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समुंदर की चोरी

आसिफ़ फर्ऱुखी

समुंदर की चोरी

आसिफ़ फर्ऱुखी

MORE BYआसिफ़ फर्ऱुखी

    अभी वक़्त था। पानी और आसमान के बीच में रौशनी की वो पहली, कच्ची-पक्की, थरथराती हुई किरन फूटने भी पाई थी कि शह्र-वालों ने देखा समुंद्र चोरी हो चुका है। दिन निकला था समुंद्र के किनारे शह्र ने जागना शुरू किया था। रात का अंधेरा पूरी तरह सिमटा भी नहीं था कि अंदाज़ा होने लगा, ऐसा हो चुका है। मल्गजे सायों में लिपटी दो और तीन मंज़िला फ़्लैटों की क़तार और उसकी हद-बंदी करने वाली दो-रूया सड़क के पार जहाँ दूसरी तरफ़ समुंद्र हुआ करता था, दूर तक फैला हुआ नीला सफ़ेद समुंद्र, वहाँ सब ख़ाली पड़ा था। समुंद्र की जगह बड़ा सारा गढ़ा था और चटियल ज़मीन जिस पर झाड़ियाँ थीं गाड़ी के टायरों के निशान बल्कि सतह जगह-जगह से तड़ख़ कर टूटी हुई थी, जिस तरह बहुत देर तक पानी में भीगे रहने के बाद डूबी मिट्टी की सी हालत हो जाती है।

    बाक़ी सारे मंज़र की जुज़ईयात वही थीं। जब तक ग़ौर से देखा जाए इसमें चौंका देने वाली कोई बात नज़र नहीं आती थी। दिन अपने इसी मामूल के साथ आहिस्ता-आहिस्ता निकलना शुरू हो चुका था, इसमें पहले-पहल समुंद्र की कमी महसूस ही नहीं हुई। इसलिए शायद किसी ने कुछ किया भी नहीं।

    रातें रंगीन करने वाले मोटरों में वापिस आने लगे थे और सेहत का मिराक़ करने वाले, सुब्ह-सवेरे भागने दौड़ने के लिए घर छोड़ने वाले घरों के दरवाज़े खोलने लगे थे। खुले हुए ट्रकों और खड़खड़ाती साईकलों पर बर्तन लादे, दूध वाले अपने लगे बंधे ठिकानों पर दूध पहुँचाने के लिए पैडल मारते हुए निकल खड़े हुए थे। धुन के पक्के उन लोगों में से एक-आध की नज़र पड़ गई होगी तो उसने सोचा होगा, आज सुबह कुहर बहुत है, समुंद्र धुंद में लिपटा हुआ है। शह्र में सर्दी बढ़ जाएगी जब तक धूप निकले, ये सोच कर उसने मफ़लर या चादर में हाथ और मुंह छिपा लिए होंगे। एक तरफ़ पहुँचने की जल्दी हो और सर, मुँह लपेट लिए जाएँ तो समुंद्र को नजर अंदाज़ करना मुम्किन भी हो जाता है। समुंद्र जो शह्र के सामने पाँव पसारे रेत पर औंधा पड़ा हुआ था और आनन फ़ानन नज़रों के सामने से ग़ायब हो गया

    समुंद्र आँखों से ओझल, शह्र का कोई एक आदमी सुबह होते होते चौंके तो चौंके। रौशनी फैलने लगी तो समुंद्र का वहाँ होना, दिखाई देने लगा। लेकिन दिखाई देने से पहले आप उसे सुन सकते थे। उस पूरे मंज़र में सबसे ज़्यादा अखरने, चुभने वाली चीज़ ख़ामोशी थी। इतना गहरा सन्नाटा जिसकी अपनी एक आवाज़ होती है। मुकम्मल ख़ामोशी, मानो सूई गिरने की आवाज़ तक आए। ये ख़ामोशी किसी अंदेशे में पल रही थी। सीने में धड़-धड़ धड़कता हुआ एहसास कि वो हो चुका है जो होना नहीं चाहिए था... हाँ, तब अंदाज़ा होता कि लहरों की आवाज़ नहीं है। इसलिए ख़ामोशी है।

    समुंद्र में ज्वार भाटे का मामूल, छप-छप, छपा-छप, लहरों के उठने, बढ़ने, फैलने, रेत पर बिखरने की कभी हल्की कभी ऊँची और मुसलसल आवाज़ जो हज़ारों साल से जारी है, घड़ी की टिक-टिक की तरह, वक़्त गुज़रने की पैमाइश करती हुई, शह्र की दीवारों को नमक से काटती हुई, भीगी हवाओं में ढलती हुई, वो अब वहाँ नहीं थी। उसकी जगह ख़ामोशी, अटूट ख़ामोशी, अथाह सन्नाटा और समुंद्र दूर दूर तक नहीं। कहाँ चला गया समुंद्र? ऐसी चीज़ भी नहीं कि रातों रात ग़ायब हो जाएगी, अभी कल रात तक तो था, लहरों की उछाल पर इक्का दुक्का नहाने वाले नज़र रहे थे और इसके मुतवाज़ी, गीली रेत पर क़दमों से छपाके करने वाले चल रहे थे, दौड़ रहे थे। फिर कया हुआ, भाप बन कर तो नहीं उड़ सकता, आख़िर को समुंद्र है। गुज़रने वाले अब रुकने लगे थे। इक्का दुक्का टोलियों में खड़े हो कर बातें करने लगे थे।

    “समुंद्र को चोरी कर लिया गया है!“ उनमें से किसी एक ने जोश से काँपती हुई आवाज़ में कहा और लोगों में तशवीश ये ख़बर बन कर उमड़ने लगी। जंगली कबूतरों का एक झुंड फ़्लैटों के दरमयान ख़ाली ज़मीन पर उतरा। बीमारी से शिफ़ायाबी की मिन्नत मानने वाले अक्सर उस तरफ़ बाजरा बिखेर देते थे कि बेज़बान परिंदे दुआ देंगे तो उसमें असर होगा।

    एक नशेबी टुकड़े में एक कुत्ता दुम और टाँगें समेट कर चुप-चाप बैठा हुआ था। आसमान की कलोंच में नील मिलते-मिलते बढ़ गया था। नील में नील। जहाँ समुंद्र होना चाहिए था,वहाँ समुंद्र नहीं था। एक आदमी वहाँ रुक कर खड़ा हो गया और उफ़ुक़ की तरफ़ देखने लगा। वहाँ धूप बिलकुल नहीं थी, फिर उसने आँखों पर हाथों से छज्जा बना लिया था। जैसे आँखों पर बहुत ज़ोर डाल कर उस तरफ़ देख रहा हो और कोशिश के बावजूद साफ़ नज़र रहा हो के वहाँ क्या है। उसकी देखा देखी वहाँ और लोग फ़ौरन जमा नहीं हुए। इसलिए कि जिन दूसरे लोगों ने उस आदमी को देखा होगा वो समझ गए होंगे कि ये बहुत पुरानी तरकीब है चलते-चलते लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने की, मसरूफ़ सड़क के साथ कहीं खड़े हो जाओ और शफ़्फ़ाफ़, नीलगूँ आसमान की तरफ़ उंगली उठा कर इशारे करो, आँखों पर हाथों से छज्जा बना कर देखो और मुँह ही मुँह में बुदबुदाने लगो, ज़रा देर में ठठ का ठठ लग जाएगा। सब वही देखने की कोशिश करने लगेंगे जो तुम ज़ाहिर कर रहे हो कि देख रहे हो हालाँकि वहाँ कुछ भी नहीं है और जो नहीं है, उसे तुम कैसे देख सकते हो?

    बहुत से लोग जब जमा हो जाएँ तो तुम हाथ झाड़कर मुस्कुराते हुए वहाँ से आगे बढ़ जाओ, जैसे कुछ भी नहीं हुआ और वाक़ई कुछ हुआ भी नहीं। लेकिन वो आदमी वहाँ खड़ा रहा और उसके बाद एक और, उसके बाद एक और आदमी... समुंद्र किसी को नज़र नहीं आया।

    तब उनमें से एक पुकार उठा, “कहाँ गया समुंद्र।”

    उसकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया।

    “समुंद्र कहाँ गया...“ उसने दुबारा पुकारा...

    जवाब देने के लिए थे ही इक्का दुक्का लोग, और कोई जवाब भी क्या देता, समुंद्र भी कहीं जा सकता है।

    उधर ही कहीं होगा, नज़र नहीं रहा... शायद इधर-उधर और देखने की ज़रूरत है। धुंद के पीछे नज़रें जमा कर, आँखों पर-ज़ोर डाल कर...

    लेकिन समुंद्र हो तो नज़र आए... वो वहाँ नहीं था... उसके ग़ायब होने पर लोगों में चेमीगोइयाँ होने लगीं।

    उनमें से जिस आदमी की आवाज़ सबसे पहले अलग सुनाई दी थी, वो अभी तक अपने ऊपर शक कर रहा था।

    “क्या हो गया? दिखाई क्यों नहीं दे रहा मुझे?“

    “वहाँ हो तो दिखाई दे...“ किसी और ने फ़ौरन झुंझलाया हुआ जवाब दिया।

    “ऐसा हो सकता है? यूं... इस तरह... अचानक... सारे का सारा समुंद्र?“ कई आवाज़ों में हैरत नुमायाँ थी।

    “वाक़ई, रातों-रात... पूरा समुंद्र...“ बाज़ आवाज़ें ताईद में बुलंद होने लगीं।

    “मगर ये नहीं हो सकता...“ एक आवाज़ में सरासर इनकार था।

    “लेकिन हो गया...“ किसी ने उसको टोक दिया।

    “ये यक़ीनन बड़ी तबाही की अलामत है...“ एक आवाज़ वाज़ेह हो कर उभरी। मुँह ही मुँह में बुदबुदाते हुए कई लोग चुप हो गए।

    “हो सकता है कि तेल के spill से ऐसा हुआ, ecological disaster या फिर जंग का असर... nuclear holocaust...” वो बीच में रुक गया। लोग उसका मुँह देखने लगे। उसने ऐनक लगाई हुई थी और उसका सर गंजा था। फिर उसके पास एक तौजीह थी... कुछ लोगों को उसकी बात क़रीन-ए-क़यास मालूम होने लगी। “यही हुआ होगा...“

    “ईरान, इसराईल... तो आख़िर जंग यहाँ तक आन पहुँची...“

    “ये तो एक एक दिन होना ही था...“ एक आदमी सबको बावर कराने लगा।

    “लेकिन ये सब आनन फ़ानन कैसे हो गया? आधी रात के बाद तक तो मैं बी-बी-सी न्यूज़ देखता रहा हूँ। इस पर तो कुछ ऐसा नहीं था...“ एक आदमी को यक़ीन करने में ताम्मुल था।

    “अब कौन सी देर लगती है?“ एक आदमी कंधे उचका रहा था। “एक सैकेण्ड के छोटे से छोटे हिस्से में तबाही दूर-दूर तक फैल सकती है...“ वो इस तरह बोल रहा था जैसे बाक़ी लोगों पर अपनी मालूमात का रौब झाड़ रहा हो। उसकी आवाज़ में मायूसी नहीं थी।

    या फिर सुनने वालों को बिलकुल महसूस नहीं हुई। वो एक टुकड़ी की सूरत में खड़े हो गए थे। वो उस जगह की तरफ़ देख रहे थे जहाँ समुंद्र को होना चाहिए था और एक दूसरे की तरफ़। दुज़दीदा निगाहों से, कुछ-कुछ शुबे के साथ, फिर तजस्सुस के तौर पर, ये अंदाज़ा लगाने के लिए अगला आदमी क्या सोच रहा है, क्या महसूस कर रहा है।

    हालाँकि इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था। सभी उस तरफ़ देख रहे थे। कुछ कुछ कह रहे थे। कुछ लोग पूछे चले जा रहे थे... उनको वहाँ खड़े देखकर वो लोग भी इधर आने लगते जो इधर से गुज़र रहे थे और समुंद्र को वहाँ पाकर रुक जाते, सरासीमा हो कर चारों तरफ़ देखने लगते, जैसे वो इधर उधर हो गया हो और ढ़ूढ़ने से मिल ही जाएगा।

    “क्या हो गया, क्या बात है?“ नए आने वाले शुरू से बात का सिरा पकड़ने की कोशिश करते।

    “कुछ... कुछ नहीं हुआ। होना क्या है?“ ऐनक वाला आदमी, जिसने आलमगीर तबाही का ख़दशा ज़ाहिर किया था, हर बार एक ही बात कहते-कहते बेज़ार गया था।

    “वहाँ कुछ हो गया है, इस तरफ़... पता नहीं चल रहा...“ ज़्यादा ज़ोर दिए जाने पर वो मुबहम सा जवाब देकर उस तरफ़ इशारा कर देता जहाँ समुंद्र की जगह ज़मीन ख़ाली पड़ी हुई थी।

    “कोई बड़ी गड़-बड़ हो गई है...” वहाँ जमा होने वाले लोगों में से कोई आदमी जवाब देकर इतना बताता जितना उस वक़्त तक उनकी समझ में आया था। इसके बाद “क्या हुआ...” और “कैसे?” के सवालों पर मुँह से च्च-च्च की आवाज़ निकाल कर अपनी ला-इल्मी ज़ाहिर करने से ज़्यादा किसी बात की ज़रूरत नहीं रहती।

    जो आदमी हाथों से आँखों पर छज्जा बनाए देख रहा था, सर हिलाता हुआ वापिस मुड़ा। उसकी क़मीस हवा में फट-फटा रही थी। उसने हाथ आगे बढ़ाया तो वो आदमी जिसने एक सवाल के जवाब में कंधे उचकाए थे, ज़रा सा उचक कर दीवार पर चढ़ गया जो सड़क के साथ साथ दूर तक खिंची हुई थी। “वहाँ कुछ भी नहीं है...” उसने इसी बात की तसदीक़ की जो सबको पता थी।

    वो ठीक कह रहा था। वहाँ कुछ भी नहीं था। रेत भी नहीं, झाड़ियाँ या पत्थर भी नहीं। ख़ाली ज़मीन, दूर तक फैली हुई, चटियल और बंजर, इतनी ख़ाली कि हैरत होने लगती और वही सवाल पलट कर ज़ह्न में दुहराने लगता... क्या हो गया, ये सब कैसे... इतना बड़ा समुंद्र है, आख़िर कहाँ ग़ायब हो गया, भाप बन कर उड़ तो नहीं सकता। कोई बच्चा तो नहीं था कि आँख-मिचोली खेलते-खेलते छिप गया... कल रात तक तो लोगों ने देखा था, इसी तरह हस्ब-ए-मामूल था।

    “समुंद्र को क्या हो गया?” बड़ी उम्र के एक आदमी से बस नहीं हुआ। उसने वो सवाल पूछ लिया जो सभी को इज़तिराब में रखे हुए था। उस आदमी की शलवार क़मीस मसले हुए थे और उसकी दाढ़ी के छिदरे बाल बढ़े हुए थे। वो बोल उठा तो जैसे च्यूंटी के अंडे हरकत में गए।

    “कहाँ चला गया, क्या हो गया?” उसने पूछा...

    कंधे उचकाने वाला आदमी जो ऐनक वाले आदमी का सहारा लेकर समुंद्र की दीवार पर चढ़ गया था, उस दीवार के ऊपर चंद क़दम चलते जाने के बाद वापिस मुड़ा और वहीं ऊपर से जवाब देने लगा, हालाँकि सवाल उससे नहीं किया गया था। “समुंद्र चोरी कर लिया गया है!”

    उसने इत्तिला देते हुए बोर्ड की तरफ़ इशारा किया जो दीवार के ऊपरी हिस्से में लगा हुआ था।

    दिन चढ़े वहाँ सन्नाटा छा जाता था, यानी जब वहाँ समुंद्र मौजूद था। सुब्ह-सवेरे समुंद्र के मुलाक़ाती रुख़सत हो जाते और दिन की धूप तेज़ होने लगती तो उसकी तपिश, सैर तफ़रीह के मक़सद से आने वालों के लिए ख़ुशगवार होती और वो उमूमन शाम गए आना पसंद करते। तब वो जगहें फिर से भरने लगतीं और वहाँ रौनक़ हो जाती, ख़ुश-तबाअ, लुत्फ़ अंदोज़ होने वाले हुजूम की भरी पूरी रौनक़ जो समुंद्र के दम-क़दम से थी, लेकिन उस वक़्त भी वहाँ लोग इकट्ठे होने लगे थे और वो सब इस तरह खड़े थे या छोटी बड़ी टोलियों में बातें कर रहे थे जैसे आस-पास के किसी मकान में मय्यत हो गई हो और महल्ले के लोग इस ख़बर के मिलते ही वहाँ इकट्ठा हो गए हों। जैसे वो सब समुंद्र का पुरसा देने आए थे।

    अब उन्हें पता चल चुका था और उनसे और लोगों को। इसलिए एक-आध नौ-वारिद को छोड़कर कोई ये नहीं पूछ रहा था कि क्या हुआ बल्कि उसके बाद का सवाल कि कैसे और किस तरह।

    इस बात का जवाब किसी को नहीं मालूम था। सिवाए उसके कि समुंद्र अब वहाँ से रुख़सत हो चुका है।

    “ख़ुदा जाने कहाँ और कैसे?” सवाल यही था और इस का जवाब किसी को मालूम नहीं था। वहाँ जमा होने वाले लोग यही बातें कर रहे थे। लोग बढ़ते जा रहे थे, लेकिन वो सब कर वही रहे थे जो उस वक़्त जमा होने वाले लोगों ने किया था जब ज़्यादा लोग जमा नहीं हुए थे, ऐसे जुमलों का तबादला कि क्या हो चुका है। इस वक़्त बोलने वाले थोड़े बहुत पहचाने जा रहे थे। वो लोग जहाँ से आए थे और जिस तरह के थे, उसी हिसाब से कर रहे थे। बातें... बातें...

    बहुत दूर तक जा रही थीं ये बातें-बातें। तीन टाँगों वाला स्टैंड इतनी सी साफ़ जगह पर जमाकर एक नौजवान ने कैमरा टिका दिया था और कोई भी जो कुछ कहना चाहता, उसके सामने आना चाहता उसके तास्सुरात रिकार्ड कर रहा था। यक़ीनन ये किसी ग़ैर मुल्की चैनल का मुक़ामी नुमाइंदा होगा।

    जो भी इस तरफ़ आता, नौजवान उस तरफ़ मुँह करके सामने ले आता कि पस मंज़र में वो ख़ाली जगह होती जहाँ पहले समुंद्र था और अब ख़ाली ज़मीन, जिस पर फ़्रीज़ किया हुआ कैमरा शॉट और उसके वाइस ओवर में आवाज़ें...

    “इस शह्र में खुली जगहों, तफ़रीह गाहों की सख़्त ज़रूरत है।” एक उम्र रसीदा साहब बोल रहे थे। उन्होंने खुले गिरेबान की क़मीस के ऊपर कोट पहना हुआ था और अपनी जची तुली अंग्रेज़ी की वजह से वो रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट लग रहे थे जिनको नौकरी पूरी करने के बाद डेवेलप्मेंट इश्यूज़ के हक़ में बात करने में महारत हासिल थी। “लैंड ग्रीबिंग यहाँ एक बाक़ायदा माफ़िया बन गई है। उसके हाथ बहुत लंबे हैं। सियासत और दौलत उसकी मदद करती हैं। ज़्यादा अफ़सोस की बात ये है कि स्टेट भी इसी ज़बरदस्ती पर यक़ीन रखता है... स्टेट ख़ुद माफ़िया में तब्दील होने लगता है और फिर दूसरों से बढ़कर इस्तेहसाल, रि-सोर्सेज़ को हड़प... ये समुंद्र तो सारे शह्र का था, किसी ख़ास तबक़े की मिल्कियत नहीं...”

    “हम कैंडल लाईट विजल करेंगे समुंद्र की याद में। हम अमन मार्च करेंगे एक ख़ातून बालों को झटक कर जोश के आलम में बोल रही थीं। उनके नाख़ुन रंगे हुए थे और लिपस्टिक का रंग दाँतों पर लग गया था। उनका लिबास कॉटन का था और दोनों बाज़ुओं में धात की चूड़ियाँ।

    भड़कदार टी शर्ट पहने हुए और स्याह चश्मा आँखों से ऊपर करके माथे पर चढ़ाए वो नौजवान एथनिक लुक रखता था।

    “ये तफ़रीहगाह से बढ़कर है। इस पर लाखों अफ़राद के रोज़गार का दार-ओ-मदार है। ये माही गीर कहाँ जाऐंगे जो समुंद्र किनारे की पुरानी बस्तियों में आबाद हैं... हुकूमत उनके लिए मुतबादिल रोज़गार का बंद-ओ-बस्त करे...” उसकी आवाज़ अहवाल-ए-वाक़ई से बढ़कर मुतालिबे की फ़ेहरिस्त में बदलने लगी।

    “ये माहौल का क़त्ल है। यहाँ मैंग्रोव के नेचुरल ज़ख़ीरे ख़त्म हो जाएँगे... सारी वाइल्ड लाइफ़... बहुत नाज़ुक सा माहौलियाती तवाज़ुन है उनके और इन्सानों के दरमयान। एक तबाह होगा तो दूसरा ज़िंदा और बरक़रार नहीं रह सकेगा एक एक्टिविस्ट कैमरे के सामने दो उंगलियाँ नचा कर वी का निशान बना रहे थे। उनकी उंगलीयों के दरमियानी ख़ला में पूरे स्क्रीन पर वीरान ज़मीन हिल रही थी, सरक रही थी। कैमरे के ग़ैर माहिराना अंदाज़ की वजह से जैसे झटके ले रही थी।

    “आप लोगों को आर्गेनाईज़ होना चाहिए। हमें हाथ में हाथ मिलाना चाहिए...” एक्टिविस्ट, एथनिक नौजवान से कह रहा था और एथनिक नौजवान एन. जी. ओ. की नुमाइंदा ख़ातून से।

    “हमें अमन मार्च करना चाहिए चन्द्रेगर रोड से प्रेस क्लब तक...”

    “सबसे पहले हमें एफ़. आई. आर. दर्ज कराना चाहिए...” भारी आवाज़ वाले एक साहब ने कहा जो काला कोट पहने हुए थे। ग़ालिबन नहीं यक़ीनन वो वकील होंगे।

    उनकी आवाज़ सुनते ही जैसे मजमे को साँप सूँघ गया। वाक़ई, ये तो बहुत ज़रूरी था। इससे पहले मजमे में ये किसी ने कहा क्यों नहीं था।

    “भई सबसे पहले तबाही की हद का तो अंदाज़ा लगाइये...” बड़ी उम्र के सफ़ेद बालों वाली मुअज़्ज़िज़ शक्ल-ओ-सूरत की एक ख़ातून की आवाज़ उभरी। उनकी आवाज़ पाटदार थी, टीचर रही होंगी। उन्होंने वकील मालूम होने वाले आदमी का जुमला और मजमे की ख़ामोशी सुनी नहीं थी,ऊँचा सुनती होंगी। वो अपनी तजवीज़ इसी जोश-ओ-ख़रोश से पेश कर रही थीं जो उनकी हर बात का मामूल बन गया था।

    “पहले पता तो कीजिए कि ये सिर्फ़ यहाँ हुआ है जो समुंद्र ग़ायब हो गया या और जगहों पर भी ऐसा हुआ है... इब्राहीम हैदरी, कोरंगी और सबसे बढ़कर कीमाड़ी। अस्ल अंदाज़ा तो कीमाड़ी पर होगा। आप में से किसी ने राबता किया है वहाँ के लोगों से? कुछ कन्फ़र्म किया है?”

    किसी ने कोई जवाब नहीं दिया...

    “एफ़. आई. आर. दर्ज कराना बहुत ज़रूरी है। बात रिकार्ड में जाती है...” वकील साहब मजमे को बावर करा रहे थे।

    “रिकार्ड पर जाए तब भी क्या होगा? हमारे गिर्द घेरा तंग किया जाता रहा है...” एथनिक नौजवान की त्योरी पर बल पड़ गए।

    “आप लोग तय तो कीजिए, एक साथ हो कर चलिए, इत्तेहाद में बड़ी ताक़त है...” वकील नुमा साहब की आवाज़ में जोश बहुत था।

    “लेकिन किस थाने में? ये इलाक़ा तो दरख़शाँ के थाने में लगता है, लेकिन अस्ल में जैक्सन थाने जाना चाहिए...”

    “पुलिस में नहीं बल्कि पोर्ट अथार्टीज़ को रिपोर्ट करना चाहिए।”

    “आपकी मुराद शायद कोस्ट गार्डज़ से है... अजी, वो क्या कर लेंगे? स्मगल की हुई शराब के इलावा उनको दिलचस्पी और किस बात से है?”

    एक आवाज़ उभरी और हुजूम में ग़ायब हो गई।

    “भई किसी किसी के पास तो जाना चाहिए...”

    “पुलिस रिपोर्ट...”

    “एफ़. आई. आर...”

    आवाज़ें एक साथ बुलंद हो रही थीं, एक दूसरे में रुल मिल रही थीं, एक दूसरे को काट रही थीं।

    “लेकिन दर्ज किस के ख़िलाफ़ कराई जाए?” एक आवाज़ बीच में से उभरी। उसको साफ़ पहचाना नहीं जा सकता था कि ये आवाज़ किस की है।

    “ज़िम्मेदार कौन है? किसी को इसका ज़िम्मेदार ठहराना होगा...” ये आवाज़ अपने आपको छिपाने या हुजूम में गुम करने की कोशिश नहीं कर रही थी। ये शायद सफ़ेद बालों वाली उन मुअज़्ज़िज़ ख़ातून की थी जो कभी टीचर रही होंगी।

    “मगर ये किस की तरफ़ से हो? इसकी चोरी से नुक़्सान किस का हुआ है? समुंद्र किस का है और इसका दावेदार कौन...”

    ये आवाज़ फ़ौरन पहचानी नहीं जा सकी कि एथनिक नौजवान की थी या एक्टिविस्ट की। या फिर किसी और ही आदमी की आवाज़। लेकिन इसके बाद मजमे में एक दम से ख़ामोशी छा गई। जैसे उसने कोई ऐसी बात कह दी हो जिसकी तरफ़ उससे पहले किसी ने ध्यान ही दिया हो। लेकिन फिर फ़ौरन ही बोलने लगे, वो सब बोलने लगे, बातें... बातें... एक दूसरे से, आपस में, सामने वाले से, बराबर वाले से, दो आदमियों की दूरी पर खड़े हुए आदमी से फिर उसके साथ वाले से वहाँ जमा होने वाले लोगों की भीड़ छोटी-छोटी टुकड़ियों में बट गई, लोग अलग-अलग होने लगे लेकिन वहीं खड़े रहे, बोलते रहे, शह्र... समुंद्र, समुंद्र...

    चोरी के बाद लोग समुंद्र को याद बहुत कर रहे थे। जैसे वो लड़की... एक जैसी, मिनमिनाती आवाज़ में बोले चले जा रही थी वो लड़की... ”समुंद्र किनारे अब्बा सैर कराने के लिए ले जाते थे। मैं छोटी सी थी। क्लिफ़्टेन तक हम बस में आया करते थे। सुबह से तैयारी करते, दो तीन तरह के खाने पका कर अम्माँ पोटली में बाँध लेती थीं और पोटलीयाँ, बेद की टोकरी में रखकर चलते थे। क्लिफ़्टेन पर मैं ऊँट की सवारी ज़रूर करती थी। पहली दफ़ा जब ऊँट पर बैठी और ऊँट ऊपर उठा तो मैंने घबरा कर चीख़ मार दी... ऊँट वाला आगे-आगे चल रहा था ऊँट की रस्सी थामे और साथ-साथ समुंद्र, इतना शफ़्फ़ाफ़ कि बस... सीपियों और कौड़ियों के नक़ली हार और बुंदे अब्बा ख़रीद कर देते थे और मैं उनका हाथ पकड़ कर चलती थी।

    पानी के साथ गीली रेत पर उनके क़दमों के निशान में दुबारा पानी भरने लगता था... अब्बा नहीं रहे लेकिन समुंद्र तो था। मेरा जी चाहता था कि एक दिन समुंद्र का हाथ पकड़ सैर करने के लिए निकलूँ और अब्बा के क़दमों के निशान ढूँडूँ कि उनमें कितना पानी भर गया है। समुंद्र नहीं रहा तो अब मैं क्या करूँ, ओह मेरे अब्बू...”

    लड़की की सपाट आवाज़ टूट गई और वो पतली, बे-जान आवाज़ में वावेला करने लगी।

    बच्चे के हाथ से ग़ुबारा छूट गया और धागे की लंबी दुम लहराता हुआ ग़ुबारा समुंद्र के ऊपर आसमान के सामने उड़ता चला गया। सुरमई, बादलों भरे आसमान के सामने सुर्ख़ नारंजी रंग का धब्बा जो उड़ते-उड़ते छोटा होने लगा, छोटा और छोटा, फिर ग़ायब... लेकिन समुंद्र मौजूद था।

    “साहिल-ए-समुंद्र पर हमने एक-बार मुशायरा किया था...” एक और आदमी बोल रहा था। उसे किसी ने एथनिक नहीं समझा वर्ना अपनी वज़ा क़ता और उससे बढ़कर अपनी बातचीत से वो भी इतना ही एथनिक था जितना कि वो नौजवान जिसे ऐसा समझा गया था। “मैं कॉलेज में था उन दिनों। रात-भर महफ़िल जमी थी। लुत्फ़ गया था। फिर उसके बाद जमील भाई एक दिन मेरे पीछे पड़ गए, समुंद्र के पास ले चलो, मुझे समुंद्र के पास ले चलो।

    मोटर साईकल पर पीछे लादा और चाँदनी-रात में यहीं ले आया। वो मोटर साईकल से उछल कर उतरे और इसी दीवार पर चढ़ गए।

    समुंद्र, वो उधर मुँह करके ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे, समुंद्र इतने दिन हो गए तूने मुझसे कलाम नहीं किया, मेरे शेअर सुन और वो ज़ोर-ज़ोर से ग़ज़ल सुनाने लगे। समुंद्र क्या दाद देता, मौजें सर पटक कर रह गई होंगी... हम वापिस होने लगे तो पुलिस ने पकड़ लिया।

    ये नशे में नहीं हैं, ये ऐसे ही हैं। मैंने पुलिस के दोनों सिपाहियों को बड़ा समझाया। ये ऐसे हैं? वो शक भरी नज़रों से हमारा जायज़ा लेते रहे। हाँ, हाँ ये ऐसे ही हैं। समुंद्र के क़रीब पहुँच कर तो और भी ऐसे हो जाते हैं, मैंने उन्हें यक़ीन दिलाया। तो चलो फिर ले जाओ इनको...

    कभी-कभी समुंद्र से मिलाने के लिए लाते रहा करो... उन्होंने हमें छोड़ दिया... अब कहाँ लेकर जाऊँगा? अब वो किस से कलाम करेंगे, समुंद्र।”

    वो इसी तरह पता नहीं कब तक बोलता रहा लेकिन इससे आगे की बात उन बहुत सी बातों से दब गई जो लोग इसी तरह किए जा रहे थे, मुसलसल, मुतवातिर। फिर वो हुजूम तेज़ी के साथ इधर-उधर होने लगा। शायद पुलिस वाले जो वहाँ पहुँच गए थे, लोगों को हटा रहे थे। शायद मीडिया वाले लोगों की और उनकी बातों की लाइव कवरेज कर रहे थे। कैमरा हाथ में लिए और शूटिंग करता हुआ पीछे की तरफ़ हटने वाला एक नौजवान जिसके लंबे-लंबे बाल उलझे हुए थे और क़मीस बाहर निकली हुई थी, उस बोर्ड के सामने क़दम जमाने की कोशिश कर रहा था और पुलिस वाले उसे रोक रहे थे।

    बोर्ड दीवार के ऊपरी हिस्से पर नसब था। इस बोर्ड की कीलों पर ज़ंग नहीं आया था जिससे पता चल सकता था,अगर कैमरे वाले नौजवान को पता लगाने की ज़रूरत होती कि बोर्ड को नसब हुए ज़्यादा अरसा नहीं गुज़रा और समुंद्र की हवाओं का सामना करते हुए ज़्यादा मुद्दत नहीं हुई।

    सुबह की धूप में चमकते हुए इस बोर्ड पर तामीराती कंपनी का नाम जली हुरूफ़ में पेंट किया हुआ था और उसके नीचे इदारे का निशान, गोल, सुर्ख़ नारंजी सूरज और हर ख़ानदान के लिए बेहतर मुस्तक़बिल की ज़मानत के अलफ़ाज़ जिनका रंग नीला था, समुंद्र की तरह।

    कैमरे वाले नौजवान और उसको रोकने वाले सिपाहियों की तरफ़ से लोग दफ़्फ़अतन मुड़ गए। तेज़ शोर के साथ, मोटर साईकलों पर सवार नौजवान लड़कों का एक पूरा गिरोह वहाँ पहुँच गया। उन्होंने मोटर साईकलों के साइलेंसर उतारे हुए थे और वो रेस करते हुए चलते तो ज़ूँ-ज़ूँ का इतना शोर होता कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती।

    मोटर साईकलें रुकीं और शोर दबा तो पता चला वो इतने बहुत से नहीं हैं। उनमें से जो सबसे आगे था, उसने माथे पर रूमाल बाँधा हुआ था।

    “किदर कल्टी कर दिया तुमने समुंद्र को?” उसने अपनी उंगली उन रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट के सीने की तरफ़ उठाते हुए कहा जो इको फ्रेंडली डेवेल्पमेंट का हवाला बार-बार दोहराए जा रहे थे।

    सीने पर उठी इस उंगली की जुंबिश के सामने वो घबरा कर पीछे हटने लगे।

    “समुंद्र को गुम करके समझते हो तुम लोग हमें रोक लोगे? समुंद्र नहीं होगा तो हम कोई और जगह ढूँढ लेंगे न्यू इयर मनाने के लिए।”

    नौजवान ग़ुस्से में बिफर रहा था और दूसरे नौजवान उसकी हाँ मैं हाँ मिला रहे थे।

    उसकी बात सुन कर रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट ने सुकून का साँस भरा। “मैं तो ख़ुद यही समझता हूँ। समुंद्र तो सबसे बड़ी तफ़रीहगाह है, यहाँ ओपन स्पेस में वो सारे बैरियर्ज़ टूट जाते हैं जो फंडा मेंटलिस्ट लोग यूथ पर इम्पोज़ करना चाहते हैं।” वो एक तवील बयान देने लगा।

    “शट अप बकवास कर...” मोटर साईकिलों वाले नौजवानों में से एक आवाज़ बातों को काटती हुई उभरी।

    वो साहब सहम कर चुप हो गए।

    “तुम लोग ही ये सब करते हो। ख़ुद तो बड़े-बड़े होटलों में जो चाहे कर लो।” लड़के की आवाज़ तेज़ थी

    “अबे इन मुल्लाओं ने तो नहीं चुरा लिया समुंद्र? न्यू इयर रोकने के लिए।” पहले वाले लड़के की आवाज़ आई।

    “ये मौलवी लोग बड़े बानीकार होते हैं।” मजमा बड़े ग़ौर से ये एन्काउंटर देख रहा था, उसमें से सफ़ेद बालों और मुअज़्ज़िज़ नज़र आने वाली ख़ातून की आवाज़ उभरी जो शायद टीचर रही होंगी।

    “ओह दीज़ मौलवीज़ ऐंड फ़ंडूज़... दे आर किलिंग जॉयज़... दे हैव स्टोलेन दी सी...” इन दूसरी ख़ातून की आवाज़ आई जिनकी उम्र कम थी और शायद किसी समाजी तंज़ीम की रुक्न थीं। रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट जल्दी-जल्दी इस्बात में सर हिलाने लगे। लेकिन फिर फ़ौरन ही एक बे-तरतीब सा शोर उठने लगा।

    “शह्र के लोगों के हुक़ूक़ मुसलसल ग़सब किए जा रहे हैं!”

    “उनका बस चले तो पूरे शह्र को बेच खाएँ...”

    “सोने की चिड़िया हाथ गई है कंपनी बहादुर के...”

    “ज़मीन का चप्पा-चप्पा बेचने के बाद समुंद्र पर भी हाथ साफ़ करने लगे...”

    “यही लोग ज़िम्मादार हैं। शहरी इदारों को काम नहीं करने देते...”

    “शहरी हुकूमत पूरी कोशिश कर रही है...”

    “कोशिश कैसी? आँखों में धूल झोंक रहे हैं, अपने मफ़ाद के लिए रिसोर्सेज़ पर डाका डाल रहे हैं...”

    इसके बाद तकरार और शोर बढ़ गया। शोर की आवाज़ इस तरह हल्की और तेज़ हो रही थी जैसे कभी मौजें ऊपर नीचे होती होंगी जब वहाँ पर समुंद्र था।

    “सिटी फ़ादर्ज़ की तरफ़ से ला-ज़वाल तोहफ़ा...”

    बोर्ड पर अलफ़ाज़ जगमगा रहे थे।

    इन अलफ़ाज़ के नीचे तस्वीर बनी हुई थी। शह्र की जगमगाती हुई स्काई लाईन।आसमान को छू लेने वाली इमारतों की स्याह परछाईयों में बर्क़ी रंग झिलमिला रहे थे। साइनबोर्ड के पेंटर ने पस मंज़र में ख़्याली पहाड़ और खजूर के दरख़्त बना दिए थे। तस्वीर में समुंद्र का निशान तक था।

    दीवार के साथ-साथ, सड़क के मुख़ालिफ़ रुख़ पर सीमेंट की छतरीयाँ कभी बनाई गई थीं। अब वो ख़ाली पड़ी थीं। उनमें बाज़ टूट गई थीं, इसलिए जिस तर्तीब से उन्हें बनाया गया था, वो भी ख़त्म हो गई थी लेकिन इस वक़्त ये ज़्यादा बे-तुकी मालूम हो रही थीं। पहले उनके साए में लोग बैठ जाया करते थे और समुंद्र के रुख़ पर देखने का लुत्फ़ उठा सकते थे। लेकिन अब रेत की तरफ़ कौन मुसलसल देखता या फिर मूँग फलियाँ, चुने और आवाज़ लगा कर पापड़ी... ई... ई... बेचने वाले फिरते-फिरते वहाँ बैठ कर सुस्ता लिया करते थे। एक छतरी जो ज़रा कोने में थी और जहाँ अंधेरा रहा करता, वो मख़सूस थी मालिश वालों के लिए। जिन लोगों को ये मालूम होता और वो वहाँ आन कर बैठ जाते, उनके पास चंपी मालिश वाले इतनी बार आकर पूछते कि या तो वो मालिश के लिए तैयार हो जाते या वहाँ से उठकर चले जाते। दोनों सूरतों में जगह ख़ाली हो जाती, थोड़ी देर के बाद फिर भर जाती। छतरियों के साथ-साथ बेंचें और लोहे की कुर्सियाँ भी ख़ाली पड़ी थीं।

    लोगों ने उन पर बैठने की कोई ख़ास कोशिश नहीं की। उनकी सीध में अब बहते पानी का नज़ारा तो नहीं था, चटियल मैदान था। लेकिन लोग अगर रेत की तरफ़ मुसलसल देखते रहने की आदत डाल लेते तो रेत पर ज़्यादा देर तक नज़रें जमाए रहने से बाज़-औक़ात रेत भी हिलती, सरकती हुई मालूम होने लगती।

    समुंद्र के नज़्ज़ारे का लुतफ़ उठाने वालों और साहिल पर चहलक़दमी या योगा की मश्क़ें करने वाले लोगों में से चंद एक ने शिकायत की और बाज़ ने अंग्रेज़ी अख़बारों में मुदीर के नाम ख़त भी लिखे। मगर उनकी शिकायत पर नाश्ते की मेज़ पर थोड़ी सी गुफ़्तगु से ज़्यादा तवज्जा नहीं दी गई। ये लोग जो कुछ करते रहने के आदी हो गए थे, वो सब यूँ भी कर सकते थे। आख़िर को उन्हें जगह चाहिए थी, सो मौजूद थी, पहले से भी ज़्यादा समुंद्र के ग़ायब हो जाने के बाद शह्र के नौजवानों में एक बेचैनी सी पाई जाने लगी, जिसमें मौज़ू बनने का ज़्यादा इमकान था मगर जिसको मुख़्तलिफ़ टीवी चैनल्ज़ के टॉक शोज़ में मौज़ू बनाया गया और उसके बारे में अंग्रेज़ी अख़बारों में कोई ख़त देखने में आया। ये बेचैनी भी मुबहम सी थी, जिसको पूरी तरह बयान करना भी मुश्किल था, इसलिए कि इसका एहसास भी ग़ैर वाज़ेह था। जैसे सुबह शाम ग़ुस्ल करने के आदी को कई दिन तक नहाने का मौक़ा मिले। मीठा पसंद करने वालों को यकलख़्त मीठा मिलना बंद हो जाए। एक उलझन, घबराहट, जैसे हाथ पाँव ऐंठ रहे हों और बदन टूटा जा रहा हो।

    एक नौजवान ने शिकायत के लहजे में कहा कि समुंद्र के चले जाने के बाद से उसे सर्दी लगे जा रही है, तो किसी बुज़ुर्ग़ ने टोक दिया, तुम कौन सा समुंद्र को ओढ़े-लपेटे रहते थे।

    नौजवान ने कोई जवाब नहीं दिया। आख़िर को समुंद्र बहुत कुछ समेट लेता था। हॉक्स बे, सैंडज़ पिट की रेत पर बनी हुई हट्स सिर्फ घर वालों के साथ तफ़रीह तक महदूद तो थीं। किसी भी वीक ऐंड के बाद लंबी ड्राईव पर अपनी हम-उम्र दोस्तों के साथ वक़्त गुज़ारने के लिए वहाँ के चौकी-दार की मुट्ठी गर्म करने के बाद इस जगह को हासिल किया जा सकता था और समुंद्र उसके लिए परफ़ेक्ट सेटिंग फ़राहम करता था। और अगर ये जगह भी मिले तब भी चट्टानों की ओट में या फिर गाड़ी एक तरफ़ रोक कर अपना काम पूरा किया जा सकता था।

    ज़रा सोचिए, खुली रेत में इस तरह गाड़ी तो नहीं रोकी जा सकती, कई नौजवानों के दिल में ख़्याल ज़रूर आया होगा। मगर ये बात किसी ने कही नहीं। वो हट्स तो अब भी इसी तरह मौजूद थीं। फ़्लड लाइट्स भी इसी तरह जल रही थीं और दीवार के साथ वार्निंग अब भी मिटाई नहीं गई थी, सितंबर के महीने में समुंद्र में नहाना मना है, तेज़ मौजें आपके लिए ख़तरा बन सकती हैं। समुंद्र नहीं रहा, इंतिबाह भरी दीवार सामने खड़ी थी।

    प्रेस क्लब के सामने एक दिन एक जुलूस निकाला गया। पहले-पहल उस पर ख़ातिर-ख़्वाह तवज्जो नहीं दी गई इसलिए कि वहाँ आए दिन जुलूस निकलते रहते हैं। फिर उस जुलूस में ऐसी कोई ख़ास बात नज़र भी नहीं रही थी। प्ले कार्डज़, बैनर्ज़, मीडिया कवरेज, थोड़ी सी औरतें नारे लगा रही थीं और नारे भी एक आवाज़ में नहीं थे। वो लंबी क़मीसें और घाघरे पहने हुए थीं, कई की चादरें मैली थीं या बदरंग और उनके बाज़ुओं में कड़े और चूड़ियाँ मोटे और भद्दे थे। ये सब किसी एक बस में भर कर शह्र की एक गुनजान आबाद, पुरानी बस्ती से आई थीं, उनको वापिस जाने की जल्दी थी और घबराहट भी। कई के साथ छोटे बच्चे भी थे, कुछ की नाक बह रही थी और कई एक गला फाड़ कर चिल्ला रहे थे।

    बच्चों के रोने की आवाज़ नारों में रुली मिली जा रही थी, जैसे वो उसी का हिस्सा हो, “झींगा मच्छीइइइइ... झींगा मच्छीइइइइ...” उनके नारे का इतना टुकड़ा साफ़ सुनाई देता कि उसमें आवाज़ बुलंद होती फिर उसके बाद दब कर ढेर होने लगती।

    “ये फिशरीज़ में काम करने वालियाँ हैं” प्रेस क्लब के बाहर खड़े हुए लोगों में से किसी ने अपने साथियों को बताया। “उनका तो रोज़गार समुंद्र से बंधा हुआ है। ये हुकूमत से मुतालबा कर रही हैं कि उनका मुतबादिल बंद-ओ-बस्त किया जाए।”

    “झींगा मच्छीइइइ... आ” एक नारे के साथ उन औरतों ने हवा में हाथ लहराए। इतनी दूर से ये तफ़सीलात मह्व हो गईं कि उनकी उंगलियों की पोरें कटी फटी हैं और ये हाथ मैले, गंदे, काले हैं, उस समुंद्र के बर-ख़िलाफ़ जो उनके नारों में गरज रहा था।

    एक और दिन ऐसे ही और लोग उसी जगह फिर जमा हो गए। उनमें औरतों के साथ चंद मर्द भी थे। उनके रंग ज़्यादा गहरे थे। ये लोग आपस में किसी और ज़बान में बात कर रहे थे और उनके नारों में झींगे का या मछली का नाम नहीं रहा था। बल्कि उनके नारे ही नहीं थे। ये लोग सुस्त रफ़्तारी से बढ़ रहे थे। उनमें से किसी आदमी ने, जिसने ढोल कहीं कहीं उठा रखे होंगे, थाप देना शुरू की। पहले आहिस्ता-आहिस्ता फिर बढ़ते-बढ़ते तेज़, तेज़ एक दम से ज़ोर लगा कर बहुत तेज़। जुलूस के आगे आगे चलने वाली सियाह-रंग बूढ़ी औरत ने मुँह ही मुँह में बुदबुदा कर कुछ कहा और अपनी जगह खड़े खड़े हिलने लगी। वो कुछ कह रही थी और झूम रही थी। एक तवातर के साथ वो झूम रही थी और उसका बदन थाप के आहंग में हिल रहा था। आहंग में हिलते-हिलते अचानक उसमें जैसे बिजली सी भर गई और दोनों हाथ हवा में उठा कर उसने मस्ताना-वार थिरकना शुरू कर दिया। “मोर साहब मोर साहब” उसने ज़ोर से आवाज़ दी और फिर जैसे बे-जान हो कर सड़क पर गिर पड़ी। जुलूस आगे बढ़ता रहा।

    “पता नहीं ये लोग इस क़दर उधम क्यों मचा रहे हैं?” प्रेस क्लब के बाहर वो आदमी अपने साथी से कह रहा था जिससे पूछा गया था कि जुलूस में ये कौन लोग हैं।

    “इनके ऊपर कौन सा आसमान टूट पड़ा? फ़ायदा होगा और ज़मीन का अलॉटमेंट खुले तो सबसे पहले यही रोते गाते, दौड़े चले आएँगे, महरूमी और पसमाँदगी का रोना रोते हुए!”

    उसके मुख़ातब ने जो जवाब दिया, वो शोर में बिखर गया क्योंकि जुलूस के लोग, मुंतशिर होने से पहले इस बूढ़ी औरत को सहारा देकर सड़क से उठा रहे थे।

    “क़ाइद-ए-आज़म का मज़ार सलामत है, शह्र की अस्ल निशानी तो वही है।” पहले आदमी की आवाज़ आई।

    “टीवी के टेलप् पर वही हर बार दिखाया जाता है। आख़िर दूसरे शह्र भी तो हैं, समुंद्र के होने से कौन सा नुक़्सान हो गया है? कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं...”

    जुलूस ज़रा ही देर में बिखर गया। जुलूस के शुरका सड़क के हुजूम में शामिल हो गए।

    बाज़ अमली मुश्किलात भी पेश आने लगीं। एक अर्बन लीजेंड के तौर पर “नेटो जीटी” के पुल की वो हैसियत मुद्दतों पहले ख़त्म हो गई थी जब अपनी ज़िंदगी से मायूस हो कर ख़ुदकुशी करने वाले लोगों ने यहाँ से छलाँग लगाने के बजाय दूसरे रास्ते इख़्तियार कर लिए थे और ख़ुदकुशी के बढ़ते हुए हालिया रिवाज ने भी पुल की पुरानी हैसियत को बहाल नहीं किया, लेकिन पुल के नीचे सूखी रेत उड़-उड़ कर रेल की पटरियों पर जमा होने लगी। सबसे पहले वहाँ से वो लोग कम हुए जो मिन्नत मुराद के लिए मछलियों को आटा खिलाते थे। सुकूँ की ढेरियाँ सामने रखे हुए और घी के पुराने, ख़ाली कनस्तर में आटे की गोलीयाँ बना कर बैठे रहने वाले भी ग़ायब हो गए और उनसे मोल लेकर ये गोलीयाँ दुआ के साथ पानी में फेंकने वाले वो लोग भी जिनको उनकी कोई कोई ज़रूरत या मुसीबत वहाँ खींच कर ले आती थी।

    जिस दिन शह्र में चुप ताज़िया उठा, उस दिन जुलूस के शुरका के सामने ये सवाल भी उठा कि ताज़िए कहाँ ठंडे किए जाएँ, समुंद्र तो रहा नहीं। इस सवाल पर शह्र भर के जय्यद उल्मा ने बहुत ग़ौर-ओ-ख़ौज़ किया लेकिन किसी ख़ातिर-ख़्वाह नतीजे पर पहुँचे बग़ैर उनका इजलास ख़त्म हो गया।

    इमाम हुसैन के नाम अरीज़े डालने का तरीक़ा भी शह्र में इसी दुबिधा का शिकार हो गया। जो लोग अपने सवाल लिख-लिख कर नेटो जीटी के पुल पर से पानी में डाल देते थे कि उनका अरीज़ा इमाम हुसैन के पास पहुँच जाएगा, इस तरह अपने सवाल रेत पर लिख कर भेजने के लिए तैयार नहीं हुए। उनके सवाल एक उस समुंद्र के होने से वहीं के वहीं रह गए और जब सवाल ही नहीं आगे गया तो फिर उनका हामी-ओ-नासिर कौन होता, अब तो समुंद्र भी नहीं रहा... मिट्टी ही मिट्टी थी और कव्वे, वहाँ बहुत सारे कव्वे थे जो इधर-उधर से गए थे और शोर मचा-मचा कर उड़ रहे थे।

    शह्र पर आसमान की चादर फड़फड़ा रही थी और उसे अपनी जगह रोकने के लिये लगाई जाने वाली कीलें... ये कव्वे... हवा के सामने ठहर पा रही हों।

    अब आसमान फिर हिला, नीचे की तरफ़ झुका और कव्वों के साथ ऊपर उठ गया। पुरानी रूई की तरह फूल रहा था आसमान जिसमें पानी जज़्ब हो गया हो और क़तरा-क़तरा टपकने लगे, बूँद-बूँद समुंद्र जिसमें अब बस बूँदें रह गई थीं, समुंद्र नहीं।

    एक दिन एक आदमी ने ख़्वाब देखा, समुंद्र का ख़्वाब, और उसी जगह आकर बयान करने लगा जहाँ शाम के वक़्त बहुत से लोग जमा हो जाते थे और बातें करने लगते थे। उसने कहा “मैंने देखा... मैंने देखा... उजली रेत के सामने, हरा और नीला, पानी ही पानी दूर तक फैला हुआ जहाँ तक नज़र जाए। लहरों के ऊपर सफ़ेद-सफ़ेद झाग और लहरें उछलती हुई उठती चली आती हैं और जब गिरती हैं तो उनका ज़ोर टूटता है, सफ़ेद झाग रेत के ऊपर बढ़ा चला आता है और पानी पीछे हटता है तो साफ़ रेत इस तरह निकलती चली जाती है जैसे समुंद्र की तह से निकली हो और पानी के साथ बहती जा रही हो। मेरा जी चाहा कि इस रेत में पैर गाड़ कर खड़ा हो जाऊँ जैसे अपने बचपन में किया करता था जब हम कभी अपने सारे घर वालों के साथ समुंद्र पर पिकनिक मनाने जाते थे।

    पानी पर समुंद्री परिंदे उड़ रहे थे और रेत पर ऊँट वाला महार थामे खड़ा पूछ रहा था, साहब सवारी चाहिए... मैंने उसको मना करने के लिए सर हिलाया तो मेरी आँख खुल गई... वहाँ समुंद्र नहीं था और मैं अपने बिस्तर पर था...”

    उसने ख़्वाब बयान किया तो दूसरे लोगों ने भी बोलना शुरू कर दिया... क्लिफ़्टेन, सैर... पैराडाइज़ प्वाईंट, साहिल की चट्टान, चट्टान पर से उछलता हुआ पानी, हॉक्स बे, साहिल पर बनी हुई तफ़रीही हट, सैंडज़ पिट, उजली रेत, लपकता हुआ पानी और फिर रेत को भिगोने के बाद पीछे हटा हुआ...

    वो सब एक साथ बोल रहे थे, अपनी अपनी बातें दुहरा रहे थे कि उनमें से एक आदमी को लगा जैसे समुंद्र फिर दिखाई दे रहा है... पानी गदला है और रेत पर कूड़ा बिखरा हुआ है, जूस के ख़ाली डिब्बे, प्लास्टिक की थैलियाँ, मौसंबी के छिलके, पैकेट जो इस्तिमाल के बाद चुरमरा कर फेंक दिए गए हैं और पीछे हटती हुई लहरों के सामने बे-तहाशा लोग इतनी सी जगह में भरे हुए और फिर भी तफ़रीह के मूड में, उनकी आवाज़ें लहरों के शोर के ऊपर से गूँजती और टकराती हुई, फिर उनके सामने दीवार, इमारत का अध बना ढाँचा जिसने समुंद्र को दोनों हाथों से जैसे भींच लिया हो, सुकेड़ लिया हो, गदले पानी के ऊपर तेल के काले चकत्ते जो पानी के बहाव के साथ पीछे हटने के बजाय वहीं जमे खड़े हैं, मरी हुई मछलीयों की सड़ी बदबू जो धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। यहाँ तक कि इतनी दबीज़ और तेज़ हो जाती है कि साँस रुकने लगता है। साँस में जैसे कोई चीज़ फंस रही है और क़ै को रोकते हुए आप वहाँ से मुड़ कर वापिस जाने लगते हैं समुंद्र से मुख़ालिफ़ सिम्त में...

    उस शाम हवा बंद थी। शह्र वाले समुंद्र की चोरी के उसी तरह आदी होते जा रहे थे जैसे कभी समुंद्र किनारे मुक़ीम रहने के आदी हुए होंगे। हवा भी कई दिन से बंद थी। दिन-भर की गर्मी के बाद शाम के वक़्त समुंद्र के रुख़ से हवा चलनी शुरू नहीं हुई... समुंद्र होता तो हवा चलती, किसी ने अपनी दानिस्त में बहुत कांटे की बात कही... और हब्स का आलम सारे शह्र पर यूँ छाया हुआ था जैसे किसी ने एक गर्म, चिपचिपाता हुआ शीशे का मर्तबान ऊपर से लाकर शह्र पर धर दिया हो।

    शाम होते-होते बदबू सारे शह्र में फैलने लगी। मछलियाँ और केकड़े फ़ुट-पाथ पर बिखरे हुए नज़र आने लगे। समुंद्री परिंदे बिजली के खंबों पर बैठे हुए थे, उदास और बे-मसरफ़... पर फैलाए हुए, उड़ने से बेज़ार... जैसे कव्वे बारिश में भीग गए हूँ...

    बाहर से आए हुए पुराने कपड़ों... स्वेटर, जर्सियाँ, कोट... के दाम गिर गए। अंडे महंगे हो गए। क्लिफ़्टेन के इलाक़े में ट्रैफ़िक का दबाव बरा-ए-नाम रह गया। मालिश करने वाले कम उम्र लड़कों और खंबों के नीचे खड़ी हुई औरतों में बे-तहाशा इज़ाफ़ा हो गया। बर्गर फ़रोख़त करने वाली एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने अपनी एक नई डील का ऐलान कर दिया... सहरा के शह्र में फ़ास्ट-फ़ूड की नई रिवायत... अगले दिन बड़ी-बड़ी तस्वीरें मीडीया से झलकने लगीं, जिनमें पानी उतरता था और सहरा के वस्त से रेत में जगमगाता शह्र बरामद होता था, बर्गर में बंद... दाँतों से काट कर एक टुकड़ा आप भी खाइए ना... बाक़ी शहरों के रहने वाले अपने मुक़ामी डीलरों से रुजू करें...

    याद रखिए, ये गोल्डन पेशकश सिर्फ़ महदूद मुद्दत के लिए है।

    ऐसी ही एक सुबह की मलगजी, मटियाली रौशनी फैलने भी पाई होगी कि समुंद्र वाले देखेंगे शह्र को चुरा लिया गया है।

    तब तक कहानियों में उनकी कहानी तमाम हो चुकी होगी। मिट्टी में मिलकर मिट्टी, पानी में मिलकर पानी...

    इस वक़्त कौन कहाँ होगा और समुंद्र कहाँ...

    समुंद्र के साहिल पर रेत में क़दमों का एक निशान बना हुआ है, जिसमें पानी भरता जा रहा है और एक ऊँट वाला उसके पास बैठा रो रहा है।

    स्रोत:

    मेरे दिन गुज़र रहे हैं (Pg. 199)

    • लेखक: आसिफ़ फर्ऱुखी
      • प्रकाशक: शहरज़ाद, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 2009

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