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नाक काटने वाले

ग़ुलाम अब्बास

नाक काटने वाले

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    पुरुष सत्ता समाज में तवाएफ़ को किन किन मोर्चों पर लड़ना पड़ता है उसकी एक झलक इस कहानी में पेश की गई है। नन्ही जान की ग़ैर-मौजूदगी में तीन पठान उसके कोठे पर आते हैं और उसके दो मुलाज़ेमीन से चाक़ू के दम पर ज़ोर-ज़बरदस्ती और अभद्रता का प्रदर्शन करते हैं। वो नन्ही जान की नाक काटने का आशय प्रकट करते हैं। बहुत देर इंतेज़ार के बाद वो थक-हार कर वापस चले जाते हैं। उनके जाने के बाद ही नन्ही जान लौटती है। नन्ही जान अपने मुलाज़ेमीन को तसल्ली देकर सोने चली जाती है और उसके मुलाज़िम आपस में अनुमान लगाते हैं कि अमुक या अमुक ने ईर्ष्या और द्वेष में उन ग़ुंडों को भेजा होगा।

    तीन शख़्स चुग़े पहने सर पर आड़ी तिरछी पगड़ियाँ बाँधे, नन्ही जान के कमरे में दाख़िल हुए और चांदनी पर गावतकियों से लग कर बैठ गए।

    मिज़ाज तो अच्छे हैं सरकार! रंग अली ने कहा। उन तीनों में से किसी ने उसकी मिज़ाज पुरसी की रसीद दी। गुलाबी जाड़ों के दिन थे। बाहर हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी। रात ख़ासी जा चुकी थी। एक मिनट तक ख़ामोशी रही। जिसके दौरान में तीनों आदमी तेज़-तेज़ नज़रों से कमरे का ज़ाइज़ा लेते रहे। उस कमरे से मिला हुआ एक छोटा कमरा था, जो ख़्वाबगाह का काम देता था। उन्होंने अपने कीचड़ भरे चप्पल नहीं उतारे थे। जिसकी वजह से उजली चांदनी पर धब्बे ही धब्बे पड़ गए थे।

    जब्बार ख़ाना। उनमें से एक ने दूसरे से कहा, पतोस दो कि पूछो तुम्हारा रंडी लोग किधर है।

    तुम्हारा रंडी लोग किधर है? जब्बार ख़ां ने रंग अली से पूछा।

    बाहर गया है। रंग अली ने कहा। जिस वक़्त वो आए तो ये पान बना रहा था।

    बाहर किधर? जब्बार ख़ां ने पूछा।

    सिनेमा देखने सिनेमा, बाइस्कोप। रंग अली ने कहा।

    क्या कहता है? पहले आदमी ने जब्बार ख़ां से पूछा।

    कहता है बाहर गया है बाइस्कोप का तमाशा देखने।

    ख़ू तमाशा देखने जाता है! पहले आदमी ने कहा।

    बाई जी तो जाती भी नहीं थीं। रंग अली बोला, वो तो चिश्ती साहब ज़बरदस्ती ले गए।

    क्या कहता है? पहले आदमी ने जब्बार ख़ां से पूछा।

    कहता है चिश्ती साहब ज़बरदस्ती ले गया।

    ख़ू चिश्ती के साथ जाता है! पहले आदमी ने कहा। वो डील डोल में अपने दोनों साथियों से कम था। मगर उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल दोनों से ज़्यादा दुरुश्त थे। गले में सियाह धारियों वाले सुर्ख़ ग्लूबंद के दो बल दे कर, सिरे चुग़े के अंदर कर रखे थे। उसके दांत पीले-पीले थे। चौड़ा दहाना। बाएं रुख़्सार पर आँख से ज़रा नीचे एक गहरे ज़ख़्म का निशान था।

    ख़ू रंडी मंडी कोई नहीं तो इतना रौशनी किस वास्ते किया? उसने रंग अली से पूछा। जब वो बात करता तो अपनी छोटी-छोटी आँखों को फ़िक़रे के अध बीच में आधा बंद कर लेता। रंग अली ने कोई जवाब दिया।

    बोलो। जब्बार ख़ां ने कहा, हम तुमसे क्या कहता है? उसका रंग साँवला था। उम्र में वो अपने दोनों साथियों से काफ़ी बड़ा था। उसके ऊपर के एक दांत पर प्लैटिनम का खोल चढ़ा था जो काफ़ी घिस चुका था और हड्डी नज़र आने लगी थी। रंग अली अब भी ख़ामोश रहा।

    हम इतना सीढ़ी किस वास्ते चढ़ के आया? तीसरे आदमी ने पूछा। अपने दोनों साथियों की तरह उसने भी गले में ग्लूबंद लपेट रखा था। उसकी पेशानी तंग थी और नाक पर एक बड़ा-सा मस्सा। उसकी आँखों में सुर्ख़ी इस तरह नज़र आती थी जैसे लहू की छींट पड़ गई हो। उनमें से किसीकी दाढ़ी भी हफ़्ते भर से कम की मुंडी हुई नहीं थी। रंग अली बेवक़ूफ़ों की तरह एक-एक का मुँह तक रहा था। उसकी समझ में आता था कि क्या जवाब दे।

    ख़ू तुम्हारा मुँह में ज़बान नहीं है? तीसरे आदमी ने कहा। फिर वो पहले आदमी की तरफ़ मुतवज्जा हुआ, सोहबत ख़ां इसका मुँह में ज़बान नहीं है!

    सरकार क्या अर्ज़ करूँ। रंग अली ने कहा, बाई जी तो जाती भी नहीं वो...

    जब्बार ख़ां। सोहबत ख़ां ने कहा, इससे पूछो कब आएगा?

    तुम्हारा रंडी लोग कब आएगा? जब्बार ख़ां ने रंग अली से पूछा।

    शो साढ़े बारह बजे ख़त्म होता है सरकार। बस कोई घंटे पौन घंटे तक जाएगा।

    क्या कहता है? सोहबत ख़ां ने जब्बार ख़ां से पूछा।

    कहता है तीन पाव घंटे में जाएगा।

    चिश्ती साहब कई दिनों से सर हो रहे थे। रंग अली बोला, बाई जी हर बार नहीं-नहीं करती रहीं। आज तो बहुत ही सर हुए। कहने लगे फ़िल्म एक नंबर है। बड़ी मुश्किलों से सीटें रिज़र्व कराई हैं। क़समें देने लगे... ऐन उस वक़्त सीढ़ियों पर कुछ आहट हुई, तीनों आदमी चौकन्ने होकर एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे।

    जब्बार ख़ां। सोहबत ख़ां ने कहा, इस पिदर सग को कहो चुप हो जाओ।

    चुप हो जाओ।

    कुछ लम्हे ख़ामोशी में गुज़रे। फिर हुसैन बख़्श धुस्से की बुकल मारे बागेश्वरी की धुन गुनगुनाता दहलीज़ पर नमूदार हुआ, उन तीनों को देख कर वो ठिटका। फिर जूती उतार कर कमरे में दाख़िल हुआ और उनसे ज़रा हट कर चांदनी के एक सिरे पर जहाँ सारंगी गिलाफ़ की हुई रखी थी, बैठ गया।

    सलाम सरकार। हुसैन बख़्श ने कहा।

    ये कौन है? सोहबत ख़ां ने रंग अली से पूछा।

    ये हुसैन बख़्श हैं।

    क्या करता है?

    ये सारंगिये हैं।

    सारंगिये क्या?

    सारंगी बजाते हैं, सारंगी जो साज़ है।

    ख़ू तो साज़िंदा क्यों नहीं कहता।

    हाँ-हाँ वही।

    और तुम ख़ुद क्या करता है? जब्बार ख़ां ने रंग अली से पूछा।

    मैं तबला बजाता हूँ। रंग अली ने कहा।

    ख़ू तो तुम भी साज़िंदा है?

    जी हाँ।

    लम्हा भर ख़ामोशी रही।

    जब्बार ख़ां। सोहबत ख़ां ने जब्बार ख़ां से कहा, पूछो इधर कौन-कौन रहता है?

    बाई जी, हम दो उस्ताद और एक नौकर जुम्मन। रंग अली ने जवाब दिया।

    ख़ू नौकर किधर है? सोहबत ख़ां ने पूछा।

    बाई जी के साथ गया है। रंग अली ने जवाब दिया।

    हूँ, हूँ।

    बाहर बूंदियाँ किसी क़दर तेज़ी से पड़ने लगी थीं। नीचे सड़क पर से थोड़ी-थोड़ी देर के बाद तांगे के घोड़े की टॉप जिसमें घंटियों के सुर भी शामिल होते सुनाई दे जाती। गीली सड़क पर घोड़े का सुम पड़ता तो बड़ी पाटदार आवाज़ निकलती।

    तुमने बोला नन्ही जान तीन पाव घंटे में आएगा? सोहबत ख़ां ने रंग अली से पूछा। हुसैन बख़्श बेज़ार हुआ बैठा था। उसने जवाब देना चाहा, क्या पता...

    तुम मत बको। सोहबत ख़ां ने दुरुश्ती से कहा। फिर वो रंग अली की तरफ़ मुतवज्जा हुआ, तुम्हारा बाई तीन पाव घंटे में जाएगा?

    तो जाना चाहिए। रंग अली ने कहा।

    चाहिए नहीं जानता। सोहबत ने कहा, हाँ कहो या ना।

    देखिए सरकार। रंग अली ने कहा, तमाशा साढ़े बारह बजे ख़त्म होता है और इस वक़्त हुए हैं ग्यारह बज कर पचास मिनट। अगर बाई जी सीधी घर को आईं...

    अगर मगर नहीं जानता। सोहबत ख़ां ने कहा, साफ़ बोलो।

    आख़िर बात क्या है ख़ान साहब? हुसैन बख़्श से चुप रहा गया, कुछ हमें भी तो पता चले। उसके जवाब में तीसरे आदमी ने यकबारगी आगे बढ़ कर ज़ोर का एक मुक्का उसके मुँह पर मारा। उस नागहानी ज़रब पर हुसैन बख़्श की आँखों के आगे अंधेरा गया। आँसू उसकी आँखों में झलकने लगे। उसने सर झुका लिया। थोड़ी देर तक गुम सुम बैठा रहा। फिर उठ कर दहलीज़ की तरफ़ जाने लगा। जहाँ उसका जूता पड़ा था।

    ख़िंज़ीर। जब्बार ख़ां ने कहा, ठहरो किधर जाता है? हुसैन बख़्श ने एक पाँव जूती में डाल लिया था। वो ठहर गया।

    इधर देखो। जब्बार ख़ां ने डपट कर कहा। उसके हाथ में एक कमानीदार चाक़ू था जिसका फल आठ इंच से कम लम्बा था। बिजली की रौशनी में उससे शुआएं सी निकल रही थीं। अगर तुम नीचे जाने की कोशिश करेगा तो हम तुम्हारा पेट चाक कर देगा। सुन लिया। दरवाज़े में कुंडी लगाओ और इधर हमारे पास आकर बैठो। हुसैन बख़्श लम्हा भर खड़ा रहा। फिर उसने जूती से पाँव निकाल लिया और दरवाज़े में कुंडी लगा के अपनी जगह पर आबैठा।

    शाबाश, शाबाश। सोहबत ख़ां ने कहा। फिर वो तीसरे आदमी से कहने लगा, गुलबाज़ ख़ां यार, तुमने तानसेन के बेटे को नाराज़ कर दिया। अब वो हमको गाना नहीं सुनाएगा।

    हम इसको मनाएगा। गुलबाज़ ख़ां ने कहा, हम इसके गुदगुद करेगा। तानसेन का बेटा हँसेगा। तानसेन का बेटा फिर क़व्वाली सुनाएगा।

    जब्बार ख़ां। सोहबत ख़ां ने कहा, इससे बोलो हम गाना सुनने नहीं आया।

    फिर कैसे आना हुआ सरकार? रंग अली ने पूछा।

    क्या कहता है? सोहबत ख़ां ने जब्बार ख़ां से पूछा।

    पूछता है हम क्यों आया? जब्बार ख़ां ने कहा।

    ख़ू पूछता है हम क्यों आया? सोहबत ख़ां ने कहा, इससे पूछो हम क्यों आया।

    ख़ू तुम बताओ हम क्यों आया? जब्बार ख़ां ने रंग अली से पूछा। रंग अली मुस्कुराने की कोशिश करने लगा।

    क्या कहता है? सोहबत ख़ां ने जब्बार ख़ां से पूछा।

    कुछ नहीं कहता। जब्बार ख़ां ने कहा।

    कुछ नहीं कहता?

    मुस्कुराता है।

    मुस्कुराता है? सोहबत ख़ां ने रंग अली से कहा, ख़ू तुम मुस्कुराता है! मस्ख़री करता है!

    ख़ां साहब भी कमाल करते हैं। रंग अली ने कहा, मेरी मजाल है कि मैं आपसे मस्ख़री करूँ!

    ख़ू तुम अच्छा आदमी है। सोहबत ख़ां ने कहा।

    तानसेन का बेटा अच्छा आदमी नहीं है। गुलबाज़ ख़ां ने कहा, वो रोता है, तानसेन का बेटा रोता है।

    क्लाक में घर्र-घर्र हुई, और उसने टन-टन करके बारह बजाना शुरू क्या। हुसैन बख़्श के सिवा सबकी नज़रें उसकी तरफ़ उठ गईं थीं। क्लाक से ज़रा हट कर दिवार पर एक बड़ा-सा रंगदार फ़ोटो था, जिसमें चौथाई सदी पहले की कोई अधेड़ उम्र की गाने वाली, गले में अशर्फ़ियों का हार डाले तंबूरा छेड़ रही थी। नाक पर बड़ी-सी लौंग थी और सीधी मांग निकाल कर जूड़ा बाँध रखा था।

    ख़ू देखो। सोहबत ख़ां ने रंग अली से कहा, उधर क़लयान मलयान भी है?

    क़लयान तो नहीं हुक़्क़ा है सरकार। रंग अली ने कहा।

    हम हुक़्क़ा नहीं पिएगा।

    पान पेश करूँ?

    हम पान नहीं खाता।

    सिगरट?

    सिगरेट? ख़ैर चरस का सिगरेट मुज़ाइक़ा नहीं है।

    चरस तो यहाँ कोई भी नहीं पीता सरकार! रंग अली ने कहा।

    रंडी मंडी नहीं। क़लयान मलयान नहीं, चरस नहीं। ये तुम्हारा कैसा तवाइफ़ का मकान है? गुलबाज़ ख़ां ने कहा।

    अच्छा रोग़न कद्दू है? सोहबत ख़ां ने पूछा।

    रोग़न कद्दू तो नहीं। रंग अली ने कहा, आँवले का तेल होगा।

    ख़ैर वही लाओ। सोहबत ख़ां ने कहा। रंग अली एक अलमारी के पास गया, जिसके दोनों पट्टों के चौखटों में दो लम्बे-लम्बे आईने जड़े हुए थे और अलमारी खोल कर तेल की बोतल ले आया।

    देखो, तुम बहुत अच्छा आदमी है। सोहबत ख़ां ने कहा, थोड़ा तेल हमारे सर पर मलो। फिर हम तुमको बताएगा हम किस वास्ते आया। ये कह कर उसने अपनी पगड़ी उतार दी। मालूम होता था ये पगड़ी बहुत देर से उसके सर पर थी। क्योंकि कुलाह ने उसकी पेशानी पर गहरा निशान डाल दिया था। उसके सर पर बाल सिर्फ़ किनारे-किनारे थे। बीच में चाँद ऐसी लग रही थी जैसे अंगूर आया हुआ फोड़ा। रंग अली उसकी पीठ के पीछे जा कर खड़ा हो गया। थोड़ा सा तेल हथेली पर डाला और सर पर मलने लगा।

    शाबाश, शाबाश। सोहबत ख़ां ने कहा, अब हम तुमको बताता है कि हम क्यों आया। मगर वो कहते-कहते रह गया और गुलबाज़ ख़ां से मुख़ातिब हो कर कहने लगा, गुलबाज़ ख़ां, ख़ू तुम बताओ यार हम तेल मलवाता है।

    हम बताएगा। गुलबाज़ ख़ां ने कहा, मगर पहले तानसेन का बेटा हमारा टाँग दबाए।

    तानसेन का बेटा। सोहबत ख़ां ने कहा, गुलबाज़ ख़ां का टाँग दबाओ। हुसैन बख़्श बदस्तूर सर झुकाए बैठा रहा। वो सख़्त कोशिश कर रहा था कि उनकी तरफ़ देखे।

    तानसेन का बेटा हमारा टाँग नहीं दबाता! गुलबाज़ ख़ां ने जैसे फ़रियाद करते हुए कहा।

    इसके एक धप्प लगाओ। सोहबत ख़ां ने कहा।

    हम धप्प नहीं लगाएगा। गुलबाज़ ख़ां ने कहा, हम इसका कान मरोड़ेगा। तानसेन का बेटा अपना कान इधर करो। उसने हुसैन बख़्श से कहा।

    हुज़ूर माफ़ कर दीजिए। रंग अली ने लजाजत से कहा। फिर वो हुसैन बख़्श से मुख़ातिब हुआ, भाई हुसैन बख़्श ज़िद करो। उठ बैठो और ख़ान साहब की टाँग दबा दो। उठो-उठो बच्चे बनो। मौक़ा महल देखा करो। हुसैन बख़्श सख़्त लाचारी के साथ उठा और गुलबाज़ ख़ां के पास बैठकर उसकी टाँग दबाने लगा। आँसू अभी उसकी आँखों में ख़ुश्क नहीं होने पाए थे।

    हाहा। गुलबाज़ ख़ां ने हुसैन बख़्श की पेट पर ज़ोर से थपकी देकर कहा, तानसेन का बेटा अब अच्छा हो गया। अब हम बताएगा हम क्यों आया।

    चंद लम्हे ख़ामोशी रही।

    तुम्हारा नन्ही जान है ना? गुलबाज़ ख़ां ने रंग अली से पूछा।

    हाँ सरकार। रंग अली ने कहा।

    इसका नाम नन्ही जान है ना? गुलबाज़ ख़ां ने रंग अली से पूछा।

    हाँ सरकार। रंग अली ने कहा।

    तो बस हम इसका नाक काटने आया है! गुलबाज़ ने कहा।

    इस बेचारी का क़सूर? रंग अली ने पूछा। मालिश करते-करते उसके हाथ थम गए थे। चेहरा ज़र्द पड़ गया था और आवाज़ गले में अटक-अटक गई थी।

    क़सूर मसूर कुछ नहीं। सोहबत ख़ां ने कहा, तुम अपना काम करो।

    फिर क्या बात है सरकार? रंग अली ने गुलबाज़ ख़ां से पूछा।

    हमने सुना इसका नाक बहुत लम्बा है। गुलबाज़ ख़ां ने कहा, अच्छा नहीं लगता। छोटा हो जाने से ख़ुश रू हो जाएगा।

    ख़ुदा के वास्ते ख़ां साहब। रंग अली ने गिड़गिड़ा कर कहा, ऐसा ग़ज़ब कीजिएगा। वो बेचारी तो बहुत शरीफ़ है।

    जभी तो हम इसको ख़ुश रू बनाएगा। गुलबाज़ ख़ां ने कहा।

    हम बहुत को ख़ुश रू बना चुका है। जब्बार ख़ां ने कहा।

    घड़ी में बारह बज कर 35 मिनट हुए थे कि सीढ़ियों में कई क़दमों की आहट सुनाई दी। तीनों आदमियों ने मानी ख़ेज़ नज़रों से एक-दूसरे की तर फ़ देखा और उठ कर खड़े हो गए। रंग अली सोहबत ख़ां के क़दमों में गिर पड़ा।

    रसूल के वास्ते ख़ां साहब। उसने बिसूरते हुए कहा, हमपर रहम कीजिए। हम बहुत ही मिस्कीन लोग हैं।

    दरवाज़ा खटखटाया गया। गुलबाज़ ख़ां ने रंग अली की क्लाई मज़बूती से पकड़ कर उसे उठाया और दरवाज़े के पास ले गया। फिर उसे दरवाज़े के सामने खड़ा करके ख़ुद उसके पीछे खड़ा हो गया।

    पूछो कौन है? गुलबाज़ ख़ां ने रंग अली के कान में कहा।

    कौन है? रंग अली ने पूछा।

    दरवाज़ा खोलो, दरवाज़ा खोलो। कई आवाज़ें सुनाई दीं।

    नाम पूछो। गुलबाज़ ख़ां ने रंग अली के कान में कहा।

    अरे भई मैं हूँ सलीम उल्लाह। दरवाज़े के उस तरफ़ से आवाज़ आई, जल्दी खोलो दरवाज़ा।

    पूछो आपके साथ कौन है। गुलबाज़ ख़ां ने रंग अली के कान में कहा।

    अच्छा शेख़ साहब हैं! रंग अली ने कहा, आपके साथ और कौन लोग हैं शेख़ साहब?

    मेरे दोस्त हैं भई। दरवाज़े के उस तरफ़ से आवाज़ आई, आख़िर तुम दरवाज़ा क्यों नहीं खोलते? रंग अली ने पलट कर गुलबाज़ ख़ां की तरफ़ देखा। जिसने सर हिला कर नहीं का इशारा किया।

    शेख़ साहब माफ़ कीजीएगा। रंग अली ने कहा, इस वक़्त दरवाज़ा नहीं खुल सकता। बाई जी मुजरे गई हैं सुबह को आएंगी। इस वक़्त ख़ां साहब वज़ीर ख़ां के हाँ से कुछ बहुएं आई हुई हैं। इनकी वजह से दरवाज़ा नहीं खुल सकता। आपको ज़हमत तो हुई मगर मजबूरी है। आप कल तशरीफ़ लाइएगा। इसपर सीढ़ियों में कुछ देर खुसर फुसर हुआ की। फिर उतरते हुए क़दमों की आवाज़ें सुनाई दीं, जो धीरे धीरे धीमी होती हुई गुम हो गईं।

    शाबाश। सोहबत ख़ां ने गावतकिए से लग कर बैठते हुए कहा, तुम बहुत अक़्लमंद आदमी है।

    अक़्लमंद इसने बनाया। गुलबाज़ ख़ां ने चाक़ू दिखाते हुए कहा, अगर पिदर सग ज़रा भी चूँ करता तो हम इसका नोक इसकी पीठ में उतार देता।

    एक बज गया मगर नन्ही जान नहीं आई। तीनों आदमियों ने जमाइयाँ लेनी शुरू कर दीं। जब्बार ख़ां ने चुग़े की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली, जिसमें से चुटकी-चुटकी तीनों ने ली। सवा बजे सोहबत ख़ां ने रंग अली को गले से पकड़ लिया।

    ख़िंज़ीर बच्चा, सच बता। सोहबत ख़ां ने पूछा, वो तमाशे गया है या और जगह गया है?

    क़सम है पंजतन पाक की ख़ास साहब। रंग अली ने अपना गला छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा, वो तमाशे ही गया है।

    फिर वो आया क्यों नहीं? सोहबत ख़ां ने पूछा।

    अल्लाह जाने क्यों नहीं आया। रंग अली ने कहा। फिर वो लम्हा भर ख़ामोश रह कर बोला, मैं जानूँ चिश्ती साहब उसको अपनी कोठी ले गए होंगे। अब तो वो सुबह ही को आएगा।

    तुम झूट कहता है। गुलबाज़ ख़ां ने कहा।

    नहीं मैं सच कहता हूँ। रंग अली ने कहा।

    हम नहीं मानता। गुलबाज़ ख़ां ने कहा।

    आप यहीं रहिए फिर झूट सच मालूम हो जाएगा। रंग अली ने कहा।

    पहले भी कभी ऐसा हुआ? सोहबत ख़ां ने पूछा।

    कई बार। रंग अली ने कहा।

    डेढ़ बजे तीनों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा। जमाइयाँ लेते-लेते उनके जबड़े थक गए थे, और आँख और नाक से पानी बहने लगा था। बाहर बूंदियाँ थम गई थीं। तीनों में आँखों-आँखों में कुछ इशारे हुए। फिर वो उठ कर खड़े हो गए।

    अच्छा हम जाता है। सोहबत ख़ां ने कहा। जिस वक़्त वो दहलीज़ के पास पहुँचे तो सोहबत ख़ां ने रंग अली से कहा, बख़ुदा तुम्हारा नन्ही जान का क़िस्मत बहुत अच्छा है, अच्छा सलाम।

    तानसेन के बेटे को भी सलाम। गुलबाज़ ख़ां ने कहा और वो सीढ़ियों से उतर गए।

    चंद लम्हे ख़ामोशी रही।

    या ख़ुदा ये क्या मुसीबत है! रंग अली ने कहा।

    ऐसे काम की ऐसी तीसी। हुसैन बख़्श ने कहा, लानत है ऐसी कमाई पर। मैं तो कल ही यहाँ से चल दूंगा। किसी फ़िल्म कम्पनी या रेडियो में नौकरी कर लूँगा। और जो नौकरी मिली तो ट्यूशन करूंगा। भीक मांग लूँगा। मगर इस कूचे का नाम नहीं लूँगा।

    रंग अली ने कोई जवाब दिया।

    ठीक दो बजे मकान के नीचे एक मोटर आके रुकी और फिर मोटर का दरवाज़ा ज़ोर से बंद होने की आवाज़ आई। ज़रा सी देर में नन्ही जान ठुमक-ठुमक करती सीढ़ियाँ चढ़ती कमरे में दाख़िल हुई। उसके पीछे-पीछे जुम्मन था जिसने एक बुक़चा उठा रखा था। नन्ही जान ने सारी के ऊपर लम्बा कोट पहन रखा था। जिसका कॉलर और कफ़ लोमड़ी की खाल के थे। सुर्ख़ सारी की मुनासबत से पाँव में सुर्ख़ सैंडल थे। आधे सर और कानों को एक सफ़ेद बारीक सिल्क के मफ़लर से ढक रखा था। जिसमें से सिर्फ़ कानों की लवें नज़र आती थीं। उन लवों में रुपहली टोप दो नन्हे-नन्हे पूरे चांदों की तरह दमक रहे थे। उसके रुख़्सारों पर ग़ाज़ा सुर्ख़ धूल की तरह मालूम होता था। उसके जिस्म और लिबास से ख़ूशबुएं फूट रही थीं। उसकी उम्र बाईस तेईस बरस से ज़्यादा थी। चाल ढाल से वो एक अल्हड़ हसीना मालूम होती थी। आँखों से मुस्कुराने वाली, गहरे-गहरे साँस लेने वाली। रंग अली और हुसैन बख़्श की नज़रें सबसे पहले बेसाख़्ता उसकी नाक पर पड़ीं, जिसमें सुर्ख़ नगीने वाली एक कील चमक रही थी।

    शुक्र है आप ख़ैरियत से घर पहुंचीं। रंग अली ने कहा।

    सिनेमा के बाद कम-बख़्त चिश्ती ज़बरदस्ती होटल ले गया। नन्ही जान ने कहा।

    बहुत अच्छा हुआ। रंग अली ने कहा।

    तुम लोग इतने परेशान क्यों हो? नन्ही जान ने पूछा।

    बाई जी। हुसैन बख़्श ने कहा, मुझे तो आप छुट्टी ही दे दीजिए।

    आख़िर हुआ क्या?

    आप घर पर होतीं तो क़यामत ही जाती। रंग अली ने कहा।

    कुछ कहो तो आख़िर हुआ क्या?

    आपके पीछे तीन पठान आए थे। रंग अली ने कहा, बड़े वहशी से। उनके पास लम्बे-लम्बे चाक़ू थे। हमें मारा पिटा, गालियाँ दीं। बात-बात पर चाक़ू निकालते थे। कहते थे...

    क्या कहते थे? नन्ही जान ने पूछा।

    कहते थे, उनके मुँह में ख़ाक। हम नन्ही जान का नाक काटने आया है। लम्हा भर के लिए नन्ही जान के चेहरे की रंगत की ऐसी कैफ़ियत हुई जैसे कोई बल्ब फ़्यूज़ होते-होते दोबारा रौशन हो जाए। फिर उसने निगाहें अपनी उँगलियों से सुर्ख़ रंगे हुए नाख़ूनों पर गाड़ दीं।

    मैंने कहा भी। रंग अली ने कहा, बाई जी रात को वापस नहीं आएंगी। फिर भी डेढ़ बजे तक हिलने का नाम नहीं लिया।

    मेरे मुँह पर इस ज़ोर का थप्पड़ मारा कि दो दांत हिल गए। हुसैन बख़्श ने बिसूरते हुए कहा। नन्ही जान ने कुछ जवाब दिया।

    आख़िर अब क्या होगा? रंग अली ने पूछा।

    जाने क्या होगा! नन्ही जान ने कहा।

    थाना में रपट लिखवा दें?

    कुछ फ़ायदा नहीं। उल्टी बदनामी होगी। फिर पुलिस वालों के नाज़ मुफ़्त के।

    कहीं और चल दें?

    कहाँ?

    किसी और शहर!

    कुछ फ़ायदा नहीं, सब जगह ऐसा ही हाल है।

    आख़िर फिर क्या करें?

    क्या हो सकता है?

    कुछ नहीं हो सकता?

    कुछ नहीं हो सकता!

    पल भर ख़ामोशी रही। उसके बाद नन्ही जान ने अंगड़ाई ली। उसके होंटों पर एक थकी-थकी सी उदास मुस्कुराहट नमूदार हुई।

    ख़लीफ़ा जी। उसने रंग अली से कहा, इस वक़्त तो तुम लोग आराम करो। सुबह देखा जाएगा। ये कह कर वो अपनी ख़्वाबगाह में चली गई और अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया। पाँच मिनट के बाद सब किवाड़ बंद कर दिए गए थे और रौशनी गुल कर दी गई थी। दोनों उस्ताद और जुम्मन फ़र्श पर पास-पास बिस्तर बिछा के लेट गए थे।

    ये पठान ज़रूर किसी के भेजे हुए थे। रंग अली ने हुसैन बख़्श से कहा।

    मगर किस के? हुसैन बख़्श ने कहा।

    लम्हा भर ख़ामोशी रही।

    हो हो ये चक्कर वाले हाजी की कारस्तानी है। रंग अली ने कहा, वो बुड्ढा निकाह के लिए बाई जी के पीछे पड़ा हुआ था।

    हूँ। हुसैन बख़्श ने नहीफ़ आवाज़ में जवाब दिया।

    पल भर को फिर ख़ामोशी रही।

    या शायद ये नवाब साहब की बदमाशी है। रंग अली ने कहा, उसको ये चिढ़ थी कि ज़फ़र साहब क्यों आते हैं।

    हूँ। हुसैन बख़्श ने पहले से भी नहीफ़ आवाज़ में जवाब दिया।

    चंद लम्हे ख़ामोशी रही।

    फिर ख़्याल आता है। रंग अली ने कहा, कहीं ये उस फ़ैज़ाबाद के कंगले ताल्लुक़दार की शरारत हो, जिसको बाई जी ने बे-इज़्ज़त करके मकान से उतार दिया था। हुसैन बख़्श ने कोई जवाब दिया। उसने मुँह धुस्से के अंदर कर लिया था और लम्बे-लम्बे साँस, जो अभी ख़र्राटे नहीं बने थे, लेने शुरू कर दिए थे। मगर रंग अली की आवाज़ बराबर सुनाई दे रही थी, मैं जानूँ ये राव साब का किया धरा है। वो काना मारवाड़ी जो बाई जी को बनारस ले जाना चाहता था...

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 159)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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