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नर-नारी

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। मदन सुंदरी के भाई और पति के धड़ से जुदा सिर मंदिर के आँगन में पड़े हैं। मदन सुंदरी देवी से वरदान माँगती है और अनजाने में भाई का सिर पति के धड़ पर और पति का सिर भाई के धड़ पर लगा देती है। मदन सुंदरी को जब अपनी इस ग़लती का एहसास होता है तो वह अपने पति के साथ एक ऋषि के पास जाती है। ऋषि उसकी समस्या को सुनकर कहता है कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अस्ल बात तो यह है कि वे केवल नर और नारी हैं।

    मदन सुंदरी कितनी ख़ुश थी कि देवी ने उसकी सुन ली, नहीं तो भय्या और पति दोनों ही को वो खो बैठी थी। भय्या जब सिधारने लगा तो उस की ख़ूब बलाएँ लीं। गोपी ने भी उसके सर पर हाथ फेरा, दुआ दी, दुआ ली और चला गया।

    गोपी के चले जाने के बाद भी मदन सुंदरी देवी के गुण गाती रही, धावल उसकी हाँ में हाँ मिलाता रहा। दोनों ने मिलकर देवी की उस आन-बान को याद किया कि ब्रह्मा-विष्णु और इंद्र सब उसकी सेवा में लगे रहते हैं और वो भी अपने भगतों पर कितनी कृपा करती है कि जब किसी भगत पे बिप्ता पड़ती है तो वो तुरत वहाँ पहुँच कर उसे संकट से निकालती है।

    बस इन्हीं बातों में दिन बीत गया। रात हुई और दिन-भर की थकी हारी मदन सुंदरी सोने के लिए धावल के संग लेटी। आज उसकी बाँहों में सुख मिला। वो बदन आज उसे अनजाना लग रहा था। वो हैरान कि आज उसके बदन को क्या हो गया। इस बदन को तो उसका बदन ख़ूब पहचानता था। जब दोनों बदन मिलते तो कैसे घुल मिल जाते जैसे जन्म जन्म से एक दूसरे को जानते हैं और वो हाथ कैसी जानकारी के साथ इस गोरे गर्म बदन के बीच यात्रा करता जैसे उसके सब भेदों को उसने बूझा हुआ है और इस बिजली भरे हाथ को छू जाने से अंग अंग में एक लहर दौड़ जाती और पूरा बदन जाग जाता। पर आज ऐसा लग रहा था जैसे वो बदन एक दूसरे को जानते ही हों और वो हाथ जैसे पहली मर्तबा इस बदन के बीच उतरा हो। मदन सुंदरी वस्वसे में पड़ गई। क्या ये वही बदन नहीं जिससे रोज़ रात को लग कर वो सोया करती थी। फिर इतना अंजानापन क्यों। अपने वस्वसे से वो बहुत लड़ी। अपने आपको देर तक रोकती रही। पर एक दफ़ा बेक़ाबू हो कर बोल पड़ी, ये तो नहीं है। और उसकी बाँहों से निकल, उठ बैठी।

    धावल हैरान कि मदन सुंदरी को क्या हो गया। क्या कह रही है तू, ये मैं नहीं हूँ?

    नहीं, ये तू नहीं है। ज़बान एक दफ़ा खुली तो बस खुल गई।

    सुंदरी होश की दवा ले। मैं अगर मैं नहीं हूँ तो फिर कौन हूँ। ये कहते हुए धावल उठा। चिराग़ हाथ में ले मदन सुंदरी के पास बैठा और बोला, ले देख ले। बोल, ये मैं नहीं हूँ।

    मदन सुंदरी ने चिराग़ की रौशनी में पति को देखा और ऐसे बोली जैसे अपने कहे पर शर्मिंदा हो, हाँ, है तो ये तू ही।

    अच्छी तरह देख। फिर बाद में किसी संदेह में पड़ जाए। तू ख़ूब देख ले। धावल भी अब उसे ज़च करने पर उतरा हुआ था।

    वो ज़च हो गई, हाँ तू ही है। पर ये कहते कहते उसकी नज़र धावल के हाथों पर जा पड़ी। चौंक कर बोली, पर ये हाथ?

    इन हाथों को क्या हुआ?

    मदन सुंदरी ने धावल की बात अनसुनी की। उन बाँहों को तकती रही, धावल ये हाथ तेरे नहीं हैं।

    फिर किस के हैं? उसने जल कर कहा।

    फिर किस के हैं, यही तो वो सोच रही थी, ये हाथ अनजाने तो नहीं हैं। मगर धावल के भी नहीं हैं। फिर किस के हैं। इसी आन एक दम से गोपी का सरापा उसकी नज़रों के सामने गया। गोपी के हाथ? बे-इख़्तियार उसके मुँह से निकला और वो सन्नाटे में गई। उसे सब कुछ याद गया था। फिर तो उसका वो हाल हुआ कि काटो तो बदन में ख़ून नहीं। गुम-सुम हो गई। बोली तो ऐसे जैसे जुर्म को क़ुबूल रही हो, स्वामी, मुझसे एक चूक हो गई।

    चूक? कैसी चूक?

    भारी चूक हो गई। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

    पता तो चले क्या चूक हो गई?

    सर-धड़ का घपला हो गया।

    सर-धड़ का घपला? वो बहुत चकराया। अरी भाग्यवान आज तू कैसी बहकी बहकी बातें कर ही है।

    वो रो पड़ी, स्वामी, तुम मुझे भाग्यवान कहते हो। मुझसे बढ़कर दुर्भाग्य किस के होंगे। एक संकट से निकली तो दूसरे संकट में पड़ गई। फूट जाएँ ये नैन जिन्होंने पहले धर्म पति और भय्या प्यारे के सर-धड़ को जुदा देखा और अब सर-धड़ का घपला देख रहे हैँ और टूट जाएँ ये हाथ जिनसे घपला हुआ।

    धावल चकरा सा गया। सोच में पड़ गया कि कहीं मदन सुंदरी का दिमाग़ चल-बिचल तो नहीं हो गया। बोला, अरी सर तो मेरा कटा था, पर मुझे लगता है कि सर तेरा फिर गया है। सीधी बात कर, नहीं तो मैं समझूँगा कि सच-मुच तेरी मत मारी गई है।

    हाँ, मेरी मत ही तो मारी गई थी। हुआ ये कि... और यह कहते कहते वो सारा मन्ज़र उसकी आँखों में फिर गया। मंदिर की अँगनाई में देवी की मूर्ती के सामने गोपी और धावल ख़ून में लत-पत पड़े हुए इस तरह कि दोनों के सर अलग धड़ अलग, उसकी सुध-बुध जाती रही। कुछ समझ में आया कि ये हुआ क्या। कैसे हुआ। मुँह पीटने लगी, बाल नोचने लगी। दम-भर में आँसुओं की गंगा बह गई। रोते-रोते सामने जो नज़र गई तो देखा कि ख़ून में सनी तलवार पड़ी है। ख़ून में सनी उस तलवार को देखकर उसके दिमाग़ में कुछ और ही समाई। ये मेरे दुर्भाग्य हैं कि स्वामी और भय्या दोनों जान से गए। मैं अभागन अब जी के क्या करूँगी। जिस खांडे ने उनका काम तमाम किया है, क्यों इसी खांडे से मैं अपना सर काटूँ और उन पे वार दूँ, ये सोच कर उसने वो ख़ून में सनी तलवार उठाई अपनी गर्दन पे मारने लगी थी कि देवी की मूर्ती से आवाज़ आई, नारी खांड फेंक दे, तू सच्ची स्त्री और पक्की बहन निकली। मैं तुझसे प्रसन्न हुई। सो मैंने तेरे पति और भय्या को जी दान दिया, तू ऐसा कर कि मुंड को, रुंड से मिला, दोनों जी उट्ठेंगे। ये आवाज़ सुनके उसके तो ख़ुशी से हाथ पाँव फूल गए। बस इसी में गड़बड़ा गई। मत पहले ग़म से मारी गई थी, अब ख़ुशी से मारी गई। स्वामी, मेरी मत सच-मुच मारी गई थी। ऐसी गड़बड़ाई कि भय्या कि धड़ पर तुम्हारा मस्तक लटका दिया। तुम्हारे धड़ से भय्या का मस्तक चिपका दिया। फिर जो मुझे सुद्ध आई तो मैंने सर पीट लिया कि ये मैंने क्या किया। ग़लत को सही करने लगी थी पर जो होने वाली बात हो, हो कर रहती है। मैं सर धड़ को फिर से जोड़ने के लिए उठी ही थी कि तुम दोनों जी उठे और मरों को जीता देखकर मैं ख़ुशी से ऐसी बावली हुई कि ये बात ही मैं भूल गई। अब याद आया है तो गड़ बड़ाई हुई हूँ कि ये तो भय्या और पति का घालमेल हो गया।

    धावल ने बात को हँसी में उड़ाना चाहा, चल ये तो अच्छा ही हुआ कि भय्या और पति का घाल मेल हो गया।

    वो तड़प के बोली, पर मुझे ये चिंता खाए जा रही है कि अब मैं बहन किस की हूँ और पत्नी किस की हूँ।

    ये बात सुनकर धावल थोड़ा गड़बड़ा गया। अब उसे सोचना पड़ा। मगर जल्दी ही उसने दूध का दूध पानी का पानी कर दिया। बोला, अरी ये फ़ैसला करना कौन सी मुश्किल बात है। नदियों में उत्तम गंगा नदी है, पर्बतों में उत्तम सुमेर पर्बत, अंगों में उत्तम मस्तक। धड़ का क्या है वो तो सब एक समान होते हैं। मानव तो अपने मस्तक से पहचाना जाता है। सो तू धड़ पर मत जा। मस्तक को देख कि वो मेरा है।

    मदन सुंदरी क़ाइल हो गई। दिल में कहा कि धावल ठीक कहता है। धड़ के आँख-कान होते हैं, नाक मुँह, कुछ भी नहीं होता। वो तो बस धड़ होता है। उसने धावल के मस्तक को देखा और सब कुछ भूल गई।

    वो दोनों इस दूरी के बाद जैसे बहुत पास पास गए हों। ऐसे मिले जैसे एक दूसरे में घुल जाएँगे। पर जब वो हाथ बदन पे आया तो जाने क्या हुआ कि वो फिर भड़क गई। बाँहों से तड़प कर निकल गई।

    सुंदरी, अब तुझे क्या हुआ?

    लज्जा रही है।

    किस से? अपने पति से?

    नहीं, पति से नहीं।

    फिर किस से?

    रुकते रुकते बोली, धड़ से।

    हे मेरी धर्म पत्नी, वो परेशान हो कर बोला, क्या तू फिर मेरा सर और धड़ अलग अलग देखना चाहती है। जान ले कि जिसका सर उसका धड़। सो सर भी मैं हूँ, धड़ भी मैं हूँ।

    जब धावल ने सर और धड़ के अलग अलग होने की बात की तो मदन सुुंदरी बहुत दुखी हुई, एक बार उसकी आँखों में वो मन्ज़र फिर गया कि धड़ अलग सर अलग। नहीं नहीं, ऐसी बात मुँह से मत निकालो, उसने तड़प कर कहा। फिर उसने मन ही मन में तय कर लिया कि अब वो इस सर और इस धड़ को एक जानेगी।

    मदन सुंदरी ने तो तय कर लिया कि अब वो इस सर और इस धड़ को एक जानेगी। पर ये कुछ कहने के बाद धावल दुविधा में पड़ गया। अपने अंग अंग को देखा, एक बार, दोबार, बार-बार, हे राम क्या ये मैं ही हूँ। फिर वहम की एक और लहर उठी। एक मैं ही हूँ या कोई दूसरा मुझमें आन जुड़ा है, मैं दूसरे में जा जुड़ा हूँ। तो मैं अब सारा, मैं नहीं हूँ। थोड़ा मैं थोड़ा वो। आधा तीतर आधा बटेर। नहीं। उसने कि वहम में बह चला था अपने आपको थामा, नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है। ये तो अनहोनी बात है। मदन सुंदरी ने कहा और तू ने मान लिया। ख़ैर, मदन सुंदरी की बात तो ये है कि उस बेचारी ने अपने दो प्यारों के सर और धड़ अलग अलग पड़े देखे। उससे उसका दिमाग़ चल बिचल हो गया है पर मूर्ख तुझे क्या हुआ कि अनहोनी को होनी समझ बैठा। यूँ दिल ही दिल में अपने आपको रोक-टोक कर एक दफ़ा तो वो सँभल गया। मगर थोड़ी ही देर में उसे ख़याल आया कि अनहोनी बात तो ये भी है कि आदमी का सर और धड़ अलग अलग हो जाएँ फिर कोई दूसरा उन्हें जोड़ दे और आदमी फिर उठ खड़ा हो। हाँ ये तो बिल्कुल अनहोनी बात है। जी उठने के बाद अब पहली मर्तबा उसे इस अनहोनी का ख़याल आया। अब तक तो उसने इस बात पे ध्यान ही नहीं दिया था। ऐसे उठ खड़ा हुआ और मंदिर से ऐसी सादगी से निकल आया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। अब उसे इस बात का ध्यान आया और वो हैरान रह गया। अपने आपसे बोला कि मैंने तो अपने को ऐसा खांडा मारा था कि सर भुट्टे की तरह उड़ कर दूर जा पड़ा था। गर्दन से वो चिपका कैसे और मुझमें साँस दोबारा आया कैसे और फिर मैं ऐसे उठ खड़ा हुआ जैसे आदमी गिर पड़े और कपड़े झाड़ता उठ खड़ा हो। कितने अचरज की बात है। और वो इतना हैरान हुआ कि सकते में गया मगर फिर उसने सोचा कि मदन सुंदरी ने आख़िर देवी से विनती की थी और देवी में बड़ी शक्ति है। अनहोनी को होनी करना उसके बाएँ हाथ का करतब है। ये सोचते सोचते उसने सोचा कि अगर एक करतब हो सकता है तो दूसरा करतब भी हो सकता है। इस दूसरे करतब पर भी अब उसे हैरानी हुई। पहले वो बात को हँसी में उड़ाता रहा, फिर दु​िवधा में पड़ गया। पर अब वो हैरान हो रहा था कि अच्छा मुझमें दूसरे का धड़ जुड़ गया। पर कैसे? अपने आपसे बोला कि मेरी तो अक़्ल हैरान है कि ऐसा हुआ कैसे। पर मदन सुंदरी कहती है कि ऐसा हुआ। और वो सुनी थोड़ा ही कहती है, आँखों देखी, ख़ुद अपने हाथ से की हुई कहती है। दोनों करतब उसी के हाथ से हुए, एक करतब देवी की दया से, दूसरा अपनी भूल चूक से। उसके भेद वही जाने। जो होनी होती है वो हो कर रहती है चाहे अनहोनी हो। कितनी अनहोनी बात है पर अब ये है कि मेरा शरीर मेरा नहीं है। मस्तक मेरा है, बाक़ी सब कुछ दूसरे का। कितने अचरज की बात है। हैरान हैरान उसने फिर अपने तन पे नज़र डाली। एक बार, दो बार, बार-बार। हरबार उसने अपने अंग अंग को देखा और हैरान हुआ कि अच्छा ये किसी और के हैं जो मुझमें आन जुड़े हैं।

    धावल कितनी देर तक इस अनहोनी पर हैरान रहा। फिर हैरानी कम होती चली गई। दुख बढ़ता चला गया। वो ये सोच कर कितना दुखी हुआ कि उसका आपा सारा उसका नहीं है। दुखी हो कर फिर उसने अपने आपे पर नज़र डाली एक बार, दो बार, बार-बार। और अब उसे एहसास हुआ कि गर्दन से नीचे तो बहुत कुछ था। एक रंगा-रंग दुनिया, एक पूरी कायनात उसके पास से निकल गई, कितना कुछ था कि खोया गया। उसने ठंडा साँस भरा और दिल में कहा, मैं तो अब तनिक ही सा रह गया हूँ, बाक़ी तो कोई दूसरा ही है, मेरा ले दे के एक मस्तक, बाक़ी तो ये सब अंग पराए हैं। डील-डौल इतना पर मैं कितना। लगता है कि हूँ ही नहीं। और जैसे उस के पैरों तले से ज़मीन निकल गई हो। फिर दुविधा में पड़ गया कि अगर मैं नहीं हूँ तो ये मेरे बीच कौन समाया हुआ है।

    रात पड़े जब मदन सुंदरी उसके पास आई और अंग लगी तो वो बड़बड़ाया, सुंदरी परे रह। ये मैं नहीं हूँ।

    मदन सुंदरी कुछ हैरान कुछ परेशान कुछ खिसियाई कि उसे धावल ने ठुकरा दिया। फिर सँभली और बोली, स्वामी, तुम्हारा इस से मतलब क्या है। तुम कैसे नहीं हो।

    वो दुख से बोला, सुंदरी, सर-धड़ के घपले के बाद मैं रह ही कितना गया हूँ। लगता है कि मैं हूँ ही नहीं।

    नहीं स्वामी, तुम हो।

    भाग्यवान मैं कहाँ हूँ। मैं तो बस मस्तक तक हूँ। मस्तक से नीचे नीचे तो सारा तेरा गोप? मदन सुंदरी ने बिजली की सी तेज़ी से हाथ उसके मुँह पर रख दिया और इतनी सख़्ती से रखा कि उसका साँस रुकने लगा।

    देर तक दोनों चुप रहे। दोनों ही को जैसे साँप सूँघ गया हो। देर बाद मदन सुंदरी ने ज़बान खोली। स्वामी, तुमने मुझे बताया और मैंने जाना कि नदियों में उत्तम गंगा नदी है। पर्बतों में उत्तम सुमेर पर्बत, अंगों में उत्तम मस्तक। धड़ का क्या है वो तो सब एक समान होते हैं। मानव मस्तक से जाना-पहचाना जाता है। जिसका सर उसका धड़। सो मैंने तुम्हारा मस्तक देखा और चोटी से ऐड़ी तक तुम्हें एक जाना और अपना स्वामी समझा। प्रीतम मुझे बात बता कर ख़ुद उससे फिर रहे हो।

    धावल बहुत खिसयाना हुआ। उस से कोई जवाब बन पड़ा, दिल में कहा मदन सुंदरी सच कहती है। मैंने ही तो उसे ये बात बताई थी। उसे बताकर मैं ख़ुद भूल गया। तो चलो अब उसने याद दिला दिया। अंगों में उत्तम तो मस्तक ही है। चूँकि ये मस्तक मेरा है, सो मस्तक तले जितना कुछ है वो भी मेरा है। चोटी से ऐड़ी तक मैं ही मैं हूँ। कोई दूसरा मेरे बीच नहीं है।

    धावल अपने कहे को ज़ियादा दिन नहीं निभा सका। ज़बान से लाख कुछ कहता, अन्दर तो चोर बैठा हुआ था। बस एक फाँस सी चुभती रहती कि ये तन किसी और का है। सर अपना, धड़ पराया, कैसा अनमेल बेजोड़ बात है। और उसे अपना पूरा वुजूद अनमेल बेजोड़ दिखाई पड़ता। जब रात पड़े मदन सुंदरी उसके संग आराम करती तो वो दुविधा में पड़ जाता कि वो तन किस तन से मिल रहा है। कितनी बार उसके जी में आई कि इस पूरे धड़ को अपने आपसे तोड़ कर काँधे पे लाद के ले जाये और गोपी के सर पे दे मारे कि ले अपना धड़, मेरा धड़ मुझे दे। पर वो धड़ तो उसके साथ जुड़ चुका था। उसे अलग करने की तर्कीब उसकी समझ में आती। पर फिर भी उसे कभी कभी यूँ लगता कि जैसे उसका सर अलग पड़ा है, और धड़ अलग पड़ा है और उसे वो राजकुमारी याद जाती जो एक दुष्ट राक्षस की क़ैद में थी। रोज़ राक्षस सुब्ह होने पर सिरहाने की छड़ियाँ पाइंती रखता, पाइंती की छड़ियाँ सिरहाने रखता। फिर राजकुमारी की गर्दन मारता और उसका सर छींके पे रख बाहर निकल जाता। दिन भर राजकुमारी का धड़ मसहरी पे पड़ा रहता, सर छींके पे रखा रहता। उससे बूँद बूँद ख़ून टपकता रहता। शाम पड़े राक्षस चिल्लाता दहाड़ता आता, पाइंती की छड़ियाँ सिरहाने रखता, सिरहाने की छड़ियाँ पाइंती रखता। छड़ियाँ से सर उतार कर धड़ से जोड़ता और राजकुमारी जी उठती। राजकुमारी कितने दुख में थी कि रोज़ सुब्ह को उसका सर धड़ से काटा जाता, रोज़ शाम को सर धड़ से जोड़ा जाता। पर वो सोचता कि राजकुमारी को एक सुख तो था कि सर भी अपना था और धड़ भी अपना था।

    जूँ-जूँ दिन गुज़रे धावल का दुख बढ़ता गया। मदन सुंदरी ने तो ये सोचा था कि कुछ दिन गुज़र जाएँ तो बात आई गई हो जाएगी और भूली-बिसरी कहानी बन जाएगी। मगर हुआ ये कि जितने दिन गुज़रते गए उतनी ही धावल की दुविधा बढ़ती गई। मदन सुंदरी को देख के वो कुछ ज़ियादा ही दुविधा में पड़ जाता। मदन सुंदरी को देखता और सोचता कि सुंदरी पूरी पर मैं आधा हूँ। आधे से भी कम और जिस धड़ के साथ मैं पूरा बनता हूँ वो मेरा नहीं दूसरे का है और वो सोच में पड़ जाता कि दूसरे ​के जोड़ से पूरा बन कर वो क्या बनता है और कौन बनता है। और मदन सुंदरी उसकी कौन बनी। फिर इस सवाल ने उसे अपने घेरे में ले लिया। इस धड़ के साथ मैं कौन हूँ। मदन सुंदरी और उसके बीच जो रिश्ता था उसमें सर-धड़ के घपले से कुछ गुत्थी सी पड़ गई थी। सर-धड़ के रिश्ते में गुत्थी पड़ी हुई थी कि ये एक दूसरी गुत्थी पड़ गई।

    कितने दिन बीत गए और धावल से कोई गुत्थी सुलझी। आख़िर को वो मदन सुंदरी को साथ ले नगर से निकल पड़ा। जंगलों की ख़ाक छानता फिरा। चलते चलते उस जंगल में पहुँचा जहाँ देवानन्द ऋषि बास करते थे, उनके चरण छुए और विनती की कि महाराज तुम महाज्ञानी हो। सृष्टि के कितने भेद तुमने पाए, जीवन की कितनी गुत्थियाँ सुलझाईं एक गुत्थी मेरी भी सुलझा दो।

    देवानन्द ऋषि ने दोनों को ग़ौर से देखा। फिर बोले, बच्चा, क्या गुत्थी ले के आया है?

    हे ज्ञानी! गुत्थी ये है कि मैं कौन हूँ और मदन सुंदरी कौन है। और फिर धावल ने अपनी सारी राम कहानी कह सुनाई।

    ऋषि जी ने धावल को घूर के देखा। बोले, मूर्ख किस दुविधा में पड़ गया। सौ बातों की एक बात तू नर है, मदन सुंदरी नारी है। जा अपना काम कर।

    जैसे धावल की आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ था कि एक दम से उठ गया। ऋषि जी के चरण छुए और मदन सुंदरी का हाथ पकड़ वापस हो लिया।

    आँखों से पर्दा उठ चुका था। बीच जंगल से गुज़रते गुज़रते धावल ने मदन सुंदरी को ऐसे देखा जैसे जुगों पहले प्रजापति ने ऊषा को देखा था और मदन सुंदरी धावल की इन लालसा भरी नज़रों को देखकर ऐसे भड़की जैसे ऊषा, प्रजापति की आँखों में लालसा देख के भड़की थी कि भड़क कर भागी फिर पसपा हुई।

    स्रोत:

    Gini Chuni Kahaniyan (Pg. 242)

    • लेखक: इन्तिज़ार हुसैन
      • प्रकाशक: विकास पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1992

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