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मैं और ज़मीन

ज़काउर्रहमान

मैं और ज़मीन

ज़काउर्रहमान

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    अलिफ़ आग़ाज़ है और अलिफ़ हमेशा मुश्किल होता है। ज़बान के अथाह ज़ख़ीरे से वो पहला और रख़्शां हर्फ़ चुनना जो क़र्न बा क़र्न चमकता रहे, कोई आसान बात नहीं और मुबर्रा है शक से ये हक़ीक़त कि तन्हा इन्सान के हर नुत्क़ का कुल हासिल पहला और रख़्शां हर्फ़ है। हर ख़्वाब और हर सत्य और हर क़ोतीह और हर उसूलिया और हर कहानी और हर ख़्वाब एक ऐसी ज़बान का हर्फ़ है जो अब तक तर्जुमा नहीं हो सकी। ये बे कराँ रातों की ख़ामोशी दानाई की ज़बान है और अबदियत की बे-क़ायदा बे-क़ानून ज़बान है... ज़मीन, महदूद वसीअ-ओ-अरीज़ है और ज़मीन के साथ सब चीज़ें महदूद वसीअ-ओ-अरीज़ हैं, आसमान शिकार इमारत भी और तकब्बुर शिआर आदमी भी और घास की ख़ाकसार पत्ती भी। ज़ेह्न और रूह इजाज़त दें तो आँख हर शय को कई गुना बड़ा कर के देखे और ज़ेह्न वक़्त को तबाह करने की क़ुव्वत रखता है और ज़ेह्न मौत का भाई है और याद रखो ज़िंदगी का भाई भी... और उन सबसे ज़्यादा जो वसीअ-ओ-अरीज़ है वो अना है। इन्सानियत का जर्सूमा जिससे कायनात का तअय्युन हुआ और जन्नत-ओ-जहन्नुम को नाम मिले और ज़मीन अपने मदार पर क़ायम हुई और इन्सान का चेहरा पहचाना गया, मेरा चेहरा और तुम्हारा चेहरा और तुम्हारी आँखें और मेरी आँखें...

    मैं एक बूढ़े शहर में रहने वाला नौजवान आदमी हूँ। अभी चंद लम्हे पेश्तर, सुब्ह का झरना रात की सिल चीर कर फूटा है और उफ़ुक़ उफ़ुक़ फैल गया है और मैं अपनी आँखों में शब ज़िंदादारी का ख़ुमार लिये अपने हुज्रा शाह मुक़ीम में खड़ा हूँ और हुजरे शाह मुक़ीम की इस लिखित बैठक के क़रीब खड़ा हूँ जिस पर खुरदुरे पीले काग़ज़ों का एक ढेर पड़ा है। मेरी इस्तिताअत यही खुरदुरे पीते सस्ते काग़ज़ हैं और ये सब काग़ज़ ख़ाली हैं जिस तरह मैं पैदाइश से पहले ज़िंदगी के लिए ख़ाली था और जिस तरह मौत के बाद भी ज़िंदगी के लिए ख़ाली हो जाऊँगा। इन काग़ज़ों पर अभी तक ज़बान नहीं लिखी गई और हर्फ़ नहीं उभारे गए और मैं कि एक जवाँ साल लिखतकार हूँ या यूं कह लो कि एक जवाँ साल ख़ुदा हूँ, इन काग़ज़ों पर मौत और ज़िंदगी लिखना चाहता हूँ, अपनी लिखत का आग़ाज़ करना चाहता हूँ। अपनी आइन्दा मौत ज़िंदगी लिखत का पहला रख़शां हर्फ़ लिखना चाहता हूँ।... आज हफ़्ता है और दिसंबर की चौबीसवीं तारीख़। साहिब-ए-वुजूद होना और अभी तक साहिब वुजूद रहना इतना अच्छा है कि बे-इख़्तियार हम्द सना करने को जी चाहता है, मालूम और नामालूम कायनात के चप्पे चप्पे पर ख़ुद अपने सामने सज्दा कुनां होने को जी चाहता है।

    मैं एक बूढ़ा आदमी हूँ और मैं कई गलियों से गुज़रा हूँ और मैंने कई शहर देखे हैं और मैं रातों और दिनों के कई राज़ जानता हूँ और पुर असरार फ़रिश्तों के कई इसरार मुझ पर आइना हैं और मैंने फ़लकुल अफ़्लाक की लौह-ए-महफ़ूज़ कई बार पढ़ी है और मैंने बाग़बानी-ए-सहरा के क़वानीन मुरत्तिब किए हैं और अब घूम फिर कर अपने हुजरे शाह मुक़ीम में अपने पास गया हूँ और इस छोटे से हुजरे शाह मुक़ीम की दीवार पर मेरे मरहूम बाप की तस्वीर आवेज़ां है और मैं ज़मीन से उसका चेहरा और उसकी आँखें लेकर उगा हूँ और अपनी ज़बान में वो कुछ लिख रहा हूँ जो कुछ वो अपनी ज़बान में लिखता और हम दोनों एक ही हैं... बस सिर्फ़ इतना फ़र्क़ है कि एक चेहरा ज़िंदगी देखता हो और दूसरा चेहरा मौत की किताब पर झुका हुआ। क्या तुम बता सकते हो कि ज़िंदगी के सहीफ़े और मौत की किताब में कितना और क्या फ़र्क़ है?

    मैं शदीद कर्ब और इज़्तिराब की कपकपाहट में हूँ कि ये लम्हा मेरे लिए बहुत अज़ीम अहमियत रखता है और इसलिए सब के लिए बहुत अज़ीम अहमियत रखता है। ये वो लम्हा है कि मैं ख़ाली काग़ज़ पर ज़बान लिखने वाला हूँ और अपनी ज़बान लिखने वाला हूँ और मुझ पर पहले आदम का तप-ए-लरज़ा तारी है। मुझ पर वो बोझ रखा गया है जो फ़रिश्तों ने उठाने की कोशिश की तो उनमें से एक नफ़ी की ख़ारदार अबा पहनने पर मजबूर हुआ और दूसरे मारे ख़ौफ़ के सज्दे में गिर गए और ये वो बोझ है जिसको उठाने से पहाड़ माज़रत ख़्वाह हुए... मैं कपकपाहट में हूँ। दूर कहीं घंटियाँ मुसलसल गुनगुना रही हैं। काश कोई होता कि क़दीम किताबों के हवाले से मेरी कपकपाहट की तस्दीक़ करता और जान लो कि ये कपकपा डालने वाला बोझ, पहला इस्म जानने का बोझ है और पहला हर्फ़ लिखने का बोझ है और मैं पहला हर्फ़-ए-ग़लत नहीं लिखना चाहता और मैं अपनी ज़बान के साथ अय्यारी नहीं करना चाहता, चूँकि अपनी ज़बान के साथ अय्यारी करना अपने ज़मीर के साथ और अपने शुऊर के साथ अय्यारी करना है... मैं इस ख़ौफ़ बोझ के नीचे काँप रहा हूँ और ख़ाइफ़ हूँ... मैं ज़िंदगी में कभी अय्यारी नहीं कर सका और अब जबकि मैं एक ऐसी मेहनत के सामने खड़ा हूँ जो ख़ुद ज़िंदगी से अज़ीमतर है तो मैं सच के सामने से कैसे हट जाऊं... चुनांचे इज्ज़ाना के इस बरतर लम्हे में किसी क़ीमत पर भी में अपना किरदार ज़ाए नहीं करूँगा कि किरदार का ज़ियाँ झूटे हर्फ़ लिखवाता है।

    लोग मुझे कहानीकार कहते हैं, जैसे मुझसे पहले वालों को काहिन कहा गया और शायर कहा गया, मैं पनाह मांगता हूँ कहानीकार होने से और काहिन होने से और वादियों में सरगर्दां फिरने वाले शायर होने से। मैं तो एक बे-दावा शख़्स हूँ, लेकिन मेरी बग़ल में एक किताब है और इस किताब में एक लिखत है... ज़मीन पर मुझ इन्सान की लिखत, सादा सी लिखत। ये सादा सी लिखत मैं अपने उस्लूब में लिखना-सुनाना चाहता हूँ और आमी ज़बान के तमाम शो'बदे और मानवी सर्फ़-ओ-नहू के तमाम उसूल भूल जाना चाहता हूँ।

    मैं कुछ कहना चाहता हूँ और गुज़रे हुए नबियों की तरह नहीं बोलना चाहता। मैं चाहता हूँ कि गुज़रे हुए नबियों का बोलना अब क़दीम और ताक़ पर रख दिया जाए और अब मेरा बोलना सुना जाए इसलिए कि मैं सत्य क़ोतीह बोलने वाला हूँ और लम्हाती कुल्लियों पर यक़ीन नहीं रखता। मुझे सिर्फ़ मुझे इन्सान से दिलचस्पी है। मैं ज़िंदगी से मुहब्बत करता हूँ और मौत के सामने आजिज़ नहीं हूँ। मैं मौत की आजिज़ी क्यों इख़्तियार करूँ कि सर ता सर जिस्मानी और ग़ैर हक़ीक़ी है। क्या ये सच नहीं कि मेरा बाप अब तक ज़िंदा है और मैं भी ज़िंदा हूँ और हम दोनों ज़िंदा हैं और मेरे सांस में इन्सान का पूरा माज़ी ज़िंदा है और मैं तशद्दुद से नफ़रत करता हूँ और उनसे जो तशद्दुद फैलाते हैं और तशद्दुद पर अमल करते हैं। एक ज़िंदा इन्सान की छंगुलिया पर लगाई जाने वाली ख़राश को मैं इन्सान की तब्ई मौत से ज़्यादा तबाहकुन और ज़्यादा ख़ौफ़नाक समझता रहूँगा और जब तक जंगों में लाखों इन्सानों को मौत की ईज़ा दी जाती रहेगी मेरा ग़म दीवानगी की हदें छूता रहेगा और मैं ग़ुस्से से नामर्द होता रहूँगा। मेरा वाहिद हथियार ज़बान है लेकिन ये जानने के बावजूद कि ये हथियार हर हथियार से ज़्यादा कारी है, मैं उदास हूँ, चूँकि मुझे मालूम है कि मैं तन्हा तबाही के इस शोले को नाबूद नहीं कर सकता जो मज़हबियों ने और साईंसियों ने और फ़लसफ़ियों ने इन्सान के ज़ेह्न में भड़का रखा है और मैं सिर्फ़ एक लिखतकार हूँ और अपनी इस लिखत में इन्सान को उसके वक़ार और मुलाइमत पर बहाल करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं इन्सान को उसके वुजूद पर बहाल करना चाहता हूँ और उसको इब्लीस जैसे हुजूम-ए-शोर से निकाल कर रूह बदन की ख़ुदा जैसी ख़ामोशी और सुकून में ले जाना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि इन्सान तारीख़ के उफ़ूनत भरे मलबे से उठे और अपनी रूह के पुरसुकून ख़्वाब में चला जाये कि यही ख़्वाब उस की सच्ची तारीख़ है। इन्सान का घर उसका अपना वुजूद है। रेवड़ की सूरत रहना सिर्फ़ मवेशियों के लिए तजवीज़ हुआ था। फिर इन्सान क्यों मवेशियों की तरह रहने लगा। जब एक इन्सान की रूह उससे छीन ली जाती है और उसको हुजूम का एक फ़र्द बना दिया जाता है तो ख़ुदा का बदन दुखने लगता है।

    और मैं आमीपन के ख़िलाफ़ हूँ और औसत दर्जे के ख़िलाफ़ हूँ। अगर कोई आम दर्जे या औसत दर्जे का अक़लमन्द है तो मैं उसकी इज़्ज़त नहीं कर सकता, लेकिन एक बरतर दर्जे के पागल से मैं हमेशा मुहब्बत करूँगा। मेरी अब तक की पूरी ज़िंदगी रिवायात का और आदाब का मज़ाक़ उड़ाते गुज़री है और मैं ज़िंदगी भर क़वानीन पर हँसता रहा हूँ। इन्सान जैसी हैरतनाक शय पर कोई क़ानून कैसे लागू हो सकता है? हर तर्ज़ की ज़िंदगी एक नया तज़ाद है और एक नई सदाक़त है और एक नया मोजिज़ा है। मैं अपने इस हक़ से कभी दस्त-बर्दार नहीं हूँगा कि मैं अपनी तर्दीद कर सकता हूँ। हर इन्सान को अपनी तर्दीद करने का हक़ हासिल है। मसला मैंने कभी कहीं कहा था कि मैं सब मशीनों को काठ कबाड़ समझता हूँ लेकिन क़लम भी तो एक मशीन है और मैं क़लम की इबादत करता हूँ और अब मैं इस लिखत की तरफ़ आता हूँ, जो मैं लिखने चला था। ये इन्सान की लिखत है और मेरी लिखत है और मेरे क़लम की लिखत है और शायद एक मामूली और ग़ैर अहम लिखत है, अगर आपको पुर-लुत्फ़ और दिलचस्प कहानियां पढ़नी हैं तो किसी भी रिसाले में पढ़ सकते हैं। ये रिसाले मुहब्बत की और नफ़रत की और तशद्दुद की और ख़ुशियों की और मायूसियों की और कैफ़ मस्ती की कहानियों से भरे पड़े हैं। उन कहानियों में आपको प्लाट और किरदार और माहौल और मूड और उस्लूब भी मिलेगा और इसके इलावा वो सब कुछ भी जो एक मन मोहिनी कहानी के लिए ज़रूरी होता है, इससे आप ये समझिए कि मैं कहानियों की तौहीन करना चाहता हूँ और अपनी कहानी नहीं सुनाना चाहता और आपसे कोई चालाकी करना चाहता हूँ।

    मैं जिन कहानियों की तौहीन करना चाहता हूँ वो कहानियां और वो मर्द और वो औरतें और वह बच्चे जो उनको पढ़ते हैं हमारे अह्द की सबसे दर्दनाक दस्तावेज़ें हैं, जैसी सोक़ियाना तफ़रीही फिल्में और वो लोग जो अपनी ज़िंदगियों का ग़ालिब हिस्सा ये फिल्में देखने में गुज़ार देते हैं। मैं भी फिल्में देखने जाता हूँ और फ़िल्म बीनों के हुजूम से जज़्बात का जो सैलाब उबल रहा होता है उसको देख कर बहुत आज़ुर्दा होता हूँ। ख़ुसूसन न्यूज़ रीलें देख कर मेरी आँखों में आँसू जाते हैं। सैलाब के और उल्टी हुई ट्रेनों के और जंगों के और सियासतदानों की फ़रेब आलूद तक़रीरों के मंज़र में रोये बग़ैर नहीं देख सकता। लिहाज़ा मेरी लिखतों और उन कहानियों के फ़र्क़ से ग़लत मतलब निकालिये। मैं कोई तंज़निगार नहीं हूँ और फ़िल हक़ीक़त तंज़ करने के लिए कुछ है भी नहीं। हर तसना और हर फ़रेब अपना तंज़ आप है। मैं सिर्फ ये बताना चाहता हूँ कि मैं एक लिखित कार हूँ। मैं हमेशा लिखता रहता हूँ और लिखता चला जाता हूँ, जैसे मलिक के तमाम रसाइल-ओ-जराइद मेरी लिखतीं छापने के लिए बेचैन हूँ और मुदीर इन गिरामी मेरी तहरीरों के बड़े बड़े मुआवज़े पेश करने के लिए हर लम्हा तैयार रहते हूँ। हालाँकि मैं जो अपने हुजरे शाह मुक़ीम में बैठा सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा हूँ और अपनी अपनी ये लिखत लिख रहा हूँ ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ कि इस बाज़ार में जहां मुदीर अपने अपने रसाइल-ओ-जराइद की दुकानें सजाये बैठे हैं, मेरी लिखित अपनी हमअसर कहानियों के मुक़ाबले में एक अटी क़ीमत भी ना पाएगी। तो मैं एक लिखत कार अपने क़लम की इबादत क्यों करता हूँ और इस इबादत का मुझे क्या अज्र मिलता है और लिखतीं लिख कर मुझे कौनसी शांति मिलती है?

    इस से कोई ये ना समझे कि मैं मज़लूम बन रहा हूँ। मैं ना मज़लूम हूँ और ना जज़्बाती और ना शहीद में ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ कि मलिक का कौनसा जरीदा मंडी के किस गिरोह के तक़ाज़े पूरे करता है। मैं ये सब जरीदे पढ़ता हूँ और मुझे मालूम है कि किस तर्ज़ की कहानियाँ लिख कर ख़ुद को बड़ा कहानी-कार बनाया जाता है। ये इसरार-ओ-रुमूज़ जानने के बावजूद में ऐसी लिखतीं लिखता हूँ जो शाज़-ओ-नादिर ही शाये होती हैं। क्या उस की वजह ये है कि मैं वो कहानियां नहीं लिख सकता जो तलब-ओ-रसद के तक़ाज़े पूरे करती हूँ? नहीं मेरे भाई नहीं। मैं हर तरह की कहानी लिख सकता हूँ लेकिन मुझे अपनी शनाख़्त बहुत अज़ीज़ है और में अपनी इस शनाख़्त को महफ़ूज़ रखना चाहता हूँ और अगर उस के लिए ये ज़रूरी ठहरे कि मेरिल लिखित छप ना सके तो भी मुतमइन हूँ। मैं शोहरत पर इस तरह यक़ीं नहीं रखता जिस तरह उमूमन रखा जाता है।

    मगर जान लो कि मुझ ऐसा लिखित कार होने के लिए आख़िरी दर्जे का मुसाहिब-ए-अना और मज़हबी और सोशलिस्ट बैयकवक़त होना ज़रूरी है। मुझ लिखित कार होने के लिए इतनी क़ुव्वत चाहिए कि ख़ुदा पहले तो हैरान हो और फिर ख़ुद भी एक छोटा सा मरकज़ा बन कर इस क़ुव्वत में शामिल हो जाये और जान लो के लम्हे और साल और सदियाँ वक़्त के ला-इन्तहा में पता नहीं कब तक सरगर्दां रहती हैं। तब मुझ ऐसा लिखत कार इन्सानी वुजूद की गिरफ़्त में आता है। इसलिए मैं हर्फ़ लिखने की सलाहियत रखने वाले हर नौजवान को इस तरह लिखने का मश्वरा नहीं देता जिस तरह मैं लिखता हूँ। मैं शुऊरी अदीब नहीं हूँ और मैंने जब से लिखना शुरू किया है, लिखने के उसूलों से बग़ावत करता चला आया हूँ। मैं तो सिर्फ एक बूढ़ा और नौजवान लिखित कार हूँ और इसलिए लिखता हूँ कि लिखना ही सबसे ज़्यादा मुहज़्ज़ब और नेक अमल है।

    और क्या तुम जानते हो कि मेरे ज़हन में हैयत और उस्लूब के अलग अलग ख़ाने मौजूद नहीं हैं? मैं ऐसे किसी उस्लूब और हैयत को नहीं जानता जो सिर्फ नज़्म के लिए मख़्सूस हो और जिसमें सिर्फ कहानी लिखी जा सकती हो और जिस पर सिर्फ़ नावल पूरा उतरता हो। मेरी आश्नाई सिर्फ़ एक उस्लूब और सिर्फ़ एक हैयत से है और इस का नाम इन्सान है। बाक़ी सब फ़रेब है और मैं अपनी इस लिखत में उस इन्सान की लिखत लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, जो मैं हूँ और इस ज़मीन की लिखत जो मुझे उठाए ख़ला में रक़्साँ है और जिसको मैं उठाए लाइन्तहा के सफ़र में हूँ।

    मेरी ये तमाम बातें शायद बेमहल और वक़्त का ज़ियाँ समझी जाएं लेकिन मैं ऐसा नहीं समझता। इसलिए कि मुझे कोई जल्दी नहीं है। मैं अगर दिन-भर में सिर्फ़ सौ गज़ का फ़ासिला तै करना चाहता हूँ तो सौ गज़ का फ़ासिला ही तै करूँगा। अगर कोई ये चाहता है कि मैं चंद लंबी लंबी क़ुलांचें भर कर ये फ़ासिला एक मिनट में तै करलूं तो उस को चाहिए कि मेरी ये लिखत उठा कर एक तरफ़ फेंक दे और कोई तफ़रीही तहरीर पढ़ना शुरू कर दे। मैंने किसी को मजबूर नहीं किया कि वो मेरी लिखत पढ़े या सुने और जो पढ़ रहे हैं या सुन रहे हैं उन्हें मैंने कोई सिला देने का वाअदा नहीं किया। मैं तो अपने हुजरे शाह मुक़ीम में बैठा अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ और क़लम की इबादत कर रहा हूँ। मेरे सामने मेरा बाप मौजूद है और वो कई साल पहले इस ज़मीन पर ज़िंदा रहना तर्क कर चुका है और मैं हर दो या तीन मिनट बाद उस के उदास चेहरे की तरफ़ देख लेता हूँ और उस के चेहरे को देखना आइने में देखना है और आइने में हर शख़्स हमेशा ख़ुद को देखता है। आज मेरी उम्र उतनी ही है जितनी उस वक़्त मेरे बाप की थी, जब उसने अपनी ये तस्वीर खिंचवाई थी। क़लम के बाद अगर मैंने किसी को चाहा है तो वो मेरा बाप है। मैं उसे सारी ज़िंदगी चाहता रहा हूँ। जब हम दोनों इस ज़मीन पर ज़िंदा थे तो मैं इतना कम उम्र था कि उस से एक हर्फ़ का तबादला भी शऊरी तौर पर नहीं कर सकता था। लेकिन जब से शऊर में आया हूँ उस से तवील और ख़ामोश गुफ़्तुगूएँ करता रहता हूँ। मैं उस से कहता हूँ: एक रईस घराने के उदास बाग़ी! तेरी ज़िंदगी कितनी अच्छी और कितनी क़ाबिल रश्क थी! और वो मुलाइम से जवाब देता है: हाँ मेरे बेटे! लेकिन अजुज़ इख़्तियार कर और ख़ुदा की जुस्तजू कर!

    मेरा बाप भी एक लेखक था लेकिन उस की कभी कोई तहरीर शाय नहीं हुई। उस के तमाम अज़ीम मुसव्वदे ख़तों और यादाशतों की सूरत में मेरे पास महफ़ूज़ हैं। अब इन मुसौवदों की रौशनी इतनी मद्धम हो चुकी है कि उनको पढ़ना मुम्किन नहीं रहा। लेकिन मैं साल में दो तीन मर्तबा ये मुसव्वदे निकालता हूँ और उनको घंटों देखता रहता हूँ और उनकी पुरानी ख़ुशबू सूँघता रहता हूँ। मेरा ईमान है कि शाये ना होने के बावजूद ये मुसव्वदे अदब में इज़ाफ़ा हैं और मुझे ख़ुशी है कि मेरी तरह मेरा बाप भी बाग़ी था और उदास था। इस की उदासियां उस की यादाशतों के वरक़-वरक़ पर बिखरी पड़ी हैं। एक यादाश्त में उसने लिखा है: मैं रॉयल इंडियन नेवी में कमांडर हूँ और आजकल बंबई में हूँ। इस शहर में मुझ पर हमेशा दो कैफ़ियत तारी रहती हैं। एक कैफ़ियत उदासी की कैफ़ियत है और दूसरी कैफ़ियत भी उदासी की कैफ़ियत है। दरअस्ल वो बंबई में तन्हा था और एक ऐसी मुलाज़मत कर रहा था जिसमें वो अपने आपको तन्हा महसूस करता था। वो अंग्रेज़ी का आलम था और शेक्सपियर और बाइनर उस को अज़बर थे और बद-क़िस्मती से वो इन्क़िलाबी भी था। चुनांचे उसने रॉयल इंडियन नेवी में बग़ावत की ख़ुश्बू बिखेरनी शुरू कर दी और कुछ ही अर्से के बाद बग़ावत की ये ख़ुशबू शोला बन कर भड़क उठी और उसे गिरफ़्तार करके सज़ा-ए-मौत सुना दी गई। वो फ़रार हो कर हारूनाबाद चला गया जहां उस के बाप की ज़रई ज़मीनें थीं। हारूनाबाद के जुनूब में एक छोटा सा गांव है। वो इसी गांव में रहता था। इस अर्से में उसने जो याद-दाश्तें लिखें उनमें धूप का और वुसअत का और गंदुम की ख़ुश्बू का और गन्ने के रस का और अंगूर के गुच्छों का और माल्टे की कलियों का ज़िक्र है।और यूं वो ज़मींदार बन गया लेकिन वो एक नाकाम ज़मींदार था। वो किताबों का आदमी था और इल्म का जूया था और उस को बेहतरीन लिबास पसंद था और वो आराम-ओ-आसाइश से मोहब्बत करता था और मेरी तरह उस को मशीनों से नफ़रत थी।

    जो साल गुज़र गया, उस में कई माह ऐसे गुज़रे हैं कि मैं अपने बाप से और ज़मीन से और क़लम से जुदा रहा और मैं कुछ भी नहीं रहा और अगर कुछ रहा तो एक ग़ैर ज़िंदा सांस लेता इन्सान रहा और कायनात के डरावने ख़्वाब में डोलता हुआ एक ग़ैर-नुमायां साया रहा और जब ख़ुदा ने मुझमें अपना सांस उतारा था तो उस सांस की ख़ुश्बू का पहला एलान ये था कि ज़िंदा इन्सानों के लिए मुर्दा और बेनाम ज़िंदा रहना कुफ़्र की बात है और तज़्लील की बात है और मफ़क़ूद-उल-ख़बर होने की बात है। यही वजह है कि आज फिर मैंने अपने बाप का दामन थाम लिया है और अपने पांव ज़मीन पर लटका लिए हैं और क़लमलिये में रौशनाई भर ली है और अपने क़रीब खुरदुरे काग़ज़ों का ढेर रख लिया है और अपने हुजरे शाह मुक़ीम में बैठ गया हूँ और हुज्रा शाह मुक़ीम तंबाकू के धोईं से भर गया है और मैं कुक्नुस की तरह अपनी राख से दुबारा पैदा हो गया हूँ। सुनो कि मैं ज़िंदगी से मुहब्बत करता हूँ और ज़िंदा हवास से मोहब्बत करता हूँ और काम करते हुए दिमाग़ों से मुहब्बत करता हूँ और यक़ीन रखता हूँ कि ज़िंदगी हर उस इन्सान से तख़्लीक़ पाती है जिसके सीने में ख़ुदा का सांस हो और हर इन्सान अपना शुऊर ख़ुद तख़्लीक़ करता है और अपने अंदाज़े और अपने क़ियास ख़ुद बनाता है, इसलिए कि शऊर और अंदाज़े और क़ियास बिलज़ात मौजूद नहीं होते। सिर्फ़ कनफ़्यूज़न और गुनाह और बदसूरती बिलज़ात मौजूद होती हैं। काग़ज़ पर क़लम की सरकती हुई आवाज़ ने मुझे एक-बार फिर यक़ीन दिलाया है कि मैं ज़िंदा हूँ और इस ज़िंदगी के एहसास ने मेरी झोली में अजुज़ का वो कोह-ए-नूर डाल दिया है जो किसी किसी शाहजहाँ को नसीब होता है। पस शाह जहाँ! अपने ताज में इज्ज़ का ये कोह-ए-नूर लगा और यक़ीन के तख़्त-ए-ताऊस पर बैठ! और जहाँबानी कर! सदियों को और क़रनों को और ज़मानों को और सालों और महीनों को और दिनों को और लम्हों को इजाज़त दो कि ता-अबद ख़ुद को दोहराते रहें और तुम अपने हुजरे शाह मुक़ीम में बैठे रहो और हर्फ़ों में अपने होने के सच्च का एलान करते रहो और बे-मानवियत से और कसाफ़त से हक़ीक़तों का जौहर अख़्ज़ करते रहो और इस लम्हे का होना कभी ना मिटाया जा सकेगा कि ये लम्हा वक़्त से आगे निकल गया है।

    मुझे तिजारत से और तिजारती सरगर्मियों से नफ़रत है। मैं वो नौजवान हूँ जिसकी जेब पैसों से ख़ाली रहती है और कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक छोटी सी रक़म, अपनी क़ुव्वत ख़रीद की वजह से मुझ ऐसे नौजवान के लिए बड़ी अहमियत इख़्तियार कर जाती है। इसलिए तिजारत और तिजारती सरगर्मियों से मुतनफ़्फ़िर होने के बावजूद मैं तस्लीम करता हूँ कि मैं पैसे का एक हद तक एहतिराम करने पर मजबूर हूँ। मैं चाहूँगा कि मेरे पास इतना पैसा मौजूद रहे कि मैं सादगी से ज़िंदगी बसर कर सकूँ और ज़िंदगी लिख सकूँ। अगर मेरे पास पैसा ना होता तो मैं ये क़लम ना ख़रीद सकता और ये क़लम मैंने पैसे से ख़रीदा है। पहले-पहल ये शैय जो क़लम कहलाती है मेरे लिए एक अजीब-ओ-ग़रीब चीज़ थी और जब ये क़लम काग़ज़ पर सरसराता था तो मुझे इस सरसराहाट से वहशत होती थी और रात के ख़ामोश लम्हों में तो ये सरसराहाट मेरे लिए ख़ासी परेशान-कुन होती थी लेकिन जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया, ये आवाज़ नवा-ए-सरोश बनती गई और मैं क़लम से मुहब्बत करने लगा और इस से मेरी वो वाबस्तगी हो गई जो एक मौसीक़ार को अपने साज़ से होती है। मेरे क़लम ने मुझे कभी धोका नहीं दिया, काग़ज़ की सतह चाहे हज़ार खुरदुरी हो। मेरे क़लम में तेरा एहतिराम करता हूँ!

    और तब एक दिन यूं हुआ कि शिकस्तगी और निरास के आलम में इस छोटी सी मशीन को मैंने अपनी जेब में रखा और शहर चला गया वहां मैंने उस को एक शनासा के पास रहन रखा और कुछ रुपये जेब में डाल कर शहर की सड़कों पर निकल आया। मैं अपनी मुफ़्लिसी से और अपनी इमारत से तंग चुका था।

    सबसे पहले मैं बूट पालिश करने वाले एक बूढ़े आदमी के पास पहुंचा और अपने जूतों पर पालिश करवाई। जब कोई बूट पालिश करने वाला मेरे जूते चमकाता है तो मैं उस को अपनी जगह खड़ा कर देता हूँ और फिर ज़मीन पर बैठ कर उस के जूते पालिश करता हूँ। ये मेरे लिए इन्किसार और इज्ज़ का एक तजुर्बा है।

    इस के बाद मैं एक पिक्चर हाऊस पहुंचा और लोगों के दर्मियान बैठ कर अपने आप को सल्लू लॉयड पैकरों में देखने लगा। मैं बैठा रहा और ख़ूबसूरत औरतों के चेहरे देख देख कर ख़्वाब देखता रहा। यहां से मैं एक रेस्तोराँ में चला गया और मिनू के तमाम खाने थोड़े थोड़े मंगवा कर खाता रहा। वेटर ये समझा कि मेरा दिमाग़ चल गया है। वो मुझे अजीब सी नज़रों से देखता रहा। लेकिन मैं बिल और टिप देकर बाहर निकल आया और शहर के तारीक कूचों में चलने लगा। वो कूचे जहां तारीकी के साथ औरतें भी होती हैं। मैं अपनी मुफ़्लिसी से थक चुका था। कोई भी, हत्ता कि मुझ ऐसा बड़ा लिखत कार भी लम्हा दर लम्हा मुफ़्लिस रहने का और अमीर रहने का मुतहम्मिल नहीं हो सकता।

    लेकिन अभी एक हफ़्ता भी नहीं गुज़रा था कि मुझे अपने बाप की आवाज़ सुनाई देने लगी, वो ज़मीन के अंदर से बोल रहा था। तब दोबारा मेरे वुजूद ने क़लम का मुतालिबा शुरू कर दिया और दुबारा मेरे हर्फ़ काग़ज़ पर उतरने की तमन्ना करने लगे। मैंने चाहा कि मैं दोबारा कुछ कहूं और देखूं और अलिफ़ लिखूँ और क़लम को रहन से छुड़ा लाऊँ।

    बस यही मेरी लिखत है और जान लो कि मेरी लिखत अजज़ा का कुल है और जान लो कि जब कोई अजज़ा से गुज़र कर कुल तक पहुंच जाता है तो वो अपने बाप को और अपनी ज़मीन को और अपने ख़ुद को रहन से छुड़ा लेता है और अलिफ़ लिखना शुरू कर देता है।

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