पसीना
स्टोरीलाइन
यह शादी-शुदा ज़िंदगी की नोक झोंक पर आधारित कहानी है। एक दिन पति ऑफ़िस से घर वापस आता है तो अप्रत्याशित रूप से उसकी पत्नी उससे बड़ी मुहब्बत से पेश आती है। पति बहुत देर तक माजरा समझ नहीं पाता, फिर पत्नी बताती है कि आज उसकी सहेली आई थी और वो अपने पति से बहुत ख़ुश है। उसने कुछ ऐसी बातें बताई हैं जो आपको नहीं बताऊंगी। पति कहता है कि तुम अपनी सहेली से ऐसी बातें रोज़ सुना करो ताकि हमारी ज़िंदगी ख़ुशगवार रहे।
“मेरे अल्लाह! आप तो पसीने में शराबोर हो रहे हैं।”
“नहीं, कोई इतना ज़्यादा तो पसीना नहीं आया।”
“ठहरिए मैं तौलिया ले कर आऊं।”
“तौलिये तो सारे धोबी के हाँ गए हुए हैं।”
“तो मैं अपने दुपट्टे ही से आपका पसीना पोंछ देती हूँ।”
“तुम्हारा दुपट्टा रेशमीं है। पसीना जज़्ब नहीं कर सकेगा।”
“पसीने के ये क़तरे मुझसे नहीं देखे जाते। आपका ये कहना ठीक है कि रेशमीं कपड़ा पानी जज़्ब नहीं कर सकता, लेकिन मैं आपका तौलिया हूँ, क्या मैं आपका पसीना ख़ुश्क नहीं कर सकती।”
“आज गर्मी ज़्यादा थी। साईकल पर यहां आते आते मैं क़रीब क़रीब बेहोश हो गया था।”
“हाय अल्लाह!”
“नहीं, बस मैं चंद मिनटों में ठीक हो गया। एक दोस्त था, उसने मुझे आमों का शर्बत पिला दिया।”
“आमों का शर्बत भी होता है?”
“हर शय का शर्बत बनाया जा सकता है।”
“मेरा भी?”
“तुम्हारा शर्बत तो मैं हर रोज़ पीता हूँ लेकिन उसका ज़ायक़ा अच्छा नहीं होता।”
“शरीर कहीं के।”
“शरारत तो तुम्हारी होती है कि तुम मिठास में खटाई डाल देती हो।”
“खटाई तो आप डालते हैं, मैं तो मिस्री की डली हूँ।”
“मानता हूँ, लेकिन कभी कभी...”
“आप मुझसे वो ज़्यादा न कीजिए... इधर आईए, मैं आपकी टाई उतारूँ।”
“आज इतना तकल्लुफ़ क्यों किया जा रहा है?”
“आप मुहब्बत को तकल्लुफ़ कहते हैं?”
“इसके मुतअ’ल्लिक़ मैं तफ़सीलात में जाना नहीं चाहता... वैसे मैं इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि इतनी मुहब्बत का इज़हार तुमने पहले कभी नहीं किया।”
“आप मुहब्बत को क्या जानें?”
“इंसान अगर मुहब्बत ही को जान पहचान नहीं सकता तो मैं समझता हूँ वो हैवान भी नहीं, कोई बे-हिस चीज़ है... पत्थर है, सड़क पर गिरा हुआ रोड़ा है।”
“इधर आईए, मैं आपकी टाई आतारुं।”
“इस तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है?”
“मेरी समझ में नहीं आता कि आप तकल्लुफ़ की बात क्यों करते हैं? मैंने कभी आपसे तकल्लुफ़ बरता है?”
“आज पहली मर्तबा।”
“आप इतने ज़हीन हैं, बताईए इस तकल्लुफ़ की वजह क्या है?”
“मैं इतना ज़हीन नहीं हूँ।”
“आप कस्र-ए-नफ़्सी से काम ले रहे हैं।”
“जनाब मैं कस्र-ए-नफ़्सी से काम नहीं ले रहा, एक हक़ीक़त थी जो मैंने बयान कर दी?”
“मेरे पास तो आईए, मैं आपका पसीना पोंछ दूं... गर्मी में बेहाल होके आ रहे हैं।”
“कोई इतनी ज़्यादा बेहाली नहीं। वैसे इसमें कोई शक नहीं कि आज दर्जा-ए-हरारत बहुत बढ़ा हुआ है, सुनने में आया है कि आज दस आदमी इस हिद्दत के बाइ’स मर गए हैं।”
“मैं कहती हूँ, आप इतने रुपये ख़र्च करते हैं, क्यों नहीं घर में एक कूलर ले आते?”
“कूलर की क्या ज़रूरत है? तुम ख़ुद बहुत बड़ी कूलर हो। इतनी गर्मी में घर आया हूँ, तुम्हारी बातों ही ने मुझे ऐसी ठंडक पहुंचा दी है जो सबसे बड़ा कूलर भी नहीं पहुंचा सकता।”
“आपने अब मेरा मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया।”
“तुम्हारी क़सम, मैं ऐसी गुस्ताख़ी कभी नहीं कर सकता।”
“मेरी क़सम आपने क्यों खाई है?”
“इसलिए कि बड़ी लज़ीज़ है।”
“या’नी आदमी को वही क़समें खानी चाहिऐं जो मज़ेदार हों।”
“यक़ीनन।”
“आप से मैं कभी जीत नहीं सकती।”
“मैं तो हमेशा हारता रहा हूँ।”
“आप कब हारे हैं, हार तो हमेशा मेरी ही होती रही है।”
“अच्छा, अब ज़रा मैं आराम करना चाहता हूँ, मेरी शलवार क़मीस निकाल दो।”
“अलमारी में सिर्फ़ एक पाएजामा मौजूद है।”
“बनियान होगी?”
“जी नहीं, तीन मैली पड़ी हैं जो नौकर ने अभी तक नहीं धोईं।”
“ऐसी छोटी छोटी चीज़ें तो तुम्हें ख़ुद धो लेना चाहिऐं।”
“आपको क्या मालूम कि साबुन कितना वाहियात होता है? छाले पड़ जाते हैं हाथों में।”
“नौकरों के हाथों में भी यक़ीनन छाले पड़ते होंगे।”
“आप हमेशा नौकरों की तरफ़दारी करते हैं।”
“क्या वो इंसान नहीं?”
“ख़ैर छोड़िए इस क़िस्से को... इधर आईए, मैं आप की टाई उतार दूं।”
“ये कौन सी इतनी बड़ी मुहिम है, जो आप सर करना चाहती है।”
“मैं आपसे बहस करना नहीं चाहती, ये बताईए कि आपको चलने में तकलीफ़ क्यों महसूस हो रही है?”
“जूता ज़रा तंग है?”
“ये वही है न जो आपने पिछले महीने लिया था।”
“हाँ, वही है, आज पहली मर्तबा पहना है।”
“देख के नहीं लिया था?”
“देख कर ही लिया था, पहना भी था, पर...”
“छोटा कैसे हो गया?”
“जो चीज़ इस्तेमाल न की जाये, सिकुड़ जाती है।”
“ये अ’जीब मंतिक़ है।”
“औरतों को अपने खाविंदों की हर बात अ’जीब मंतिक़ मालूम होती है।”
“मैंने कहा, इधर आईए, आपकी टाई उतार दूं।”
“पहले तो मैं ये तकलीफ़देह जूते उतारना चाहता हूँ।”
“बैठ जाईए, मैं उतार देती हूँ।”
“आज तुम इतनी मेहरबान क्यों हो? पहले तो...”
“अब नख़रे न बघारिए... बैठिए कुर्सी पर।”
“यहां सब कुर्सियां इस क़ाबिल कहाँ हैं कि उनपर आदमी बैठे?”
“मैंने आपसे कहा था कि जब इनका बेद बिल्कुल नाकारा हो जाएगा तो मैं सबकी सब ठीक करा दूँगी।”
“ये तुम्हारी अ’जीब मंतिक़ थी जिसके मुतअ’ल्लिक़ मैंने कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा था कि मबादा तुम नाराज़ हो जाओ।”
“बात दरअसल ये है कि मैं चाहती थी कि जब तक ये कुर्सियां काम देती हैं, इनकी मरम्मत न कराई जाये, क्योंकि इन्हें मुक़र्ररा वक़्त पर फिर मरम्मत तलब होना है, जितने दिन निकल जाएं ठीक है।”
“मेरा ख़याल है, तुम भी मरम्मत तलब हो।”
“देखिए, मैं ऐसी बातें पसंद नहीं करती... आप बड़े बेलगाम होते जा रहे हैं।”
“चलिए, मैं ख़ामोश हो जाता हूँ।”
“आप ख़ामोश ही अच्छे लगते हैं।”
“आप ख़ामोश क्यों हो गए?”
“तुम ही ने तो मुझसे कहा था कि आप ख़ामोश ही अच्छे लगते हैं।”
“मैंने ये तो नहीं कहा था कि आप मुँह में घुनघुनियां डाल के बैठ रहें।”
“तुम मुझे कुछ खाने के लिए दो।”
“मैं क्या दूँ, आप बाहर से खा कर आरहे हैं।”
“तुमने कैसे जाना?”
“आपकी पतलून बता रही है... सालन के दाग़ लगे हैं। ज़रूर आपने किसी होटल में अपने दोस्त के साथ अय्याशी की होगी।”
“अय्याशी तो ख़ैर नहीं की, लेकिन मजबूरन अपने अफ़सर के साथ एक दा’वत में शरीक होना पड़ा... और तुम जानती हो, अच्छी तरह जानती हो कि मैं सिर्फ़ अपने घर का पका हुआ खाना पसंद करता हूँ। वहां मैंने सिर्फ़ चंद लुक़्मे मुँह में डाले और हाथ उठा लिया, इसलिए कि खाना बड़ा वाहियात था, उसमें तुम्हारे हाथों का नमक नहीं था।”
“लेकिन ये पतलून पर धब्बे कैसे पड़े?”
“इसलिए कि सालन वाहियात था। मुझसे दो मर्तबा चावल नीचे गिर गए।”
“चावल तो आपसे हमेशा नीचे गिरते रहते हैं।”
“उसको छोड़ो, मुझे ये बताओ कि फ़र्श पर शर्बत किसने गिराया था और... और... ये गिलास, जग... कोई मेहमान आया था?”
“हाँ, मेरी एक सहेली आई थी।”
“कौन?”
“आप उसे नहीं जानते, कोएटे की थी, जो मेरे साथ पढ़ती थी। उसकी हाल ही में शादी हुई है। मुझसे मिलने आई थी।”
“उस से क्या बातें हुईं?”
“मैं आपको क्यों बताऊं? वैसे वो अपने ख़ाविंद से बहुत ख़ुश थी।”
“हर औरत को अपने ख़ाविंद से ख़ुश होना चाहिए, इसमें उसकी क्या बरतरी है?”
“नहीं, वो...”
“क्या?”
“वो बेहद ख़ुश थी...उसने मुझे...”
“क्या...?”
“ऐसी ऐसी बातें सुनाईं जो... जो मुझे मालूम ही नहीं थीं। शायद आपको भी मालूम न हों।”
“इस गुफ़्तुगू को छोड़िए, आईए मैं आपके जूते उतार दूं...”
“ये काम मैं ख़ुद भी कर सकता हूँ।”
“नहीं, मैं आज ख़ुद करूंगी... पहले टाई उतारने दीजिए।”
“उतार लीजिए।”
“आप आज कितने अच्छे लगते हैं।”
“इसकी वजह क्या है? पहले तो मैं तुम्हें कभी अच्छा नहीं लगा था, आज यक-बायक ये इन्क़लाब कैसे पैदा हो गया?”
“इन्क़लाब कैसा? मैं शुरू ही से आपसे मुहब्बत करती हूँ। मेरा सारा दुपट्टा गीला हो गया है, तौबा, आप को इतना पसीना क्यों आ रहा है?”
“चलिए अंदर।”
“चलो।”
“यहां बाहर की बनिस्बत गर्मी किस क़दर कम है?”
“हाँ!”
“इस शू ने तो आपके पांव की उंगलियों पर चंडियाँ डाल दी हैं।”
“हर तंग चीज़ राहत का बाइ’स होती है।”
“मैं भी आज से तंग हो गई हूँ।”
“मुझ से?”
“नहीं, मेरी सहेली ने मुझे बताया था कि उसका ख़ाविंद... ख़ैर, आप इस क़िस्से को छोड़िए, उसने बड़ी तंग और चुस्त चोली पहनी हुई थी।”
“मैंने अब देखा है कि तुम भी उसी क़िस्म का ब्लाउज़ पहने हो... कहाँ से लिया तुमने?”
“आज ही उसके दर्ज़ी से सिलवाया है।”
“और मैं जो साड़ी लाया हूँ।”
“वो उससे मैच नहीं करती। ख़ैर, मैं आपके साथ चलूंगी और उस दुकान में कोई और साड़ी पसंद कर लूंगी।”
“उस सहेली से तुमने क्या बातें कीं?”
“आप लेट जाईए, फिर आपको पसीना आरहा है... मैं आपको उसकी तमाम बातें सुना दूंगी।”
“तुम अपनी सहेली से ऐसी बातें हर रोज़ सुना करो, ताकि हमारी ज़िंदगी ख़ुशगवार रहे और तुम मेरे पसीने को अपने दुपट्टे से इसी तरह पोंछती रहो।”
“आप का पसीना तो अब मेरा लहू बन गया है।”
- पुस्तक : برقعے
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