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MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    इंसान की नैसर्गिक इच्छाओं पर रोक लगाने और क़ाबू न पा सकने की कहानी है जिसकी रचना जातक कथा और हिंदू देव-माला के हवाले से की गई है। संजय भिक्षा लेने इस मज़बूत इरादे के साथ जाता है कि वो भिक्षा देने वाली औरत को नहीं देखेगा लेकिन एक दिन उसकी नज़र एक औरत के पैरों पर पड़ जाती है, वो उसके लिए व्याकुल हो जाता है। अपनी परेशानी लेकर आनंदा के पास जाता है वो सुंदर समुद्र का क़िस्सा, बंदरों, चतुर राजकुमारी की जातक कथा सुनाता है। संजय निश्चय करता है कि अब वो बस्ती में भिक्षा लेने नहीं जाएगा लेकिन उसके क़दम स्वतः बस्ती की तरफ़ उठने लगते हैं। फिर वो सब कुछ छोड़ कर जंगल की तरफ़ हो लेता है लेकिन वहाँ भी उसे शांति नहीं मिलती है।

     

    अगले दिन वो फिर उसी गली में गया और उसी दरवाज़े को खटखटाया, फिर वही कोमल पैरों वाली ड्योढ़ी पे आई और फिर उसने नीची नज़रों के साथ भिक्षा पात्र आगे कर दिया और भिक्षा ले के चला गया। यही उसका नियम था। कितनी ड्योढ़ियों से कितनी नारियों के हाथों से उसने भिक्षा ली थी मगर कभी नज़र उठा के किसी को नहीं देखा, उसने जान लिया था कि पंच-इंद्रियों में आँख सबसे ज़्यादा पापी है, जो दिखाई देता है वो सब माया का जाल है। देखने वाला माया के जाल में फँसता है और दुख उठाता है। सो आँख दुख देती है, सो मत देखो और मत फँसो और मत उठाओ। सो वो नहीं देखता था कि भिक्षा किस हाथ से मिल रही है, सो उसने यहाँ भी नहीं देखा कि भिक्षा देने वाली कौन है। कैसी उसकी मूरत है, बस उजले कोमल पैर उसकी झुकी नज़रों के सामने पल भर के लिए आते और ओझल हो जाते, वो इस ड्योढ़ी पे एक दिन आया और दो दिन आया और आता चला गया कि भिक्षा इस ड्योढ़ी से बहुत श्रद्धा के साथ मिलती थी।

    वो बसंत पंचमी का दिन था, गली-गली द्वारे-द्वारे पीली साड़ियाँ लहरा रही थीं, मानो सरसों खेतों में नहीं गलियों में फूली है और गेंदा क्यारियों में नहीं ड्योढ़ियों में महका है, उसने आज फिर उसी द्वारे जा के सांकल बजाई और फिर कोमल पैरों वाली ड्योढ़ी पे आई। पर आज उन पैरों में मेहंदी लगी थी, उसने झुकी नज़रों से उन पैरों को देखा और अचंभा किया कि गोरे पैरों में मेहंदी कैसी रचती है और पैर क्या से क्या बन जाते हैं, वो अचंभे से मेहंदी रचे गोरे कोमल पैरों को तकने लगा। ये ध्यान ही न रहा कि उसे भिक्षा भी लेनी है।

    भिक्षु जी! जल्दी करो त्योहार का दिन है। और उस आवाज़ के साथ कि ये आवाज़ आज उसने पहली बार सुनी थी भिक्षा पात्र के साथ-साथ उसकी नज़रें भी उठ गईं और फिर उठी ही रह गईं। क्या मोहनी मूरत थी, मुख चंद्रमा जैसा, बाल घटा से, आँखें मृग की सी, गर्दन मोरनी की सी, छातियाँ नाशपातियाँ, गात भरी-भरी, कमर पतली-पतली, साढ़ी बसंती, माथे पे लाल बिंदी, वो सुद्ध-बुद्ध खोये टकटकी बाँध, उसे तकने लगा, वो सुंदरी ऐसी हड़बड़ाई कि भोजन से भरी थाल हाथ से गिर पड़ी।

    संजय उस शुभ दिन ख़ाली पात्र के साथ अपने अस्थान पर वापस आया, मन को एक चिंता लग गई थी, क्या मुझे मोह ने आ घेरा है, बहुत विचार किया, कुछ समझ में न आया जैसे उसकी मत मारी गई हो, आनंदा के पास पहुँचा और बोला कि प्रभु! मैं ब्याकुल हूँ।

    आनंदा ने उसे देखा जैसे टोह रहा हो, कारन?

    नारी!

    नारी?

    हाँ नारी। और संजय ने अपनी सारी बिपता कह सुनाई।

    आनंदा अचंभे के साथ आँखें खोले उसकी बिपता सुनता रहा, फिर उसने आँखें मूँद लीं, आँखें मूँदे चुप बैठा रहा, फिर आँखें खोलीं और बोला, बंधु! गलियाँ और ड्योढ़ियाँ मोह का जाल हैं, भिक्षुओं का नियम ये है कि वो गलियों में रुकते नहीं और, ड्योढ़ियों में ठहरा नहीं करते, गली-गली, द्वारे-द्वारे फिरते हैं, भिक्षा आज याँ से कल वाँ से, पर मूर्ख तूने इस नियम का पालन नहीं किया, तूने वही किया जो सुंदर समुद्र ने किया था।

    सुंदर समुद्र ने क्या किया था?

    तू नहीं जानता सुंदर समुद्र ने क्या किया था?

    नहीं प्रभु! मैं नहीं जानता कि सुंदर समुद्र ने क्या किया था।

    तब आनंद ने संजय को सुंदर समुद्र की कहानी सुनाई।

    सुंदर समुद्र की कहानी

    जन्म अष्टमी का दिन था। सुहानी रुत, मंगल समय, भादों की रिमझिम हो रही थी, एक हवेली में एक बुढ़िया-बुढा धारों धार रो रहे थे।

    एक कंचनी उधर से गुज़री तो उसने अचरज किया, है दुखियारो! तुम पे क्या बिपता पड़ी है कि आज जन्म अष्टमी के दिन जब हर नर-नारी, बूढ़ा-बालक उत्सब मनाता है, तुम आँसुओं की गंगा-जमुना बहा रहे हो। वो दुख से बोली, अरी हमारे लिए न अब जन्म अष्टमी है न होली-दीवाली है, पूत के बिछड़ने का रोग ऐसा लगा है कि हर घड़ी उसे याद करते हैं और रोते हैं।

    पूत बिछड़ गया?

    अरी हमारे एक ही तो पूत था, वो हमसे बिछड़ गया और हमारी दुनिया अंधेर कर गया।

    कैसे बिछड़ गया?

    एक दिन बुद्ध देव का इस नगर से गुज़र हुआ, उनके उपदेश ने उसे ऐसा बदला कि कहाँ तो छैला बना फिरता था और कहाँ ये कि सर मुंडाया और पीला पहना और शाक्य मुनी के पीछे हो लिया।

    उस पूत का नाम क्या है?

    सुंदर समुद्र।

    अच्छा मैं तुम्हारे पूत को वापस लाऊँगी।

    अरी तू कैसी बात करती है, शाक्य मुनी के संघ में जाके कौन वापस आया है। कंचनी ने ताव दिखाया, बोली, वो अपने समय का मुनी है तो मैं भी अपने समय की कंचनी हूँ।

    ये कह वो वहाँ से चली। शाक्य मुनी का अता-पता लिया कि इन दिनों कहाँ बिराजते हैं और किस नगर में उनके भिक्षु भिक्षा लेने पहुँचते हैं, उसी नगर पहुँच एक ऊँची हवेली ले वहाँ रह पड़ी, सुंदर समुद्र हर रोज़ भिक्षा पात्र ले बस्ती में पहुँचता, कभी इस गली में कभी उस गली में, एक रोज़ इस गली में आया और इस ऊँची हवेली की ड्योढ़ी पे पहुँचा। वो कंचनी तो बाट ही देख रही थी, थाल लेकर ख़ुद ड्योढ़ी पे आई, ऐसी चतुराई से बात की और भिक्षा दी कि सुंदर समुद्र ने अगले दिन फिर उसी गली का फेरा लगाया और उसी ड्योढ़ी पर आया, फिर वो उस ड्योढ़ी से ऐसा हिला कि द्वारे-द्वारे जाना छोड़ा, रोज़ उस ड्योढ़ी पे जा खड़ा होता और भिक्षा पात्र भरवा के लौटता, एक दिन चतुराई से कहने लगी कि भिक्षु जी, तुम्हारे नियम में कोई फ़र्क़ न पड़े तो आज यहीं पधारो और भोजन करो, मैं जानूँगी कि मेरी कुटिया को चार चाँद लग गए।

    सुंदर समुद्र ने विचार किया, फिर दिल में कहा कि तथागत ने कभी किसी को न नहीं कहा, एक मूर्ख ने उनके सामने भोजन के नाम मास ला के रख दिया, उस पे भी ना नहीं कहा, मास खा लिया, मुझे भी यही नीति अपनानी चाहिए, सो सुंदर समुद्र ने उस दिन उसी ड्योढ़ी में बैठ के भोजन किया, उस कंचनी ने दूसरे दिन भी यही इच्छा की और सुंदर समुद्र ने फिर उसकी इच्छा मान ली, बस सुंदर समुद्र रोज़ ही उस ड्योढ़ी में बैठ के भोजन करने लगा।

    सुंदर समुद्र को अपनी ड्योढ़ी पे बुला लेने के बाद उस कंचनी ने गली के बालकों को बहलाया फुसलाया और सिखलाया कि जब भिक्षु जी ड्योढ़ी में बैठ के भोजन करें तो तुम गली में ख़ूब दंगा करना और धूल मिट्टी उड़ाना। मैं दिखावे के लिए डाँटूँ-डपटूँगी, तुम बिल्कुल मत मानना। अगले दिन उन बालकों ने यही किया, कंचनी ने बालकों को डाँटा डपटा मगर उन्होंने एक कान सुनी और दूसरे कान उड़ा दी। अगले दिन कंचनी सुंदर समुद्र के सामने हाथ बाँध के खड़ी हो गई, कहा कि प्रभुजी! गली के बालक बगटुट हैं, गर्द मिट्टी उड़ा के भोजन को ख़राब करते हैं। मैं विनती करती हूँ कि आप अंदर आ कर पधारें और भोजन करें। सुंदर समुद्र ने फिर बुद्ध नीति को याद किया और कंचनी की बात चुपचाप मान ली। उस दिन से सुंदर समुद्र ड्योढ़ी से निकल अंदर दालान में बैठ के भोजन करने लगा।

    वो भोजन करता और कंचनी उसकी सेवा करती, सेवा करते-करते छब दिखाती, क्या उस कंचनी की छब थी और क्या रूप था। सूरत सुर्ख़, सफ़ेद जैसे सेब अनार, चुटिया नागन जैसी, भंवें कमान सी, गोल गदराई छातियाँ, कमर पतली, कूल्हे भरे-भरे, सुंदर समुद्र जब उसकी ओर देखता तो उसका जी डूबने लगता। तथागत ने अपने ज्ञान से जाना कि उनका एक भिक्षु किस गत में है। उन दिनों तथागत ने अपने पूरे संघ के संग श्रावस्ती के बाहर अनाथ हिंद के बाग़ में बास किया था, सब संघी उपदेश सुनने के लिए इखट्टे हुए, तथागत एक घने आम तले बीरासन मार कर बैठे और आँखें मूँद लीं, कुछ देर बाद आँखें खोलीं, संघियों को तका फिर उनकी ज्ञान भरी नज़रें सुंदर समुद्र पे आके ठहर गईं, टकटकी बाँध के उसे देखते रहे, फिर बोले, संघी! तेरा मन किस कारन उचाट है?

    सुंदर समुद्र ने सर झुका लिया और रुकते-रुकते बोला, हे तथागत मोह के कारण। तथागत टकटकी बाँधे उसे देखा किए, फिर बोले, भिक्षु! मोह में दुख है, कामना आदमी की दुर्दशा करती है, कामी आदमी से वो बंदर भले जिन्होंने ये भेद जान कर गिरह में बाँधा और सुख पाया। भिक्षुओं ने पूछा, हे तथागत! वो भले बंदर कौन थे और कहाँ थे?

    क्या तुमने भले बंदरों की कहानी नहीं सुनी?

    भले बंदरों की जातक

    बरस-बरस हुए मनुष जाती से दूर परे हिमालय की तलहटी में बंदरों की बिरादरी रहती थी, एक बार ऐसा हुआ कि कोई शिकारी उधर आ निकला, उसने एक बंदर को जतन करके पकड़ा और बनारस जाके राजा को दे दिया, उस बंदर ने राजा की ऐसी चाकरी की कि उसने प्रसन्न होके उसे आज़ाद कर दिया। वो बंदर लौट के अपने जंगल पहुँचा तो बिरादरी उसके गिर्द इकट्ठी हो गई, सब पूछने लगे कि बंधु तू इतने दिनों कहाँ रहा?


    बंधुओ! मैं मनुष जाती के बीच रहा।

    मनुष जाती के बीच...? अच्छा...? फिर बता कि तूने उस जाती को कैसा पाया?

    बंधुओ! ये मत पूछो।

    हम तो पूछेंगे।

    अच्छा ये बात है तो सुनो कि मनुष जाती में भी नर-मादा होते हैं जैसे हमारे बीच होते, पर उनमें नर की ठोड़ी पे लम्बे-लम्बे बाल होते हैं और मादा की छातियाँ बड़ी-बड़ी होती हैं, इतनी बड़ी कि थल-थल करती हैं, थल-थल वाली छातियों वाली ठोड़ी पे बाल को मोह में फँसाती है और दुख देती है। बंदरों ने कानों में उंगलियाँ दे लीं, चिल्लाए, बंधु, बस कर हमने बहुत सुन लिया। फिर वो उस टीले से ये कह के उठ गए कि हमने याँ बैठ के बुराई की बात सुनी है, अब याँ से उठ जाना चाहिए।

    तथागत ये जातक सुना के चुप हुए, फिर बोले, भिक्षुओ! सुनाने वाला बंदर मैं था, सुनने वाले बंदर वो थे जो आज मेरे भिक्षु हैं। एक भिक्षु ने अचंभे से पूछा कि हे तथागत नारी मर्द को कैसे दुख देती है जब कि मर्द बलवान है और वो निर्बल है? तथागत मुस्काए, भोले भिक्षुओ! नारी निर्बल है तो क्या हुआ, चातुर जो हुई अपनी चतुराई से बलवानों के बल निकाल देती है, क्या तुमने चातुर राजकुमारी की जातक नहीं सुनी?

    नहीं तथागत।

    तो सुनो।

    चातुर राजकुमारी की जातक

    बीते समय की बात है कि बनारस में एक राजा था जिसने तक्षीला जाके विद्या हासिल की, बहुत विद्वान, बहुत बुद्धिमान, उसके एक पुत्री थी, ये सोच कर कि पुत्री ख़राब न हो जाए वो उस पर बहुत कड़ी नज़र रखता था, पर नारी को सात तालों में भी रखो तो वो ख़राब हो कर रहती है। राजा ने बहुत चौकसी की मगर राजकुमारी के नैन एक रसिया से लड़ गए। नैन तो लड़ गए पर मिलने की सूरत नहीं निकलती थी कि महल में चौकी पहरा बहुत था। रसिया ने अपनी दाया को अपना भेदी बनाया और महल में भेजा, दाया महल में जा कर राजकुमारी की चाकर बन गई, साथ ही ताक में रही कि मौक़ा मिले तो राजकुमारी से भेद की बात की जाए। एक दिन की बात है कि वो बैठी राजकुमारी के सर में जुएं देख रही थी, जुओं को कुरेदते-कुरेदते उसने नाख़ुन से सर को खुजाया, राजकुमारी भी उड़ती चिड़िया को पकड़ती थी। भाँप लिया कि दाल में काला है, बोली, अरी मुँह से फूट कि उसने क्या कहा है।

    दाया ने हौसला पकड़ा, कहा, पूछता है कैसे मिलूँ? बोली, ये कौन सी बड़ी बात है, सधा हुआ हाथी, काली घटा, नर्म कलाई।

    दाया ने राजकुमारी का कहा रसिया को जा सुनाया, रसिया भी खेला खाया था, सब इशारे समझ गया, एक हाथी को सधाया, एक नर्म से लड़के को मिलाया, अब सावन के दिन आए और काली घटाएं घिर कर आईं तो रात पड़े हाथी पर बैठ, लड़के को साथ बिठा महल की दीवार तले जा पहुँचा, उधर राजकुमारी ने राजा से कहा कि महाराज कैसी सुंदर वर्षा हो रही है, मैं तो इस वर्षा में अश्नान करूँगी। राजा ने बहुत बहलाया पर वो न मानी। अश्नान के लिए मेंह में निकली और उस मुंडेर पे जा बैठी जिसके बराबर रसिया हाथी पर सवार बैठा था। राजा ने यहाँ भी चौकसी की, उसके पीछे-पीछे मेंह में गया, जब वो कपड़े उतारने लगी तो उसने मुँह फेर लिया पर राजकुमारी की कलाई को पकड़े रहा। राजकुमारी भी बला की बनी हुई थी, उसने अंगिया खोलने के बहाने कलाई राजा के हाथ से छुड़ाई, फिर घड़ी भर बाद लड़के की कलाई राजा के हाथ में पकड़ा दी और मुंडेर से कूद हाथी पर बैठ गई और फिर ये जा वो जा।

    अंधेरे में राजा को कुछ पता न चला कि क्या हुआ, और फिर यूँ भी उसने मुँह फेर रखा था, बस उसी तरह मुँह फेरे कलाई पकड़े वापस हुआ, राजकुमारी की अटारी में उसे धकेल आगे सांकल लगा दी। जब सुबह हुई तब पता चला कि राजकुमारी तो रसिया के साथ भाग गई, राजा ने हार के कहा कि नारी की चौकसी कठिन काम है, कलाई पकड़ लो तो भी जुल दे जाती है। तथागत जातक सुनाने के बाद चुप हुए फिर बोले, भिक्षु! जानते हो वो राजा कौन था, वो राजा मैं था कि पिछले जन्म में राज गद्दी पर बैठा था और एक मेरी पुत्री थी। चुप हुए, फिर ठंडा साँस भर के बोले, मैंने प्रकृति के भेद जाने पर नारी के भेद भाव नहीं जान पाया।

    सुंदर समुद्र जैसे सोते से जाग उठा, नारी के चक्कर को जाना और उस चक्कर से निकलने की ठानी, मन में कहा कि आज मैं उस नारी से कह दूँगा कि कल से मेरी बाट न देखे। ये प्रतिज्ञा करके वो उस ड्योढ़ी पर पहुँचा, कंचनी ने रोज़ की तरह उसकी आओ भगत की और अंदर ले जाके दालान में बिठाया, पर आज उसके सिखलाए हुए बालकों ने ड्योढ़ी के अंदर आके धमा चौकड़ी शुरू कर दी। उस रंडी ने पहले तो बालकों को डाँटा फटकारा, फिर जब वो न माने तो सुंदर समुद्र से कहा कि भिक्षु जी! याँ ये बालक रोल मचाते हैं और तुम्हें सताते हैं, अच्छा हो कि ऊपर कोठे पे चल के भोजन करो।

    सुंदर समुद्र ये सुन कर पहले तो रुका, फिर सोचा कि लोग बालक समान हैं, इनकी इच्छा पूरी करनी चाहिए, यही बुद्ध नीति है और यूँ भी आज इस घर में मेरा आख़िरी भोजन है। कल मैं कहाँ और ये घर कहाँ, बस ये सोच के वो उठ खड़ा हुआ। आगे-आगे कंचनी पीछे-पीछे वो सीढ़ियाँ चढ़ता चला गया। अपने पैरों पर नज़रें जमाए एक-एक सीढ़ी चढ़ रहा था, उसने कहाँ ये ध्यान दिया कि आगे कौन चल रहा है, मगर आगे जाने वाली कई बार रुक के खड़ी हो गई जैसे वो थक गई हो और हर बार सुंदर समुद्र बे ध्यानी में एक नर्म-नर्म साए के साथ छू गया।

    सीढ़ियाँ चढ़ के कंचनी ने सुंदर समुद्र को एक सजी बनी अटरिया में ले जा के नर्म सेज पर बिठला दिया, फिर आप भी बराबर में ये कह के पसर गई कि सीढ़ियाँ चढ़ के मैं तो थक गई और ऐ मेरे बंधु! नारी के पास मर्द को फुसलाने के चालीस गुर हैं। वो कंचनी उन चालीस गुरों में पैरी हुई थी। उसने पहले तो एक लंबी अंगड़ाई ली, अंगड़ाई लेते हुए बाहें कि नंगी थीं, ऊपर उठाईं फिर शर्मा के मुस्का के गिरा दीं, फिर नाख़ुन से नाख़ुन खुरचने लगी, फिर दाँतों में साढ़ी का पल्लू दबा के लजाई। बिल किसी कारण के ज़ोर से हँसी, फिर एक दम से हाथों में मुँह छुपा लिया, आप ज़ोर-ज़ोर से बोली, फिर ऐसे हौले-हौले बोली जैसे काना-फूसी कर रही हो, पहले दूर सिमट के बैठी, फिर वो बेसवा भिड़ के बैठ गई, छातियों से पल्लू छलकाया फिर ऊपर सरका लिया, रानों से साढ़ी सरकाई फिर जल्दी से नीचे कर ली।

    और एक बार तो ऐसी अंगड़ाई ली कि पिंडा खुल गया, फिर वो जल्दी से सिमट गई, और एक बार होंट होंटों के पास ले आई, पर फिर शर्मा के लजा के पीछे हट गई। और ऐ मेरे बंधुओ सुंदर समुद्र तो बिल्कुल मोहित हो गया, भूला कि वो भिक्षु है और वो तो पहले से ही गरमाई हुई थी, उसे गर्माता देख के खुल खेली, बे-हया ने न अपने बदन पे कोई धज्जी रहने दी और न उसके तन पे कोई लत्ता रहने दिया, सीना से सीना और रानों से रानों भिड़ने लगीं।

    आनंद चुप हो गया, संजय तड़प के बोला, फिर क्या हुआ?

    फिर क्या हुआ? आनंद हँसा, तथागत बीरासन बाँधे आँखें मूँदे बैठे थे, उन्हें ख़ूब दिखाई दे रहा था कि बाग़ से दूर श्रावस्ती की उस ऊँची हवेली की अटरिया में नार एक भिक्षु के साथ छल-फ़रेब कर रही है, मिलने की नौबत आ गई थी, बदन बस गड-मड होने लगे थे कि अमिताभ ने उस अटरिया में अपना दर्स दिखाया, सुंदर समुद्र की बिसरी सुद्ध वापस आई, बस काम नदी में डूबते-डूबते बाहर निकल आया। आनंद कहानी सुना के चुप हो गया, उधर संजय विचारों में डूबा हुआ था, फिर ठंडा साँस भरा और कहा कि वो कैसा मंगल समय था कि तथागत हमारे बीच बिराजते थे, कोई अज्ञानी नारी के छल में आ जाता तो वो उसे ज्योति दिखाते और सत्य पथ पे ले आते।

    चुप हुआ फिर बोला, मुझे नारी के छल से कौन बचाएगा। आनंद बोला, हे संजय मैं तुझसे वही कहता हूँ जो अमिताभ ने मुझसे कहा था कि आनंद तू अब आप अपना दीप बन। संजय ने ये सुन कर विचार किया फिर कहा कि मैं आप अपना दीप बनूँगा, सो दूसरे दिन जब वो भिक्षा पात्र ले के बस्ती की ओर चला तो प्रतिज्ञा की कि वो उस गली में नहीं जाएगा, पर जब वो बस्ती में दाख़िल हुआ तो उसने क्या देखा कि ये रास्ता उसी गली की ओर जा रहा है, जिस रस्ते पे चलता लगता कि वो रस्ता उसे उसी गली में उसी ड्योढ़ी पर लिए जा रहा है, वो ठिटक कर खड़ा हो गया, फैली हुई श्रावस्ती आज कितनी सिमट गई थी।

    उस नगर की एक-एक गली उसकी खूंदी हुई थी, हर गली की हर ड्योढ़ी से वो भिक्षा ले चुका था, मगर आज जिस गली, जिस ड्योढ़ी का उसने ध्यान किया लगा कि वहाँ वो हाथ में थाल लिए उसकी बाट देखती है, वो एक बार पूरे नगर को ध्यान में लाया। फिर उसने अचंभा किया कि कितनी गलियाँ हैं कि जाल के समान फैली हुई हैं और गली-गली कितनी ड्योढ़ियाँ हैं कि हर ड्योढ़ी में कोई न कोई नारी भिक्षा देने के लिए खड़ी है, गलियाँ, ड्योढ़ियाँ, नारियाँ, उसने सोचा कि ये सब माया का जाल है, फिर वो उन भले बंदरों को ध्यान में लाया जिन्होंने नारी की बात सुन के कानों में उंगलियाँ दे ली थीं और उस स्थान को छोड़ दिया था जहाँ उन्होंने ये बात सुनी थी, मुझे भी ये नगर छोड़ देना चाहिए और वो नगर से मुँह मोड़ के जंगल की ओर हो लिया।

    गलियाँ,ड्योढ़ियाँ, नारियाँ सब पीछे रह गई थीं, संजय अब घने जंगलों में चल रहा था, चलते-चलते उसने फूले हुए एक अशोक के पेड़ को देखा और रुक गया, उस पेड़ के नीचे उसने निर्जन बास किया। बसंत रुत थी, सरसों फूली हुई थी, गेंदा महक रहा था, अशोक की डालियाँ अपने ही बोझ से झुकी हुई थीं, संजय ये समाँ देख के बहुत प्रसन्न हुआ, अशोक को देर तक देखा किया, फिर वो अचंभे से मन ही मन में कहने लगा कि हे राम, किस कन्या ने इस अशोक को ठोकर मारी है कि वो इतना फूला है। बस इस विचार के साथ उसका ध्यान मेहंदी वाले उज्जल कोमल पैरों की ओर चला गया, क्या इस अशोक को उन मेहंदी वाले उज्जल कोमल पैरों ने ठोकर मारी है, वो सुंदरी बसंती साढ़ी में लिपटी उसके ध्यान में उभरी, थोड़ी देर तक वो उस ध्यान में ऐसे डूबा रहा कि किसी बात की सुद्ध-बुद्ध ही न रही। मगर फिर अचानक वो चौंका, ये तो मैं फिर मोह के फँदे में फँस रहा हूँ, वो तुरत वहाँ से उठ खड़ा हुआ, उस पेड़ तले बुराई की बात मेरे ध्यान में आई है, मुझे यहाँ से उठ जाना चाहिए।

    संजय ने फिर एक लंबी यात्रा की और जंगल-जंगल मारा फिरा, दिन गुज़रे, महीने बीते, रुतीं चढ़ीं और उतरीं, हर रात अपनी चहक-महक के साथ आई और बीत गई, हर रुत संजय को दुखी करके गई, कभी फूलती सरसों, कभी बौराते आम, कभी डोलता, भुनभुनाता भौंरा, कभी मँडलाती भंभेरी, कभी दुखिया कोयल की पुकार, कभी उदास दादर की झंकार, कभी चम्पा की महक, कभी बेले की बास, तो यूँ कहो कि हर रात आती और यादों की शांत नदी में हिलकोरे पैदा कर जाती। हर बहाने बीता पल लौट के आ जाता और वो सुंदर मूरत सामने आ खड़ी होती। संजय सोच में पड़ गया कि यहाँ भी सब रस्ते उसी द्वार की ओर जाते हैं। बहुत विचार के बाद उसने ये तत निकाला कि रुतें पंच-इंद्री से मिली हुई हैं और पंच-इंद्री दुख के पाँच दरवाज़े हैं, आदमी मोह में किस-किस राह से फँसता है कि कभी कोई कोमल पंखुड़ी छू के, कभी कोई रसीली बानी सुन के, फिर कभी कोई महक उसे ले उड़ती है, कभी रंग उसे ले डूबता है, सो बात यूँ है कि हर रुत दुख देती है, ये जान कर वो उदास हुआ और दुखी होके कहा कि नगर में गलियाँ हैं और जंगल में रुतें हैं, मैं मोह के जाल से कैसे निकलूँ।

    संजय उन्हीं विचारों में था कि पतझड़ आ गई, डोल-डोल सूखे पत्ते बिखरने लगे, हवा के हर झोंके के साथ अनगिनत पत्ते टहनियों से गिरते और जहाँ-तहाँ तितर-बितर हो जाते, अब ये रुत मुझसे क्या कहने आई है। संजय फिर सोच में पड़ गया। धीरे-धीरे फिर उसके अंदर कुन-मुन हुई। उसे फिर कुछ याद आने लगा था, पर अब के एक याद और ही तरह की आई। यही रुत थी और ऐसा ही जंगल था, तथागत ने बीच पतझड़ यहाँ आके बास किया था। इर्द-गिर्द पीले-पीले सूखे पत्ते बिखरे पड़े थे, हाथ बढ़ा के पत्तों से मुट्ठी भरी फिर आनंद को देखा, आनंद! क्या सब पत्ते मेरी मुट्ठी में आ गए हैं?

    आनंद झिजका फिर बोला, हे तथागत, ये रुत पतझड़ की है, पत्ते जंगल में इतने झड़े हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। तथागत ने कहा, आनंद! तूने सच कहा, पतझड़ के अनगिनत पत्तों में से में बस एक मुट्ठी उठा सका हूँ, यही गत सच्चाइयों की है, जितनी सच्चाइयाँ मेरी मुट्ठी में आईं, मैंने इनका प्रचार किया, पर सच्चाइयाँ अन-गिनत हैं, पतझड़ के पत्तों के समान।

    इस याद ने उस पर निराला जादू किया कि वो जहाँ का तहाँ खड़ा रह गया, फिर न एक क़दम आगे बढ़ा, न एक क़दम पीछे हटा, वहीं एक घने पीपल की छाँव में आसन मार के बैठ गया और गिरते ज़र्द सूखे पत्तों को तकने लगा। पतझड़ के अन-गिनत पत्ते, अन-गिनत सच्चाइयाँ, एक हैरानी के साथ वो गिरते पत्तों को देख रहा था, देखता रहा। धीरे-धीरे करके उसकी आँखें मुँदती चली गईं, जो बाहर है वही मेरे अंदर भी है। आसन मारे आँखें मूँदे बैठा रहा, बैठा रहा जाने कितने दिन, कितने जुग, जब उसने आँखें खोलीं तो जाना कि अन-गिनत रुतें बीत गई हैं और अब वो पतझड़ में है, उसकी गिर्द में ज़र्द सूखे पत्ते भरे थे, वो ज़र्द सूखे पत्तों में नहाया हुआ था और धूप में तप रहा था।

    उसने नज़रें उठा के ऊपर देखा, जिस पीपल को घना देख के वो उसकी छाँव में बैठा था उस पीपल का एक-एक पत्ता झड़ चुका था, फिर उसने इर्द-गिर्द नज़र डाली और दूर तक धरती को ज़र्द पत्तों से ढ़का पाया। दूर तक पेड़ लुंड-मुंड खड़े नज़र आ रहे थे। उसने अपने शांत मन में झाँका, मेरी कामनाएँ भी ज़र्द सूखे पत्तों के समान झड़ चुकी हैं, फिर उसने कहा कि बसंत रुत, बरखा रुत, जाड़े की रुत, सब रुतें आनी जानी हैं, फूल झड़ जाते हैं, बस उड़ जाती है, टहनियाँ सूख जाती हैं, पर पतझड़ अमर है। वो मुस्काया जैसे उसकी मुट्ठी भर गई हो, वो उठ खड़ा हुआ, अब वो शांत था, मन में कहा कि मेरी यात्रा सिद्ध हुई, अब मुझे वापस चलना चाहिए।

    संजय जंगल में ख़ाली पात्र ब्याकुल मन के साथ गया था, जंगल से भरी मुट्ठी और शांत हृदय के संग लौटा। जंगल से निकल आया था, अब वो भरी बस्ती में था। श्रावस्ती में इस समय कैसी चहक-महक थी, लगता था कि नगर नहीं फला-फूला बाग़ है, रंग और सौगंध की नदी उमंडी हुई थी, चहकते पंछी, महकती क्यारियाँ, सुंदर नारियाँ, रंग-रंग की उनकी साड़ियाँ, गलियों में आतियाँ-जातियाँ। उसने एक बैराग के साथ ये सब कुछ देखा, एक बार जी में आई कि बस्ती के बीच खड़ा हो के चेतावनी दे कि हे अज्ञानियो, हे श्रावस्ती के बासीयो! रंग रस में मत डूबो, फूल कुम्हला जाते हैं, बू-बास उड़ जाती है, रंग-रूप उतर जाता है, जोबन ढ़ल जाता है, सुंदरता की सब रुतें आनी जानी हैं, पतझड़ अमर रुत है, पर मन में तो बैराग रच गया था बोलने को अब जी कब चाहता था, गुम-सुम आँखें झुकाए श्रावस्ती की गलियों से गुज़रा। आँख उठा के ये भी न देखा कि किस गली में और किस द्वारे भिक्षा माँगते हो, क्यों देखें, मतलब तो भिक्षा से है, बैरागी को इससे क्या कि किस द्वार से मिला है और किन हाथों से मिला है।

    झुकी नज़रों से बस देने वाली के पैरों को देखा और हैरान रह गया, बिल्कुल वैसे ही गोरे मेहंदी लगे पैर, क्या ये वो है, चौंक के नज़र उठाई, क्या देखा कि वही खड़ी है, बिल्कुल उसी बर में बसंती साढ़ी, माथे पे लाल बिंदी, हाथ में भोजन से भरी थाल, उठी नज़रें उठी रह गईं, क़दम जहाँ थे वहीं जम गए। न कोई क़दम पीछे न कोई क़दम आगे, एक पल में जुग बीत गए, लगा कि जन्म-जन्म से वो इस ड्योढ़ी पे उसी गत से खड़ी है और जन्म-जन्म से वो उसी तरह ठिटका हुआ उसे तक रहा है।

    मन इसका फिर ब्याकुल था और आत्मा फिर दुखी थी, रुत फिर बदलने लगी थी, लुंड-मुंड पेड़ों में कोंपलें फूट रही थीं। उसने एक वस्वसे के साथ अपने अंदर झाँका, क्या मेरे भीतर फिर कोई कोंपल फूट पड़ी है और उसने अचंभे के साथ सोचा कि अपने दीप के उजाले में चलते-चलते मैं कहाँ आ गया हूँ और ये कैसे पत्ते हैं कि मेरी मुट्ठी में आ गए हैं।

     

    स्रोत:

    (Pg. 209)

      • प्रकाशक: एजुकेशनल बुक हाउस, अलीगढ़

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