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कन-रस

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    भावनात्मक शोषण के द्वारा बहुत अय्यारी से एक शरीफ़ ख़ानदान को तवाएफ़ों की राह पर ले जाने की कहानी है। फ़य्याज़ को स्वाभाविक रूप से संगीत से लगाव था लेकिन घरेलू हालात और रोज़गार की परेशानी ने उसके इस शौक़ को दबा दिया था। अचानक एक दिन संगीत का माहिर एक फ़क़ीर उसे रास्ते में मिलता है। उसकी कला से प्रभावित हो कर फ़य्याज़ उसे घर ले आता है। फ़य्याज़ उससे संगीत की तालीम लेने लगता है। हैदरी ख़ान घर में इस क़दर घुल मिल जाता है कि जल्द ही वो उस्ताद से बाप बन जाता है। फ़य्याज़ की जवान होती बेटियों को भी संगीत की शिक्षा दी जाने लगती है। मोहल्ले वालों की शिकायत से मजबूर हो कर मालिक मकान फ़य्याज़ से मकान ख़ाली करवा लेता है तो हैदरी ख़ान फ़य्याज़ के परिवार को तवाएफ़ों के इलाक़े में मकान दिलवा देता है। सामान शिफ़्ट होने तक फ़य्याज़ और उसकी बीवी को इसकी भनक तक नहीं लगने पाती और रात में जब वो बालकनी में खड़े हो कर आस-पास के मकानात की रौनक़ देखते हैं तो दोनों हैरान रह जाते हैं।

    बाज़ लोगों को गाने बजाने से क़ुदरती लगाव होता है। ख़ुद चाहे बे-सुरे ही क्यों हों मगर सुरीली आवाज़ पर जान देते हैं। राग उन पर जादू का सा असर करता है। रफ़्ता-रफ़्ता वो गाने-बजाने के ऐसे आदी हो जाते हैं जैसे किसी को कोई नशा लग जाए। साहब-ए-सरवत हुए तो उम्र भर गवय्यों की परवरिश करते रहे, नहीं तो उस्तादों की जूतियाँ सीधी करके ही अपने ज़ौक़ की तस्कीन कर ली। दर-अस्ल इन्हीं लोगों के लिए मौसीक़ी रूह की ग़िज़ा के मिस्दाक़ होती है। गाने-बजाने वालों की इस्तिलाह में ऐसे लोगों को 'कन रसिया' कहते हैं।

    फ़य्याज़ को भी क़ुदरत की तरफ़ से मौसीक़ी का कुछ ऐसा ही ज़ौक़ अता हुआ था। मगर बद-क़िस्मती से एक तो वो पैदा ही एक ग़रीब वसीक़ा-नवीस के घर हुआ, दूसरे उसका बाप बड़ा सख़्त-गीर और पाबंद-ए-सौम-ओ-सलात था। नतीजा ये हुआ कि फ़य्याज़ का ये ज़ौक़ पनपने पाया। फिर भी उसने बचपन से ले कर जवानी तक जैसे तैसे मौसीक़ी से अपनी दिल-बस्तगी क़ायम रखी।

    जब स्कूल में पढ़ता था तो कभी-कभी उसे भी हम्द गाने को कहा जाता। वो भी अजब समाँ होता था। सुबह-सुबह लड़के क़तारें बाँधे खड़े हैं और फ़य्याज़ उनके सामने खड़ा हम्द का एक-एक मिसरा गा रहा है, जिसे सारे लड़के कोर्स की सूरत में दोहराते जाते हैं। क़व्वाली और समा की महफ़िलों में भी वो बचपन ही से शरीक होने लगा था क्योंकि बाप उनमें जाने की इजाज़त दे देता, बशर्ते के वो पड़ोस ही में कहीं मुन'अक़िद होतीं। कभी-कभी वो इन बरातों के साथ भी हो लेता जिनके आगे-आगे बैंड बाजा बजता। और ढोलकिया ज़र्क़-बर्क़ वर्दी पर शेर की खाल पहने तरह-तरह के करतबों से ढोल बजाता, जो उसने गले में लटका रखा होता। वो जो सड़क की पटरी पर किसी हंडे के नीचे मट-मैली सी चादर बिछा, हारमोनियम खोल, बैठ जाता है, और बीवी ढोलक घुटने तले दबा, घूँघट के अंदर से करारी कोयल की सी आवाज़ सी अलापने लगती है, उनका गाना भी फ़य्याज़ बड़ी महवियत से सुना करता। ऐसे मौक़े पर उसकी तमन्ना होती कि मैं भी कोई सस्ता सा हारमोनियम ख़रीद लूँ, और घर में गाने की मश्क़ किया करूँ। मगर वो जानता था कि बाप के जीते जी ये अरमान पूरा होना मुहाल है।

    तालिब-ए-इल्मी ही के ज़माने में एक बार जब उसके बाप को किसी ज़रूरी काम से किसी दूसरे शह्र जाना पड़ा था तो फ़य्याज़ का एक दोस्त एक रात उसे थियेटर दिखाने ले गया। ये पारसियों की कोई मशहूर कम्पनी थी जिसमें नामी गिरामी एक्टर और गवय्ये मुलाज़िम थे। खेल भी ऐसा था कि उसमें शुरू से आख़िर तक गाना ही गाना था। फ़य्याज़ तमाम वक़्त मबहूत हो कर सुनता रहा और फिर बरसों उसे अपने कानों में उन नग़मों की गूँज सुनाई देती रही। फ़य्याज़ ने स्कूल की ता'लीम ख़त्म की तो बाप ने तंग-दस्ती के बावजूद उसे कॉलेज में दाख़िल करा दिया। उसका ख़्याल था कि लड़का जितनी ज़्यादा ता'लीम हासिल करेगा उतनी ही अच्छी उसे नौकरी मिल जाएगी। कॉलेज में फ़य्याज़ ने ख़ुद को ज़्यादा आज़ाद महसूस किया। सबसे बड़ी बात ये थी कि बाप की नज़रों से ओझल रह कर उसे कालेज की बज़्म-ए-मौसीक़ी में अपने ज़ौक़ की तस्कीन का सामान नज़र आने लगा था।

    बाप का क़ायदा था कि रात को जब तक फ़य्याज़ बिस्तर पर लेट जाता, वो ख़ुद भी आराम करता था और फिर रात को वो दो-एक बार उठ कर बेटे के पलंग के पास ज़रूर जाता। एक दफ़ा पिछले पहर उसने फ़य्याज़ को नींद में बड़बड़ाते सुना। वो उठ कर बेटे के पलंग के पास गया।

    फ़य्याज़ की ज़बान से बे-ख़बरी में अजीब-अजीब अल्फ़ाज़ निकल रहे थे। कुछ अंग्रेज़ी के कुछ उर्दू के। बीच-बीच में वो कभी ठंडी साँसें भरने लगता कभी कराह उठता। बाप बड़े ता'ज्जुब के साथ ये कैफ़ियत देखता रहा। रात भर वो तरह-तरह के अंदेशों में खोया रहा। अगले ही रोज़ उसने बेटे के लिए मौज़ूँ रिश्ता तलाश करना शुरू कर दिया और फिर थोड़े ही दिनों में एक अपने से भी ग़रीब घर की मगर शक्ल-सूरत की अच्छी लड़की मुंतख़ब करके फ़य्याज़ की शादी कर दी। और यूँ बेटे की आवारगी के इमकानात का बड़ी हद तक सद्द-ए-बाब कर दिया।

    कॉलेज में फ़य्याज़ का तीसरा साल था कि अचानक बाप का इंतक़ाल हो गया। माँ उससे एक बरस पहले ही सुधार चुकी थी। चुनाँचे अब फ़य्याज़ आज़ाद था। मगर ये आज़ादी अपने साथ कई ज़िम्मेदारियाँ ले कर आई थी। सबसे अहम मसलअ' अपनी और असग़री की, जो एक बच्ची की माँ बन चुकी थी, गुज़र औक़ात का था। क्योंकि बाप अपने पीछे तो कोई जायदाद ही छोड़ मरा था और कुछ रूपया पैसा ही। चुनाँचे अगले रोज़ इसने कालेज के बजाय दफ़्तरों का रुख़ क्या और नौकरी की तलाश शुरू कर दी। उसे अपनी बीवी और बच्ची से बड़ी उलफ़त थी। चुनाँचे उनकी ख़ातिर उसने अदना से अदना मेहनत मज़दूरी को भी अपने लिए आर जाना और जैसे-तैसे उन का पेट पालता रहा। आख़िर महीनों सड़कों की ख़ाक छानने और दफ़्तरों में धक्के खाने के बाद उसे आबकारी के महकमे में एक क्लर्क की जगह अरज़ी तौर पर मिल गई।

    उसने दिन-रात की मेहनत और अपनी क़ाबिलियत से जल्द ही उस दफ़्तर में अपने लिए मुस्तक़िल जगह पैदा कर ली। उसके बाद उसे अपनी आमदनी बढ़ाने की फ़िक्र हुई क्योंकि दूसरी बच्ची की पैदाइश के साथ ही घर के अख़राजात बढ़ गए थे। चुनाँचे वो दिन को दफ़्तर में काम करता और रात को घरों पर जा कर लड़कों को पढ़ाता और इस तरह बड़ी मुश्किल से घर का ख़र्च चलाता। इस ज़माने में उसका ज़ौक़-ए-मौसीक़ी फ़ाईलों के अंबार और जमा ख़र्च के इंदिराजात में गुम हो के ख़्वाब-ओ-ख़्याल बन गया था। फिर भी किसी रात पिछले पहर के सन्नाटे में अगर वो जाग रहा होता और कोई तांगे वाला सुनसान सड़क पर ताँगा चलाते हुए अपनी सुरीली और पाटदार आवाज़ में कोई लोक गीत गाता हुआ निकल जाता, तो उसके दिल में हूक सी उठने लगती।

    रफ़्ता-रफ़्ता उसकी हालत सँभलती गई, यहाँ तक कि दस साल के अरसे में वो अपनी लियाक़त, मेहनत और ख़ुश-अख़लाक़ी के बाइस उसी दफ़्तर में हेड क्लर्क बन गया। सब अफ़सर उसके काम से ख़ुश थे और वो भी अपनी हालत पर मुत्मइन था। उसे जो मुशाहरा मिलता वो उसके और बीवी-बच्चों के गुज़ारे के लिए काफ़ी था और अब उसे दूसरे के बच्चों को उनके घर पर जा-जा कर पढ़ाने की ज़रूरत रही थी।

    जब से उसे हेड क्लर्की मिली थी, उसका काम ख़ासा बढ़ गया था। उसका मा'मूल था कि जब सब लोग दफ़्तर से चले जाते, तो वो तन्हाई में अपने मातहत क्लर्कों के काम का मुहासिबा और हिसाबात की जाँच-पड़ताल किया करता। इस तरह उसे दफ़्तर में दो-ढाई घंटे ज़्यादा गुज़ारने तो पड़ते मगर उसकी दिल-जमई हो जाती। वो चिराग़ जलने से पहले शाज़ ही दफ़्तर से उठता। दफ़्तर से निकल कर वो उस बाग़ का रास्ता लेता जो फ़सील के साथ-साथ शह्र के गिर्दा-गिर्द चला गया था। उसका घर शह्र के अंदर एक तंग और गुंजान आबाद महल्ले में था। बाग़ से हो कर घर पहुँचने में उसे एक-आध मेल ज़्यादा चलना पड़ता। फिर भी वो उसे शह्र के पुर-शोर बाज़ारों और तंग गलियों वाले रास्ते पर तरजीह देता।

    वो बाग़ की कुशादा सड़क पर, जिस पर सुर्ख़ बजरी बिछी थी और जिस पर हर क़िस्म की गाड़ियों के चलने की मुमान'अत थी, मज़े-मज़े से क़दम उठाता ख़ासी देर में घर पहुँचा करता। इस हवा-ख़ोरी से उसके दिन-भर के थके हुए दिमाग़ को आसूदगी हासिल होती। और जिस वक़्त वो घर पहुँचता तो ख़ासा ताज़ा-दम होता। उसके बीवी-बच्चे मुलाज़मत के इब्तिदाई ज़माने ही से उसके देर से घर पहुँचने के आदी हो चुके थे। एक दफ़ा हफ़्ते की एक शाम को वो मा'मूल से भी कुछ ज़ियादा ही देर में दफ़्तर से निकला। ये गुलाबी जाड़ों के दिन थे। अब्र छाया हुआ था और इक्का-दुक्का बूँद भी उसके मुँह पर पड़ती थी। वो हस्ब-ए-आदत बाग़ की सड़क पर टहलता हुआ चला जा रहा था। सड़क के किनारे-किनारे थोड़े फ़ासले पर बिजली के खम्बे थे, जिनकी रौशनियों की क़तार सड़क के साथ-साथ ख़म खाती हुई दूर से बड़ी भली मा'लूम देती थी।

    फ़य्याज़ अपनी धुन में मस्त चला जा रहा था कि अचानक उसके कान में किसी साज़ के बजने की धीमी-धीमी आवाज़ पड़नी शुरू हुई। वो जूँ-जूँ आगे बढ़ता गया, आवाज़ ज़्यादा वाज़ेह होती गई।

    आख़िर जब वो क़रीब पहुँचा तो उसने बिजली के हंडे की रौशनी में देखा कि सड़क के क़रीब ही बाग़ के गोशे में एक दरख़्त के नीचे कोई शख़्स फ़क़ीरों जैसी गुदड़ी ओढ़े सरकारी बेंच पर उकड़ूँ बैठा एक बड़ा-सा साज़ बजा रहा है। उस मौसीक़ी में बला का सोज़ था। नग़मा था कि बे-इख़्तियार दिल में उतरा जाता था। रात की ख़ामोशी में एक-एक सुर वाज़ेह और अलग-अलग सुनाई दे रहा था। फ़य्याज़ के क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद रुक गए, और वो साज़िंदे पर नज़रें जमाए एक महवियत के आलम में उस मौसीक़ी को सुनने लगा।

    साज़िंदा आँखें बंद किए इस अम्र से बे-नियाज़ कि कोई उसके फ़न पर ध्यान दे रहा है या नहीं, बड़े इन्हिमाक के साथ साज़ बजा रहा था। उसकी उंगलियाँ थकने का नाम लेती थीं। वो कभी इस तार पर दौड़तीं कभी उस तार पर। दूसरे हाथ से वो तारों पर ज़रबें लगा रहा था, इस क़दर तेज़ी के साथ कि फ़िज़ा में एक मुसलसल इर्तिआश की कैफ़ियत पैदा हो रही थी। अजब समाँ बँधा हुआ था। फ़य्याज़ के दिल-ओ-दिमाग़ पर उस मौसीक़ी का कुछ ऐसा असर पड़ा कि पहले तो उसका साँस तेज़-तेज़ चलने लगा। फिर रफ़्ता-रफ़्ता आसाब ढीले पड़ने शुरू हुए और नक़ाहत सी महसूस होने लगी। फिर एक आँसू उसकी आँख से बे-इख़्तियार टपक पड़ा।

    फ़य्याज़ की ज़िंदगी के पिछले दस-ग्यारह साल ऐसे सपाट गुज़रे थे कि उसमें मौसीक़ी या किसी और फ़न-ए-लतीफ़ा का कुछ दख़्ल रहा था। उसने अपनी ज़िंदगी का मक़सद फ़क़त इज़्ज़त-ओ-आबरू की रोज़ी कमाना और बच्चों की परवरिश करना क़रार दे लिया था और वो ये फ़र्ज़ बड़ी मसर्रत के साथ अंजाम दे रहा था और अगर उसकी ज़िंदगी में किसी चीज़ की कमी रह जाती थी तो असग़री से उसकी वालिहाना गर्वीदगी उस कमी को पूरा कर देती थी मगर अब इस मौसीक़ी को सुन कर उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके दिल के अंदर कोई सोई हुई चीज़ दफ़'अतन जाग उठी हो।

    कुछ देर के बाद साज़िंदे ने साज़ बजाना बंद कर दिया। उसके साथ ही फ़य्याज़ को ऐसा महसूस हुआ कि जिस तिलिस्म ने उसे मसहूर कर रखा था वो टूट गया, और अब वो चाहे तो जा सकता है।

    मगर इतने ही में साज़िंदे ने आँखें खोल दीं और पहली मर्तबा सड़क पर अपने वाहिद सामे' को देखा। फिर इस ख़्याल से कि कहीं वो चल दे, उसने जल्दी से हाँक लगाई, बाबू जी की ख़ैर हो।

    मिल जाए कोई धेली पावला फ़क़ीर को नशे पानी के लिए। फ़य्याज़ के क़दम रुक गए। उसने जेब में हाथ डाला, जिसमें इत्तेफ़ाक़ से उस वक़्त सिर्फ़ एक दूनी ही थी। ऐसे साहिब-ए-कमाल को ऐसा हक़ीर नज़राना पेश करते हुए उसे बड़ी निदामत महसूस हुई। आख़िर उसने साज़िंदे की तरफ़ बढ़ते हुए हिम्मत करके कहा, उस्ताद! इस वक़्त तो यही क़ुबूल करो। हाँ अगर खाना खाना हो तो मेरे साथ चले चलो। मेरा घर यहाँ से क़रीब ही है। साज़िंदे ने लम्हा भर ता'म्मुल किया।

    साज़ बजाते-बजाते यक़ीनन वो थक भी गया था और उसे भूक भी लगी थी। ऐसे में घर का पका-पकाया गर्म-गर्म खाना मिल जाए तो क्या बुरा था!

    चलता हूँ बाबू जी। अल्लाह तुम्हारी ख़ैर रखे। और वो साज़ बग़ल में दबा, गुदड़ी सँभाल बेंच से उठ खड़ा हुआ, और फ़य्याज़ के साथ-साथ चलने लगा। वो लम्बे क़द का दुबला-पतला आदमी था। अधेड़ उम्र, सर पर लंबी सी तुर्की टोपी जो बहुत मैली हो गई थी और जिसका फुँदना टूट चुका था। लम्बे-लम्बे पट्टे जिनमें घास-फूँस के तिनके उलझे हुए थे। कुड़बुड़ी दाढ़ी जो कई रोज़ से मुंडाई नहीं गई थी। आँखें सुर्ख़-सुर्ख़ गोया दुखने आई हों। उनमें से पानी रिसता हुआ। उसका लिबास जो कुरते-पाजामे और काली वास्कट पर मुश्तमिल था, सख़्त बोसीदा और मैला था। पाँव में टूटा हुआ बूट जो उसके पाँव के नाप से बड़ा था, और उसे जूते को घसीट-घसीट कर चलना पड़ता। पीठ में थोड़ा सा कोब, जो शायद झुक कर साज़ बजाने की वजह से पैदा हो गया था।

    ये बाजा जो तुम बजाते हो इसको क्या कहते हैं? फ़य्याज़ ने चलते-चलते पूछा।

    इसको सरोद कहते हैं।

    तुम्हारी ख़ैर रहे बाबू जी।

    सरोद?

    जी हाँ, सरोद।

    बहुत कमाल का बजाते हो उस्ताद तुम तो।

    अजी कमाल तो बस अल्लाह की ज़ात को हासिल है बाबू जी।

    मैंने आज तक इतना अच्छा साज़ बजाते किसी को नहीं सुना।

    करम है क्लियर वाले बाबा का।

    मैं किस लायक़ हूँ बाबू जी।

    मुझे तो आज तक ख़बर ही थी कि मौसीक़ी में इस क़दर दिलकशी होती है।

    अजी क्या पूछते हो बाबू जी।

    एक मर्तबा इसकी चैटक लग जाए तो फिर उम्र-भर छुटकारा मुश्किल है।

    मुझी को देखो। फ़क़ीरों से बदतर हाल है।

    कम-बख़्त जी का जंजाल हो गई है।

    कब से ये साज़ बजा रहे हो उस्ताद?

    कोई चालीस बरस का रियाज़ है बाबू जी। चार बरस का था जब बजाना शुरू किया था। बावा ने छोटा सा बनवा के दिया था खेलने को। क्योंकि मैं उनका सरोद बजाने के लिए बहुत मचला करता था। बस मैं अपने इस खिलौने से खेलता रहता और अपने कभी टूँ टाँ भी कर लिया करता। एक दिन क्या हुआ, अल्लाह तुम्हारी ख़ैर रखे बाबू जी, कि सुबह ही सुबह उस्ताद दिलदार ख़ाँ मरहूम बावा से मिलने घर पर आए। उस्ताद दिलदार ख़ाँ मरहूम के सरोद की सारी ख़ुदाई में धूम थी। मगर अल्लाह बख़्शे, बिचारों की उल्टे हाथ की कलाई पर चक्की का पाट गिर पड़ा था और हाथ ऐबी हो गया था। ख़ुद बजाने से माज़ूर हो गए थे। बस सिखलाया करते थे। वो भी रजवाड़ों में।

    बावा से उनका बड़ा याराना था। हाँ तो बाबू जी, वो दोनों आँगन में चारपाई पर बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे। मज़े-मज़े की बातें हो रही थीं। और मैं उनसे ज़रा हट के ज़मीन पर अपने उसी खिलौने से खेल रहा था। एका-एकी उस्ताद दिलदार ख़ाँ बावा की बात काट कर चिल्ला उठे, 'ए मियाँ ज़रा सुनना ये लौंडा क्या बजा रहा है?'

    लो बाबू जी, मौला तुम्हारी ख़ैर रखे, दोनों ने सुना तो मैं गुणकरी की गत बजा रहा था। बावा ने कलाम-ए-मजीद उठा लिया कि मैंने बच्चे को बताया हो तो इसी की मार पड़े। बल्कि मैंने तो इसके साज़ के कभी तार भी मिला के नहीं दिए। इस पर उस्ताद दिलदार ख़ाँ मरहूम बावा से कहने लगे, मियाँ ये लौंडा तो तुम मुझे दे दो। देखो मेरा हाथ ऐबी हो गया है। दिल में बहुत-सी हसरतें रह गई हैं। अब मेरी जगह ये लौंडा दुनिया को बताएगा कि दिलदार ख़ाँ क्या चीज़ था। लो बाबू जी, मौला तुम्हारी ख़ैर रखे, बड़ी हील-हुज्जत हुई। आख़िर बावा मान गए। क्योंकि मुझसे बड़े दो बेटे और थे उन के। उस्ताद मुझे अपने साथ ले आए। बस उस दिन से मैं उनकी ख़िदमत में रहने लगा। चिलमों पर आग रखते-रखते चुटकियाँ जल-जल गईं। चार चोट की मार मारा करते थे बाबू जी मुझे। आज जो चार आदमियों में मेरी वाह-वाह होती है, उस्ताद दिलदार ख़ाँ की जूतियों का ही सदक़ा है बाबू जी।

    फ़य्याज़ ने बड़ी दिलचस्पी से ये क़िस्सा सुना। जब ख़त्म हुआ तो दोनों कुछ देर चुप-चाप चलते रहे।

    तुम्हारा नाम क्या है, बाबू जी?

    अचानक सरोदिये ने सवाल किया।

    मुझे फ़य्याज़ कहते हैं।

    तबिय्यत के भी माशा अल्लाह फ़य्याज़ हो। इस्म-ब-मुसम्मा और काम क्या करते हो बाबू जी?

    मैं एक दफ़्तर में मुलाज़िम हूँ।

    तनख़्वाह क्या मिलती है तुम्हें बाबू जी?

    कुछ ज़्यादा नहीं। मगर शुक्र है, गुज़ारा हो जाता है।

    फिर भी कितनी?

    यही कोई डेढ़ सौ।

    और बच्चे कितने हैं, माशा अल्लाह से तुम्हारे?

    दो।

    लड़के या लड़कियाँ?

    लड़कियाँ।

    ये सुन कर सरोदिये की ज़बान से एक मुहमल सा कलिमा निकला। फिर वो कहने लगा, ख़ैर जीते रहें, अल्लाह की देन है और बाबू जी?

    फ़य्याज़ उसके इन ताबड़-तोड़ सवालों का जवाब देते-देते ज़च हो गया। उसने इस सिलसिले को रोकने के लिए ख़ुद यही हर्बा इस्तेमाल करने की सोच ली और ख़ुद उससे सवाल करने शुरू कर दिए। उसे मालूम हुआ कि सरोदिये का नाम हैदरी ख़ाँ है। वो प्यारे ख़ाँ का छोटा भाई है, जो किसी महाराजा के दरबार में पान से रूपए पर मुलाज़िम है। एक बड़ा भाई और था। वो भी किसी रजवाड़े में मुलाज़िम था मगर किसी ने दुश्मनी से उसे ज़ह्र दे कर मार डाला। अपनी बद-मिज़ाज़ी की वजह से उसकी अपने घराने में किसी से नहीं बनती। वो किसी का दबैल हो कर नहीं रह सकता।

    उसकी तबियत में आज़ादी और फ़क़ीरी है। यही वजह है कि उसका घर घाट है जोरू जाता।

    जिस वक़्त वो दोनों बाग़ से निकल फ़सील की एक गली से शह्र के अंदर दाख़िल हुए तो रात के कोई दस बजे का अमल होगा। फ़य्याज़ हैदरी ख़ाँ के आगे-आगे चलता, रास्ता दिखाता दो-तीन गलियों से गुज़र कर आख़िर उसे अपने बाला ख़ाने के नीचे ले आया।

    उस्ताद तुम ज़रा यहाँ गली में ठहरो। उसने कहा, मैं ऊपर जा कर पर्दा करा दूँ।

    बहुत देर लगाना बाबू जी। अल्लाह तुम्हारी ख़ैर रखे।

    फ़य्याज़ सीढ़ियाँ चढ़ कर मकान में पहुँचा। उसकी बेटियाँ तो सो गई थीं मगर असग़री हस्ब-ए-मा'मूल उसकी राह देख रही थी। फ़य्याज़ ने मुख़्तसर अलफ़ाज़ में उसे हैदरी ख़ाँ से मिलने और अपने साथ लाने का हाल सुनाया और ताकीद की कि जल्दी से खाना गर्म कर लो। फिर वो लालटेन ले कर नीचे गया और हैदरी ख़ाँ को ऊपर बैठक में ले आया। उस घर में बावर्ची-ख़ाने के अलावा दो कमरे थे। एक बड़ा जिसमें वो, उसकी बीवी और लड़कियाँ सोया करतीं। दूसरा कुछ छोटा जो सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने पड़ता और बैठक का काम देता। फ़य्याज़ अक्सर वहाँ बैठ कर दफ़्तर का काम किया करता। उसमें एक पुरानी दरी बिछी थी। एक छोटी-सी मेज़, दो कुर्सियाँ और किताबों की एक अलमारी थी। हैदरी ख़ाँ ने सरोद को बहुत एहतियात से कमरे के एक कोने में रख दिया। ख़ुद दरी पर बैठ गया और गर्दन फिरा-फिरा कर घर का ज़ायज़ा लेने लगा।

    क्या किराया देते हो बाबू जी इसका?

    उसने फिर सिलसिला-ए-सवालात शुरू किया।

    पन्द्रह रूपये।

    ओफ़्फ़ोह! इतने से मकान के पन्द्रह रूपये! बहुत किराया देते हो तुम तो बाबू जी। बिजली भी तो नहीं है इसमें। उसकी चुँधी आँखें पीतल के उस पुराने लैम्प पर जमी हुई थीं जो तिपाई पर रखा हुआ था और जिसकी चिमनी कुछ-कुछ धुआँ दे रही थी।

    हाँ उस्ताद किराया तो कुछ ज़्यादा ही है। फ़य्याज़ ने कहा, पर क्या करूँ मुद्दत से यहीं रहता हूँ।

    इस महल्ले में जी लग गया है। एक लम्हा ख़ामोशी रही। फिर हैदरी कहने लगा, ले अब बाबूजी जल्दी से खाना ले आओ। अल्लाह तुम्हारी ख़ैर रखे। चंद मिनट के बाद उसके सामने दरी पर एक छोटा सा दस्तर-ख़्वान बिछा कर खाना चुन दिया गया। खाना था तो मामूली सा, मगर पकाने वाली ने ऐसे सलीक़े से पकाया था कि हैदरी ख़ाँ की ज़बान चटख़ारे लेने लगी।

    ख़ूब पेट भर कर खाओ उस्ताद। और ये कह कर फ़य्याज़ ने अपने हिस्से का सालन भी जो वो अंदर से उठा लाया था उसके सामने रख दिया। हैदरी ख़ाँ के सरोद का अभी तक उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर ऐसा असर था कि उसे खाने की ज़रा इश्तेहा थी।

    बस-बस बाबू जी। हैदरी ख़ाँ ने कहा, फ़क़ीर का तो बस दो निवालों ही में पेट भर जाता है।

    ले अब बस चाय और पिलवा दो। अल्लाह तुम्हारी ख़ैर रखे।

    चाय अभी आती है। मैंने केतली चूल्हे पर रखवा दी है। बरतन हटा दिए गए और फ़य्याज़ हैदरी ख़ाँ के पास ही दरी पर बैठ गया और बड़ी इश्तियाक़ भरी नज़रों से उसके सरोद को देखने लगा।

    हैदरी ख़ाँ उसके इश्तियाक़ को भाँप गया। वो कोने से अपना साज़ उठा लाया और फ़य्याज़ की तरफ़ बढ़ा कर कहने लगा, लो शौक़ से देखो बाबू जी। ऐसा साज़ भी तुमने कम ही देखा होगा।

    ये मेरे उस्ताद दिलदार ख़ाँ मरहूम (कान की लौ छू कर) की निशानी है। कई सरोदियों ने सैकड़ों रूपये का लालच दे कर मुझसे ये सरोद ख़रीदना चाहा मगर मैंने उन के रूपये पर लात मार दी।

    मेरी तो जान है इसमें बाबू जी जैसे परियों की कहानी में जिन की जान तोते में थी। मुझे कोई लाख रूपया दे तब भी मैं इस सरोद को अपने से जुदा करूँ।

    फ़य्याज़ ने सरोद को अपनी गोद में रख लिया। अच्छा तो यही वो तिलिस्मी साज़ है जिससे ऐसे मलकूती सुर निकलते हैं! वो बड़े ग़ौर से उसे देखने लगा। इसकी अजीब-सी बनावट, इसकी दर्जनों खूंटियाँ, इसका बड़ा-सा ढाँचा जिस पर खाल मंढी थी। उसकी सींग की बनी हुई घोड़ी जिस पर सारे तार टिके थे। ग़र्ज़ हर चीज़ उसके लिए अजूबा थी।

    इसको बजाते किस तरह हैं भला?

    फ़य्याज़ बे-इख़्तियार पूछ बैठा।

    लो मैं तुम्हें बताता हूँ बाबूजी। हैदरी ख़ाँ ने कहा, पहले यूँ आलती-पालती मार कर बैठ जाओ जैसे मैं बैठा हूँ। और सरोद को यूँ अपने आगे रख लो। ये लो जुआ। इसको दाहिने हाथ की उँगलियों में यूँ पकड़ लो और इस तरह तार पर ज़र्ब लगाओ। फ़य्याज़ ने ऐसा ही किया।

    एक मनहनी सी आवाज़ निकली।

    फिर ज़र्ब लगाओ। अब के आवाज़ कुछ बेहतर थी।

    शाबाश! बस यूँ ही ज़रबें लगाते रहो। लो अब बायाँ हाथ सरोद के नीचे से निकाल लो। यों। अब पहली उंगली से यूँ इस तार को दबाओ। और दाहिने हाथ से ज़र्ब लगाओ। देखा एक नई आवाज़ पैदा हुई।

    सबक़ यहीं तक पहुँचा था कि दूसरे कमरे की कुंडी खटखटाने की आवाज़ आई।

    ख़ाँ साहब! ज़रा सरोद को थामना। मैं चाय ले आऊँ।

    चाय पीने के बाद मौसीक़ी की तालीम फिर शुरू हो गई। हैदरी ख़ाँ ने फ़य्याज़ से खरज, रखब, गंधार और मद्धम ये चार सुर सरोद पर निकलवाए। उस वक़्त फ़य्याज़ की ये कैफ़ियत थी कि फ़र्त-ए-शौक़ से उसका बंद-बंद काँप रहा था। उसे यक़ीन ही नहीं आता था कि ये सुर मेरे हाथों से निकल रहे हैं। इस सरोद-नवाज़ी की धुन में उसे ये भी ध्यान रहा कि रात तेज़ी से गुज़री जा रही है। आख़िर दूसरे कमरे से फिर कुंडी खट-खटाने की आवाज़ आई। फ़य्याज़ नाचार उठ कर अंदर गया तो असग़री ने कहा, शाबाश है तुम को। बारह बज लिए मगर तुम्हारी तन-तन ख़त्म हुई।

    अब सोने भी दोगे किसी को। शरीफ़ों का महल्ला है लोग क्या कहेंगे आख़िर।

    तुम सच कहती हो। बस अब मैं ख़त्म किया चाहता हूँ। वो बैठक में आया तो हैदरी ख़ाँ को गुदड़ी ओढ़े फ़र्श पर दराज़ पाया। सरोद को उसने फिर कोने में रख दिया था। इससे फ़य्याज़ को किसी क़द्र मायूसी हुई।

    बाबू जी! हैदरी ख़ाँ ने गुदड़ी के अंदर से कहा, रात बहुत बीत ली। मैंने सोचा अब कहाँ जाउँगा।

    यहीं पड़ रहता हूँ। सुबह होते ही चल दूंगा। तुम्हारी ख़ैर हो, ज़रा लैम्प की बत्ती नीची कर देना पर बुझाना नहीं।

    बहुत अच्छा।

    फ़य्याज़ ने कहा, और वो लैम्प की बत्ती नीची करके अपने कमरे में चला गया। अगले रोज़ सुबह-दम अभी सूरज निकलने पाया था कि फ़य्याज़ बिस्तर से उठ बैठक में गया। इस वक़्त सर्दी ख़ासी बढ़ गई थी। हैदरी ख़ाँ अपनी गुदड़ी में गठरी बना बे-ख़बर सो रहा था। मगर फ़य्याज़ को जैसे सर्दी की कमी बेशी का कुछ एहसास ही था। वो सरोद उठा फ़र्श पर उकड़ूँ बैठ गया और हल्के-हल्के उन्ही चारों सुरों को बजाने लगा जो हैदरी ख़ाँ ने रात उसे सिखाए थे। सरोद की आवाज़ सुन कर गठरी में हरकत हुई। हैदरी ख़ाँ ने गुदड़ी में से सर निकाला। फ़य्याज़ की सूरत देखी। एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके सूखे हुए होंटों पर नमूदार हुई और उसने सर फिर गुदड़ी के अंदर कर लिया।

    फ़य्याज़ बड़े इन्हिमाक के साथ सरोद पर मश्क़ करता रहा। इस काम में उसे ऐसी तमानीयत हासिल हो रही थी कि ज़िंदगी में पहले कभी हुई थी। जब उसे सरोद बजाते काफ़ी देर हो गई तो उसकी दोनों बेटियाँ नजमा और सलीमा भी उसके पास कर बैठ गईं। दोनों ने सर और कानों को ऊनी रंग-दार गुलूबंद से ढक रखा था। नजमा की उम्र ग्यारह बरस थी और सलीमा की नौ बरस। दोनों बड़ी प्यारी-प्यारी बच्चियाँ थीं। वो एक मासूमाना अदा के साथ जिसमें हैरत के साथ-साथ तमसख़ुर का उंसुर भी शामिल था, बाप को ये बड़ा सा अजीब-ओ-ग़रीब साज़ बजाते देखने लगीं। हँसी उनके होंटों पर आ-आ कर रुक जाती।

    मैंने कहा आज दफ़्तर नहीं जाओगे?

    असग़री ने चिलमन के पीछे से कहा, इतवार है भई इतवार है।

    ये कह कर फ़य्याज़ फिर सरोद बजाने में मशग़ूल हो गया। असग़री ने हैदरी ख़ाँ को गुदड़ी में मुँह छिपाए बे-ख़बर सोते देखा तो दुपट्टा सँभालती हुई बैठक में चली आई और फ़य्याज़ के कान के क़रीब मुँह ला कर कहने लगी, ये कब दफ़ान होगा?

    ख़ुदा के लिए चुप रहो। कहीं सुन ले। बड़ा साहिब-ए-कमाल आदमी है।

    हुआ करे। मैं पूछती हूँ ये जाएगा कब?

    बस नाश्ता करा के भेज देंगे। तुम यहाँ से चली जाओ। कहीं उठ बैठे।

    कोई दस बजे के क़रीब हैदरी ख़ाँ जमाइयाँ लेता अपनी काली-काली उँगलियों को जिनके नाख़ुन बे-तहाशा बढ़े हुए थे और उनमें मैल भरा था, चटख़ाता हुआ उठ कर बैठ गया। फ़य्याज़ अभी तक सरोद बजाने में मुनहमिक था। इस तीन-चार घंटे के रियाज़ से उसे उन चारों सुरों की ख़ूब मश्क़ हो गई थी। सुर रवानी और ज़ोर के साथ निकलने लगे थे। हैदरी ख़ाँ को फ़य्याज़ के इस इन्हिमाक पर अचंभा सा हुआ।

    लो बाबू जी। अब तुम गण्डा बँधवाने की फ़िक्र करो। तुमने तो कमाल ही कर दिया। तुम तो सच-मुच बजाने लगे। मुझे अब तक जो शागिर्द मिला, कमबख़्त कूढ़ ही मिला। तुम जैसा ज़हीन शागिर्द हो तो तीन ही महीने में उस्ताद बना दूँ तो मेरी मूँछें मुँडवा देना। पर ये सुन रखो मियाँ मेरी ट्यूशन की फ़ीस सौ रूपया महीना है सौ रूपया महीना! ये कह कर वो हँसने लगा, एक बात है बाबू जी, माशा अल्लाह से तुम्हारे डील-डोल पर ये साज़ फबता भी ख़ूब है। शेर के बच्चे मा'लूम होते हो शेर के बच्चे!

    नाश्ता हो लिया मगर हैदरी ख़ाँ के रुख़सत होने के आसार दिखाई दिए। इस पर दूसरे कमरे में असग़री ने फिर कुंडी खटखटाई। फ़य्याज़ उठ कर अंदर गया।

    मैंने कहा आज सौदा-सुलफ़ नहीं आने का? तुमको तो गाने-बजाने में खाने-पीने की भी सुध रही। मगर बच्चों को तो भूका मारो।

    ओहो। मैं तो भूल ही गया था। लो अभी बाज़ार जाता हूँ।

    जिस वक़्त फ़य्याज़ कपड़े बदल कर बैठक में आया तो हैदरी ख़ाँ भी सर पर अपनी बे-फुँदने की मैली टोपी रख, सरोद बग़ल में दबा, गुदड़ी सँभाल चलने को तैयार खड़ा था। फ़य्याज़ का मुँह उतर सा गया।

    क्यों उस्ताद कहाँ चल दिए?

    ज़रा जा कर नशा पानी करूँगा। हैदरी ख़ाँ ने जमाई लेते हुए कहा, एक रूपया हो तो दिलवाओ। फ़य्याज़ फ़ौरन अंदर जा कर रूपया ले आया।

    ख़ैर हो बाबू जी की।

    उसने रूपया वास्कट की जेब में डालते हुए कहा, शायद शाम को फिर आना हो।

    उसने एक और जमाई ली। वाक़ई उसका नशा टूट रहा था। वो दरवाज़े की तरफ़ चला। जब तक वो सीढ़ियों से उतर गया फ़य्याज़ बराबर दरवाज़े में खड़ा उसे झाँकता रहा। उसके जाने के बाद फ़य्याज़ को अचानक एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। काश हैदरी ख़ाँ अपना सरोद यहीं छोड़ जाता और वो आज छुट्टी के दिन ख़ूब-ख़ूब मश्क़ें करता रहता। वो खोया-खोया सा चारपाई पर लेट गया। रात से उस पर एक मुसलसल इज़तिराब की कैफ़ियत तारी थी। उसे नींद भी अच्छी तरह आई थी। असग़री ने उसकी उदासी को भाँप कर कहा, ये एका-एकी कैसा शौक़ लग गया है तुम्हें।

    डोम ढाड़ी बनोगे? और ये मुआ फ़क़ीर...

    फ़य्याज़ ने उसकी बात काट कर कहा, जिस को तुम मुआ फ़क़ीर कहती हो, मुल्क में जवाब नहीं उसका।

    बला से हो। भाड़ में जाए। मुझे तो ये डर है कि ना-मुराद ने घर देख लिया है। अब तो रोज़ ही धमका करेगा।

    काश ऐसा ही हो।

    तो क्या साज़ बजाना सीखोगे तुम?

    काश मैं उसे सौ रूपया ट्यूशन की फ़ीस दे सकता!

    असग़री का मुँह खुले का खुला रह गया। सौदा-सुलफ़ आया। खाना पका। मियाँ-बीवी और लड़कियाँ खाने बैठीं मगर फ़य्याज़ ने दो-चार निवालों के बाद ही हाथ खींच लिया। असग़री ने ये हाल देखा तो उसको सच-मुच तशवीश होने लगी। पिछले चंद घंटों में वो उसे बहुत बदला हुआ पा रही थी। वो तो उसकी तरफ़ मुहब्बत भरी नज़रों से देखता, उसकी बात ग़ौर से सुनता और ढंग का जवाब देता। लड़कियों की तरफ़ भी उसकी कुछ तवज्जो मा'लूम होती थी। दिन ढल गया। शाम हो गई। चिराग़ जल गए मगर हैदरी ख़ाँ आया। फ़य्याज़ बार-बार सीढ़ियों में झाँकता, फिर कर बिस्तर पर लेट जाता। फिर उठ बैठता। उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। आख़िर आठ बजे के क़रीब सीढ़ियों में किसी के खंकारने की आवाज़ सुनाई दी। ये हैदरी ख़ाँ ही था। वो झूम रहा था। उसकी आँखें पिछली रात से ज़्यादा सुर्ख़ हो रही थीं। उसके हवास बजा थे। मालूम होता था आज उसने कुछ ज़्यादा ही नशा पानी कर रखा है। सरोद को देख कर फ़य्याज़ की आँखें चमक उठीं।

    लो मियाँ गए हम। तुम भी क्या याद करोगे ये कह कर वो आलती-पालती मार फ़र्श पर बैठ गया।

    फ़य्याज़ मियाँ! ज़रा बहू से कह कर चाय बनवा लो। बस चाय ही। मैं खाना नहीं खाऊँगा। फिर जाने क्या तरंग उठी कि वो सरोद बजाने लगा। इब्तिदा तो बड़े जोश-ओ-ख़रोश से की मगर दो ही मिनट बाद उंगलियाँ सुस्त पड़ने लगीं और जब अंदर से चाय बन कर आई तो वो सरोद पर झुका ख़र्राटे ले रहा था। फ़य्याज़ ने उसका शाना पकड़ कर हिलाया, मगर उस पर ऐसी बेहोशी की नींद तारी थी कि मुतलक़ आँख खोली। फ़य्याज़ ने सरोद को उसकी गिरिफ़्त से अलग करके उसे आहिस्तगी से फ़र्श पर लिटा दिया और गुदड़ी ओढ़ा दी। फिर बड़े इश्तियाक़ के साथ सरोद को उठा कर बजाना शुरू कर दिया। अगले रोज़ हैदरी ख़ाँ की आँख सुब्ह-सवेरे ही खुल गई। देखा कि फ़य्याज़ उसके क़रीब ही बैठा उसके बताए चारों सुरों की मश्क़ कर रहा है। वो सराहे बग़ैर रह सका।

    फ़य्याज़ मियाँ! माशा अल्लाह से क्या सच्चे सुर निकाल रहे हो। वाह वा, जी ख़ुश हो गया। आज मैं तुम्हें अगले तीन सुर भी बता दूँगा। फिर सप्तक मुकम्मल हो जाएगी। और सच-मुच थोड़ी ही देर में हैदरी ख़ाँ ने पंचम, धैवत और निखाद के सुर भी फ़य्याज़ के हाथ से निकलवा दिए। ख़ुशी से फ़य्याज़ की आँखों में आँसू गए। मगर जल्द ही बा-दिल-ए-नख़्वास्ता उसे मौसीक़ी की ये ता'लीम ख़त्म करनी पड़ी क्योंकि आठ बजने वाले थे और उसे दफ़्तर जाने के लिए तैयार होना था।

    हैदरी ख़ाँ ने नाश्ते के बाद अपना सरोद उठाया। इस दफ़ा उसे रूपया माँगने की ज़रूरत पड़ी, क्योंकि फ़य्याज़ ने ख़ुद ही अंदर से रूपया ला कर उसे दे दिया था।

    ख़ुश रहो मियाँ! हैदरी ख़ाँ बोला। फिर चंद लम्हे ता'म्मुल करके उसने बड़े गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, सुनो मियाँ! अगर तुम्हें मुझसे सीखना है तो तुम्हें मेरी तीन शर्तें मंज़ूर करनी होंगी।

    यूँ तो ये शर्तें बहुत आसान मा'लूम होंगी, पर ग़ौर करो तो दुश्वार भी बहुत हैं। क्योंकि मैं सड़ी मशहूर हूँ। ज़रा भी कोई काम मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो तो मुझे बड़ा क़लक़ होता है। अपनी इस बद-मिज़ाजी ही की ख़ातिर मैंने फ़क़ीरी क़ुबूल की है। लो अब वो शर्तें भी सुन लो। अव्वल ये कि सुबह को तुम्हें मेरे नाश्ते और नशे पानी का इंतिज़ाम करना होगा। दोपहर को मैं खाना नहीं खाऊँगा। सुबह इधर तुम दफ़्तर को चले और उधर मैं खिसका। शाम को जब तुम दफ़्तर से चुकोगे तो मैं भी अपने फिर-फिरा के पहुँच जाया करूँगा। दूसरी शर्त ये कि रात का खाना हम दोनों साथ-साथ खाएँगे और तीसरी शर्त ये कि मैं सोया यहीं बैठक मैं करूँगा। वो जो मैंने सौ रूपया महीना ट्यूशन की बात की थी, वो तो मैं तुमसे मज़ाक़ करता था मियाँ। मुझे रूपये का लालच होता तो हवेलियाँ खड़ी कर ली होतीं अब तक। बस यही हैं मेरी शर्तें अगर तुम्हें मंज़ूर हों तो बिस्मिल्लाह!

    फ़य्याज़ कुछ देर गर्दन झुकाए हुए सोच में डूबा रहा। जब उसने सर उठाया तो सबसे पहले उसकी नज़र चिलमन पर पड़ी। हैदरी ख़ाँ की तरह असग़री भी उसके जवाब की मुंतज़िर थी।

    ख़ाँ साहब! उसने धीमी आवाज़ मगर फ़ैसला-कुन लहजे में कहा, मुझे आपकी तीनों शर्तें मंज़ूर हैं। आज से आप मेरे उस्ताद हैं। उसी शाम हैदरी ख़ाँ अपना बोरिया बुधना ले फ़य्याज़ के हाँ उठ आया। ये बोरिया बुधना क्या था, टीन का एक ट्रंक जिसका रोग़न उड़ा हुआ और कुंडा ग़ायब था।

    हैदरी ख़ाँ ने उसे बंद करने के लिए रस्सी बाँध रखी थी। एक मिट्टी का सड़ा सा हुक़्क़ा था और एक प्याला। असग़री के दिल को चोट तो लगी और उसने कुछ आँसू भी बहाए। मगर वो तबअन उन इताअत-गुज़ार बीवियों में से थी जो शौहर को मजाज़ी ख़ुदा समझती हैं और हर हाल में उनकी ख़ुशनूदी की जोया रहती हैं। मौसीक़ी से मियाँ के इस जुनून की हद तक बढ़े हुए शौक़ को देख कर उसने ज़ियादा मुज़ाहमत की। और हैदरी ख़ाँ का अपने हाँ रहना मंज़ूर कर लिया। दो-चार ही दिन में उसे हैदरी ख़ां की सरिश्त का अंदाज़ भी हो गया। वो नशा-बाज़ तो था मगर बद-नज़र हरगिज़ था। पराई बहू-बेटियों को ताकने-झाँकने की उसे आदत थी। वो असग़री को हमेशा बहू या बेटी कह कर पुकारता और जब तक फ़य्याज़ बाहर रहता, घर के नज़दीक चलता।

    सबसे पहले फ़य्याज़ को हैदरी ख़ाँ की ज़ाहिरी हालत सुधारने की फ़िक्र हुई। हैदरी ख़ाँ बहुतेरा मना करता रहा, मगर उसने एक सुनी। उसने ख़ाँ साहब के लिए एक नया जोड़ा सिलवाया। उसके पास बढ़िया सियाह कपड़े की एक शेरवानी थी जिसे वो कभी-कभी पहन लिया करता था। ये शेरवानी दो-एक जगह से मस्क तो गई थी मगर अभी अच्छी हालत में थी। वो उसे एक दर्ज़ी के पास ले गया और उसमें क़त'-ओ-बुरीद करा के उसे ख़ाँ साहब के नाप का बनवा लिया। फिर उसने ख़ाँ साहब की तुर्की टोपी को धुलवा के उसमें नया फुँदना लगवाया। उसने ख़ाँ साहब के लिए एक मज़बूत सा जूता भी ख़रीदा। फिर उन सब चीज़ों को एक सूटकेस में रख कर, ख़ाँ साहब को साथ ले एक हमाम में पहुँचा। वहाँ पहले तो ख़ाँ साहब के पट्टों को मुख़्तसर कराया, दाढ़ी मुंडवाई, मूंछों को तरशवाया, नाख़ुन कटवाए। फिर हमाम वाले से दो-तीन मर्तबा हमाम में पानी भरवा के उसे ख़ूब नहलवाया, उसके कपड़े बदलवाए। जिस वक़्त हैदरी ख़ाँ हमाम से निकला तो वो एक अच्छा ख़ासा मा'क़ूल इंसान नज़र आने लगा।

    उस वक़्त दोपहर हो चुकी थी, ज़ुहर का वक़्त क़रीब था। दोनों घर वापस रहे थे कि रास्ते में एक मस्जिद नज़र आई। हैदरी ख़ाँ वहीं ठहर गया। उसने बड़ी रिक़्क़त भरी आवाज़ में फ़य्याज़ से कहा, फ़य्याज़ बेटे! आज बड़ी मुद्दत के बाद पाक-साफ़ हुआ हूँ और कपड़े भी पाक हैं। मेरा जी चाहता है कि आज अपने मौला के सामने ज़रा सर झुका लूँ।

    फ़य्याज़ को कुछ ता'ज्जुब तो हुआ मगर उसने ख़ाँ साहब की ख़्वाहिश को रद किया और वो दोनों दूसरे नमाज़ियों के साथ मस्जिद में दाख़िल हो गए। थोड़ी देर के बाद जब हैदरी ख़ाँ मस्जिद से निकला तो उसकी आँखों में एक चमक पैदा हो गई थी। लिबास की इस तब्दीली के साथ ही उसके तौर-तरीक़े भी एक-दम बदल गए। उसकी ज़बान से वो बात-बात पर दुआइया कलिमात का निकलना बंद हो गया। उसके बजाय उसके अंदाज़-ए-तख़ातुब में एक तहक्कुम पाया जाने लगा। जिस वक़्त फ़य्याज़ उसके हम राह बाज़ार से गुज़र रहा था तो ऐसा मा'लूम होता था जैसे कोई मुअद्दब शागिर्द उस्ताद के साथ-साथ जा रहा हो। असग़री ने हैदरी ख़ाँ की ये धज देखी तो हैरान रह गई। उसे पहले पहल उस शख़्स से जो कराहत महसूस हुई थी वो जाती रही थी। हैदरी ख़ाँ नजमा और सलीमा से बड़ी शफ़क़त से पेश आने लगा था। फ़य्याज़ उसे हर रोज़ नशे पानी के लिए जो एक रूपया दिया करता था, वो उसमें से दो-तीन आने बचा, उन बच्चियों के लिए कुछ मिठाई या फल ज़रूर ख़रीद लाता। बच्चियाँ चंद ही रोज़ में उससे ख़ूब मानूस हो गईं। वो उसे ख़ाँ साहब जी कह कर बुलातीं।

    हैदरी ख़ाँ असग़री के खाना पकाने की भी सच्चे दिल से ता'रीफ़ किया करता। वो कहता, बेटी सुबहान अल्लाह! क्या लज़ीज़ खाना पकाती हो, जो राजों और नवाबों को भी नसीब नहीं। उनके खानों में तो बस तकल्लुफ़ ही तकल्लुफ़ होता है। मज़ा ख़ाक भी नहीं। रफ़्ता-रफ़्ता उसकी तारीफ़ों में असग़री को मज़ा आने लगा। वो कभी कोई ख़ास चीज़ पकाती तो दिल में कहती, देखें आज ख़ाँ साहब क्या कहते हैं। अब ख़ाँ साहब पर घर में आने-जाने की कोई पाबंदी रही थी क्योंकि असग़री ने मियाँ का इंदिया पा कर उनसे पर्दा करना छोड़ दिया था। वो हैदरी ख़ाँ से कहा करती, ख़ाँ साहब आप दोपहर का खाना भी घर ही आकर खा लिया करें। मगर हैदरी ख़ाँ को ये वक़्त तकियों में गुज़ारना ज़ियादा पसंद था।

    उधर फ़य्याज़ के ज़ौक़-ओ-शौक़ को देख कर हैदरी ख़ाँ ने उसे पूरी तवज्जो से सरोद की ता'लीम देनी शुरू कर दी थी। उसने महीने डेढ़ महीने के अंदर ही फ़य्याज़ को दो-तीन रागों की अलाप और कुछ गतें भी सिखा दीं थीं और अब फ़य्याज़ सरोद नवाज़ी में रोज़-ब-रोज़ तरक़्क़ी करने लगा था। अगर-चे उस पर हैदरी ख़ाँ के अख़राजात का पूरा बोझ पड़ गया था जिससे वो बहुत तंग-दस्त हो गया था। फिर भी वो ख़ुश था। ऐसा ख़ुश कि ज़िंदगी में पहले कभी हुआ था। चूँकि हैदरी ने बाज़ारों में बैठ कर सरोद बजाना और माँगना तर्क कर दिया था, इसलिए उसका सरोद ज़्यादा-तर घर ही में रहता। उसने फ़य्याज़ को पूरी इजाज़त दे रखी थी कि वो जब तक चाहे उसके सरोद पर रियाज़ करता रहे। फ़य्याज़ सुबह को दफ़्तर जाने से पहले दो घंटे ख़ूब रियाज़ करता। दफ़्तर में भी सारा दिन उसकी उंगलियाँ फ़ाइलों पर यूँ दौड़ती रहतीं जैसे वो सरोद बजाने की मश्क़ कर रहा हो। अब वो ठीक पाँच बजे दफ़्तर से छुट्टी कर लेता और शह्र के पुर-शोर बाज़ारों और तुंग गलियों से होता हुआ जल्द से जल्द घर पहुँच जाता। छुट्टी के रोज़ सरोद को हाथ से छोड़ने की उसे क़सम हो जाती।

    थोड़े ही दिनों में हैदरी ख़ाँ के दिल में फ़य्याज़ की उंसियत बे-हद बढ़ गई। वो उससे इस तरह पेश आता जैसे बाप अपने बेटे से। वो अब तकियों में ज़्यादा देर ठहरता। बल्कि फ़य्याज़ के दफ़्तर से आने से घंटा दो घंटे क़ब्ल ही वो गली में उसके मकान के नीचे चारपाई डाल कर बैठ जाता। अक्सर औक़ात वो अकेला ही होता मगर कभी-कभी उसके दो-तीन दोस्त भी उसके साथ जाते। इस पर गली में गाने बजाने के लम्बे-लम्बे तज़किरे चल निकलते।

    मियाँ जानते भी हो लफ़्ज़ मौसीक़ी के मा'नी क्या हैं।

    हैदरी ख़ाँ अपने साथियों से मुख़ातिब हो कर कहता, अल्लाह करवट-करवट जन्नत नसीब करे।

    उस्ताद दिलदार ख़ाँ (कैन की लौ छू कर) कहा करते थे कि ये यूनानी ज़बान का लफ़्ज़ है। इसके मा'नी हैं हवा में गिरह लगाना। अब तुम ख़ुद ही अंदाज़ कर लो कि ये फ़न किस क़दर मुश्किल है।

    फिर वो मकान की सीढ़ियों में मुँह करके पुकारता, नजमा बेटी दो-तीन पान भेज देना।

    कभी-कभी फ़य्याज़ को भी उस्ताद की ख़ुशनूदी के लिए गली ही में बैठ जाना पड़ता। ऐसे मौक़े पर हैदरी ख़ाँ अपने दोस्तों से फ़ख़्रिया कहता, मियाँ ये अताई अब तुम सबके गण्डा बाँधेगा। है तो मौलवी का बेटा मगर ख़ुदा की देन है। हाथ ऐसा सुरीला है कि सरोदियों के घरानों के लौंडों का भी क्या होगा। और फ़य्याज़ के माथे पर शर्म से पसीना जाता और नीची नज़रें किए ये बातें सुनता रहता। ऐसे में जो लोग गली में जा रहे होते, उनकी नज़रें बे-इख़्तियार इस मंडली पर उठ जातीं और वो थोड़ी दूर तक उधर मुड़-मुड़ कर देखते हुए चले जाते।

    ये महल्ला ख़ास शुरफ़ा का था। ज़ियादा तर मुतवस्सित तबक़े के लोग ही यहाँ रहते थे, मगर कुछ घर खाते-पीते लोगों के भी थे। कुछ मौलवियों और सक़्क़ा क़िस्म के लोगों के थे। एक छोड़ तीन-तीन मस्जिदें इस छोटे से महल्ले में थीं। अल-अल-सुब्ह मुर्ग़ों की कुकड़ूँ-कूँ के साथ ही आगे-पीछे मस्जिदों से अज़ानें सुनाई देने लगतीं और सारे महल्ले पर एक तक़द्दुस की फ़िज़ा छा जाती।

    फ़य्याज़ को इस महल्ले में रहते दस बरस हो चुके थे। इस अरसे में कभी किसी को उससे वजह-ए-शिकायत पैदा हुई थी। सब लोग उसे ख़ामोश, कम-आमेज़ और शरीफ़ समझ कर पसंद करते थे। मगर अब हैदरी ख़ाँ के जाने की वजह से घर पर दिन-रात गाने-बजाने का जो हंगामा रहने लगा तो इस पर महल्ले वाले ठिनके। उन्हें ता'ज्जुब था कि फ़य्याज़ ने अपने घर पर ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब क़िमाश के लोगों के तसल्लुत को कैसे गवारा कर लिया। फिर फ़य्याज़ को ये भी तो एहसास नहीं कि उन लोगों की बे-हूदा हरकात का उसकी ज़ौजा और मा'सूम बच्चियों के अख़लाक़ पर कितना घिनौना असर पड़ता होगा। जगह-जगह चे-मीगोईयाँ होने लगीं।

    नाराज़गी की लहर बढ़ती ही चली गई। यहाँ तक कि एक शाम जब फ़य्याज़ दफ़्तर से घर रहा था तो गली के मोड़ पर उसकी मुठभेड़ महल्ले की बड़ी मस्जिद के इमाम साहब से हुई।

    अस्सलाम अलैकुम! इमाम साहब ने मुसाफ़ाह करने के बाद सीने पर हाथ रखा। और यूँ गोया हुए, बिरादर! मैं कई दिन से आपसे मिलना चाहता था। वो बात ये है कि आपको मौसीक़ी से अज़हद लगाव पैदा हो गया है। हर-चंद इस्लाम में ख़ुश-आवाज़ी और लह्न को बड़ा दर्जा हासिल है। मगर असतग़फ़िरुल्लाह। ये ख़ुराफ़ात जो दिन-रात आपके घर पर होती रहती हैं, इनकी तो किसी सूरत में भी इजाज़त नहीं है, बिला-शक आप अपने फे़'ल के ख़ुद-मुख़्तार हैं और रब-उल-इज़्ज़त के सामने आप अपने आ'माल के ख़ुद जवाब-दाह होंगे मगर ये मसअला सिर्फ़ आप ही की ज़ात तक महदूद नहीं है। बल्कि पूरे महल्ले पर आपकी इन ख़ुराफ़ात का निहायत क़बीह असर पड़ रहा है। मैं उम्मीद करता हूँ कि जनाब ठंडे दिल से मेरी इस गुज़ारिश पर ग़ौर फ़रमाएँगे और इन लग़वियात से जल्द छुटकारा हासिल कर लेंगे। बस मुझे यही कहना था।

    जिस वक़्त फ़य्याज़ घर पहुँचा तो वो बड़ा रंजीदा और दिल-शिकस्ता था। इत्तेफ़ाक़ से हैदरी ख़ाँ अभी घर नहीं आया था। फ़य्याज़ सीधा अपने कमरे में जा कर चारपाई पर लेट गया। गो उस का दिल रियाज़ करने के लिए बे-चैन था मगर उसे सरोद को हाथ लगाने की जुरअत हुई, वो देर तक करवटें बदलता रहा। असग़री ने उसकी ये कैफ़ियत देखी तो पूछा, नसीब-ए-दुश्मनाँ कुछ तबीय्यत ख़राब है आप की?

    नहीं तो। फ़य्याज़ ने कहा। मगर वो बिस्तर से उठा। आख़िर जब शाम का अंधेरा फैलने लगा तब हैदरी ख़ाँ आया। फ़य्याज़ सीढ़ियों से ही उसके क़दमों की चाप सुन जल्दी से सरोद उठा, बजाने बैठ गया। वो अब उस्ताद से डरने लगा था और उस पर ज़ाहिर नहीं होने देना चाहता था कि उसने ये दो घंटे यूँ ही ज़ाए कर दिए।

    फ़य्याज़ बेटे! हैदरी ख़ाँ ने बैठक में क़दम रखते ही कहा, थक गए हो तो ज़रा दम ले लो। भई आज मैंने अपने एक वाक़िफ़-कार के ज़रिये तुम्हारे लिए बम्बई से अच्छा सा सरोद मँगवाने का बंदोबस्त कर ही लिया। अब अल्लाह ने चाहा तो जल्द ही तबलची का इंतिज़ाम भी हो जाएगा। फ़य्याज़ ने तशक्कुर-आमेज़ नज़रों से उस्ताद की तरफ़ देखा मगर ज़बान से कुछ कहा।

    उसके बाद हैदरी ख़ाँ इधर-उधर की बातें करने लगा। इतने ही में खाने का वक़्त हो गया, और यूँ फ़य्याज़ उस शाम सरोद से किनारा-कश ही रहा। मगर उसके दिल में अह्ल-ए-महल्ला और इमाम-ए-मस्जिद के ख़िलाफ़ सख़्त ग़ुस्सा भरा हुआ था। अगले रोज़ फ़य्याज़ वक़्त से कुछ पहले ही दफ़्तर चला गया। दोपहर को हैदरी ख़ाँ एक शख़्स को साथ लिए हुए आया, जिसकी वज़ा'-क़ता' पंडितों की सी थी। पर्दा करा दिया गया और वो दोनों बैठक में फ़र्श पर बैठ गए। ठीक उसी वक़्त नजमा और सलीमा उस्तानी से पढ़ कर घर आईं। उन्होंने हैदरी ख़ाँ को सलाम किया।

    जीती रहो मेरी बच्चियों। हैदरी ख़ाँ ने पुर-शफ़क़त लहजे में कहा, हाँ भई ज़रा बसते रख कर इधर जाओ। आज तुम्हारा इम्तिहान लेंगे हम। दोनों लड़कियाँ बसते माँ के हवाले कर ख़ाँ साहब के सामने अदब से कर बैठ गईं। ख़ाँ साहब ने सरोद उठाया और उसका एक सुर बजा कर नजमा से कहा, ले बेटी! ज़रा इस आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ तो मिला। शाबाश... नजमा कुछ शरमाई। मगर ख़ाँ साहब के इसरार पर आवाज़ मिलाने की कोशिश करने लगी।

    बेटी ऊँची आवाज़ से कहो आ। आ। यों। लड़की ज़हीन थी। थोड़ी सी मश्क़ के बाद उसने साज़ के सुर के साथ अपनी आवाज़ मिला दी। इस पर हैदरी ख़ाँ ने अपने साथी पंडित की तरफ़ पुर-मा'नी नज़रों से देखा। और कहा, क्यों कालिका प्रशाद जी? कालिका प्रशाद ने तहसीन-आमेज़ नज़रों से नजमा की तरफ़ देखते हुए सर हिलाया। उसके बाद छोटी बहन सलीमा की बारी आई। वो अपनी आपा को आवाज़ मिलाते देख चुकी थी, इसलिए वो जल्द ही इस इम्तिहान में पूरी उतर गई। एक बार फिर हैदरी ख़ाँ ने अपने साथी की तरफ़ देख कर कहा, क्यों कालिका प्रशाद जी? कालिका प्रशाद के होंटों पर मुस्कुराहट नमूदार हुई। उसने दो-तीन मर्तबा हूँ-हूँ कहा, उसके बाद हैदरी ख़ाँ ने नजमा और सलीमा से कहा, बस जाओ। शाबाश-शाबाश! मुँह-हाथ धो कर खाना खाओ।

    जब लड़कियाँ चली गईं तो वो कालिका प्रशाद से कहने लगा, शाम को इनका बाप आएगा तो उससे बात करूँगा। फिर वो थोड़ी देर के बाद अपने दोस्त को ले कर चला गया। उस शाम जब फ़य्याज़ दफ़्तर से आया तो असग़री भरी बैठी थी। उसे देखते ही बरस पड़ी, देखो जी! अब तक तो हम तुम्हारी सब बातें मानते चले गए थे मगर अब मुआमला हद से बढ़ गया है। मैं अपनी लड़कियों को हरगिज़-हरगिज़ गाना सीखने दूँगी।

    कुछ बताओ तो सही, हुआ क्या। तुम तो मा'मूँ में बातें कर रही हो।

    आज दोपहर को ख़ाँ साहब आए थे। उनके साथ कोई पंडित जी भी थे। नजमा और सलीमा भी उसी वक़्त स्कूल से आई थीं। पहले ख़ान साहब ने दोनों लड़कियों को गवाया। फिर जाने चुपके-चुपके आपस में क्या बातें करते रहे। मैं चिलमन में से सब देखती रही। सुनो जी! अगर ख़ान साहब चाहें कि मेरी मा'सूम बच्चियाँ रंडियों की तरह नाचने-गाने लगें तो ये होने का नहीं। चाहे मुझे इनको ले कर मैके ही में क्यों बैठ रहना पड़े। फ़य्याज़ कुछ कहने ही को था कि इतने में हैदरी ख़ाँ भी गया।

    फ़य्याज़ बेटे! उसने बैठक में क़दम रखते ही कहना शुरू किया, अल्लाह तुम्हारी उम्र में बरकत दे। मैं तुमसे एक बहुत ज़रूरी बात करना चाहता हूँ और असग़री बेटी अल्लाह तेरा सुहाग क़ायम रखे, तू भी कान धर के सुन। तुम दोनों ने कभी ये भी सोचा कि दोनों बेटियाँ माशा-अल्लाह से दो तीन बरस में जवान होने को हैं। तुमने कुछ इनकी शादी-ब्याह की भी फ़िक्र की। मुझे तो नज़र आता नहीं कि तुमने इनके लिए कुछ ज़हेज़ जमा किया हो और फिर तुम कर भी क्या सकते हो।

    डेढ़ सौ रूपल्ली की भला हक़ीक़त ही क्या है। आख़िर तुम इन मा'सूम बच्चियों को किस तरह नेग लगाओगे। किसी कुंजड़े-क़साई को तो ख़ुदा-न-ख़्वास्ता तुम बेटी देने से रहे। रहे दफ़्तरों के बाबू जिनको तीस-चालीस रूपल्ली से ज़्यादा तनख़्वाह नहीं मिलती, उनको लड़की देना ऐसा ही है जैसे भाड़ में झोंक देना। बच्चियाँ माशा-अल्लाह से ऐसी ख़ूबसूरत हैं जैसे चाँद का टुकड़ा। इनको तो किसी क़द्र-दान रईस के हाँ रानी बन कर राज करना चाहिये। मगर मियाँ साहब-ज़ादे अमीर लोग शादी-ब्याह के मामले में बड़ी मीन-मेख़ निकालते हैं। लड़की ख़ूबसूरत हो, पढ़ी-लिखी हो, बहुत सा ज़हेज़ लाए, और फिर उसे कोई हुनर भी आता हो जैसे गाना या मुसव्विरी। मगर इन बच्चियों में सिवाय सूरत-शक्ल के और रखा ही क्या है!

    मुझे कई दिन से इस बात की बड़ी फ़िक्र थी। तुम दोनों मियाँ-बीवी तो सो जाते थे मगर मैं रात-रात भर इस फ़िक्र में ग़लताँ-पेचाँ रहता था। आख़िर सोच-सोच कर मैंने ये तरकीब निकाली है कि इन लड़कियों को थोड़ा सा नाच-गाना सिखा दिया जाए। तुम जानो आज-कल अमीर-उमरा में नाच-गाने का शौक़ किस क़दर तरक़्क़ी पर है। पहले हिंदुओं ने ये बात शुरू की थी। उनकी देखा-देखी अब मुसलमान भी अपनी बेटियों को गाना-बजाना सिखलाने लगे हैं। मैं दोपहर को पंडित कालिका प्रशाद को लाया था। वो शह्र के नामी कथक हैं। नवाब शमशेर अली ख़ाँ की लड़कियाँ, राय बहादुर संतानम की लड़कियाँ, चौधरी नेक आलम की लड़कियाँ आज-कल उन्ही से सीख रही हैं। इन तीन घरानों को तो मैं जानता हूँ। अल्लाह जाने और कितने घरानों में जाते होंगे।

    तो मियाँ साहब-ज़ादे! ख़ुदा शाहिद है तुम मुझे बेटों से भी ज़्यादा अज़ीज़ हो और असग़री बेटी तू भी मेरी सगों से कम नहीं। मैंने जो बात सोची है तुम्हारे ही भले के लिए सोची है। मेरे आल है औलाद। जो कुछ हो तुम्हीं हो। फिर मैं तुम्हारा बुरा क्यों चाहूँगा।

    इस तक़रीर के आख़िरी हिस्से के दौरान हैदरी ख़ाँ की आवाज़ शिद्दत-ए-जज़्बात से भर्रा गई थी, और टप-टप आँसू गिरने लगे थे। आख़िर वो कुरते के दामन से आँसू पोंछता हुआ उठा और ये कहता हुआ सीढ़ियों की तरफ़ चला, तुम दोनों ख़ूब सोच-समझ लो। अगर मंज़ूर हो तो कल ही से बच्चियों की ता'लीम शुरू करा दी जाए... लो अब मैं चलता हूँ। मेरे कुछ दोस्त नीचे खड़े हैं। मुझे उनसे काम है। मैं ज़रा देर में आऊँगा। उसके जाने के बाद फ़य्याज़ और असग़री देर तक ख़ामोश बैठे एक-दूसरे का मुँह तका किए। आख़िर फ़य्याज़ ने सुकूत तोड़ा, कहो क्या कहती हो?

    मेरी समझ में तो कुछ आता नहीं। असग़री ने जवाब दिया।

    मेरा ख़्याल है ख़ाँ साहब जो कुछ कहते हैं दुरुस्त ही कहते हैं। वाक़ई हमने बच्चियों के मुस्तक़बिल का कुछ ख़्याल नहीं किया और जो तुम्हें इसमें बुराई नज़र आती हो, तो हमारे होते कोई क्या कर सकता है। मेरा ख़्याल है कि हमें इस मौक़े से फ़ायदा उठाना चाहिये।

    मैं कुछ नहीं जानती। तुम मुख़्तार हो जो चाहे करो।

    हैदरी ख़ाँ रात को कोई दस बजे के क़रीब घर आया। असग़री ने उसके और फ़य्याज़ के लिए खाना गर्म किया। खाने के दौरान में फ़य्याज़ ने मस्जिद के इमाम से अपनी मुलाक़ात का हाल सुनाया।

    हैदरी सुनते ही खिलखिला कर हँस पड़ा, वो तो मैं पहले ही समझे हुए था बेटे। मगर तुम कोई फ़िक्र करो। अपने काम से काम रखो। जब देखेंगे कि कोई चारा नहीं तो इस महल्ले ही को छोड़ देंगे। ये सुन कर फ़य्याज़ की कुछ-कुछ हिम्मत बँधी और उसने फिर रियाज़ शुरू कर दिया। इस वाक़िए के दो दिन बाद लड़कियों के नाच-गाने की ता'लीम शुरू हो गई। अब महल्ले वालों के कानों में ज़ुहर से ले कर अस्र तक कुछ इस क़िस्म की आवाज़ें, घुंघरुओं की झंकार के साथ मिल कर सुनाई देने लगीं, ता तत थई-थई। ता तत थई-थई। एक-दो तीन-चार। एक-दो तीन-चार। ता तत थई। ता तत थई। एक-दो तीन। एक-दो तीन।

    अगले रोज़ जब नजमा और सलीमा उस्तानी के हाँ पढ़ने गईं तो पाँच ही मिनट के बाद बसते उठाए वापस गईं। उस्तानी ने बच्चियों से कहा था कि तुम यहाँ आया करो। उसी रोज़ शाम को मालिक मकान फ़य्याज़ से मिलने आया। वो सर झुकाए था। शर्म के मारे मुँह से बात निकलती थी। पिछले दस बरस में उसे फ़य्याज़ से किसी क़िस्म की शिकायत पैदा हुई थी। फ़य्याज़ ने कभी मकान की मरम्मत के लिए कहा था, सफ़ेदी कराने के लिए और किराया हर महीने बिला-नाग़ा पेशगी ही उसकी दुकान पर पहुँच जाता था।

    माफ़ कीजिएगा फ़य्याज़ साहब! आख़िर उसने ज़बान खोली, मैं आपकी बड़ी इज़्ज़त करता हूँ, ख़्वाह आपको गाने-बजाने का शौक़ ही क्यों हो। सच तो ये है कि ख़ुद मुझे भी मौसीक़ी से दिलचस्पी है। मगर क्या करूँ इन कमबख़्त महल्ले वालों ने मेरी दुकान पर आ-आ कर मेरा नाक में दम कर दिया है। आपके हाँ का नक़्शा ऐसे भयानक तरीक़े से खींचते हैं गोया महल्ले भर की बहू बेटियों की इज़्ज़त ख़तरे में पड़ गई है। मैं जानता हूँ ये सरासर झूट है। मगर इतने आदमियों के सामने मुझ अकेले की कुछ पेश नहीं चलती। आप जैसे शरीफ़ और ईमानदार किराए-दार को गँवा कर मुझे बड़ा दुख होगा, मगर क्या करूँ मजबूर हूँ। उम्मीद है आप मेरा मतलब समझ गए होंगे।

    मैं समझ गया हूँ। फ़य्याज़ ने जवाब दिया, आप फ़िक्र कीजिये। मैं हफ़्ते भर में मकान ख़ाली कर दूंगा। जब ये माजरा हैदरी ख़ाँ के कानों तक पहुँचा तो वो बोल उठा, चलो ये झगड़ा भी निमटा। फ़य्याज़ बेटे हम ख़ुद इस मकान में रहना नहीं चाहते। शहर में एक से एक अच्छा मकान मौजूद है और किराया भी कम।

    मगर ख़ाँ साहब मुझे मकान तलाश करने की फ़ुर्सत कहाँ!

    तुम फ़िक्र करो मेरी जान। आज क्या दिन है जुमेरात। बस इसी इतवार तक मैं ख़ुद मकान तलाश कर लूंगा। उस दिन तुम्हें छुट्टी भी होगी आसानी से असबाब ले चलेंगे।

    हैदरी ख़ाँ ने सच-मुच इतवार से पहले ही मकान तलाश कर लिया। वो फ़य्याज़ को मकान दिखाने ले गया। जिस इलाक़े में ये मकान वाक़े' था, वो शहर से अलग-थलग मुज़ाफ़ात की सी कैफ़ियत रखता था। फ़य्याज़ का उस इलाक़े में कभी जाना नहीं हुआ था। बाज़ार ख़ूब चौड़ा था। आमने-सामने ऊँचे-ऊँचे मकान, नीचे दुकानें, किसी में बनिया, किसी में क़स्साब, किसी में कुंजड़ा, बिसाती, तंबोली, बज़ाज़। उन तमाम अशिया की दुकानें जिन्हें ख़रीदने के लिए फ़य्याज़ को लंबी-लंबी गलियाँ तय करनी पड़ती थीं। अलावा-अज़ीं जूते वालों की दुकानें, दर्ज़ियों की दुकानें, लांडरी वाले, केमिस्ट, एक कारख़ाना बिस्कुट बनाने का था। इसके साथ ही एक यतीम-ख़ाना था और एक जगह हकीम भूरे मियाँ के मतब का बोर्ड लगा था। इन दुकानों के ऊपर ख़ूबसूरत पुख़्ता मकान थे। कोई तीन मंज़िल का और कोई चार मंज़िल का। ज़ियादा-तर मकानों के दरवाज़े और खिड़कियाँ या तो बंद थीं या उन पर चिलमनें पड़ी थीं।

    उसी नवाह में हैदरी ख़ाँ ने फ़य्याज़ के लिए दो कमरों का एक फ़्लैट तलाश किया था। ये एक इमारत की दूसरी मंज़िल पर था जिसके नीचे एक ईरानी चाय ख़ाना था। फ़्लैट के दोनों कमरे साफ़-सुथरे और कुशादा थे। बिजली और नल का इंतिज़ाम। टाइलों के फ़र्श। चौड़े-चौड़े दरवाज़े।

    खुली-खुली खिड़कियाँ, उनके रौशन-दानों में सुर्ख़, सब्ज़, नीले, पीले रंगों के शीशे कटाव-दार फूलों की वज़ा' के लगे थे। बाज़ार के रुख़ एक ख़ूबसूरत बालकोनी थी। उसे देख कर फ़य्याज़ की बाछें खुल गईं। यहाँ वो गर्मी के दिनों में छोटी-सी चौकी बिछा कर सरोद का रियाज़ किया करेगा।

    वो मारे ख़ुशी के उस्ताद से लिपट गया।

    फ़य्याज़ बेटे! हैदरी ख़ाँ ने उसके ख़्याल को भाँपते हुए कहा, यहाँ तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। जी चाहे तो सारी रात सरोद बजाते रहो। फ़य्याज़ ख़ुशी-ख़ुशी असग़री को ये मुज़्दा सुनाने घर आया।

    मकान की इतनी बहुत ख़ूबियाँ सुन कर असग़री और नजमा सलीमा को भी उसके देखने का इश्तियाक़ हुआ मगर हैदरी ख़ाँ ने कहा, बस एक ही दफ़ा चल के देख लेना। फ़ौरन असबाब बाँधना शुरू कर दो, ताकि तीसरे पहर तक वहाँ पहुँच जाएँ।

    दोपहर के खाने से फ़ारिग़ हो कर फ़य्याज़, हैदरी ख़ाँ, असग़री और दोनों लड़कियाँ जल्दी-जल्दी असबाब बाँधने में मसरूफ़ हो गईं। पिछले दस बरस में जाने क्या-क्या ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी सामान इकट्ठा हो गया था जिसका छाँटना मुश्किल था। सलाह ये ठहरी कि नए मकान में पहुँच कर छाँट लेंगे। फ़िलहाल तो सारा का सारा जूँ का तूँ वहाँ पहुँचा दिया जाए। फिर भी सामान बाँधते-बाँधते और ठेला आते-आते चार बज ही गए। जिस वक़्त ये लोग अपने नए मकान में पहुँचे तो शाम होने को थी। फ़य्याज़, उसकी बीवी और बेटियाँ सुबह से काम करते-करते ऐसी थक गई थीं कि उन्होंने मकान का ज़ायज़ा भी लिया। चारों एक कमरे में बड़ी-सी दरी बिछा, उस पर पड़ रहे। मगर हैदरी ख़ाँ के चेहरे से थकावट के कुछ आसार ज़ाहिर होते थे। वो कहीं जाने की सोच रहा था।

    फ़य्याज़ बेटे अंदर से कुंडी लगा लेना। उसने सीढ़ियों की तरफ़ जाते हुए कहा, मैं एक ज़रूरी काम से जा रहा हूँ। जब तक मैं आऊँ कुंडी खोलना। अगर मुझे देर हो जाए तो घबराना नहीं।

    ये कह कर वो सीढ़ियों से उतर गया। उसके जाने की देर थी कि चारों को नींद ने दबोचा और वो दो-ढाई घंटे ख़ूब बे-ख़बर सोते रहे। सबसे पहले फ़य्याज़ की आँख खुली। उसने ख़ुद को घटा-टोप अँधेरे में पाया। वो जानता था कि दिवार पर बिजली का बटन कहाँ है। मगर इस ख़्याल से उसने रौशनी की कि कहीं असग़री और बच्चियों की नींद उचट जाए। वो अँधेरे में आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाता बालकोनी की तरफ़ गया और उसकी आहनी कटहरे पर झुक कर उस नवाह की सैर देखने लगा। आमने सामने, अग़ल-बग़ल, नीचे-ऊपर जिस तरफ़ भी उसकी नज़र गई, उसे एक नई ही कैफ़ियत दिखाई दी। उसने देखा कि आस-पास के तमाम फ़्लेटों में बिजली की तेज़ रौशनी हो रही है और कमरों के दरवाज़े और खिड़कियाँ जिन पर दिन को चिक़ें पड़ी थीं, अब चौपट खुले हैं। जो कमरा उसके फ़्लैट के ऐन सामने था, उसमें उजली चाँदनी का फ़र्श बिछा है। गाओ तकिये लगे हैं। पान-दान, ख़ास-दान, पेचवान क़रीने से रखे हैं और वो सारा एहतिमाम है जो किसी दावत के मौक़े पर किया जाता है। मगर ये कमरा अभी अपने मकीनों से ख़ाली है।

    उधर से हट कर अब उसकी नज़र नीचे बाज़ार पर पड़ी। इस वक़्त वहाँ का नक़्शा ही बदला हुआ था। वो दुकानें जिनमें दिन को आटा, दाल, घी, गोश्त, सब्ज़ी, कपड़ा, सोना-चाँदी, तांबा-पीतल बिकता था, वो तो सब बंद थीं और उनके ठिकानों पर गुल-फ़रोश चंगेरों में तरह-तरह के हार, गजरे, कंगन, चम्पा कली वग़ैरा फूलों के गहने सजाए दुकान लगाए बैठे थे। गंधियों ने अपनी बड़ी-बड़ी पिटारियाँ खोल रखी थीं। उनकी छोटी-छोटी इत्र की रंग-बिरंगी शीशियाँ दूर से चमकती हुई नज़र रही थीं।

    एक जगह मिठाई के बड़े-बड़े थाल चुने हुए थे, जिनमें क़िस्म-क़िस्म के लड्डू, क़लाक़ंद और जलेबियाँ सजी थीं। इमरती और बर्फ़ी के क़िले बने थे। यतीम-ख़ाने का फाटक बंद था। उसके बाहर इस वक़्त नज़र-बंदी का तमाशा हो रहा था। एक जगह एक नौजवान जो शायद नाबीना था, गांधी टोपी पहने हारमोनियम बजा कर गा रहा था। पास ही चादर पर इकन्नियाँ, दूनियाँ, टके, पैसे बिखरे पड़े थे। हर शख़्स ख़ुश तबई' के सभाओ में था। मेले का-सा समाँ बँधा हुआ था। बाज़ार में ख़ासी भीड़ थी जब कोई बड़ी-सी चमकती हुई मोटर पों-पों करती हुई गुज़रती तो लोग सामने से यूँ हट जाते जैसे समुंद्र में दख़ानी कश्ती के चलने से झाग छुट जाते हैं।

    फ़य्याज़ को अपने फ़्लैट के सामने जो कमरा ख़ाली नज़र आया था, अब उसमें चहल-पहल होने लगी थी। लोग आते-जाते थे और गाओ तकियों से लग कर बैठते जाते थे। यक-बारगी तबले पर थाप पड़ी और एक ग़ैरत-ए-नाहीद रू-पहली पश्वाज़ पहने छम से महफ़िल में कूदी और नृत करने लगी। हाथ-पाँव की चलत-फिरत इस ग़ज़ब की थी कि हर-हर अदा पर देखने वालों के दिल मसले जाते। तहसीन की सदाएँ बुलंद होतीं मगर रक़्क़ासा को अपने हुस्न और अपने कमाल पर ऐसा नाज़ था कि वो हर तौसीफ़ से बेनियाज़ मालूम होती थी।

    फ़य्याज़ एक हैरत के आलम में बालकोनी पर खड़ा ये माजरा देख रहा था कि उसे महसूस हुआ जैसे अँधेरे में कोई साया सा उसके पीछे कर खड़ा हो गया है। फ़य्याज़ कुछ लम्हे साकित-ओ-जामिद खड़ा रहा। साए ने भी कोई हरकत की। आख़िर उसने गर्दन फेर कर देखा तो वो उसकी बीवी असग़री थी।

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 358)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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