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शब्बो को सब पता है

ज़िया ज़मीर

शब्बो को सब पता है

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    शाहिद अली ने अपनी मरी हुई बीवी का चेहरा देखने से मना कर दिया था। उनके इस अजीब रवैय्ये से कुछ लोग ख़ामोश थे तो कुछ लोगों के जे़हनों में तरह-तरह के सवाल थे। मगर उनके तीनों बच्चों के ज़हनों में हैरानियों से ज़्यादा उनके लिए दया का भाव था। वो इस फैसले को उनके दुख की इंतिहा मान रहे थे। तीनों ही बच्चों के कहने पर किसी भी रिश्तेदार, पड़ोसी या दोस्त ने उनके इस फ़ैसले या ज़िद पर कोई ख़ास सवाल जवाब नहीं किया और मरहूमा को दफ़ना दिया गया।

    आज शाहिद अली की मरहूम बीवी का चालीसवाँ था। तीनों बच्चे अपने-अपने शहरों से सुबह ही पहुँच गये थे। शाहिद अली के दो बेटे और एक बेटी थी। तीनों पढ़े लिखे और क़ाबिल बच्चे थे। बेटी सुमय्या डॉक्टर थी। वो सबसे छोटी थी और दिल्ली में अपने शौहर डॉक्टर इम्तियाज़ के साथ नर्सिंग होम चलाती थी। बड़ा बेटा नाहीद अली इंजीनियर था और दिल्ली में ही एक बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी में सीनियर इंजीनियर की पोस्ट पर था। छोटा बेटा वाहिद अली का नोएडा में अपने साले के साथ साझेदारी में इलैक्ट्रोनिक्स के सामान का शोरूम था। दोनों बेटो की एक-एक औलाद थी। सुमय्या के अभी कोई बच्चा नहीं था। तीनों बच्चे अपने-अपने कामों में मसरूफ थे और कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। शाहिद अली पीडब्ल्यूडी से रिटायर होने के बाद मुरादाबाद में ही पुश्तैनी मकान में अपनी बीवी नफ़ीसा के साथ बुढ़ापे और सुकून की ज़िंदगी बसर कर रहे थे। एक नौकरानी थी अट्ठारह या उन्नीस बरस की। जो घर का सारा काम भी करती थी और इनकी देखभाल भी करती थी। उसका नाम शबनम था। मगर घर में सब उसे शब्बो कहते थे। वो शाहिद अली की मरहूम बीवी नफ़ीसा की दूर की बहन की बेटी थी। जिसे नफ़ीसा ने अपनी ख़राब सेहत और अकेलापन दूर करने के लिए कुछ बरस पहले अपने पास रख लिया था। शब्बो की बेवा माँ पर नफ़ीसा और शाहिद अली इतने एहसान थे कि उसने ही इसरार कर शब्बो को नफ़ीसा के पास रखने की ख़्वाहिश की थी।

    शाहिद अली ख़ामोश तबीयत आदमी थे। बहुत कम बोलते थे। उनका कोई दोस्त नहीं था। ख़ाली वक़्त में या तो पुराने शायरों की किताबें पढ़ते या फिर अकेले शतरंज खेला करते थे। एक बाज़ी अपनी तरफ से और एक बाज़ी सामने वाले की तरफ से चलते थे। इस ख़फ़्त की सफ़ाई इस तरह देते कि मेरे मुक़ाबिल सिर्फ़ मैं हूँ। मुझे मेरे अलावा कोई नहीं हरा सकता और मुझसे मेरे अलावा कोई जीत सकता है। उनकी एक-एक बाज़ी महीनों तक चलती थी। उनका कमरा पहली मंज़िल पर लबे-सड़क था। जिसमें से एक ज़ीना सीधे सड़क पर उतरता था। मगर ज़ीने का दरवाज़ा हमेशा बंद रहता था और अंदर से उस में ताला लगा रहता था। कमरे से ज़ीने में खुलने वाला दरवाज़ा भी हमेशा बंद रहता था। पहली मंज़िल पर खुला आँगन था और सिर्फ़ वो कमरा था। उसमें अटैच टॉयलेट भी था। ग्राउंड फ्लोर पर तीन कमरे, आँगन, बावर्ची-ख़ाना, टायलेट, बाथरूम, बैठक सभी कुछ था। लेकिन कई बरसों से शाहिद अली ऊपर के कमरे में ही रहते थे। उन्हें रिटायर हुए पाँच बरस हो गए थे। नौकरी के वक़्त भी पिछले दस-बारह बरसों से उनका मामूल था कि सुबह उठकर नहाते-धोते, तैयार होकर नीचे आते, नाश्ता करते और ऑफिस चले जाते। शाम को ऑफिस से आकर मुँह हाथ धोते, चाय पीते, बेगम से दिन भर की ख़ैरियत दरयाफ़्त करते और थोड़ी देर बाद ऊपर अपने कमरे में चले जाते। फिर खाना खाने उतरते और खाना खा कर वापस अपने कमरे में चले जाते। ठीक इसी तरह उनका दिन गुज़रता था। उनकी बेगम नफ़ीसा अली क़तई बातूनी औरत थीं। घंटो-घंटों बिना रुके, बिना थके बातें करती रहती थीं। शायद यही सबब था कि शाहिद अली ने अपना लगभग पूरा वक़्त बीवी से अलग कमरे बल्कि अलहदा गुज़ारने का सिलसिला बना लिया था। नफ़ीसा को भी उनकी ख़ामोश तबीयत बिल्कुल पसंद नहीं थी। इसलिए वो उनके इस अलेहदगी के अमल की ख़ामोश रज़ा-मंद थीं। यह कमरा शाहिद अली की दुनिया था। इस कमरे की सफ़ाई भी रोज़ नहीं होती थी। हफ़्ते में सिर्फ़ एक दिन शब्बो को एक घंटे के लिए सफ़ाई की इजाज़त मिलती थी। जिसमें वो कमरे की साफ़ सफ़ाई कर देती थी। लेकिन उसको यह सख़्त हिदायत थी कि जहाँ जो चीज़ जिस हालत में है। उसी हालत में रहे।

    नफ़ीसा का चालीसवाँ हुआ। दोस्त-रिश्तेदार आए। कलामे-मजीद पढ़ा गया और ईसाले-सवाब किया गया। फातिहा हुई। दुआ-ए-मग़फिरत की गई। सब लोगों को खाना खिलाया गया। दोस्त-रिश्तेदार अपने-अपने घरों को चले गए। रात काफ़ी हो गयी थी। शाहिद अली भी आराम करने का कह कर ऊपर अपने कमरे में चले गए थे। नीचे शब्बो, तीनों बच्चे और उनकी फैमिली रह गई थी। शाहिद अली को थके हारे क़दमों से ऊपर जाते देख सुमय्या की आँखों में आँसू गए और वह सिसकने लगी, ''पापा बिल्कुल अकेले रह गए, मेरे पापा तन्हा हो गए।'' यह कहते हुए उसके आँसू और तेज़ी से बहने लगे। दोनों भाइयों की आँखें भी नम हो गयीं। सुमय्या के शोहर ने अफसोस से सर झुका लिया था। दोनों बहुएं भी उदास हो गयीं थीं। कुछ देर तक ख़ामोशी रही जिसे शब्बो ने तोड़ा, भाई साहब चाय बना लाऊँ। सभी की ख़ामोशी ने हामी भरी। शब्बो चाय बनाने चली गई। दोनों छोटे बच्चों को अन्दर कमरे में सुला दिया गया था। सब चाय पी रहे थे कि शब्बो ने टेबिल पर एक लिफ़ाफ़ा रखते हुए कहा, ''यह... नफ़ीसा ख़ाला ने... आप तीनों को... आज के दिन देने को कहा था।'' तीनों बहन भाइयों ने एक साथ पहले उस लिफ़ाफ़े को और फिर शब्बो को देखा। ''क्या है यह'' तीनों के मुँह से एक साथ निकला।

    ''मुझे नहीं मालूम क्या है इसमें। ख़ाला ने क़सम दी थी कि खोलना नहीं। ख़ालू को भी मत बताना। सिर्फ़ आप तीनों को ही देने को कहा था।''

    तीनों बच्चों के चेहरों पर हैरत और तजस्सुस था। दोनों बहुएँ और दामाद उठना चाह रहे थे कि नाहीद ने तीनों को यह कहकर बिठा दिया, ''क्या तुम लोगों की माँ नहीं थीं? बैठो।'' तीनों के चेहरों पर फ़ख्ऱ और अपनाइयत के रंग एक साथ आए। सुमय्या ने कहा, ''नाहीद भाई। लिफ़ाफ़ा खोलिए।'' नाहीद ने लिफ़ाफ़ा खोला। उसमें एक ख़त था। हैंड राइटिंग उनकी वालिदा की थी। नाहीद ने धीमी आवाज़ में पढ़ना शुरू किया।

    मेरे बच्चो,

    अपनी माँ को मुआफ़ कर देना... मैं यह बात तुम्हें जीते जी बता सकी... मुझमें हिम्मत ही नहीं थी... तुम्हारे पापा अच्छे आदमी नहीं हैं। तुम्हरे पापा के किसी और औरत से रिश्ते थे... वो... शब्बो ने देखा था उसे। वो ऊपर आती थी अक्सर... बाहर के ज़ीने से... इसने देखा उन दोनो उस हालत... में। यह घबराई हुई नीचे आई और डरते-डरते मुझे बताया। कुछ ही देर में वो नीचे आए और शब्बो पर हाथ उठाने को हुए तो मैंनें चीख़ कर रोक दिया... कहने लगे इसने क्या बताया... चीख़ने लगे... चिल्लाने लगे। फिर मुझे कुछ याद नहीं। मुझे बताया गया कि मुझे अगली सुबह होश आया था। मैं बिल्कुल ख़ामोश हो गयी थी... बिल्कुल ख़ामोश। ये ऊपर से नीचे नहीं उतरे कई दिन। ऊपर ही इनका खाना पानी चला जाता था। ये मेरे लिए जैसे मर चुके थे और शायद मैं इनके लिए। तुम लोगों को बताना चाहा मगर क्या बताती? इस उम्र में मेरे साथ धोखा हुआ... यह बताती? तुम्हें यह बताती कि तुम्हारा बाप... तुम लोगों को अपने बाप से नफ़रत करते हुए मैं नहीं देख सकती थी। सो चुप रही और घुलती रही। मगर एक क़सम तुम्हारे बाप से ली मैंनें कि आप मेरा मुँह नहीं देखेंगे... जीते जी और मेरी मय्यत का। यह ख़त तुम्हें लिखा कि तुम्हें यह पता चले कि तुम्हारी माँ ने अपने आख़िरी दिनों में क्या-क्या सहा। क्या-क्या बर्दाश्त किया। मेरे बच्चो... मुझे मुआफ़ कर देना। तुम्हें क़सम है अपनी मरी हुई माँ की कि तुमने जो ये बात अपने बाप को बताई। तुम्हें उनके साथ वैसे ही रहना होगा। उनके लिए मैं तुम्हारी आँखों में नफ़रत जीते जी नहीं देख सकती थी मर के देख सकूंगी। तुम्हें क़सम है मेरे बच्चो।

    तुम्हारी माँ।

    ख़त पूरा हो गया था। बिल्कुल ख़ामोशी थी। ज़मीन पर बैठी शब्बो सिसक रही थी। छ: लोग ख़ामोशी से उसे देख रहे थे। उनके चेहरों पर हैरत, दुख, दर्द, सवाल, ग़ुस्सा, नफ़रत सभी रंग तेज़ी से रहे थे और जा रहे थे। मगर सब जमे हुए थे अपनी-अपनी जगह। कुछ देर बाद शब्बो ने आँसू पोंछते हुए कहा, ''भाई साहब, ख़ाला ने पढ़ने के बाद ख़त जलाने को कहा था...''

    कोई जवाब मिलने पर ''भाई साहब...'' शब्बो ने ज़रा तेज़ आवाज़ में कहा तो नाहीद चौंका, ''ह... हाँ, हाँ।''

    ''भाई साहब, ख़ाला ने पढ़ने के बाद ख़त जलाने को कहा था...'' शब्बो ने दोबारा कहा।

    नाहीद ने ख़त आगे बढ़ा दिया। शब्बो उसे जलाने किचन में चली गयी। अचानक सुमय्या घबराकर बोली, ''इम्तियाज़... आप मुझे घर ले चलें अभी... बिल्कुल अभी... मुझे घबराहट हो रही है। घुटन हो रही है मुझे... प्लीज़।''

    सभी ने उसे बहुत समझाया, मगर वो नहीं मानी। हार मानकर सभी ने उसी वक़्त निकलने का फैसला कर लिया। शब्बो ने कहा कि सुबह ख़ालू से तो मिलकर जाईये। मगर सब अपनी अपनी गाड़ियों से बिना अपने बाप से मिले ही चले गए।

    थकन की वजह से शाहिद अली की आँख सुबह नौ बजे खुली। नीचे आए तो कोई नहीं था।

    ''सुमय्या! सुमय्या! नाहीद...! कहाँ हैं सब'' उन्होंने आवाज़ें लगायीं।

    शब्बो किचन से निकल के आयी।

    ''वो सब चले गए।''

    ''बिना मुझसे मिले ही?''

    ''जी'' शब्बो ने उनके सामने बैठते हुए कहा। ''उन्हें सब पता चल गया।''

    ''कैसे?'' शाहिद अली का चेहरा पीला पड़ गया।

    ''ख़ाला के ख़त से'' शब्बो की आवाज़ मज़बूत होने लगी।

    ''कैसा ख़त? क्या था...'' शाहिद अली की आवाज़ में घबराहट गयी थी।

    ''था एक ख़त... मैंने लिखवाया था उनसे।''

    शाहिद अली ने उसकी तरफ देखा फिर नज़रें झुका लीं।

    कुछ देर बाद बोले, ''शायद अब तीनों मुझसे कभी बात नहीं करेंगे... मेरा चेहरा भी देखना गवारा नहीं करेंगे...'' उनके लहजे में बे-इंतिहा मायूसी थी।

    कुछ देर ख़ामोशी रही।

    शब्बो ने ऊपर कमरे की तरफ देखा। दरवाज़ा थोड़ा सा खुल रहा था। अंधेरे में दो आँखें झाँकती हुई नज़र रहीं थीं।

    ''यही ज़रूरी था... यही होना था... अब्बू'' शब्बो का लहजा बेहद सर्द था।

    फिर उसने ऊपर देखते हुए तेज़ आवाज़ में कहा, ''नीचे जाओ अम्मी... अब यह पूरा घर तुम्हारा है।''

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