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कमीनी

MORE BYहाजरा मसरूर

    स्टोरीलाइन

    वर्ग संघर्ष को बयान करती हुई कहानी। छुटकी जो एक फ़क़ीर की बेटी थी लेकिन उसे ये पेशा कभी पसंद न आया। इसीलिए जब उसके बावा का देहांत हो गया तो उसने एक घर में झाड़ू पोंछा करने का काम शुरू कर दिया, जहाँ मेराजू मियाँ से उसकी आश्नाई हो जाती है और उस आश्नाई का नतीजा निकाह होता है, जिसका सारा ठीकरा छुटकी के सर ही फोड़ा जाता है और मेराजू मियाँ को मासूम समझ कर बरी कर दिया जाता है। सारा ख़ानदान जब मेराजू मियाँ का बहिष्कार कर देता है तो वो छुटकी के साथ अलग रहने लगते हैं। उधर ख़ानदान वालों का ख़ून जोश मारता है और एक आयोजन में मेराजू को छुटकी समेत बुलाया जाता है लेकिन वहाँ छुटकी को एक दस्तरख़्वान पर बिठा कर खाना नहीं खिलाया जाता है जिससे छुटकी उदास हो जाती है। मेराजू मियाँ जो एक मुद्दत के बाद अपने ख़ानदान वालों के सद्व्यवहार के नशे में होते हैं, एक मामूली सी बात पर छुटकी को हरामज़ादी, कमीनी कह कर घर से बे-दख़ल कर देते हैं।

    शाम के बढ़ते हुए अंधेरे में...

    “निकल हरामज़ादी... निकल तू कमीनी...” भारी और करारी आवाज़ों के साथ साथ शर्म-ओ-हया के बोझ से दबी हुई महीन महीन आवाज़ें इसी एक जुमले को ऊंचे-नीचे सुरों में रटते रटते भयानक हो गईं। घर के अंदर से इस जुमले के अलावा धमक धय्या का शोर भी उठ रहा था जैसे वहाँ सब के सब मिलकर बढ़ती हुई सर्दी के इस्तक़बाल के लिए मोटे मोटे लिहाफ़ों से गर्द झाड़ रहे हों... लेकिन असल बात ये थी क्योंकि थोड़ी ही देर बाद अंधेरे ड्यूढ़ी के पाटों पाट खुले हुए दरवाज़े में नुचे खिचे कपड़ों में लिपटा हुआ कोई धम से पक्की गली में गिरा तो चांदी की मोटी मोटी झाँझें और चूड़ियां बड़ी दिलचस्प आवाज़ में बज उठीं... भला इस मुहल्ले में सिवाए छुटकी के किसके ज़ेवर यूं बीच गली में बज सकते हैं।

    धड़ाक धड़ाक कर के दरवाज़े के दोनों पट भिंच गए... गली में दो-रूया मकानों के कुछ दरवाज़े खुले, छोटे बड़े चेहरे झाँके, आँखों में हक़ारत आमेज़ हमदर्दी झलकी और फिर कुछ नहीं, अच्छा हुआ... अपनी औक़ात भूल गई थी कमीनी। बड़ी आई थी कहीं की बेगम बन कर घर में बिराजने। पर ये नहीं जानती थी कि बेगमें पैदा होती हैं बना नहीं करतीं... और ये पैदा भी होती हैं तो सिर्फ़ ऊंचे घरानों में। मतलब ये कि जो ज़ात पात में ऊंचे हों और जिनके हाँ चांदी के सिक्के चमकते खनकते हों। ये नहीं कि ज़ात के तो फ़क़ीर जिन्हें अल्लाह मियां ने दूसरों के आगे हाथ फैलाने को दुनिया में उतारा हो, वहाँ बेगमें पैदा होने लगें।

    अभी चंद साल पहले की तो बात है कि इऩ्ही गलियों में यही छुटकी मज़े से “अल्लाह भला करे” की रोटी खाती थी। बावा ने इस एक सदा पर इतना पाया कि मरते वक़्त क़स्बे के क़ब्रिस्तान के क़रीब अपनी ज़मीन छोड़ी और उस पर खिंची हुई कच्ची चहार दीवारी... भला कोई एम.ए, बी.ए तो उस ज़माने में तमाम उम्र नौकरी बजाने के बाद अपनी क़ब्र बनवाने के लिए दो गज़ ज़मीन ख़रीद छोड़े? मगर जब किसी की शामत आना होती है तो अक़्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं। यही हुआ छुटकी के साथ, कि बावा की आँख बंद होते ही “छुटकी” से “बड़की” बनने का ख़ब्त हो गया। वही बात कि जब चियूंटी की मौत आती है तो उसके पर निकल आते हैं... जाने कमबख़्त के गोल मोल सर में ये बात किधर से घुस गई कि भीक माँगना अच्छा नहीं।

    फ़र्ज़ किया कि अक्सर लोग बजाय भीक देने के उसे झिड़क देते तो कोई और हरकत करते, तो इसमें बुरा मानने की कौन सी बात थी? जब पेशा ही ऐसा ठहरा तो इतनी ऊंची नाक लेकर चलने से फ़ायदा... और रहा जुम्मन का... वही जुम्मन भिकारी... अगर उस पर जान देता था तो इसमें घबराने की क्या ज़रूरत थी। वो बेचारा जब देखो जब अपनी सदाबहार फड़यों से भरा हुआ लम्बा सा जिस्म लहराता सदक़े हुआ जा रहा है।

    “अरी देखना छुटकी!” वो घिघिया कर कहता, “अकेली रहती है घर पर, तुझे डर नहीं लगता। साला जमाना खराब है जो कभी कोई, आड़ी बेड़ी, पड़ गई तो तेरे अब्बा की रूह गौर में कलबलाएगी। तू मेरे साथ रह... मैं साली ईदन को चुटिया पकड़ कर निकाल दूँगा अपने घर से, जो उसने ब्याहता होने के गरूर में कभी तुझसे जरा भी चीं चपड़ की, तू बिला खटके के रह। मचे में हम इकट्ठे भीक मांगने निकला करेंगे। फिर तो कोई तुझे नजर भर कर देख जाये, अल्लाह क़सम छुटकी यूं आँखें निकाल लूं यूं...” और ये कहते कहते जुम्मन का हाथ जिस पर यहाँ से वहाँ तक सुर्ख़ सुर्ख़ फुड़ियाँ सिलसिला कोह के मानिंद पटी पड़ी थीं, बढ़कर कुछ ऐसी, आड़ी बेड़ी, डालता कि छुटकी के छक्के छूट जाते और फिर वो दिल ही दिल में हज़ारों क़समें खाती कि “अब जो घर से क़दम निकालूं तो कोढ़ी हो जाऊं, अल्लाह करे, भले ही मर जाऊँ बे दाना पानी घर में बंद पड़े पड़े।”

    अब भला कोई सोचे कि कमबख़्त बैठ जाती जुम्मन के घर तो क्या बुरा था। नहीं तो क्या उसे कोई धुला धुलाया जवान मिल जाता बिरादरी में? मज़े से बाप दादा के पेशे से खाती और जुम्मन को भी खिलाती लेकिन वहाँ तो “बड़की” बनने की सूझ रही थी। दो दिन अपने घर में बंद पड़ी रही। जुम्मन दिन भर में बीसियों फेरे करता और आख़िर किवाड़ पीट कर चला जाता... ऐसी तो ख़ूबसूरत भी थी कमबख़्त, बस ज़रा जवानी थी। खिलती हुई कली मगर घूरे की। उस पर ये दिमाग़, जुम्मन अच्छा नहीं, भीक माँगना अच्छा नहीं, तो फिर अच्छा क्या था? लो बस एक दिन जुम्मन के कान पड़ी कि छुटकी ने चार रुपया महीना और खाने कपड़े पर एक खाते पीते घराने में दिन रात की नौकरी कर ली है।

    बस ग़रीब जुम्मन मुँह पीट कर रह गया। ग़ुस्सा इतना ज़ब्त किया कि रात-भर में उसके जिस्म की सारी फुड़ियाँ ख़ून पीप से पिचपिचा गईं। मगर छुटकी तो ऐसी ख़ुश थी कि जैसे सारे जहान की दौलत पा गई हो। बात बात पर दाँत निकले पड़ते थे और ज़मीन पर तो जैसे क़दम रख ही रही थी। सुबह से लेकर शाम तक कोल्हू के बैल की तरह काम में जुटी रहती। रात को कहीं ग्यारह बजे अपने खटोले पर जाने की नौबत आती और फिर सुबह अज़ान के वक़्त से वही धंदा। सांस लेने की भी मोहलत थी। इस पर भी कमबख़्त की ख़ुशी का आलम ये कि चलो दर-दर सदा लगाने से तो यही अच्छा है। अब घर की बीबियों के अलावा तो किसी की कड़वी कसैली सुनने की नौबत नहीं आती और सबसे बड़ी बात तो ये कि इस घुटलीदार जुम्मन के चोंचलों से जान बची। मज़े से घर में बैठी हूँ। अब जुम्मन की हिम्मत नहीं कि इधर झांक भी ले।

    चंद महीने तो वो इस ख़ुशी के चक्कर में फंस कर ख़ुद को भी भूली रही। लेकिन फिर एक समझी बूझी चुभन ने उसे ख़तरनाक तरीक़े पर सताना शुरू कर दिया। जब वो भीक मांगा करती थी तो “अल्लाह भला करेगा एक रोटी या एक पैसा मिल जाये।” की सदा लगाते ही अक्सर घरों से और चीज़ भी बिला मांगे ही मिल जाया करती थी। वो चीज़ जिससे कभी तो वो नफ़रत करती और कभी मुहब्बत। सुनसान गलियों की बैठकों में लेटे बैठे या हुक़्क़े से शौक़ फ़रमाते हुए कोई बुजु़र्गवार अगर उसे देखकर आशिक़ाना तबस्सुम के साथ उसकी हथेली पर पैसा रखते हुए उसके गोल मोल हाथ को सहला देते तो उसे ऐसा लगता कि उसके तलुओं के नीचे आतिशबाज़ी के दो अनार छूट रहे हैं। सर्रर सर्रर... और चिनगारियां हैं कि सीधी दिमाग़ में जाकर बुझ रही हैं। उस मौक़े पर उसका जी चाहता कि दो-चार नंगी नंगी गालियां देकर पसीजा हुआ पैसा ताक कर इस तरह मारे कि मिची हुई आँख हमेशा के लिए मिच जाए। मज़ा जाये जो मियां जी अपनी मिची हुई आँख की वजह से अपनी बहनों और बेटियों के लिए भी एक बड़ा सा इशारा बन कर रह जाएं।

    लेकिन वो कुछ कर पाती सिवाए अपने पेशे से नफ़रत करने के... बरअक्स उसके जब किसी घर से उसकी सदा पर कोई लड़का निकल कर यूंही आँखें मटका देता तो छुटकी को ऐसा महसूस होता कि सर में एक मीठी मीठी घिमरी समा गई है। हल्का हल्का बुख़ार हो गया है और टांगें हैं कि मफ़लूज हुई जा रही हैं... बस जी चाहता कि धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़े और आँखें बंद कर के उस घिमरी के मज़े लिए जाये... पर नौबत यहाँ तक पहुँचने ही पाती क्योंकि एक आँख मीचने वाले बुजु़र्गवार दूसरी खुली हुई आँख से अपने बाल बच्चों और अड़ोस पड़ोस वालों की निगरानी करते हैं।

    “ओरी फ़क़ीरनी... दूसरा दरवाज़ा देख।” किसी किसी तरफ़ से फटकार, बलग़म आलूद धँसती हुई आवाज़ में इस तरह पड़ती कि उसकी घिमरी तो हवा हो जाती, लेकिन ग़ुस्सा भभक उठता।

    “बुरा पेशा है...” वो बड़ी नफ़रत से अपने पेशे को चुन-चुन कर गालियां देती, यहाँ तक कि उसने नौकरी भी कर ली इस कारन... मगर अब फिर... मुसीबत है।

    “चाहे कुछ हो जाये, अब भीक मांगने से तो रही... दूसरे वो जुम्मन फिर पीछा पकड़ेगा वो बहुत देर उलझने के बावजूद हमेशा यही फ़ैसला चुपके से सादर कर दिया करती। लेकिन ये शैतानी ख़्वाहिशें तो बस बिल्कुल सेलोलाइड का जापानी बबुवा होती हैं... वही बबुवा जिसके पेंदे में राँगे की टिकुली चिपकी होती है और जिसे ज़िद्दी बच्चे लिटाने की लाख कोशिश करते हैं मगर वो झट बैठ जाता है। क्या किया जाये? उसकी तो बनावट ही ऐसी होती है... फिर छुटकी की तो ये हालत थी कि मीठा मीठा हुप, कड़वा कड़वा थू... भीक माँगना बुरा, जुम्मन बुरा, आँख मीचने वाले बुरे... नौकरी करना अच्छा, घर में बैठना अच्छा... अब एक और ऐसी अच्छाई की चाहत हुई जो जुम्मन की बुराई के मुक़ाबले पर ख़म ठोंक कर आजाए, लेकिन उसके लिए तो चराग़-ए-रुख़-ज़ेबा चाहिए कि देखकर चौंधिया जाये अच्छा भला, और यहाँ छाई थी संवलाई हुई बदली, जिसके साये में चेचक के कई गहरे खड और मोटे मोटे मुहासों के टीले, मगर ये सब बुराइयां भी दब जाया करती हैं दबाए से।

    छुटकी जैसी गली गली घूमने वाली, दुनिया को देख ही देखकर बहुत ताड़ चुकी थी। बस अब घर के काम काज के मुक़ाबले में अपनी भी फ़िक्र पड़ गई... या तो अठवारों कंघी करने का होश था। मोटी मोटी जुएँ सारे सर में बिलबिलाती फिरतीं और छोटी छोटी उलझी हुई लटें जो मोटे दुपट्टे के ज़रा इधर उधर होने से कानों के पीछे से यूं झाँकतीं जैसे मोटे मोटे चूहे अपने बिलों से निकलने का मौक़ा ताक रहे हों, अब वही लटें चुल्लूओं सरसों के तेल से भिगो कर दिन में दोबार चोटी में जकडी जातीं। कपड़े जिनमें पसीने और साँसों की बू इस तरह बसी रही कि दूर ही से अच्छे भले दिमाग़ उड़ने लगें। अब वही जुमा जुमा नल के नीचे बट्टियों साबुन से साफ़ किए जाते और फिर चूड़ीदार पाजामे को पिंडलियों पर कस के इतने टाँके देती कि घुटी हुई पिंडलियों का गोश्त जैसे बोटी बोटी हो कर उबल पड़ता।

    मालकिन ने कुछ भांपा तो बातों ही बातों में लत्ते भी लिए छुटकी के, क्योंकि उन्हें अपने बूढ़े मियां के झपट लिए जाने का अंदेशा पैदा हो गया था। लेकिन छुटकी ने निहायत भोलेपन से अल्लाह रसूल की कसमें खा कर उनके दिल का सारा मैल धो दिया और चलती रही अपने रुख पर... घर के मर्दों में से जहाँ किसी की नज़र बावर्चीख़ाने की तरफ़ उठी तो बस छुटकी की रग-रग में बिजली समाई। निचली बैठ ही पाती। अगर हंडिया भूनती हुई तो चमचा इतने ज़ोर से चलाती कि हाथ की बेतहाशा हरकत से दुपट्टा ग़रीब सहम कर गले में लिपटने लगता। कोई चीज़ उठाने धरने उठती तो ऐसे क़दम रखती कि देखने वाले का दिल दहले तो दहले ज़मीन भी हिल उठे... या कुछ नहीं तो पली हुई मुर्ग़ीयों को हँकाने के बहाने फ़िक़रे चुस्त करने लगती, और कभी घर के कुत्ते टॉमी से बातों ही बातों में पते की बातें कहने लगती। बस, बावर्चीख़ाना क्या था किसी तालाब का किनारा, जिस पर छुटकी अपनी डोर हंसी सँभाले मछली का शिकार खेल रही थी। अपने कांटे में जवानी का चारा फंसाए। कई होशियार मछलियाँ लपकीं कि लाऊँ चारा सफ़ाई से उड़ा जाएं लेकिन छुटकी भी कच्ची गोलियां नहीं खेल रही थी। उसे तो ऐसी मोटी मछली चाहिए थी जो चारा खाने के बाद ऐसी फंसे कि वो तमाम उम्र उसी का गोश्त नोच नोच कर पेट भरती रहे।

    तो फंसी एक बेवक़ूफ़ मछली के कांटे में... मेराज मियां... साहिब-ए-ख़ाना के भांजे। नक सिक से दुरुस्त, लेकिन मिज़ाज के कड़वे और परले दर्जे के ज़िद्दी और काहिल। इन्ही ऐबों की वजह से वो सारे कुन्बे में बदनाम थे। लोग अपनी लड़कियां उनसे ब्याहने के नाम से कानों पर हाथ रखते कि “ना बाबा अपनी लौंडिया को ख़ून थोड़ी थुकवाना है जो मेराजू को ब्याह दें।” घर में भी उनकी कोई वक़अत थी। जिसे देखो उनसे खिंचा ही रहता। लेकिन वो थे कि सारे घर को जूती की नोक पर रखे, बावर्चीख़ाने के सामने वाले दालान में चारपाई पर औंधे पड़े टांगे हिलाया करते या फिर दो पैसे रोज़ पर किराए की लाई हुई नाविलें पढ़ा करते। लेकिन जब पल्ले कौड़ी होने की वजह से नाविलें ला सकते और सिगरेट ही ख़रीद सकते तो थोड़ी बहुत जमाहियाँ और अंगड़ाइयाँ लेने के बाद उन पर ख़ुद्दारी का दौरा पड़ जाता कि जब तक वो ख़ुद देंगे ख़र्च मैं भी माँगूँगा।

    ये फ़ैसला कर के उनकी तबीयत ऐसी मौज़ूं होती कि मुर्ग़ीयों, कुत्तों, बच्चों और नौकरों को जमा जमा कर मीठी मीठी गालियां देने लगते... बस ख़ासी मज़े से बसर हो रही थी कि छुटकी ने पुचकारा दिया... मेराजू मियां के लिए छुटकी सबकी नज़र बचा कर भुना हुआ गोश्त और घी में तर रोटियाँ क्या रखने लगी और वक़्त बेवक़्त अपनी तनख़्वाह में से रुपया दो रुपया सिगरेट पान के ख़र्च के लिए उनकी जेब में क्या डालने लगी कि बस वो उसी के हो रहे। बिल्कुल उस मनहूस कुँवें की तरह जिसमें कोई गंदी चीज़ पड़ी और वो उबला।

    एक दोपहर को छुटकी ने मालकिन से अपने घर की देख-भाल के लिए छुट्टी ली और चलती बनी। उस के बाद मेराजू मियां का दिल घर में कैसे लगता? बस धुली हुई शेरवानी पहनी। बालों में तेल डाला और अपने एक दोस्त से मिलने चले गए। शाम को जब वो दोनों लौट कर आए तो ख़ूब मुँह रचाए और किसी सस्ती सी ख़ुशबू में बसे हुए।

    “रंडी।” मालकिन मुँह बिचका कर सिर्फ़ इतना ही चुपके से कह सकीं। लेकिन दूसरी सुबह मालकिन ने रात छुटकी के खटोले से ग़ायब होने पर जो बाज़पुर्स की तो मेराजू मियां ने डंके की चोट पर ऐलान किया कि “उन्होंने कल छुटकी से निकाह कर लिया है।” एक लम्हे के लिए जैसे सारा घर हक़ दक़ रह गया। लो भला इतना भी नदीदापन क्या? माना कि कुन्बे की लड़की नहीं मिल रही थी तो इसका ये मतलब थोड़ी था कि कमीनी को सर चढ़ा लेते? और फिर अगर ऐसी ही कोई मजबूरी थी तो यूंही काम चला लेते, निकाह की क्या ज़रूरत थी? अब जो घर वाले बिगड़े और ज़रा छुटकी के बाल पकड़ कर दस पाँच हाथ मार दिए तो मेराजू मियां, वही मेराजू मियां जो अपने बाप के मरने के बाद से मामूं की रोटियाँ तोड़ रहे थे मुक़ाबले पर गए।

    बूढ़े मामूं, को उनकी लग़ज़िशों का ताना दिया और कुन्बे भर की ढकी छुपी खोलने पर उतर आए। अल्लाह की शान कि एक भिक्मंगी की ख़ातिर ऐसा ऐसा कहा कि कुत्ते कव्वे भी घिन खाएं। यूं नाक कटाने के बाद छुटकी को लेकर उसी गली के एक छोटे से मकान में बस गए। कुन्बे वाले ऐसे शख़्स के मुँह क्या लगते? जिस पर औरत की जवानी का जादू चल गया हो। बस मौत ज़िंदगी के लिए उन्हें छोड़ देने का अह्द करके बैठ रहे।

    अब वही मेराजू मियां थे कि जिन्हें पड़े पड़े रोटी खाने का चसका था, कमाने की फ़िक्र करने लगे। नौकरी तो ख़ैर ढ़ूंढ़े मिली, क्योंकि ख़ुदा की मेहरबानी से उन्होंने कोई डिग्री तो ली थी। भला कोई मामूली पढ़े लिखे से गु़लामी क्यों करवाने लगे? बस उन्होंने छुटकी के सिखाने पढ़ाने से वाशिंग कंपनी खोल ली। इसके लिए छुटकी ने अपना घर बेच कर रुपया उनके हाथ पर रख दिया और रिफ़ाक़त जताने के मारे एक साल तक गठरियों मैले कपड़े घर के नल तले धोती रही... यहाँ तक कि काम ख़ूब चमक उठा। अब छुटकी के पौ बारा थे। वही जो कभी लत्ते लगाए भीक मांगा करती थी, अब घर में महीन मलमल की सारियां बांध कर घूमती, चाहे कमबख़्त को सारी बाँधने की तमीज़ हो, टख़नों से बालिशत भर ऊंची। सामने से देखो तो ऐसा मालूम हो कि बस एक बच्चे की सूरत में मेराजू मियां के खरे ख़ानदान पर कलंक का टीका लगा कर रहेगी।

    मगर रज़ील छुपता नहीं... अब यही कि ज़ेवर भी बनवाया तो वही चांदी का, मोटी मोटी झाँझें, गले में सेर भर का चन्दनहार और कलाइयाँ भर भर कड़े चूड़ियां। घर में जब इतरा कर चलती तो सारा मुहल्ला झाँझों की झनझन से गूँजता। सभी तो मेराजू मियां की तबीयत पर थुड़ी थुड़ी करते कि जाने कैसे इसे बीवी की हैसियत से बर्दाश्त करते हैं, मगर मेराजू मियां तो मारे ख़ुशी के ऐंडते फिरते कि छुटकी जैसी औरत किसे नसीब होगी? वही चिड़िया वाली कहानी कि उसने घूरे पर दाना चुगते चुगते एक टूटा हुआ झूटा मोती पा लिया। बस चोंच में दबा कर राजा के महल के कलस पर बैठ कर कहने लगी, “जो मेरे पास वो राजा पास नहीं।”

    लो भला, छुटकी में रखा ही क्या था? मियां की ख़िदमत करना, बीमार हों तो दिन रात एक कर देना, रात गए तक रोज़ाना पाँव दबाना, या मियां के बेपनाह ग़ुस्से की झपट में आकर दूसरे तीसरे दिन पिट लेना और मुँह से उफ़ करना। यही तो सब एक जाल था जिसमें उसने मेराजू मियां को बेतरह फाँस रखा था... बस यही बात तो मेराजू मियां की समझ में आती थी। बाक़ी तो हर शख़्स अच्छी तरह समझ रहा था और इसलिए कुढ़ता... लाख कुन्बे बिरादरी के लोग उन्हें छोड़ चुके थे लेकिन आख़िर अपने ख़ून के जोश को कैसे दबाते कि मेराजू मियां के कारोबार का सारा नफ़ा अपने ख़ानदान की किसी लड़की पर सर्फ़ होने के बजाय छुटकी के नेग लग रहा था। एक रज़ील औरत के... जिसने ख़ुद को बनाने के लिए एक बना बनाया ख़ानदान बिगाड़ा था।

    एक दिन जो मेराजू मियां की हालत-ए-ज़ार का घर में तज़्किरा हुआ तो मेराजू के मामूं का दिल भर आया और फिर उस वक़्त तक भरा रहा जब तक कि दो घंटे इंतज़ार कर लेने के बाद मेराजू मियां की सूरत दिखाई दे गई। बस बढ़े और उन्हें कलेजे से लगा लिया। कैसे हमदर्द हैं ये अगले वक़्त के लोग, कहने लगे, “मियां कुछ हो, ख़ून की मुहब्बत मारे नहीं मरती, अपने जिस्म का कोई हिस्सा सड़ जाये तो उसे काट के थोड़ी फेंका जाता है... तुमने जो कुछ किया, ख़ैर तुमने तो क्या-किया? ये सब उसी मुर्दार, हरामख़ोर छुटकी के लच्छन हैं। वरना तुम तो ख़ासे भोले-भाले थे फिर हाय...” मारे रिक़्क़त के उनकी तक़रीर अधूरी रह गई और मेराजू मियां के भी आँसू निकल आए। अर्से तक ख़ानदान से अलग रह कर बड़ी कमी सी महसूस कर रहे थे। अब जो मामूं ने पहल कर डाली तो सोचा, ख़ैर अपने मामूं हैं... पहले मेरी औरत के साथ जो बुरा सुलूक किया, अब उसे क्या कहा जाये।

    उस दिन वो बड़े ख़ुश रहे और इस ख़ुशी के सिलसिले में कई रोज़ तक ग़ुस्सा उनके पास फटका... छुटकी ने सुना तो बहुत ख़ुश हुई। ख़ानदान वालों ने उसका और मेराजू मियां का बाईकॉट कर के उसे सख़्त एहसास-ए-कमतरी में मुब्तला कर दिया था। वो समझती थी कि शरीफ़ आदमी की मनकूहा बन कर वो भी शरीफ़ बीबी कहलाएगी। लेकिन घर वालों और मुहल्ले वालों ने छुटकी जैसे ज़लील से नाम को “छुटकिया” कर के और भी ज़लील कर दिया था। उसने सोचा कि अब घर से मेल हो जाएगा तो सबको राम कर लूँगी, ख़िदमत कर के।

    उसके बाद ही ख़ानदान में एक तक़रीब हुई तो मेराजू मियां को बुलावा आया। वो ख़ुश तो बहुत हुए लेकिन उन्होंने शिरकत से सिर्फ़ इसलिए इनकार कर दिया कि मेरी औरत को क्यों नहीं बुलाया गया। इस बार तो ख़ैर, लेकिन जब ख़ास मेराजू मियां के मामूं के हाँ तक़रीब हुई और छुटकी को बुलावा भी सरसरी तौर पर आया तो छुटकी इतरा कर पहुंची... बिल्कुल नई दुल्हनों की तरह, जो पहली मर्तबा ससुराल जाती हैं। वही टख़नों से ऊंची सुर्ख़ जॉर्जट की सारी और सुर्ख़ जाली का जंपर कड़कड़ाते जाड़े में ज़ेब-ए-तन किए, बड़ा सा घूँघट निकाले, झनझन करती घर में जा उत्तरी। सब बीबियों को झुक-झुक कर सलाम किया, ममानी अम्मां से जिन्हें वो कभी मालकिन कह कर पुकारती थी, बहुओं की तरह ज़बरदस्ती गले लगी और बदले में कई कोसनों से बसी हुई आहें लेकर सीधी बावर्चीख़ाने में पहुंच गई। जहाँ तक़रीब का खाना तैयार हो रहा था। बस झटपट सारा काम निबटा लिया। ख़ुश ऐसी जैसे अपने बाप के घर आई हो।

    लेकिन जब रात को बजाय सबके साथ दस्तरख़्वान पर खाना देने के अलग-थलग दिया गया तो बस उस का मुँह फूल गया... गोया उसे शरीफ़ बीबियाँ अपने दस्तरख़्वान पर ख़िलातीं? बड़ी चोखी थी न... इस बात पर जल कर उसने घर की नई मामा से इस घर की कई कुँवारी लड़कियों के बारे में बुरी बुरी बातें कहीं, लेकिन जब रुख़्सत होते वक़्त उसने देखा कि मेराजू मियां को ममानी अम्मां गले से लगाए हिचकियाँ भर रही हैं तो जैसे उसके सारे जिस्म में मिर्चें लग गईं। अपने घर पहुंचते ही उसने बैर डलवाने के लिए अलग खाना दिए जाने की शिकायत की और मेराजू मियां जो बड़ी देर से खोए खोए से थे बिफर गए...

    “और नहीं तो क्या तुझे सर पर बिठा लेते वो लोग?” उन्होंने आँखें निकाल कर कहा तो छुटकी के हलक़ में कोई ख़ुश्क सी शैय इस तरह फूल कर छा गई कि उसके मुँह से एक लफ़्ज़ भी निकल सका। उसके बाद मेराजू मियां के रिश्तेदार उनसे अपनी मुहब्बत के हाथों मजबूर हो कर मिलते-जुलते रहे और छुटकी के हलक़ में कोई ख़ुश्क सी शैय दिन में कई कई बार इस तरह फूलती रही कि वो मुँह से एक लफ़्ज़ भी निकाल पाती... और वो कह ही क्या सकती थी। उसे हक ही कौन सा था मुँह खोलने का? क्या नहीं जानती थी कि ग़लाज़त का कीड़ा ग़लाज़त के ढेर से निकल कर अपनी मौत आप बुलाता है? अब वो तमाम तमाम दिन मेराजू मियां के रिश्तेदारों को ज़ेर-ए-लब गालियां कोसने दे देकर रह जाती।

    जिस जवानी पर ऐंठती थी वही तीन साल के अंदर अंदर उसे दग़ा दे गई और जाने कौन सी ख़ामोश बीमारी ने ज़ोर पकड़ा कि चेहरा देखकर घिन आजाए। बस दिन का ज़्यादा हिस्सा वो खरी चारपाई पर औंधी पड़ कर और कमर सहला सहला कर गालियां बकते गुज़ार देती... लेकिन मेराजू मियां के घर में दाख़िल होते ही झट अपने बिछाए हुए जाल के घिसे पिटे फंदों में गाँठें देने लगती। पहले से कहीं बढ़कर ख़िदमत करती, पर अब ख़ुदा ने मेराजू मियां के कुन्बे वालों की मार्फ़त आँखें खुलवाना शुरू कर दी थीं। इसलिए तो अब छुटकी की ये चलित्तर बाज़ियां उन्हें ज़हर लगने लगती थीं। इसलिए वो आए दिन किसी किसी बात पर रखकर इस जान-ओ-इज़्ज़त के रोग की पिटाई कर देते... मगर वाह री बेहया छुटकी... अपनी सी कोशिश किए ही गई।

    आख़िर एक दिन मेहतरानी ने छुटकी के पानदान से खाई हुई तंबाकू के नशे में झूम कर बताया कि, “मेराजू मियां तो दूसरा ब्याह करने वाले हैं।” बस तड़प ही तो उठी, डस कर भागती हुई नागिन ख़ुद चोट खाकर ज़हरीले बल खाने लगी।

    “अरी किस से?”

    “वही जो हैं ना अज़ीज़ा बिटिया... बड़ा मखौल करती हैं मेराजू मियां से इन दिनों।” मेहतरानी ने तो ये फूंक कर झव्वा उठाया और चलती बनी लेकिन छुटकी ने अपना फीका सुता हुआ मुँह पीट पीट कर वो हाय तौबा की कि सारे मुहल्ले के कान खड़े हो गए... बेचारी अज़ीज़ा के लिए जाने कहाँ से पचासों नंगे नंगे क़िस्से जोड़ कर ज़रा ही देर में सारे मुहल्ले में ब्रॉडकास्ट कर दिए। अज़ीज़ा बिटिया ने सुना तो कलेजा पकड़ कर रह गईं, “ओफफो, ये कमीनी और मेरे लिए कहे?” उनकी आँखों से आँसू रोके रुकते। माना कि वो मेराजू मियां से इधर कुछ दिन से मुहब्बत करने लगी थी लेकिन इसका ये मतलब थोड़ी था कि वो छुटकी से भी पहले उन्हें चाहती थी। भला वो उस वक़्त थे ही क्या जो कोई उन्हें मुँह लगाता।

    मेराजू मियां ने शाम को अज़ीज़ा का चेहरा देखा जो रोते-रोते चुक़ंदर बना हुआ था और बार-बार नाक पोंछने की वजह से तो जैसे नाक से ख़ून टपकता मालूम हो रहा था। बस ये देखकर उनका कलेजा जैसे ख़ून हो कर रह गया। इतने दिन बाद तो घर की एक लड़की ने मुहब्बत से आँखें मिलाई थीं... घर वालों की ज़बानी जब उन्होंने छुटकी के ख़्यालात अज़ीज़ा के मुताल्लिक़ सुने तो आप में रहे। बस उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि अब तक वो अपने जूते सर रखे फिर रहे थे... तन्तना कर उठे... पीछे से बुर्क़ा ओढ़ कर ममानी, अज़ीज़ा और अज़ीज़ा की अम्मां, साथ ही घर के दो चार मर्द... मुजाहिदों की शान से...

    “निकल हरामज़ादी... निकल तो कमीनी...” धड़ाक धड़ाक करके दरवाज़े के दोनों पट भिंच गए।

    शाम के हल्के से अंधेरे को रात की गहरी तारीकी निगल चुकी थी और गली की ठंडी पुख़्ता ज़मीन पर छुटकी नाली में सर डाले बेहिस-ओ-हरकत पड़ी थी। दर्द से उसका जिस्म फोड़ा हो रहा था, सर में मीठी मीठी घिमरी थी और होंटों पर नंगी नंगी गालियां।

    धुत कमीनी...

    स्रोत:

    सब अफ़्साने मेरे (Pg. 725)

    • लेखक: हाजरा मसरूर
      • प्रकाशक: मक़बूल अकादमी, लाहाैर
      • प्रकाशन वर्ष: 1991

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