सवा सेर गेहूँ
शहर के साथ ही गाँवों में हावी साहूकारी व्यवस्था और किसानों के दर्द को उकेरती कहानी है ‘सवा सेर गेहूँ’। प्रेमचंद ने इस कहानी में साहूकारी व्यवस्था के बोझ तले लगातार दबाए जा रहे और पीड़ित किए जा रहे किसानों के दर्द को उकेरा और सवाल उठाया कि आख़िर कब तक किसान साहूकारों द्वारा कुचला जाता रहेगा।
प्रेमचंद
महालक्ष्मी का पुल
‘महालक्ष्मी का पुल’ दो समाजों के बीच की कहानी है। महालक्ष्मी के पुल दोनों ओर सूख रही साड़ियों की मारिफ़त शहरी ग़रीब महिलाओं और पुरुषों के कठिन जीवन को उधेड़ा गया है, जो उनकी साड़ियों की तरह ही तार-तार है। वहाँ बसने वाले लोगों को उम्मीद है कि आज़ादी के बाद आई जवाहर लाल नेहरू की सरकार उनका कुछ भला करेगी, लेकिन नेहरु का क़ाफ़िला वहाँ बिना रुके ही गुज़र जाता है। जो दर्शाता है कि न तो पुरानी शासन व्यवस्था में इनके लिए कोई जगह थी न ही नई शासन व्यवस्था में इनके लिए कोई जगह है।
कृष्ण चंदर
नमक का दारोग़ा
यह कहानी समाज की यथार्थ स्थिति का उल्लेख करती है। मुंशी वंशीधर एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं जो समाज में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की मिसाल क़ायम करते हैं। यह कहानी अपने साथ कई उद्देश्यों का पूरी करती है। इसके साथ ही इस कहावत को भी चरितार्थ करती है कि ईमानदारी की जड़ें पाताल में होती हैं।
प्रेमचंद
नजात
‘नजात’ कहानी हिंदी में 'सद्गति' के नाम से प्रकाशित हुई थी। एक ज़रूरतमंद, कई दिनों का भूखा-प्यासा ग़रीब चमार किसी काम से ठाकुर के यहाँ आता है। ठाकुर उसे लकड़ी काटने के काम पर लगा देता है। सख़्त गर्मी से बेहाल वह लकड़ी काटता है और अपनी थकान मिटाने के लिए बीच-बीच में चिलम पीता रहता है। लेकिन काम ख़त्म होने से पहले ही वह इतना थक जाता है कि मर जाता है। उस मरे हुए चमार की लाश से ठाकुर जिस तरह जान छुड़ाता है वह बहुत मार्मिक है।
प्रेमचंद
आह-ए-बेकस
अपनी ईमानदारी, मेहनत और क़ानून-दानी के लिए मशहूर मुंशी सेवक राम के पास लोग अपनी अमानत रखा करते थे। मगर हक़ीक़त से पर्दा तब उठना शुरू हुआ जब बेवा मूंगा ब्राह्मनी ने मुंशी जी के पास कुछ रुपये अमानत रखे, जिन्हें बाद में मुंशी जी ने देने से मना कर दिया। इससे मूंगा पागल हो गई और एक आह के साथ उसने मुंशी के दरवाजे़ पर दम तोड़ दिया। मूंगा की इस आह का ऐसा असर हुआ कि मुंशी का पूरा ख़ानदान ही तबाह हो गया।
प्रेमचंद
घास वाली
खेतों की मेड़ पर जब वह मुलिया घास वाली से टकराया तो उसकी ख़ूबसूरती देखकर उसके तो होश ही उड़ गए। उसे लगा कि वह मुलिया के बिना रह नहीं सकता। मगर मुलिया एक पतिव्रता औरत है। इसलिए जब उसने उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की तो मुलिया ने उसके सामने समाज की सच्चाई का वह चित्र प्रस्तुत किया जिसे सुनकर वह उसके सामने गिड़गिड़ाने और माफ़ी माँगने लगा।
प्रेमचंद
पंसारी का कुँआं
पंसारी का कुँआ एक सामाजिक मुद्दे के गिर्द घुमती कहानी है। कहानी में बूढ़ी गोमती काकी एक कुँआ ख़ुदवाने के लिए सारी ज़िंदगी पाई-पाई जोड़ती है और चौधरी विनायक को वसीयत कर के मर जाती है। चौधरी विनायक बूढ़ी गोमती काकी की वसीयत को पूरा करता है या नहीं। यही इस कहानी में बताया गया है।
प्रेमचंद
रियासत का दीवान
आप तभी तक इंसान हैं जब तक आपका ज़मीर ज़िंदा है। महतो साहब जब तक इस अमल पर जमे रहे तब तक तो सब ठीक था। मगर जब एक रोज़ अपने ज़मीर को मार कर वह रियासत के हुए हैं तब से सब गड़बड़ हो गया है। राजा उसे ज़ुल्म करने पर उकसाता है और बेटा ग़रीबों की हिमायत में खड़ा है। इस रस्सा-कशी में एक रोज़ ऐसा भी आया कि वह तन्हा खड़े रह गए।
प्रेमचंद
तस्वीर के दो रुख़
कहानी आज़ादी से पहले की दो तस्वीरें पेश करती है। एक तरफ पुराने रिवायती नवाब हैं, जो ऐश की ज़िंदगी जी रहे हैं, मोटर में घूमते हैं, मन बहलाने के लिए तवाएफ़ों के पास जाते हैं। साथ ही आज़ादी के लिए जद्द-ओ-जहद करने वालों को कोस रहे हैं। गांधी जी को गालियां दे रहे हैं। दूसरी तरफ आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले नौजवान हैं जिनकी लाश को कोई कंधा देने वाला भी नहीं है।
अहमद अली
गु़लामी
पूंजीवाद ने हर ग़रीब इंसान को गु़लाम बना दिया है। एक खु़शगवार शाम में दो दोस्त नदी के किनारे बैठे हुए हैं और अपनी और ग़रीबों की स्थिति को लेकर बातें कर रहे हैं। वे इस बात से दुखी हैं कि ग़रीब कितने दुखों के साथ ज़िंदगी जीते हैं। शाम ढ़ल जाती है और वे वहाँ से चलने की तैयारी करते हैं। तभी एक ग़रीब औरत उनके पास से गुज़रती है। उनमें से एक उससे फ़स्ल के बारे में पूछता है तो जवाब में औरत रोने लगती है। उसका रोना देखकर एक दोस्त उसकी मदद करना चाहता, तो दूसरा यह कहकर उसे रोक देता है कि गु़लामी तो इनके अंदर बसी हुई है... मदद करने से कुछ नहीं होगा।
अहमद अली
मज़दूर
यह समाज के सबसे मज़बूत और बे-सहारा स्तंभ एक मज़दूर की कहानी है, जो दिन-रात ख़ून-पसीना बहाकर काम करता है। लेकिन इससे वह इतना भी नहीं कमा पाता कि अपने बच्चों को भर पेट खाना खिला सके या अपनी बीमार बीवी की दवाई ख़रीद सके। वह फैक्ट्री मालिक से भी विनती करता है, पर वहाँ से भी उसे कोई मदद नहीं मिलती।
सुदर्शन
पंचायत
यह एक बूढ़ी ब्राह्मणी की कहानी है, जो अपने पति के देहांत के बाद तीर्थयात्रा पर जाती है। तीर्थ यात्रा पर जाने से पहले वह बिना रसीद के अपनी जमा-पूंजी गाँव के साहूकार के पास रख जाती है। वापस लौटकर जब वह साहूकार से अपनी अमानत वापस माँगती है तो साहूकार इंकार कर देता है। साहूकार के इंकार पर पंचायत बुलवाती है और साहूकार की पत्नी को ही अपना गवाह बना लेती है।