Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

नया पुल

एजाज़ रही

नया पुल

एजाज़ रही

MORE BYएजाज़ रही

    तंग गलियों और ग़लीज़ कमरों में घुटन बढ़ने लगी और हब्स से दम घुटने लगा तो लोगों ने कपड़े उतारना शुरू कर दिये। पहले ओवरकोट उतरा, फिर कोट, स्वेटर और जरसी से की बारी आई और आहिस्ता-आहिस्ता जांघिये ने पतलून की जगह ले ली। तब सारे शहर में मैं अकेला रह गया। शहर वाले कपड़े उतार रहे थे और मैं कपड़े पहन रहा था। जिस रफ़्तार से वो कपड़े उतार रहे थे, मेरे बदन पर कपड़ों के अंबार उसी रफ़्तार से बढ़ रहे थे। मुझे यूं लग रहा था जैसे मैं उन कपड़ों के ढेर में भी नंगा हूँ। पहले मैं नंगा हो कर भी नंगा नहीं कहला सकता कि मैं लाओ कवायह की अज़ाब ज़दा नस्ल से हूँ।

    मैं जब सोचता हूँ लोग कितने अजीब हैं, तो मुझे वो वक़्त याद आजाता है जब मैंने कपड़ों के तंग हिसार से घबरा कर उसे तोड़ दिया था और रूह का अज़ली-ओ-अबदी नंगा जिस्म लिये बाज़ारों में घूमने लगा था तो लोगों ने यकायक अपने ख़ाकी जिस्मों के कर्ब के गर्द मख़मली और सूती सराब की दीवारें चुन ली थीं। इतनी गहरी दीवारें कि मैं उनमें झांकना भी चाहता तो वो नज़र नहीं आसकते थे।

    कितने अजीब हैं ये लोग!

    मैंने भी तो अपने जिस्म के गिर्द कपड़ों के कर्ब की दीवारें चुन ली हैं। ऊंची ऊंची तंग दीवारें। जैसे ये दीवारें किसी गहरे कुवें की दीवारें हैं जिसमें मुझे एल्पस के मुक़द्दस पहाड़ से आग चुराने के जुर्म में उल्टा लटका दिया गया है और मैं रूह का अज़ली-ओ-अबदी नंगापन कपड़ों में छुपाए आज भी टूटे हुए पुल की दीवारों को याद करता हूँ जिनका अब निशान भी नहीं। बूढ़े पुल की गोद से नया पुल जन्म ले चुका है। अब रास्ते में कोई पुल सिरात नहीं। नया पुल है, जिस पर से अब मैं रोज़ाना कई बार गुज़रता हूँ।

    मिट्टी का टूटा हुआ पुल। मैं और अमजद कई रातें साथ गुज़ार चुके हैं। रात जब दिन के नंगापन को छिपाने के लिए अपने पर फैला देती है तो मुझे उसकी भयानक ख़ेज़ियों से डर लगने लगता है। लेकिन रात तो मामता से भरे गुदाज़ बाज़ुओं की तरह हमेशा मुझे अपने दामन में समेट लेती और मैं अमजद का हाथ थामे हौले हौले पुल की तरफ़ चल देता। पुल की तरफ़ जिसे बूढ़ा पुल कह कर उस परसे भारी ट्रैफ़िक को रोक दिया गया है। बूढ़ा पुल जिसके सीने से सैंकड़ों हज़ारों, लाखों भारी पहिये गुज़रे थे। बूढ़े पुल पर से भारी ट्रैफ़िक को रोक दिया गया रात हौले हौले गहरी होती जाती। सितारे चमक चमक कर बुझने लगते तो मैं अमजद से कहता,

    मैं चलूं?

    नहीं। कुछ देर और ठहरो। जाना तो है ही।

    बहुत देर हो गई।

    देर कब नहीं हुई।

    तो मैं अज़ली बेबसी से अमजद की तरफ़ देखता। जो दूर लई के ज़ख़्मों से रिसती हुई पीप को घूरता रहता। रात की अंधी गहराईयों में लई के ज़ख़्म और ज़्यादा गहरे हो जाते। जब उस का दर्द जाग उठता तो रात तेज़ तेज़ क़दम उठाती आगे बढ़ने लगती। लेकिन मैं अमजद और बूढ़ा पुल एक दूसरे को छोड़ने पर तैयार होते। तीनों जानते थे तन्हाई के ज़ख़्म कितने गहरे होते हैं।

    मैं पुल की रेलिंग से उतर कर पुल के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों को देखता तो मुझे यूं लगता जैसे पुल दिन की रोशनी की निस्बत अंधेरों में कुछ ज़्यादा ही बूढ़ा हो गया हो।

    ज़रूर जाओगे?

    अमजद हमेशा की मानिंद पूछता।

    हाँ उठ जाने दो। बहुत देर हो गई है।

    क्या करोगे जाकर। दरवाज़ा खुल जाएगा।

    दरवाज़ा...

    मैं बेबस हो जाता।

    बैठ जाओ। बूढ़े पुल की ये रेलिंग तुम्हारे ऊंचे मकान की दहलीज़ से बेहतर है।

    मैं वापस रेलिंग पर बैठ जाता। दुखों के मेले में एक नए दुख का इज़ाफ़ा हो जाता और जब नए दुख का वजूद ख़त्म होजाता, तो मैं सोचने लगता, घर जा कर क्या करूँगा। दरवाज़ा कौन खोलेगा। दो बज चुके हैं। तीन घंटे बाद सुबह हो जाएगी और फिर रात ख़त्म हो जाएगी। लेकिन मैं सोचता रात कब ख़त्म होती है। रात के ज़हरीले साये जलती हिलती धूप में और भी लंबे होजाते हैं।

    मैं अफ़साना लिखना चाहता हूँ।

    मैं चौंक कर अमजद के धुँदलाए चेहरे की तरफ़ देखता जहां ज़िंदगी की भयानक परछाईयां रक़्स करती नज़र आतीं।

    भू, भू, भू।

    बड़े प्रेस के बरामदे में बैठा हुआ कुत्ता अचानक भूँकने लगता।

    दुर हरामी...

    क़रीब ही कोई गहरी नींद से जाग कर कुत्ते को गाली देता और कुत्ता आवाज़ सुनकर ख़ामोश हो जाता और चारों तरफ़ फिर वही चुप छा जाती।

    अफ़साना...

    हाँ... मैं अफ़साना लिखना चाहता हूँ।

    प्लाट मिल गया है।

    प्लाट!

    राहत मिली थी।

    राहत...हाँ आज आई थी। उसे अफ़साना चाहिए था।

    मैंने उस के चेहरे की तरफ़ देखा। वो मुझे ज़मीन के उस टुकड़े की तरह लगा जहां आकर रोशनी की आख़िरी किरन भी दम तोड़ देती है जो रोशनी और तारीकी का संगम बन कर रह जाती है और फिर वो राहत भी कितनी अजीब थी जो संगमरमर की तरह अमजद को अपने अंदर जज़्ब नहीं करना चाहती थी बल्कि लम्हे लम्हे की तरह उसके रग-ओ-रेशे में सरायत करती जा रही थी।

    अमजद।

    हूँ।

    कल से ये पुल टूटना शुरू हो जाएगा।

    अच्छा।

    उसके लहजे में कर्ब था।

    हम कहाँ जाऐंगे?

    हम।

    हम।

    हम। अमजद ने पुल की तरफ़ देखा और फिर मेरे चेहरे की तरफ़ देखा। हम कहाँ जाऐंगे। कहीं भी नहीं। पुल के साथ साथ हम भी अपने वजूद को तोड़ना शुरू कर देंगे। पुराने वजूद को लाखों बरस पुराने वजूद को, बूढ़े वजूद को, जिसे अभी तक भारी ट्रैफ़िक के लिए बंद नहीं किया गया। कर्ब का भारी ट्रैफ़िक अब भी वजूद के अंग अंग पर भारी वज़नी पहियों से गुज़र रहा है। हम अपने वजूद से कर्ब के भारी ट्रैफ़िक को नहीं रोक सकते। कर्ब का भारी ट्रैफ़िक नहीं रुक सकता।

    हमारा बूढ़ा वजूद कर्ब की भारी ट्रैफ़िक की मकरूह गड़गड़ाहट अब भी सुन रहा है। सुनता रहा है, सुनता रहेगा। वजूद रेशा रेशा हो चुका है। लेकिन भारी ट्रैफ़िक को कौन रोकेगा। वो ख़ामोश हो गया। फिर ख़ुद ही कहने लगा, हम सीढियों वाले पुल पर चले जाऐंगे और बूढ़े पुल की जगह नए पुल कर सरासीस को देखेंगे। फिर एक रोज़ नया पुल पुराना पुल बन जाएगा। इस पर से भारी ट्रैफ़िक को रोक दिया जायेगा। लेकिन हमारा वजूद, बूढ़ा, पुराना वजूद...भारी ट्रैफ़िक।

    यक-ब-यक मौसम ख़राब हो गया। तेज़ हवा ने अपना रुख ज़मीन की तरफ़ करके सारी बस्ती को अपनी ज़द में लेना शुरू कर दिया। फिर तेज़ हवा ने ख़ौफ़नाक शक्ल इख़्तियार कर ली। ऊंची नीची पुख़्ता इमारतें और घास पूस की झोंपड़ीयाँ, तेज़ हवा का निशाना बनने लगीं। तेज़ हवा ज़र्द धूल का एक तूफ़ान साथ लाई। सारी बस्ती धूल में गुम हो गई। हर शय का अपना वजूद ख़त्म हो गया। लोगों के चेहरे मिट्टी में अट कर अपनी हैयत खो चुके थे। उनके चेहरे स्याही और ज़र्दी की दोहरी लेप से मकरूह हो गए थे।

    दूसरी सुबह जब सूरज अपनी नर्म गुदाज़ किरनों से आबादी को अपनी बाँहों में लेने लगा तो लोगों ने देखा, तंग मकानों की दीवारें अपनी जगह से ग़ायब थीं। दीवारें हवा उड़ाकर ले गई थी और छतें ज़मीन और आसमान के दरमियान मुअल्लक़ हो कर रह गई थीं। ग़लीज़ कमरों की छतें बारिश से बैठ गईं थीं। ख़ाली ख़ाली दीवारें थीं जिनके अंदर बैठ कर दूर-दूर तक फैली ख़ला से परे (रंग बदलते)आसमान को आसानी से देखा जा सकता था। लोगों के चेहरों की रंगत पीली पड़ गई थी। तेज़ बारिश उनकी आँखों से पानी बहा कर ले गई थी। अब लोग चिट्टे दीदे नचाते हुए एक दूसरे को तंज़िया नज़रों से घूर रहे थे। एक दूसरे को चिट्टे दीदे वाला कह कर पुकार रहे थे कि अब तक किसी ने आईना नहीं देखा था।

    तेज़ बारिश और आंधी पुल की रेलिंग और सड़क को उड़ा कर ले गई अब वहां पिलर रह गए थे। उदास और वीरान पिलर। जैसे अभी अभी मुक़द्दस मसीह वज़नी सलीब उठा कर लाए हैं और पलातोस के हुक्म से उन्हें गढ़वा दिया गया है कि उन पर ख़ुदा की रूह दूसरों में मुंतक़िल करने वाला और उसके साथी लटकाए जाऐंगे। फिर एक रोज़ आख़िरी पिलर भी जिसकी जड़ें सैंकड़ों साल से ज़मीन के सीने में पैवस्त थीं शम्स तबरेज़ की खाल की तरह नोच कर दूर फेंक दिया गया, तो मैं और अमजद दर्द भरी नज़रों से टूटे हुए पुल को देखते हुए सीढ़ियों वाले पुल की तरफ़ चल दिए और दोनों पुल की ऊंची रेलिंग पर कुहनियाँ टेक कर अपने अपने ख़यालों में गुम हो गए।

    अचानक एक इंजन छक छक करता पुल के नीचे से गुज़रा, एक लम्हे के लिए इंजन का कसीफ़ धुआँ मरगोले खाता हुआ फ़िज़ा में उठा और फिर बिखर गया। मैंने अमजद की तरफ़ देखा और अमजद मुझे इंजन की तरह लगने लगा। उस इंजन की तरह जिसके पीछे बेशुमार बोगियां बंधी हों और वो कर्ब से चीख़ता चिल्लाता तेज़ी से भागे जा रहा हो।

    मैं शुटिंग करते हुए इंजन को देखने लगा जो मुतवाज़ी ख़त की दूर तक फैली पटड़ी पर दौड़ता चला गया। जैसे उसकी कोई मंज़िल नहीं। थोड़ी देर के लिए कोई बोगी उसका दामन पकडती और फिर अचानक एक झटके से उसे छुड़ा कर तेज़ी से अकेली भागने लगती और कुछ ही देर बाद बहुत सी बोगियों में मिलकर अपना वजूद खो देती या किसी अकेले वीरान प्लेटफार्म पर जा खड़ी होती जहां सालों तक उसे कोई नहीं पूछता था।

    मैंने सोचा अगर ये आपस में टकरा जाएं...

    अमजद... ये आपस में टकरा जाएं तो...

    एक ज़ोरदार धमाका होगा...और फिर-फिर... ख़ुदा जाने क्या हो।

    ये बोगियां इंजन का हाथ पकड़ कर छोड़ देती हैं। हैं अमजद।

    बेचारे इंजन...

    बेचारी बोगियां...

    शायद...

    राहत मिली थी।

    आज आई थी।

    अफ़साना लेने।

    उसे अफ़साना चाहिए था।

    प्लाट मिल गया।

    प्लाट तो है ही। क्लाइमेक्स...

    तुम राहत के लिए कब तक अफ़साने लिखते रहोगे।

    कब तक।

    हाँ, कब तक। तुम उसे ख़त क्यों नहीं लिखते।

    ख़त... हाँ मुझे ख़त लिखना चाहिए।

    फिर कई दिन रात की सियाहियों में डूब गए। पुराने पुल की जगह नया पुल जन्म लेता रहा। एक रोज़ मैं जब पुल पर पहुंचा, अमजद पुल की रेलिंग पर कुहनियाँ टेके दूर स्टेशन की बत्तियों को घूर रहा था। जलती बुझती बत्तियां चारों ओर फैले अंधेरे के सीने में शिगाफ़ डालने की कोशिश कर रही थीं। आज बत्तियों की रोशनी भी डूबती महसूस हो रही थी जैसे अंधेरे का सैलाब कुछ ही लम्हों के बाद रौशनियों को हमेशा के लिए निगल लेगा। अंधेरे में डूबा हुआ पुल उदास उदास नज़रों से अपने साथियों को बट बट देख रहा था। चारों ओर फैली पटड़ियों पर हमेशा की सूरत इंजन एक बोगी का हाथ पकड़े तेज़ी से पटरियाँ बदल रहा था।

    राहत आई थी।

    मैंने हमेशा की तरह सवाल किया।

    नहीं।

    नहीं।

    मैं हैरान रह गया।

    ख़त लिखा था? जवाब आया?

    मैंने जल्दी से दोनों सवाल कर दिए।

    हाँ।

    मैंने अमजद की तरफ़ देखा, वो मेरी तरफ़ देख रहा था। फिर उसकी नज़रें दूर शंटिंग करते हुए इंजन पर जा पड़ीं।

    जवाब।

    वो बड़बड़ाया।

    उसी लम्हे बोगी ने इंजन से हाथ छुड़ा लिया और तेज़ी से इंजन की मुख़ालिफ़ सिम्त दौड़ने लगी। इंजन चंद लम्हे वहां रुका और फिर आहिस्ता-आहिस्ता वापस लौटने लगा।

    आओ चलें।

    अमजद ने कहा और हम आहिस्ता-आहिस्ता पुल से उतरने लगे...

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए