काली कली
स्टोरीलाइन
"यह मंटो की एक मशहूर कहानी है जिसमें काली कली और बुलबुल के ग़रूर, स्नेह और घृणा को प्रतीकात्मक रूप में बयान किया गया है।"
जब उसने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर हो गया। उसके सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास खड़ा उसकी ता’मीर देखता रहा था। जब लहू का आख़िरी क़तरा बाहर निकला तो लहू की हौज़ में मक़्तूल की लाश डूब गई और वो फुर्र से उड़ गया।
थोड़ी देर के बाद नन्हे नन्हे परिंदे उड़ते, चूं चूं करते हौज़ के पास आए तो उनकी समझ में न आया कि उनका बाप ये लाल लाल पानी का ख़ूबसूरत हौज़ कैसे बन गया। नीचे तह में एक क़तरा ख़ून अपने लहू की आख़िरी बूँद जो उसने चोरी चोरी अपने दिल के खु़फ़िया गोशे में रख ली थी, तड़पने लगी। उसका ये रक़्स ऐसा था जिसमें ज़र्क़-बर्क़ पिशवाज़ों का कोई भड़कीलापन नहीं था, मासूम बच्चे के से चुहल थे। वो उछल कूद रही थी और अपने दिल ही में ख़ुश हो रही थी। उसको इस बात का होश ही नहीं रहा था कि वो चार चिड़ियां जो हौज़ के ऊपर बेक़रारी से फड़ फड़ाती दायरा बनाती उड़ रही हैं, उनके दिल हांप रहे हैं और बहुत मुम्किन है वो हाँपते हाँपते उनके सीनों से उछल कर हौज़ में गिर पड़ें। वो अपनी ख़ुशी में मस्त थी।
उड़ी हुई चिड़ियों में एक चिड़िया ने जो शक्ल-ओ-सूरत के ए’तबार से चिड़ा मालूम होता था कहा, “तुम रो रही हो?”
चिड़िया ने अपनी उड़ान हल्की कर दी, चुनांचे तेज़ हवा में लुढ़कते हुए उसने अपने नन्हे से नर्म-ओ-नाज़ुक और रेशम जैसे पर को अपनी चोंच से फुला कर अपनी एक आँख पोंछी और जल्दी से अपने दूसरे परों के अंदर उस आँसू आलूद परी को छुपा लिया। दूसरी आँख के इस जल दीप को उसने ऐसे ही नन्हे से मख़मलीं पर से फूंक मारी, वो फ़ौरन राख बन कर हौज़ की सुर्ख़ आँखों में सुरमे की तहरीर बन कर तैरने लगी।
हौज़ की ये तबदीली देख कर बाक़ी तीन चिड़ियों ने पलट कर चौथी चिड़िया की तरफ़ देखा और आँखों में उसकी सरज़निश की और एक दम अपने सारे पर समेट लिये और चश्म-ए-ज़दन में वो हौज़ के अंदर थीं। हौज़ का लाल लाल पानी एक लहज़े के लिए थरथरा उठा। उसने ज़बरदस्ती उनकी बंद चोंचों में अपनी बड़ी चोंच से अपने ख़ून की एक एक बूँद डालने की कोशिश की, जिस तरह माँ-बाप अपने प्यारे बच्चों के हलक़ में चमचों के ज़रिये से दवा टपकाते हैं, मगर वो न खुलीं।
वो समझ गया कि इसका क्या मतलब है, चुनांचे उसकी आँखों से उतना ही सफ़ेद पानी बह निकला जितना उस हौज़िया में लाल था, जो वो क़ातिल इस एक लाल बूँद के बग़ैर, जो उसके ऊपर उड़ रही थी और इस सफ़ेद पानी समेत, जो वो उसके वजूद में छोड़ गया था।
उसने ये सफ़ेद आँसू और बहाने चाहे मगर वो बिल्कुल ख़ुश्क थे। एक सिर्फ़ उसकी आँखों की बसारत बाक़ी थी। वो उसी पर क़ानेअ’ होगया, उसने देखा कि उसके हौज़ के पानी का रंग बदल रहा है। उस के लिए ये बड़ी तकलीफ़देह बात थी कि जब क़त्ल नहीं किया गया था। क़त्ल के बाद तो उसने सुना था कि सफ़ेद से सफ़ेद ख़ून भी जीता जागता सुर्ख़ हो जाता है।
दिन ब-दिन हौज़ का पानी नई रंगत इख़्तियार करने लगा। शुरू शुरू में तो वो गर्म-गर्म सुर्ख़ क़िरमिज़ी था। थोड़ी देर में भूसलापन उसमें पैदा होने लगा। ये तबदीली बड़ी सुस्त रफ़्तार थी।
उसने सुना था कि क़ुदरत अटल है, वो कभी तबदील नहीं होती। वो सोचता कि ये क़ुदरत कैसी है जो उसकी अपने अ’नासिर से तख़लीक़ की हुई चीज़ को टुकड़े टुकड़े कर के अब उसे किसी तस्वीर-साज़ की प्लेट बना रही है जिस पर वो एक मर्तबा साफ़ और शुद्ध रंग लगा कर फिर उस पर सैंकड़ों दूसरे रंगों की तहें चढ़ा देता है और बहुत मसरूर होता है... इसमें मसर्रत अंगेज़ बात ही क्या है और इस बात के लिए कि एक बेगुनाह को क़त्ल करवा देना ? ये और भी ज़्यादा अ’जीब है।
मैं अगर अपने क़ातिल की जगह होता तो क्या करता ? हाँ, क्या करता?
उसे अपने हाथों से नुक़रई तारों वाला हार पहनाता, ज़रबफ़्त की उसकी अचकन हो, होख़ सर तले दार दस्तार और उस ताइर-ए-ताज़ी पर सवार जिस पर ज़रबफ़्त की झोल हो और वो उस पर सवार हो कर क़ुदरत बानो को दुल्हन बना कर घर लाने के लिए रवाना हो जाये। उसके जलू में सिर्फ़ उसके ख़ून के क़तरे हों।
वो सोचता कितनी शानदार सवारी होती जो आज तक किसी को भी नसीब नहीं हुई। वो एक बहुत ऊंचे दरख़्त पर अपना घोंसला बनाता जिसमें हुज्ल-ए-उ’रूसी को बिठाता। उसका चेहरा हया के बाइ’स रंग बिरंग के परों के घूंघट की ओट में होता। वो उस नक़ाब को बहुत हौल-हौले उठाता। जूं जूं नक़ाब ऊपर उठती, उसका दिल नफ़रत-ओ-हक़ारत से लबरेज़ होता जाता। उसके इंतक़ामी जज़्बे की आग और ज़्यादा तेज़ होती जाती जैसे उसकी नक़ाब के पर उस पर तेल निचोड़ रहे हों लेकिन वो इस जज़्बे को अपने दिल में वहीं दबा देता जैसे वो मुरझाए हुए फूलों की रूखी सूखी और बेकैफ़ पत्तियां हैं जिन्हें कई नन्ही नन्ही नाग संपोनियों ने फूंकें मार मार कर डस दिया हो।
शब-ए-उ’रूसी में उसने अपनी दुल्हन से बड़ी प्यार और मुहब्बत भरी बातें कीं, ऐसी बातें जिनको सुनने के बाद सब परिन्दों ने मुत्तफ़िक़ा तोर पर ये फ़ैसला किया कि ये ऐसा कलाम है जो अगर फ़रिश्ते और हूरें भी अपने साज़ों पर गाएँ तो ख़ुद को आ’जिज़ समझें और बरब्तों के तार झुँझला उठें कि ये नग़्मा हमसे क्यों अदा नहीं हो सकता। आख़िरकार फ़रिश्तों ने अपने हलक़ में अपनी अपनी दुल्हनों की मांग के सिंदूर भर लिये और मर गए। हूरों ने अपने बरब्त तोड़ डाले और उनके बारीक तारों का फंदा बना कर ख़ुदकुशी कर ली।
उसको अपने ये अफ़कार बहुत पसंद आए थे। इसलिए कि ये ग़ैब से आए हैं। चुनांचे उसने गाना शुरू किया। उसका अलहान वाक़ई इल्हामी था। अगर परिन्दों के हुजूम को वो सिर्फ़ चंद नग़्मे सुनाता तो वो यक़ीनन बेखु़दी के आलम में ज़ख़्मी तुयूर के मानिंद फड़फड़ाने लगतीं और इसी तरह फड़फड़ाती फड़फड़ाती क़ुदरत के अश्जार को प्यारी हो जातीं। वो अपने तमाम पत्ते और अपनी कोमल शाख़ों को नोच कर उनकी लाशों पर आराम से रख देते। उधर बाग़ के सारे फूल अपनी तमाम पत्तियां उन पर निछावर कर देते। खिली और अनखिली कलियां भी ख़ुद को उनकी मजमूई तुर्बत की आराइश के लिए पेश कर देतीं।
फिर तमाम सर निगूँ हो कर इंतहाई ग़मनाक सुरों में धीमे धीमे सुरों में शहीदों का नौहा गातीं... सातों आसमानों के तमाम फ़रिश्ते अपने अपने आसमान की खिड़कियां खोल कर इस सोग के जश्न का नज़ारा करते और उनकी आँखें आँसुओं से लबरेज़ हो जातीं जो हल्की हल्की फ़ुवार की सूरत में इन ख़ाकी शहीदों की फूलों से लदी फंदी तुर्बत को नम आलूदा कर देतीं ताकि उसकी ताज़गी देर तक रहे।
सुना है कि ये तुर्बत देर तक क़ायम रही... फूल जब बिल्कुल बासी हो जाते, पत्ते ख़ुश्क हो जाते तो उनकी जगह अपने बदन से नोच नोच कर आहिस्ता आहिस्ता इस तुर्बत पर रख दिए जाते।
उधर दूसरे बाग़ में जो अपनी ख़ूबसूरती के बाइ’स तमाम दुनिया में बहुत मशहूर था। एक ताइर जिस का नाम बुलबुल या’नी हज़ार दास्तान है, अपने हुस्न और अपनी ख़ुश-इलहानी पर नाज़ां बल्कि यूं कहिए कि मग़रूर था। बाग़ की हर कली उस पर सौ जान से फ़िदा थी मगर वो उनको मुँह नहीं लगाता।
अगर कभी अज़राह-ए-तफ़रीह वो कभी किसी कली पर अपनी ख़ूबसूरत मिनक़ार की ज़र्ब लगा कर उसे क़ुदरत के उसूलों के ख़िलाफ़ पहले ही खोल देता तो उस ग़रीब का जी बाग़ बाग़ हो जाता, पर वो शादी-ए-मर्ग हो जाती।
और दिल ही दिल में दूसरी खिली अनखिली कलियां हसद और रश्क के मारे जल भुन कर राख हो जातीं और वो किसी चट्टान की चोटी के सख़्त पत्थर पर हौले से यूं बैठता कि उस पत्थर को उसका बोझ महसूस न हो। इत्मिनान कर के उस पत्थर ने उसे ख़ंदापेशानी से क़बूल कर लिया है तो वो मोम कर देने वाला एक हुज़्निया नग़्मा शुरू करता। बफ़र्त-ए-अदब और तास्सुर के बाइ’स सर निगूँ हो जाते।
कलियां सोचतीं कि ये क्या वजह है कि वो हमें अपने इल्तिफ़ात से महरूम रखता है, हम में से अक्सर जल जल के भस्म होगईं, पर इसको हमारी कुछ पर्वा नहीं।
एक सफ़ेद कली अपने शबनमी आँसू पोंछ कर कहती है, “ऐसा न कहो बहन, उसको हमारी हर अदा नापसंद है।”
काली कली कहती, “तू सफ़ेद झूट बोलती है, मेरी तरफ़ कभी आँख उठा कर देखे... दोनों दीदे फोड़ डालूं।”
कासनी कली को दुख होता, “ऐसा करोगी तो तुम कहाँ रहोगी?”
सफ़ेद कली तंज़िया अंदाज़ में इस मग़रूर परिंदे की तरफ़ से जवाब देती, “इसके लिए दुनिया के तमाम बाग़ों की कलियों के मुँह खुले हैं... वो नीले आसमान के नीचे जहां भी चाहे अपने हसीन ख़ेमे गाड़ सकता है।”
काली कली मुस्कुराती, ये मुस्कुराहट संग-ए-अस्वद के छोटे से काले तरेड़े के मानिंद खिलती।
“सफ़ेद कली ने ठीक कहा है। ख़्वाह मुझे ख़ुश करने के लिए ही कहा हो... मैं यहां का बादशाह हूँ।”
सफ़ेद कली और ज़्यादा निखर गई, “हुज़ूर! आप शहनशाह हैं... और हम सब आप की कनीज़ें।”
काली कली ने ज़ोर से अपने पर फड़फड़ाए जैसे वो बहुत ग़ुस्से में है, “हम में मुझे शामिल न करो, मुझे उससे नफ़रत है।”
जूंही काली कली की ज़बान से ये गुस्ताख़ाना अलफ़ाज़ निकले, सब चिड़ियां डर के मारे फड़फड़ाती हुई वहां से उड़ गईं। एक सिर्फ़ काली कली बाक़ी रह गई।
उसने आँख उठा कर भी इस चट्टान को न देखा जिसके एक कंगूरे की नोक पर वो अकड़ कर खड़ा था... काली कली उसके क़दमों में थी, अपनी इस बेए’तिनाई और रऊ’नत के साथ।
हसीन-ओ-जमील बुलबुल को इस बेए’तिनाई और रऊ’नत से पहली मर्तबा दो-चार होना पड़ा था। उस के वक़ार को सख़्त सदमा पहुंचा, चट्टान से नीचे उतर कर वो हौले हौले जैसे टहल रहा है, काली कली के क़रीब से गुज़रा गोया वो उसको मौक़ा दे रहा है कि तुमने जो ग़लती की है दुरुस्त कर लो... पर उसने इस फ़य्याज़ाना तोहफ़े को ठुकरा दिया।
इस पर बुलबुल और झुँझलाया और मुड़ कर काली कली से मुख़ातिब हुआ, “ऐसा मालूम होता है, तुम ने मुझे पहचाना नहीं।”
काली कली ने उसकी तरफ़ देखे बग़ैर कहा, “ऐसी तुम में कौन सी ख़ूबी है जो कोई तुम्हें याद रखे... तुम एक मा’मूली चिड़े हो, जो लाखों यहां पड़े झक मारते हैं।”
बुलबुल सरापा इज्ज़ हो गया, “देखो, मैं इस बाग़ का तमाम हुस्न तुम्हारे क़दमों में ढेर कर सकता हूँ।”
काली कली के होंटों पर काली तंज़िया मुस्कुराहट पैदा हुई, “मैं रंगों के बेढब, बेजोड़ रंगों के मिलाप को हुस्न नहीं कह सकती... हुस्न में यक-रंगी और यक-आहंगी होनी चाहिए।”
“तुम अगर हुक्म दो तो मैं अपनी सुर्ख़ दुम नोच कर यहां फेंक दूंगा...”
“तुम्हारी सुर्ख़ दुम के पर सुरख़ाब के पर तो नहीं हो जाऐंगे... रहने दो, अपनी दुम में... मेरी दुम देखते रहा करो, जो संग-ए-अस्वद की तरह काली है और आबनूस की तरह काली और चमकीली।”
ये सुन कर वो और ज़्यादा झुँझला गया और सोचे समझे बग़ैर काली कली से बग़लगीर हो गया। फिर फ़ौरन ही पीछे हट कर मा’ज़रत तलब करने लगा, “मुझे माफ़ कर देना। बाग़ की मग़रूर तरीन हसीना!”
काली कली चंद लम्हात बिल्कुल ख़ामोश रही, फिर उसके बाद ऐसा मालूम हुआ कि रात के घुप्प अंधेरे में अचानक दो दीये जल पड़े हैं, “मैं तुम्हारी कनीज़ हूँ, प्यारे बुलबुल!”
बुलबल ने चोंच का एक ज़बरदस्त ठोंगा मारा और बड़ी नफ़रत आमेज़ ना-उम्मीदी से कहा, “जा, दूर हो जा, मेरी नज़रों से और अपने रंग की स्याही में सारी उम्र अपने दिल की स्याही घोलती रह...”
सआदत हसन मंटो (दस्तख़त)
4 जनवरी 1956ई (?)
- पुस्तक : منٹو نوادرات
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