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पीरन

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    बृजमोहन एक लड़की पीरन से राह-ओ-रस्म रखता था और उसको मनहूस भी समझता था, क्योंकि जब तक उससे सम्बंध रहते थे वो बे-रोज़गार रहता था। उससे सम्बंध ख़त्म होते ही फिर कोई काम मिल जाता था। बृजमोहन की इच्छा थी कि कभी ऐसा हो कि पीरन से मिलने के बाद उसे नौकरी से निकाल न दिया जाये बल्कि वो ख़ुद अपना इस्तिफ़ा पेश कर दे। लेकिन हुआ ये कि पेरिन से मुलाक़ात के अगले दिन जब उसने सेठ को इस्तिफ़ा पेश किया तो उसने इस्तिफ़ा नामंज़ूर करने के साथ ही तनख़्वाह में सौ रुपये का इज़ाफ़ा भी कर दिया।

    ये उस ज़माने की बात है जब मैं बेहद मुफ़लिस था। बम्बई में नौ रुपये माहवार की एक खोली में रहता था जिसमें पानी का नल था बिजली। एक निहायत ही ग़लीज़ कोठड़ी थी जिसकी छत पर से हज़ारहा खटमल मेरे ऊपर गिरा करते थे। चूहों की भी काफ़ी बोहतात थी... इतने बड़े चूहे मैंने फिर कभी नहीं देखे, बिल्लियां उनसे डरती थीं।

    चाली या’नी बिल्डिंग में सिर्फ़ एक गुस्लख़ाना था जिसके दरवाज़े की कुंडी टूटी हुई थी। सुब्ह-सवेरे चाली की औरतें पानी भरने के लिए उस ग़ुस्लख़ाने में जमा होती थीं। यहूदी, मरहटी, गुजराती, क्रिस्चियन... भांत भांत की औरतें।

    मेरा ये मा’मूल था कि उन औरतों के इजतमाअ से बहुत पहले ग़ुस्लख़ाने में जाता, दरवाज़ा भेड़ता और नहाना शुरू करदेता। एक रोज़ मैं देर से उठा। ग़ुस्लख़ाने में पहुंच कर नहाना शुरू किया तो थोड़ी देर के बाद खट से दरवाज़ा खुला। मेरी पड़ोसन थी, बग़ल में गागर दबाये उसने मालूम नहीं क्यों एक लहज़े के लिए मुझे ग़ौर से देखा, फिर एक दम पलटी। गागर उसकी बग़ल से फिसली और फ़र्श पर लुढ़कने लगी। ऐसी भागी जैसे कोई शेर उसका तआ’क़ुब कर रहा है। मैं बहुत हँसा, उठ कर दरवाज़ा बंद किया और नहाना शुरू कर दिया।

    थोड़ी देर के बाद फिर दरवाज़ा खुला, ब्रिज मोहन था। मैं नहा के फ़ारिग़ हो चुका था और कपड़े पहन रहा था। उसने मुझसे कहा, “भई मंटो. आज इतवार है।”

    मुझे याद गया कि ब्रिज मोहन को बांद्रा जाना था, अपनी दोस्त पीरन से मिलने के लिए। वो हर इतवार को उससे मिलने जाता था। वो एक मामूली सी शक्ल-ओ-सूरत की पारसी लड़की थी जिससे ब्रिज मोहन का मआ’शिक़ा क़रीबन तीन बरस से चल रहा था।

    हर इतवार को ब्रिज मोहन मुझसे आठ आने ट्रेन के किराए के लिए लेता। पीरन के घर पहुंचता। दोनों आधे घंटे तक आपस में बातें करते। ब्रिज मोहन इलस्ट्रेटेड वीकली के क्रास वर्ड पज़ल के हल उसको देता और चला आता। वो बेकार था, सारा दिन सर न्यौढ़ाये ये पज़ल अपनी दोस्त पीरन के लिए हल करता रहता था। उसको छोटे छोटे कई इनाम मिल चुके थे मगर वो सब पीरन ने वसूल किए थे। ब्रिज मोहन ने उनमें से एक दमड़ी भी उससे मांगी थी।

    ब्रिज मोहन के पास पीरन की बेशुमार तस्वीरें थीं। शलवार-क़मीज़ में, चुस्त पाजामे में, साड़ी में, फ़राक़ में, बेदिंग कॉस्टयूम में, फैंसी ड्रेस में... ग़ालिबन सौ से ऊपर होंगी। पीरन क़तअ’न ख़ूबसूरत नहीं थी बल्कि मैं तो ये कहूंगा कि बहुत ही अदना शक्ल-ओ-सूरत की थी लेकिन मैंने अपनी इस राय का इज़हार ब्रिज मोहन से कभी नहीं किया था।

    मैंने पीरन के मुतअ’ल्लिक़ कभी कुछ पूछा ही नहीं था कि वो कौन है, क्या करती है, ब्रिज मोहन से उसकी मुलाक़ात कैसे हुई, इश्क़ की इब्तदा क्यों कर हुई। क्या वो उससे शादी करने का इरादा रखता है? ब्रिज मोहन ने भी उसके बारे में मुझसे कभी बातचीत की थी। बस हर इतवार को वो नाशते के बाद मुझसे आठ आने किराए के लेता और उससे मिलने के लिए बांद्रा रवाना हो जाता और दोपहर तक लौट आता।

    मैंने खोली में जा कर उसको आठ आने दिए, वो चला गया। दोपहर को लौटा तो उसने खिलाफ़-ए-मा’मूल मुझसे कहा, “आज मुआ’मला ख़त्म हो गया।”

    मैंने उससे पूछा, “कौनसा मुआ’मला?” मुझे मालूम नहीं था कि वो किस मुआ’मले की बात कर रहा है।

    ब्रिज मोहन ने सोचा जैसे उसके सीने का बोझ हल्का हो गया है। मुझसे कहा, “पीरन से आज दो टूक फ़ैसला हो गया है...” मैंने उससे कहा, “जब भी तुमसे मिलना शुरू करता हूँ, मुझे कोई काम नहीं मिलता। तुम बहुत मनहूस हो।” उसने कहा, “बेहतर है, मिलना छोड़ दो। देखूंगी तुम्हें कैसे काम मिलता है? मैं मनहूस हूँ, मगर तुम अव्वल दर्जे के निखट्टू् और काम चोर हो.... सो अब ये क़िस्सा ख़त्म हो गया है और मेरा ख़याल है, इंशाअल्लाह कल ही मुझे काम मिल जाएगा। सुबह तुम मुझे चार आने देना। मैं सेठ नानूभाई से मिलूँगा, वो मुझे ज़रूर अपना असिस्टेंट रख लेगा।”

    ये सेठ नानूभाई जो फ़िल्म डायरेक्टर था मुतअद्दिद मर्तबा ब्रिज मोहन को मुलाज़मत देने से इनकार कर चुका था क्योंकि उसका भी पीरन की तरह यही ख़याल था कि वो काम चोर और निकम्मा है, लेकिन दूसरे रोज़ जब ब्रिज मोहन मुझसे चार आने लेकर गया तो दोपहर को उसने मुझे ये ख़ुशख़बरी सुनाई कि सेठ नानूभाई ने बहुत ख़ुश हो कर उसे ढाई सौ रुपये माहवार पर मुलाज़िम रख लिया है। कंट्रैक्ट एक बरस का है जिस पर दस्तख़त हो चुके हैं।

    फिर उसने जेब में हाथ डाल कर सौ रुपये निकाले और मुझे दिखाए, “ये एडवांस है। जी तो मेरा चाहता है कंट्रैक्ट और सौ रुपये लेकर बांद्रा जाऊं और पीरन से कहूं कि लो देखो, मुझे काम मिल गया है, लेकिन डर है कि नानूभाई मुझे फ़ौरन जवाब दे देगा। मेरे साथ एक नहीं कई मर्तबा ऐसा हो चुका है। इधर मुलाज़मत मिली, उधर पीरन से मुलाक़ात हुई, मुआ’मला साफ़। किसी किसी बहाने मुझे निकाल बाहर किया गया। ख़ुदा मालूम उस लड़की में ये नहूसत कहाँ से गई। अब मैं कम अज़ कम एक बरस तक उसका मुँह नहीं देखूंगा। मेरे पास कपड़े बहुत कम रह गए हैं। एक बरस लगा कर कुछ बनवा लूं तो फिर देखा जाएगा।”

    छः महीने गुज़र गए। ब्रिज मोहन बराबर काम पर जा रहा था। उसने कई नए कपड़े बनवा लिए थे। एक दर्जन रूमाल भी ख़रीद लिए थे। अब वो तमाम चीज़ें उसके पास थीं जो एक कुंवारे आदमी के आराम-ओ-आसाइश के लिए ज़रूरी होती हैं। एक रोज़ वो स्टूडियो गया हुआ था कि उसके नाम एक ख़त आया। शाम को जब वो लौटा तो मैं उसे ये ख़त देना भूल गया। सुबह नाशते पर मुझे याद आया तो मैंने ये ख़त उसके हवाले कर दिया। लिफ़ाफ़ा पकड़ते ही वो ज़ोर से चीख़ा, “ला’नत!”

    मैंने पूछा, “क्या हुआ?

    “वही पीरन… अच्छी भली ज़िंदगी गुज़र रही थी।” ये कह कर उसने चम्मच से लिफ़ाफ़ा खोल कर ख़त का काग़ज़ निकाला और मुझसे कहा, “वही कमबख़्त है, मैं कभी उसका हैंड राइटिंग भूल सकता हूँ।”

    मैंने पूछा, “क्या लिखती है?”

    “मेरा सर, कहती है मुझसे इस इतवार को ज़रूर मिलो, तुमसे कुछ कहना है।”

    ये कह कर ब्रिज मोहन ने ख़त लिफाफे में डाला और जेब में रख लिया, “लो भई मंटो, नौकरी से इंशाअल्लाह कल ही जवाब मिल जाएगा।”

    “क्या बकवास करते हो।”

    मोहन ने बड़े वसूक़ से कहा, “नहीं मंटो, तुम देख लेना। कल इतवार है, परसों नानू भाई को ज़रूर मुझसे कोई कोई शिकायत पैदा होगी और वो मुझे फ़ौरन निकाल बाहर करेगा।”

    मैंने उस से कहा, “अगर तुम्हें इतना वसूक़ है तो मत जाओ उससे मिलने।”

    “ये नहीं हो सकता, वो बुलाए तो मुझे जाना ही पड़ता है।”

    “क्यों?”

    “मुलाज़मत करते करते कुछ मैं भी उकता चुका हूँ... छः महीने से ऊपर हो गए हैं।” ये कह कर वो मुस्कुराया और चला गया।

    दूसरे रोज़ नाशता करके वो बांद्रा चला गया। पीरन से मुलाक़ात करके लौटा तो उसने इस मुलाक़ात के बारे में कोई बात की। मैंने उससे पूछा, “मिल आए अपने मनहूस सितारे से?”

    “हाँ भई, उससे कह दिया कि मुलाज़मत से बहुत जल्द जवाब मिल जाएगा।”

    ये कह कर वो खाट पर से उठा, “चलो आओ, खाना खाएँ।”

    हम दोनों ने हाजी के होटल में खाना खाया। इस दौरान में पीरन की कोई बात हुई। रात को सोने से पहले उसने सिर्फ़ इतना कहा, “अब देखिए कल क्या गुल खिलता है।”

    मेरा ख़याल था कि कुछ भी नहीं होगा। मगर दूसरे रोज़ ब्रिज मोहन खिलाफ़-ए-मा’मूल स्टूडियो से जल्दी लौट आया, मुझसे मिला तो ख़ूब ज़ोर से हँसा, “जवाब मिल गया भाई।”

    मैंने समझा मज़ाक़ कर रहा है, “हटाओ जी।”

    “जो हटना था वो तो हट गया... अब मैं कैसे हटाऊं? सेठ नानूभाई पर टांच आगई है,. स्टूडियो सील हो गया है। मेरी वजह से ख़्वाहमख़्वाह बेचारे नानूभाई पर भी आफ़त आई।” ये कह कर ब्रिज मोहन फिर हँसने लगा।

    मैंने सिर्फ़ इतना कहा, “ये अ’जीब सिलसिला है!”

    “देख लो, इसे कहते हैं हाथ कंगन को आरसी क्या।” ब्रिज मोहन ने सिगरेट सुलगाया और कैमरा उठा कर बाहर घूमने चला गया।

    ब्रिज मोहन अब बेकार था। जब उसकी जमा पूंजी ख़त्म हो गई तो उसने हर इतवार को फिर मुझसे बांद्रा जाने के लिए आठ आने मांगने शुरू कर दिए। मुझे अभी तक मालूम नहीं आध पौन घंटे में वो पीरन से क्या बातें करता था। वैसे वो बहुत अच्छी गुफ़्तगु करने वाला था। मगर उस लड़की से जिस की नहूसत का उसको मुकम्मल तौर पर यक़ीन था वो किस क़िस्म की बातें करता था। मैंने एक रोज़ उससे पूछा, “ब्रिज, क्या पीरन को भी तुमसे मुहब्बत है?”

    “नहीं, वो किसी और से मुहब्बत करती है।”

    “तुम से क्यों मिलती है?”

    “इसलिए कि मैं ज़हीन हूँ, उसके भद्दे चेहरे को ख़ूबसूरत बना कर पेश कर सकता हूँ। इसके लिए क्रास वर्ड पज़ल हल करता हूँ। कभी कभी उसको इनाम भी दिलवा देता हूँ... मंटो, तुम नहीं जानते इन लड़कियों को। मैं ख़ूब पहचानता हूँ इन्हें, जिससे वो मुहब्बत करती है, उसमें जो कमी है, मुझसे मिल कर पूरी कर लेती है।” ये कह कर वो मुस्कुराया, “बड़ी चार सौ बीस है!”

    मैंने क़द्र-ए-हैरत से पूछा, “मगर तुम क्यों उससे मिलते हो?”

    ब्रिज मोहन हँसा, चश्मे के पीछे अपनी आँखें सिकोड़ कर उसने कहा, “मुझे मज़ा आता है।”

    “किस बात का?”

    “उस नहूसत का, मैं उसका इम्तहान ले रहा हूँ। उसकी नहूसत का इम्तहान, ये नहूसत अपने इम्तहान में पूरी उतरी है। मैंने जब भी उससे मिलना शुरू किया, मुझे अपने काम से जवाब मिला... अब मेरी एक ख़्वाहिश है कि उसके मनहूस असर को चकमा दे जाऊं।”

    मैंने उससे पूछा, “क्या मतलब?”

    ब्रिज मोहन ने बड़ी संजीदगी से कहा, “मेरा ये जी चाहता है कि मुलाज़मत से जवाब मिलने से पहले मुलाज़मत से अ’लाहिदा हो जाऊं, या’नी ख़ुद अपने आक़ा को जवाब दे दूं। उससे बाद में कहूं, जनाब मुझे मालूम था कि आप मुझे बरतरफ़ करने वाले हैं, इसलिए मैंने आपको ज़हमत दी और ख़ुद अ’लाहिदा हो गया और आप मुझे बरतरफ़ नहीं कर रहे थे, ये मेरी दोस्त पीरन थी जिसकी नाक कैमरे में इस तरह घुसती है जैसे तीर!”

    ब्रिज मोहन मुस्कुराया, “ये मेरी एक छोटी सी ख़्वाहिश है, देखो पूरी होती है या नहीं।”

    मैंने कहा, “अ’जीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश है।”

    “मेरी हर चीज़ अ’जीब-ओ-ग़रीब होती है, पिछले इतवार मैंने पीरन के उस दोस्त के लिए जिससे वो मुहब्बत करती है, एक फ़ोटो तैयार करके दिया। उल्लू की दुम उसे कम्पटीशन में भेजेगा, यक़ीनी तौर पर इनाम मिलेगा उसे।” ये कह कर वो मुस्कुराया।

    ब्रिज मोहन वाक़ई अ’जीब-ओ-ग़रीब आदमी था। वो पीरन के दोस्त को कई बार फ़ोटो तैयार करके दे चुका है। इलस्ट्रेटेड वीकली में ये फ़ोटो उसके नाम से छपते थे और पीरन बहुत ख़ुश होती थी। ब्रिज मोहन उनको देखता था तो मुस्कुरा देता था। वो पीरन के दोस्त की शक्ल-सूरत से नाआशना था, पीरन ने ब्रिज मोहन से उसकी मुलाक़ात तक कराई थी। सिर्फ़ इतना बताया था कि वो किसी मिल में काम करता है और बहुत ख़ूबसूरत है।

    एक इतवार को ब्रिज बांद्रा से वापस आया तो उसने मुझ से कहा, “लो भई मंटो, आज मुआ’मला ख़त्म हो गया।”

    मैंने उससे पूछा, “पीरन वाला?”

    “हाँ भई, कपड़े ख़त्म हो रहे थे, मैंने सोचा कि ये सिलसिला ख़त्म करो। अब इंशाअल्लाह दिनों ही में कोई कोई मुलाज़मत मिल जाएगी... मेरा ख़यालहै सेठ नियाज़ अली से मिलूं। उसने एक फ़िल्म बनाने का ऐ’लान किया है, कल ही जाऊंगा। तुम यार ज़रा उसके दफ़्तर का पता लगा लेना।”

    मैंने उसके दफ़्तर का नया फ़ोन एक दोस्त से पूछ कर ब्रिज मोहन को बता दिया। वो दूसरे रोज़ वहां गया, शाम को लौटा। उसके मुतमइन चेहरे पर मुस्कुराहट थी, “लो भई मंटो।” ये कह कर उसने जेब से टाइपशुदा काग़ज़ निकाला और मेरी तरफ़ फेंक दिया। एक पिक्चर का कंट्रैक्ट, तनख़्वाह दो सौ रुपये माहवार। कम है, लेकिन सेठ नियाज़ अली ने कहा है, बढ़ा दूंगा... ठीक है!”

    मैं हंसा, “अब पीरन से कब मिलोगे?”

    ब्रिज मोहन मुस्कुराया, “कब मिलूँगा? मैं भी यही सोच रहा था कि मुझे उससे कब मिलना चाहिए? मंटो यार, मैंने तुमसे कहा था कि एक मेरी छोटी सी ख़्वाहिश है, बस वो पूरी हो जाये... मेरा ख़याल है मुझे इतनी जल्दी नहीं करनी चाहिए। ज़रा मेरे तीन चार जोड़े बन जाएं, पचास रुपये एडवांस लेकर आया हूँ पच्चीस तुम रख लो।”

    पच्चीस मैंने लिये। होटल वाले का क़र्ज़ था जो फ़ौरन चुका दिया गया। हमारे दिन बड़ी ख़ुशहाली में गुज़रने लगे। सौ रुपया माहवार मैं कमा लेता था, दो सौ रुपये माहाना ब्रिज मोहन ले आता था। बड़े ऐश थे। पाँच महीने गुज़र गए कि अचानक एक रोज़ पीरन का ख़त ब्रिज मोहन को वसूल हुआ, “लो भई मंटो, इज़राईल साहिब तशरीफ़ ले आए।”

    सही बात है कि मैंने उस वक़्त ख़त देख कर ख़ौफ़ सा महसूस किया मगर ब्रिज मोहन ने मुस्कुराते हुए लिफ़ाफ़ा चाक किया। ख़त का काग़ज़ निकाल कर पढ़ा, बिल्कुल मुख़्तसर तहरीर थी।

    मैंने ब्रिज से पूछा, “क्या फ़रमाती हैं?”

    “फ़रमाती हैं, इतवार को मुझ से ज़रूर मिलो। एक अशद ज़रूरी काम है।” ब्रिज मोहन ने ख़त लिफ़ाफे में वापस डाल कर अपनी जेब में रख लिया।

    मैंने उससे पूछा, “जाओगे?”

    “जाना ही पड़ेगा…” फिर उसने ये फ़िल्मी गीत गाना शुरू कर दिया।

    “मत भूल मुसाफ़िर तुझे जाना ही पड़ेगा!”

    मैंने उससे कहा, “ब्रिज मत जाओ उससे मिलने... बड़े अच्छे दिन गुज़र रहे हैं हमारे, तुम नहीं जानते, मैं ख़ुदा मालूम किस तरह तुम्हें आठ आने दिया करता था।”

    ब्रिज मोहन मुस्कुराया, “मुझे सब मालूम है, लेकिन अफ़सोस है कि अब वो दिन फिर आने वाले हैं। जब तुम ख़ुदा मालूम किस तरह मुझे हर इतवार आठ आने दिया करोगे!”

    इतवार को ब्रिज, पीरन से मिलने बांद्रा गया। वापस आया तो उसने मुझ से सिर्फ़ इतना कहा, “मैंने उससे कहा, ये बारहवीं मर्तबा है मुझे तुम्हारी नहूसत की वजह से बरतरफ़ होना पड़ेगा... तुम पर रहमत हो ज़रतुश्त की!”

    मैंने पूछा, “उसने ये सुन कर कुछ कहा।”

    ब्रिज ने जवाब दिया, “फ़क़त ये... तुम सिली इडियट हो!”

    “तुम हो?”

    “सौ फ़ीसदी!” ये कह कर ब्रिज हंसा, “अब मैं कल सुबह दफ़्तर जाते ही इस्तफ़ा पेश कर देने वाला हूँ। मैंने वहीं पीरन के हाँ लिख लिया था।”

    ब्रिज मोहन ने मुझे इस्तीफ़े का काग़ज़ दिखाया। दूसरे रोज़ खिलाफ़-ए-मा’मूल उसने जल्दी जल्दी नाशता किया और दफ़्तर रवाना हो गया। शाम को लौटा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। उसने मुझ से कोई बात की। मुझे ही बिल-आख़िर उससे पूछना पड़ा, “क्यों ब्रिज, क्या हुआ?”

    उसने बड़ी उम्मीदी से सर हिलाया, “कुछ नहीं, सारा क़िस्सा ही ख़त्म हो गया।”

    “क्या मतलब?”

    “मैंने सेठ नियाज़ अली को अपना इस्तफ़ा पेश किया तो उसने मुस्कुरा कर मुझे एक आफिशियल ख़त दिया। उसमें ये लिखा था कि मेरी तनख़्वाह पिछले महीने से दो सौ के बजाय तीन सौ रुपये माहवार कर दी गई है?”

    पीरन से ब्रिज मोहन की दिलचस्पी ख़त्म हो गई। उसने मुझसे एक रोज़ कहा, “पीरन की नहूसत ख़त्म होने के साथ ही वो भी ख़त्म हो गई और मेरा एक निहायत दिलचस्प मशग़ला भी ख़त्म हो गया। अब कौन मुझे बेकार रखने का मूजिब होगा!”

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    अज्ञात

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    ٹھنڈا گوشت

      • प्रकाशन वर्ष: 1950

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