(1)
इस आलीशान कोठी में रहने वाले आलीशान ख़ानदान के इतने वारिस मारे गए, लेकिन किसी ने चूँ तक नहीं की। औरतों के दिल हैं या पत्थर। चाय की थड़ी लगाने वाले कालू राम ने डूंगर गोला को सुबह-सुबह एक ग्लास चाय देते हुए राज़-दाराना अंदाज़ में सरगोशी की।
हाँ भइया! घर के सारे मर्द मारे गए। बड़े दाता हकम का एक बेटा और मँझले दाता हाकिम के दो बेटे मुंबई के किसी बड़े कालेज में पढ़ते हैं, सो बच गए। डूंगर गोला ने जो, अब बूढ़ा हो गया था, खाँसते हुए ढेर सा बलग़म धूल भरी ज़मीन पर प्रेशर से थूकते हुए कहा।
अरे भइया, ये तो बताओ, दंगाइयों से उनकी कोई दुश्मनी थी क्या?
क्यों पूछ रहा है?
तुम नहीं जानते क्या, दंगों का मक़सद तो मुसलमानों को चुन-चुन कर मारना है। कालू राम के लहजे में ख़फ़ीफ़ सा दर्द था।
दुश्मनी नहीं थी भइया! चमचमाती दो बड़ी गाड़ियों में शह्र से दूर फ़ैक्ट्री से लौट रहे थे। सबके सब लम्बे-चौड़े, सुर्ख़-सफ़ेद, पठानों के धोके में मारे गए।
क्या टोले ने पैंट उतरवा कर नहीं देखा था। चेक तो किया ही होगा?
नहीं! सब कुछ जल्दी और धोके में हुआ। गाड़ियों में आग लगा दी थी। अध-जली लाशें जब बरहना होना शुरू हुईं, तब पता चला।
लाशें घर तक कैसे आईं!
वो टोले वाले ख़ुद छोड़ गए और कह दिया, भूल हो गई, इनका दाह संस्कार कर दो। कल से लाशें रखी हैं, आज राजस्थान से रिश्तेदार आएँगे, तब दाह संस्कार होगा।
पर कल से ख़ामोशी क्यों है? कोई रोना नहीं, इतने मर्दों की बेवाओं का तो अब तक दिल फट गया होता। कालू राम ने हैरत-ओ-इस्तिजाब से पूछा। डूंगर गोला उसका दोस्त था। दोनों बे-तकल्लुफ़ाना बातें किया करते थे।
अरे तू इन राजपूतों को नहीं जानता। इनकी औरतें मौत पर रोती नहीं हैं। चाहे वो अपना ही मर्द क्यों न हो। रोना आए भी तो ज़ब्त कर लेती हैं।
भला वो क्यों! रोते तो सभी हैं। सभी जन मानस हैं। फिर औरतें तो कमज़ोर दिल की होती हैं। सबसे ज़्यादा वही रोती-पीटती हैं।
(2)
हाँ, छोटी रानी साहिब को रोना आ रहा था, मगर बड़ी कुंवर रानी साहिबा ने उन्हें आँखें दिखाईं तो उन्होंने अपने मुँह में आँचल ठूँस लिया।
रोते क्यों नहीं?
पर्दे की सख़्त पाबंदी की वजह से। बाहर आवाज़ न जाए इसलिए।
लेकिन ये तो नया ज़माना है। सब तो बाहर घूमती हैं। पर्दा तो अब रहा नहीं।
हाँ, तू ठीक कह रहा है। डूंगर गोला ने उबासी लेते हुए कहना शुरू किया। मगर पर्दे से ज़्यादा एक बात और है, वो ये कि रोना राजपूत क़ौम के लिए अपनी आन-बान-शान के ख़िलाफ़ है।
क्यों ख़िलाफ़ है। कालू राम का तजस्सुस बढ़ता ही जा रहा था।
इनके यहाँ ऐसा होता आया है।
क्यों होता आया है। ये भी कोई बात हुई।
भई, रिवाज ही ऐसा है।
वही तो जानना चाहता हूँ। ये रिवाज आख़िर बना कैसे?
दर-अस्ल बात ये है कि रोना कमज़ोरी और कायरता की निशानी समझा जाता है और ये क़ौम हमेशा से बहादुर रही है या होने का दिखावा करती आई है। कमज़ोरी का मुज़ाहिरा करना इनकी शान को चोट पहुँचाता है। राजस्थान में ये रीत इस क़ौम में आम है। डूंगर गोला ने आलिमाना अंदाज़ में कालू राम को समझाया और स्टोर से माचिस की बुझी हुई तीली को जला कर मुँह में रखी बीड़ी को सुलगाया।
ओह! ये बात है, मगर ये तो मय्यत का मज़ाक़ उड़ाना हुआ।
अब कुछ भी समझ लो।
ज़रूरी तो नहीं सब ही पक्के दिल के हों।
हाँ ज़रूरी तो नहीं।
फिर अगर रोना चाहें तो?
बड़े बूढ़े उन्हें ऐसा नहीं करने देते। मुँह में कपड़ा ठूँस देते हैं।
ये तो ज़ुल्म है।
अब ज़ुल्म ही सही। रीति, रिवाज को तो निभाना ही पड़ता है। लोक-लाज भी कोई चीज़ है।
अब क्या होगा? कालू राम ने बड़ी फ़िक्र का मुज़ाहिरा किया।
(3)
जा रहा हूँ। कहीं गोली जात की औरतें मिल गईं तो बुला लाउँगा।
ये गोली जात क्या होती है। कालू राम ने दूसरे ग्राहक से ख़ाली ग्लास लेते हुए फिर सवाल ठोंका। अब डूंगर गोला झुँझला गया था। लहजे में तेज़ी लाते हुए बोला, अरे मैं भी तो उसी जात का हूँ। पर मेरी शादी नहीं हुई। मैंने की ही नहीं। वर्ना हमारी नस्ल ही इस रिवाज की तकमील करती चली आई है। इनके मरने पर हमारी ही औरतें बैन करती हैं और ख़ूब करती हैं। रोना नहीं भी आता तो कोशिश करके झूट-मूट ही सही वो दहाड़ें मार-मार कर रोती हैं, चिल्लाती हैं, बाल नोचती है, कपड़े खसोटती हैं। इस तरह रोने को पल्ला लेना कहते हैं और जितना ज़्यादा ता'स्सुर-कुन पल्ला लिया जाता है, राजपूत औरतों के मन को उतना ही संतोष पहुँचता है। वो ख़ुश होती हैं कि नमक का क़र्ज़ अदा कर दिया। बस इसीलिए मैंने शादी नहीं की। ये सब मुझको पसंद नहीं है। फिर राजपूत मर्द हमारी औरतों पर ग़लत नज़र डालने से भी नहीं चूकते। भइया! बड़ी बेबसी होती है। डूंगर गोला की तेज़ी और झुँझलाहट धीरे-धीरे ठंडी साँसों में तब्दील होती चली गई।
ये जात वाले क्या राजस्थान के हर शह्र में मिल जाते हैं?
नहीं ये जात तो ग़ुलाम प्रथा के तहत वजूद में आई। राजपूतों में लड़की की शादी पर दहेज़ में गोली गोला दिए जाते हैं। ये ज़िन्दगी-भर इनकी ग़ुलामी करते हैं, ख़िदमत करते हैं। फिर किसी की भी मौत हो, ये रोते हैं, मगर सिर्फ़ गोलीनें, गोले नहीं रोते। अब डूंगर गोला के चेहरे पर कालू राम के सवाल करने से कोफ़्त साफ़ नज़र आने लगी थी।
तुम्हारी नस्ल कैसे बढ़ती है?
इतना भी नहीं जानता। फिर बताऊँगा। बहुत देर हो गई, सूरज चढ़ आया, बड़ा काम है। बीड़ी के बच्चे ठूँट को डूंगर गोला ने फेंकते हुए कहा।
नहीं-नहीं! पहले मेरी बात का जवाब दे। ले, ये एक चाय और पी ले, फिर चले जाना। कालू राम ने दूसरे ग्राहक के लिए बनाई हुई चाय में से बची चाय को ग्लास में उँडेलते हुए डूंगर गोला से कुछ इस हमदर्दी और अपने-पन से कहा कि डूंगर न चाहते हुए भी ग्लास हाथ में ले कर बात पूरी करने लगा, सुन! ये लोग दहेज़ में हमें लाते हैं और हमारी भी आपस में शादी करवा देते हैं। अपने साथ रखते हैं। उसी तरह हमारी नस्ल सदियों से इनकी ख़िदमत-गुज़ारी करती चली आ रही है। मगर अब हमारी जात वालों ने ये काम छोड़ दिया है। अब राजस्थान में भी गोला गोली तक़रीबन ख़त्म हो गए हैं। उन्होंने भी अपने नाम के आगे शेख़ावत, झाला, राठौड़ और भाटी लगाना शुरू कर दिया है। जिसका आक़ा जो हुआ। उसने वैसा ही सर नेम लगा लिया और गोला गोली से पीछा छुड़ा लिया। अब रोने के लिए ये किसी भी ज़रूरत मंद को पैसे दे कर बुलवा लेते हैं और इस तरह 'पल्ला लेने' की रस्म पूरी करते हैं। अपनी बात को जल्दी से ख़त्म कर के, कालू राम को हैरत-ओ-इस्ते'जाब और तफ़क्कुरात के दायरे में क़ैद करके डूंगर गोला ने सायकल उठाई और बड़े-बड़े पैडल मार कर दूर बस्ती की तरफ़ आँखों से ओझल हो गया।
(4)
पूरा शह्र दो हिस्सों में बटा हुआ था। एक हिस्सा मरघट बना दिया गया था और दूसरा हिस्सा रंगीन और ऐश-ओ-इशरत में डूबा हुआ था। दूसरा हिस्सा, पहले हिस्से पर, इंसानियत की रुसवाई का मुज़ाहिरा बड़े फ़ख़्र से कर रहा था। बहुत ही मुनज़्ज़म तरीक़े से मुसलमानों का क़त्ल-ए आम किया जा रहा था। जिसमें सूबाई हुकूमत और पुलिस का पूरा-पूरा तआवुन था।
कम्प्यूट्राइज़ फ़ेहरिस्त को साथ ले चलने वाले दंगाई पहले एक ट्रक में भर कर मुश्तइल नारों के साथ मुस्लिम बस्ती का चक्कर लगाते, उसके बाद कई ट्रकों में ख़ाकी और भगवा रंग के कपड़े पहने, नौजवानों का झुंड आता है। जिनके पास फ़ौरन आग पकड़ने वाली अशिया, ख़तरनाक हथियार, भाले और त्रिशूल होते। ये पहले तो अमीर मुसलमानों के घरों को लूटते और फिर ट्रकों में लाद कर लाए गए गैस सिलिंडरों से मकानों में कुछ देर गैस छोड़ते और माचिस की जलती तीली फेंक कर मा' ख़ानदान सबको जला देते। औरतों की अस्मत-दरी खुले आम करते। बच्चों के सामने उनके बाप, चचा, दादा का बड़ी बे-दर्दी से क़त्ल करते, माँओं के सामने बच्चों को ज़िंदा आग में फेंक देते। यही नहीं बल्कि पेट में पल रहे नन्हे वुजूद को पेट से चीर कर निकालते और आग में झोंक देते, बच्चे और औरतें डरे-सहमे और ख़ौफ़-ज़दा हो जाते तो, ख़ूब हँसते। फिर उनके सामने नंगे हो जाते, नाचते और किसी भी औरत को, लड़की को पकड़ कर सबके सामने बलात्कार करते।
आज कई महीने गुज़र गए थे। शह्र में ये सब होते हुए। ऐसा लगता था इस शह्र का कोई मुहाफ़िज़ नहीं, कोई ख़ुदा नहीं, कोई राम नहीं, कोई रहीम नहीं। आधा शह्र सुलग रहा था, आधा उसे सुलगा रहा था। वहाँ इंसान तो क्या, हैवान भी नहीं था। बस खोखले जिस्म थे। जिनकी बरबरीयत के आगे हैवानियत भी हैरान थी। डूंगर गोला सायकल चलाते हुए शह्र के उन्हीं हालात पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करते हुए एक जली हुई तबाह बस्ती में पहुँचा। हो हक़! आदम न आदम ज़ात। बस सब कुछ जला हुआ, लुटा हुआ, उजड़ा हुआ, काला-काला बिखरा-बिखरा, वो घबरा कर ख़ौफ़-ज़दा हो कर वहाँ से उल्टे पाँव भागा। उसकी आँखों में ढेरों आँसू थे। अपनी इतनी उम्र में ऐसा मंज़र उसने कभी नहीं देखा था। हे भगवान! ये मेरे वतन को क्या हो गया है। उसने दिल ही दिल में सोच कर आसमान की जानिब देखा और बड़ी बे-दिली से पैडल मारते हुए सायकल चलाता रहा आख़िर-कार वो एक राहत शिविर में पहुँचा। जहाँ गंदगी, मच्छरों और बदबू का अंबार था और उससे भी ज़्यादा बू-बास वाले अध-नंगे, छोटे-छोटे, लुटे-लुटे इंसानी जिस्म सिर्फ़ एक कपड़े में लिपटी हुई जवानियाँ और पीली आँखों, लटकती खालों वाली वीरानियाँ।
डोंगर गोला ने सायकल गंदी नाली के बहते हुए कीचड़ के किनारे खड़ी की और चारों तरफ़ तजस्सुस से देखने लगा। कई बच्चों और आठ-दस औरतों ने उसे घेर लिया, क्या बात है, क्या चाहिए?
रोना होगा, बैन करना होगा, बदले में पैसे मिलेंगे। चलोगी मेरे साथ। एक हज़ार से कम किसी को नहीं दिलवाऊँगा।
(5)
औरतें ऐसे देखने लगीं जैसे वो किसी दूसरी दुनिया से आया हो लेकिन जब डूंगर गोला ने उन्हें सारा माजरा समझाया तो वो ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गईं कि शक-ओ-शुबे का अब कोई मुक़ाम उनके ज़हनों में नहीं था। अब उनका लुटता भी क्या, शौहर, इज़्ज़त, शोहरत, धन-दौलत, घर-बार सब कुछ तो ख़त्म हो चला था। बचा ही क्या था। ख़ौफ़-ओ-डर से वो आज़ाद हो गई थीं। अब तो सिर्फ़ उनको नज़र आ रहे थे अपने यतीम और अध नंगे और भूँक से तड़पते बच्चे, बीमार और बूढ़े माँ-बाप, उनकी दवा-दारू, और बहुत कुछ... और ऐसे में एक हज़ार की रक़म।
सिर्फ़ पाँच औरतें काफ़ी हैं।
राबिया तू चली जा...
नूरजहाँ तुझे भी जाना होगा... नहीं मैं भी जाऊँगी। मुझे इस वक़्त पैसों की ज़्यादा ज़रूरत है। कल से मेरा बच्चा बुख़ार में तप रहा है। किसी तरह से भी दवा का इंतिज़ाम करना है। मैमूना ने ज़िद करते हुए कहा।
अच्छा बाबा! तू चली जा... जा! देर न कर... और इस तरह आपस में फ़ैसला करके पाँच औरतें बड़े तजस्सुस और फ़िक्र के साथ गोला के पीछे-पीछे चल दीं। हर एक के दिल में सौ-सौ सवाल, वो सोच रही थी। आख़िर दूसरे के ग़म को, जिससे न कोई रिश्ता-नाता, इस शिद्दत से कैसे महसूस करें कि बैन करने लगें, ये कैसे मुमकिन होगा। मगर फिर रूपयों की मजबूरी उन्हें बराबर तक़वियत पहुँचाती रही... या ख़ुदा! आज हम पर ये कैसा वक़्त आ गया है, जो हाथ हमेशा देने के लिए उठते थे। आज लेने पर मजबूर हैं। वक़्त और हालात पल भर में किस तरह बदल जाएँ कुछ पता नहीं चलता। आख़िर कोई तो बताए हमारा क़ुसूर क्या था। क्यों हमें बरबाद किया गया, मज़हब के नाम पर, सियासत के नाम पर, फ़िरक़े के नाम पर... किस-किस के नाम पर। आख़िर कब तक लौटा जाता रहेगा... यूँ बरबाद किया जाता रहेगा... ये इंसान को क्या हो गया है... कुछ समझ में नहीं आता... तास्सुरात के हुजूम ने उनके लब-बस्ता कर दिए थे। पाँचों ने एक साथ उदास नज़रों से आसमान की जानिब देखा और एक-दूसरे की आँखों में पानी देख कर, आपस में किसी ने किसी का कँधा दबाया किसी ने हाथ हाथ में ले कर और किसी ने पीठ पर हाथ फेर कर एक-दूसरे को ढारस बँधाई। इसके बावजूद आँसू का एक क़तरा उनकी आँखों में नहीं था। वो तो सूख गए थे। आधा रास्ता इन्हीं तफ़क्कुरात और ग़म के सायों में गीर कर तय हो गया।
जल्दी चलो... जल्दी-जल्दी... सर पे आँचल डालो, मुँह छुपाओ। डूंगर गोला के लहजे में ढेरों हमदर्दी थी।
ये लो! सबने ऐसा ही क्या।
कोठी में जहाँ तुम्हें बैठ कर रोना है वहाँ तक मैं तुम्हें पहुँचा दूंगा। बस ये समझ लो, ये इस घर की रीत है। बाक़ी से तुम्हें कुछ ग़रज़ नहीं। औरतें डूंगर की हिदायात चुप-चाप सुनती रहीं और पीछे-पीछे चलती रहीं।
कोठी में गहमा-गहमी बढ़ गई थी। तीनों कुँवर मुंबई से आ गए थे। दीगर रिश्तेदार भी जोधपुर से आ गए थे। डूंगर उस घर का पुराना नौकर था। हवेली के अदब-ओ-आदाब जानता था। वो आगे-आगे हुआ और पोल से दरी-ख़ाना (मर्दाना) क्रॉस करके ज़नाने तक पहुँचते हुए उसने औरतों को 'पल्ला लेने' की हिदायत दी। औरतें पहले तो झिजकीं, फिर कोई चारा न देख कर ज़नान-ख़ाने में जाते हुए घूँघट करके रोने की कोशिश करने लगीं। उन औरतों को देख कर बड़ी कुंवार रानी साहिबा का माथा ठनका। बल पड़ गए। आती थीं तो जाती कहा थीं, फ़ौरन उन्हें और डूंगर को बुलवा भेजा। वो आया। कहा डूंगर ये किसे उठा लाया। पूरे शह्र में यही मुसलमान औरतें तुझे दिखाई दीं। कुछ तो सोचा होता, क्या तेरी मती मारी गई थी।
(6)
हुकम! सारे शह्र में कर्फ़्यू है। ज़्यादा दूर न जा सका। पास के शिविर से इन्हें ले आया। मजबूरी थी, हमारी भी, इनकी भी। हुज़ूर! माई बाप। इनसे काम चला लीजिए। डूंगर गोला ने कमर को ख़म करते हुए दोनों हाथ जोड़ कर इस बे-बसी से कहा कि बड़ी कुँवर रानी साहिब लाजवाब हो गईं और मौक़े की नज़ाकत को महसूस करके, जो है उसे ग़नीमत जानो, की तर्ज़ पर जिस तेज़ी से उठीं थीं, उतनी ही नर्मी और आजिज़ी से उल्टे पाँव अपना स्थान लिया। कुछ ख़्वातीन से उनकी आँखें मिलीं। वो सवालिया निशान बनी थीं। मगर बड़ी कुँवर रानी साहब ने जल्दी से उनसे नज़रें बचाते हुए मुस्लिम ख़्वातीन पर अपनी तवज्जो मर्कूज़ कर दी।
औरतें पल्ला ले रही थीं और घर की छ: जवान बेवाएँ ख़ामोशी से घुट-घुट कर आँसू रोकने की नाकाम कोशिश में लगी थीं। घर की बड़ी-बूढ़ी और रिश्तेदारों ने कलाई से कुहनियों और कुहनियों से बाज़ुओं तक पहने उनके चूड़े उतारना शुरू कर दिए। किसी ने हथ-फूल उतारे, तो किसी ने पग-पान, तो किसी ने जोड़। बड़ी मौसी ने छोटी रानी साहिब के गले का बड़ा हार आड़ उतारा तो बहुत कुछ सामने आ गया। कुरती का गला निहायत बड़ा था। बड़ी बूढ़ियों ने उसे महीन आँचल से ढकने की कोशिश भी की, मगर नाकाम रहीं। सब कुछ छलक आने को बेताब। क्या छाती, क्या ग़ुबार... इधर ये रस्में चल रही थीं। और उधर... वो पाँच औरतें...!
शुरू में रोना मस्नूई रहा, लेकिन फिर किसी को अपना बाप याद आ गया, किसी को शौहर, किसी को जवान भाई तो किसी को मासूम औलाद। किसी को मजबूरी पर रोना आया तो किसी को बच्चों की भूक पर... उनकी यतीमी पर... उनके मुस्तक़बिल पर... हालात पर, सानिहात पर, क़ौम पर, इंसान पर... और न जाने किस-किस पर... एक कोहराम मच गया और यही तो चाहिए था। पल्ले से सब मुत्मइन नज़र आ रहे थे, मगर दो घंटे मुसलसल पल्ला लेने के बाद भी कोहराम था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। घर वाले दंग थे कि इतना इज़हार-ए-अफ़सोस तो उनके ख़ानदान में पहले कभी ज़ाहिर नहीं किया गया। वफ़ा-शेआर गोलियों ने भी नहीं! ... आख़िर ब-मुश्किल रिश्तेदारों ने आ कर इन 'गोलियों' को चुप कराया। बर्फ़ का इंतिज़ाम कहाँ से होता चुनाँचे लाशों में से ता'फ़्फ़ुन उठना शुरू हो चुकी थी। इसलिए जैसे-तैसे पल्ले की रस्म को ख़त्म करके एक-एक हज़ार रूपये औरतों को दे कर जाने के लिए कह दिया गया।
सूजी हुई आँखों, बिखरे बालों और बे-तरतीब आँचलों को सँभालती हुई राबिया, नूरजहाँ, मैमूना, शाकिरा और ज़कीया कोठी से बाहर आ कर अपने शोर की तरफ़ निढाल क़दमों से रवाना हुएँ।
(7)
अभी दूसरे मोड़ पर ही पहुँची थीं कि... सूजी हुई आँखें, उन्हें... ख़ुमार आलूदलगीं... बिखरे बाल, काली घटाएँ और बे-तरतीब आँचल... हवा की ठंडक और वो टोला, नुक्कड़ पर एक नाटक खेलने लगा। सीन बोलने लगा। फ़िज़ा हमवार तो थी ही, रवाँ भी हो गई... किरदार स्टेज पर नुमूदार होने लगे। राबिया, मैमूना, ज़कीया... उबलती आँखें... नोचे खसोटे बाल... तार-तार आँचल... टोले वाले... भगवा वस्त्र... त्रिशूल... भाले... और करारे नोट... और उस नाटक को देखने वाले सामईन... अभी-अभी नुक्कड़ के दूसरे छोर पर देवी के मंदिर से पूजा करके लौटी आठ-दस ख़वातीन... हाथ में पूजा की थाली लिए, और उसमें देवी माँ का प्रसाद लिए पुर-असरार निगाहों से नुक्कड़ नाटक देखने में मह्व थीं... सारा मंज़र देख कर वो ख़ुशी और जोश से भर जाती हैं और जय माता दी के नारे और देवी के भजन ज़ोर-ज़ोर से गाने लगती हैं। आवाज़ ऐसी कि जैसे शोला सा लपक रहा हो... और नाटक, स्टेज, किरदार, प्लॉट और सामे' के दरमियान से... औरत... मर्द और इंसान... सब ग़ायब हो गए थे। बस खोखले जिस्म, बद-किरदारी की मिसाल बन कर नंगा नाच, नाच रहे हैं। सामईन औरतें जिनकी मोहब्बत, वफ़ा, त्याग, पैसा, करुणा और ममता... सब ख़ुसूसियतें उनके जिस्म से जुदा हो कर आसमान में एक दायरा बना कर रक़्स कर रही हैं और ख़ुसूसियतों को जकड़ रखा है, बहुत-सी देवी माँओं ने, लक्ष्मी माँ ने, सरस्वती माँ ने, दुर्गा माँ ने और न जाने कितनी माँओं ने...!
उन तमाम देवियों ने इन सामईन ख़्वातीन की रूहों को, उनकी ख़ुसूसियतों को ख़ला में जकड़ कर एक हल्क़ा ता'मीर कर लिया था और खोखले बदन, खोखले जिस्म... बे-हिस, जज़्बात से आरी, नफ़रत-ओ-हिक़ारत और बरबरीयत का मुज़ाहिरा इस वहशी-पन से कर रहे थे कि वहशियों और दरिंदों की आत्मा भी काँप जाए... नुक्कड़ नाटक आधे घंटे में तमाम हो गया। और तमाम हुईं... सूजी हुई आँखें, तमाम हुए बे-तरतीब बाल और तमाम हुआ उनका आँचल...!
अब इन आँचलों के लिए पल्ला लेने वाली वहाँ कोई गोली नहीं थी।
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