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मोर-नामा

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    1998 में भारत ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था। इससे इलाके़ के सारे मोर मर गए थे। लेखक ने जब यह ख़बर पढ़ी तो उन्हें बहुत दुख हुआ और इस कहानी को लिखा। लेकिन इस कहानी में उन्होंने केवल अपना दुख ही व्यक्त नहीं किया है। साथ ही उन्होंने पौराणिक कथाओं और अपने बचपन की स्मृतियों को भी एक सूत्र में पिरोया है।

    अल्लाह जाने ये बदरुह कहाँ से मेरे पीछे लग गई। सख़्त हैरान और परेशान हूँ। मैं तो असल में मोरों की मिज़ाजपुर्सी के लिए निकला था। ये कब पता था कि ये बला जान को चिमट जाएगी। वो तो इत्तिफ़ाक़ से इस छोटी सी ख़बर पर मेरी नज़र पड़ गई वर्ना इस हंगामे में मुझे कहाँ पता चलना था कि वहां क्या वारदात गुज़र गई। हिन्दोस्तान के ऐटमी धमाका की धमाका ख़ेज़ ख़बरों के हुजूम में कहीं एक कोने में ये ख़बर छपी हुई थी कि जब ये धमाका हुआ तो राजस्थान के मोर सरासीमगी के आलम में झंकारते शोर मचाते अपने गोशों से निकले और हवासबाख़्ता फ़िज़ा में तितर बितर हो गए।

    वैसे तो मैंने फ़ौरन ही एक कालम लिख कर अपने दानिस्त में मोर दोस्ती का हक़ अदा किया और फ़ारिग़ हो गया। मगर फ़ारिग़ कहाँ हुआ। इस छोटी सी ख़बर ने मेरे साथ वही किया जो मनु जी के साथ उनके हाथ जाने वाली छंगुलिया जैसी मछली ने किया था। वो तो उसे घड़े में डाल कर निचिंत हो गए थे मगर वो फैलती चली गई। मनु जी ने उसे घड़े से नाँद में, नाँद से कुंड में, कुंड से तलय्या में, तलय्या से नदी में मुंतक़िल किया मगर फिर वो नदी में भी नहीं समाई, फिर उन्होंने उसे उठा कर समुंदर का रुख़ किया तो वो छोटी सी ख़बर भी या वो वाक़िया जिसे अख़बार वालों ने एक आलमी सुर्ख़ी वाली दो सत्री ख़बर समझा था, मेरे तसव्वुर में फैलती चली गई। आग़ाज़ उन मोरों की याद से हुआ जिन्हें मैंने जयपुर के एक सफ़र के दौरान देखा था। सुब्हान अल्लाह क्या तरशा, तरशा या गुलाबी शहर था। उस शहर में मैंने दोपहर में क़दम रखा था। उन औक़ात में तो किसी वजूद का एहसास नहीं हुआ था लेकिन जब दिन ढले मैंने इस दुल्हन ऐसे सजे सजाये रेस्ट हाऊस में अपने कमरे की खिड़की खोल कर बाहर झाँका तो क्या देखता हूँ कि सामने फैले हुए सेहन में फ़व्वारे के इर्द-गिर्द चबूतरे पर मुंडेरों पर मोर ही मोर, कितने सुकून के साथ और कितनी ख़ामोशी से अपनी नीली चमकीली लंबी दुमों के साथ एक शाहाना वक़ार के साथ चहलक़दमी कर रहे थे। उनकी इस चहलक़दमी में शाहाना वक़ार के साथ कितनी शांति थी। इस आन वह सारा दयार मुझे शांति का गहवारा नज़र आया। शांति का, हुस्न का और मुहब्बत का।

    अगली शाम जब मैं उस शहर से निकलने लगा तो जिस टीले, जिस पहाड़ी पर नज़र गई वहां मोरों का यक झुरमुट नज़र आया। उसी तरह ख़ामोश। उनकी चहलक़दमी में वही वक़ार, वैसी ही शांति, थोड़ी ही देर में शाम का धुंदलका फैल गया और पूरी फ़िज़ा मोरों की झनकार से लबरेज़ हो गई। मैंने जाना कि ये मुसाफ़िरनवाज़ मेरी ही ख़ातिर यहां आस-पास के टीलों और दरख़्तों पर उतरे हुए थे। अब वो अपने मेहमान को अलविदा कह रहे हैं।

    और अब जब मैंने उस सफ़र को याद किया तो मेरी सारी फ़ज़ाए याद मोरों से भर गई। और मैं हैरान हुआ कि अच्छा वहां इतने मोरों से मेरी मुलाक़ात हुई थी। जैसे राजस्थान के सारे मोर मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए हों मगर अब वहां क्या नक़्शा होगा। मैं ध्यान ही ध्यान में फिर उस दैर की तरफ़ निकल जाता हूँ। मैं हैरान-ओ-परेशान भटकता फिर रहा हूँ, कोई मोर दिखाई पड़ रहा है उनकी झनकार सुनाई पड़ रही है।

    वो सब कहाँ चले गए। किस खोह में जा छुपे। दूर एक टीले पर नज़र गई। एक नुचा खुसटा मोर बैठा दिखाई दिया। मैं तेज़-क़दम उठाता उस तरफ़ चला। मगर मेरे पहुंचने से पहले उसने एक हरास आमेज़ आवाज़ निकाली, उड़ा और फ़ौरन ही नज़रों से ओझल हो गया।

    वो मोर उड़ कर किधर गया। यहां अकेला बैठा क्या कर रहा था। उसके संघी साथी, मोरों के झुरमुट के झुरमुट, वो सब कहाँ गए। वो इस तरह वीरानी की तस्वीर बना क्यों नज़र रहा था। इतना उजड़ा उजड़ा, इतना नुचा खुसटा क्यों नज़र रहा था। वीरानी की इस तस्वीर से मेरा ध्यान वीरानी की ऐसी ही एक और तस्वीर की तरफ़ चला गया जिसे मैं भूला बैठा था और जो उस वक़्त अचानक मेरे तसव्वुर में उभर आई थी। समुंदर के शफ़्फ़ाफ़ पानी में घुलता हुआ गाढ़ा गाढ़ा पेट्रोल, पानी की रंगत बदलती चली जा रही है। पेट्रोल की आलूदगी से कुछ स्याही माइल नज़र आरहा है और उजाड़ साहिल पे एक अकेली मुर्ग़ाबी इस आलूदा पानी में नहाई हुई साकित बैठी हैरत से समुंदर को तक रही है। जो पानी कल तक उसके लिए अमृत का मर्तबा रखता था, आज ज़हर बन गया है। उसके पर भारी हो गए हैं कि अब वो उड़ने जोगी नहीं रही और ज़हर जैसे नस-नस में उतर गया हो। इराक़-अमरीका जंग की सारी हौलनाकी उस आन मेरे लिए उस मुर्ग़ाबी मैं मुजस्सम हो गई थी। मुझे दुख हुआ कि ये मुर्ग़ाबी इस वक़्त कितनी अज़ीयत में है और हैरानी हुई कि आदमियों ने इस हंगाम जो कुछ एक दूसरे के साथ किया, सद्दाम हुसैन ने इराक़ियों के साथ, इराक़ियों ने कुवैतियों के साथ, अमरीका ने इराक़ियों के साथ इस सारे अज़ाब को इस ग़रीब मुर्ग़ाबी ने अपनी जान पर ले लिया है। अजब बात है जब पयंबरी वक़्त पड़ता है तो बड़े बड़े जान बचा कर निकल जाते हैं। कोई नन्ही सी जान अज़ीयत के इस बार-ए-गराँ को अकेली सिंहवा लेती है। इस घड़ी वो मुर्ग़ाबी मुझे एक जलील-उल-क़दर दास्तानी परिंदा नज़र आई। जैसे उसमें किसी पैग़ंबर की रूह समा गई हो कि इस ज़ोर पर उसने इन्सानी उम्मत का सारा अज़ाब एक अमानत जान कर अपने काँधों पर ले लिया है।

    मेरी कम-नज़री थी कि मैंने उस मुर्ग़ाबी के मर्तबे को नहीं पहचाना। एहसास ही नहीं हुआ कि ये मुर्ग़ाबी तो एक पयम्बराना शान रखती है। हमारे अह्द की अलामत है आदमी इस ज़माने में जो आदमी के साथ कर रहा है और अपने ज़ोअम-ए-आदमियत में जो कुछ फ़ित्रत के साथ कर रहा है, ये उस सबकी कहानी सुना रही है। मुझे ख़याल ही नहीं आया कि मुझे इस पर कहानी लिखनी चाहिए। कितनी आसानी से मैंने इस मुर्ग़ाबी को फ़रामोश कर दिया। शायद उसकी वजह हो कि वो बेचारी सिर्फ़ मुर्ग़ाबी थी। और मोर जिन पर मैं कहानी लिखने के लिए बेचैन हूँ सिर्फ़ मोर नहीं हैं। फ़र्ज़ करो कि इस मुर्ग़ाबी की जगह कोई राज हंस होता। राज हंस, मगर राज हंस अब इस दुनिया में कहाँ हैं। एक ज़माना था कि इस बर्र-ए-सग़ीर की विशाल धरती पर दो परिंदे राज करते थे और ये फ़ैसला करना मुश्किल था कि परिंदों का राजा कौन है, राज हंस या मोर। अब वो राज हंस कहाँ हैं और वो मोती ऐसी झीलें कहाँ हैं जहां वो उतरा करते थे और वो राजकुमारियां कहाँ हैं जो अपने महल की फ़सील पर उतर आने वाले राज हंस पर आशिक़ हो जाया करती थीं और उसे अपने आँगन में उतारने के लिए अपनी माला के मोती बिखेर दिया करती थीं। वो राज हंस मोती चुगते थे और मानसरोवर झील के शफ़्फ़ाफ़ पानी में तैरा करते थे। अब मानसरोवर झील कहाँ है। लगता है कि सब झीलें ख़ुश्क हो गईं। नदियों का पानी मैला हो गया। फ़िज़ा बारूद, धुंए, ख़ाक धूल से अटी हुई है। नारों और धमाकों के शोर से आलूदा है। राज हंस पाकीज़ा फ़िज़ा और शफ़्फ़ाफ़ पानियों की तलाश में कहीं दूर निकल गए। पीछे बस मुर्ग़ाबियां और क़ाज़ें रह गईं। ज़माने का अज़ाब वो सहती हैं राज हंस क़िस्सा कहानियों की दुनिया में परवाज़ करते हैं।

    एक मोर था जो अभी तक अपने ताऊसी वक़ार के साथ टिका हुआ था और माज़ी और हाज़िर के दरमियान पुल की हैसियत रखता था। अब भी बाग़ों से उसकी झनकार इस तरह आती है जैसे माज़ी क़दीम से देवमालाई ज़मानों से तैरती हुई रही है। राजस्थान में तो मोर की कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी थी। ये आवाज़ें कहाँ से रही हैं। मैं खिंचा चला जाता हूँ। राजस्थान बहुत पीछे रह गया है। ये मेरी पस्ती है। सावन-भादों की भीगी शामों में वो कितना गुल मचाते थे। वो तो बस्ती के बाहर बाग़ बागीचों में झंकारते थे मगर उनकी झनकार से सारी बस्ती गूँजती थी और वो एक मोर जो जाने किधर से उड़ता उड़ता आया और हमारी मुंडेर पर बैठ गया। कितनी देर चुप-चाप बैठा रहा। मैं दबे पांव छत पे गया। पीछे से सरकते सरकते मुंडेर तक गया। उस की दुम पकड़ने ही को था कि उसने झुरझुरी ली और फ़िज़ा में तैर गया।

    मेरे लाल, मोर को तंग नहीं किया करते, ये जन्नत का जानवर है। नानी अम्मां ने मुझे सरज़िंश की।

    जन्नत का जानवर। मैंने हैरान हो कर पूछा, फिर याँ ये क्या कर रहा है?

    अरे बेटा, अपने किए की सज़ा भूगत रहा है।

    नानी अम्मां, क्या किया था मोर ने, जो सज़ा भूगत रहा है।

    अरे बेटा, मासूम तो है ही शैतान की चाल में गया।

    कैसे आगया, शैतान की चाल में।

    वो कमबख़्त बूढ्ढा फूंस बन के जन्नत के दरवाज़े पे पहुंचा। बहुत मिन्नतें कीं कि दरवाज़ा खोलो। जन्नत के दरबान भाँप गए कि ये नहूसत मारा तो शैतान है। उन्होंने दरवाज़ा नहीं खोला। मोर जन्नत की मुंडेर पर बैठा ये देख रहा था। उसे बुड्ढे पे बहुत तरस आया। उड़ कर नीचे आया और कहा कि बड़े मियां मैं तुम्हें जन्नत की दीवार पार कराए देता हूँ। अंधा क्या चाहे दो आँखें। शैतान फ़ौरन ही मोर पे सवार हो गया। मोर उड़ा और उसे जन्नत में उतार दिया। अल्लाह मियां को जब पता चला तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया। बावा आदम और अम्मां हव्वा को जन्नत से निकाला तो मोर को भी निकाल दिया कि जाओ लंबे बनो।

    मैं कितना हैरान हुआ था। बेचारा मोर। जन्नत की मुंडेर पर बैठा करता था। अब हमारी मुंडेर पर आके बैठ जाता है। मैंने नानी अम्मां से कहा तो कहने लगीं, हाँ बेटे, अपनी मुंडेर छुट जाये तो यही होता है। अब तेरी मेरी मुंडेरों पे बैठता है और कहीं जो टिक के बैठ जाये।

    मुंडेरों, दरख़्तों के झुण्ड में, टीले पे, जहां भी पंजे टिकाने को जगह मिल जाये, मैं जब श्रावस्ती की राह से गुज़रा था तो मैंने उसे एक हरे-भरे टीले पे बैठे देखा था। किसी ध्यान में गुम, या जैसे चुप-चाप किसी की राह तक रहा है। मैं श्रावस्ती बहुत देर से पहुंचा था। महात्मा बुद्ध कितनी बरसातों पहले यहां से सिधार चुके थे। अब वो ठिकाना भी यहां नहीं था, जहां वो बरसात के दिनों में आकर बॉस किया करते थे। बस अब तो उस बस्ती से यादगार थोड़ी ईंटें पड़ी रह गई थीं। ज़रा हट के एक हरे-भरे शादाब टीले पर शायद उसी समय का एक मोर बैठा रह गया था जो गए समय को उस समय की श्रावस्ती को अपनी आँखों में रमाए बैठता था और कितने सुकून से बैठा था। इस एक दम से उजड़ी हुई श्रावस्ती की सारी फ़िज़ा में जैसे शांति रच गई थी।

    मैं श्रावस्ती में ज़्यादा देर नहीं रुका। मुझे वापस दिल्ली पहुंचना था। दिल्ली की वो शाम बहुत उदास थी। कम अज़ कम बस्ती निज़ाम उद्दीन में तो इसका यही रंग था। अभी पिछले दिनों कितने ख़ाना-बर्बाद क़ाफ़िला दर क़ाफ़िला यहां से निकले थे। अब ख़ामोशी थी और बरसात की ये शाम बस्ती निज़ाम उद्दीन में कुछ ज़्यादा ही ख़ामोश थी। कुछ अहाते के बीच ग़ालिब की क़ब्र उजड़ी उजड़ी थी। अहाते के गिर्द कितनी ऊंची ऊंची घास खड़ी थी। इस बीच से मैं गुज़र रहा था कि पीछे से एक मोर ने मुझे पुकारा। मैंने मुड़ कर देखा। वो दिखाई तो नहीं दे रहा था मगर उसकी पुकार फिर सुनाई दी। अजब पुकार थी जैसे हज़ार सदियां मिलकर मुझे पुकार रही हूँ।

    हज़ार सदियों के किनारे पर पहुंच कर मैं ठिटका। उस मोर की आवाज़ तो मुझे यहीं तक लेकर आई थी मगर अब सदियों के उस पार से मोरों की झनकार सुनाई दे रही थी। मैं हैरान, या मौला! ये मोर कौन से बाग़ से बोल रहे हैं। मैंने क़दम बढ़ाया और एक नई हैरानी ने मुझे लिया। ये कौन सा नगर है। फ़सलें बादलों से बातें करती हुई। फ़सीलों के गिर्दागिर्द फैले हुए बाग़, क़िस्म क़िस्म के फल। रंग रंग की चिड़ियां, बाग़ चिड़ियों की चहकार से गूंज रहे हैं। सारी चहकार पर छाई हुई दो आवाज़ें। कोयल की कूक और मोरों की झनकार। अरे, ये तो पांडवों का नगर है। इंद्रप्रस्थ। ये तो मैं बहुत दूर निकल आया। मुझे वापस चलना चाहिए।

    बहुत घूम फिर लिया। बहुत मोरों को देख-भाल लिया। किन किन वक़्तों के किस-किस नगर के मोरों को देखा। उनकी झनकार सुनी। अब मुझे मोर-नामा लिखना चाहिए मगर मुझे घर वापस होने से पहले राजस्थान का फिर एक फेरा लगा लेना चाहिए। शायद वो मोर जो सरासीमगी के आलम में यहां से उड़ गए थे, वापस गए हों।

    मोर वाक़ई अच्छी ख़ासी तादाद में वापस गए थे। मगर अजब हुआ कि मुझे देखकर वो सख़्त हिरासाँ हुए और चीख़ते चिल्लाते टीलों और दरख़्तों की शाख़ों से उड़े और फ़िज़ा में तितर बितर हो गए। बस इसी आन मुझे एहसास हुआ कि मैं अकेला नहीं हूँ। कोई दूसरा मेरे साथ साथ चल रहा है। मैंने अपने बाएं नज़र डाली। मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। हैं ये तो अश्वत्थामा है। कुरुक्षेत्र का महा पापी। ये यहां कहाँ और मेरे साथ क्यों चल रहा है। मुझे पता ही चला कि कब वो मेरे साथ लग गया। फिर मुझे ख़याल आया कि जब इंद्रप्रस्थ से पल्टा हूँ तो कुरुक्षेत्र के पास से गुज़रा था, वहीं से ये मनहूस शख़्स मेरे साथ हो लिया होगा मगर कुरुक्षेत्र में तो अब सन्नाटा था। आदमी आदमजा़द। ये वहां क्या कर रहा था। क्या तब से वहीं भटक रहा है।

    जंग आदमी को क्या से क्या बना देती है। अश्वत्थामा को देखो और इबरत पकड़ो। द्रोणाचार्य का बेटा, बाप ने वो इज़्ज़त पाई कि सारे सूरमा क्या कौरव क्या पांडव, उस के सामने माथा टेकते थे, चरण छूते थे। बेटे ने बाप से विरसे में कितना कुछ पाया। मगर ये विरसा उसे पचा नहीं। उस जंग का सबसे मलऊन आदमी आख़िर में यही शख़्स ठहरा।

    कहते हैं कि सूरमाओं के उस्ताद द्रोणाचार्य के पास वह ख़ौफ़नाक हथियार भी था जिसे ब्रह्मास्त्र कहते हैं। देखने में घास की पत्ती, चल जाये तो वो तबाही लाए कि दूर दूर तक जीव जन्तु का नाम-ओ-निशान दिखाई दे। बस्ती ज़द में आजाए तो दम के दम में राख ढेर बन जाये। द्रोना ने उस हथियार का राज़ बस अपने एक ही चेले सूरमा को मुंतक़िल किया था। अर्जुन को, जो उस का सबसे चहेता चेला था। जंग भी क्या ज़ालिम चीज़ है। कुरुक्षेत्र के मैदान में उस्ताद और चेला एक दूसरे के मुक़ाबिल लड़ रहे थे मगर दोनों ने क़सम खाई थी कि ब्रह्मास्त्र इस्तिमाल नहीं करना है क्योंकि उसके चलने का मतलब तो ये होगा कि सब कुछ तबाह हो जाएगा।

    द्रोना ने मरने से पहले अपने बेटे अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र का गुर समझा दिया था मगर सख़्ती से ताकीद की थी कि किसी हाल में उसे इस्तिमाल करना नहीं है मगर जब द्रोना जंग में मारा गया तो अश्वत्थामा को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था। जंग के आख़िरी लम्हों में वो जान पे खेला और ब्रह्मास्त्र चला दिया। जंग के आख़िरी लम्हों से डरना चाहिए। जंग के सबसे नाज़ुक और ख़ौफ़नाक लम्हे वही होते हैं। जीतने वाले को जंग को निबटाने की जल्दी होती है। हारने वाला जी जान से बेज़ार होता है। तो वो ख़ौफ़नाक हथियार जो बस धमकाने डराने के लिए होते हैं, आख़िरी लम्हों में इस्तिमाल होते हैं। फिर बेशक शहर जल कर हीरोशीमा बन जाये दिल की हसरत तो निकल जाती है। जंग के आख़िरी लम्हों में दिल की हसरत कभी जीतने वाला निकालता है, कभी हारने वाला। कुरुक्षेत्र में आख़िर में दिल की हसरत अश्वत्थामा ने निकाली और ब्रह्मास्त्र फेंक मारा।

    तब श्रीकृष्ण, अर्जुन से बोले, हे जनार्धन, द्रोना के मूर्ख पुत्र ने तो ब्रह्मास्त्र फेंक मारा। मुझे जीव जन्तु सब नष्ट होते दिखाई दे रहे हैं। इस अस्त्र का तोड़ तेरे पास है। सो जल्दी तोड़ कर, इससे पहले कि सब कुछ जल कर भस्म हो जाये।

    तब अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र निकाला और अश्वत्थामा के तोड़ पर उसे सर किया। और कहते हैं कि जब अर्जुन का बाण चला तो ऐसी बड़ी आग भड़की कि तीनों लोग उस के शोलों की लपेट में गए। इसकी धमक उस बन तक भी पहुंची जहां व्यास ऋषि बैठे तप कर रहे थे। उन्होंने तपस्या बीच में छोड़ी। हड़बड़ा कर उठे और उड़ कर कुरुक्षेत्र पहुंचे। अश्वत्थामा और अर्जुन के बीच आन खड़े हुए और दोनों हाथ उठा कर चिल्लाये कि दुष्टो! ये तुमने क्या अन्याय किया। सारी सृष्टि जल कर भोभल बन जाएगी। जीव जन्तु का विनाश हो जाएगा। अपने अपने अस्त्र वापस लो।

    अर्जुन ने उस महामान आत्मा के चरण छूए। हाथ जोड़ के खड़ा हो गया और फ़ौरन ही अपना अस्त्र वापस ले लिया।

    पर अश्वत्थामा ढिटाई से बोला कि, हे महाराज, मैंने तो अस्त्र चला दिया। उसे वापस लेना मेरे बस में नहीं है। बस इतना ही कर सकता हूँ कि उसकी सीमा बदल दूं। सो अब ये अस्त्र पांडवों की सेना पे नहीं गिरेगा, पांडवों की स्त्रियों पे गिरेगा जिसे गर्भ रहा है उस का गर्भा गिर जाएगा जिसकी कोख में बच्चा पल रहा है वो बच्चा मर जाएगा। पांडव संतान का इस प्रकार अंत हो जाएगा।

    इस आन श्रीकृष्ण जी किलस कर बोले, हे द्रोना के पापी पुत्र, तेरा विनाश हो। तूने बालक हत्या का पाप किया है। मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू तीन हज़ार बरस इस तौर जियेगा कि बनों मैं अकेला मारा मारा फिरेगा। तेरे ज़ख़्मों से सदा ख़ून और पीप ऐसी रिसा करेगी कि बस्ती वाले तुझसे घिन्न खाएँगे और दूर भागेंगे।

    मैं भी तो उस से दूर ही भागने की कोशिश कर रहा था मगर वो तो साये की तरह मेरे पीछे लगा हुआ था। या अल्लाह मैं किधर जाऊं, कैसे इस नहूसत से अपना पीछा छुड़ाऊं। अचानक एक ख़याल आया कि मीरा बाई की समाधि यहीं कहीं है। वहां जाकर छूप जाऊं। फिर याद आया कि अरे हाँ ख़्वाजा मुईन उद्दीन चिशती की दरगाह भी तो इसी नवाह में है। अगर इस दरगाह में पहुंच जाऊं तो फिर तो समझो कि उसकी ज़द से बच गया। वहां दरगाह में उसे कौन घुसने देगा। बस इस तरह के ख़याल मुझे रहे थे लेकिन समझ में नहीं रहा था कि उससे आँख बचा कर कैसे निकलूं, जिस राह जाता वो परछाईं की तरह साथ साथ चलता। उधर मोरों ने शोर मचा रखा था। कितनी हरास भरी आवाज़ों में चिल्ला रहे थे, यानी वो मोर जो बचे रह गए थे। उधर पांडवों के घरों से औरतों के बैन की आवाज़ें रही थीं। हर घर मातमकदा बना हुआ था। वहां मरे हुए बच्चे पैदा हो रहे थे और अर्जुन के घर में तो क़ियामत मची हुई थी। सुभद्रा किस दर्द से बैन कर रही थी। उसकी कोख का जना अभिमन्यु पहले ही कुरुक्षेत्र में खेत हो चुका था। उसे रो-धो कर उसने बहू से आस लगाई थी कि वो पूत जनेगी। उस पूत से अर्जुन के अंधेरे घर में उजाला होगा और पांडवों के संतान आगे चलेगी मगर हुआ वो जो अश्वत्थामा ने कहा था। उत्तरा बेहोश पड़ी है। बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ है। पांडवों के किसी घर में अब उजाला नहीं होगा। ब्रह्मास्त्र ने उनकी उत्तरियों की कोखों को उजाड़ डाला है। मगर सुभद्रा ने उम्मीद का दामन हाथ से नहीं छोड़ा है। भाई का वादा उसे याद है। कृष्ण ने वादा किया था कि भैना, तेरी बहू की कोख को उजड़ने नहीं दूँगा। तो लो उन्होंने अवतार होने के नाते मुर्दा बच्चे में जान डाल दी है और बता दिया है कि ये बालक बड़ा हो कर हस्तिनापूर के सिंघासन पे बैठेगा। पांडवों का नाम रोशन करेगा। मगर उस मरे हुए बच्चे ने ज़िंदा हो कर अजब सवाल किया। जब सिंघासन पे बैठा और व्यास जी अशिर्वाद देने के लिए बनों से निकल कर आए और उस के दरबार में बिराजे तो उसने गुलाब केवड़े के पानी से चिलमची में उनके पांव धोए फिर चरण छूए और हाथ बांध कर खड़ा हो गया। मेरे पुरखे, आज्ञा हो तो एक प्रश्न पूछूँ।

    पूछ बेटा।

    हे महाराज, कुरुक्षेत्र में मेरे सब ही बड़े मौजूद थे, इधर भी और उधर भी। और दोनों ही तरफ़ गुनी ज्ञानी बुद्धिमान मौजूद थे। फिर उन्हें ये समझ क्यों आई कि युद्ध महंगा सौदा है। सब कुछ उजड़ जाएगा, विनाश हो जाएगा।

    व्यास जी ने लंबा ठंडा सांस भरा, बोले, पुत्र, युद्ध में अच्छे अच्छे मानव की मत मारी जाती है और होनी को कौन टाल सकता है।

    और ऋषि जी तुरंत उठ खड़े हुए, जिन बनोंसे आए थे उल्टे पांव उन्हें बनों में चले गए।

    ऋषि लोग उन भले वक़्तों मैं हज़ारों बरस के हिसाब से ज़िंदा रहते थे। अर्जुन का पोता, ऋषि नहीं था, उसे साँप ने डस लिया और वो मर गया मगर उसने व्यास जी से जो सवाल किया था उस सवाल ने व्यास जी से ज़्यादा उम्र पाई। मैं जब राजस्थान में भटक रहा था तो ये सवाल मुझे मिला था, जहां अश्वत्थामा भटकता फिर रहा था वहां ये सवाल भी आस-पास भटकता दिखाई दिया। उसने भी मेरा बहुत पीछा किया। ये समझ लो कि मैं दो सायों के बीच चल रहा था।

    पहले मैं अश्वत्थामा को देखकर हैरान हुआ था कि अच्छा इस मूर्ख के अभी तीन हज़ार बरस पूरे नहीं हुए हैं। फिर जब परीक्षित वाले सवाल से मुढ भेड़ हुई तो मैं और हैरान हुआ कि अच्छा ये सवाल भी अभी तक चला रहा है।

    बल्कि मुझे लगा कि अब ये सवाल ज़्यादा गंभीर हो गया है। मानो पूरी पाक-भारत धरती पर मंडला रहा है जैसे किसी के सर पर तलवार लटकी हुई हो। होनी को कौन टाल सकता है। ये जवाब तो हुआ, व्यास जी ने सवाल को टाला था, जवाब नहीं दिया था, तब ही तो वो तब से फ़िज़ा में भटकता फिर रहा है और जवाब मांग रहा है। यक ना शुद दो शुद। मेरी जान के लिए अश्वत्थामा कम था कि ये सवाल भी मेरी जान को लग गया।

    ख़ैर में पहले अश्वत्थामा से तो अपनी जान छुड़ाऊं। कितनी मर्तबा उसे ग़च्चा देने की कोशिश की। अचानक राह बदल कर दूसरी राह पर हो लिया। समझा कि उसे पता नहीं चला मगर थोड़ी देर बाद पता चला कि वो तो फिर मेरे आस-पास चल रहा है।

    मैंने सोचा कि ये मेरा कितना पीछा करेगा मुझे तो अपने दयार वापस चले जाना है। ये इस दयार की मख़लूक़ है। हद से हद सरहद तक मेरा पीछा करेगा। आगे उसे कौन जाने देगा। फिर भी मैंने कोशिश की कि उससे आँख बचा कर निकल जाऊं। बाद में उसे पता चले कि मैं यहां से निकल गया हूँ और उसकी ज़द से बाहर हूँ।

    मैं वाक़ई उससे आँख बचा कर निकल आया था। कैसी तड़ि दी। उसके फ़रिश्तों को भी पता नहीं चला कि मैं कब वहां से निकला और कब सरहद पार की। अपनी सरहद में क़दम रखने के बाद इत्मिनान का लंबा सांस लिया। ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि उस बदरुह से मैंने नजात पाई। मुझे बेताल पचीसी की कहानी याद आई मगर वो तो कहानी थी। इस तरह तो कहानियों ही में भूत जान को चिमटा करते हैं मगर मेरे साथ तो वाक़ई ऐसा हुआ। ख़ैर बला से पीछा छूटा। अब मैं निचिंत था। सोच रहा था कि मैं अब जग जग के मोरों से मिल लिया हूँ। किस-किस नगर के मोर की झनकार सुनी है। अब मैं इत्मिनान से घर बैठ कर मोर नामा लिखूँगा। दिल ख़ुशी से झूम उठा। जिन जिन मोरों को देखा था वो सब एक दम से मेरे तसव्वुर में मंडलाने लगे। उनकी शीरीं झनकार से मेरा सामेआ गूंज गया। फिर मुझे लगा कि जैसे मैं जगत मोर के साये में चल रहा हूँ। जगत मोर जिसकी दूम खड़ी हो कर पंखे की शक्ल बन गई है और सारी फ़िज़ा पर मुहीत हो गई है। जगत मोर रक़्स कर रहा है।

    मैं जब अपने घर के क़रीब पहुंचा हूँ तो अचानक मुझे अपने पीछे क़दमों की आहट का एहसास हुआ। जैसे कोई दबे पाँव मेरे पीछे पीछे आरहा है। मैंने दफ़अतन पलट कर देखा और मेरे क़दम सौ-सौ मन के हो गए। अश्वत्थामा मेरे पीछे पीछे रहा था। ये कमबख़्त तो यहां भी गया। अब मैं कैसे इससे छुटकारा पाऊँगा। तब मैं रोया और मैंने गिड़गिड़ा कर पालने वाले से पूछा कि मेरे पालने वाले, मेरे रब, इस प्रेत के तीन हज़ार साल आख़िर कब पूरे होंगे। कब मैं अपना मोर नामा लिख पाऊँगा?

    स्रोत:

    शहरज़ाद के नाम (Pg. 26)

    • लेखक: इन्तिज़ार हुसैन
      • प्रकाशक: नियाज़ अहमद
      • प्रकाशन वर्ष: 2002

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