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कही अन-कही

अली इमाम नक़वी

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अली इमाम नक़वी

MORE BYअली इमाम नक़वी

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक शानदार मिसाल पेश करती है। भारत में एक सिख परिवार अपने मुस्लिम पड़ोसी परिवार के पाकिस्तान जाने के बाद भी मोहल्ले की मस्जिद को पहले की तरह ही आबाद रखता है। सालों बाद पाकिस्तान गए ख़ानदान का सरबराह जब अपने सिख दोस्त से मिलने आता है तो साफ़-सुथरी मस्जिद को देखकर हैरान होता है। इस पर उसका दोस्त कहता है कि हमने तो आपको जाने के लिए नहीं कहा था, आप ख़ुद ही गए थे।

    “मुझे मालूम है। वो दिन कौन सा है!”

    शेरवानी में मल्बूस शख़्स ने एक एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देकर कहा।

    “श?” साइल की आँखें चमक उठीं।

    “हाँ मुझे मालूम है!”

    “तो फिर बताओ, बिरादरे अज़ीज़! मुझे... उन्हें, इन सबको, जहां तक तुम्हारी आवाज़ पहुंचे, ख़ुदा के लिए बता दो कि ये आग हमारा पीछा छोड़े, हम अ’ज़ाबों से महफ़ूज़ रहें और... और ने’मतें हम पे उतरें।”

    “अफ़सोस मैं... मैं नहीं बता सकता। क्योंकि जानता ज़रूर हूँ उस दिन के बारे में लेकिन मानता नहीं हूँ उस दिन की एहमीयत को!”

    “ए लोगो, लोगो!”

    शहर के सबसे बड़े चौक के दरमियान खड़े हो कर उसने आवाज़ लगाई, मशीनी शहर के मशीनों के पुर्जे़ समान लोग चलते चलते रुके, आवाज़ लगाने वाले पर एक नज़र डाली, कुछ आगे बढ़ गए, बिला किसी रद्द-ए-अ’मल का इज़हार किए, किसी की पेशानी पे सिलवटों का जाल उभरा, किसी ने सवालिया अंदाज़ में उसे देखा, कुछ क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद सर झटक कर आगे बढ़ गए।

    लेकिन बीस-पच्चीस अफ़राद इधर-उधर उसके गिर्द घेरा डाल कर खड़े हो गए। आवाज़ लगाने वाले ने घूम कर चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, फिर खंकार कर इस मुख़्तसर से मज्मे से मुख़ातिब हुआ,

    “तुम्हें कुछ पता है?”

    “काहै का?”

    “इस दिन का।”

    “उस दिन का... बोले तो?”

    पूछने वाला हैरान हुआ, फिर उसने अपने आस-पास खड़े लोगों को सवालिया नज़रों से देखा, जवाब में सबने लाइल्मी में शाने उचकाए और फिर उसने भी कंधे उचकाते हुए, आवाज़ लगाने वाले साइल से पूछा,

    “किस दिन का?”

    “अफ़सोस... तुम्हें भी नहीं मालूम।”

    मायूसी से उसने सर झुकाया, फिर आहिस्ते से बोला,

    “क़सम है इस ज़मीन की, इसके बाप की और इस बाप के पैदा करने वाले की। हम सब घाटे में हैं।”

    “घाटा!” और फिर तो चारों तरफ़ इसी एक लफ़्ज़ का विर्द होने लगा। लोग आपस में चेमिगोइयां करने लगे, फिर उस भीड़ में शामिल किसी ऑफ़िस के चपरासी ने सहमे-सहमे लहजे में आवाज़ लगाने वाले से पूछा,

    “अपुन कुछ बोलेगा?”

    आवाज़ लगाने वाले ने सर उठा कर उसे देखा, फिर सर की ख़फ़ीफ़ सी हरकत से उसे इजाज़त दे दी, चपरासी ने मिसमिसी सी सूरत बना कर कहा,

    “अपना कल्याण हो जाएगा। सच्ची बोलता हूँ। बहुत वांदे में गया हूँ, बस एक पाना बताओ बाबा अपना...”

    प्यून की बात पूरी होने से पहले ही क़हक़हे उबल पड़े, क़हक़हों की आवाज़ सुनते ही इधर उधर से कुछ लोग भी इस भीड़ में शामिल हो गए। चपरासी ने ख़फ़गी और ख़जालत से मज्मे को देखा और बड़बड़ाता हुआ मज्मे से निकल गया।

    “सच्च कहता हूँ, तुम सब ख़सारे में हो, मेरी तरह, क्योंकि तुम्हें भी नहीं मालूम।”

    “क्या नहीं मालूम?”एक सूट बूट वाले जेंटेलमैन ने उस से सवाल किया।

    “वो दिन, जिसका हमें इल्म नहीं।”

    “कौन सा दिन? हम तो बहुत से दिनों को जानते हैं, ईस्टर, न्यूइयर, होली, ईद, बक़रईद, पे पेटी, कपूर।”

    “कौन हो तुम...?”

    सवाल करने वाले ने किसी क़दर करख़्त लहजे में पूछा,

    “हिंदू, मुस्लमान, ईसाई, यहूदी, कौन हो?”

    “मैं... मैं... मैं पार्सी हूँ।”

    “तुम सब ग़ौर से सुनो... हमने ग़लत दिनों को हाफ़िज़े में जगह दे रखी है। वो दिन उनमें से कोई भी नहीं। जाओ, जाओ मंदिर, मस्जिद, गिरजा और अगयारी में और पूछो उस दिन के बारे में जिसे जान लेना बहुत ज़रूरी है।”

    “तुम जानते हो?”

    इत्मिनान भरे लहजे में किसी ने उसी से पूछ लिया। उसने सवाल करने वाले की तरफ़ देखा। ये कोई मौलवी नुमा फ़र्द था। मुम्किन है मौलवी ही रहा हो, छोटी मोरी का पाजामा, उस पर शेरवानी पहन रखी थी और चेहरे पर स्याह दाढ़ी भी थी। ख़त ताज़ा बना हुआ था।

    “तुमने कुछ कहा?”

    “हाँ भाई! मैंने पूछा था, तुम जानते हो उस दिन को?”

    “जानता तो... तुमसे क्यों पूछता?”

    “पर ये तो बताओ... तुम कौन हो?”

    “आदमी हूँ।”

    “अच्छा... अभी... इस दुनिया में आदमी रहते हैं?”

    “क्यों?”

    “सुना है इस ज़मीन पर हिंदू, मुस्लमान, यहूदी, क्रिस्चियन और दहरिए रहते हैं।”

    “आदमी दिलचस्प हो। चलो मान लिया...मैं आदमी नहीं, मुस्लमान हूँ, फिर-फिर तो शायद तुम मेरा सवाल हल कर सको।”

    “ये उम्मीद क्यों?”

    “इसलिए कि मुझे ये सवाल क़ुरआन से मिला है।”

    “क्या मतलब?”

    “सवाल का पूछते हो या...”

    “क़ुरआन को तुम क्या समझे? समझे भी या...”

    “ठीक कहते हो मेरे भाई! उसे समझने का हक़ सिर्फ़ तुम्हारा है। इसीलिए मैंने कहा, शायद तुम मेरा सवाल हल कर दो। बताओ, वो दिन कौन सा है जिस दिन कायनात का पैदा करने वाला तुमसे राज़ी हुआ था उसने तुम पर अपनी ने’मतें तमाम की थीं। सुना है उस रोज़ तुम्हारा दीन भी मुकम्मल हुआ था।”

    मौलवी नुमा शख़्स की आँखों में हैरत के साये उतर आए, पेशानी पर शिकनें उभरीं और इससे पहले कि वो कुछ कहता, उस साइल ने अपनी बात आगे बढ़ाई।

    “जानते हो। उस रोज़ किसने कहा, कहो अल्लाह से मुझपे अ’ज़ाब नाज़िल करे और... और तुम जानते हो जिस हस्ती ने हमेशा आते हुए अ’ज़ाब लौटाए और दुआ’ की, पालने वाले मुझे इतना अ’ज़्म अ’ता कर कि मैं उन्हें समझा सकूँ औराउन्हें तौफ़ीक़ दे कि ये हिदायत पा जाएं। लेकिन उस रोज़... उस रोज़ मुजस्सम रहमत ने अ’ज़ाब टालने की दुआ’ नहीं की”, उसने आसमान की तरफ़ देखा और तप्ती दोपहर में, झुलसती हुई धूप में खड़े हज़ारों हज़ार लोगों ने देखा, इनकार करने वाले पर एक कंकरी गिरी और वो... वहीं ढेर हो गया।

    वो जिसने साइल को छेड़ा था, पहलू बदलने लगा, साइल से निगाहें मिलाने की उसमें हिम्मत नहीं रही, उसने कनखियों से इधर-उधर देखना शुरू किया, भीड़ में एक शख़्स अख़बार लिए खड़ा था। उस की नज़रें शाह सुर्ख़ी पर जम गईं,

    “इसराईल ने ग़ज़ा में अपनी ख़ूँ-रेज़ कार्रवाई को हक़बजानिब क़रार देते हुए सलामती कौंसिल की तजवीज़ मुस्तर्द कर दी।”

    “अमरीका और उसके हवारीन ने ईरान पर पाबंदियों की सख़्ती पर इसरार शुरू कर दिया।”

    “हुकूमते महाराष्ट्रा के टाल मटोल के रवैय्ये पर सुप्रीमकोर्ट की सह रुकनी बंच ब्रहम।”

    “जानते हो उस दिन को, जिसका वाक़िया मैंने बयान किया?”

    “बताओ मुल्ला जी।”

    “ये आदमी... ये आदमी...”

    शेरवानी वाले ने नज़रें बचाते हुए कुछ कहना चाहा। लेकिन साइल उसके सामने पहुंच चुका था।

    “मैं... पागल हूँ, ख़ब्ती हूँ, यही कहना चाहते हो? ये ग़लत है कि मैं पागल हूँ। लेकिन ये सच्च है कि मैं पागल होता जा रहा हूँ और यक़ीन करो मेरे भाई!... अगर यही तौर-तरीक़े रहे तो एक रोज़ हम सब... हम सब...”

    चंद लम्हों के लिए फिर ख़ामोशी छाई, मौलवी नुमा शख़्स ने मज्मे से निकल जाने का इरादा किया तो सवाल करने वाले ने उसके शाने पर हाथ रख दिया। वो पल्टा, ग़ुस्से से उसे देखा और हिक़ारत भरे अंदाज़ में उस से पूछा,

    “अब क्या चाहते हो?”

    “उस दिन...”

    “तारीख़ कई अहम दिनों से भरी पड़ी है।”

    “तब तो... तुम्हें ज़रूर मालूम होगा। बताओ, ख़ुदा के लिए, ताकि में पागल होने से बच जाऊं। बताओ, वो कौन सा दिन था?”

    मगर ये मस्अला क्या है? तुम देख रहे हो। हम आग में जल रहे हैं और तुम... उस दिन को तलाश कर रहे हो।”

    “इस आग से हम कहाँ तक बच पाएँगे। ये आग बरसों पहले ख़ुद हमने लगाई थी। बरसों पहले हमने किसी का घर जलाया था। किसी मुहतरम ख़ातून की पसलियाँ तोड़ दी थीं और पहले क़दम की तस्लीमी के लिए चौथी मंज़िल पे कमंद डाली थी... याद है? वही आग आज हमारा पीछा कर रही है। अगर इससे बचना चाहते हो तो उस दिन का पता चलाओ जब ने’मतें हम पे नाज़िल हुई थीं।”

    ग़ैर इरादी तौर पर मौलवी नुमा शख़्स की नज़रें उसी अख़बार की शाह सुर्ख़ी पर मर्कूज़ हो गईं, साथ ही उससे मिलती-जुलती कई ख़बरें उसकी समाअ’त से टकराईं जो न्यूज़ बुलेटिन में सुनकर ही वो घर से निकला था।

    “मुझे मालूम है वो दिन कौन सा है।”

    शेरवानी वाले ने एक-एक लफ़्ज़ पर ज़ोर देकर कहा।

    “सच्च?”

    साइल की आँखें चमक उठीं।

    “हाँ मुझे मालूम है।”

    “तो फिर बताओ। मुझे... उन्हें। उन सबको... जहां तक तुम्हारी आवाज़ पहुंचे। ख़ुदा के लिए बता दो कि ये आग हमारा पीछा छोड़ दे, हम अ’ज़ाबों से महफ़ूज़ रहें और... और ने’मतें हम पर उतरें।”

    “अफ़सोस...”

    स्रोत:

    कही अनकही (Pg. 57)

    • लेखक: अली इमाम नक़वी
      • प्रकाशक: तख़्लीक़कार पब्लिर्शज़, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2012

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