aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

राह-ए-नजात

प्रेमचंद

राह-ए-नजात

प्रेमचंद

MORE BYप्रेमचंद

    स्टोरीलाइन

    झींगुर महतो को अपने खेतों पर बड़ा नाज़ था। एक दिन बुद्धू गड़रिया अपनी भेड़ों को उधर से लेकर गुज़रने लगा तो महतो को इतना ग़ुस्सा आया कि उसने हाथ छोड़ दिया और बुद्धू की भेड़ों पर ताबड़-तोड़ लाठियाँ बरसा दीं। बदले में एक रात बुद्धू ने महतों के खेतों में आग लगा दी। दोनों के बीच पनपी यह रंजिश इतनी लंबी चली कि एक दिन वह भी आया जब दो वक़्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ा।

    सिपाही को अपनी लाल पगड़ी पर, औरत को अपने गहनों पर, और तबीब को अपने पास बैठे हुए मरीज़ों पर जो नाज़ होता है वही किसान को अपने लहलहाते हुए खेत देखकर होता है। झींगुर अपने ऊख के खेतों को देखता तो उस पर नशा सा छा जाता है। तीन बीघे ज़मीन थी। उसके छः सौ तो आप ही मिल जाएंगे, और जो कहीं भगवान ने डंडी तेज़ कर दी। (मुराद नर्ख़ से) तो फिर क्या पूछना, दोनों बैल बूढ़े हो गए। अब की नई गोईं बटेसर के मेला से ले आवेगा कहीं दो बीघे खेत और मिल गए तो लिखा लेगा। रूपयों की क्या फ़िक्र है, बनिए अभी से ख़ुशामद करने लगे थे। ऐसा कोई था जिस से उसने गांव में लड़ाई की हो। वो अपने आगे किसी को कुछ समझता ही था।

    एक रोज़ शाम के वक़्त वो अपने बेटे को गोद में लिए मटर की फलियाँ तोड़ रहा था। इतने में इसको एक भेड़ों का झुण्ड अपनी तरफ़ आता दिखाई दिया, वो अपने दिल में कहने लगा, इधर से भेड़ों के निकलने का रास्ता था, क्या खेत की मेंड पर से भेड़ों का झुण्ड नहीं जा सकता था? भेड़ों को इधर से लाने की क्या ज़रूरत? ये खेत को कुचलेंगी? चरेंगी? उसका दाम कौन देगा मालूम होता है बुद्धू गडरिया है। बच्चे को घमंड हो गया है जभी तो खेतों के बीच में से भेड़ें लिए जा रहा है। ज़रा उसकी ढिटाई तो देखो। देख रहा है कि मैं खड़ा हूँ और फिर भी भेड़ों को लौटाता नहीं। कौन मेरे साथ कभी सुलूक किया है कि मैं उसकी मरम्मत करूँ। अभी एक भेड़ अमोल मांगूँ तो पाँच रुपये सुना देगा। सारी दुनिया में चार रुपये के कम्बल बिकते हैं पर ये पाँच रुपये से कम बात नहीं करता।

    इतने में भेड़ें खेत के पास गईं। झींगुर ने ललकार कर कहा, अरे ये भेड़ें कहाँ लिए आते हो। कुछ सूझता है कि नहीं?

    बुद्धू इन्किसार से बोला, महतो, डांड पर से निकल जाएँगी, घूम कर जाऊँगा तो कोस भर का चक्कर पड़ेगा। झींगुर, तो तुम्हारा चक्कर बचाने के लिए मैं अपना खेत क्यों कुचलाऊँ, डांड ही पर से ले जाना है तो और खेतों के डांडे से क्यों नहीं ले गए? क्या मुझे कोई चमार-भंगी समझ लिया है या रुपये का घमंड हो गया है? लौटाओ उनको। बुद्धू, महतो आज निकल जाने दो। फिर कभी इधर से आऊँ तो जो डन्द (सज़ा) चाहे देना।

    झींगुर, कह दिया कि लौटाओ उन्हें। अगर एक भेड़ भी मेंड पर चढ़ आई तुम्हारी कसल नहीं।

    बुद्धू, महतो, अगर तुम्हारी एक बेल भी किसी भेड़ के पैरों के नीचे जाए तो मुझे बैठा कर सौ गालियां देना।

    बुद्धू बातें तो बड़ी लजाजत से कर रहा था। मगर लौटने में अपनी कस्र-ए-शान समझता था। उसने दिल में सोचा कि इसी तरह ज़रा ज़रा सी धमकियों पर भेड़ों को लौटाने लगा तो फिर मैं भेड़ें चरा चुका, आज लौट जाऊँगा तो कल को कहीं निकलने का रास्ता ही मिलेगा। सभी रोअब जमाने लगेंगे।

    बुद्धू भी घर का मज़बूत आदमी था। बारह कौड़ी भेड़ें थीं। उन्हें खेतों में बिठाने के लिए फ़ी शब 8 /कौड़ी मज़दूरी मिलती थी। इस के इलावा दूध भी फ़रोख़्त करता था। ऊन के कम्बल बनाता था। सोचने लगा ये इतने गर्म हो रहे हैं, मेरा कर ही क्या लेंगे? कुछ उनका बैल तो हूँ नहीं, भेड़ों ने जो हरी पत्तियां देखीं तो बेकल हो गईं। खेत में घुस पड़ीं। बुद्धू उन्हें डंडों से मार मार कर खेत के किनारे से हटाता था और वो इधर उधर से निकल कर खेत में जा घुसती थीं। हैंगड़े ने गर्म हो कर कहा, तुम मुझे हैकड़ी जताने चले हो तो तुम्हारी हैकड़ी भुला दूंगा।

    बुद्धू, तुम्हें देखकर भड़कती हैं, तुम हट जाओ तो मैं सब निकाल ले जाऊं।

    झींगुर ने लड़के को गोदी से उतार दिया और अपना डंडा सँभाल कर भेड़ों के सर पर गया। धोबी भी इतनी बे-दर्दी से अपने गधों को मारता होगा, किसी भेड़ की टांग टूटी किसी की कमर टूटी। सब ने ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया। बुद्धू ख़ामोश खड़ा हुआ अपनी फ़ौज की तबाही, अपनी आँखों से देखता रहा, वो भेड़ों को हाँकता था, और झींगुर से कुछ कहता था। बस खड़ा हुआ तमाशा देखता रहा। दो मिनट में झींगुर ने उस फ़ौज को अपनी हैवानी ताक़त से मार भगाया। भेड़ों की फ़ौज को तबाह कर के फ़ातिहाना ग़ुरूर से बोला, अब सीधे चले जाओ, फिर इधर से आने का नाम लेना।

    बुद्धू ने चोट खाई हुई भेड़ों की तरफ़ देखते हुए कहा, झींगुर, तुमने ये अच्छा काम नहीं किया, पछताओगे।

    केले का कांटा भी उतना आसान नहीं, जितना किसान से बदला लेना। उनकी सारी कमाई खेतों में रहती है या खलियानों में, कितनी अर्ज़ी-ओ-समावी आफ़ात के बाद अनाज घर में आता है और जो कहीं आफ़ात के साथ अदावत ने मेल कर लिया तो बेचारा किसान का नहीं रहता। झींगुर ने घर आकर और लोगों से इस लड़ाई का हाल कहा तो लोग समझाने लगे, झींगुर तुमने बड़ा बुरा किया। जान कर अंजान बनते हो। बुद्धू को जानते नहीं कि कितना झगड़ालू आदमी है। अभी कुछ नहीं बिगड़ा, जाकर उसे मना लो, नहीं तो तुम्हारे साथ गांव पर आफ़त जाएगी। झींगुर के समझ में बात आई, पछताने लगा कि मैंने कहाँ से कहाँ उसे रोका। अगर भेड़ें थोड़ा बहुत चर ही जातीं तो कौन मैं उजड़ा जाता था। असल में हम किसानों का भला दब कर रहने ही में है, भगवान को भी हमार सर उठा कर चलना अच्छा नहीं लगता, जी तो बुद्धू के यहां जाने को चाहता था, मगर दूसरों के इसरार से मजबूर हो कर चला। अगहन का महीना था। कोहरा पड़ रहा था। चारों तरफ़ तारीकी छाई हुई थी। गांव से बाहर निकला ही था कि यकायक अपने ऊख के खेत की तरफ़ आग के शोले देखकर चौंक पड़ा, दिल धड़कने लगा। खेत में आग लगी हुई थी बे-तहाशा दौड़ा। मनाता जाता था कि मेरे खेत में हो। मगर ज्यों ज्यों क़रीब पहुंचता था, ये पुर-उम्मीद वहम दूर होता जाता था। वो ग़ज़ब ही हो गया जिसे रोकने के लिए वो घर से चला था। हथयारे ने आग लगा दी और मेरे पीछे सारे गांव को चौपट कर दिया। उसे ऐसा मालूम होता था कि वो खेत आज बहुत क़रीब गया है गोया दरमियान के पर्ती खेतों का वुजूद ही नहीं रहा, आख़िर जब वो खेत पर पहुंचा तो आग ख़ूब भड़क चुकी थी। झींगुर ने हाय हाय करना शुरू किया। गांव के लोग दौड़ पड़े और खेतों से अरहर के पौदे उखाड़ कर आग को पीटने लगे। इन्सान-ओ-आतिश की बाहमी जंग का मंज़र पेश हो गया। एक पहर तक कोहराम बरपा रहा। कभी एक फ़रीक़ ग़ालिब आता, कभी दूसरा। आतिशी जाँबाज़ मर कर जी उठते थे और दोगुनी ताक़त से लड़ाई में मुस्तइद हो कर हथियार चलाने लगते थे। इन्सानी फ़ौज में जिस सिपाही की मुस्तैदी सबसे ज़्यादा रौशन थी वो बुद्धू था। बुद्धू कमर तक धोती चढ़ाए और जान को हथेली पर रखे आग के शोलों में कूद पड़ता था, और दुश्मनों को शिकस्त देते हुए बाल बाल बच कर निकल आता था। बिल-आख़िर इन्सानी फ़ौज फ़तहयाब हुई मगर ऐसी फ़तह जिस पर शिकस्त भी ख़ंदाज़न थी, गांव भर की ऊख जल कर राख हो गई और ऊख के साथ सारी तमन्नाएं भी जल भुन गईं।

    आग किसने लगाई, ये खुला हुआ राज़ था, मगर किसी को कहने की हिम्मत थी कोई सबूत नहीं और बिला सबूत के बहस की औक़ात ही क्या? झींगुर को घर से निकलना मुहाल हो गया। जिधर जाता तान-ओ-तशनीअ की बौछार होती। लोग ऐलानिया कहते कि ये आग तुमने लगवाई, तुम्हीं ने हमारा सत्यानास किया। तुम्हीं मारे घमंड के धरती पर पांव रखते थे, आप के आप गए और अपने साथ गांव भर को भी ले डूबे, बुद्धू को छेड़ते तो आज क्यों ये दिन देखना पड़ता? झींगुर को अपनी बर्बादी का इतना रंज था जितना उन जली कटी बातों का। तमाम दिन घर में बैठा रहता। पूस का महीना आया। जहां सारी रात कोल्हू चला करते थे वहां सन्नाटा था। जाड़ों के सबब लोग शाम ही से किवांड़ बंद कर के पड़ रहते और झींगुर को कोसते थे। राख और भी तकलीफ़-देह था। ऊख सिर्फ़ दौलत देने वाली नहीं बल्कि किसानों के लिए ज़िंदगी बख़्श भी है, इसी के सहारे किसानों का जाड़ा पार होता है। गर्म रस पीते हैं, ऊख की पत्तियां जलाते हैं और उसके अगोड़े जानवरों को खिलाते हैं। गांव के सारे कुत्ते जो रात को भट्टियों की राख में सोया करते थे, सर्दी से मर गये। कितने ही जानवर चारे की क़िल्लत से ख़त्म हो गए। सर्दी की ज़्यादती हुई और कल गांव खांसी-ख़ार में मुब्तिला हो गया और ये सारी मुसीबत झींगुर की करनी थी। अभागे हथयारे झींगुर की।

    झींगुर ने सोचते सोचते क़सद कर लिया कि बुद्धू की हालत भी अपनी ही सी बनाऊँगा। इस के कारण मेरा सत्यानास हो गया, और वो चैन की बाँसुरी बजा रहा है, मैं उसका सत्यानास कर दूंगा।

    जिस रोज़ उस मोहलिक इनाद की इब्तिदा हुई उसी रोज़ से बुद्धू ने उस तरफ़ आना तर्क कर दिया था। झींगुर ने उस से रब्त-ज़ब्त बढ़ाना शुरू किया। वो बुद्धू को दिखलाना चाहता था कि तुम पर मुझे ज़रा भी शक नहीं है। एक रोज़ कम्बल लेने के बहाने गया, फिर दूध लेने के बहाने जाने लगा। बुद्धू उसकी ख़ूब आव-भगत करता। चिलम तो आदमी दुश्मन को भी पिला देता है, वो उसे बिला दूध और शर्बत पिलाए जाने देता। झींगुर आज कल एक सन लपेटने वाली मशीन में मज़दूरी करने जाया करता था। अक्सर कई रोज़ की उज्रत यकजाई मिलती थी। बुद्धू ही की मदद से झींगुर का रोज़ाना ख़र्च चलता था। बस झींगुर ने ख़ूब मेल-जोल पैदा कर लिया। एक रोज़ बुद्धू ने पूछा, क्यों झींगुर, अगर अपनी ऊख जलाने वाले को पा जाओ तो क्या करो, सच कहना।

    झींगुर ने मतानत से कहा, मैं उससे कहूं कि भय्या तुमने जो कुछ किया बहुत अच्छा किया। मेरा घमंड तो तोड़ दिया, मुझे आदमी बना दिया।

    बुद्धू, मैं जो तुम्हारी जगह होता तो उसका घर जलाए बग़ैर मानता।

    झींगुर, चार दिन की जिंदगानी में बैर बढ़ाने से कौन फ़ायदा? मैं तो बर्बाद ही हुआ अब उसे बर्बाद कर के क्या पाऊँगा?

    बुद्धू, बस यही तो आदमी का धर्म है। मगर भाई क्रोध (गु़स्सा) के बस में हो कर बुद्धि उल्टी हो जाती है।

    फागुन का महीना था। किसान ऊख बोने के लिए खेतों को तैयार कर रहे थे, बुद्धू का बाज़ार गर्म था। भेड़ों की लूट मची हुई थी। दो-चार आदमी रोज़ाना दरवाज़े पर खड़े ख़ुशामद किया करते। बुद्धू किसी से सीधे मुँह बात करता। भेड़ बिठाने की उजरत दोगुनी कर दी थी। अगर कोई एतराज़ करता तो बे-लाग कहता, भय्या भेड़ें तुम्हारे गले तो नहीं लगाता हूँ। जी चाहे तो बठलाओ लेकिन मैं ने जो कह दिया है, इस से एक कौड़ी भी कम नहीं हो सकती। ग़रज़ थी, लोग उसकी बे-मरव्वती पर भी उसे घेरे ही रहते थे, जैसे पण्डे किसी जातरी के पीछे पड़े हों।

    लक्ष्मी का जिस्म तो बहुत बड़ा नहीं और वो भी वक़्त के मुताबिक़ छोटा बड़ा होता रहता है। हत्ता कि कभी वो अपनी क़द-ओ-क़ामत को समेट कर चंद काग़ज़ी अलफ़ाज़ ही में छुपा लेती है, कभी कभी तो इन्सान की ज़बान पर जा बैठती है, जिस्म ग़ायब हो जाता है। मगर उनके रहने के लिए वसीअ जगह की ज़रूरत होती है। वो आईं और घर बढ़ने लगा, छोटे छोटे मकान में उनसे नहीं रहा जाता। बुद्धू का घर भी बढ़ने लगा। दरवाज़े पर बरामदे की तामीर हुई, दो की जगह छः कोठरियाँ बनवाई गईं। यूं कहिए कि मकान अज़ सर-ए-नौ बनने लगा। किसी किसान से लकड़ी मांगी, किसी से खपरैल क़ा आँवा लगाने के लिए उपले, किसी से बाँस और किसी से सरकंडे। दीवार बनाने की उजरत देनी पड़ी। वो भी नक़द नहीं, भेड़ के बच्चों की शक्ल में, लक्ष्मी का ये इक़बाल है, सारा काम बेगार में हो गया, मुफ़्त में अच्छा-ख़ासा मकान तैयार हो गया, दाख़िला के जश्न की तैयारियाँ होने लगीं।

    उधर झींगुर दिन-भर मज़दूरी करता तो कहीं आधा अनाज मिलता। बुद्धू के घर में कंचन बरस रहा था। झींगुर जलता था तो क्या बुरा करता था? ये अन्याय किस से सहा जाएगा।

    एक रोज़ वो टहलता हुआ चमारों के टोले की तरफ़ चला गया। हरिहर को पुकारा, हरिहर ने आकर राम-राम की और चिलम भरी, दोनों पीने लगे। ये चमारों का मुखिया बड़ा बदमाश आदमी था। सब किसान उससे थर-थर काँपते थे।

    झींगुर ने चिलम पीते पीते कहा, आज कल भाग वॉग नहीं होता क्या? कहो, तुम्हारी आज कल कैसी कटती है?

    झींगुर, क्या कटती है। नकटा जिया बुरे हाल? दिन-भर कारख़ाने में मजूरी करते हैं तो चूल्हा जलता है। चांदी तो आजकल बुद्धू की है। रखने की जगह नहीं मिलती। नया घर बना। भेड़ें और ली हैं। अब गृह प्रवेश (दाख़िल-ए-मकान) की धूम है। सातों गांव में न्योतने की सुपारी जाएगी।

    हरिहर लछमी मय्या आती हैं तो आदमी की आँखों में सील (मुरव्वत) जाती है। मगर उसको देखो धरती पर पाँव नहीं धरता। बोलता है तो ऐंठ कर बोलता है।

    झींगुर, क्यों ऐंठे? इस गांव में कौन है उसके टक्कर का? पर यार ये अन्याय तो नहीं देखा जाता। जब भगवान दें तो सर झुका कर चलना चाहिए ये नहीं कि अपने बराबर किसी को समझे ही नहीं। इसको मोइंग सुनता हूँ तो बदन में आग लग जाती है अक़्ल का बानी आज का सेठ। चला है हमीं से अकड़ने अभी लंगोटी लगाए खेतों में कव्वे हाँका करता था, आज उसका आसमान में दिया जलता है।

    हरिहर, कहो तो कुछ जोग जाग करूँ।

    झींगुर, क्या करोगे? इसी डर से तो वो गाय भैंस नहीं पालता।

    हरिहर, भेड़ें तो हैं।

    झींगुर, क्या बगुला मारे पखना हाथ।

    हरिहर, फिर तुम्हीं सोचो।

    झींगुर, ऐसी जुगत निकालो कि फिर पनपने पाए।

    इसके बाद दोनों में काना-फूसी होने लगी। ये एक अजीब बात है कि नेकी में जितनी नफ़रत होती है, बदी में उतनी ही रक़्बत। आलिम आलिम को देखकर, साधू साधू को देखकर, शायर शायर को देख कर जलता है। एक दूसरे की सूरत नहीं देखना चाहता। मगर जुआरी जुआरी को देखकर, शराबी शराबी को देखकर, चोर चोर को देखकर, हमदर्दी जताता है, मदद करता है। एक पंडित जी अगर अंधेरे में ठोकर खाकर गिर पड़ें तो दूसरे पंडित जी उन्हें उठाने के बजाय दो ठोकरें और लगाए कि वो फिर उठ ही सकें, मगर एक चोर पर आफ़त आते देखकर दूसरा चोर उसकी आड़ कर लेता है। बदी से सब नफ़रत करते हैं इसलिए नेकों में मुख़ालिफ़त होती है। चोर को मार कर चोर क्या पाएगा? नफ़रत आलिम की तौहीन कर के आलिम क्या पाएगा? नेक-नामी।

    झींगुर और हरिहर ने सलाह कर ली। साज़िश की तदबीर सोची गई उसका नक़्शा, वक़्त और तरीक़ा तय किया गया। झींगुर चला तो अकड़ा जाता था। मार लिया दुश्मन को अब तू कहाँ जाता है।

    दूसरे रोज़ झींगुर काम पर जाने लगा तो पहले बुद्धू के घर पहुंचा। बुद्धू ने पूछा, क्यों आज नहीं गये? झींगुर, जा तो रहा हूँ, तुम से यही कहने आया था कि मेरी बछिया को अपनी भेड़ों के साथ क्यों नहीं चरा दिया करते? बेचारी खूंटे पर बंधी मरी जाती है। घास, चारा, क्या खिलावें?

    बुद्धू, भय्या मैं गाय भैंस नहीं रखता। चमारों को जानते हूँ ये एक ही हत्यारे होते हैं। उसी हरिहर ने मेरी दो गायें मार डालीं। जाने क्या खिला देता है। तब से कान पकड़े कि अब गाय भैंस पालूँगा। लेकिन तुम्हारी एक ही बछिया है, उसका कोई क्या करेगा? जब चाहो पहुंचा दो।

    ये कह कर बुद्धू अपने मकान वाली दावत का सामान उसे दिखाने लगा। घी, शक्कर, मैदा, तरकारी सब मंगा कर रखा था। सिर्फ़ सत नरायन की कथा की देर थी। झींगुर की आँखें खुल गईं। ऐसी तैयारी उसने ख़ुद कभी की थी और किसी को करते देखी थी। मज़दूरी कर घर को लौटा तो सबसे पहला काम जो उसने किया वो अपनी बछिया को बुद्धू के घर पहुंचाना था। उसी रात को बुद्धू के यहां सत नरायन की कथा हुई ब्रम्ह भोज भी किया गया, सारी रात ब्रह्मणों की तवाज़ो तकरीम में गुज़री। भेड़ों के गल्ला में जाने का मौक़ा ही मिला। अलस्सुब्ह खा कर उठा ही था, क्यूंकि रात का खाना सुब्ह मिला, कि एक आदमी ने आकर ख़बर दी, बुद्धू तुम यहां बैठे हो। उधर भेड़ों में बछिया मरी पड़ी है। भले आदमी, उसकी पघिया भी नहीं खोली थी।

    बुद्धू ने सुना और गोया ठोकर लग गई। झींगुर भी खाना खाकर वहीं बैठा था। बोला, हाय मेरी बछिया। चलो ज़रा देखूं तो, मैंने तो पघिया नहीं लगाई थी। उसे भेड़ों में पहुंचा कर अपने घर चला गया था। तुमने ये पघिया कब लगा दी।

    बुद्धू, भगवान जाने जो मैंने उसकी पघिया देखी भी हो, मैं तो तब से भेड़ों में गया ही नहीं।

    झींगुर, जाते तो पघिया कौन लगा देता? गए होंगे, याद आती होगी।

    एक ब्रहमन, मरी तो भेड़ों ही में ना? दुनिया तो यही कहेगी कि बुद्धू की ग़फ़लत से उसकी मौत हुई चाहे पघिया किसी की हो।

    हरिहर, मैं ने कल साँझ को उन्हें भेड़ों में बछिया को बाँधते देखा था।

    बुद्धू, मुझे?

    हरिहर, तुम नहीं लाठी कंधे पर रखे, बछिया को बांध रहे थे?

    बुद्धू, बड़ा सच्चा है तू, तू ने मुझे बछिया को बाँधते देखा था?

    हरिहर, तो मुझ पर काहे को बिगड़ते हो भाई? तुमने नहीं बाँधी तो नहीं सही।

    ब्रहमन, इसका निश्चय करना होगा, गौ हत्या को प्राश्चित करना पड़ेगा, कुछ हंसी ठट्ठा है।

    झींगुर, महाराज, कुछ जान-बूझ कर तो बाँधी नहीं।

    ब्रहमन, इस से क्या होता? हत्या इसी तरह लगती है, कोई गऊ को मारने नहीं जाता।

    झींगुर, हाँ, गऊवों को खोलना बांधना है तो जोखिम का काम।

    ब्रहमन, शास्त्रों में उसे महापाप कहा है। गऊ की हत्या ब्रह्मन की हत्या से कम नहीं।

    झींगुर, हाँ, फिर गऊ तो ठहरी ही इसी से उनका मान (और) है। जो माता सो गऊ। लेकिन महाराज, चूक हो गई। कुछ ऐसा कीजिए कि बेचारा थोड़े में निपट जाये।

    बुद्धू खड़ा सुन रहा था कि ख़्वाह-मख़्वाह मेरे सर गऊ हत्या का इल्ज़ाम थोपा जा रहा है। झींगुर की चालाकी भी समझ रहा था, मैं लाख कहूं कि मैंने बछिया नहीं बाँधी पर मानेगा कौन? लोग यही कहेंगे कि प्राश्चित से बचने के लिए ऐसा कह रहा है।

    ब्रहमन देवता का भी उसके प्राश्चित कराने में फ़ायदा था। भला ऐसे मौक़े पर कब चूकने वाले थे। नतीजा ये हुआ कि बुद्धू को हत्या लग गई। ब्रह्मन भी उससे जल रहे थे। कसर निकालने का मौक़ा मिला। तीन माह तक भीक मांगने की सज़ा दी गई। फिर सात तीर्थों की यात्रा, इस पर पाँच सौ ब्रह्मणों का खिलाना और पाँच गायों का दान। बुद्धू ने सुना तो होश उड़ गए। रोने पीटने लगा, तो सज़ा घटा कर दो माह कर दी गई। इसके सिवा कोई रिआयत हो सकी। कहीं 'अपील ना कहीं फ़र्याद' बेचारे को ये सज़ा क़ुबूल करनी पड़ी।

    बुद्धू ने भेड़ें ईश्वर को सौंपीं। लड़के छोटे थे। औरत अकेली क्या करती। ग़रीब जाकर दरवाज़ों पर खड़ा होता और मुँह छुपाते हुए कहता गाय की बाछी देव 'बन-बास, भीक तो मिल जाती मगर भीक के साथ दो-चार सख़्त और तौहीन-आमेज़ फ़िक़रे भी सुनने को पड़ते। दिन को जो कुछ पाता उसी को शाम के वक़्त किसी दरख़्त के नीचे पका कर खा लेता और वहीं पर रहता। तकलीफ़ की तो उसको परवाह थी। भेड़ों के साथ तमाम दिन चलता ही था, दरख़्त के नीचे सोता ही था, खाना भी उससे कुछ बेहतर ही मिलता था मगर शर्म थी भीक मांगने की। ख़ुसूसन जब कोई बद-मिज़ाज औरत ये ताने देती कि रोटी कमाने का अच्छा ढंग निकाला है तो उसे दिली क़लक़ होता था मगर करे क्या!

    दो माह बाद वो घर वापस आया। बाल बढ़े हुए थे, कमज़ोर इस क़दर कि गोया साठ साल का बूढ़ा हो। तीर्थ जाने के लिए रूपयों का बंदोबस्त करना था। गुदड़ियों को कौन महाजन क़र्ज़ दे। भेड़ों का भरोसा क्या? कभी कभी वबा फैलती है तो रात भर में गल्ला का गल्ला साफ़ हो जाता है। उस पर जेठ का महीना जब भेड़ों से कोई आमदनी होने की उम्मीद नहीं एक तेली राज़ी भी हुआ तो 2% फ़ी रुपया सूद पर आठ माह में सूद असल के बराबर हो जाएगा। यहाँ क़र्ज़ लेने की हिम्मत पड़ी। इधर दो महीनों में कितनी ही भेड़ें चोरी चली गईं। लड़के चराने ले जाते थे, दूसरे गांव वाले चुपके से दो एक भेड़ें किसी खेत या घर में छुपा देते और बाद को मार कर खा जाते, लड़के बेचारे एक तो पकड़ सकते और जो कुछ भी लेते तो लड़ें कैसे। सारा गांव एक हो जाता था। एक माह में भेड़ें आधी भी रह जाएँगी। बड़ा मुश्किल मसअला था। मजबूरन बुद्धू ने एक क़स्साब को बुलाया और सब भेड़ें उसके हाथ फ़रोख़्त कर डालीं, पाँच सौ रुपया है, उनमें से दो सौ लेकर वो तीर्थ यात्रा करने गया। बक़िया रुपया ब्रम्ह भोज के लिए छोड़ गया।

    बुद्धू के जाने पर उसके मकान में दो बार नक़्ब हुई मगर ये ख़ैरियत हुई कि जाग पड़ने की वजह से रुपये बच गए।

    सावन का महीना था, चारों तरफ़ हरियाली फैली हुई थी। झींगुर के बैल थे, खेत बटाई पर दे दिए थे। बुद्धू प्राश्चित से फ़ारिग़ हो गया था और इसके साथ ही माया के फंदे से भी आज़ाद हो गया था। झींगुर के पास कुछ था, बुद्धू के पास। कौन किस से जलता और किस लिए जलता?

    सन की कल बंद हो जाने के सबब झींगुर अब बैल-दारी का काम करता था। शहर में एक बड़ा धर्मशाला बन रहा था। हज़ारों मज़दूर काम करते थे। झींगुर भी उन्हीं में था, सातवें रोज़ मज़दूरी के पैसे लेकर घर आता था और रात-भर रह कर सवेरे फिर चला जाता था।

    बुद्धू भी मज़दूरी की तलाश में यहीं पहुंचा। जमादार ने देखा कि कमज़ोर आदमी है। सख़्त काम तो इस से हो सकेगा। कारीगरों का गारा पहुंचाने के लिए रख लिया, बुद्धू सर पर तसला रखे गारा लेने गया, तो झींगुर को देखा, राम-राम हुई। झींगुर ने गारा भर दिया। बुद्धू ने उठा लिया। दिन-भर दोनों अपना काम करते रहे।

    शाम को झींगुर ने पूछा, कुछ बनाओगे ना?

    बुद्धू, नहीं तो खाऊंगा क्या?

    झींगुर, मैं तो एक जून जेवना कर लेता हूँ। इस जूं सत्तू खाता हूँ को कौन झंझट करे?

    बुद्धू, इधर उधर लकड़ियाँ पड़ी हुई हैं, बटोर लाओ। आटा घर से लेता आया हूँ, घर ही में पिसवा लिया था। यहां तो बड़ा महंगा मिलता है। इसी पत्थर वाली चट्टान पर आटा गूँधे लेता हूँ। तुम तो मेरा बनाया खाओगे नहीं। इसलिए तुम्हीं रोटियाँ सेंको मैं रोटियाँ बनाता जाऊँगा।

    झींगुर, तवा भी नहीं है।

    बुद्धू , तवे बहुत हैं यही गारे का तसला माँजे लेता हूँ।

    आग जली, आटा गूँधा गया। झींगुर ने कच्ची पक्की रोटियाँ तैयारी कीं। बुद्धू पानी लाया। दोनों ने नमक मिर्च के साथ रोटियाँ खाईं। फिर चिलम भरी गई दोनों पत्थर की सिलों पर लेटे और चिलम पीने लगे।

    बुद्धू ने कहा, तुम्हारी ऊख में आग मैं ने लगाई थी।

    झींगुर ने मज़ाक़-आमेज़ लहजे में कहा, जानता हूँ।

    ज़रा देर बाद झींगुर बोला, बछिया मैंने ही बाँधी थी और हरिहर ने उसे कुछ खिला दिया था। बुद्धू ने भी इसी लहजे में कहा, जानता हूँ।

    फिर दोनों सो गए।

    RECITATIONS

    जावेद नसीम

    जावेद नसीम,

    जावेद नसीम

    Raah-e-Nijaat by Munshi Premchand जावेद नसीम

    स्रोत:

    Prem Chand Ke Sau Afsane (Pg. 310)

    • लेखक: प्रेमचंद
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए