कबूतरों वाला साईं
स्टोरीलाइन
"कहानी इंसानी आस्थाओं और मिथ्या लांछनों पर आधारित है। माई जीवाँ के नीम पागल बेटे को चमत्कारी समझना, सुंदर जाट डाकू जिसका वुजूद तक संदिग्ध है उससे गाँव वालों का खौफ़ज़दा रहना, नीती के ग़ायब होने को सुंदर जाट से वाबस्ता करना, ऐसी परिकल्पनाएं हैं जिनकी सत्यता का कोई तर्क नहीं।"
पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह-सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग सुलगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भरी आँखों को सुकेड़ कर और अपनी कमर को दुहरा करके, मुँह क़रीब क़रीब ज़मीन के साथ लगा कर ऊपर तले रखे हुए उपलों के अंदर फूंक घुसेड़ने की कोशिश करती है तो ज़मीन पर से थोड़ी सी राख उड़ती है और उसके आधे सफ़ेद और आधे काले बालों पर जो कि घिसे हुए कम्बल का नमूना पेश करते हैं बैठ जाती है और ऐसा मालूम होता है कि उसके बालों में थोड़ी सी सफेदी और आगई है।
उपलों के अंदर आग सुलगती है और यूं जो थोड़ी सी लाल लाल रोशनी पैदा होती है माई जीवां के स्याह चेहरे पर झुर्रियों को और नुमायां कर देती है।
माई जीवां ये आग कई मर्तबा सुलगा चुकी है। ये तकिया या छोटी सी ख़ानक़ाह जिसके अंदर बनी हुई क़ब्र की बाबत उसके परदादा ने लोगों को ये यक़ीन दिलाया था कि वो एक बहुत बड़े पीर की आरामगाह है, एक ज़माने से उनके क़ब्ज़े में थी। गामा साईं के मरने के बाद अब उसकी होशियार बीवी एक तकिए की मुजाविर थी।
गामा साईं सारे गांव में हर दिल अ’ज़ीज़ था। ज़ात का वो कुम्हार था मगर चूँकि उसे तकिए की देख भाल करना होती थी, इसलिए उसने बर्तन बनाने छोड़ दिए थे। लेकिन उसके हाथ की बनाई हुई कुंडियां अब भी मशहूर हैं।
भंग घोटने के लिए वो साल भर में छः कुंडियां बनाया करता था जिनके मुतअ’ल्लिक़ बड़े फ़ख़्र से वो ये कहा करता था, “चौधरी लोहा है लोहा, फ़ौलाद की कुंडी टूट जाये पर गामा साईं की ये कुंडी दादा ले तो उसका पोता भी उसी में भंग घोट कर पिए।”
मरने से पहले गामा साईं छः कुंडियां बना कर रख गया था जो अब माई जीवां बड़ी एहतियात से काम में लाती थी।
गांव के अक्सर बुड्ढे और जवान तकिए में जमा होते थे और सरदाई पिया करते थे। घोटने के लिए गामा साईं नहीं था पर उसके बहुत से चेले चाँटे जो अब सर और भवें मुंडा कर साईं बन गए थे, उसके बजाय भंग घोटा करते थे और माई जीवां की सुलगाई हुई आग सुल्फ़ा पीने वालों के काम आती थी।
सुबह और शाम को तो ख़ैर काफ़ी रौनक़ रहती थी, मगर दोपहर को आठ-दस आदमी माई जीवां के पास बेरी की छांव में बैठे ही रहते थे। इधर उधर कोने में लंबी लंबी बेल के साथ साथ कई काबुक थे जिनमें गामा साईं के एक बहुत पुराने दोस्त अब्बू पहलवान ने सफ़ेद कबूतर पाल रखे थे।
तकिए की धूएँ भरी फ़िज़ा में उन सफ़ेद और चितकबरे कबूतरों की फड़फड़ाहट बहुत भली मालूम होती थी। जिस तरह तकिए में आने वाले लोग शक्ल व सूरत से मासूमाना हद तक बेअक़ल नज़र आते थे, उसी तरह ये कबूतर जिनमें से अक्सर के पैरों में माई जीवां के बड़े लड़के ने झांझ पहना रखे थे बेअक़ल और मासूम दिखाई देते थे।
माई जीवां के बड़े लड़के का असली नाम अब्दुलग़फ़्फ़ार था। उसकी पैदाइश के वक़्त ये नाम शहर के थानेदार का था जो कभी कभी घोड़ी पर चढ़ कर मौक़ा देखने के लिए गांव में आया करता था और गामा साईं के हाथ का बना हुआ एक प्याला सरदाई का ज़रूर पिया करता था। लेकिन अब वो बात न रही थी।
जब वो ग्यारह बरस का था तो माई जीवां उसके नाम में थानेदारी की बू सूंघ सकती थी मगर जब उसने बारहवीं साल में क़दम रखा तो उसकी हालत ही बिगड़ गई। ख़ासा तगड़ा जवान था पर न जाने क्या हुआ कि बस एक दो बरस में ही सचमुच का साईं बन गया। या’नी नाक से रेंठ बहने लगा और चुप चुप रहने लगा।
सर पहले ही छोटा था पर अब कुछ और भी छोटा होगया और मुँह से हर वक़्त लुआ’ब सा निकलने लगा। पहले पहल माँ को अपने बच्चे की इस तबदीली पर बहुत सदमा हुआ मगर जब उसने देखा कि उसकी नाक से रेंठ और मुँह से लुआ’ब बहते ही गांव के लोगों ने उससे ग़ैब की बातें पूछना शुरू करदी हैं और उसकी हर जगह ख़ूब आओ भगत की जाती है तो उसे ढारस हुई कि चलो यूं भी तो कमा ही लेगा।
कमाना-वमाना क्या था। अब्दुलग़फ़्फ़ार जिसको अब कबूतरों वाला साईं कहते थे, गांव में फिर फिरा कर आटा चावल इकट्ठा करलिया करता था, वो भी इसलिए कि उसकी माँ ने उसके गले में एक झोली लटका दी थी, जिसमें लोग कुछ न कुछ डाल दिया करते थे।
कबूतरों वाला साईं उसे इसलिए कहा जाता था कि उसे कबूतरों से बहुत प्यार था। तकिए में जितने कबूतर थे उनकी देख भाल अब्बू पहलवान से ज़्यादा यही किया करता था।
उस वक़्त वो सामने कोठड़ी में एक टूटी हुई खाट पर अपने बाप का मैला कुचैला लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था। बाहर उसकी माँ आग सुलगा रही थी...
चूँकि सर्दियां अपने जोबन पर थीं इसलिए गांव अभी तक रात और सुबह के धुंए में लिपटा हुआ था। यूं तो गांव में सब लोग बेदार थे और अपने काम धंदों में मसरूफ़ थे मगर तकिया जो कि गांव से फ़ासिले पर था अभी तक आबाद न हुआ था, अलबत्ता दूर कोने में माई जीवां की बकरी ज़ोर ज़ोर से मिमया रही थी।
माई जीवां आग सुलगा कर बकरी के लिए चारा तैयार करने ही लगी थी कि उसे अपने पीछे आहट सुनाई दी। मुड़ कर देखा तो उसे एक अजनबी सर पर ठाटा और मोटा सा कम्बल ओढ़े नज़र आया। पगड़ी के एक पल्लू से उस आदमी ने अपना चेहरा आँखों तक छुपा रखा था। जब उसने मोटी आवाज़ में “माई जीवां अस्सलामु अलैकुम” कहा तो पगड़ी का खुर्दरा कपड़ा उसके मुँह पर तीन-चार मर्तबा सिकुड़ा और फैला।
माई जीवां ने चारा बकरी के आगे रख दिया और अजनबी को पहचानने की कोशिश किए बग़ैर कहा, “वाअ’लैकुम अस्सलाम। आओ भाई बैठो। आग तापो।”
माई जीवां कमर पर हाथ रख कर उस गढ़े की तरफ़ बढ़ी जहां हर रोज़ आग सुलगती रहती थी।
अजनबी और वो दोनों पास पास बैठ गए। थोड़ी देर हाथ ताप कर उस आदमी ने माई जीवां से कहा, “माँ अल्लाह बख़्शे, गामां साईं मुझे बाप की तरह चाहता था। उसके मरने की ख़बर मिली तो मुझे बहुत सदमा हुआ। मुझे आसेब होगया था, क़ब्रिस्तान का जिन्न ऐसा चिमटा था कि अल्लाह की पनाह, गामा साईं के एक ही तावीज़ से ये काली बला दूर हो गई।”
माई जीवां ख़ामोशी से अजनबी की बातें सुनती रही जो कि उसके शौहर का बहुत ही मो’तक़िद नज़र आता था। उसने इधर उधर की और बहुत सी बातें करने के बाद बुढ़िया से कहा, “मैं बारह कोस से चल कर आया हूँ, एक ख़ास बात कहने के लिए।”
अजनबी ने राज़दारी के अंदाज़ में अपने चारों तरफ़ देखा कि उसकी बात कोई और तो नहीं सुन रहा और भिंचे हुए लहजे में कहने लगा, “मैं सुंदर डाकू के गिरोह का आदमी हूँ। परसों रात हम लोग इस गांव पर डाका मारने वाले हैं। ख़ून ख़राबा ज़रूर होगा, इसलिए मैं तुमसे ये कहने आया हूँ कि अपने लड़कों को दूर ही रखना। मैंने सुना है कि गामा साईं मरहूम ने अपने पीछे दो लड़के छोड़े हैं। जवान आदमियों का लहू है बाबा, ऐसा न हो कि जोश मार उठे और लेने के देने पड़ जाएं। तुम उनको परसों गांव से कहीं बाहर भेज दो तो ठीक रहेगा। बस मुझे यही कहना था। मैंने अपना हक़ अदा कर दिया है, अस्सलामु अलैकुम।”
अजनबी अपने हाथों को आग के अलाव पर ज़ोर ज़ोर से मल कर उठा और जिस रास्ते से आया था उसी रास्ते से बाहर चला गया।
सुंदर जाट बहुत बड़ा डाकू था। उसकी दहश्त इतनी थी कि माएं अपने बच्चों को उसी का नाम लेकर डराया करती थीं। बेशुमार गीत उसकी बहादुरी और बेबाकी के गांव की जवान लड़कियों को याद थे। उसका नाम सुन कर बहुत सी कुंवारियों के दिल धड़कने लगते थे।
सुंदर जाट को बहुत कम लोगों ने देखा था मगर जब चौपाल में लोग जमा होते थे तो हर शख़्स उससे अपनी अचानक मुलाक़ात के मन घड़त क़िस्से सुनाने में एक ख़ास लज़्ज़त महसूस करता था। उसके क़द-ओ-क़ामत और डील-डौल के बारे में मुख़्तलिफ़ बयान थे। बा’ज़ कहते थे कि वो बहुत क़दआवर जवान है, बड़ी बड़ी मूंछों वाला।
उन मूंछों के बालों के मुतअ’ल्लिक़ ये मशहूर था कि वो दो बड़े बड़े लेमूँ उनकी मदद से उठा सकता है। बा’ज़ लोगों का ये बयान था कि उसका क़द मामूली है मगर बदन इस क़दर गट्ठा हुआ है कि गेंडे का भी न होगा। बहरहाल सब मुत्तफ़िक़ा तौर पर उसकी ताक़त और बेबाकी के मोअ’तरिफ़ थे।
जब माई जीवां ने ये सुना कि सुंदर जाट उनके गांव पर डाका डालने के लिए आ रहा है तो उसके आए औसान ख़ता होगए और वो उस अजनबी के सलाम का जवाब तक न दे सकी और न उसका शुक्रिया अदा कर सकी।
माई जीवां को अच्छी तरह मालूम था कि सुंदर जाट का डाका क्या मा’नी रखता है। पिछली दफ़ा जब उसने साथ वाले गांव पर हमला किया था तो सखी महाजन की सारी जमा पूंजी ग़ायब होगई थी और गांव की सब से सुंदर और चंचल छोकरी भी ऐसी गुम हुई थी कि अब तक उसका पता नहीं मिलता था। ये बला अब उनके गांव पर नाज़िल होने वाली थी और इसका इल्म सिवाए माई जीवां के गांव में किसी और को न था।
माई जीवां ने सोचा कि वो इस आने वाले भूंचाल की ख़बर किस किस को दे... चौधरी के घर ख़बर करदे... लेकिन नहीं वो तो बड़े कमीने लोग थे। पिछले दिनों उस ने थोड़ा सा साग उनसे मांगा था तो उन्होंने इनकार कर दिया था। घसीटा राम हलवाई को मुतनब्बा करदे... नहीं, वो भी ठीक आदमी नहीं था।
वो देर तक इन ही ख़यालात में ग़र्क़ रही। गांव के सारे आदमी वो एक एक करके अपने दिमाग़ में लाई और उनमें से किसी एक को भी उसने मेहरबानी के क़ाबिल न समझा। इसके इलावा उसने सोचा अगर उसने किसी को हमदर्दी के तौर पर इस राज़ से आगाह कर दिया तो वो किसी और पर मेहरबानी करेगा और यूं सारे गांव वालों को पता चल जाएगा जिसका नतीजा अच्छा नहीं होगा।
आख़िर में वो ये फ़ैसला करके उठी कि अपनी सारी जमा पूंजी निकाल कर वो सब्ज़ रंग की ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के सिरहाने गाड़ देगी और रहमान को पास वाले गांव में भेज देगी।
जब वो सामने वाली कोठड़ी की तरफ़ बढ़ी तो दहलीज़ में उसे अब्दुलग़फ़्फ़ार या’नी कबूतरों वाला साईं खड़ा नज़र आया। माँ को देख कर वो हंसा। उसकी ये हंसी आज ख़िलाफ़-ए-मा’मूल मा’नीख़ेज़ थी। माई जीवां को उसकी आँखों में संजीदगी और मतानत की झलक भी नज़र आई जो कि होशमन्दी की निशानी है।
जब वो कोठड़ी के अंदर जाने लगी तो अब्दुलग़फ़्फ़ार ने पूछा, “माँ, ये सुबह-सवेरे कौन आदमी आया था?”
अब्दुलग़फ़्फ़ार इस क़िस्म के सवाल आमतौर पर पूछा करता था, इसलिए उसकी माँ जवाब दिए बग़ैर अन्दर चली गई और अपने छोटे लड़के को जगाने लगी, “ए रहमान, ए रहमान, उठ उठ।”
बाज़ू झिंझोड़ कर माई जीवां ने अपने छोटे लड़के रहमान को जगाया और वो जब आँखें मल कर उठ बैठा और अच्छी तरह होश आगया तो उसकी माँ ने उसको सारी बात सुना दी। रहमान के तो औसान ख़ता होगए। वो बहुत डरपोक था, गो उसकी उम्र इस वक़्त बाईस बरस की थी और काफ़ी ताक़तवर जवान था मगर उसमें हिम्मत और शुजाअ’त नाम तक को न थी।
सुंदर जाट! इतना बड़ा डाकू, जिसके मुतअ’ल्लिक़ मशहूर था कि वो थूक फेंकता था तो पूरे बीस गज़ के फ़ासले पर जा कर गिरता था, परसों डाका डालने और लूट मार करने के लिए आरहा था। वो फ़ौरन अपनी माँ के मशवरे पर राज़ी होगया बल्कि यूं कहिए कि वो उसी वक़्त गांव छोड़ने की तैयारियां करने लगा।
रहमान को नीती चमारन या’नी इनायत से मुहब्बत थी जोकि गांव की एक बेबाक शोख़ और चंचल लड़की थी। गांव के सब जवान लड़के शबाब की ये पोटली हासिल करने की कोशिश में लगे रहते थे मगर वो किसी को ख़ातिर में नहीं लाती थी। बड़े बड़े होशियार लड़कों को वो बातों बातों में उड़ा देती थी।
चौधरी दीन मुहम्मद के लड़के फ़ज़लदीन को कलाई पकड़ने में कमाल हासिल था। इस फ़न के बड़े बड़े माहिर दूर दूर से उसको नीचा दिखाने के लिए आते थे मगर उसकी कलाई किसी से भी न मुड़ी थी। वो गांव में अकड़ अकड़ कर चलता था मगर उसकी ये सारी अकड़ फ़ूं नीती ने एक ही दिन में ग़ायब कर दी, जब उसने धान के खेत में उससे कहा, “फ़ज्जे, गंडा सिंह की कलाई मरोड़ कर तू अपने मन में ये मत समझ कि बस अब तेरे मुक़ाबले में कोई आदमी नहीं रहा... आ मेरे सामने बैठ, मेरी कलाई पकड़, इन दो उंगलियों की एक ही ठुमकी से तेरे दोनों हाथ न छुड़ा दूँ तो नीती नाम नहीं।”
फ़ज़लदीन उसको मोहब्बत की निगाहों से देखता था और उसे यक़ीन था कि उसकी ताक़त और शहज़ोरी के रो’ब और दबदबे में आकर वो ख़ुदबख़ुद एक रोज़ राम हो जाएगी। लेकिन जब उसने कई आदमियों के सामने उसको मुक़ाबले की दा’वत दी तो वो पसीना पसीना होगया। अगर वो इनकार करता है तो नीती और भी सर पर चढ़ जाती है और अगर वो उसकी दा’वत क़बूल करता है तो लोग यही कहेंगे, औरत ज़ात से मुक़ाबला करते शर्म तो नहीं आई मर्दूद को।
उसकी समझ में नहीं आता था कि क्या करे। चुनांचे उसने नीती की दा’वत क़बूल करली थी और जैसा कि लोगों का बयान है उसने जब नीती की गदराई हुई कलाई अपने हाथों में ली तो वो सारे का सारा काँप रहा था।
नीती की मोटी मोटी आँखें उसकी आँखों में धँस गईं, एक नारा बुलंद हुआ और नीती की कलाई फ़ज़ल की गिरफ़्त से आज़ाद हो गई... उस दिन से लेकर अब तक फ़ज़ल ने फिर कभी किसी की कलाई नहीं पकड़ी।
हाँ, तो उस नीती से रहमान को मुहब्बत थी, जैसा कि वो आप डरपोक था, उसी तरह उसका प्रेम भी डरपोक था। दूर से देख कर वह अपने दिल की हवस पूरी करता था और जब कभी उसके पास होती तो उसको इतनी जुर्रत नहीं होती थी कि हर्फ़-ए-मुद्दा ज़बान पर लाए। मगर नीती सब कुछ जानती थी। वो क्या कुछ नहीं जानती थी।
उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये छोकरा जो दरख़्तों के तनों के साथ पीठ टेके खड़ा रहता है, उसके इश्क़ में गिरफ़्तार है, उसके इश्क़ में कौन गिरफ़्तार नहीं था? सब उससे मोहब्बत करते थे। इस क़िस्म की मोहब्बत जो कि बेरियों के बेर पकने पर गांव के जवान लड़के अपनी रगों के तनाव के अंदर महसूस किया करते हैं मगर वो अभी तक किसी की मोहब्बत में गिरफ़्तार नहीं हुई थी।
मोहब्बत करने की ख़्वाहिश अलबत्ता उसके दिल में इस क़दर मौजूद थी कि बिल्कुल उस शराबी के मानिंद मालूम होती थी जिसके मुतअ’ल्लिक़ डर रहा करता है कि अब गिरा और अब गिरा... वो बेख़बरी के आलम में एक बहुत ऊंची चट्टान की चोटी पर पहुंच चुकी थी और अब तमाम गांव वाले उसकी उफ़्ताद के मुंतज़िर थे जो कि यक़ीनी थी।
रहमान को भी इस उफ़ताद का यक़ीन था मगर उसका डरपोक दिल हमेशा उसे ढारस दिया करता था कि नहीं, नीती आख़िर तेरी ही बांदी बनेगी और वो यूं ख़ुश होजाया करता था।
जब रहमान दस कोस तय करके दूसरे गांव में पहुंचने के लिए तैयार हो कर तकिए से बाहर निकला तो उसे रास्ते में नीती का ख़याल आया मगर उस वक़्त उसने ये न सोचा कि सुंदर जाट धावा बोलने वाला है। वो दरअसल नीती के तसव्वुर में इस क़दर मगन था और अकेले में उसके साथ मन ही मन में इतने ज़ोरों से प्यार-मोहब्बत कर रहा था कि उसे किसी और बात का ख़याल ही न आया।
अलबत्ता जब वो गांव से पाँच कोस आगे निकल गया तो एका एकी उसने सोचा कि नीती को तो बता देना चाहिए था कि सुंदर जाट आरहा है, लेकिन अब वापस कौन जाता।
अब्दुलग़फ़्फ़ार या’नी कबूतरों वाला साईं तकिए से बाहर निकला। उसके मुँह से लुआ’ब निकल रहा था जो कि मैले कुरते पर गिर कर देर तक गिलिसरीन की तरह चमकता रहता था। तकिए से निकल कर सीधा खेतों का रुख़ किया करता था और सारा दिन वहीं गुज़ार देता था। शाम को जब ढोर डंगर वापस गांव को आते तो उनके चलने से जो धूल उड़ती है उसके पीछे कभी कभी ग़फ़्फ़ार की शक्ल नज़र आजाती थी।
गांव उसको पसंद नहीं था। उजाड़ और सुनसान जगहों से उसे ग़ैर महसूस तौर पर मोहब्बत थी।
यहां भी लोग उसका पीछा न छोड़ते थे और उससे तरह तरह के सवाल पूछते थे। जब बरसात में देर हो जाती तो क़रीब क़रीब सब किसान उससे दरख़ास्त करते थे कि वो पानी भरे बादलों के लिए दुआ मांगे और गांव के इश्क़ पेशा जवान उससे अपने दिल का हाल बयान करते और पूछते कि वो कब अपने मक़सद में कामयाब होंगे। नौजवान छोकरियां भी चुपके चुपके धड़कते हुए दिलों से उसके सामने अपनी मोहब्बत का ए’तराफ़ करती थीं और ये जानना चाहती थीं कि उनके ‘माहिया’ का दिल कैसा है।
अब्दुलग़फ़्फ़ार उन सवालियों को ऊटपटांग जवाब दिया करता था, इसलिए कि उसे ग़ैब की बातें कहाँ मालूम थीं, लेकिन लोग जो उसके पास सवाल लेकर आते थे उसकी बेरब्त बातों में अपना मतलब ढूंढ लिया करते थे।
अब्दुलग़फ़्फ़ार मुख़्तलिफ़ खेतों में से होता हुआ उस कुँवें के पास पहुंच गया जो कि एक ज़माने से बेकार पड़ा था। उस कुँवें की हालत बहुत अबतर थी। उस बूढ़े बरगद के पत्ते जो कि सालहा साल से उसके पहलू में खड़ा था, इस क़दर उसमें जमा होगए थे कि अब पानी नज़र ही न आता था और ऐसा मालूम होता कि बहुत सी मकड़ियों ने मिल कर पानी की सतह पर मोटा सा जाला बुन दिया है। उस कुँवें की टूटी हुई मुंडेर पर अब्दुल ग़फ़्फ़ार बैठ गया और दूसरों की उदास फ़िज़ा में उसने अपने वजूद से और भी उदासी पैदा कर दी।
दफ़अ’तन उड़ती हुई चीलों की उदास चीख़ों को अ’क़ब में छोड़ती हुई एक बुलंद आवाज़ उठी और बूढ़े बरगद की शाख़ों में एक कपकपाहट सी दौड़ गई। नीती गा रही थी;
माहिया मिरे ने बाग लिवाया
चंपा, मह वा ख़ूब खिलाया
असी ते लिवायां खटियाँ वे
रातें सोंड नहीं देंदियां अखियां वे
इस गीत का मतलब ये था कि मेरे माहिया या’नी मेरे चाहने वाले ने एक बाग़ लगाया है, उसमें हर तरह के फूल उगाए हैं, चंपा, मेवा वग़ैरा खिलाए हैं। और हमने तो सिर्फ़ नारंगियां लगाई हैं... रात को आँखें सोने नहीं देतीं। कितनी इंक्सारी बरती गई है। मा’शूक़ आ’शिक़ के लगाए हुए बाग़ की तारीफ़ करता है, लेकिन वो अपनी जवानी के बाग़ की तरफ़ निहायत इंकसाराना तौर पर इशारा करता है जिसमें हक़ीर नारंगियां लगी हैं और फिर शब ख़्वाबी का गिला किस ख़ूबी से किया गया है।
गो अब्दुलग़फ़्फ़ार में नाज़ुक जज़्बात बिल्कुल नहीं थे फिर भी नीती की जवान आवाज़ ने उसको चौंका दिया और वो इधर उधर देखने लगा। उसने पहचान लिया था कि ये आवाज़ नीती की है।
गाती गाती नीती कुँवें की तरफ़ आ निकली। ग़फ़्फ़ार को देख कर वह दौड़ी हुई उसके पास आई और कहने लगी, “ओह, ग़फ़्फ़ार साईं... तुम... ओह, मुझे तुमसे कितनी बातें पूछना हैं... और इस वक़्त यहां तुम्हारे और मेरे सिवा और कोई भी नहीं... देखो मैं तुम्हारा मुँह मीठा कराऊंगी अगर तुम ने मेरे दिल की बात बूझ ली और... लेकिन तुम तो सब कुछ जानते हो... अल्लाह वालों से किसी के दिल का हाल छुपा थोड़ी रहता है।”
वो उसके पास ज़मीन पर बैठ गई और उसके मैले कुरते पर हाथ फेरने लगी।
ख़िलाफ़-ए-मा’मूल कबूतरों वाला साईं मुस्कुराया मगर नीती उसकी तरफ़ देख नहीं रही थी, उसकी निगाहें गाढे के ताने बाने पर बग़ैर किसी मतलब के तैर रही थीं।
खुरदरे कपड़े पर हाथ फेरते फेरते उसने गर्दन उठाई और आहों में कहना शुरू किया, “ग़फ़्फ़ार साईं, तुम अल्लाह मियां से मोहब्बत करते हो और मैं... मैं एक आदमी से मोहब्बत करती हूँ। तुम मेरे दिल का हाल क्या समझोगे...! अल्लाह मियां की मोहब्बत और उसके बंदे की मोहब्बत एक जैसी तो हो नहीं सकती... क्यों ग़फ़्फ़ार साईं... अरे तुम बोलते क्यों नहीं... कुछ बोलो... कुछ कहो... अच्छा तो मैं ही बोले जाऊंगी। तुम नहीं जानते कि आज मैं कितनी देर बोल सकती हूँ... तुम सुनते सुनते थक जाओगे पर मैं नहीं थकूंगी...” ये कहते कहते वो ख़ामोश होगई और उसकी संजीदगी ज़्यादा बढ़ गई।
अपने मन में ग़ोता लगाने के बाद जब वो उभरी तो उसने इका एकी अब्दुलग़फ़्फ़ार से पूछा, “साईं। मैं कब थकूंगी?”
अब्दुलग़फ़्फ़ार के मुँह से लुआ’ब निकलना बंद हो गया। उसने कुँवें के अंदर झुक कर देखते हुए जवाब दिया, “बहुत जल्द।”
ये कह कर वो उठ खड़ा हुआ। इस पर नीती ने उसके कुरते का दामन पकड़ लिया और घबरा कर पूछा, “कब...? कब...? साईं कब?”
अब्दुलग़फ़्फ़ार ने इसका कोई जवाब न दिया और बबूल के झुंड की तरफ़ बढ़ना शुरू कर दिया। नीती कुछ देर कुँवें के पास सोचती रही फिर तेज़ क़दमों से जिधर साईं गया था उधर चल दी।
वो रात जिसमें सुंदर जाट गांव पर डाका डालने के लिए आरहा था, माई जीवां ने आँखों में काटी। सारी रात वो अपनी खाट पर लिहाफ़ ओढ़े जागती रही। वो बिल्कुल अकेली थी। रहमान को उसने दूसरे गांव भेज दिया और अब्दुलग़फ़्फ़ार न जाने कहाँ सो गया था। अब्बू पहलवान कभी कभी तकिए में आग तापता तापता वहीं अलाव के पास सो जाया करता था मगर वो सुबह ही से दिखाई नहीं दिया था, चुनांचे कबूतरों को दाना माई जीवां ही ने खिलाया था।
तकिया गांव के उस सिरे पर वाक़ा था जहां से लोग गांव के अंदर दाख़िल होते थे। माई जीवां सारी रात जागती रही मगर उसको हल्की सी आहट भी सुनाई न दी। जब रात गुज़र गई और गांव के मुर्गों ने अज़ानें देना शुरू करदीं तो वो सुंदर जाट की बाबत सोचती सोचती सो गई।
चूँकि रात को वो बिल्कुल न सोई थी इसलिए सुबह बहुत देर के बाद जागी। कोठड़ी से निकल कर जब वो बाहर आई तो उसने देखा कि अब्बू पहलवान कबूतरों को दाना दे रहा है और धूप सारे तकिए में फैली हुई है। उसने बाहर निकलते ही उससे कहा, “सारी रात मुझे नींद नहीं आई। ये मुआ बुढ़ापा बड़ा तंग कर रहा है। सुबह सोई हूँ और अब उठी हूँ... हाँ तुम सुनाओ कल कहाँ रहे?”
अब्बू ने जवाब दिया, “गांव में।”
इस पर माई जीवां ने कहा, “कोई ताज़ा ख़बर सुनाओ।”
अब्बू ने झोली के सब दाने ज़मीन पर गिरा कर और झपट कर एक कबूतर को बड़ी सफ़ाई से अपने हाथ में दबोचते हुए कहा, “आज सुबह चौपाल पर नत्था सिंह कह रहा था कि गाम चमार की वो लौंडिया... क्या नाम है उसका...? हाँ वो नीती कहीं भाग गई है? मैं तो कहता हूँ अच्छा हुआ... हरामज़ादी ने सारा गांव सर पर उठा रखा था।”
“किसी के साथ भाग गई है या कोई उठा कर ले गया है?”
“जाने मेरी बला... लेकिन मेरे ख़याल में तो वो ख़ुद ही किसी के साथ भाग गई है।”
माई जीवां को इस गुफ़्तुगू से इत्मिनान न हुआ। सुंदर जाट ने डाका नहीं डाला था पर एक छोकरी तो ग़ायब होगई थी। अब वो चाहती थी कि किसी न किसी तरह नीती का ग़ायब हो जाना सुंदर जाट से मुतअ’ल्लिक़ हो जाये। चुनांचे वो उन तमाम लोगों से नीती के बारे में पूछती रही जो कि तकिए में आते जाते रहे लेकिन जो कुछ अब्बू ने बताया था उससे ज़्यादा उसे कोई भी न बता सका।
शाम को रहमान लौट आया। उसने आते ही माँ से सुंदर जाट के डाका के मुतअ’ल्लिक़ पूछा। इस पर माई जीवां ने कहा, “सुंदर जाट तो नहीं आया बेटा, पर नीती कहीं ग़ायब हो गई है... ऐसी कि कुछ पता ही नहीं चलता।”
रहमान को ऐसा महसूस हुआ कि उसकी टांगों में दस कोस और चलने की थकावट पैदा होगई है। वो अपनी माँ के पास बैठ गया, उसका चेहरा ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द था।
एक दम ये तबदीली देख कर माई जीवां ने तशवीशनाक लहजे में उससे पूछा, “क्या हुआ बेटा।”
रहमान ने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी और कहा, “कुछ नहीं माँ... थक गया हूँ।”
और नीती कल मुझसे पूछती थी, “मैं कब थकूंगी?”
रहमान ने पलट कर देखा तो उसका भाई अब्दुलग़फ़्फ़ार आस्तीन से अपने मुँह का लुआ’ब पोंछ रहा था। रहमान ने उसकी तरफ़ घूर कर देखा और पूछा, “क्या कहा था उसने तुझसे?”
अब्दुलग़फ़्फ़ार अलाव के पास बैठ गया, “कहती थी कि मैं थकती ही नहीं... पर अब वो थक जाएगी।”
रहमान ने तेज़ी से पूछा, “कैसे?”
ग़फ़्फ़ार साईं के चेहरे पर एक बेमा’नी सी मुस्कुराहट पैदा हुई, “मुझे क्या मालूम? सुंदर जाट जाने और वो जाने।”
ये सुन कर रहमान के चेहरे पर और ज़्यादा ज़र्दी छा गई और माई जीवां की झुर्रीयां ज़्यादा गहराई इख़्तियार कर गईं।
- पुस्तक : دھواں
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