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शेरी

MORE BYजमीला हाशमी

    स्टोरीलाइन

    इस कहानी में बे-ज़बान जानवर शेरी के माध्यम से इंसान की तन्हाई और काम की अतृप्ति को बयान किया गया है। शेरी एक ऊंची नस्ल का कुत्ता है जिसका बरताव और व्यवहार इंसानों जैसा है। उच्च शिक्षा प्राप्त अविवाहित मालकिन की ख़ाली ख़ाली ज़िंदगी में वो नई गर्मी पैदा करता है। वो उसकी ज़िंदगी में इस क़दर शामिल हो जाता है कि जब मालकिन विदेश चली जाती है तो शेरी खाना पीना छोड़ देता है जिसकी वजह से उसकी मौत हो जाती है। मालकिन को वापसी पर जब उसकी मौत की ख़बर मिलती है तो वो कहती है कि मैं तो विधवा हो गई।

    मेहर का तार अम्माँ के नाम आया, “शेरी को ब्रिटिश एयर वेज़ की फ़्लाइट 32 से ले लीजिएगा।”

    सख़्त ग़ुस्सा आया, मैंने उसे लिखा था, तुम शेरी को यहाँ क्यों भिजवा रही हो। अम्माँ अपना ख़्याल तो ढ़ंग से रख नहीं सकतीं, उसका क्या करेंगी। तमीज़ सलीक़े का कोई नौकर इन दिनों मिलना मुश्किल है और जो हैं वो भी बेहतर जगहों की तलाश में, यहाँ अनमने दिल से रह रहे हैं। जब तक पापा थे तो सब कुछ था। अब तुम्हें मालूम ही नहीं हो सकता, मैं अकेले ये घर की कश्ती कैसे खे रही हूँ। परेशानी और शदीद मसरूफ़ियत का शिकार रहती हूँ। उम्मीद है तुम अपने फ़ैसले पर नज़र-ए-सानी करोगी और ज़िद्दी होने के बावजूद मेरी बात में तुमको वज़न मालूम होगा।

    मेरी बहन हमेशा की बदतमीज़, बेमुरव्वत और अपने सामने किसी को कुछ समझने वाली थी और मुख़्तसर नवीस होने के बावजूद उसने मुझे सफ़्हों का कोसनों, तानों और गालियों से भरा ख़त लिखा था, ये कि, “घर पर उसका भी इतना ही हक़ था जितना किसी और का था। शादी के बाद लड़कीयों का मैके से कोई नाता टूट तो नहीं जाता कि उसे भी अपने लिए इतनी सहूलत लेने में कोई माने नहीं हो सकता था। अम्मां भी सबकी थीं और अगर ज़रूरत पड़े तो मदद भी कर सकती थीं और ये कि मैंने कब से अपने आपको इस घर का मालिक तसव्वुर करना शुरू कर दिया था। पापा नहीं थे तो क्या हुआ, मकान पर तो अब भी उन्हीं का रुपया सर्फ़ होता था। शेरी यहाँ रह सकता था और अम्मां ख़ुद ही उसके लिए मुनासिब देख-भाल का बंद-ओ-बस्त करलेंगी। फिर आख़िर में ये कि मेरी तन्हा उजाड़ ज़िंदगी और वीरान दिनों की ज़िम्मेदारी सिवाए मेरे अपने किसी पर थी।

    मेरी तेज़ मिज़ाजी और ज़बान दराज़ी और दूसरों से ज़रूरत से ज़्यादा तवक़्क़ो रखने और नालायक़ दोस्तों की वजह से मुआमला यहाँ तक पहुँचा था। वरन वो कर्नल क्या बुरा था जो तुम्हारे पीछे फिरा करता था। ये और बात है कि उसने तुमसे दोस्ती के दौरान दो-चार और लड़कियों से भी ताल्लुक़ात उस्तवार कर रखे थे मगर तुम्हें ख़ुद मालूम है तुम पर तो मुकम्मल भरोसा आख़िर वक़्त तक नहीं किया जा सकता। तुम तो बस ख़ूब से ख़ूबतर की तलाश में सख़्त वफ़ादारी को खोजती रही हो, जो मेरी जान इस जहान में मादूम है। भला मर्दों को ग़ुलाम बनाकर और उनका इम्तहान लेकर तुम कभी किसी नतीजे पर पहुँच सकी हो। तुमने दुनिया के मर्दों को अपने पाँव में रगेदा और क़दमों तले देखना चाहा है। तुमको अपने मौहूम हुस्न पर क्या क्या नाज़ रहे हैं जिसने दो कौड़ी को नहीं पूछा। समझती हो तुम्हारी इन चमकती हुई आँखों के सह्र में कोई गिरफ़्तार होगा। कभी नहीं कभी नहीं।”

    ख़त पढ़ कर मैंने सोचा हटाओ मारो गोली, अगर शेरी को वो अम्माँ के पास भेजना चाहती है तो मेरी बला से। मैंने उस बेहूदा तहरीर का भी कोई जवाब नहीं दिया था। जब वो अक़्ल की बात सुनने की ताब ही नहीं रखती तो काहे सुनाई जाये और फिर मेहर से ख़्त-ओ-किताबत की इस लड़ाई में हार हमेशा मेरी होती थी। वो अम्माँ की लाडली, बहन भाईयों की चहेती थी। रुस्तम ने उसे घर का सुकून दिया था, जो उसकी ताक़त और उसका मान था। फिर उसकी बेटी नूर तो उसकी दीवानी थी और इसलिए वो मेरी वीरान ज़िंदगी का मज़ाक़ उड़ाया करती थी।

    उसका तार पढ़ कर मैं जल भुन गई। अम्माँ ख़ुद जाती फिरें। शेरी को बुलाने कराची। कम अज़ कम इस वाहियात ख़त के बाद मेरा तो इस सारे वाक़िए से कोई सरोकार ही नहीं रहा था। अम्माँ जानें और मेहर जाने। फिर एक सह पहर जब मैं अभी दफ़्तर से आई थी, अम्माँ अपने सूजे घुटने और सख़्त टाँगें घसीटती आईं, “ए लड़की सीट बुक करवा ली है।”

    “क्यों?”

    “लो और सुनो, क्यों भला इस हालत में मुझसे कराची जाया जाएगा। तुम्हारे वालिद के बाद से यूँ भी मुझे अकेले जाना मुसीबत लगता है। सफ़र करने का मज़ा तो उनके साथ था, पूरा डिब्बा अपना है। बस चले जा रहे हैं। खाते-पीते, हंसते-हँसाते जैसे अपने घर में हों।” वो यादों में गुम सी हो गईं। गुज़रे ज़मानों में रेल के हिचकोलों से उन्हें जैसे नींद आने लगी हो, चुप-चाप दूर देखती हुई बैठी रहीं। फिर अचानक कहने लगीं, “आख़िर तुझे जाना ही पड़ेगा। ख़र्च का फ़िक्र करो। तू मेरे लिए इतना सा काम भी नहीं कर सकती?” बिना कोई और सवाल किए मैंने स्टेशन फ़ोन किया।

    फ़्लाइट लेट थी। मैं इंतज़ार गाह में लोगों के जम-ए-ग़फ़ीर के दरमियान टहलती रही। दौलत की तलाश में पराए देसों को जाने वालों की आँखों में आँसू और ख़्वाब, बच्चे और सामान, ट्रालियाँ, क़ुली, गरजते हुए, लैंड करते जहाज़, गड़गड़ाहट से सरों के ऊपर से गुज़र कर मंज़िलों को रवाना होते हुए तय्यारे, आवाज़ में रोना, हँसी, बिछड़ना, वादे, चाहतें, मज़ीद आरज़ूएँ, एक गंगा-जमुनी भीड़। नई रोशनी की तेज़ लड़कियाँ अजीब तराश-ख़राश के लिबास पहने, ख़ुद-आगाह, बाल झुला झुलाकर सर को घुमा कर अपने गिर्द-ओ-पेश देखती हुईं, खनकते क़हक़हे, गूँजती हँसी तेज़ अंग्रेज़ी, ऊँची गुफ़्तगू, दिखावा, बनावट, पसंदीदा नज़रों के हिसार में अपने सह्र से आश्ना, जिन्हें देखकर बे-इख़्तियार सीटी बजाने को जी चाहे। लड़के मज़हकाख़ेज़ चूहों की तरह फिल्मों के हीरो, लड़कियों के गिरोहों के गिर्द चक्कर काटते हुए अपने बापों के साथ दिलचस्पी से उर्यां निगाहों से अपने गर्द-ओ-पेश निगाह दौड़ाते नीचे सुरों में बातों के सैलाब में बहते हुए मगन मसरूफ़, ऊपर ऊपर घूमते फिरते हुए घाग शिकारियों के सारे दाव पेच से आश्ना।

    मैं टहलती हुई ज़रा परे जंगले के साथ दूर चली गई और उससे सर लगा कर मीलों तक फैले हुए रनवे की तरफ़ देखने लगी जहाँ छोटे बड़े जहाज़ों की भीड़ थी। सीढ़ियाँ घसीटी और लगाई जा रही थीं। एक भगदड़ मची थी। अमले के लोग, मोटरें,सामान और जाने क्या-क्या। इस मंज़र से थक कर मैंने अपने अतराफ़ देखा। लड़की के रुख़्सार, घड़ी घड़ी गुलाबी हो जाते। कान सेबों की तरह सुर्ख़ी से चमकने लगते। वो दोनों चुप थे। एक दूसरे से बहुत क़रीब भी थे। लड़का मेरी तरह अपने सामने देख रहा था मगर जब वो सर को घुमाकर उसकी तरफ़ देखता तो वो यूं छुई-मुई सी अपने हाथों तक, उँगलियों की पोरों तक रंगीन होजाती। हाय ये निगाह की रंगीनी थी। भीगी हुई चुनरी की तरह की ये लड़की रंग में डूबी थी। सरशार, बेचैन, पुरसुकून, वारफ़्ता।

    मुझे वक़्त घसीट कर पीछे ले गया। उस जँगले से दूर, उन बरामदों में जहाँ मैं ऊंची एड़ी का जूता पहने खट खट करती चली थी गोया ज़ेबा असफ़हानी के दिल पर चल रही हूँ। ज़ेबा को अपने हुस्न का ग़र्रा और अपने ईरानी होने पर नाज़ था। वो अभी नया नया आया था और लेक्चर देते वक़्त जब वो समझाता और सीधा तुम्हारी आँखों में देखता तो दिल सीने में डोल जाता था। मैं, जिसे अपनी शोख़ी पर एतिमाद था समझती रही कि वो कहाँ जाएगा। चंद दिनों में उसका ग़रूर नियाज़ में और उसका सर मेरे क़दमों में होगा। ऐसी छोटी छोटी फ़ुतूहात से तो मेरा दामन भरा हुआ था। ज़ेबा तो उसे दरखोर एतना ही समझती थी। चंद दिनों बाद मुझे और अच्छा लगने लगा। वो क्लास में जब भी ज़ेबा की तरफ़ देखता मैं महसूस करती कि ज़ेबा की लम्बी पलकें रुख़्सारों पर झालर की तरह झुक जातीं और वो गुलाबी होजाती। अजीब ख़ुद-फ़रामोशी से वो उसकी निगाह का जवाब देने के बजाय अपने सामने दोनों हाथ रखे नाख़ुनों की तरफ़ देखती जिसमें सुर्ख़ी तेज़ी से झलकने लगती थी।

    अच्छा तो इस खेल में कहीं कोई ग़लती हो गई है। ये अजीब बेक़ाइदा मुसल्लस थी। दरमियान में वो था और उसकी निगाहों की सारी रोशनियाँ उसके लिए थीं और मैं थी जो उसके लिए कुछ थी और जिसका दिल क्लास में आने से पहले (और बाद में सारा दिन) यूँही धड़का करता था। एक दहकती हुई गर्मी मेरे सारे वजूद को तड़पाती रहती। मगर मेरा हुस्न-ए-जहाँ सोज़ बेकार, मेरी आज तक की फ़ुतूहात ग़लत थीं। मैंने इतनी ज़िल्लत कभी उठाई थी। मैं उसके पास से गुज़रती भी तो वो मेरी तरफ़ मुड़कर देखता। रोज़ मेरे लिए एक नया मुक़ाबला होता था। मैंने अपना आप आज़माना चाहा और मैं जहन्नुम में से गुज़र गई।

    मैंने उसे पैग़ाम भिजवाया। रात को दरवाज़ा खुला रखना। मैं ज़ेबा का एक ख़ास पैग़ाम लेकर आऊँगी। वो ख़ुशी से तक़रीबन दीवाना हो गया था जैसे उसने सुर्ख़ गुलाबों का अक्स अंधेरे में देख लिया हो। जैसे तारीक पानियों पर डोलते कंवल के होंटों को सूरज की किरन छूए और वो हौले हौले खिलने लगे। मेरे सीने में दिल को कोई चुपके चुपके मसल रहा था। मैं जैसे मौत के बंद किवाड़ों को खोलने जा रही थी। अपने मुक़द्दर के नविश्ते को पढ़ने के लिए मैंने रो-रो कर उसे अपना हाल-ए-दिल सुनाया। मैंने कहा था ज़ेबा एक ख़्वाब है। तुम उसे कभी हासिल कर सकोगे। वो पराए देस चली जाएगी तो लौट कर नहीं आएगी, सकेगी। उसका वतन कोई और था... मैं तुम्हारी ज़िंदगी सँवार दूँगी। मेरे पास ज़राए थे, ख़ानदान था। वो निगाहों में तमस्ख़र लिये निहायत ख़ामोशी से मेरी बातें सुनता रहा। उस घड़ी मुझे लगता था, मेरी रूह टुकड़े टुकड़े हो कर किर्चियाँ हो कर मेरी आँखों से बह रही है। मैं टूटे हुए शीशे चबा रही हूँ और अभी गिर कर बेहोश हो जाऊँगी।

    उसने हँस कर कहा था, “बीबी, चाहत को तुम क्या समझती हो कि जब चाहो क़ीमत चुका कर ख़रीद लो। या ये चराग़ है कि जब तीली दिखाओ जलने लगे, मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता अब तुम जा सकती हो।” जब वार्डन ने मुझे उसके कमरे से निकलते हुए देखा तो मेरा रंग हल्दी की तरह ज़र्द था। चेहरा आँसूओं से धुला हुआ,आँखें धुँदलाई हुई थीं और मैं तक़रीबन गिरी जा रही थी। रात आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी थी। उसने दो बातों में से एक को चुनने का इख़्तियार दिया गया। वो मुझसे शादी कर ले और यहीं ठहरा रहे या फिर ख़ुद इस्तीफ़ा पेश कर दे और चला जाये।

    हाय कैसे उसने इनकार कर दिया था और चुपचाप चला गया था। उसने मेरे बदले वो ज़िल्लत क़बूल करली थी। मेरी क़ीमत ज़िल्लत से भी कम थी। अज़ाँ अर्ज़ां बे-क़ीमत मैं। उस के जाने के बाद से मर्दों पर से मेरा एतबार उठ गया। अपने हुस्न की चमक भी धुँदली और बेकार का फ़साना लगी। मेरे चारों तरफ़ खला था जिसमें लड़कियों के क़हक़हे गूँजते और उनकी निगाहें तीरों की तरह मेरे आरपार होती जातीं, मगर मैं सर ऊँचा किए ज़ेबा असफ़हानी के दिल पर चलती रहती। बेपनाह ख़ुद एतिमादी के साथ क्योंकि मैं आग की मेहराब तले से गुज़र गई थी और मैंने अपना सारा माज़ी, सारा मुस्तक़बिल जला डाला था। मैंने मुहब्बत की ख़ुशबू के बदले अँगारे सूँघे थे और दिल जलने की बू सारी उम्र मेरे दिमाग़ में तैरती रही है। हाय मुझे किसी ने कभी ऐसे क्यों नहीं चाहा कि मैं रंग से भीगी हुई चुनरी लगूँ।

    ब्रिटिश एयरवेज़ की फ़्लाइट के लैंड करने का ऐलान किया गया। तय्यारा रनवे के दूसरे सिरे पर एक बड़े परिंदे की तरह उतरा। फिर वो उसे और क़रीब लाए। सीढ़ियाँ मुसाफ़िरों को लाने के लिए, लारियां सामान के लिए, गाड़ियाँ, रौनक़ और चहल पहल हो गई, फिर लोग अपने सामान के साथ बाहर आने लगे। सबसे आख़िर में वो उसे लाए। ख़ूबसूरत पिंजरे में चमकते हुए सुनहरे बालों वाला, रोशन और ज़हीन आँखें, थूथनी बहुत लम्बी और ही छोटी, साफ़-सुथरा धुला-धुलाया। बेहद स्मार्ट कालर पहने बड़ी बेपरवाही से अपने गिर्द-ओ-पेश देखता हुआ, कभी सर अपनी अगली फैली हुई टांगों पर रख लेता और आँखें बंद कर लेता। मुझे वो बहुत उम्दा लगा।

    मैंने पिंजरे के साथ साथ चलते पुकारा। शेरी शेरी। उसने हवा में नाक उठाई, कोई मानूस सी बू सूंघी, ग़ौर से मुझे देखा, अफ़ अफ़ किया जैसे पुकार का जवाब दे रहा हो और फिर मुँह अपनी टाँग पर रख लिया। उसका सर हिल रहा था, जैसे वो हांप रहा हो। चल चल कर थका हुआ बैठा हो। एय होस्टस ने उसकी ज़ंजीर मुझे थमाई। उसके साथ एक ख़त भी था।

    “काश मैंने तुम्हारी बात मान ली होती और शेरी को भेजा होता। इससे जुदा होते वक़्त हमारा दिल कट कट गया है। रुस्तम उदास है। नूर बहुत रोई है और मैं तो बाक़ायदा ग़मज़दा हूँ। जब वैन उसे लेने आई है तो ये उनसे छूट कर घर में घुस गया और ग़ुस्लख़ाने में छुप गया। बड़ी मुश्किल से उसे घिसट कर निकाला गया, ये हमें बहुत अज़ीज़ है। तक़रीबन एक फ़र्द की हैसियत से इसमें बहुत सी खूबियाँ हैं। ये बहुत मुहब्बत करने वाला है। और उम्मीद है तुम अम्माँ के घर में सारी कोशिशों के बावजूद इससे नफ़रत नहीं कर सकोगी। तकलीफ़ फ़रमाई के लिए शुक्रिया। हम लोग कल जद्दा रवाना होंगे। अल-विदा।

    एयरपोर्ट से बाहर आकर मैंने वो ज़ंजीर उसके कालर में अटकाई। उसने गहरी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। मेरे हाथों को सूँघा। मेहर की और मेरी महक एक सी होना चाहिए। उसने बिना मुज़ाहमत के ज़ंजीर के साथ मुझे अपना मालिक तस्लीम कर लिया। मैंने उसे बिस्कुट दिया जो उसने खा लिया और पानी पी कर हम दोनों अम्माँ की तरफ़ रवाना हुए।

    ट्रेन में वो सीट पर बैठा शीशे के साथ मुँह लगा कर बाहर झाँकता रहा। खेतों, नदी नालों और उन सब पर झुका नीला आसमान, धूप रोशनी की तरह भरी हुई और बहुत तेज़। वो इस नई ज़मीन से वाक़फ़ियत पैदा कर रहा था जिसकी आम आदमी को ज़रूरत नहीं होती। वो उसके रंगों और ख़ुशबुओं और बदलते मनाज़िर दरख़्तों और हवाओं को ज़ेर कर रहा था, जहाँ टिमटिमाती बत्तीयों पर और दूर जलते चराग़ों पर स्याह अब्र आलूद रात छाई हुई थी और चांद सितारों के साथ आँख-मिचोली खेलता फिरता था। शेरी की तन्हाई और ग़रीब-उल-वतनी ने मेरे दिल को आँसूओं से भर दिया।

    अम्माँ बीमारी के बाद से ख़्वाब आवर गोलियाँ खाने लगी थीं और इसलिए दिन चढ़े तक सोया करतीं, मैं दफ़्तर जाने के तक़रीबन तैयार हो चुकी होती तो वो शेरी कह कर पुकारतीं। निहायत तमीज़दारी से मेज़ के क़रीब नीचे बैठ कर वो अपने प्याले में कभी दूध और डबल-रोटी, कभी गोश्त खाता, निहायत चबाकर, आहिस्ता-आहिस्ता, जैसे कोई आहट भी करना चाहता हो। अम्माँ कहतीं मेहर ने इसे क्या उम्दा पाला है, आदमी के बच्चों से ज़्यादा तमीज़दार है। उन्हें ख़्वाही नख़्वाही मेहर की तारीफ़ करने की आदत सी थी।

    मौसम बदला, दर्जा हरारत बढ़ने लगा। गर्मी में तेज़ी आती गई और शेरी बहुत घबराया हुआ रहने लगा। हाँफ्ता हुआ, ज़बान लटकती हुई, तेज़ साँस लेता हुआ। अम्माँ उसे अपने साथ कमरे में बंद रखतीं। शाम को मुझे कहतीं ज़रा इसे टहला दिया कर, बेचारा परदेस में आन फंसा है। मेहर ने ज़ुल्म ढाया है। भला सर्द मुल्कों से तो आकर यहाँ तो लोग ये गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकते, ये तो ज़रा सा बे-ज़बान जानवर है।

    और यूं शामों को जब गर्म रेत की ठंडक मिलने लगती, हवा नर्म नर्म झोंकों से क़ाबिल-ए-बरदाश्त होजाती, शेरी को टहलाने ले जाने लगी। वो सायों पर भौंकता, टिड्डों की चर्चर सुनकर ख़ामोश खड़ा होता जैसे किसी दूर के सय्यारे की सिम्फनी या किसी देस की मूसीक़ी हो, फिर भागता और इसकी छोटी सी दुम उठी हुई होती, घास पर उल्टा लेट कर लोट लगाता और जुगनुओं को पकड़ने की कोशिश करता। फिर अफ़ अफ़ करता और मेरे क़दमों में झुकता फिर चकफेरियाँ लेता और मेरे साथ चलता रहता। बैलों के पीछे भागने में उसके सुनहरी बाल सीधे खड़े हो जाते और वो तेज़ी से उन पर झपटता। जब वो दो बिल्लियाँ इकट्ठी होतीं तो उससे ज़रा डरतीं, उसे थप्पड़ मारतीं। बेचारा चूं चूं करता और दुम दबाकर मेरी टांगों से लग कर खड़ा होता गोया पनाह-गाह में हो। कभी चिड़ियों को देखकर आँखें बंद करके सोता बन जाता, वो उसकी गर्दन पर बैठतीं जैसे उसकी परवाह ही करती हों। कभी एक-आध को पंजे में दबोच कर बैठा रहता। जब वो दिल की तरह ख़ौफ़ से धड़कने लगती तो यक-ब-यक उसे उड़ा कर तमाशा देखता।

    उसकी तबीयत में ज़रर रसानी थी, इसलिए घर में जो मेहमान आता, शेरी से उसका तआरुफ़ करवाया जाता। अम्माँ उसकी नस्ल और मुल्क और उसके अंग्रेज़ी ज़बान समझने से बहुत मरऊब थीं फिर और खूबियाँ तमीज़-दारी, उम्दगी, खेल और खाने के आदाब सब उस की वक़अत में इज़ाफ़ा थे। अम्मां के सुबह देर में उठने की आदत ने मुझे शेरी की तरफ़ ज़्यादा तवज्जो देने पर मजबूर कर दिया। मैं तैयार हो रही होती तो वो पास ही डोलता रहता। मेरे जूते लाकर क़रीब रख देता। मेरे हाथ से कोई चीज़ छूट जाती तो लपक कर मुँह में उठाकर मुझे पकड़ा देता और अब मैं अक्सर उसके बालों में कँघी कर देती और उनके सुनहरे मुलाइम बहाव को महसूस करके मेरा जी ख़ुश होता। अगर कभी मैं मेहर की पसंदीदा ख़ुशबू लगा लेती, बस दीवाना होने लगता। मेरे गिर्द घूमता, मेरे दामन पर अगले दोनों पाँव रख देता, मुझे सूँघता, यूँ हुमकता जैसे गोद में आना चाहता हो। मगर मैंने किसी भी बात से मुतास्सिर होने और मेहर की किसी शैय को पसंद करने की जी ही जी में क़सम उठा रखी थी और शेरी की ये सारी हरकतें मुझे छू सकतीं। अलबत्ता जानवर की जो मुम्किन देख-भाल हो सकती थी, उसमें मैं अम्माँ का हाथ बटाती और यूँ मैंने हौले हौले उसका ज़्यादा ख़्याल रखना शुरू कर दिया।

    शदीद गर्मी के दिन थे। लू चल रही थी। झुलसाए देती थी। दफ़्तर से आकर में सख़्त ठंडे पानी से नहाली और तक़रीबन बेहोश हो गई फिर यकदम तेज़ बुख़ार आगया। अम्मां घबरा ही गई होंगी कि उन्होंने इधर उधर मेरी दोस्तों को फ़ोन किए। कई दिनों हिज़यानी कैफ़ियत रही और फिर लोट-पोट कर मैं तंदुरुस्त हो गई। शेरी मुझे दुबला लगा और बहुत ही बे-आसरा उदास भी। इस दिन मैंने पास बुला कर उसके सर पर हाथ फेरा और उसके प्याले में गोश्त डाला। अम्मां कहने लगीं, “इसे देखो तुम बीमार क्या हुईं इसका तो खाना पीना ही छूट गया। दिन रात तुम्हारे पलंग की पाएंती के नीचे बैठा रहता, जैसे उसे तुम्हारी बीमारी की बहुत फ़िक्र हो अपनी औलाद से भी बढ़कर, हंसकर मैंने शेरी की तरफ़ देखा। एक एहसास-ए- तशक्कुर, उस भरे पुरे घर में कोई तो है जो मेरे लिए परेशान हुआ।

    अम्माँ फिर बोलीं, “चलो आज उसके मुँह पर रौनक़ तो आई। मुझे तो सख़्त फ़िक्र लग गई थी कहीं ये मर ही जाये। अजीब जानवर है, अपने असल मालिकों को भूल कर तुमसे इतना हिल गया है।” मैंने चिड़चिड़ा कर अम्माँ से कहा, “क्या मतलब है आपका, मुझसे अगर एक जानवर भी मानूस हो तो आपको एतराज़ होता है।”

    “अरे नहीं बदनसीब, मुझे किसी बात पर एतराज़ नहीं है अगर तुझसे कोई इंसान ऐसे मानूस हो तो मेरा बोझ टल जाये मगर तेरी सख़्त तबीयत की वजह से कोई तेरे क़रीब ही क्यों आएगा, हर किसी को तो काट खाने को दौड़ती है, लोगों को फ़रिश्ता चाहती है। ऐसी उम्र में कौन ऐसा वफ़ादार मिलेगा।”

    मेरी और अम्माँ की ख़ूब तू तू मैं मैं हुई। किसी ने खाना खाया। हम दोनों रक़ीबों की तरह एक दूसरे पर चीख़ती रहीं। मेरा जी चाहता था ख़ूब धाड़ें मार मार कर रोऊँ और दीवारों से सर टकराऊँ या उस घर को आग लगा दूँ जो मेरा क़ैदख़ाना बन गया था। मैं उस दिन को याद करके ऊँचे ऊँचे बैन करके रोई जब मैंने पापा की बीमारी की वजह से अम्मां के मायूसकुन ख़त पढ़ कर एक दम अमरीका छोड़ने का फ़ैसला किया था और सब कुछ छोड़ छाड़ मुस्तक़बिल के सुनहरे और रुपहले ख़्वाबों को अपने पीछे कश्तीयों की तरह जलाकर घर वापस आगई थी और अब अम्माँ मुझी को इल्ज़ाम दे रही थीं। दुश्मन की तरह मेरी तबीयत और मेरी आदतों में सौ-सौ कीड़े निकालती थीं। अमरीका में क्या कुछ नहीं था, मवाक़े, आज़ादी, चाहने वाले लोग, निबाह करने को तैयार, मेरी रिफ़ाक़त में मसर्रत महसूस करने वाले और वो भी तो था मेरा जर्मन दोस्त।

    छुट्टी के दिन अपने कमरे में, जो ऊपर की मंज़िल में था, मुझे मदऊ करता। वो गिटार बजाता, मैं मशरिक़ी खाने पकाती, फिर मिलकर राइन वाइन पीते जुरआ जुरआ और अपने अपने मुल्क की कहानियाँ लतीफ़े सुनाते। कभी बहस चल निकलती मूसीक़ी और आर्ट और ख़ुदा जाने क्या-क्या। उसके कमरे की खिड़कियाँ झील की तरफ़ खुलती थीं,जहाँ लोग कशतीरानी करते। स्केटिंग रिंग थे, फ़व्वारे थे और पार्क में लोग निहायत पुरानी धुनें बजाते थे। कभी-कभार हम चुपचाप बैठते रहे। इतनी ख़ूबसूरती और तकमील में बातें करना बेमानी लगता। बस उस कमरे में उस लम्हे में हम दोनों ज़िंदा हैं ये बहुत था। उसने कभी मुझे नहीं कहा कि वो मुझे चाहता है। चूँकि मैं दूसरों से मुख़्तलिफ़ थी, उसे अच्छी लगती थी। वो बहुत सीधा था और मुझे कहा करता था, “तुम अपने देस में जाकर जब किसी से शादी करोगी तो वो बहुत ख़ुशक़िस्मत होगा। तुम में बहुत खूबियां हैं मर्दों को समझने की, उन्हें ख़ुश रखने की।” हम दोनों हंसते रहते, वक़्त गुज़रता रहा और फिर वक़्त गुज़र गया।

    आख़िरी दिन जब हमारा इम्तहान हो चुका था, हम वतनों को लौट रहे थे। छुट्टियाँ गुज़र चुकी थीं, गिटार में रुके सब गीत गाए जा चुके थे तो उसने सीढ़ियों के नीचे बड़ी दोस्तदारी से मेरा हाथ पकड़ कर कहा था, “क्या मुझसे शादी करोगी।” हंसकर मैंने कहा था, “मैं सारी उम्र खाना पकाकर तुम्हारा जी ख़ुश नहीं कर सकती। तुम हमेशा मशरिक़ी खानों के दिल-दादा नहीं रहोगे। गुज़री हुई सोहबतों और साथ गुज़ारे दिनों और मोहब्बतों का शुक्रिया।” वो देर तक मेरी आँखों में देखता रहा जहाँ हंसी उबल रही थी और मेरे रुख़्सार इंतिहाई सर्दी की वजह से गहरे गुलाबी हो रहे थे। फिर उसका रंग फीका पड़ा और ज़र्द हो गया और वो कुछ कहे बिना ऊपर की तरफ़ बढ़ गया और मैं भारी क़दमों से लौट आई।

    अब बहुत देर हो गई थी, उसने इतने लम्बे अर्से में कभी भी तो इशारे से, किसी लफ़्ज़ से, ये तक नहीं कहा था कि मुझे चाहता है। हम बहुत अच्छे दोस्तों की तरह थे। ये मेरा वहम था कि उसका रंग उड़ गया था और कुछ कहे बिना मुड़ जाने का जवाज़ ये था कि उसे जल्दी थी। मैंने ज़ेहन में बेकार की तस्वीरकशी कभी नहीं की। सर को झटक कर मैं शाम की फ़्लाइट से वापस वतन आगई और इस डर से कि मबादा मुझे कोई लौटा दे मैंने उसे लौटा ही दिया। हाय बर्बाद शुदा। मैं कुछ दिन अम्मां और मैं रूठे रहे। शेरी अम्माँ के बुलाने पर भी उनकी तरफ़ जाता। मेरे सिवा उसे किसी से कोई सरोकार था। अम्माँ ख़ूब जिज़ बिज़ होतीं, मुझे कोसतीं एक दो बार उन्होंने शेरी को हल्के से थप्पड़ भी मारे, वो पिट कर आता और मेरे पाँव के क़रीब निहायत सआदत मंदी से बैठ जाता। ज़बान निकाले सर हिलाता हुआ, डरा हुआ, बेबस सा और मुझे उसकी ग़रीब-उल-वतनी पर प्यार आता, फिर मैं उसे समझाने लगती।

    “देखो शेरी तुम्हें घबराना नहीं चाहिए, तुम तो बहुत बहादुर बच्चे हो, ये बुरा और जुदाई का ज़माना है, गुज़र जाएगा फिर तुम अपने वतन लौट जाओगे। जहाँ ठंड होगी। तुम अपने नर्म और गर्म बिस्तर में लेटोगे। तुम्हारे साथ नूर खेला करेगी। वो तुम्हें नहलाने ले जाया करेगी। वो तुमसे बहुत प्यार करेगी, असल मुहब्बत जिसमें दिल का फूल खिलता है और कोई तुम्हारी पिटाई नहीं करसकेगा। तुम नूर के पास हर जलने वाली आँख से महफ़ूज़ होगे।” उस की आँखों में आँसू होते और वो मेरी टांगों से अपना सर मलता मेरे पाँव को सूँघता।

    क्या वो अभी तक नूर का और मेहर का और रुस्तम का PET था? क्या उसके जाने से मैं उदास नहीं हो जाऊँगी। मैं सर को झटकती। मुझे पराए शेरी से जो महज़ वक़्त गुज़ारी के लिए यहाँ भेजा गया था, इस लगाव का कोई हक़ नहीं। मैं उठकर ऊपर के कामों लग जाती वो मेरा पीछा करता। मैं कहती शेरी मेरे पीछे मत आओ, वहीं बैठो। वो अपनी शफ़्फ़ाफ़ निगाहों से मेरी तरफ़ तकता रहता। अजीब मख़मसे में फंस गई थी मैं। जब वो नूर को देखेगा तो उससे भी यूंही चाहेगा। ये उन्सियत का चक्कर भी क्या है भला।

    मैं इंसानी फ़र्ज़ समझ कर उसकी देख-भाल करती रही, उसे नहलाने ले जाती रही, उससे बातें करती रहती ताकि वो तन्हाई महसूस करे। चंद दिनों के लिए मुझे किसी दूसरे शहर जाना पड़ गया। फिर दोस्तों की ज़िद की वजह से दो-चार दिन और रुकी रही। घर में मेरा था ही क्या? अम्मां जिनसे अक्सर बात बे बात मेरा झगड़ा हो जाता था। वो मुझसे ख़्वाही ख़्वाही उलझती थीं और मैं भी उनकी बात बर्दाश्त नहीं करती थी। रस्सा-कशी चलती ही रहती। मैं उन्हें एक भारी बोझ लगती थी, जिसे महसूस करके उनका जी दहलता था। वो ढूंढ-ढूंढ कर मुझमें कोताहियों और ख़ामियाँ निकालतीं। मेरे अकेलेपन को मेरी बदनसीबी शुमार करतीं। असल हिसाब तो आदमी का अपने से होता है और अम्माँ के अपने हिसाब में कहीं गड़बड़ ज़रूर थी। मुझे देखकर आहें भरतीं। बहुत उदास उदास रहतीं मुझे कुछ भुलाने ही देतीं हालाँकि उनकी दूसरी बेटियाँ उनके बेटे और बहुएं कोई साल दो साल में एक-आध बार ही इस घर में झाँकता था। वो उन सबको याद करके रोती रहतीं। उन्हें पुकारतीं, ख़त लिखतीं, उनके लिए दुआएं करतीं और मैं ग़ुस्से के मारे अपने कमरे में उबलती और जलती रहती।

    आख़िर मुझे इसी क़ैदख़ाने में वापस आना होता था। मेरी वाहिद पनाहगाह था... भोंक-भोंक कर शेरी ने बुरा हाल कर लिया। ख़ुशी से पागल हो गया। मेरा बैग अपने क़ब्ज़े में कर लिया। पर्स को मारे ग़ुस्से के क़ालीन पर घसीटता रहा। सोफ़े पर चढ़ कर बैठ गया और मुझे कोने से बाहर जाते देखकर कूद कर कंधों पर दोनों अगले पाँव से लटक गया। अजीब दीवानापन से रोता रहा जैसे ख़ुशी के बोझ तले निहायत परेशान हो। रात जब मैं लेटी हूँ, दिन भर की धूल झाड़कर ख़्यालों की यूरिश से बचने के लिए मैंने करवट बदली तो शेरी आँखें बंद किए मेरे साथ लेटा था। मैं हौले हौले उसके सर पर हाथ फेरती रही। तमानीयत सुकून और राहत के शदीद एहसास के साथ। फिर वो और क़रीब आगया और उसने सर मेरे सीने के साथ लगा दिया। मुझे वो लड़का याद आया जो बहरी सफ़र के दौरान जहाज़ के अर्शे पर मुझे मिला था।

    आग़ाज़-ए-शबाब में क़दम रखता हुआ अल्लहड़ सा शरमाया हुआ सा वो हवाख़ोरी के दरमियान मुझसे बातें किया करता। बच्चों की सी बेज़रर बातें। समुंद्रों और हवाओं, तूफ़ानों और लहरों की, बादलों और आंधियों की, झक्कड़ों और समुंद्री मख़्लूक़ की। दरियाओं और पहाड़ों से उसे इश्क़ था। रंग उसे बेहद पसंद थे। मुझे ख़ूबसूरत कपड़े पहने देखकर खिल उठता। फ़रमाइश करता कि कल मैं नीले रंग की साड़ी पहनूँ। ये बेज़रर सी ख़्वाहिश मुझे भी ख़ुश करती। उसे फूल अच्छे लगते थे। मुझे कहता इस रंग में तुम डेज़ी लग रही हो। अजीब दीवाना सा बच्चा था। बैयक वक़्त समझदार भी और सीधा भी। एक शाम उसने फ़रमाइश की कि मैं उसके साथ नाचूँ। लहरों की तेज़ मूसीक़ी पर हम क़दम से क़दम मिलाए ऊपर बाँहों के सहारे झूलते रहे और जब हम एक निस्बतन तारीक गोशे में गए तो उसने अपना सर मेरे सीने से लगा दिया। मुझे अपने कमज़ोर बाज़ुओं के हलक़े में ले लिया और मुझसे उसी तरह लगा खड़ा रहा। अजीब कैफ़ियत थी। सुकून की लहरें सरशारी के साथ उसके सर से निकल कर मेरी सारी हँसी को हलकोरे दे रही थीं। समुंद्र की तरह उसकी मासूम चाहत ने मुझे अपने घेरे में ले लिया। मुझ पर से गुज़रने लगी। सीप में बंद मोती की तरह वक़्त की मौजें हम पर से बहती रहीं।

    और अब शेरी मेरे सीने से लगा था, आँखें बंद किए... घबराकर मुझमें सुकून ढ़ूँढ़ता हुआ। ये नूर का और मेहर का और रुस्तम का नहीं मेरा शेरी था और मैंने तहय्या कर लिया कि अब उसे कभी नहीं लौटाऊँगी, हरगिज़ नहीं।

    तातीलात और शदीद गर्मी के दिनों में वो लोग अम्मां से मिलने आए। शेरी को देखकर वो हैरान रह गए। इस एक साल में उसने ख़ूब क़द निकाला था। उसके डर की वजह से किसी अजनबी को घर में आने की जुरअत होती थी। लोगों ने आना कम कर दिया था। अम्माँ सख़्त ख़फ़ा थीं। आख़िर सीज़र भी तो इस घर में रहा था। उन दिनों ख़ान साहब ज़िंदा थे और उसे उन्होंने सर पर नहीं चढ़ाया था। मेहर से कहने लगीं, अजीब जँगली हो गया है। तुम अब के इसे अपने साथ ले जाओ। मैं चुपके से ये सब सुनती रही। मेरी तरफ़ मुड़ कर कहा, “जब तुम घर नहीं होती हो और मैं इसे खाने को कोई चीज़ दूँ तो बिल्कुल नहीं खाता, मुझ पर भौंकता है और बरामदे में बैठा रहता है। जब तुम आती हो तो ये दिखाई ही नहीं देता चाहे बिल्लियां घर में भरी रहें और आवारा कुत्ते दौड़ें लगाते रहें।

    मगर असली मालिकों के आने पर भी शेरी ने कोई ख़ुशी का इज़हार नहीं किया। दुम हिलाकर उनके गिर्द नहीं घूमा। नूर से भी बस वाजिबी सा इज़हार-ए-मोहब्बत किया। वो खींच कर बाहर ले जाती तो चला जाता और फिर फ़ौरन आकर मेरे पलंग के नीचे घुस जाता। वो चीख़ती हुई मेहर से कहती, “मम्मा, शेरी बहुत बदल गया है। बिल्कुल जंगली हो गया है।” और मेहर कहती, “तसल्ली रखो बच्चे, अब हम इसे साथ ले जाएंगे तो इसकी पुरानी ख़ुशतबई ऊद कर आएगी। ये तुम्हारा प्यारा शेरी बन जाएगा। मैं चुप रहती। उनके इरादों पर जी ही जी में हँसती और कुढ़ती।

    भई क्या मैंने मेहर को मना किया था कि वो उसे यहाँ भिजवाए और मैंने उसका क्या बिगाड़ा था। ये हमदर्दी का अनदेखा रिश्ता जो उसके और मेरे दरमियान क़ाइम हुआ था, इस में हालात का दख़ल था शेरी का और मेरी मर्ज़ी का। जैसे वक़्त के समुंद्र पर बहते दो तिनके किसी तुंद हवा के ज़ोर से एक दूसरे के साथ पैवस्त हो जाएँ। मुहब्बतें जो मुझसे की गईं, उनमें मेरी मर्ज़ी तो शामिल थी। मेरे लिए तो अब हर शैय बेकार थी और फिर किसी ने मुझे इतना कब चाहा था कि मैं उसके दामन से लग जाऊं। मुझे उस रात की अपनी ज़र्द रोती हुई सूरत अक्सर याद आई। वो कौन थी? जिसके आँसुओं में उसका दिल बह गया। टुकड़े-टुकड़े हो कर एहसास-ए-ज़िल्लत से लौटाए जाने के दर्द से अब भी बेताब हो जाती थी।

    उस दिन गर्मी सख़्त थी। नूर और रुस्तम शेरी को टहलाने ले जाना चाहते थे। मुझे दख़ल देने का कोई इख़्तियार तो नहीं था मगर मैंने कहा था, “नूर अभी ले जाओ, दिन को ज़रा ठहरने दो, शाम को आने दो, हवा में ख़ुनकी होले, फिर जाना।” उसने कंधे उचकाए बाप की तरफ़ देखा और शेरी को मेज़ के नीचे से निकालने के लिए उसके कालर को खींचा। शेरी ने ज़च हो कर और कोई राह-ए-फ़रार पाकर उसके हाथ पर काट लिया। मेहर ने चीख़ चीख़ कर घर को सिर पर उठा लिया। सब एक साथ चीख़ रहे थे। नूर शिकस्त और तकलीफ़ के एहसास से ज़मीन पर लेट रही थी। अम्माँ ने जो उनके जी में आया कहा। अगली तमाम तल्ख़ीयां उन्हें याद आगईं। ख़ूब ख़ूब उन्होंने मुझे कोसा और घर में फ़िज़ा एक दम सख़्त कशीदा हो गई। रात शेरी ने लेट कर सख़्ती से सर मेरे सीने के साथ लगा दिया। वो शायद अपनी ग़लती पर नादिम था और अपने आपको इतने शोर-ओ-गुल का क़सूरवार समझता था।

    “तुम बेवक़ूफ हो बच्चे, वो आख़िर चले जाते, नूर ने बहरहाल तुमसे ज़्यादती की है। तुम बहुत जल्दबाज़ हो।” वो दम साधे पड़ा रहा। मेरे हाथ के नीचे बिल्कुल साकिन और सोया हुआ और निहायत ख़ुश।

    सरगोशियों में बातें होतीं, मुझसे हर बात छुपाई जाती, अम्माँ की और मेरी बोल-चाल बंद थी। हम दोनों में और शेरी, गोया ज़ात बिरादरी बाहर कर दिए गए थे। खाना दो मरहलों में खाया जाता या फिर मैं अपने कमरे में खाती और शेरी को भी वहीं खिलाती। जब मैं काम पर चली जाती तब भी कोई उसको नहीं बुलाता था। आख़िर वो कब तक मेरी पनाह में रहेगा। आख़िर उसे उनके साथ ही तो जाना था। जैसे जैसे उनकी रवानगी के दिन क़रीब आरहे थे मेरा इरादा भी पुख़्ता हो गया था।

    मैंने अपने शेरी के लिए रेल में सीट बुक करवाई। सामान अपनी एक दोस्त की मार्फ़त स्टेशन भिजवाया। उस दिन शाम को मामूल के मुताबिक़ मैं उसे टहलाने के लिए बाहर ले गई और हम मुख़ालिफ़ सिम्त में अपने सफ़र पर रवाना हो गए। जब उन्हें पता चला तो क्या हुआ ये एक अलग दास्तान है। उनकी हाउ-हू का नतीजा ये हुआ कि मेहर ने अदालत में हदूद ऑर्डिनेंस के तहत मेरे ख़िलाफ़ एक मुक़द्दमा दायर कर दिया जो उसके चले जाने और अदम पैरवी की वजह से बिल-आख़िर ख़ारिज हो गया।

    शेरी और मैं मरी से लौट आए। अम्मां कुछ दिनों सख़्त ख़फ़ा रहें फिर जब बर्फ़ पिघली और शदीद तन्हाई ने उन्हें हिरासाँ किया तो कहने लगीं, “अच्छा हुआ शेरी नहीं गया, थोड़ी रौनक़ रहती है।” मैं अम्मां से क्या कहती कि अम्माँ उस ढ़नडार बेकार ज़िंदगी में इस ख़ाली घर में मेरे आने पर कोई तो होता है जो मुहब्बत से मेरी राह देखता है। उछलता कूदता, इज़हार-ए- शौक़ करता और मेरे पीछे फिरता है। मेरे क़दमों पर लोटता है। मेरे सीने पर सर रखकर मुझे सुकून देता है। हुमक कर मेरी बाँहों में आने की कोशिश करता है। मुझ पर इतना हक़ समझता है। भला टूट कर ऐसा किसी ने मुझे कभी चाहा है।

    मिलने वाले कहते हैं जैसा तुम शेरी को चाहती हो, ऐसा तो बहुत कम माएँ अपने बच्चों को चाहती हैं। मैं उनकी आवाज़ में छुपे तंज़ को समझती हूँ, मगर यही मुहब्बत तो अब मेरी ज़िंदगी है। वो मेरा महबूब, मेरा हमदम मेरा साथी है। जब सब तरफ़ सन्नाटा होता है तो उससे अपने दिल की बातें कहती हूँ, उसको खोई हुई चाहतों के तज़किरे सुनाती हूँ। मुहब्बतें जो मुझ तक पहुँच पाईं और छिन गईं। लगाओ जो मेरा मुक़द्दर बन सके। वो सारे गुज़रे नौहे जो जाने वालों के लिए मेरे दिल में बंधे, मैंने शेरी को सुनाए। उसके सीने में मेरे राज़ हैं, वो मुकम्मल साथी है। चुपचाप मुझे काम में मुनहमिक देखकर तअर्रुज़ करने वाला, मेरी कैफ़ियात, मेरी ख़ुशी गम सब उस पर अयाँ, वो नब्ज़ की तरह मेरे दिल के साथ धड़कता हुआ। इंसानों की मोहब्बतों में ये गर्मजोशी और ख़ुद सुपुर्दगी कहाँ होती है। शेरी तो मेरे लिए जान से गुज़र सकता है।

    मेहर के साथ मुक़द्दमे के सिलसिले में मैं मेरी एक मजिस्ट्रेट से मुलाक़ात हुई। मेरे कामों में उसने बहुत दिलचस्पी ली। फिर आहिस्ता-आहिस्ता हमारी मुलाक़ातें बढ़ीं। मैं अपने दफ़्तर से आते हुए या उधर से गुज़रते हुए उसके पास चली जाती। काफ़ी का प्याला लेकर इधर उधर की गप होती। शेरी की बातें, उसकी ज़हानत, उसकी चालाकियाँ, घर में उसकी रौनक़, ज़िंदगी में उसका मक़ाम, वो सुनता और दिलचस्पी से ये सब सुनता मगर उसने कभी ये नहीं कहा वो शेरी को देखना चाहता है। अजीब आदमी था। अब मैं उलझने लगी थी। भला वो क्यों नहीं देखना चाहता। हमारी दोस्ती बढ़ती भी रही और उसमें दराड़ भी पड़ती गई। मेरा जी चाहता वो मुझसे शेरी की बातें पूछे।

    फिर मैंने महसूस किया जब मैं शेरी की बात करती हूँ, वो तवज्जो से नहीं सुनता कोई इधर उधर की कहानी सुनाने लगता है। अपनी ज़िंदगी के ख़लाओं का ज़िक्र, अपने दुखों और अरमानों का तज़्किरा, अपनी दाइम उलमरीज़ बीवी की बीमारी के अज़ाब के क़िस्से, अपनी तन्हाई के कर्ब का अफ़साना, अपनी ख़ाली खोली बेकार (ज़िंदगी का अलमिया जिसमें पारसाई और बे-रंगी के सिवा कुछ था। ख़ुदा के साथ अपने तअल्लुक़ात का कहता जो कभी उस्तवार हो सके थे। ख़्वाबों और परछाइयों की सी दास्तान। पता नहीं वो मुझे क्या कहना चाहता था, क्या समझाना चाहता था? मैं जो ख़ुशवक़्ती, गप और ज़ेहनी आसूदगी के लिए उसके पास चली जाती थी, उसकी क्या मदद कर सकती थी भला। क्या हल्की फुल्की दिलचस्पी का धारा किसी और रुख पलटना चाहता था।

    एक दिन उसने पूछा, “तुम शेरी से, एक जानवर से इतनी शदीद बेपनाह मुहब्बत क्यों करने लगी हो जब कि कई और इंसान उससे ज़्यादा तवज्जो के मुस्तहिक़ और मुतमन्नी हैं।” उस की हंसी बड़ी मानीख़ेज़ थी। पहली बार मुझे शदीद ज़ेहनी धचका लगा।

    “और पता है लोग कैसी कैसी बातें करते हैं तुम्हारे मुतअल्लिक़?” उसने आँखें झुका कर कहा।

    “लोग किस-किस की कहानियाँ नहीं कहते जनाब।” मैं खड़ी हो गई। मैं काँपती रही। ग़ुस्से और रंज से। दिनों में उधर से नहीं गुज़री। फिर सुना उसका तबादला हो गया। इस साल गर्मी शदीद पड़ी, लगता था क़ियामत इससे ज़्यादा क्या होगी। रेत के झक्कड़ चलते, आसमान ज़र्द गर्द के बादलों के पीछे छुप गया था जो बरसती थी और हटती थी बस अजीब रेज़ा रेज़ा हो कर वजूद को दहकाती थी और घुटन इतनी थी कि साँस रुकता हुआ लगता था। कमरों में भी पनाह मिलती, मैं शेरी को देखती कि उसकी आँखें ज़र्द हुई जाती हैं। वो बहुत कम जागता और नहलाए जाने के बावजूद गर्मी की लपटें उसकी साँस से निकलती थीं। बर्फ़ का ब्लॉक मँगवा कर मैं कमरे में रखती, आग बरसाता हुआ पँखा और कूलर कुछ कर सकते। शेरी दिन-ब-दिन घुलता जा रहा था। मैं उसे तसल्ली देती, जी से लगाती।

    “शेरी हिम्मत पकड़ो, ये ज़रा से सख़्त दिन हैं, निकल जाएंगे। मौसम बदलेगा,गर्द छट जाएगी, मज़ेदार सर्दी आएगी। अब के देखना ख़ूब हड्डियों का गूदा जमाने वाली ठंड पड़ेगी तुम्हारे वतन की तरह, मेरे लाडले मैं तुम्हारे लिए कुढ़ने के सिवा और क्या कर सकती हूँ। अगर अम्मां का बुढ़ापा होता, घर में कोई और होता, मेरे वसाइल होते, तो मैं तुम्हें किसी ठंडे पुरसुकून खित्ते में ले जाती, मेरे चांद हौसला रखो।” मैं उसके सुनहरे बालों पर हाथ फेरती जो उसकी खाल को छूते तो बुख़ार का एहसास होता। वो ज़रा सी अफ़ अफ़ करता। मैं बे-ताब होती, मैं क्या कर सकती थी। अपने प्यारे के लिए, इस अजनबी के लिए, इस परदेसी के लिए।

    मेहर का तार आया। रुस्तम की तबीयत सख़्त ख़राब थी वो हस्पताल में था। नूर अकेली थी और परदेस में थी, अम्मां को बुलवाया था। अम्माँ ने कहा तुम चली जाओ ना, आख़िर बहन हो, मुझसे तो हिला भी नहीं जाता। मैं उसके किस काम की होंगी। पिछली बातें भूल जाओ। उसे माफ़ करदो। शेरी को इस हाल में छोड़ते हुए मेरा दिल उथल पुथल हो रहा था मगर मजबूरी थी, हाय मैं क्या करूँ। अम्माँ ने कहा, तुम फ़िक्र करो, मैं यहाँ घर पर इसकी ख़ूब देख-भाल कर लूँगी। रवाना होने से पहले मैंने बर्फ़ वाले को ताकीद की कि वो रोज़ ब्लॉक ख़ुद कमरे में रख जाया करे। अलमारी में तक़रीबन सामने मैंने दवाइयाँ, बिस्कुट, ज़रूरी सामान रख दिया ताकि ज़रूरत पड़ने पर ढ़ूढ़ने में तकलीफ़ हो। जाते हुए मेरा दिल टुकड़े टुकड़े हो रहा था। मैं दरवाज़े में से पलट आई। शेरी आँखें मूँदे लेटा था और गर्मी की शिद्दत से तप रहा था। सीने से लगाकर मैंने उसके कान में कहा, शेरी में जल्द लौट आऊँगी घबराना नहीं। बस यूँ समझो मैं गई और आई।

    जददा में ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो मुझे ज़्यादा दिन ठहरना पड़ा। रुस्तम पर दिल का जान लेवा दौरा पड़ा था और वो बहुत आहिस्ता सेहतयाब हो रहा था। अम्माँ का फ़ोन आता, मेहर निहायत धीमे सुरों में बात करती, बड़ी ग़मनाक होती, मुझे भी उस पर तरस आता। कभी-कभार कहती, अम्माँ तुम्हारा पूछ रही थीं, ख़ैरियत से थीं, रुस्तम के लिए निहायत फ़िक्रमंद थीं मगर अपनी सेहत की वजह से नहीं आसकती। मैं उससे ये कह पाती कि अब के जब अम्माँ का फ़ोन आए तो शेरी का भी पूछ लेना। जिस दिन डाक्टरों ने इत्मीनान का सांस लिया, और रुस्तम की हालत को ख़तरे से बाहर क़रार दिया, मेहर की आँखों में ख़ुशी के आँसू और उसके चेहरे पर रौनक़ आई। मैंने उसके मना करने के बावजूद अपनी सीट बुक करवा ली।

    “आख़िर जल्दी क्या है तुम्हें, अम्माँ की ख़ैरियत तो मालूम हो ही जाती है। यहाँ से तार देकर छुट्टी बढ़वाई जा सकती है।”

    “बस अब मैं जाना चाहती हूँ, शेरी बीमार था।”

    अपनी सारी कमीनगी को आवाज़ में भर कर उसने कहा, “ओह!” और फिर पलट कर तेज़ी से कहने लगी, “अगर वो रहा तो तुम बेवा तो नहीं हो जाओगी।” मैं उसके घर में उसके शौहर की तीमारदारी के लिए मुसीबत में शरीक होने की ख़ातिर इतनी दूर से आई बैठी थी और वो मुझे शेरी के ताने दे रही थी। बिना उससे मज़ीद बात किए मैं सामान लेकर एयर पोर्ट आगई।

    घर में सब तरफ़ अजीब सन्नाटा था, हालाँकि दिन के तक़रीबन दस बजे थे। अम्माँ अभी तक सोई हुई थीं। कमरों में इधर उधर देखती शेरी को पुकारती मैं अंदर आई। शेरी अपने वजूद का साया लग रहा था। सहमा हुआ घुला हुआ। उसके पास झुक कर मैंने पुकारा, शेरी देखो मैं गई हूँ। नक़ाहत की वजह से उसकी आँखें नहीं खुलीं। हल्के से अफ़ करके रह गया। मैंने उसके सर को सहलाया, शेरी। शेरी, मैंने ज़ोर से पुकारा। अम्माँ कहने लगीं तुम्हें मैंने मेहर से कहलवाया तो था शेरी सख़्त बीमार है, वो भी दुखी हो रही थी। मैं भागी, डाक्टरों को फ़ोन किए, दुआ करती रही। ख़ुदा से मैंने कहा, “देख अगर तू ने मुझसे शेरी ले लिया तो मैं तेरी हस्ती में यक़ीन करना छोड़ दूँगी। अगर तुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता तो मुझे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तेरा ख़्याल है तेरी इस दुनिया में मुहब्बत की रोशनी के बिना पर जिया जा सकता है? इतने गहरे अंधेरे तूने बनाए हैं, क्या उजाले की एक किरन देने का बुख़्ल भी नहीं करना चाहता। तू सुनता है कि नहीं, ये चाहने वाली आँखें हैं, उन्हें बे-नूर कर, उलफ़त भरा दिल है इसे धड़कने के लिए छोड़ दे।”

    मगर वो आसमानों पर कहीं दूर बैठा जाने किस ताने में कौन सा बाना पिरोने में मगन था कि उसने मेरी बात सुनी ही नहीं, पता नहीं वो क्यों मुझसे ख़फ़ा था कि उसने मेरी तड़प का कोई जवाब ही नहीं दिया। डाक्टरों की सारी भाग दौड़ बेकार गई।

    मेहर मैं बेवा हो गई।

    अम्माँ ने कहा, “वो तो तुम्हारे जाते ही सख़्त बीमार हो गया था। मैं बेआस थी मगर पता नहीं कैसे इतने दिन तुम्हारे इंतज़ार में जी लिया। अपने तौर पर मैंने डाक्टरों से इलाज करवाया था। तुम समझती नहीं हो, मुझे भी इसकी बहुत परवाह थी, बड़ी रौनक़ रहती थी इसकी वजह से।”

    मेरा दिल एक वीराना था जिसमें तेज़ ग़मनाक आंधीयों के शोर के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता था। अज़ीयत और बेचारगी ने मेरे दिल को मसल कर रख दिया। ये एक जांकाह अज़ाब था। जिसका इससे पहले मैंने कभी तजुर्बा नहीं किया था, तब भी नहीं जब मैंने उसका दिल ज़ेबा की तरफ़ से अपनी तरफ़ लगाना चाहा था। बेख़्वाब रातें, तारीक दिन, सिर्फ़ एक ही ख़्याल था, हाय शेरी ने मेरे लिए कितनी अज़ीयत बर्दाश्त की, आख़िर क्यों की।

    और अब वो सब मुझे याद आते हैं... शेरी के पीछे वो सब।

    वो जो कभी मेरी राहों से गुज़रे... मैं जो कभी उनकी राहों में आई।

    क्या आदमी इतनी बे-रिया, बे-लौस, बे-पायाँ मुहब्बत करने का अह्ल है।

    स्रोत:

    ख़्वातीन अफ़्साना निगार (Pg. 81)

      • प्रकाशक: नियाज़ अहमद
      • प्रकाशन वर्ष: 1996

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