स्टोरीलाइन
शहर के साथ ही गाँवों में हावी साहूकारी व्यवस्था और किसानों के दर्द को उकेरती कहानी है ‘सवा सेर गेहूँ’। प्रेमचंद ने इस कहानी में साहूकारी व्यवस्था के बोझ तले लगातार दबाए जा रहे और पीड़ित किए जा रहे किसानों के दर्द को उकेरा और सवाल उठाया कि आख़िर कब तक किसान साहूकारों द्वारा कुचला जाता रहेगा।
किसी गाँव में शंकर नामी एक किसान रहता था। सीधा-सादा ग़रीब आदमी था। अपने काम से काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में, छक्का-पंजा न जानता था। छल-कपट की उसे छूत भी न लगी थी। ठगे जाने की फ़िक्र न थी। विद्या न जानता था। खाना मिला तो खा लिया न मिला तो चरबन पर क़नाअत की। चरबन भी न मिला तो पानी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। मगर जब कोई मेहमान दरवाज़े पर आ जाता तो उसे ये इस्तिग़्ना का रास्ता तर्क कर देना पड़ता था। ख़ुसूसन जब कोई साधू महात्मा आ जाते थे तो उसे लाज़िमन दुनियावी बातों का सहारा लेना पड़ता। ख़ुद भूका सो सकता था मगर साधू को कैसे भूका सुलाता। भगवान के भगत जो ठहरे।
एक रोज़ शाम को एक महात्मा ने आकर उसके दरवाज़े पर डेरा जमा दिया। चेहरे पर जलाल था। पीताम्बर गले में, जटा सर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, ग़रज़ कि पूरा भेस उन महात्मा का सा था जो रऊसा के महलों में रियाज़त, हवा-गाड़ियों पर मंदिरों का तवाफ़ और योग (मुराक़िबा) में कमाल हासिल करने के लिए लज़ीज़ ग़िज़ाएँ खाते हैं! घर में जौ का आटा था, वो उन्हें कैसे खिलाता? ज़माना-ए-क़दीम में जौ की ख़्वाह कुछ अहमियत रही हो, मगर ज़माना-ए-हाल में जौ की ख़ूरिश महात्मा लोगों के लिए सक़ील और देर-हज़्म हुई है, बड़ी फ़िक्र हुई कि महात्मा जी को क्या खिलाऊँ?
आख़िर तय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ। गाँव भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव भर में सब आदमी ही आदमी थे, देवता एक भी न था, देवताओं को ख़ूरिश कैसे मिलती? ख़ुश-क़िस्मती से गाँव के पुरोहित जी के यहाँ थोड़े से गेहूँ मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिए और बीवी से कहा कि पीस दे। महात्मा ने खाया। लंबी तान कर सोए और सुबह आशीर्वाद दे कर अपना रास्ता लिया।
पुरोहित जी साल में दो बार खलियानी लिया करते थे। शंकर ने दिल में कहा कि सवा सेर गेहूँ क्या लौटाऊँ। पंसेरी के बदले कुछ ज़्यादा खलियानी दे दूँगा। वो भी समझ जाएँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब वो पुरोहित जी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के क़रीब गेहूँ दे दिए और अपने को सुबुक-दोश समझ कर इसका कोई तज़किरा न किया। पुरोहित जी ने भी फिर कभी न माँगा। सीधे-साधे शंकर को क्या मालूम कि ये सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दुबारा जन्म लेना पड़ेगा?
सात साल गुज़र गए। पुरोहित जी ब्राम्हण से महाजन हुए। शंकर किसान से मज़दूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उस से अलग हो गया था। एक साथ रह कर दोनों किसान थे, अलग हो कर दोनों मज़दूर हो गए थे। शंकर ने बहुत चाहा कि निफ़ाक़ की आग भड़कने न पावे। मगर हालत ने उसको मजबूर कर दिया। जिस वक़्त अलग चूल्हे जले वो फूट-फूट कर रोया। आज से भाई-भाई दुश्मन हो जाएँगे। एक रोऐ तो दूसरा हँसेगा, एक के घर में ग़मी होगी तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे। मुहब्बत का रिश्ता, दूध का रिश्ता आज टूटा जाता है।
उसने सख़्त मेहनत कर के ख़ानदानी इज़्ज़त का ये दरख़्त लगाया था। उसे अपने ख़ून से सींचा था, उसका जड़ से उखड़ना देख कर उसके दिल के टुकड़े हुए जाते थे। सात रोज़ तक उसने दाने की सूरत भी न देखी। दिन भर जेठ की धूप में काम करता और रात में लपेट कर सो रहता। इस सख़्त रंज और ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त तकलीफ़ ने ख़ून को जला दिया, गोश्त और चर्बी को घुला दिया। बीमार पड़ा तो महीनों चारपाई से न उठा। अब गुज़र-बसर कैसे हो? पाँच बीघे के आधे खेत रह गए, एक बैल रह गया। खेती क्या ख़ाक होती। आख़िर यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती सिर्फ़ नाम भर को रह गई। मआश का सारा भार मज़दूरी पर आ पड़ा।
सात साल गुज़र गए। एक दिन शंकर मज़दूरी कर के लौटा तो रास्ते में पुरोहित जी ने टोक कर कहा, “शंकर कल आके अपने बीज बैंक का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढे़ पाँच मन गेहूँ कब से बाक़ी पड़े हैं और तू देने का नाम नहीं लेता। क्या हज़्म करने का इरादा है?”
शंकर ने तअ'ज्जुब से कहा, “मैंने तुम से कब गेहूँ लिए थे कि साढे़ पाँच मन हो गए? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ न किसी छटाँक भर अनाज है, न एक पैसा उधार।”
पुरोहित, ”इसी निय्यत का तो ये फल भोग रहे हो, खाने को नहीं जुड़ता।”
ये कह पुरोहित जी ने उसका सवा सेर गेहूँ का ज़िक्र किया जो आज से सात साल क़ब्ल शंकर को दिए थे। शंकर सुन कर साकित रह गया। मैंने कितनी बार उन्हें खलियानी दी। उन्होंने मेरा कौन सा काम किया। जब पोथी पत्रा देखने, साअत-शगुन बिचारने द्वार पर आते थे तो कुछ न कुछ दछिना ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ! सवा सेर अनाज को लेकर अंडे की तरह ये भूत खड़ा कर दिया। जो मुझे निगल ही जाएगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो गेहूँ दे ही देता। क्या इसी निय्यत से चुप बैठे रहे। बोला, “महाराज नाम लेकर तो मैंने इतना अनाज नहीं दिया, मगर कई बार खलियानी में सेर-सेर, दो-दो सेर दे दिया है। अब आप आज साढे़ पाँच मन माँगते हो, मैं कहाँ से दूँगा?”
पुरोहित, “लेखा जौ जौ, बक्सीस सौ सौ। तुम ने जो कुछ दिया होगा, खलियानी में दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं। चाहे एक की जगह चार पंसेरी दे, तुम्हारे नाम ही में साढे़ पाँच मन लिखा हुआ। जिस से चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम झीक (काट) दूँ, नहीं तो और बढ़ता रहेगा।”
शंकर, “पांडे, क्यों एक ग़रीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किस के घर से दूँगा।”
पुरोहित, “जिसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक भर भी न छोड़ूँगा। यहाँ न दोगे, भगवान के घर तो दोगे।
शंकर काँप उठा। हम पढ़े लिखे लोग होते तो कह देते, “अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे। वहाँ की तूल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम से कम इसका कोई सबूत हमारे पास नहीं। फिर उसकी क्या फ़िक्र?” मगर शंकर इतना अक़्लमंद, इतना चालाक न था। एक तो क़र्ज़, वो भी ब्रह्मण का! बही में नाम रहेगा तो सीधे नरक में जाऊँगा। इस ख़याल से ही उसके रोंगटे खड़े हो गए। बोला, “महाराज तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा। ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ? इस जन्म में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जन्म के लिए क्यों काँटे बोऊँ? मगर ये कोई न्याय नहीं है। तुम ने राई का पर्वत बना दिया। ब्राम्हण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तक़ाज़ा कर के लिया होता तो आज मेरे ऊपर बड़ा बोझ क्यों पड़ता? मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा?”
पुरोहित, “वहाँ का डर तुम्हें होगा। मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई बंद हैं। ऋषि मुनी सब तो ब्राम्हण ही हैं। कुछ बने बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो?”
शंकर, “मेरे पास धरा तो है नहीं, किसी से माँग-जाँच कर लाऊँगा तभी दूँगा।”
पुरोहित, “मैं ये न मानूँगा। सात साल हो गए। अब एक का भी मुलाहिज़ा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते तो दस्तावेज़ लिख दो।”
शंकर, “मुझे तो देना है। चाहे गेहूँ ले लो। चाहे दस्तावेज़ लिखवाओ। किस हिसाब से दाम रखोगे?”
पुरोहित, “जब दे ही रहे हो तो बाज़ार भाव काटूँगा। पाव भर छुड़ा कर क्यों बुरा बनूँ।”
हिसाब लगाया गया तो गेहूँ की क़ीमत साठ रुपया बनी। साठ का दस्तावेज़ लिखा गया। तीन रुपये सैकड़ा सूद। साल भर में न देने पर सूद की शरह साढ़े तीन रुपये सैकड़ा। आठ आने का स्टैंप, एक रुपया दस्तावेज़ की तहरीर शंकर को अलाहिदा देनी पड़ी।
सारे गाँव ने पुरोहित जी की मज़म्मत की, मगर सामने नहीं। महाजन से सभी को काम पड़ता है। उसके मुँह कौन लगे?
शंकर ने साल भर तक सख़्त रियाज़त की मीयाद से क़ब्ल उसने रुपया अदा करने का बरत सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, सिर्फ़ चरबन पर बसर होती थी। अब वो भी बंद हुआ। सिर्फ़ लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं। एक पैसे की तंबाकू रोज़ पी जाता था। यही एक लत थी जिसे वो कभी न छोड़ सका था। अब वो भी इस कठिन बरत के भेंट हो गई। उसने चिलम पटक दी, हुक़्क़ा तोड़ दिया और तंबाकू की हाँडी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी तर्क की इंतिहाई हद तक पहुँच चुके थे। अब वो बारीक-तरीन क़ुदरती कपड़ों में मुंसलिक हो गए। माघ की हड्डियों तक में सरायत कर जाने वाली सर्दी को उसने आग के सहारे काट दिया।
इस अटल इरादे का नतीजा उम्मीद से बढ़ कर निकला। साल के आख़िर तक उसके पास साठ रुपया जमा हो गए। उसने समझा कि पण्डित जी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा, महाराज बाक़ी रुपये भी जल्दी आप के सामने हाज़िर कर दूँगा। पंद्रह की तो और बात है। क्या पण्डित जी इतना भी न मानेंगे। उसने रुपये लिए और ले जा कर पण्डित जी के क़दमों पर रख दिए।
पण्डित जी ने मुतअ'ज्जिब हो कर पूछा, “किसी से उधार लिया क्या?”
शंकर, “नहीं महाराज! आप की असीस से अब की मजूरी अच्छी मिली।”
पण्डित जी, “लेकिन ये तो साठ ही हैं।”
शंकर, “हाँ महाराज! इतने अभी ले लीजिए। बाक़ी दो तीन महीने में दे दूँगा। मुझे उऋण कर दीजिए।”
पण्डित जी, “उऋण तो जभी होंगे, जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे? जाकर मेरे पंद्रह और लाओ।”
शंकर, “महाराज! इतनी दया करो। अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। गाँव में हूँ तो कभी न कभी दे ही दूँगा।”
पण्डित, “मैं ये रोग नहीं पालता। न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से साढ़े तीन रुपये सैकड़ा का ब्याज चलेगा। इतने रुपये चाहे अपने घर में रखो चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ।”
शंकर, “अच्छा, जितना लाया हूँ, उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से पंद्रह और लाने की फ़िक्र करता हूँ।”
शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिए। इसलिए नहीं कि उसका एतिबार न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्कि पण्डित जी के शिकार को छेड़ने की किसी में हिम्मत न थी।
अमल के बाद रद्द-ए-अमल का क़ुदरती क़ायदा है। शंकर साल भर तक तपस्या करने पर भी जब क़र्ज़ बे-बाक़ करने में कामयाब न हुआ तो उसकी एहतियात मायूसी की शक्ल में तबदील हो गई। उसने समझ लिया कि जब इतनी तकलीफ़ उठाने पर साल भर में साठ रुपये से ज़्यादा न जमा कर सका तो अब कौन सा उपाय है, जिस से उसके दूने रुपये जमा हों।
जब सर पर क़र्ज़ का बोझ ही लदना है तो क्या मन भर और क्या सवा मन का। उसकी हिम्मत पस्त हो गई। मेहनत से नफ़रत हो गई। उम्मीद ही हौसला की पैदा करने वाली है। उम्मीद में रौनक़ है, ताक़त है, ज़िंदगी है, उम्मीद ही दुनिया की मुतहर्रिक करने वाली क़ुव्वत है।
शंकर मायूस हो कर बे-परवा हो गया। वो ज़रूरतें जिनको उसने साल भर तक टाल रखा था। अब दरवाज़े पर खड़ी होने वाली भिकारनें न थीं, बल्कि सर पर सवार होने वाली चुड़ैलें थीं, जो अपना चढ़ावा लिए बगै़र जान ही नहीं छोड़तीं। कपड़ों में पैवंद लगने की भी एक हद होती है। अब शंकर को हिसाब मिलता तो रुपये जमा न करता। कभी कपड़े लाता और कभी खाने की कोई चीज़। जहाँ पहले तंबाकू पिया करता था, वहाँ अब गाँजा और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई फ़िक्र न थी। गोया उस पर किसी का एक पैसा भी न था। पहले लर्ज़ा आ जाने पर भी वो काम करने ज़रूर जाता था। अब काम पर न जाने का बहाना तलाश किया करता।
इस तरह तीन साल गुज़र गए। पण्डित जी महाराज ने एक बार भी तक़ाज़ा न किया। वो होशियार शिकारी की तरह तीर-ब-हदफ़ निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को भड़का देना उनके शेवे के ख़िलाफ़ था।
एक रोज़ पण्डित जी ने शंकर को बुलाया। हिसाब दिखाया। साठ रुपये जमा थे, वो मिन्हा करने पर भी अब शंकर के ज़िम्मे एक सौ बीस रुपये निकले।
“इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगा। इस जन्म में नहीं हो सकता।”
पण्डित, “मैं इसी जन्म में लूँगा। अस्ल न सही सूद तो देना ही पड़ेगा।”
शंकर, “एक बैल है वो ले लीजिए। एक झोंपड़ी है, वो ले लीजिए, और मेरे पास रखा क्या है?”
पण्डित, “मुझे बैल बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।”
शंकर, “और क्या है महाराज।”
पण्डित, “कुछ नहीं है, तुम तो हो? आख़िर तुम भी कहीं मज़दूरी करने ही जाते हो। मुझे भी खेती करने के लिए एक मज़दूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो। जब सुभिता हो अस्ल भी दे देना। सच तो ये है कि अब तुम दूसरी जगह काम करने के लिए जा नहीं सकते। जब तक मेरे रुपये न चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है। इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतिबार पर छोड़ दूँ? कौन इसका ज़िम्मा लेगा, तुम मुझे महीने महीने सूद दिए जाओगे। और कहीं कमा कर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते तो अस्ल की कौन कहे?”
शंकर, “महाराज! सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या?”
पण्डित, “तुम्हारी घर वाली है, लड़के हैं। क्या वो हाथ पैर कटा बैठेंगे, तुम्हें आध सेर जौ रोज़ चरबन के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने के लिए साल में कम्बल पा जाओगे। एक सलूका भी बनवा दिया करूँगा और क्या चाहिए? ये सच है कि और लोग तुम्हें छः आने रोज़ देते हैं लेकिन मुझे ऐसी ग़रज़ नहीं है। मैं तो तुम्हें अपने रुपये भराने के लिए रखता हूँ।”
शंकर ने कुछ देर तक गहरे सोच में पड़े रहने के बाद कहा, “महाराज! ये तो जन्म भर की ग़ुलामी हुई?”
पण्डित, “ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराए बिना तुम्हें न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का। हाँ जब कोई न रहेगा, तब की बात दूसरी है।”
इस फ़ैसले की कहीं अपील न थी। मज़दूर की ज़मानत कौन करता? कहीं पनाह न थी? भाग कर कहाँ जाता? दूसरे रोज़ से उसने पण्डित जी के हाँ काम करना शुरू कर दिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र भर के लिए ग़ुलामी की बेड़ियाँ पाँव में डालनी पड़ीं। उस बद-नसीब को अब अगर किसी ख़याल से तस्कीन होती थी तो इसी से कि ये सब मेरे पिछले जन्म का भोग है। औरत को वो काम करने पड़े थे जो उसने कभी न किए थे। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे, लेकिन शंकर चुप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वो गेहूँ के दाने किसी देवता बुद्ध की तरह तमाम उम्र उसके सर से न उतरे।
शंकर ने पण्डित जी के यहाँ बीस बरस तक ग़ुलामी करने के बाद इस ग़म-कदे से रेहलत की। एक सौ बीस अभी तक उसके सर पर सवार थे। पण्डित जी ने उस ग़रीब को ईश्वर के दरबार में तकलीफ़ देना मुनासिब न समझा। पस उन्होंने उसके जवान बेटे की गर्दन पकड़ी। आज तक वो पण्डित जी के यहाँ काम करता है। उसका उधार कब अदा होगा, होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने।
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