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कमीन-गाह

नईम आरवी

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MORE BYनईम आरवी

    घर पहुंच कर दिन भर की मशक़्क़त और डिप्रेशन का बोझ उतारा ही था कि सामने का मंज़र देखकर बौखला गया। सानिहात ज़िंदगी का हिस्सा होते हैं मगर फ़िल वक़्त मैं इस के लिए तैयार नहीं था।

    मेरे घर के नीम कुशादा ड्राइंग रुम का माहौल और तर्तीब, जिसको मेरी बीवी ने अपनी सेहत मंदी के दौरान बड़े सलीक़े से सजा रखा था, बेतर्तीब और अबतर नज़र आया। मेरी बीवी के जिस्म का बालाई हिस्सा व्हील चेयर पर अटका हुआ था, जब कि उसका ज़ेर-ए-नाफ़ मफ़लूज हिस्सा फ़र्श पर ढेर था। टेलीफ़ोन सेट नीचे गिरा पड़ा था और रीसिवर चेयर की हथथे पर तार के साथ कटे हुए बाज़ू की तरह झूल रहा था। बीवी के बाल बिखरे हुए थे। अनजाने ख़ौफ़ से उसका बैज़वी चेहरा फ़क़ और आँखें फटी हुई थीं। उसकी मद्धम होती हुई साँसों में आने वाली साअतों की आहट साफ़ सुनाई दे रही थी।

    मैंने उसको गोद में उठा कर बिस्तर पर गाव तकिया के सहारे टेक लगा कर बिठाने की कोशिश की तो उसका जिस्म एक जानिब ढलक गया। अपनी बीवी को इस आलम में देखकर मेरे दिल में उसके लिए हमदर्दी की एक लहर उठी ज़रूर थी, मगर क्या किया जाये, इस सूरत-ए-हाल पर क़ाबू पाना मेरे इमकान से बाहर था जिसका वो शिकार बनी। मैंने कूलर से ठंडे पानी का गिलास उसके होंटों से लगा दिया, मगर पानी उसके होंटों के किनारों से निकल गया। ज़रा देर के बाद जब उसके ठंडे पड़ते जिस्म में हल्की सी जुंबिश महसूस की तो अपना मुँह उसके कान के क़रीब ले जाकर पूछा,

    क्या बात है?

    मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ़ डूबती निगाहों से टेलीफ़ोन की जानिब देखा और फिर उसकी आँखों में मौत की फुरेरी फैल गई। मैंने मुलाज़िमा की जानिब सवालिया निगाहों से देखा। उसने कहा,

    हाँ, कुछ देर पहले टेलीफ़ोन की घंटी बजी तो थी, मगर मैं उस वक़्त बावर्चीख़ाने में थी, जब यहां पहुंची तो बीबी साहिबा को इस हाल में देखा।

    गुज़शता एक माह से हमारे घर के टेलीफ़ोन पर गुमनाम कालों की आमद का सिलसिला शुरू हुआ था। इब्तिदा में हमें तजस्सुस तो रहा मगर ये सोच कर हर वाहिमा को ज़ह्न से झटक दिया कि किसी की फ़ुर्सत के मशाग़ल हैं। बीवी को समझाया भी था कि जो कोई भी हो थक-हार कर ख़ामोश हो जाएगा, परेशान होने की कोई बात नहीं।

    लेकिन चंद दिनों के बाद भी गुमनाम कालों का सिलसिला जारी रहा तो फिर हमारा, कम अज़ कम मेरी मफ़लूज बीवी का तजस्सुस तशवीश और फिर एक डर में तब्दील हो गया जिसमें अगले लम्हे कुछ कुछ होने का एहसास गहरा हो जाता है। ख़ासतौर पर मेरी बीवी ज़्यादा परेशान और हलकान रहने लगी थी। उसके जिस्म का बालाई हिस्सा जिसमें उसका दिल भी शामिल था, इस मरहला पर भी ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश में धड़कता रहता था मगर जब से टेलीफ़ोन पर गुमनाम कालों की आमद शुरू हुई थी उसका यही दिल उसके हलक़ में अटक जाता और उसे हाइपरटेंशन का दौरा पड़ने लगता।

    हमारी शादी को चार साढे़ चार साल ही हुए थे कि अचानक उसके जिस्म के निचले हिस्से पर फ़ालिज का हमला हुआ और वो बिस्तर पर गिर गई। मेरी मुलाज़मत एक ग़ैर मुल्की ऑयल कंपनी में थी। इसलिए रुपये-पैसों की कमी थी। मैंने शहर के बेहतरीन मुआलिजों से उसका ईलाज कराया, मगर बेहतरी के कोई आसार पैदा हुए। हमारी मायूसी के बादल गहरे होते गए।

    वक़्त गुज़रने के साथ साथ मेरी बीवी के साथ कम्यूनीकेशन और डायलॉग कम से कम होते चले गए। बिलआख़िर हमने यही मुनासिब समझा कि अपने बेड भी अलग कर लें ताकि हम दोनों ज़ह्नी और जज़्बाती कोफ़्त से बच सकें। इस फ़ैसले के बाद मुझे एक गो ना इत्मिनान ज़रूर हुआ मगर ये एहसास भी गहरा हो गया कि जब रात गहरी होने लगती है, बाहर का मौसम ख़ुशगवार हो जाये तो अंदर का मौसम भी अंगड़ाई लेने लगता है। ऐसे में किसी गुदाज़ जिस्म से हम-आग़ोशी की ख़्वाहिश मुँह-ज़ोर और बेक़ाबू होजाती है।

    मुलाज़िमा ने बताया था कि मेरे जाने के बाद वो अक्सर मेरे छोटे से कुतुब ख़ाने से कोई किताब उठा लेती, कुछ देर मुताला करती या फिर ड्राइंग रुम में रखे टेलीफ़ोन पर अपनी वाक़िफ़कारों से इधर उधर की बातें करती थी।

    शाम के वक़्त दफ़्तर आने के बाद मैं कुछ देर उसके पास ज़रूर बैठ जाता। कभी कभी हम दोनों दाख़िली कैफ़ियात के भंवर से बाहर निकल आते तो इकट्ठे चाय भी पी लेते, मगर ऐसा मौक़ा कभी-कभार ही आता। बेशतर औक़ात हम दोनों एक दूसरे के लिए गूँगे-बहरे होते। ये मामूलात कुछ ही दिन चल पाए थे कि अचानक हमारी ख़ामोश, स्पाट ज़िंदगी में किसी ने हमारे टेलीफ़ोन पर गुमनाम कालों का पत्थर मार कर तलातुम पैदाकर दिया। ये वाक़िया मेरी बीवी की ज़िंदगी का दूसरा होलनाक तजुर्बा था। मुझे याद है टेलीफ़ोन की पहली काल पर वो बेद-ए-मजनूं की तरह काँपने लगी थी। दफ़्तर से वापसी पर जब मैंने ये वाक़िया सुना और बीवी की हालत का बग़ौर जायज़ा लिया तो ये समझने में देर नहीं लगी कि उसमें क़ुव्वत-ए-मुज़ाहमत तक़रीबन ख़त्म हो चुकी है। मैंने उस रात बड़ी देर तक समझाया कि ये कोई ख़ास बात नहीं जिसका इतनी संजीदगी से नोटिस लिया जाये। इस क़िस्म की गुमनाम टेलीफ़ोन कालें आती रहती हैं मगर वो उसे आम वाक़िया क़रार देने पर तैयार नहीं हुई कि टेलीफ़ोन पर दी जाने वाली धमकी उसकी आधी ज़िंदगी के दरपे है।

    मैंने ऐसे कई मौक़ों पर उसे तसल्ली देने की कोशिश की कि वो इन नामालूम कालों को सीरियस ले। मगर मैंने महसूस किया कि अब वो मेरी ऐसी तसल्लीयों के जवाब में भड़क उठती।

    क्यों सीरियस लूं, तुम्हें उसकी आवाज़ की ज़हरनाकी और धमकी का अंदाज़ा ही नहीं। उसकी आवाज़ में साँप की फुंकार है, साँप की...

    मैंने टेलीफ़ोन के महकमे में काम करने वाले एक दोस्त से मश्वरा किया तो उसने गुमनाम कालों को डीटक्ट करने की जो तजावीज़ दीं उन पर अमल करने के बावजूद कालों का ये सिलसिला जारी रहा।

    मेरी बीवी फ़ालिज के हमला के बाद ज़्यादा ज़ूद हिस और चिड़चिड़ी हो गई थी। मुआलिजों की मुत्तफ़िक़ा राय थी कि कोई भी ज़ह्नी या जज़्बाती सदमा मरीज़ा के लिए जान लेवा भी साबित हो सकता है। हायर टेंशन से हार्ट अटैक या ब्रेन हेम्ब्रेज का भी ख़तरा रहता है। डाक्टर ने बताया कि आपकी बीवी Sensitivity के इंतिहाई दर्जा पर है। ऐसी हसासियत तो सेहतमंद और तवाना शख़्स के आसाब को भी तोड़ फोड़ सकती है। आपकी बीवी के जिस्म के निचले हिस्से की तवानाई तो पहले ही ख़त्म हो चुकी है जबकि बालाई हिस्से में मायूसी और डिप्रेशन के सबब मुज़ाहमत का उंसुर तक़रीबन ख़त्म होता जा रहा है। उन्हें मायूसी से बचाएं, अपसेट होने दें वर्ना...

    मैंने मुआमले की नज़ाकत को सामने रखते हुए ज़रूरी समझा कि मुलाज़िमा को तमामतर अहवाल से बाख़बर रखूं।

    उस रोज़ किसी ने मेरे शाने को ज़ोर ज़ोर से हिलाया जिससे मेरी आँखें खुल गईं। मैंने अलकसाहट से करवट बदल कर पूछा,

    कहो क्या बात है?

    मुलाज़िमा ने बड़ी आहिस्तगी से ये ख़बर सुनाई, शायद बीबी...

    मैं कुछ देर इसी कैफ़ियत में अपने पांव को नर्म बिस्तर पर रगड़ता रहा। इतनी देर में मुलाज़िमा चाय की प्याली ले आई। चाय पी कर ताज़ा दम हो गया। कपड़े तब्दील करने के बाद बीवी के कमरे में गया। वो अपने पलंग पर बेतर्तीब चित लेटी हुई थी। बे-हिस-ओ- हरकत। उसकी आँखें खुली हुई थीं जिसमें डर का साया जम कर रह गया था।

    आख़िरी काल का सदमा शायद वो बर्दाश्त कर सकी। माहिरीन की राय सही साबित हुई। कमरे से बाहर निकला तो दरवाज़े पर मुलाज़िमा खड़ी हुई थी। मैंने दरवाज़े से निकलते हुए कहा,

    देखो तुम मौत की तस्दीक़ के लिए डाक्टर को फ़ील-फ़ौर फ़ोन कर दो। मैं ज़रूरी इंतिज़ामात के लिए बाहर जा रहा हूँ।

    जी बहुत बेहतर। उसकी आवाज़ मुतरन्निम और लहजे में एतिमाद की झलक नुमायां थी।

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