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ख़लाई दौर की मुहब्बत

अख़्तर जमाल

ख़लाई दौर की मुहब्बत

अख़्तर जमाल

MORE BYअख़्तर जमाल

    स्टोरीलाइन

    भविष्य में अंतरिक्ष में आबाद होने वाली दुनिया का ढाँचा इस कहानी का विषय है। एक लड़की बरसों से अंतरिक्ष स्टेशनों पर रह रही है। वह लगातार ग्रहों और उपग्रहों की यात्राएँ करती रहती है और अपने काम को आगे बढ़ाती रहती है। अपनी इन्हीं व्यस्तताओं के कारण उसे इतना भी समय नहीं मिलता कि वह धरती पर रहने वाले अपने परिवार से कुछ पल बात कर सके। इन्हीं यात्राओं में उसे एक शख़्स से मोहब्बत हो जाती है। उस शख़्स से एक बार मिलने के बाद दोबारा मिलने के लिए उसे बीस साल का लम्बा इंतज़ार करना पड़ता है। इस बीच वह अपने काम को आगे बढ़ाती रहती है, ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए मोहब्बत करना आसान हो सके।

    अपना ख़लाई सूट पहने आँखों और कानों पर ख़ौल चढ़ाए ख़लाई दौर में अपनी चमकदार और ख़ूबसूरत आँखों से वो ख़ला के कितने ही सय्यारे देख चुकी थी। हर रंग के आसमान हर रंग की ज़मीन और हर रंग के हज़ार रूप।

    उसे ज़मीन से दूर ख़लाई मर्कज़ में रहते हुए दस साल बीत गए थे। ज़मीन मेरी प्यारी ज़मीन उसे हर सय्यारे से अपनी ज़मीन प्यारी लगती। वो ज़मीन की तरफ़ हाथ कर के अपने होंटों से अपनी उँगलियाँ चूम लेती और उसका ये उड़ता हुआ बोसा ज़मीन को उसके पास ले आता। उसे ये महसूस होता कि वो अपने नन्हे से ख़ूबसूरत कुंबे में मौजूद है।

    उसका बाप अपने कमरे में बैठा बटन दबाकर ज़मीन पर हल चला रहा है और ख़ुद-कार मशीनों से घास के गट्ठे इकट्ठे हो जाते हैं। उसकी माँ अभी तक अपने हाथ से खाना पकाना पसंद करती है, इसलिए बावर्ची-ख़ाने में है। माँ के हाथ का बनाया हुआ ख़ुशबूदार सूप उसे ख़ला में उड़ते हुए भी अक्सर याद आता। मगर इन दस सालों से वो सिर्फ़ चार रंग-बिरंगी गोलियों को ख़ुराक के तौर पर इस्ति’माल करती थी। इनमें से हर गोली में इतनी ग़िजाइयत थी कि उसे सारे दिन में बस तीन गोलियाँ लेनी पड़ती थीं। पानी उसके पास मौजूद होता था। ख़लाई जहाज़ में पानी की कमी थी।

    उसने दस साल की उ’म्र में ख़लाई ट्रेनिंग लेना शुरू’ की थी और अब तक वो हर क़िस्म के कैप्सूलों और ख़लाई रेलों और जहाज़ों में सफ़र कर चुकी थी। वो अपनी फुर्ती और समझदारी की वज्ह से ख़ला के अहम-तरीन मिशन में शामिल होती थी। मुख़्तलिफ़ सय्यारों के दरमियान भाई-चारे और ख़ैर-सिगाली को फ़रोग़ देने वालों में उसका नाम अहम था। कभी-कभी उसका जी चाहता था कि ख़लाई जहाज़ और ख़लाई स्टेशन और सय्यारों से दूर अपनी ज़मीन पर जाकर वो पूरा एक दिन गुज़ारे। कम-अज़-कम एक दिन की छुट्टी मिले तो वो ज़मीन पर जाए।

    उसके सब साथी भी उसकी तरह ख़लाई लिबास में हमेशा बहुत ज़ियादा मसरूफ़ भागते और दौड़ते नज़र आते। उनमें मर्द भी थे और औ’रतें भी थीं। उन्हें एक दूसरे से मिलने और बात करने के मवाक़े’ मिलते भी तो ज़ाती बातें कम होतीं काम से मुतअ’ल्लिक़ बातें ज़ियादा... इतनी मसरूफ़ियत में भी वो ये मा’लूम कर लेती कि उसकी कौन सी दोस्त की माँ, बाप या कुंबे का कोई फ़र्द बीमार है या मर चुका है और वो दौड़ते भागते चंद लफ़्ज़ अपनी साथी के पास बैठ कर दिल-जूई और हम-दर्दी के अदा करती और उसका मुहब्बत से हाथ पकड़ती। वो सब कार-कुन हम-दर्दी और मुहब्बत की इतनी सी फ़ुर्सत को बहुत जानते थे और किसी को किसी से कोई गिला होता था।

    उसकी दो छोटी बहनें थीं जो उसे बहुत याद आती थीं और उसे जब भी चंद लम्हों की छुट्टी मिलती वो ज़मीन पर कंट्रोल रुम के ज़रीए’ उनसे राब्ता क़ाएम करके बात कर लेती। लेकिन ये लम्हों की फ़ुर्सत भी इतनी कम मिलती कि उनकी ख़ैरियत जाने उसे महीनों गुज़र जाते। उसकी माँ उसे साल-गिरह के दिन ज़रूर पैग़ाम भेजती और बताती कि ज़मीन पर हम तुम्हारी साल-गिरह का केक काट रहे हैं और वो ज़मीन की तरफ़ अपना हाथ करके जब उड़ता हुआ बोसा अपने ही हाथ की उँगलियों की पोरों पर महसूस करती तो सोचती कि उसने अपनी माँ और बहनों को प्यार कर लिया है। अपनी सब सहेलियों को प्यार कर लिया है और अपनी ज़मीन को प्यार कर लिया है।

    उसकी बीसवीं साल-गिरह पर उसकी माँ ने कहा था, “मेरा जी चाहता है तुम्हें चाँद तारों के जाल से निकाल कर तुम्हारा ब्याह कर दूँ।”

    वो हँस पड़ी, “ये कैसे हो सकता है, मुझे फ़ुर्सत कहाँ है।”

    उसकी माँ ने कहा, “सुनो अगर तुम अपने दिल में मुहब्बत का जज़्बा कभी महसूस करो तो ज़रूर शादी कर लेना। अब मैं बूढ़ी हो चुकी हूँ और ये ख़ुशी मेरी आरज़ू है।”

    वो बोली, “मैंने अब तक वो जज़्बा महसूस नहीं किया। अब तक कोई अजनबी मेरे इतने क़रीब सका।” और फिर उनका बात करते हुए राब्ता कट गया था। उस रोज़ साल-गिरह की ख़ुशी में उसे ख़लाई स्टेशन वालों ने तीन मिनट की काल दी थी। जो सबसे लंबी काल समझी जाती थी और उसने अपनी माँ और बहनों की आवाज़ सुनकर बड़ी ख़ुशी महसूस की थी। ख़लाई स्टेशन वालों के इस तोहफ़े के लिए वो उनकी शुक्रगुज़ार थी।

    एक दिन जब वो अपने ख़लाई जहाज़ को लेकर मिर्रीख़ की तरफ़ जा रही थी तो ख़लाई जहाज़ का कोई पुर्ज़ा अचानक ख़राब हो गया। उसने कंट्रोल रुम को इत्तिला दी। उसे कंट्रोल रुम से हिदायत मिली कि वो ख़लाई स्टेशन 70007 में चली जाए जो वहाँ से क़रीब है और इस अ’र्से में जहाज़ को मरम्मत कर दी जाएगी। वो ख़लाई स्टेशन 70007 पहुँची।

    ख़लाई स्टेशन के छोटे से कमरे में उसे एक ख़ला-नवर्द नज़र आया। वो ख़लाई लिबास पहने हुए था मगर उसकी टोपी सर पर थी। काम करते हुए इतने बहुत से ख़ुद-कार कम्पयूटरों के दरमियान वो ख़ुद भी एक कम्पयूटर मा’लूम हो रहा था। लेकिन उसकी बेपनाह ख़ूबसूरत आँखें ये बता रही थीं कि वो कम्पयूटर नहीं एक इंसान है। इतनी ख़ूबसूरत और ज़हीन आँखें उसने ज़िंदगी में शायद पहली बार देखीं, चंद लम्हों के लिए वो हैरान हो कर एक दूसरे को देखते रहे। उसने अपनी ख़लाई टोपी उतार ली थी। ऐसा लगता था कि ख़लाई स्टेशन पर अचानक दो चाँद एक दूसरे के मुक़ाबिल गए हैं। वो उससे कुछ बोलना चाह रही थी और शायद वो कुछ पूछना चाह रहा था कि अचानक ख़लाई सिग्नल सुनकर दोनों चौंक पड़े। उसे चाँद के कंट्रोल रुम से इत्तिला दी जा रही थी कि उसका ख़लाई जहाज़ बिल्कुल ठीक हो गया है और उसे वापिस जाना चाहिए। वो उसे जल्दी से ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर अपनी कैप्सूल में सवार हो गई।

    जब वो ख़लाई कैप्सूल में सवार हो रही थी तो ख़ला-बाज़ उसके पीछे दौड़ता हुआ आया और वो अपनी हैरान-हैरान ख़ूबसूरत आँखों में कोई सवाल लिए कुछ पूछना चाह रहा था। शायद वो उसका नाम पूछना चाहता था। उसने पुकार कर अपना नाम बताया। जाने वो सुन सका या नहीं फिर उसने ख़लाई टोपी पहन ली।

    दूसरे लम्हे वो ख़लाई स्टेशन में थी जहाँ भाँत-भाँत के सिग्नल उसके मुंतज़िर थे... राब्ता... चाँद से राब्ता... मिर्रीख़ से राब्ता... और फिर ज़ुहरा से राब्ता। उसने परेशान हो कर सोचा ये ख़लाई रीलेशनिंग का काम भी कितना मुश्किल है। काश उसे उस ख़ला-नवर्द का नाम पूछने की फ़ुर्सत मिल जाती। अभी तक वो आँखें उसके सामने थीं मगर उसे मा’लूम था कि ख़लाई रीलेशनिंग के मर्कज़ में काम करते हुए भी बे-नाम आदमी को ढूँढना आसान नहीं है। काश वो एक दूसरे का नाम जान सकते, उसने उदास हो कर सोचा। उस रोज़ वो उस अजनबी के लिए भी उसी तरह सोचने लगी जिस तरह अपने क़रीबी कुन्बे के बारे में सोचा करती थी। उसने ख़लाई स्टेशन 70007 पर राब्ता क़ाएम करके बात करने की कोशिश की तो पता चला कि एक रोज़ पहले जो शख़्स उसे मिला था, उसके बा’द से तो अब तक स्टेशन में सैकड़ों लोगों की ड्यूटी लग चुकी है। उन्होंने कहा कि अगर सही सैकेंड बताया जाए तो ड्यूटी लिस्ट से मा’लूम किया जा सकता है लेकिन वो सैकेंड याद रख सकी क्योंकि उसको ये भी याद था कि कितने सैकेंड वो एक दूसरे को देखते रहे।

    और फिर कई साल गुज़र गए। उसे बहर-ए-क़ुल्जुम, बहर-ए-रुम और बहर-उल-काहिल के साहिल याद आते। उसका जी चाहता कि वो ज़मीन पर जाए। ज़मीन की सी नर्म रेत किसी सय्यारे में नहीं है। अक्सर सय्यारों की खुरदुरी और सख़्त ज़मीन पर चलते हुए उसे ज़मीन की रेत की गर्मी और नर्मी याद आया करती थी। मगर एक लंबे अ’र्से से उसे ज़मीन पर जाने की छुट्टी मिली थी।

    कभी-कभी उसे अपनी परदादी की सुनाई हुई कहानियाँ याद आतीं। वो कहा करती थीं कि इंसानों की एक नस्ल ऐसी थी जिसे बड़ी फ़ुर्सत नसीब थी। मगर लोग उस दौर में ख़ुद-ग़र्ज़ थे, इसलिए उन्होंने उस फ़ुर्सत का कोई फ़ाएदा उठाया। वो लोग पैसे जम्अ’ करते थे और अपने रहने के लिए बड़े-बड़े ऊँचे मकान बनाते थे और कुछ लोगों के घर छोटे होते थे और कुछ बिल्कुल बे-घर होते थे। उस ज़माने में मुआ’शरा तबक़ों में बटा हुआ था। ये अमीर अपने ख़ाली कमरों, लानों और इस्ति’माल की बेश-क़ीमत चीज़ों को सिर्फ़ अपने और अपने बच्चों के लिए मख़सूस रखते थे, या कभी रिश्तेदारों और दोस्तों को शरीक कर लिया करते थे।

    ये लोग हमेशा ज़ियादा दौलत और ओहदों की आरज़ू करते थे। उन्हें काम से इतनी दिलचस्पी थी जितनी रुपये से। वो लोग उस वक़्त भी रुपया जम्अ’ करते थे जबकि उन जैसे दूसरे लोग फ़ाक़े करते थे और फटे पुराने कपड़े पहनते थे। उस ज़माने की बातें उसने इंसानी तारीख़ के दौर-ए-जाहिलियत की तारीख़ में भी पढ़ी थी और वो ख़ुदा का शुक्र अदा किया करती थी कि तंग-दिली, ख़ुद-ग़र्ज़ी और जाहिलियत के उस ज़माना में पैदा हुई और वो कीड़े मकोड़ों जैसे इंसान अब नहीं रहे हैं।

    उसकी ज़मीन तो बहुत ख़ूबसूरत है। इंसानी नस्ल इर्तिक़ा की उस मंज़िल पर है जहाँ ख़ुद-ग़र्ज़ी, तंगदिली, कंजूसी, हसद, अदा’वत सब शैतानी जज़्बे ख़त्म हो चुके हैं और ज़मीन जन्नत का नमूना बन गई है। यहाँ सब चीज़ें सबकी हैं सारी ख़ूबसूरत और बड़ी-बड़ी इमारतें और बाग़ात... और इजतिमाई बहबूद के कामों में बड़ी दिलचस्पी लेते हैं। उन्हें रहने के लिए ज़रूरत के मुताबिक़ घर दिए जाते हैं। जब कोई बच्चा स्कूल जाने के क़ाबिल होता है तो घर के सबसे क़रीबी स्कूल में दाख़िल हो जाता है।

    सारे मुल्क के स्कूल एक जैसे हैं, मुआ'शरे में तबक़े नहीं हैं इसलिए ता'लीम में भी तबक़े नहीं हैं। वो दुनिया की जिस ज़बान में चाहें ता'लीम हासिल कर सकते हैं, उन्हें अपने लिए ज़बान चुनने की आज़ादी है और दुनिया इतनी क़रीब गई है कि सब ज़बानें मिलकर एक नई ज़बान बन गई है जिसमें दुनिया की हर ज़बान के लफ़्ज़ मौजूद हैं और वो ज़बान सब लोग जानते हैं। ज़मीन पर इजतिमाई खेती ने सब खलियान भर दिए थे, जिस जगह ग़ल्ला ज़ियादा होता उस जगह पहुँच जाता, जहाँ कम होता। मगर ऐसा करने के लिए किसी को भीक माँगनी पड़ती बल्कि अपने हक़ के लिए सिर्फ़ ज़रूरत बताने से काम चल जाता था। क्योंकि सारी ज़मीन एक है इसलिए जहाँ भी चीज़ ज़ियादा होगी वो उनका हिस्सा होगी जहाँ वो चीज़ कम है। यही क़ानून था।

    ज़मीन पर मुआहिदे थे इमदादी प्रोग्राम थे। बड़े और छोटे मुल्कों के मसाइल थे, बलॉक थे। दुनिया के सारे मुल़्क इतने क़रीब थे जैसे एक मुल्क के मुख़्तलिफ़ शहर एक निज़ाम की कड़ी से जड़े हुए हैं। जैसे एक कुंबे के अफ़राद।

    आज़ादी, बराबरी, सच्चाई और मुहब्बत की हुक्मरानी थी। झूट, हसद और कीने का नाम कोई जानता था। वो लोग इन सब सियाहियों को खुरच कर दिलों को आईना बना चुके थे और इंसान की सारी सलाहियतें इंसानी इर्तिक़ा के लिए वक़्फ़ थीं, ज़मीन पर बसने वाले इंसान उन सब इंसानों का भी ग़म खाते थे जो मुख़्तलिफ़ सय्यारों में बस चुके थे और अब उन्हें सय्यारों के हो चुके थे। उन सब सय्यारों में ज़मीन के दरमियान भी रिश्ते थे, इंसानी रिश्ते, मुहब्बत, अम्न और ख़ुशी से जगमगाते रिश्ते। बराबरी, इ’ज़्ज़त और मेहनत से सब रिश्ते उस्तुवार थे, वो सब बे-ग़र्ज़ी से शहद की मक्खियों की तरह दिन रात अपने काम को इ'बादत जान कर मसरूफ़ थे।

    वो चंद लम्हों के लिए बहर-ए-औक़ियानूस पर उतरी थी। ख़लाई लिबास उतारकर कैप्सूल में से निकल कर ख़ुद को बहुत हल्का-फुलका महसूस कर रही थी। समंदर की हवाएँ कितनी ख़्वाब-नाक और सुरूर-अंगेज़ हैं। ज़मीन पर उतर कर पहला एहसास उसे हवाओं के बेहद फ़रहत-बख़्श होने का था। वो रेत पर ख़ामोश लेट कर कुछ वक़्त गुज़ारना चाहती थी। चंद सैकेंड... सूरज की शुआओं में जी भर के नहाने की आरज़ू थी। अचानक समंदर के किनारे एक ख़लाई कैप्सूल और आकर उतरी और उसमें से एक शख़्स उसे अपनी जानिब आता दिखाई दिया। जब क़रीब आकर उसने अपना ख़लाई हैट उतार दिया तो वो हैरान रह गई। पूरे दस बरस बा’द ख़लाई स्टेशन 70007 पर मिलने वाला नौजवान ख़ला-बाज़ उसके सामने था। उन दोनों ने एक दूसरे को देखते ही पहचान लिया।

    “मैं रौशनी की रफ़्तारे तुम्हारा पीछा कर रहा था।”, वो बहुत ख़ुश था।

    “ओह मुझे नहीं मा’लूम था कि मेरा पीछा हो रहा है।”, वो हँस पड़ी। फिर कहने लगी, “तुम्हें इतनी फ़ुर्सत कैसे मिल गई?”

    “दर-अस्ल मेरी छुट्टी थी। सोचा छुट्टी को इस काम में सर्फ़ किया जाए।”

    “छुट्टी को इजतिमाई बहबूद के काम में सर्फ़ करके क्या ज़ियादा ख़ुशी नहीं होती?”

    “हाँ ये तो है मगर आदमी की ज़ात का भी तो उस पर कुछ हक़ है?”

    “अच्छा तो क़र्ज़ चुकाने निकले हो... मगर मेरे पास तो अपने लिए कोई वक़्त नहीं है...?”

    “हाँ तुम्हारी फ़र्ज़-शनासी और मुहब्बत की तो हर तरफ़ धूम है। शायद अ'र्श तक!”

    “क्या गिले शिकवे करके क़र्ज़ चुकाया जाता है?”

    “अरे नहीं... दर-अस्ल तुम्हारी एक अ'मानत मेरे पास है।”

    फिर उसने जेब में हाथ डाल कर एक अँगूठी निकाली और कहा, “ये अँगूठी मेरी माँ ने देकर कहा था कि ख़ला-नवर्दी में अगर तुम्हें कोई लड़की पसंद आए तो ये अँगूठी उसे पहना देना और आज मैंने तुम्हें ढूँढ लिया तो क्या मैं तुम्हें ये अँगूठी पहना सकता हूँ?”

    उसने मुस्कराकर अपना हाथ ख़ला-बाज़ की जानिब बढ़ाया। अँगूठी के नग में क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंगों की सी फुवार निकल रही थी। उसने अँगूठी पहन कर उसे अपने लबों से छुआ और बोली, “मैं हमेशा ये अँगूठी पहने रहूँगी।”

    फिर वो एक दूसरे का हाथ पकड़ कर गर्म और नर्म रेत पर चलने लगे।

    “अच्छा तुम इस अ’र्से में कहाँ कहाँ रहीं?”

    “कभी ज़ुहरा... कभी अतारिद और कभी ज़मीन और सय्यारों के माबैन मुख़्तलिफ़ ख़लाई स्टेशनों पर, बस गर्दिश-ए-फ़लकी ही समझो... और तुम?”

    “चाँद पर मस्नूई खेती के जो तजुर्बात हमने किए थे, मिर्रीख़ वाले भी उनसे फ़ाएदा उठाना चाहते थे। मिर्रीख़ वाले क़हत का शिकार थे इसलिए उनकी मदद करना हमारा फ़र्ज़... हमारी पूरी एक टीम मिर्रीख़ की तजरबा-गाहों में काम कर रही थी और इसलिए मैं बहुत मसरूफ़ रहा। अब मिर्रीख़ पर भी ख़ूब खेती हो रही है और वहाँ ज़मीन की सी ख़ुशहाली नज़र आती है। दस साला मंसूबा मुकम्मल होने पर मुझे थोड़ी सी छुट्टी मिली है।”

    “मुबारक हो... इसका तो मतलब है तुमने दस साल शानदार रियाज़त की है।”

    “हाँ इस मंसूबे की तकमील से मुझे जो ख़ुशी हुई वो मैं तुम्हारे साथ बाँटना चाहता था...”

    “अच्छा यहाँ रेत पर बैठ कर बातें करें... और अब क्या प्रोग्राम है?”

    “मुझे तुम्हारी माँ और बहनों से मिलना है...”

    “बहुत मा’लूमात हासिल कर लीं मेरे मुतअ’ल्लिक़?”

    “हाँ मा’लूमात हासिल करना इतना मुश्किल तो था।”

    “अच्छा... तुम्हारे लिए आसान होगा।”, उसने हैरान हो कर कहा।

    वो बोला, “अ’जीब बात है, ख़लाई राब्ते के मर्कज़ी दफ़्तर में काम करके भी तुम इन दस सालों में कोई राब्ता क़ाएम कर सकीं?”

    “ख़लाई मर्कज़ी दफ़्तर में काम करने वाले तो सबसे ज़ियादा मसरूफ़ होते हैं। हमारे पास अपने लिए वक़्त कहाँ होता है हमारा हर हर लम्हा क़ीमती होता है और वो दूसरों का होता है।”

    “मगर वो एक लम्हा जब मैंने पुकार कर तुम्हारा नाम पूछा था और तुमने अपना नाम बताया था, हमेशा मेरा रहेगा।”

    “काश तुम्हें चंद लम्हे देना मेरे इख़्तियार में होता और कभी इकट्ठे बैठ कर इत्मीनान से बातें कर सकते...”

    “क्या तुम्हारे घर का ये पता मुझे मा’लूम हुआ है, ठीक है?”

    उसने काग़ज़ी नोट पढ़ा और फिर ख़ुश हो कर बोली, “बिल्कुल ठीक है तुम चंद लम्हे में बहर-ए-रुम पहुँच जाओगे... सुनो माँ को मेरी तरफ़ से प्यार करना और बहनों को भी...!”

    उसी लम्हे जब उनका जी चाह रहा था कि वो रेत पर चलते जाएँ और समंदर का किनारा ख़त्म हो। उसकी नन्ही सी माचिस की डिबिया के बराबर वायरलैस सेट से सिग्नल मौसूल होने लगे। उसने जल्दी से ख़लाई कैप्सूल की तरफ़ रुख किया। तेज़-रफ़्तार से तक़रीबन दौड़ते हुए उनकी नज़र दूर फैले हुए साहिल पर पड़ी और उन्हें वहाँ बहुत से लोग नज़र आए... रंग-बिरंगे लिबास। धूप की छतरियाँ और लोग ही लोग। उन्हें तअ'ज्जुब हुआ कि उन्हें अब तक दूसरों की मौजूदगी का एहसास क्यों हुआ। सब लोग उन दोनों की तरफ़ देखकर हाथ हिला रहे थे। ख़लाई राब्ते के लोग हर तरफ़ बहुत इ’ज़्ज़त से देखे जाते हैं और समाजी ज़िंदगी में उन्हें इंतिहाई अहम मुक़ाम हासिल होता है। उन दोनों ने भी उनकी तरफ़ देखकर हाथ हिलाया फिर वो अपने-अपने ख़लाई हैट पहन कर अपने अपने कैप्सूल में सवार हो गए। एक बहर-ए-रुम की तरफ़ दूसरा आसमानों की तरफ़...

    वो ख़लाई कैप्सूल में आकर सोचने लगी कि उन सबकी मेहनत के नतीजे में किसी दिन ख़ला में रहने वाले इंसानों को ज़ियादा ख़ूबसूरत फ़ुर्सत के लम्हे मयस्सर सकेंगे। फिर वो सोचने लगी कि उसने तो ढेरों मा’लूमात जम्अ’ कर लीं और वो उसका नाम तक पूछ सकी, शायद इसलिए कि जिस लम्हा वो उसके सामने होता है, बाक़ी सब चीज़ें गै़र-ज़रूरी होती हैं।

    ख़लाई स्टेशन 110008 में जब वो अपनी अ’ज़ीज़ दोस्त की शादी की तक़रीब में एक घंटा की छुट्टी पर गई तो एक लंबे अ’र्से बा’द उसकी अपनी दूसरी दोस्तों और साथियों से मुलाक़ात हुई, उनमें बहुत से लोग ज़मीन पर और बहुत से चाँद और ज़ुहरा पर उसके साथ काम कर चुके थे। उन सबने उसके हाथ में अँगूठी देखी तो उसे मुबारकबाद दी।

    “कौन है वो।”, उसकी सहेलियों ने पूछा।

    “नाम पूछने का वक़्त मिला।”, वो सब हँस पड़ीं, “अच्छा चलो राज़ ही सही...”

    “मगर सुनो ये राज़ तो मुझसे भी राज़ है।”, इतनी मा’सूम सच्चाई पर उन सबको प्यार गया। उन्होंने कहा हम सब तुम्हारी ख़ुशी के लिए दुआ’’ करेंगे। उसकी सहेली ब्याह के बा’द ज़ुहरा पर जा रही थी और दूल्हे को भी ज़ुहरा पर ही एक मुहिम के सिलसिले में भेजा जा रहा था और वो सब लोग इस बात पर ख़ुश थे कि चंद रोज़ दूल्हा दुल्हन इकट्ठे रह सकेंगे। सबने दूल्हा दुल्हन की ख़ुशियों का जाम-ए-सेहत पिया और उनके लिए दुआ’’ की।

    उस रोज़ छुट्टी का एक घंटा उन सबको इतना लंबा लग रहा था जैसे ज़मीन पर छुट्टी का पूरा दिन और एक दिन की छुट्टी तो ज़मीन पर भी बूढ़े लोगों को मिलती है और उसी बरस के बा’द बूढ़े लोग बाग़ों में धूप और साये में आराम से बैठ कर सोचते और याद करते हैं और अपनी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत यादों की किताबें, जो उनके हाफ़िज़े में महफ़ूज़ होती हैं, पढ़ते हैं और ऐसी बातें जिनका तअ’ल्लुक़ इज्तिमाई बहबूद के कामों से होता है कम्पयूटरों को लिखवाते जाते हैं और आने वाली नस्लें वो कहानियाँ सुनकर ज़मीन को और ज़ियादा ख़ूबसूरत बनाने के लिए काम करती हैं। इसलिए लोग बुढ़ापे से घबराते हैं परेशान होते हैं बल्कि बुढ़ापे में उनके हर बुन-ए-मू से ख़ुशी छलकी पड़ती है। उनकी सेहत क़ाबिल-ए-रश्क होती है और आराम से तवानाई बढ़ जाती है। इसलिए जो लोग बुढ़ापे की उ’म्र तक पहुँचने से पहले दुनिया से चले जाते हैं उनका सबको बहुत दुख होता है और हर शख़्स बेचैनी से बुढ़ापे का इंतिज़ार करता है। इसलिए कि बचपन ख़ुशी है, जवानी मसरूफ़ियत और बुढ़ापा आराम और इ’ल्म तो बचपन से लेकर बुढ़ापे तक इंसान हासिल करता ही रहता है।

    ख़ला में धनक के सब रंगों के आसमान वो देख चुकी थी। बहुत से सय्यारे, अन-गिनत लोग, ख़ला में बसने वाले इंसानों के सैकड़ों कारवाँ और ज़हीन इंसान भी जो ख़ला में हमेशा के लिए घर बनाकर रह रहे हैं। सय्यारों और ख़लाई स्टेशनों के लोग उसे ख़लाई राब्ता के मर्कज़ी दफ़्तर की अहम रुक्न की हैसियत से जानते थे और उसकी इ’ज़्ज़त करते थे।

    ख़ला में उसे बीस साल से ज़ियादा अ’र्सा गुज़र चुका था। ज़मीन उसके लिए अजनबी बनती जा रही थी। उसकी माँ मर चुकी थी और अपनी माँ की मौत की ख़बर भी उसने ख़ला में सुनी थी। चंद लम्हों के लिए तो उसे ऐसा लगा कि आसमानों और ज़मीनों की गर्दिश रुक जाएगी और सब सितारे टूट-टूट कर गिर पड़ेंगे लेकिन अगले ही लम्हे वो तरह-तरह के बटन दबाने और सिग्नल सुनने में मसरूफ़ हो गई और ख़लाई राब्ते के बहुत से अहम पैग़ामात और ख़बरें पहुँचाने का सिलसिला शुरू’ कर दिया। उसने सोचा अभी ज़मीन पर हज़ारों बूढ़ी माएँ ख़ला-नवर्दों की आस लगाए आसमान की तरफ़ देख रही होंगी

    उस रोज़ उसका जी चाहा कि सब ज़रूरी काम छोड़कर बस अपनी माँ को याद करे। उसे ख़ला-नवर्द का ख़याल आया और उसने अपनी अँगूठी को देखकर सोचा पता नहीं उसकी माँ ज़िंदा है और फिर वो अपनी बहनों को याद करने लगी जो अपना ग़म छिपाकर उसे तसल्ली दे रही थीं।

    उसे रूह-ए-इंसानी की बे-पनाह ताक़त का एहसास अक्सर हुआ था, जैसे जज़्बात और एहसासात इतने ताक़तवर हैं कि वो बटनों, आलों और सिग्नलों के मुहताज नहीं हैं। फ़ासले दूरी पैदा नहीं करते बल्कि मुहब्बत को बढ़ा देते हैं। वो अपने काम में मसरूफ़ हो गई। अपने बारे में ज़ियादा सोचना हमेशा ख़ुद-ग़र्ज़ी की बात मा’लूम हुआ करती थी। उसे ये उम्मीद ज़रूर थी कि ख़लाई मुलाज़िमत के तीस साल मुकम्मल करके उसे भी दूसरी औ'रतों की तरह अपनी पसंद की ज़मीन पर रहने की इजाज़त होगी और तब वो ज़रूर अपनी ही प्यारी ज़मीन पर जाना पसंद करेगी। किसी ख़ूबसूरत किताब को पढ़ सकेगी और किसी कम्पयूटर को लिखवाने के लिए उसके पास यादों का ख़ज़ाना है। ख़ला के अहम राज़... जो आने वाले इंसानों को वो बताना पसंद करेगी लेकिन अब माँ की मौत के बा’द उसे ये महसूस हुआ कि शायद अब ज़मीन उसे उतनी ख़ूबसूरत लगे। माँ के बग़ैर जाने ज़मीन कैसी लगेगी।

    उसे अपनी दोस्तों और साथियों के पैग़ामात मिले और ख़लाई स्टेशनों और सय्यारों से हम-दर्दी के पैग़ामात आए और उसे महसूस हुआ कि दूर-दराज़ सय्यारों में बसने वाले उसके ग़म में शरीक हैं। मगर वो... वो कहाँ है...? वो ये सोच कर अपनी अँगूठी को देखती। फिर उसे ज़मीन पर जाने के लिए एक दिन की छुट्टी मिली और उस रोज़ जब वो ज़मीन की तरफ़ रही थी तो उसे ऐसा लगा कि ज़मीन ने ख़ला में बाँहें फैला रखी हैं और ज़मीन ही उसे माँ लग रही थी।

    एक दफ़्अ’ उसे ऐसे सय्यारे में जाने का मौक़ा मिला जहाँ का आसमान बनफ़्शी रंग का था और ज़मीन सुर्ख़ थी। बादलों के रंग बदलते रहते थे और इस वज्ह से ऐसा लगता था कि आसमान का रंग बदल जाता है। ये सियाह-रंग और नूर का सय्यारा मशहूर था, हवाओं में ख़ुश्बू थी, दरख़्तों का रंग सब्ज़ का ही था, इमारतें हीरों के टुकड़े तराश कर बनाई गई थीं। उस ख़ूबसूरत सय्यारे में पहुँच कर वो बहुत ख़ुश हुई। उसने रास्ता चलते हुए मर्दों, औ'रतों और बच्चों के हाथ में फूल देखे। बहुत सी औ’रतें अपने घर के सामने फूलों का लिबास पहने खड़ी थीं। वो बिल्कुल ज़मीन की औ’रतें मा’लूम हो रही थीं। वो इससे पहले बहुत से ख़ूबसूरत सय्यारों में जा चुकी थी और ख़ला में रंगों और शुआओं के ख़ूबसूरत मनाज़िर देख चुकी थी मगर ये सय्यारा देखने का उसे इश्तियाक़ था। उसने यहाँ की पुर-कैफ़ फ़िज़ा में आकर तर-ओ-ताज़गी और ख़ुशी महसूस की और अ’जीब तरह का सुकून जो उसे दूसरे चेहरों पर भी नज़र रहा था। उसने सुना था कि इस सय्यारे ने बहुत तरक़्क़ी की है और ज़मीन के बा’द इंसानों को ये सय्यारा पसंद है और वो यहाँ बहुत ख़ुश हैं। यहाँ के आसमान पर ज़रा-ज़रा से वक़्फ़े के बा’द तीन चाँद तुलूअ’ होते हैं और चाँद रातें बहुत ख़ूबसूरत और आसूदगी-बख़्श होती हैं। चलते हुए उसे हर तरफ़ से फूलों की महक का एहसास हुआ। उसने सोचा यहाँ आकर तो ज़रा सी फ़ुर्सत को जी चाहता है। लेकिन वो एक अहम मिशन पर आई थी और उसका हर-हर सैकेंड बहुत क़ीमती था।

    जब वो ख़लाई मर्कज़ में पहुँची तो मा’लूम हुआ कि सय्यारे में आज कोई तहवार है इसलिए अक्सर लोग छुट्टी पर हैं लेकिन ख़लाई मर्कज़ का निगराँ अपने दफ़्तर में मौजूद होगा, वो काम से कभी छुट्टी नहीं करता। ये बात जान कर उसे इत्मीनान हुआ कि आज जल्द ही वो सब काम पूरा कर सकेगी। जब वो उसके सामने पहुँची तो हैरान रह गई। उसके सर के बाल बिल्कुल सफ़ैद हो चुके हैं मगर आँखें अब तक बच्चों की तरह मा’सूम और हैरान थीं।

    “अरे तुम”, वो हैरान खड़ा था। अचानक मुलाक़ात पर दोनों ही यकसाँ हैरान और ख़ुश थे। औ’रत ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो उसकी नज़र अँगूठी पर पड़ी और दोनों ने महसूस किया कि वो कितने क़रीब और कितनी दूर रहे हैं। उसे अँगूठी पहने हुए बीस साल से ज़ियादा गुज़र चुके थे, ऐसा लग रहा था एक जुग बीत गया था

    “तुम कितनी ख़ूबसूरत जगह रह रहे हो।”

    “काश तुम भी यहाँ रह सकतीं। क्या अब भी ये मुम्किन नहीं?”

    “काश ये मुम्किन हो सकता मगर मैं एक अहम मिशन पर आई हूँ।”

    “अरे तुम खड़ी क्यों हो...”, वो इतने ख़ुश और हैरान थे कि उन्हें बैठने का ख़याल ही आया।

    “जब मैंने माँ के बारे में सुना तो मैं तुम्हारे घर गया था। तुम छुट्टी गुज़ार कर लौट चुकी थीं। तुम्हारी बहनों के साथ मैंने एक दिन गुज़ारा और उनकी शादियों में शिरकत की।”

    “हाँ मुझे ये सब मा’लूम करके बहुत ख़ुशी हुई थी। मेरी बहनें तुम्हारे नाम अपना सलाम भेजा करती हैं। उन्हें ये नहीं मा’लूम कि हमें एक दूसरे का कोई पता नहीं होता है।”

    “हाँ, उन्हें नहीं मा’लूम कि ख़लाई राब्ते के मर्कज़ी दफ़्तर में काम करने वाले लोग कितने ज़ालिम होते हैं।”

    “ज़ालिम या फ़र्ज़-शनास?”

    और फिर उसे वो ख़त याद आए जो वो उसके लिए लाई थी। उसने चंद ख़त थैले में से निकाले जिन पर उसके नाम के बजाए कोड नंबर लिखा था।

    “मुझे तुम्हारा कोड नंबर नहीं मा’लूम था और सच बात तो ये है कि तुम्हारा नाम भी मुझे अपनी बहनों से मा’लूम हुआ था।”

    “हाँ तुम्हें फ़ुर्सत ही कहाँ थी कि तुम कुछ जानना चाहो।”

    “अच्छा पहले ये ख़त पढ़ लो। उन्होंने बहुत सी बातों पर तबादला-ए-ख़याल करने को कहा है।”

    वो ख़त पढ़ता रहा और वो ख़ामोश बैठी रही। फिर उसने ख़ुतूत पढ़ कर कहा, “मर्कज़ी दफ़्तर की हिदायत है कि तुमसे इन नक़्शों और प्लानों पर तबादला-ए-ख़याल किया जाए, क्या तुम्हारे पास मौजूद हैं।”

    उसने अपने थैले से बहुत से नक़्शे और प्लान निकाले और बोली, “तुम अपने सय्यारे का नक़्शा भी निकाल लो, फिर हम ये तय करेंगे कि नए ख़लाई स्टेशन कहाँ-कहाँ बनाए जाएँगे। ये ज़ुहरा, मिर्रीख़ और अतारिद के नक़्शे हैं और ये हमारे नए मंसूबे के नक़्शे हैं।”, उसने अपनी मेज़ की दराज़ से चंद नक़्शे निकाले और फिर वो दोनों उन नक़्शों पर झुक गए।

    घंटे भर से ज़ियादा गुज़र चुका था। नए ख़लाई स्टेशन कहाँ-कहाँ हो सकते हैं, ये तय करते हुए उन्हें ख़याल आया कि आने वाले ज़मानों में इंसान एक दूसरे के ज़ियादा क़रीब सकेंगे और वो मुहब्बत भी कर सकेंगे। एक लम्हे के लिए उन्हें ख़याल आया कि शायद उन्हें मुहब्बत करने की फ़ुर्सत ही नहीं मिली। लेकिन अगले ही लम्हा दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखकर सोचा कि शायद उनसे ज़ियादा ख़ूबसूरत मुहब्बत आज तक किसी ज़ी-रूह ने नहीं की है और ये सोच कर वो दोनों मुस्कुराने लगे।

    वो बोला, “आज यहाँ पूर्णमाशी का तहवार है, तीनों चाँद पूरे होंगे, लोग रात-भर बाग़ों में गीत गाएँगे और रक़्स करेंगे। क्या तुम ठहर सकती हो...? हम बातें करेंगे।”

    “काश मेरे पास अपने लिए कुछ वक़्त होता... हमारे पास कितनी बातें जम्अ’ हैं।”

    वो उसकी आँखों में देख रहा था, “क्या तुम अपना घर भी नहीं देखोगी?”

    “नहीं बहुत मुश्किल है...!”

    “इतना मुश्किल तो नहीं...”

    “दूसरों को हमारी ज़रूरत है। मुझे ये प्लान लेकर 10001 ख़लाई स्टेशन जाना है। वहाँ से तबादला-ए-ख़याल करके ये नक़्शे ज़ुहरा, अतारिद और मिर्रीख़ पहुँचाने हैं और ज़ुहरा तो आज ही जाना है वहाँ एक मीटिंग है और मर्कज़ के दूसरे लोग भी वहाँ रहे हैं।”

    “काश वक़्त पर हमारा इख़्तियार होता।”

    “नहीं... हम किसी भी चीज़ को हथियाना नहीं चाहते... ये तो ख़ुद-ग़र्ज़ी है।”

    “मुहब्बत कभी-कभी ख़ुद-ग़र्ज़ बना देती है।”

    “नहीं मुहब्बत दूसरों के बारे में सोचना सिखाती है।”, वो जानते थे कि अभी ख़ला के बहुत से सय्यारों में वो बदी और ख़ुद-ग़र्ज़ी है जो ज़माना-ए-जाहिलियत में ज़मीन पर थी। ये लोग अपनी साईंसी क़ुव्वत को बदी के लिए इस्ति’माल कर रहे हैं। उन्हें हर वक़्त ये ख़याल रखना पड़ता है कि नक़्शे और प्लान उनके हाथ लग जाएँ। नस्ल-ए-इंसानी की तरक़्क़ी के सब ख़ूबसूरत ख़्वाब उनकी ज़रा सी ग़फ़लत से तबाह हो सकते हैं और बदी के उन सय्यारों से बच कर उन्हें अपना काम करना पड़ता है। वहाँ की मख़लूक़ सोचने से आ'री है।

    उनकी हिर्स, हवस और ख़ुद-ग़र्ज़ी ने सोचने की सलाहियत मफ़क़ूद कर दी है, वो अपने इ’ल्म को शैतान का आ'ला-कार बनाए हुए हैं, जब कि ख़ला की दूसरी मख़लूक़ और सय्यारों पर बसने वाले दूसरे लोग इर्तिक़ा के अ’मल में एक दूसरे के मददगार हैं और काम उनकी इ'बादत है और ईसार और क़ुर्बानी के जज़्बे से इस तरह सरशार हैं कि अपनी ज़ाती ख़ुशी को इज्तिमाई मुफ़ाद के सामने हक़ीर जानते हैं। उस लम्हा मर्द ने ख़ुशी के सच्चे एहसास के साथ उस औ’रत को देखा जिसे उसने बीस साल क़ब्ल एक अँगूठी पहनाई थी और जो उसे तीस साल पहले ख़लाई स्टेशन 70007 में चंद लम्हों के लिए मिली थी... और उसने सोचा वो आज भी ख़ूबसूरत है। उसे इतने ग़ौर से अपनी जानिब देखते हुए उसने पूछा, “क्या सोच रहे हो?”

    “ये कि काश मेरी माँ ने तुम्हें देखा होता...”

    “क्या वो...”

    “हाँ वो भी अब जिस्मानी पैकर से आज़ाद हो चुकी हैं।”

    “हम अपने अच्छे अ’मल की ख़ुशी उन्हें पहुँचाते रहेंगे।”

    “मैंने तुम्हारी तस्वीर उन्हें दिखाई थी।”

    “अच्छा...”

    “हाँ तुम्हारी माँ ने तुम्हारी बीसवीं साल-गिरह की तस्वीर मुझे तोहफ़ा दी थी।”

    “माँ ये अँगूठी देखकर बहुत ख़ुश थीं।”, वो आहिस्ता से बोली।

    “काश हम अपनी माओं को कुछ ज़ियादा ख़ुशी दे सकते...”, वो बोला।

    “सुनो आने वाले ज़मानों में लोगों को ज़ियादा फ़ुर्सत मिल सकेगी। वो मुहब्बत कर सकेंगे। हमारा काम उन्हें एक दूसरे के ज़ियादा क़रीब ले आएगा और हमारी मेहनत और मुहब्बत का फल उन्हें ज़रूर मिलेगा।

    उसी लम्हा उसने आने वाली नस्ल से इतनी मुहब्बत महसूस की जैसे उसके रोम-रोम में ममता बसी हो और ख़ला-नवर्द सोचने लगा कि औ’रत सिर्फ़ बच्चे जनने से ही माँ नहीं बनती। ममता तो बस एक रौशनी है और उसे उस लम्हा ये महसूस हुआ कि वो औ’रत नहीं, बस एक ख़ूबसूरत रौशनी है जो ख़ला को ख़ूबसूरत बना रही है। उसके वजूद से जैसे ये रौशनी आसमानों और ज़मीनों में फैल रही हो... और फिर उसे महसूस हुआ कि मुहब्बत भी तो एक ख़ूबसूरत रौशनी है... और उन दोनों के वजूद में जाने कितनी ख़ूबसूरत रौशनियाँ गले मिल रही थीं।

    “अच्छा अब मुझे चलना चाहिए।”, वो खड़ी हो गई। वो भी बग़ैर कुछ बोले खड़ा हो गया और चुप-चाप उसके साथ चलने लगा। जब वो उसे ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर जाने वाली थी तो उसे ये महसूस हुआ कि शायद ये अब उनकी आख़िरी मुलाक़ात है और ये महसूस करके उसने गर्दन मोड़ कर दुबारा ख़ला-नवर्द को देखा, वो उसे जाते हुए ग़ौर से देख रहा था और वो सारी मुहब्बत उसकी आँखों में थी जो चाँद तारों की काएनात में रौशनी बन कर उन माह-ओ-साल में फैल गई थी। वो उसे ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर ख़लाई कैप्सूल में सवार हो गई। सय्यारे की सुर्ख़ ज़मीन पर एक हाथ अब तक उसके लिए उठा हुआ था। उसकी आँखों से पानी के बहुत से क़तरे टपके जो ख़लाई टोपी के काँच जैसे शफ़्फ़ाफ़ प्लास्टिक पर चमकने लगे।

    स्रोत:

    Khalai Daur Ki Mohabbat (Pg. 42)

    • लेखक: अख़्तर जमाल
      • प्रकाशक: मक़बूल अकादमी, लाहाैर
      • प्रकाशन वर्ष: 1991

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