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पनाह-गाह

रतन सिन्ह

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MORE BYरतन सिन्ह

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक ऐसे शख़्स के गिर्द घूमती है जो विभाजन के बाद भारत में होने पर भी ख़ुद को पाकिस्तान स्थित अपने घर के कमरे में ही महफू़ज़ महसूस करता है। बीती ज़िंदगी में जितनी भी मुसीबतों आईं, उन सबसे बचने के लिए उसने उसी कमरे में पनाह ली है। अब वह भारत में होकर भी उसी कमरे में पनाह लिए हुए है। इस दौरान वह सोचता है कि उसकी यह पनाह इतनी बड़ी हो जाए कि उसमें सब लोग समा जाएं और हर परेशान-हाल को कुछ सुकून मिल जाए।

    रात को सोया तो में अपने कमरे में था, अपने पलंग पर, लेकिन सुबह जब जागा तो मैंने अपने आपको इस अंधेरे कमरे में पाया जिसे मैं पाकिस्तान बनते वक़्त अपने साथ हिन्दोस्तान उठा लाया था।

    इस अंधेरे कमरे में बिछे हुए पलंग पर लेटा हुआ मैं दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र अदा कर रहा था कि मौत की वादी से निकल कर महफ़ूज़ जगह पर पहुंच गया हूँ। रात के आख़िरी पहर में, मैंने बड़ा ही भयानक सपना देखा था जिसमें ख़ौफ़नाक जानवर मुझ पर टूटे पड़ रहे थे। सपने में इन भयानक जानवरों से बचने के लिए मैंने हमेशा की तरह इस कमरे में पनाह ली थी।

    सपना टूट गया था। मैं पूरी तरह जाग रहा था। दिल अब भी धमक धमक कर रहा था लेकिन उस कमरे की फ़िज़ा में एक लतीफ़ सी गर्मी थी जो ख़ौफ़ से ठिठुरते हुए मेरे जिस्म को राहत बख़्श रही थी। उस कमरे की बू बास में ऐसी ख़ुश्बू थी जो मेरी साँसों के ज़रिये मेरे वजूद में तहलील हो कर दिल-ओ-जान को सुकून अता कर रही थी और उस कमरे की चारों दीवारों ने जैसे बाहें फैला कर मेरे ज़ख़्मी वजूद को अपनी आग़ोश में ले लिया था और मुझे उस वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे उस कमरे की चारों दीवारों ने मेरी सारी कायनात को अहाते में कर लिया हो और उस अहाते में कोई ख़ौफ़ रहा हो, कोई दुख रहा हो और उन दीवारों पर टिकी हुई छत मेहरबान आसमान की तरह मुस्कुरा रही थी।

    उस अंधेरे कमरे को पाकिस्तान से उठा लाने का क़िस्सा यूं है कि जब वक़्त का वो ज़ालिम लम्हा क़रीब आया जिसके एक ही वार ने सदियों पुराने रिश्तों को काट कर रख दिया था तो घर में मौत का सा सन्नाटा छा गया। गांव का लंबा तड़ंगा नंबरदार मुराद अली आँगन में खड़ा हम सब के घर से निकलने का इंतिज़ार कर रहा था। उसने आते ही कहा था, “जल्दी चलो। तड़ फड़। सारे हिंदू बाज़ार में इकट्ठा हो रहे हैं। वहां से फ़ौरन ही चल देना है। रावी पार करने के लिए।”

    उस वक़्त मेरी दादी आटा गूँध रही थी। उसने आटा वहीं का वहीं छोड़ दिया। हाथ धो कर जल्दी से दुपट्टा बदलने किसी कमरे में गई। इस अफ़रा-तफ़री के आलम में, किसी को क्या सूझ सकता था कि क्या उठाए। फिर भी जैसे सारा घर उस लम्हे के लिए पहले से तैयार था। मेरे बड़े भाई के हाथों में उस के स्कूल कॉलेज के सर्टिफिकेट थे। मेरे बाप के हाथों में ज़मीनों की मिल्कियत के काग़ज़ात थे। छोटे अवतार ने सबकी देखा देखी अपना स्कूल का बस्ता उठा लिया था और मेरी दादी के हाथों में चांदी के ज़ेवरों और बर्तनों की ख़ासी बड़ी पोटली थी, जो सिर्फ इसलिए तैयार की गई थी कि लौटने वालों की नज़र हमारे सोने के इन जे़वरात की तरफ़ जाये जो हमने जूतों के तलवों और जिस्म के दूसरे हिस्सों में छुपा रखे थे।

    जब दादी दुपट्टा ओढ़ कर बाहर आईं तो उनके हाथों में पकड़ी हुई चांदी वाली पोटली नंबरदार ने लेकर अपनी बग़ल में दबा ली और फिर वो मेरे वालिद के हाथों में पकड़े हुए काग़ज़ात देखने लगा कि कहीं उनमें नोट तो नहीं छुपाए हैं।

    मैं छत के ऊपर से घबराहट के आ’लम में ये सब देख रहा था। दिल करता था कि एक ईंट दीवार से उखाड़ कर नंबरदार को इस तरह खींच कर मारूं कि उसकी तुर्रेदार पगड़ी के नीचे छुपा हुआ सर दो फाड़ हो जाये लेकिन हमारे घर की दीवारें बड़ी मज़बूत थीं। वैसे भी इस वक़्त ईंट उठा कर मारना तो मुम्किन ही था और ही अक़्लमंदी।

    इसलिए मुझ पर घबराहट तारी हो गई और मैं घबराया हुआ सारे मकान में पागलों की तरह घूमने लगा। उस कमरे से इस कमरे तक दालान से रसोई तक।

    मुझे कोई भी ऐसी चीज़ समझ में नहीं रही थी जिसे नंबरदार की तीखी नज़रों से छिपा कर साथ ले जाया जा सके और फिर वक़्त कहाँ था?

    वक़्त तो मौत का रूप धार कर मुराद अ’ली की शक्ल में घर के आँगन में आकर खड़ा हो गया था और घर से निकलने वाले एक एक शख़्स की तलाशी ले रहा था। ऐसी हालत में भला मैं इस घर से चलते वक़्त क्या उठा सकता था। जब कुछ समझ में नहीं आया तो घबराया हुआ उस अंधेरे कमरे में गया। उस कमरे में बिछे हुए पलंग पर एक पल के लिए लेटा। उसकी बू बॉस को अपने वजूद में रचाया। उसकी दीवारों को अपने गिर्द खड़ा किया और फिर छत समेत उसे उठा कर जल्दी जल्दी सीढ़ीयां उतरने लगा क्योंकि मुराद अ’ली ऊंची आवाज़ में मुझे पुकार रहा था कि जल्दी आओ चलने का वक़्त हो गया है।

    इस वक़्त इतने साल गुज़र जाने के बाद अगर आप उस कमरे का सही हदूद अ’र्बा’ देखना चाहें तो लाहौर से नारो वाल जाने वाली गाड़ी पर बैठिए। नारोवाल से पहले एक स्टेशन पड़ता है पीजो वाली। उस स्टेशन पर उतर कर आपको दो मील पैदल चलना होगा, दाऊद नाम के गांव पहुंचने के लिए जो दरयाए रावी के किनारे बसा हुआ है। गांव के बाहर ही साईं झंडे शाह का डेरा है। उस डेरे के पीछे श्री मूल चंद की बैठक के सामने एक तंग सी गली है छोटी सी। उसके ऐन सिरे पर हमारा मकान है, जहाज़ नुमा, बड़ा सा।

    उस वक़्त उस घर में दो ख़ानदान रहते थे। हमारा और हमारे चचा का। लेकिन गांव वालों के लिए ये एक ही घर था। एक ही ख़ानदान। वजह ये कि तो इन दोनों ख़ानदानों के दरमयान ज़मीन का बटवारा हुआ था और ही घर के अंदर तक़सीम की दीवारें उठी थीं। खेतों की फ़सल एक साथ घर में आती थी। और फिर बाहर की डयोढ़ी का दरवाज़ा बंद करने के बाद आधा अनाज चचा के कमरों में चला जाता और बाक़ी आधा हमारे कमरे में। इस पर लुत्फ़ ये कि बाहर से आने वाले मेहमान घर में दो दो महीने रह जाते और किसी को ये पता ना चलता कि दस्तरख़्वान पर रखा हुआ खाने का सामान दो रसोइयों से, दो घरों से बन कर आया है। वो सब यही समझते कि दोनों भाई बड़ी मुहब्बत से मिल-जुल कर रह रहे हैं।

    हाँ तो उसी घर में वो अंधेरा कमरा है, जिसका मैं ज़िक्र कर रहा हूँ। उसमें पहुंचने के लिए सीढ़ीयां चढ़ कर छत पर जाऐंगे तो आँगन से गुज़रने के बा’द एक बहुत बड़ा दालान मिलेगा। उस दालान के एक, दो, तीन चार हां पाँच दरवाज़े थे और सामने की तरफ़ दो रौशन-दान थे। नहीं आठ थे। क्योंकि इस दालान के दूसरे सिरे पर चचा की बहुत बड़ी रसोई थी और वहां पर कोई रौशन-दान नहीं था। दालान के पीछे दो कमरे थे। दाएं तरफ़ वाला चचा का और बाएं तरफ़ हमारा।

    हमारे इस पिछले कमरे में चूँकि बाहर की तरफ़ कोई रौशन-दान या खिड़की नहीं थी इसलिए इस में क़दरे अंधेरा रहता था। दालान के सामने वाले दरवाज़े खोल देने पर जितनी रोशनी जाये, आजाए, इसके अ’लावा रोशनी का कोई गुज़र उसमें नहीं था। इसलिए उस कमरे के ताक़ में एक सरसों का दिया रखा रहता था जो ज़रूरत के वक़्त जला लिया जाता, उसकी मद्धम सी पीले रंग की रोशनी में ये कमरा और भी ख़ूबसूरत हो जाता था।

    वैसे तो मुझे बचपन में अंधेरे से बहुत डर लगता था और निचली मंज़िल पर उस कमरे के नीचे जो कमरे हैं उसमें जाते हुए भी घबराता था लेकिन बचपन से होश सँभालते ही पता नहीं क्यों मैंने उस कमरे को अपनी पनाह-गाह बना लिया था।

    गर्मी के दिनों में दादी सुबह उठते वक़्त मुझे भी कच्ची नींद से जगा देतीं तो छत से उतर कर मैं उसी कमरे में छिप कर सो रहता था और छत पर सुबह की ख़ुनकी के बा’द उस कमरे की गर्म गा’द में बड़ी मीठी नींद आती थी।

    फिर ये था कि गर्मियों की बाद जब हल्के जाड़े पड़ने शुरू होते तो हमारे घर के निचले हिस्से की पिछली अँधेरी कोठरियों से कभी कभी साँप निकल आता था। वो साँप चाहे मार ही दिया जाता लेकिन उसकी दहश्त मुझ पर इस क़दर तारी होती थी कि मुझे घर के निचले हिस्से से डर लगने लगता था। मैं डयोढ़ी में दाख़िल होने के फ़ौरन बा’द सीढ़ीयों के रास्ते छत पर पहुंच जाता और जब तक उस पिछले कमरे में पहुंच जाता, मुझे ऐसे लगता जैसे हर क़दम पर साँप मेरा पीछा कर रहा हो और अगर जल्दी की तो वो मेरी राह रोक लेगा या टांगों से लिपट जाएगा।

    ये कमरा एक और वजह से भी मेरे लिए दोस्त का काम करता था। मेरी अपनी दादी बड़ी सख़्त मिज़ाज औरत थी। बचपन में ज़रा ज़रा सी ग़लती पर ऐसी सख़्त सज़ा देती थी कि रुई की तरह तोम कर रख देती थी। दादी से मार खाने के बा’द जब रोता रोता में उस कमरे में बिछे पलंग पर औंधे मुँह लेटता तो उस कमरे की बू बास जैसे मेरी चोटों पर मरहम पट्टी का का काम करती। उस कमरे की दीवारों की ख़ुनकी मेरे दिल को ठंडक पहुंचाती और ऐसे मौक़ों पर उसी कमरे में मेरी दूसरी दादी या’नी चाचा की माँ, मेरी दादी से चोरी चोरी मुझे दूध का गिलास पिला देती, दूध का गिलास जिसका चौथाई हिस्सा बालाई से भरा होता।

    घर के अंदर पैदा होने वाले ख़ौफ़ और डर के वक़्त तो ये कमरा पनाह-गाह का काम देता ही था लेकिन घर के बाहर भी जितने ख़तरे आते थे उनसे भाग कर मुझे उसी कमरे में चैन पड़ता था।

    हमारे गांव में दूसरे तीसरे साल बाढ़ आजाती थी। रावी का पानी, अपने किनारों को तोड़ कर हमारे गांव को जब काले नाग की तरह घेरता तो हर तरफ़ पानी ही पानी नज़र आता। हमारी गली के सामने जो चौड़ा रास्ता जाता है वहां तो घुटनों घुटनों पानी होता लेकिन ज़रा आगे बढ़ो तो यही पानी गले से भी ऊपर हो जाता। ऐसी बाढ़ के वक़्त पानी की तेज़ धारों की शायं शायं से सारे गांव पर दहश्त छा जाती। हर शख़्स घबराया हुआ होता।

    मैं ये हौलनाक मंज़र देखकर घर लौटता तो उस कमरे में छुप जाता जैसे मुझे यक़ीन था, बाढ़ का पानी उस कमरे की बुलंदी तक नहीं पहुंच सकता। जब मेरे दिल को ज़रा सी धीरज बंधी तो ऐसे मौक़ों पर मैं सोचता कि काश उस कमरे की दीवारें इतनी बड़ी हो जाएं इतनी बड़ी हो जाएं कि सारा गांव उसमें सिमट जाये। बाढ़ की ज़द में आकर लहलहाती फसलों वाले खेत बर्बाद हो जाते थे और कच्ची दीवारों वाले भंगियों और कुम्हारों के मकान अक्सर बाढ़ की वजह से गिर जाया करते थे। इसलिए मेरे दिल में आया करता कि ये सब उसी कमरे में आकर समा जाएं या ये कमरा ही इतना बड़ा हो जाये कि सारे मकान, सारे खेत, इसके अंदर आकर बाढ़ से महफ़ूज़ हो जाएं।

    अब तो आपको थोड़ा बहुत अंदाज़ा हो ही गया होगा कि इस कमरे की मेरे लिए किया एहमीयत है और मैं उसे पाकिस्तान से उठा कर क्यों लाया था।

    इस नई धरती पर चूँकि अभी तक कहीं मेरे क़दम जम नहीं पाए इसलिए मैं शाख़ से टूटे हुए पत्ते की तरह लुढ़कता फिरता हूँ। हवादिस की हवा जब मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मुझे धकेल कर अंजानी सिम्तों में ले जाती है ओर अनजान राहों पर ठोकरें खाते हुए जब मेरा वजूद लहूलुहान हो जाता है तो मैं ख़ुद बख़ुद उस कमरे में पहुंच जाता हूँ चंद लम्हों के लिए। और उसके ताक़ में रखे हुए दीये को मैं जैसे ही रोशन करता हूँ, उसकी पीली रोशनी में मेरी तड़पती हुई रूह को क़रार आने लगता है।

    या यूं कहिये कि जब हक़ीक़ी ज़िंदगी के ख़ौफ़ मेरे गिर्द फैले हुए अंधेरों से निकल कर काले नाग की तरह फन फैला कर मेरा रास्ता रोक लेते हैं या मेरे क़दमों से लिपट लिपट जाते हैं या फिर दुखों और ग़मों की बाढ़ अपनी सारी हदों को तोड़ कर जब मेरी हस्ती को इस तरह घेर लेती है जैसे रावी हमारी सारी बस्ती को घेर लिया करती थी और जब मेरे वजूद के गर्द की कच्ची दीवारें वक़्त की बेरहम लहरों की ज़द में आकर गिरने लगती हैं, तो में अपने आपको बचाने के लिए उसी कमरे में पनाह लेता हूँ। उस कमरे में जो मैं पाकिस्तान से उठा कर अपने साथ हिन्दोस्तान ले आया था। जब मौत मुराद अ’ली का रूप धार कर मेरी ज़िंदगी की चांदी छीनने आती है तो मैं डर के मारे सहमा हुआ पागलों की तरह चारों तरफ़ घूमता हूँ और फिर उसी कमरे में दुबक कर चंद लम्हे सुकून पाता हूँ।

    ऐसे मौक़ों पर उस कमरे की बू बॉस मेरे ज़ख़्मों पर मरहम का फाहा रखती है। मेरी साँसों के ज़रिये’ जिस्म के अंदर दाख़िल हो कर दिल को धीरज देती है और उस कमरे की चारों दीवारें मुझे अपनी आग़ोश में लेकर ज़िंदा रहने का हौसला बख़्शती हैं और कमरे की छत मेहरबान आसमान की तरह रहमत की बारिश करने लगती है।

    जब कभी बाढ़ आती थी तो अपने बचपन में, उस कमरे में लेटा हवा में ये दुआ’एं मांगा करता था कि ये कमरा सारे गांव सारी बस्ती की पनाह-गाह बन जाये और अब बड़ा हो कर मैं सोचा करता हूँ कि अगर उस कमरे की दीवारें सारी दुनिया को अपने अहाते में ले लें तो हो सकता है कि उस की मेहरबान छत के नीचे इस दुखी दुनिया को चंद लम्हों के लिए सुकून मयस्सर हो जाये।

    इसी मक़सद के हुसूल के लिए मैं अक्सर उस अंधेरे कमरे में पहुंच कर उसके ताक़ में रखे हुए दीये को रोशन करता हूँ और उसकी जलती हुई लौ की तरफ़ देखता रहता हूँ इक टुक और सोचता हूँ कि इस की लौ को कैसे और तेज़ किया जाये कि इसकी पीली रोशनी फैलती फैलती सारी दुनिया को अपनी आग़ोश में ले-ले।

    स्रोत:

    पनाह गाह (Pg. 9)

    • लेखक: रतन सिन्ह
      • प्रकाशक: रतन सिन्ह
      • प्रकाशन वर्ष: 2000

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