहा करो।”‏

    ‏‎‎“अगर कहूँ तो...?”‏

    ‏‎‎“हम तुमसे नहीं बोलेंगे... जाओ मैं तुमसे नहीं बोलती। मैं घर जाती हूँ।”‏

    ये कह कर उसने अकबर की तरफ़ से मुँह फेर लिया। पल-भर को रुकी। फिर घर का रुख़ कर, फुलवारी में दौड़ती हुई तितली की सी अदा के साथ आन की आन‏ में नज़रों से ओझल हो गई। अकबर ने उसे वापिस बुलाने की कोशिश नहीं की। वो चंद लम्हे दम-ब-ख़ुद खड़ा रहा। फिर सहज से आकर उसी बेंच पर बैठ गया।‏

    ज़रा सी देर में सूरज डूब गया। और आस-पास की पहाड़ियाँ क़ुर्मुज़ी बादलों में खो गईं। नीचे वादी में जा-ब-जा सफ़ेद-सफ़ेद धुँए फूट रहे ‏थे। दरख़्तों की चोटियों से, मकानों की छतों से, पहाड़ियों की ढलानों से जिससे वादी का मंज़र धुँदला-धुँदला हो गया था। अकबर की नज़र अपने‏ स्कूल की इ'मारत पर पड़ी। जिसके बादनुमा मोर को इस वक़्त अबख़रात के ग़ुबार ने नज़रों से ओझल कर रखा था। बिला-शुबा उसके हम-जमाअ'त अभी ‏तक स्कूल की ग्रांऊड में फ़ुटबाल खेल रहे होंगे। उसको इस बात का अफ़सोस नहीं था कि वो उनके साथ नहीं गया था। और इसकी पर्वा कि ‏शायद वो उससे नाराज़ हो गए हों। रहा स्कूल का काम तो उसकी भी उसको ज़ियादा फ़िक्र थी। शायद कोई बहाना कारगर हो जाएगी और वो अगले रोज़ मास्टर की‏ झिड़कियों और थप्पड़ से बच जाए।

    हवा में अब ख़ासी ख़ुनकी पैदा हो गई थी। उसने मुट्ठियाँ भींच कर बग़लों में दबा लीं और शानों को सिकोड़ लिया। शायद उसे बैरी को बैरी नहीं ‏कहना चाहिए था... वो सोच रहा था। ख़्वाह-मख़ाह की लड़ाई उसने मोल ली। वो अब ख़ासी बड़ी हो गई है। हल्के सब्ज़-रंग के फूलदार रेशमी कुर्ते और‏ कलीदार पाजामे में वो कितनी समझदार मा'लूम होती थी। अकबर की आँखें भर-भर रही थीं मगर वो रोना नहीं चाहता था।

    अब शाम हो चुकी थी। नीचे वादी पर अँधेरा फैलता जा रहा था। रफ़्ता-रफ़्ता उसने दरख़्तों के तनों से लिपटना, मकानों का अहाता करना और पाड़ियों पर लंबे-‏लंबे साए डालना शुरू' किया। ज़रा सी देर में अकबर का स्कूल, घंटाघर और दूसरी इ'मारतें नज़रों से ओझल हो गईं। देखते ही देखते ज़मीन से ‏आसमान तक एक सियाह चादर तन गई। जो इंसान हैवान शजर हजर हर शय को अपने में लपेटने लगी। और बिल-आख़िर उसने अकबर को भी छिपा लिया। उसके जिस्म ही को‏ नहीं, उसकी रूह को भी. 1947 ई.

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 102)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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