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पाकिस्तान कहानी

अब्दाल बेला

पाकिस्तान कहानी

अब्दाल बेला

MORE BYअब्दाल बेला

    हम कॉलेज के पुराने हाल की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। लकड़ी की चौड़ी पुरानी सीढ़ियों पे थप थप बेशुमार क़दमों की चाप थी। किताबें कापियां हाथों में पकड़े, आगे पीछे बातें करते, हंसते खेलते हम चढ़े जा रहे थे। दगड़ दगड़ लकड़ी के तख़्तों पे हमारे क़दम बज रहे थे। पुराने हाल कमरे की ऊंची छत और दूर दूर खड़ी सीधी दीवारों से पलट के हमारी सरगोशियाँ, बातें और मुस्कुराहटें गूंज रही थीं कि एक दम से कोई ऊंची आवाज़ में चिल्लाया।

    ए, पांव रखना

    देखना,

    पांव के नीचे दे देना उसे

    हर कोई पांव समेट के जहां था, वहीं खड़ा हो गया और गर्दन झुका के पैरों के आस-पास देखने लगा। ऊंची आवाज़ सबने पहचान ली। वो हमारे एक प्रोफ़ेसर थे। हमें उर्दू पढ़ाते थे, रोज़ उन्हें सुनते थे, पहचानने में क्या देर लगती थी।

    मगर ये प्रोफ़ेसर साहब इस तरह चीख़ के कभी पहले बोले थे।

    ये आज ऐसी क्या अनहोनी हो गई।

    हुआ यूं कि हम में से किसी की कापी या किताब से काग़ज़ का एक पाकिस्तान का झंडा फिसल के गिर गया था। उस के गिरने की कोई आवाज़ थोड़ी आती है। फिर सब ख़ुश गप्पियों में चल रहे थे, किसी ने ध्यान ही दिया।

    किसी को ये तक पता नहीं था कि पीछे पीछे प्रोफ़ेसर साहब चुपके चुपके चढ़े रहे हैं। जिस वक़्त वो काग़ज़ का झंडा किसी की किताब से खिसका तो उस पर प्रोफ़ेसर साहब की नज़र पड़ गई।

    बस वो चीख़ पड़े।

    ख़ैर, झंडा किसी ने उठा लिया।

    प्रोफ़ेसर साहब ऊपर आगए।

    हम साथ साथ चलने लगे।

    उनके चेहरे पे वही हमेशा की मुस्कुराहट थी। वही धीमापन, शाइस्तगी और ढेरों प्यार।

    मुझे ज़रा सी हैरत थी,

    चलो कुछ भी हुआ,

    लेकिन प्रोफ़ेसर साहब क्यों यूं चिल्ला उठे,

    मुझसे रहा गया।

    प्रोफ़ेसर साहब से कह बैठा,

    सर, मैं तो आपकी आवाज़ सुनके डर गया था?

    हाँ, डरने वाली ही बात थी। वो मुस्कुरा के बोले।

    बात मेरी समझ में आई।

    आपका ख़याल था, कोई गिर जाता? मैंने ज़ेर-ए-लब कहा।

    किसी के गिरने में क्या मज़ाइक़ा है, वो बे तकल्लुफ़ हंसकर बोले। उनकी रग-इ-ज़राफ़त एक दम से फड़की, मगर इस लम्हे के ख़त्म होने से पहले पहले उनके चेहरे पे वही शांत और सुकून की लहरों के बीच एक संजीदा सी नज़र कौंदी। मेरे कंधों पे हाथ रख के वो खड़े हो गए और मेरी आँखों के ऐन बीच ग्यारह हज़ार वोल्ट के ऊंचे खम्बे की शॉर्ट सर्किट तारों के स्पार्क की तरह मुस्कुरा के बोले,

    पता है, किस पे पांव आने लगा था।

    मैं तो पहले से जानता था, मगर उनकी आँखों से लगे झटके से बिदक गया।

    एक दिन फ़ुर्सत में उनको जा घेरा, क्लास में तो पढ़ाते थे।

    ज़ाती बातें, क़िस्से, कहानियां कम सुनाते थे। मैंने उनके दफ़्तर में जा पहुंचा,

    सर, आख़िर कोई तो कहानी होगी? जो आपने अभी कही नहीं।

    लेकिन वो आपकी अन कहियों से अक्सर कही जाती है।

    बोले, झंडे की बात कर रहे हैं आप?

    मैंने इस्बात में सर हिलाया तो कहने लगे, बैठ जाओ, मैं बैठ गया।

    बोले, पता है, कुछ जानते हैं आप अपने झंडे की क़ीमत?

    मैं सोच में पड़ गया।

    क़ीमत सोचने लगे आदमी तो, करंसी नोट ही ज़हन में आते हैं मेरे ज़हन का रुख पढ़के बोले,

    बता तो कोई नहीं सकता, एक दो नहीं, कारोड़हा लोगों की ये मुश्तर्का आबरू है। लेकिन मुझसे हक़ीर बंदे ने,

    अपने हिस्से की जो उसकी क़ीमत अदा की है, वो अपना पूरा कुम्बा है।

    जी?

    मैं बैठा बैठा उछल के खड़ा हो गया।

    बैठ जाइए।

    वो अजीब तरह की सरशारी से लबरेज़ हो के मुहब्बत से मुस्कुरा के बोले।

    थोड़ी देर वह चुप बैठे रहे, उनके चेहरे पे मुस्कुराहट की लकीरें थिरकने लगीं। नाक के नथुने एका एकी में फड़फड़ाये, उनका दायां गाल कपकपाया, गर्दन की वरीदें लम्हा भर को उभरीं और उन्होंने एक ज़ोर का सांस अंदर खींचा और बोले,

    पैंतीस लोग थे। सभी को क़ुदरत एक जगह ले आई थी। सब हमारे घर जमा थे। हमारा घर पाकिस्तान की राह में था। हिसार के घर की बात कर रहा हूँ जो क़रीब के रहने वाले थे, वो तो पहले से आए हुए थे, दूर रहने वाले अज़ीज़-ओ-अक़ारिब भी पहुंच गए।

    भिवानी, गुड़गांव, बदायूं, दिल्ली और लखनऊ तक से सब पहुंच गए। एक मेरा भाई था।

    वो बोलते बोलते फिर रुक गए। रुके रुके मुस्कुराए, उनकी आँखों से सिसकियाँ उभरीं, कहने लगे, तुम्हारी उम्र का था, अठारह साल सवा तीन महीने उम्र थी उसकी।

    एक माँ थी।

    उन्होंने फिर ज़ोर से सांस बाहर लिया, उन्हें मेरे भाई के बाद गोली लगी थी। कोई बीस पच्चीस मिनट बाद मेरा भाई, उनका जवान बेटा, उनके सामने तड़पता मर गया। आधा सेहन घर का, मेरे भाई के ख़ून से भर गया था। गर्दन में गोली लगी थी उसके। माँ जी सीना पीटती लपक के बाहर आगईं, वो तड़ तड़ गोलियां बरसा रहे थे, एक गोली माँ के सर पे भी लग गई। काश, माँ को पहले गोली लग जाती, वो अपना बेटा मरता देखतीं।

    वो कहते कहते फिर चुप हो गए और अपने दाहिने हाथ की शहादत की उंगली की पुश्त को दाँतों में दबाने लगे।

    मेरी बीवी भी थी। शादी को चार साल हुए थे। कमसिनी की शादी थी। छोटी उम्र की थी, बीवी से ज़्यादा प्रीतम थी, चार साल की कहानी हीर-राँझा की दास्तान सी है।

    वो भी मर गई। उन्होंने माथे पे हाथ रख के चेहरा झुका लिया, फिर एका एकी हाथ हटा के बोले, पता नहीं उसके कहाँ गोली लगी थी। शायद बल्लम, चाक़ू का कोई घाव लगा था उसे, वो बेचारी साड़ी का पल्लू सँभालते सँभालते ख़ून में लत-पत गिर गई। नाज़ुक सी थी, पतली सी, मर गई। उस की गोद में हमारी बच्ची थी।

    दो साल की।

    वो फिर अपने दाँतों में अपने दाहिने हाथ की अंगुश्त-ए-शहादत का दर्मियाना पपोटा भींच के बैठ गए। उसी तरह हाथ मुँह में लिये लिये बोले,

    तोतली तोतली ज़बान में, एक एक लफ़्ज़ का जुमला कहती थी। उसे उन्होंने थ्री नाट थ्री से मारा था। उनका हाथ एक दम से ये कहते हुए झटके से नीचे गिरा,

    इतना बड़ा धमाका हुआ था।

    पहले उन्होंने मेरी बेगम की गोद से बच्ची छीनी। बच्ची ने एक चीख़ मारी और बाज़ू खोले खोले माँ की तरफ़ तकती हुई दूर होती गई, फिर उन्होंने उसे उठा के फ़र्श पे फेंक दिया।

    और फिर, फ़र्श पे गिरी हुई नन्ही सी दो साल की बच्ची पे थ्री नाट थ्री से फ़ायर किया। धमाका तो होना था। उनके चेहरे के पुट्ठे फिर लरज़ने लगे।

    गर्दन में सांस की नाली में जैसे कोई कंकर आगया, उनके सीने में हवा को रास्ता मिला। उन्होंने फिर ज़ोर से एक सांस अंदर खींचा। फिर थोड़ी देर सर झुकाए बैठे, अपना सांस दुरुस्त करते रहे, पैरों में पहने जूतों के कोनों को आपस में मिला मिला के छोड़ते रहे। फिर सर ऊपर उठाया और बोले,

    और बहुत लोग थे, कुन्बे के। मेरी ख़ाला थीं। उनके मियां, मेरे ख़ालू। उनका बेटा,एक ही बेटा था उनका, मेरे छोटे भाई जितना। एक उनकी जवाँ बेटी। बस दो ही बच्चे थे उनके, कोई भी नहीं बचा। एक उनकी होने वाली बहू थी। वहीं मेरे नाना थे। उनके बच्चे भी। मेरे मामूं। वहीं कहीं ये एक झंडा भी था। बस ये उन्होंने बचा लिया। ख़ुद बच सके। इक-इक करके मर गए। सारे मार दिये उन्होंने। पूरा घर उनकी लाशों से भर गया। भाई सेहन में उधड़ा पड़ा है, माँ उसकी लाश पे औंधी गिरी हुई है। डेयुढ़ी में बीवी का जिस्म साड़ी में छुपा मरा पड़ा है। दहलीज़ के पास बेटी के जिस्म के लोथड़े हैं। डेयुढ़ी में ख़ाला मरी पड़ी है। चार क़दम पे ख़ालू की लाश है।

    पास ही कहीं उनके बेटे, बेटी और बहू की लाशें हैं। नाना एक तरफ़ गिरा मरा हुआ है। कई मामूं कटे पड़े हैं। पैंतीस लोग, तुम्हें कैसे गिनवाऊँ? उन्हें बोलते बोलते सांस चढ़ गया।

    उन्होंने तेज़ तेज़ दो तीन सांस लिये, फिर एक गहरा सांस सीने में भर के, उसे लरज़ते हुए झटकों से लेते हुए बोले,

    उन्होंने फिर लाशों को खींच खींच के इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। एक दूसरे के ऊपर अनाज की बोरियों की तरह मरे लोगों के ढेर लगा दिये। और वो सर से पांव तक कुछ-कुछ कहते काँपने लगे।

    कुछ देर तक उनका जिस्म कपकपाता रहा, कोई बात उनके होंटों पे तड़पती रही। फिर एका एकी उनका जिस्म ढीला पड़ गया। ज़बह हुए हुए क़ुर्बानी वाले जानवर की कोई बची हुई चीख़ जैसी आवाज़ में वो बोले,

    फिर, उन्होंने... उन्होंने सारी लाशों पे तेल छिड़क के आग लगा दी। शरशर करके सब के जिस्म जलने लगे। मेरी माँ, भाई, बीवी, बच्ची सब, मैं ख़ुद उन्ही लाशों के अंबार में पड़ा था। पता नहीं कहाँ कहाँ ज़ख़्म थे। ख़ून में भरा, बेहोश, बे सूरत पड़ा था। कुछ जल गया जिस्म मेरा भी। पता नहीं कब आग बुझी, कब मैं उठा, ख़ुदा जाने कैसे लाशों में पड़ा सांस लेता रह गया।

    बच गया। वही झंडा उठा के उधर आगया। अब तुम बोलो, मैं इस झंडे को गिरता देखूं तो चीख़ भी मारूं।

    कमरे में ख़ामोशी सन्नाटे की तरह गूँजने लगी।

    न्यू ब्लॉक में बना, प्रोफ़ेसरों के दफ़्तरों के हुजूम में उनका छोटा सा कमरा ख़ामोशी से भर गया।

    उन्होंने एक दम से अपनी कुर्सी हिलाई, मेज़ के क़रीब की और मेज़ के ऊपर एक कोने पर पड़े पीतल के स्टैंड पे लगे पाकिस्तान के झंडे को आहिस्तगी से हाथ लगाते हुए बोले, इतना सा झंडा था। पता नहीं वो कहाँ से ले आया था। ये तो मख़मली से कपड़े का है, वो आम से कपड़े का था। पता नहीं किस के दुपट्टे से फाड़ के बनाया था। सारा दिन वो उस झंडे से खेलता रहता, जिधर जाता, झंडा साथ। उसपे चांद तारा काग़ज़ का लगा था, सफ़ेद काग़ज़ का, गोंद से चिपका हुआ। पता नहीं वो बच्चा किन का था। उन्ही अज़ीज़ों में से किसी का था। सभी क़रीबी रिश्तेदार थे। सभी उस बच्चे से एक जितना प्यार करते थे। वो बच्चा भी उन्ही लाशों में था। इतनी छोटी सी लाश थी उस की, कुमलाए हुए फूल जैसी, जब सब लाशों को आग लग गई, तो उस बच्चे का जिस्म भी जलने लगा।

    पहले उस के कपड़े जले थे। उसका झंडा बच गया। उसने झंडा अपने क़द से ऊपर कहीं दरवाज़े की खूँटी में फंसाया हुआ था। वो बच गया। ख़ुद वो जल गया। छोटा सा बच्चा था, बर्थ डे केक की मोम बत्ती जितना, किसी ने फूंक भी मारी, सारा पिघल गया। उसकी छोटी बहन फूंक मारने आगई थी। उस से भी छोटी बहन थी। उसे पता नहीं लाशों के ढेर में गिरे कैसे होश में आगई। होश तो थोड़ी थोड़ी मुझे भी आग लगने के बाद गई थी। मगर मुझसे उठा गया। वो बच्ची उठ के अपने भाई के पास आगई, भाई की लाश जल रही थी। बच्ची, हाथ मार मार के भाई के कपड़ों की आग बुझाने लगी। आग बुझाते बुझाते अपनी तोतली ज़बान में कहने लगी,

    भाई उथो, उथ जाओ, आपके कपड़ों को आग लग गई है। ये कहते कहते, उस बच्ची के कपड़ों को भी आग लग गई। मिट्टी का तेल तो पहले ही उसपे उन्होंने छिड़का हुआ था। वो अगरबत्ती की तरह चिल्लाती, चीख़ती घूमती तड़पती मर गई।

    सारे मर गए। मैं पता नहीं क्यों बच गया। ज़ख़्म थे, जिस्म जला हुआ भी था। उसी शहर के हस्पताल के एक कमरे में फिर लिटा दिया गया। मुझे याद है, वो रात,

    वो कुछ सोच के, मेज़ पे दोनों बाज़ू टेक के बैठ गए। हाथ दोनों फैला के उन्होंने अपने चेहरे के दोनों तरफ़ रख लिये और बोले,

    चाँदनी रात थी वो। वार्ड के बाहर खुला मैदान था। सारा मैदान नज़र रहा था। चांदनी उस में कफ़न की तरह फैली हुई थी। मेरे बिस्तर के साथ, एक खिड़की थी।

    खिड़की से सब नज़र आता था। अचानक बाहर, किसी ट्रक के आने की आवाज़ आई। फिर ट्रक की हेड लाइट्स चांदनी से भरे सेहन पे लहराईं। थोड़ी देर बाद ट्रक सामने के मैदान में आकर खड़ा हो गया। अजीब हैबतनाक सा लम्हा था वो। रात आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी थी। वार्ड के अंदर और बाहर अजीब तरह का सन्नाटा था। ट्रक रुका, उसका इंजन बंद हुआ तो ख़ामोशी जिस्म में उबलने लगी। दो-चार हस्पताल के अमले के लोग ट्रक के पीछे गए। खड़क कर के ट्रक के पीछे का आहनी तख़्ता खुलने की आवाज़ आई। फिर ख़ामोशी बढ़ गई। ट्रक की लाईटस बंद हो गईं। चांदनी धीरे से फिर कफ़न की चादर लिये सेहन में लेटी। हौले हौले चांदनी का मंज़र नज़र आने लगा। ट्रक के पीछे गए हस्पताल के अमले के लोग, ट्रक के अंदर से कुछ मुर्दा जिस्म उठा उठा के ज़मीन पे लिटाने लगे। मेरा सांस रुकने लगा।

    एक एक कर के पूरी पैंतीस लाशें उन्होंने चांदनी में, खुले आसमान के नीचे लिटा दीं।

    मैं पहचान गया था। वो मेरा पूरा कुम्बा था। फिर मेरे वार्ड के कम्पाउण्डर ने भी तस्दीक़ कर दी वो सब मेरे कुम्बे की लाशें थीं। मेरा सारा कुम्बा, मेरा पूरा ख़ानदान हस्पताल के मुर्दाख़ाने के बंद कमरे के बाहर कच्ची ज़मीन पे मुर्दा पड़ा था। मेरी टांगों में मुझे सहारने की ताक़त नहीं थी। मैं उठा नहीं। वहीं खिड़की से लगा, चिपका लेटा रहा। फिर, वो ट्रक भी चला गया। वो हस्पताल के अमले के लोग भी चले गए। वार्ड के इक्का दुक्का ज़ख़्मी भी सो गए। बस एक चांद मेरे साथ जागता रहा। उसकी चांदनी मुझे जगाती रही जिसकी कफ़न जैसी सफ़ेद रौशनी में मेरे कुम्बे की बे कफ़न लाशें पड़ी थीं। अचानक, उस चांदनी में..., वो कुछ कहते कहते रुक गए और फिर दोनों हाथों को मेज़ पे रख के उसपे सर रख दिया। उनके जिस्म में, सर से पांव तक फिर लरज़ा भर गया। कुछ देर तक उनका बदन कपकपाता रहा।

    फिर हाथों में इसी तरह सर दिये हुए लरज़ते साँसों से वो बोले,

    उधर बाहर कोई दीवार थोड़ी थी। सब लाशें मेरे प्यारों की खुली पड़ी थीं। मेरी माँ, मेरी बीवी, बेटी, मेरा भाई, मेरे सारे ख़ानदान के लोग सब के जिस्म मैदान में फेंके हुए थे। ऊपर चांदनी थी और कोई राह में रुकावट नहीं थी। रात पता नहीं कितनी बाक़ी थी।

    अचानक,

    एक तरफ़ से कुत्तों का पूरा ग़ोल आगया। वो सारे कुत्ते मेरे कुम्बे की लाशों की तरफ़ जा रहे थे। पता नहीं, कुत्तों के लाशों पे पहुंचने से पहले मैं बेहोश हुआ या बाद में। सुबह तक मुझे होश नहीं आया। अगले दिन शाम को कहीं मेरे औसान बहाल हुए तो मुझे बताया गया, कि मेरे सारे कुम्बे के लोगों को एक गढ़ा खोद के दफ़ना दिया गया है। लो, मेरे प्यारे बेला, ये मेरी कहानी है।

    प्रोफेसर साहब ने मेज़ से सर उठा लिया और फिर मेज़ पे पड़े झंडे के चांद तारे पे ऐसे प्यार से उंगलियां फेरने लगे, जैसे उस के अंदर अपने सारे कुम्बे के जिस्मों का लम्स ढूंढ रहे हों। फिर मेरी तरफ़ सर उठा के बोले, ये आप क्या सुनते सुनते नोट्स ले रहे हैं!

    मैंने काग़ज़ पे क़लम रोक के सर उठाया, मेरी आँख से एक आँसू टपक के मेरे लिखे लफ़्ज़ों पे मिल गया।

    कुछ लिखे लफ़्ज़ फैल गए...

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