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शोबदा बाज़

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    स्टोरीलाइन

    ’’इस साल एक क़स्बे में एक नया और मुनफ़रद शोबदा बाज़ आता है जो ऐसा तमाशा दिखाना चाहता है जो पहले किसी शोबदे बाज़ ने नहीं दिखाया था और फिर तमाशे के दिन।

    ये मेरे बचपन की बात है और मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है।

    मैं ख़ाला के हाँ जावेद के साथ खेल रहा था कि ख़ालू एक इश्तिहार पकड़े अंदर आए।

    ’’अरी सुनती हो फ़रीदा बेगम। बनारस का कोई शोबदा बाज़ रहा है। अब की बार। नक़वी साहब कह रहे थे कि वो तो अपनी आँखें इतनी बाहर निकाल लेता है कि पीछे से पपोटे भी बंद कर लेता है, है ना कमाल की बात?'

    ख़ाला क़रीब की ऐनक लगाए, सिपारा पढ़ रही थीं।

    ’’ नई कहानी गुड़ से मीठी'

    ’’अरे सुना तुमने? और तो और वो तो अपना सर भी घुमा कर पीछे कर लेता है, जादूगर है जादूगर।

    ’’मुआ बनारस का जो हुआ, ठगी में, करतबों में उनसे भला कौन आगे ?'

    ’’तुमने ये नहीं सुना फ़रीदा बेगम।। सब पुराने शोब्दा बाज़ों से कहीं बढ़कर।। कहीं बढ़कर।। वो एक करतब ऐसे भी दिखाएग जो इस से पहले कभी किसी ने नहीं दिखाया और ये तो वो उस दिन ही बताएगा, अल्लाह जाने वो करतब क्या होगा।

    ’’अरे मुझे तो लगता है वो मुआ अपना सर धड़ से अलग करेगा या सारे मजमे को ग़ायब करेगा और ये करेगा तो बहुत ही अच्छा होगा।। क़िस्सा ही पाक हो जाए।। जब देखो शोब्दा बाज़''।

    ये सब सुना तो मुझे झुरझुरी सी गई। ख़ालू बड़बड़ाते हुए कमरे के अंदर चले गए।

    ’’जावेद सुना तुमने? आँखें यूं निकाल लेता है'।

    ’’मैं तो नहीं देखने जाउंगा मुझे तो डर लगता है'।

    ’’अम्मी कहती हैं जब भी डर लगे आयतल-कुर्सी पढ़ लिया करो, मैं तो जाउंगा।

    मैंने उसे अपना इरादा ज़ोर देकर बता दिया लेकिन मुझे उस की बात से सख़्त कोफ़त हुई कि उसने उतनी ही शिद्दत से जाने का इंदीया दिया। मुझे ये बात समझ नहीं आई कि वो इतने तरद्दुद से क्यों काम ले रहा था, शोब्दा ही तो देखना था। दूसरी बात ये कि शोब्दा बाज़ ने अपनी आँखें बर्बाद करनी थीं हमारी आँखें थोड़ा ही निकाल लेनी थीं।

    मैं नाराज़ हो कर घर गया लेकिन अम्मी को नहीं बताया कि मैं शोब्दा बाज़ को देखने जाउंगा। नज़र बचा कर गल्ले में देखा तो मेरे पास चार आने थे।

    मैंने तमाम सिक्को को अपनी मुट्ठी में लिया, उन्हें तौला।

    ’’एक सिक्का तो उनमें खोटा लगता है।। शोब्दा बाज़ के आने में अभी बहुत दिन हैं मैं उस वक़्त तक कुछ और सिक्के भी जोड़ लूँगा।

    मैं और जावेद स्कूल जाते हुए क़स्बे के क़ब्रिस्तान से गुज़रते थे जहां बड़ी बड़ी क़ब्रें थी। उनमें कुछ क़ब्रों पर बूटे थे जबकि कुछ क़ब्रों के अंदर से पूरे दरख़्त निकल आए थे।। आसमान की तरफ़ हाथ फैलाए।। जैसे इन मुर्दो के लिए अल्लाह के हुज़ूर मग़फ़िरत की दुआ कर रहे हो।

    इन क़ब्रों में एक क़ब्र बहुत पुरानी थी जिसके पहलू में बैरी का दरख़्त था जिस का साया कई क़ब्रों पर मुहीत था। उसे हम शान की बाबा की क़ब्र पता नहीं क्यों कहते थे। क़ब्र चट्टान को काट कर बनाई गई थी और काफ़ी मज़बूत थी। वहां हम सुस्ताने बैठ जाया करते थे या झूट-मूट का सो जाया करते थे। इस दिन भी हम वहां बैठ गए।

    जावेद ने बस्ते से संगतरा निकाला।

    ’’अब की बार इस शोब्दा बाज़ को देखने का कोई फ़ायदा नहीं। पिछले छः शोबदे बाज़ भी बस ऐसे ही थे। तुम्हें तो याद ही होगा पहले वाले ने क्या किया था ?'

    ’’वो हरी टोपी वाला?'

    ’’नहीं नहीं।। एक तो तुम्हें याद ही नहीं रहता जब भी तो मास्टर जी से हर वक़त मार खाते हो। मैं इस की बात बता रहा हूँ जिसका क़द छः गज़ लंबा था।। जिसने नाक पर झूट-मूट का छोटा प्लास्टिक का लाल गोला चिपका रखा था।। इस के गाल गुलाबी थे और सर पर फुंदने वाली टोपी थी'।

    ’’हाँ हाँ याद आया, तो ?'

    ’’नईम चाचा बता रहे थे कि वो इतना लंबा नहीं था जितना नज़र रहा था'।

    ’’हैं?'

    ’’असल में उसने पावं से बाँस बांध रखे थे।। यहां नीचे।। वो बाँसों पर चल रहा था, समझे?'

    ’’नहीं जावेद, मुझे तो कोई बाँस नज़र नहीं आए। उसने काली, सुर्ख़ और सफ़ैद धारियों वाली लंबी शलवार पहन रखी थी और उसने जूते भी पहन रखे थे तुम्हारी तरह, उस के पैर थे जभी तो।।''

    ’’शलवार उसने इस लिए पहन रखी थी क्योंकि वो बाँसों को छुपाना चाहता था और वो जूते।। झूट-मूट।। दिखावा था। जैसे ये देखो मैंने लंबे जूते पहन रखे हैं और किसी को भी नहीं पता कि मैंने किस रंग के मौज़े पहन रखे हैं। ऐसे छुपाते हैं''।

    ’’लेकिन मुझे पता है तुमने काले मौज़े पहन रखे हैं'।

    ’’वो इस लिए कि मैंने वो आज सुबह स्कूल जाने से पहले तुम्हारे सामने पहने थे। नईम चाचा बता रहे थे कि ये शोबदा बाज़ बहुत महारत से अपना काम करते हैं।। कई कई महीने ये एक ही काम दिन में कई कई बार करते हैं तो ही कहीं जा कर इस में इतने माहिर हो जाते हैं कि दूसरों की आँखों में धूल झोंक सकें, समझे?''

    ’’लेकिन सर्कस का मालिक तो ये कह रहा था कि शोबदा बाज़ पैदाइशी लंबा था और दूसरी बात जब तुमने बाँस देखे ही नहीं तो तुम्हें कैसे पता कि उसने पावं से बाँस बाँधे थे ?''

    मैंने सांस रोक कर आहिस्ता लहजा अपनाया।

    ’’मुझे तो ठीक ही लगा सब कुछ और लोग भी कितने ख़ुश थे उस के तमाशे से।। बाँसों वाली बात तुमने ऐसे ही कही है ? है ना?'

    ’’है ना?'

    उसने मेरी नक़ल उतारते हुए मेरा मुँह चढ़ाया।

    ’’ मालिक के कहने से किया क्या होता है, नईम चाचा बता रहे थे ये मालिक लोग झूटी बात इतनी दफ़ा कहते हैं कि उनको ख़ुद भी यक़ीन हो जाता है कि सच्च कह रहे हैं। तमाशे में उनका पैसा लगा है, कुछ कुछ तो कहेंगे, है ना?''

    ’’नहीं जावेद मुझे तो वो मालिक सच्चा नज़र आया, उसने साफ़ सुले कपड़े पहने थे'।

    ’’साफ़ सिले कपड़े पहने थे।। है ना।। इस से क्या होता है ? उसने सर्कस लगाई है, पैसा बटोरना है, कपड़े तो होंगे उस के साफ़। वैसे भी साफ़ सिले कपड़ों का शोबदे से क्या ताल्लुक़ ?'

    उसने संगतरा छीला और आधा मुझे देकर अपनी बात जारी रखी।

    ’’चलो मान लेते हैं वो पैदाइशी लंबा था लेकिन उसने लोगों की जेबें भी तो ख़ाली की थीं'।

    ’’वो तो नज़रबंदी वाले ने कीं, जो बाद में भाग गया। याद नहीं मालिक ने क्या कहा था? वो उनका नहीं बल्कि दुश्मन के सर्कस का आदमी था''

    मैंने रुक करा उस की आँखों में आँखें डालीं।

    ’’एक बात बताओ क्या तुम वाक़ई इस शोबदे बाज़ को नहीं देखना चाहते? कितने शोबदे बाज़ों को देख चुके हो। एक-बार उस का तमाशा भी देख लू, इस में हर्ज ही किया है ?'

    उसने संगतरे के छिलके को पाउं से मसला और अपना सर खुजाया।

    ’’मैं सोच कर बताउंगा।

    मैं मख़मसे में गिरफ़्तार घर गया।

    शाम को बारिश हुई और फिर पता नहीं क्यों अम्मी और अब्बू में किसी बात पर लड़ाई हुई। अम्मी ने मैके जाने की धमकी दे दी जिसे सुनकर अब्बू का ग़ुस्सा झाग की तरह बैठ गया। इसी शाम अब्बू हमें पहली बोलती फ़िल्म ''आलम-आरा'' दिखाने बायस्कोप ले गए। अम्मी अभी तक रूठी, दूसरी तरफ़ मुँह करके बैठी हुई थीं।

    मुझे नींद के झोंके आने लगे।। मैं सौ गया।

    यकायक फ़िल्म में कोई गाना इतने ज़ोर से बजने लगा कि मेरी आँख खुल गई और मैंने आँखें मिलते अंधेरे में देखा कि अम्मी, जो अब अब्बू से लग के बैठी थीं, मुझे अपनी तरफ़ मुतवज्जा पा कर झट से अलग हो कर बैठ गईं और फिर उनको कहनी मार कर उनके कान में कुछ कहा और साथ ही दोनों हँसने लगे। मुझे यूं लगा कि उनकी नाराज़गी मिट चुकी थी।

    घर आया तो अब्बू ने मुझे पास बुलाया।

    ’’तुम ऐसा करो आज अपनी ख़ाला के हाँ सो जाओ। तेरे ख़ालू दिल्ली गए हुए हैं। तुम और जावेद साथ खेलो और ख़ाला से सच्ची परी और ज़ालिम बादशाह की पूरी कहानी भी सुनो'।

    ’’वो तो हमने सुन रखी है अब्बू जान'।

    ’’अच्छा तो फिर ऐसे करो ये दो आने रख दो आने लो और वहां चले जाऐ, अब ठीक है ?'

    मेरे गले में दो ही आने कम थे। मैं ख़ुशी से फूला नहीं समाया और मैंने वो रात ख़ालू के हाँ गुज़ारने में अब कोई क़बाहत नहीं देखी।

    इस रात मैं और जावेद बिस्तर में दुबके बैठे थे और वो मुझे इंतिहाई राज़दाराना अंदाज़ में इन शोबदा बाज़ों के करतबों के बारे में बता रहा था।

    ’’डाक्टर ख़ाला बता रही थीं कि कुछ शोबदा बाज़ तो अपनी दोनों टांगें मोड़ कर सर के पीछे रख लेते हैं।। ऐसे जैसे मैंने ये हाथ मोड़ कर रखे हैं।। यूं वो बड़े मकड़े की तरह बन जाते हैं।। ऐसे'

    ’’वाक़ई!!'

    उसे मकड़ा बनते देखकर हैरत से मेरी आँखें निकल आईं।

    ’’लेकिन उनके इस तरह करने के पीछे एक वजह होती है'।

    ’’इस तरह पैर गर्दन में फँसाने के पीछे भला क्या वजह होगी, मुझे तो ये जादू-नज़र आता है'।

    उसने सर हिलाया और उस्तादों के लहजे में बताया।

    ’’वजह होती है और डाक्टर ख़ाला बता रही थीं कि होता यूं है कि उनको कोई बीमारी होती है जिसकी वजह से उनके हाथ पैर खींच कर लंबे हो सकते हैं और उनके जोड़ हर तरफ़ मुड़ सकते हैं जैसे बुलबुले को फूंक मॉरो तो वो खिच कर लंबा हो जाता है या लंबे गुब्बारे को मोड़ कर कुछ भी बना लो ''।

    ’’वो तो ठीक है लेकिन इन शोबदा बाज़ों को भला क्या बीमारी होगी जो पूरी तलवारें निगल जाते हैं और उनके मुँह से फूँकते वक़्त शोले निकलते हैं?'

    ’’इस का मुझे नहीं पता, लेकिन डाक्टर ख़ाला ये भी बता रही थीं कि कुछ शोबदे तो डाक्टर लोग भी करते हैं कि बंदा मर जाये तो उस के मुँह में फूंक कर उसे ज़िंदा कर देते हैं'।

    ’’जावेद पता है डाक्टर ख़ाला की ये बात ठीक है। एक दिन नईम ख़ालू कमरे में डाक्टर ख़ाला के साथ कोई शोबदा खेल रहे थे, और मैंने ये शोबदा अपनी आँखों के सामने देखा'।

    ’’तुमने ? कैसे ?'

    इस की आँखें हैरत से फैल गईं।

    ’’बताता हूँ।। ये दोपहर का वक़्त था।। मुझे डाक्टर ख़ाला के कमरे से कुछ खट खट की आवाज़ें सुनाई दें।। मुझे एक शरारत सूझी।। मैं दबे पावं आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ा।। दरवाज़ा यकदम ज़ोर से हिलाया।। चटख़्नी हिली।। गिरी।। खटाक।। दोनों पट खुल गए''।

    ’’फिर?'

    ’’जावेद मैंने देखा कि नईम ख़ालू ने डाक्टर ख़ाला को ज़ोर से पकड़ रखा था लेकिन मुझे देखकर वो फ़ौरन अलग हो गए। मेरे ख़्याल में ख़ाला मर चुकी थीं और ख़ालू ने उन्हें फूंक कर ज़िंदा किया होगा, क्योंकि उस के बाद वो खाँसने लगीं।। चेहरा लाल सुर्ख़।। ज़ोर ज़ोर से सांस लेने लगीं।। सर ढाँपा ।। जल्दी से कमरे से निकल गईं'।

    ’’नईम चाचा के पास एक बदबू दार जादूई मशरूब भी है जो वो छुप के पीते।।

    ’’ ये तुम दोनों क्या खुसर फुसर कर रहे हो सो जाओ'।

    फ़रीदा ख़ाला की इस तंबी के बाद हम सो गए और चूँकि सुबह स्कूल की छुट्टी थी सो हम दोनों देर से उठे। हमने नाशता किया और ख़ाला से बिरयानी की फ़र्माइश कर दी।

    अभी ख़ाला संग शुई करके गोश्त काट ही रही थीं कि ख़ालू वापस गए।

    ’’अरे आप इतनी जल्दी वापस गए ? आपने तो दो तीन दिन ठहरना था, ख़ैरीयत तो है ?'

    ’’हाँ इरादा तो यही था फ़रीदा बेगम लेकिन कल लाहौर में भगत सिंह को फांसी दे रहे हैं तो ब्रिटिश सरकार ने हिफ़्ज़ मातक़द्दुम के तौर पर, कि लोग हंगामे वग़ैरा ना करें, हर जगह बंदिशें और नाके लगा दिए हैं और हमें सुबह ही सुबह लौटा दिया गया'।

    फिर ख़ालू शायद ख़ुद-कलामी करने लगे।

    ’’मुझे तो लगता है ये शोबदे बाज़ भी वही करेगा जो पहले शोबदे बाज़ों ने किया था। लोगों को झूट-मूट का कोई खेल दिखाएगा और फिर रफूचक्कर हो जाएगा। सच्च पूछो तो शोबदे बाज़ों का क्या एतबार, गंदुम नुमा जो फ़रोश'।

    ’’अरे मुआ भाड़ में जाये ये नगोड़ा शोबदे बाज़, जब देखो शोबदे बाज़। अरे कुछ पता है आटे दाल का क्या भाओ है ? यहां तो जीना अजीरन हो गया है''।

    ख़ाला ने चावल निथार कर रखे।

    ’’ ये भी सुनीं, शमशाद बहन के हाँ जो औरत काम करती है उस का जवान बेटा बीमार है।। मीयादी बुख़ार है उसे।। हालत बहुत बुरी है उस की। अल्लाह आमीन से बड़ा क्या उसे, हाय देखो तो अब इतना सामना निकल आया है उसका।। अल्लाह करे लगता है यासीन का वक़्त गया है उस का।

    भला-चंगा हो जाता लेकिन कम्बख़्त डाक्टर ने हस्पताल से निकाल दिया क्योंकि बेचारी के पास दवा के पैसे नहीं थे। अरे अब कोई बताए वो ग़रीब औरत कहाँ से लाए दवा के पैसे ? उसके पास तो दो वक़्त की रोटी के पैसे भी नहीं हैं। अरे सारा दिन हड्डियां पेलती है फिर भी दाने दाने को मुहताज है बेचारी''।

    फिर सर्द आह भरी।

    ’’सुना है डाक्टर दस रुपये मांग रहा था। अरे वो तो ये बेचारी दस साल में भी नहीं दे सकती। दूसरी तरफ़ उस का निकम्मा शौहर।। करम फूट गए बेचारी के। इसका कोई एक दुख हो तो कहूं।। आठ-पहर सूली पर रहती है वो तो''।

    फिर दुबारा सांस के लिए रुकीं।

    ’’ख़ुदा-लगती कहूं उस की मुसीबतें देखकर मेरी तो छाती फटी जाती है, या इलाही उस की आड़ी मुश्किलें आसान कर''।

    फ़राँ की आवाज़ का उतार चढ़ाव तबदील हुआ और तैश में गईं।

    ’’और इधर आपको शोबदा बाज़ की पड़ी है। मलिक की हालत देखी है आपने ? पता नहीं ये मोए गोरे कब हमारा पीछा छोड़ेंगे।। एक धेले का नहीं छोड़ा ये मलिक।। ब्यौपारी हुकमरान'।

    ’’ देखना फ़रीदा बेगम, देख लेना।। अब की बार शोबदा बाज़ ऐसा करतब दिखाएगा का दिल ख़ुश हो जाएगा, पता नहीं वो ख़ास करतब क्या है जिसका वावेला मचा हुआ है, कोई कुछ कहता है कोई कुछ'।

    ख़ालू अपने ख़यालों में गुम थे और ख़ाला ने अपना हाथ माथे पर मारा।

    ’’आपसे तो बात ही करना बेकार है, मैं क्या कह रही हूँ और आप कहाँ गुम हैं। एक बात बताएं ये मुझे हर वक़त ऐसा क्यों लगता है कि मैं किसी बहरे से मुखातिब हूँ''।

    ख़ाला ने छुरी और कटी बोटियाँ एक तरफ़ रखकर, पसीना पोंछा।

    ’’हो ना हो ये मुआ भी वही करेगा जो हरी टोपी वाले ने किया था।। आसतीन से साँप निकालने का कह कर सबकी जेब से सिक्के निकाल के ले जाएगा, नहूसत का मारा'।

    ख़ालू चुप रह सके।

    ’’लेकिन फ़रीदा बेगम तुमने देखा था कि कितने बड़े बड़े साँप थे जिसे देखकर सब लोगों की चीख़ें निकल गईं थी और सलमा बहन के दामाद का तो पेशाब ख़ता हो गया था''।

    इस पर ख़ाला भड़क उठीं। उनका चेहरा ग़ुस्से से तमतमाने लगा। ख़ालू ने बमुश्किल अपनी हंसी रोक कर बात बदली।

    ’’साँप इधर उधर रेंगते रहे मजाल है जो किसी को कुछ कहा या काटा, बड़े बेज़रर किस्म के साँप थे। वो शाम कैसे भूल सकती है। क्या नज़रबंदी थी, क्या जादू था।। ये बिरयानी कब बनेगी फ़रीदा बेगम, ज़ोरों की भूक लगी है?'

    ’’पड़ जाये पटकी, नाम लें सलमा बहन का। आपको तो सारे नुक़्स मेरे ख़ानदान में नज़र आते हैं, उनसे दुश्मनी पर उधार जो खाए बैठे हो'।

    फिर इधर उधर देखते हुए झुँझला कर माथा थामा।

    ’’अरे वो छुरी कहाँ गई, यहीं तो रखी थी, आग लग जाये मुझे, क्या करने बैठी थी और किस बेहस में पड़ गई मैं'।

    अगले दिन मैं और जावेद क़ब्रिस्तान में बैठे इस बात का फ़ैसला कर रहे थे कि हम जाएं या जाएं।

    ’’जावेद मेरे पास कुल मिला कर अब छः आने हैं अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें दो आने दे सकता हूँ जो तुम मुझे बाद में लौटा देना, मंज़ूर है ?'

    उसने पहले तो कुछ तरद्दुद से काम लिया लेकिन मुझे पता था कि इस के जाने की वजह ही ये थी कि इस के पास पैसे कम थे क्योंकि उसने डेढ़ आने पटाख़ों वाली विलायती पिस्तौल ख़रीद कर ज़ाए कर दिए थे। मैंने एक-बार फिर उस के जाने पर इसरार किया तो उसने होंट सुकेड़े।

    ’’ देख लो मैं तुम्हें बड़ी ईद से पहले ये पैसे नहीं दे सकता'।

    ’’मुझे मंज़ूर है'।

    मैंने उस को सिक्कों में खोटा सिक्का नज़र बचा कर थमाया।। फ़ैसला हो गया।। हम तमाशा देखने जाऐंगे।

    जुमे के दिन ख़ालू अख़बार पढ़ रहे थे और फिर सफ़े पलटते पलटते यकायक उछल पड़े।

    ’’अरी फ़रीदा बेगम अन्दर की ख़बर छपी है।। पता चल गया।। शोबदे बाज़ ने किसी से राज़दारी में कहा है कि वो पुराने शोबदे बाज़ों से सारे पैसे वापस दिलवाएगा।। आइन्दा किसी भी शोबदे बाज़ को ये जुरात नहीं होगी कि क़स्बे को झूट-मूट का तमाशा दिखा कर पैसे ईंठे। और तो और हर शेबदा बाज़ जो जाते हुए क़स्बे की किताब के सफ़े फाड़कर चला जाता है ये रिवाज तो ये शोबदा बाज़ ख़त्म करा के ही छोड़ेगा।

    ख़ाला ने क़मीज़ में बटन लगा कर पड़ी तिले दानी से क़ैंची निकाली और धागे को काटा।

    ’’झूट बोलता है मुआ, फपट बाज़। अरे छाज बोले तो बोले, छलनी भी बोली, जिसमें बेहत्तर छेद?। अरे मैं कहती हूँ अगर ये मुआ पुराने शोबदा बाज़ों से पैसे वापस दिलवा सकता है तो उनसे अपने लिए क्यों नहीं निकलवा लेता? ख़ुद तीन आने के तमाशे के लिए इधर क्यों रहा है ?

    अरे कोई मेरी सुने तो ये भी इन जैसा ही है।। हमारे पैसे बटोर कर ये भी इस सरकटे नट की तरह ग़ायब हो जाएगा, ज़िंदगी हराम कर दी है इन जा निहारों ने'।

    ’’फ़रीदा बेगम वो सब सही है लेकिन इस सरकटे का तमाशा कमाल का था। तुम ख़ुद भी तो बड़े चाव से देखने गई थीं। याद है उस शाम क्या हुआ? कैसे उजले कपड़े पहने वो स्टेज पर आया, कुछ लड़खड़ाया और फिर उस का सर यूं लगा ढलक गया।। धड़ से अलग।। मज़ा गया था वैसे ?'

    ख़ालू ने अख़बार एक तरफ़ रखा।

    ’’सर ढलकता नज़र आया, ढलका नहीं था और ये तो सलमा के दामाद ने मुझे बताया कि मुओं ने कंधों में सीख़ अटकाई होती है जिसको ये नगोड़े तुरत-फिरत से ऐसे घुमाते हैं कि पीछे कोट का कालर ऊपर को उठता है और लगता ये है कि सर नीचे ढलका। खुला फ़रेब है ये।। तौबा तौबा।। अल्लाह माफ़ करे दमड़ियों के लिए क्या-क्या नहीं करते लोग''।

    फिर एक दम जैसे उन्हें कुछ याद गया तो ग़ुस्से से बोलीं।

    ’’और मुँह मत खुलवाईएगा मेरा, मैं गई ज़रूर थी लेकिन आपकी बहन रशीदा के इसरार पर और अब।। अब मैं ज़रूर गई'।

    ख़ाला ने ग़ुस्से से अपने दाँत पीसे।

    ’’अरी नाराज़ काहै को होती हो, हम तो मज़ाक़ कर रहे थे। अच्छा ये बताओ जो दूसरे शोबदे बाज़ ने एक नारंगी की दो और दो की चार नारंगियां बनाई थीं वो कैसे किया था भला उसने? सलमा के दामाद ने कुछ बताया?'

    ख़ालू ने बात बदली।

    ’’मुझे क्या पता नज़रबंदी होगी, आँख का धोका होगा, हाथों की सफ़ाई होगी। अरे ये मोए तो अपनी टोपियों से ख़रगोश तक निकाल लेते हैं, और रुमालों से फड़फड़ाते कबूतर।। उनका क्या एतबार?'

    फिर ख़ाला ने लंबी सांस भरी और आवाज़ मद्धम की।

    ’’मुझे ये नहीं पता मज़हब उस की इजाज़त देता है या नहीं। अल्लाह बख़्शे मौलवी रहीम उद्दीन लुधियानवी कहा करते थे, पेशे की क़बाहतें अपनी जगह लेकिन जिस धंदे से पेट जुड़ जाये इस पर शरई और ग़ैरशरई हद लगाना क़दरे मुश्किल हो जाता है'।

    ’’फ़रीदा बेगम कोई एक तो होगा जिसका शोबदा तुमने जी से पसंद किया होगा, कोई एक?'

    ’’हाँ वो पिशावर का पीर अच्छा था जो रूहें हाज़िर करवाता था। याद है अल्लाह बख़्शे मेरे दादा मरहूम की रूह बुलाई थी उन्होंने और वहीं उनकी रूह ने अपने लखनऊ वाले घर में दबी वसीयत का बताया और तभी तो जा कर ताया जान ने अब्बू जान को उनका पूरा हिस्सा विरासत में दिया था वर्ना अब्बू जान तो नालिश करने वाले थे। ख़ैर मसला इफ़हाम-ओ-तफ़हीम से हल हो गया'।

    ’’और वो जिसने सबको पेट भर कर रोटी खिलाने का कहा, सर ढांपने को छत का कहा उस की भी क्या बात थी। मुझे याद है, क्या असर था उस की तक़रीर में, जोशीला।। जज़बाती।। दिलों को गरमाने वाला। लोग अश अश कर उठते थे।। लाखों के मजमे।। ठट के ठट।। कमाल का शोबदा बाज़ था'।

    ’’अरे उस की तो बात ही करें, ख़ुदा करे ज़मीन का पैवंद हो जाये वो।। पेट काटने पड़ गए लोगों को अपने। अरे इसी ही की वजह से तो सिराज उद्दीन और नसीम ख़ां में आपस का बैर इतना बढ़ा कि हांडियां अलग कर लीं। अल्लाह इन दोनों भाईयों से समझे एक दूसरे की बात तक नहीं सुनी घर में बटवारा करवा छोड़ा। अरे मैं कल मोई कहती हूँ, ऐसी भी क्या उफ़्ताद आन पड़ी थी कि घर बावरची ख़ाना अलग करो लेकिन ननदें आपस में ख़ुश नहीं थीं और कैसे होतीं? गोपाल गंज वाली पतंग छुरी और लाहौर वाली बस की गाँठ।। कैसे गुज़ारा करतीं? हर वक़त तू तू मैं मैं''।

    फिर लंबी सांस ली।

    ’’चलो इनकी रोज़ रोज़ की खटपट तो ख़त्म हुई, पता नहीं अब दोनों ननदें ख़ुश हैं या नहीं लेकिन बड़ा भाई कर्जे़ में डूबा पड़ा है नालिश पे नालिश, लाट साब के दफ़्तरों के चक्कर लगाता रहता है, अल्लाह रहम करे इस पर'

    ऐन उसी वक़्त मोअज़्ज़िन की सदा आई। ख़ाला ने झट से दुपट्टा सर पर लिया।

    ’’तरी आवाज़ मक्के और मदीने'।

    तमाशे में तीन दिन रह गए और हर जगह पोस्टर लग गए। तस्वीर में शोबदा बाज़ ने अपना चेहरा आधा ढका हुआ था और पोस्टर में ऊपर एक तिलसमी छड़ी थी और साथ ही सितारों वाला धारीदार रूमाल स्कूल से वापस आते हुए मैंने पोस्टर की तरफ़ इशारा किया।

    ’’सारा जादू उस तिलसमी छड़ी में है। इस से काले हैट को हल्का मारें तो इस से ख़रगोश निकलते हैं।। अगर ज़रा ज़ोर से मारें तो फुदकते मेंढ़क, कुलबुलाते केंचुवे और फड़कते कबूतर।। और अगर और ज़्यादा ज़ोर से मारें तो भालू निकले''

    जावेद जो अब इस तमाशे को देखने के लिए बेचैन था इस पोस्टर के क़रीब गया और सर नफ़ी में हिलाया।

    ’’मेरे ख़्याल में सारा कमाल रूमाल का होता है। याद नहीं जब दस हाथों वाले शोबदे बाज़ ने जेब से निकाला था तो वो बढ़ते बढ़ते इतना चौड़ा हो गया कि पूरे मजमे को ढाँप गया'।

    ’’ख़ाला जान कहती हैं उसी वक़्त उसने सारे मजमे के जेबों से सिक्के भी खींच निकाले थे'।

    ’’वो जो भी हो लेकिन वो रूमाल बहुत चौड़ा हो गया था आनन फ़ानन, इतना कि पूरे मजमे को ढाँप गया''।

    शाम को बारिश हुई। अम्मी नई साड़ी पहने, लजाती बावर्चीख़ाने में आईं

    ’’मैं कहती हूँ आप भी चले जाएं तमाशा देखने, तीन साढे़ तीन घंटे ही तो हैं। मसरूफियत से वक़्त निकाल लें अपनी। बच्चे का और जावेद का दिल बेहल जाएगा, नया तमाशा है क्या पता फिर उस जैसा आए या आए'

    ’’अरी तुम कहती हो तो मैं तो ज़रूर जाउंगा। अब तुम्हारी बात टाल तो नहीं सकता था जानेमन'।

    अब्बू ने लहजे में हल्की शरारत और हल्की मिठास डाल कर अम्मी पर उचटती हुई नज़र डाली जिससे अम्मी ने साड़ी का पल्लू फिर से ओढ़ा। अब्बू ने ये देखा तो आगे बढ़कर अम्मी को थामना चाहा। अम्मी तुरंत, अलमारी से कुछ तलाश करने लगीं

    ’’नौज, बच्चे का ध्यान।। आप भी नाँ। बच्चा है उधर'।

    फिर होंट काटे और नाख़ुन खुरचते हुए कहा।

    ’’मेरे ख़्याल में शोबदे बाज़ का तमाशा देखने ज़रूर जाएं आप बस।। हाँ उस दिन आते हुए लौंडे को इस की ख़ाला के हाँ छोड़ आएं'।

    ’’नुज़हत बेगम आप कहती हैं तो चला जाता हूँ आपके लिए लेकिन लगता है ये तमाशे लगाए ही इस लिए जाते हैं कि शोबदा बाज़ हमारी जेबें काटें लोग उन्हें भले से शोबदे बाज़ कहें, अल्लाह बख़्शे, हमारे अब्बा मरहूम उन्हें नौ सरबाज़ कहा करते थे'।

    तमाशे का दिन आन पहुंचा , मैंने और जावेद ने नए कपड़े पहने और अम्मी को गल्ले के पैसे दीए। अम्मी ने मेरे जूते चमकाए और पैसे मुझे और जावेद को वापस देकर गाल पर हल्की थपकी दी।

    ’’जूते बिलकुल नए लग रहे हैं, हैं ना?'

    मैंने मुँह बिसोरा।

    ’’अम्मी जावेद ने तो नए जूते पहने हैं और मेरे।।'

    ’’बात बात पर मुँह बसोरा कर। जब देखो इतरा मुँह। अब चलो जल्दी से नाशता करो। तेरे अब्बू तुम दोनों को ले जाएं।। ध्यान से।। ये फल ध्यान से काटो। छुरी है खेलने की चीज़ नहीं है'।

    दिन ढले हम तमाशे की क़नातों के पास पहुंचे।। बड़ी बड़ी ख़ेमा नुमा कनातें जिन पर रंग-बिरंगी झंडियां लगी हुई थीं। जगह जगह ख़्वांचे लगे हुए थे।। हर जगह मुहर्रम की तरह की सबीलें। ठंडे मशरूबात और फ़ालूदे वाली।। इसी अस्ना में कुछ अंग्रेज़ मेमें कुत्ते टहलाते हुए वहां से गुज़रीं।। लोगों ने उन्हें देखकर तालियाँ बजाईं। वो झेंप सी गईं और वहां से जल्दी जल्दी चली गईं।

    क़नातों के बिलकुल क़रीब भीड़ का ये आलम था कि खवे से खवे छिल रहा था। लोग रेंगती क़तारों में खड़े थे और आहिस्ता-आहिस्ता क़नातों के क़रीब पहुंच रहे थे। ये नहीं पता था कि अंदर किया था लेकिन क़नातों से ऐन पहले एक बड़ा चौखटा सा बना हुआ था। हर आदमी वहां किसी मुंतज़िम को दाम देकर एक टिकट लेता था और फिर आगे जा कर मालिक का आदमी इस टिकट को देखकर इस में सरौते किस्म के औज़ार से सुराख़ करता लोगों को क़नातों के अंदर भेज रहा था।

    अब मुझे तमाशे से ज़्यादा क़नात के अंदर जाने में दिलचस्पी थी, पता नहीं अंदर क्या था।

    जब हम टिकट वाले आदमी के पास पहुंचे तो शीशे के उस पार वो हमें बहुत गोरा नज़र आया। वो इतना गोरा था कि इस के सर के बाल और भंवें तक सफ़ैद थीं। पसीने से भर पूर चेहरा गर्मी से तमतमा रहा था और इस के गोरे चेहरे के पस-ए-मंज़र में इस के सुर्ख़ होंट यूं लग रहे थे जैसे टमाटर की दो ताज़ा कटी क़ाशें। मुझे याद आया जब मैं और अब्बू लाट साब के दफ़्तर दिल्ली गए थे तो मुझे वहां एक गोरा अफ़्सर ऐसा ही दिखाई दिया था।

    मैंने जावेद को कोहनी मारी।

    ’’जावेद जावेद इसे देखो लगता है ये गोरा साहब भी इस तमाशे में हिस्सा लेंगे।

    जावेद ने मुँह बनाया और अपनी इलमीयत झाड़ते हुए शहादत की उंगली हिला कर मुझे समझाया।

    ’’ये गोरा नहीं सूरज-मुखी है'।

    ’’सूरज-मुखी।

    ’’डाक्टर ख़ाला बता रही थीं उनको कोई पैदाइशी बीमारी होती है जिसकी वजह से उनका चमड़ा बेरंग हो जाता है और ये ऐसे नज़र आते हैं'

    ’’ये तो कोई बेरंग नहीं, बिलकुल गोरा है, लाट साब की तरह, ये कितनी अच्छी बीमारी है जावेद बंदा गोरा लगता है'।

    अभी हम यही बात कर रहे थे कि इस आदमी ने, जिसे जावेद ने सूरज-मुखी बताया, अब्बू से गिन कर पैसे लिए और हम सबको एक चौड़ा टिकट थमा दिया। क़नात के क़रीब एक लंबे आदमी ने हमें एहतियात से गिना, टिकट में चार सुराख़ किए और हम अंदर दाख़िल हो गए। अन्दर तिल धरने को जगह नहीं थी

    तमाशे की स्टेज कहीं नीचे जा कर थी क्योंकि सीढ़ीयां बना कर कुर्सियाँ ऐसी रखी हुई थीं कि आधे दायरे की शक्ल में वो ऊपर उठती हुई नज़र आती थीं जैसे कोई कुवें को आधा काट कर, हल्का ख़म देकर लिटा दे और ढलवान पर कुर्सियाँ रख दे।

    छोटे बच्चे लोगों की गोद में बिलक बिलक कर रो रहे थे और पस-ए-मंज़र में तेज़ मौसीक़ी बज रही थी। कोई बार-बार लाऊड स्पीकर में हिदायात दे रहा था। हम सबने एक उचटती हुई नज़र कुर्सियों के कुवें पर डाली तो सबसे आगे बड़ी बड़ी ख़ास किस्म की कुर्सियाँ लगी नज़र आईं।

    ’’अब्बू हम आगे बैठ सकते हैं?'

    ’’नहीं बेटा ये कुर्सियाँ ख़ास लोगों के लिए हैं।। बड़े लोगों के लिए।। लाट साब के साथ जो लोग काम करते हैं, उनके लिए'।

    ख़ालू ने घड़ी देखी।

    ’’रशीद भाई अब जहां भी जगह मिल जाये वहां बैठ जाएं तमाशा शुरू होने में कम ही वक़्त रह गया है'।

    तमाशा शुरू हुआ तो सबसे पहले स्टेज पर एक मोटा आदमी आया जो शोबदे बाज़ का अस्सिटैंट था। वो पहले तनी रस्सी पर चला, फिर नारंगियां उछालता रहा और आख़िर में हाथों पर उल्टा खड़ा हो गया। इस के बाद एक छड़ी जैसा पुतला आदमी आया जिसने स्टूल पर बैठे भालू को एक बड़ी गेंद दी जिसको वो हवा में उछालता रहा। आख़िर में शोबदे बाज़ आया और लोगों ने तालियाँ पीट कर उसका इस्तिक़बाल किया।

    सबसे पहले उसने अपनी आँखें बाहर निकालीं और पीछे से पपोटे बंद कर दिए। लोग दम-ब-ख़ुद रह गए। फिर उसने गर्दन पीछे मोड़ ली और फिर दुबारा सीधी की।। लोग हैरत से बुत बने अभी इसी शोबदे के असर में थे कि दफ़अतन शोबदे बाज़ ने मोटे को एक कम्बल में ढक कर उसे छड़ी मारी।। धुआँ सा उठा।। और फिर कम्बल से एक बड़ा मेंढ़क फुदकता, ट्राता बाहर आया।

    लोगों ने चीख़ चीख़ कर आसमान सर पर उठा लिया क्योंकि ऐसा तमाशा किसी ने कभी भी नहीं देखा था।

    यकायक मौसीक़ी और ज़ोर से बजने लगी। यकायक कुछ साइकिल वाले अंदर आए जो देखते ही देखते हवा में साइकिल चलाने लगे।। लोगों दम बक्खो हो गए, उनकी हालत दीदनी थी। फिर शोबदे बाज़ ने कुछ लोगों को पतंग की तरह हवा में लहराया और कुछ को ऐसा उछाल कर पटख़ दिया कि वो खड़े भालू के सामने जा गिरे और फिर उसने भालू और साइकिल वाले को एक कम्बल में ढक कर तिलसमी छड़ी से कबूतर बना दिया। लोग उठ उठकर नाचने लगे।

    सारा मजमा पागल हो गया। मैंने जावेद की तरफ़ देखा।

    ’’ये तो बिलकुल जादू है, इस जैसा शोबदा बाज़ पहले नहीं आया था, डाक्टर ख़ाला से पूछ लो कि ये शोबदा कैसे होता है या ये भी कोई बीमारी है'।

    जावेद ने पता नहीं मेरी बात सुनी या नहीं लेकिन वो इस पूरे तमाशे में इतना महव था कि उसने बस सर हिला के मेरी बात का जवाब इस्बात में दिया।

    आख़िर में मौसीक़ी एक दम रुक गई और शोबदे बाज़ स्टेज के बिलकुल दरमियान में आया।

    ’’ख़वातीन-ओ-हज़रात अब मैं आज के इस तारीख़ी दिन सबसे अहम आइटम की तरफ़ आता हूँ। दिल थाम के बैठें। मैं आपके सामने इस पुराने शोबदे बाज़ को फांसी दूँगा जिसने पिछली बार आप की जेबें ख़ाली की थीं और तमाशा भी नहीं दिखाया था, किताब भी फाड़ी थी। मैं इस से सारी रक़म लेकर आपकी जेबों में वापस डाल दूँगा।

    लोगों ने जब ये सुना तो फ़र्त जज़बात से चिल्ला उठे और हर तरफ़ से उठ उठकर उसे दाद दी।

    दफ़अतन स्टेज पर एक छोटा पिंजरा लाया गया, जिसमें एक परिंदा बंद था और इस को स्टेज पर मौजूद मेज़ पर रखा गया। फिर कोई ज़ोर से लाउडस्पीकर में बोला

    ’’एक।। दो।। तीन।।'

    पिंजरे के सामने एक पटाखा फटा, धुआँ सा छा गया। जब धुआँ ज़रा छट गया तो सबने देखा कि एक आदमी बड़े पिंजरे में बंद था। लोगों की हैरत से चीख़ें निकल गईं। ये वही पुराना शोबदा बाज़ था।

    किसी ने चीख़ कर कहा

    ’’मार दो उसे।। फांसी दे दो।। इस से पूरे पैसे वापस करवाव।। अभी'

    सबने आसमान सर पर उठा लिया।

    ऊपर से एक रस्सी उतरना शुरू हुई।। हवा में बिलकुल मुअल्लक़।। होते होते साँप की तरह बल खाकर वो एक फंदा बन गई और फिर शोबदे बाज़ के साथ काम करने वाले अस्सिटैंट ने पिंजरे से इस आदमी को निकाल कर उस की गर्दन में फंदा डाल कर कस दिया।

    लोगों का ख़्याल था कि अब हिसाब चुकता करके ही दम लेगा और सबकी साँसें रुक गईं।

    मौसीक़ी रुकी रही।। शोर बिलकुल थम गया।। बिलकुल ख़ामोशी, इतनी कि लोगों को अपने दलों की धड़कनें और अपनी तेज़ साँसें सुनाई देने लगीं

    धक, धक धक।

    जैसे ही वो तनी रस्सी और तनी, उस के गर्दन के गिर्द मज़ीद लिपटी ।। लगा कि वो गया, अचानक पाँसा पल्टा।

    क्या हुआ कि पुराना शोबदा बाज़ भी उसका उस्ताद निकला। उसने कुछ ऐसे मंत्र पढ़े कि फंदा फूलों का हार बन गया। नया शोबदा बाज़ सटपटाया और उसे पकड़ कर शीशे की एक बड़ी बोतल में बंद किया जिस के अंदर पानी भरने लगा। सबको यूं लगा कि अब की बार पुराने शोबदे बाज़ का दम पानी में घुट जाएगा और इस का क़िस्सा पाक हो ही जाएगा।

    दफ़अतन उस के मुँह से बुलबुले निकले।

    उसने कुछ पढ़ा और शीशा चटख़ गया।। उसको आज़ादी मिली।। वो मुस्कुराया।

    इस हुजूम में कुछ लोग पुराने शोबदे बाज़ के शैदाई थे। जब उन्होंने ये देखा तो उठकर उसे दाद दी और उसकी हिमायत में नारे बुलंद किए। इस पर दूसरे लोग भड़क उठे और हाथा पाई तक नौबत गई लेकिन इस से पहले कि वो दस्त-ओ-गिरेबाँ हो मुस्तइद हवलदारों ने इन मुश्तआल लोगों को समझा बुझा कर बिठा दिया।

    इस के बाद दो एक और तमाशे हुए लेकिन पुराना शोबदा बाज़ नए शोबदे बाज़ के हाथ बिलकुल आया और हर बार उस के हाथ से फिसल फिसल जाता था। आख़िर में दुबारा परिंदा बन कर उड़ गया।

    तमाशा ख़त्म हुआ और हम झूमते झूमते क़नातों से बाहर निकले। सब के चेहरे हश्शाश बश्शाश थे और मैं और जावेद तो ख़ुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे।

    ’’फ़रीदा सुन ही नहीं रही थीं वर्ना मैंने तो कहा था मज़ा आए तो पैसे वापस। रशीद भाई आपने देखा उसने किस महारत से फंदा बनाया और हम समझे पुराना शोबदे बाज़ गया लेकिन फिर किस चालाकी से वो फंदे से निकल गया, कमाल किया उसने। लेकिन नए शोबदा बाज़ ने ये कहा है वो कल पुराने शोबदे बाज़ को लटका छोड़ेगा। अब तो बस कल का इंतिज़ार है, मज़ा आएगा।

    ’’हाँ लगता यही है और सारे लोग भी यही समझ रहे हैं कि कल ये पुराने शोबदे बाज़ को लटका छोड़ेगा। इंतिक़ाम में डूबे ये अहमक़ लोग फ़र्ज़ कर बैठे हैं कि गोया अब ये उनका बदला लेकर रहेगा। सच्च बात तो ये है मुझे तो ये लगा ये शोबदे बाज़ भी पुराने से मिला हुआ है। सिर्फ दिखावे के लिए इस को लटकाने का ये सारा ड्रामा किया, ये भी दूसरों की तरह तमाशा दिखा कर, पैसे बटोरकर और स्टेज पर पड़ी किताब के सफ़े फाड़ कर रफू चक्कर हो जाएगा।

    ’’यही मेरा भी ख़्याल है रशीद भाई लेकिन असल बात इस से ज़रा ज़्यादा गहरी है'

    पीछे से नक़वी साहब की आवाज़ आई।

    ’’वो कैसे? ये बात समझ में नहीं आई नक़वी साहब'।

    ’’बताता हूँ, वो इस तरह कि आज जब मैं रफ़ा हाजत के लिए बीच तमाशे से उठकर चला गया तो वापसी पर रास्ता भूल कर क़नातों के पीछे जा पहुंचा और वहां तमाशा ही अलग था'।

    ’’ क्या मतलब?'

    ’’रशीद भाई मैंने देखा कि वहां सर्कस का वही मैनेजर बैठा हुआ है जो यहां हरी टोपी वाला शोबदा बाज़ ले के आया था। और तो और लंबी टांगों के शोबदे बाज़, सर कटे नट, छत रोटी देने वाले, कुब्ड़े जादूगर, दस हाथों वाले, लाल फुंदने वाले, हरी क़मीज़ वाले सब शोबदा बाज़ों का मैनेजर भी यही आदमी था। मैनेजर तो ख़ैर एक हो सकता है, ये उसकी रोज़ी रोटी है जो दूसरी बात मैंने देखी वो तो बताने वाली भी नहीं''।

    अब्बू की हैरानी दीदनी थी, मबहूत, मुँह खुला, साकित जैसे मुजस्समा

    ’’कौनसी बात बताने वाली नहीं ?'

    ’’रशीद भाई आपने ग़ौर किया है कि शोबदे बाज़ के साथ जो ये लौंडे मिलकर काम करते हैं।। इस के अस्सिटैंट।। ये बड़ी मूंछों वाला, ये मोटा, ये छड़ी जैसा, ये हकला, ये ख़वाजासरा और बाक़ी लौंडे, पता है ये कौन हैं?'

    अब्बू अभी तक मबहूत थे।

    ’’कौन हैं?'

    ’’रशीद भाई ये सारे वही लोग हैं जो पुराने तमाम शोबदे बाज़ों के साथ थे। ये मुझे ऐसे मालूम पड़ा कि मैंने देखा कि इन सब के पुराने लिबास वहीं लटके हुए थे, स्टेज के पीछे। ये सारे अस्सिटैंट सिर्फ़ लिबास बदल कर हमारे सामने आते हैं और हम समझते हैं कि पूरा झता ही अलग आया है''।

    फिर राज़दारी से हल्की आवाज़ में कहा।

    ’’जैसे देखें वो मोटा आदमी पहले हरी टोपी वाले के साथ था तो तब उस का हुलिया अलग था, फिर जब सरकटे नट के साथ था तो इस की बातें अलग थीं लेकिन अब उस के साथ है तो उस के लतीफ़े ही अलग हैं। इसी तरह छड़ी जैसा पुतला, मूंछों वाला और दूसरे सब।। कहना ये चाहता हूँ सिर्फ़ शोबदे बाज़ बदलते हैं बाक़ी सब लोग पुराने हैं।। जैसे कोई ये कहे।। अली-बाबा नया, चालीस चोर पुराने।। है गहरी बात'।

    अब्बू ने एक लंबी सांस ली और बोले।

    ’’हूँ तो असल शोबदे इस क़नात के पीछे हो रहे हैं।। कमाल के लोग हैं भाई।। कमाल के लोग हैं।'

    साथ खड़े ममदू चाचा ने, जो ये बातें ग़ौर से सुन रहे थे, पान की पीक थूकी

    ’’रशीद मियां हमें तो तमाशे से ग़रज़ है। तमाशा अच्छा था।। वक़्त कट गया।। मज़ा आगया। अब कौन क्या करता है ये वो जाने हमें किसी से क्या लेना देना? हमारे तमाशे के पैसे खरे हो गए भाई, आगे जो भी हो हमें क्या'

    सारे लोग ख़ुशी से तमतमाते चेहरे लिए एक दूसरे से कह रहे थे।

    ’’अब की बार असल शोबदा बाज़ आया है, देख लेना ये सब शोबदा बाज़ों को मात दे के रहेगा और उसने कहा है कि आज तो वो पुराना बद दियानत शोबदा बाज़ निकल गया लेकिन कल वो एक और ख़ास करतब से इस शोबदे बाज़ को जकड़ेगा और इस से पैसे निकलवा के दम लेगा।। बस हमें घबराना नहीं चाहिए ''।

    मौलाना नजमुल सबीह साहब ने दाढ़ी पर हाथ फेरा।

    ’’मेरी सुनें इस शोबदा बाज़ से ज़्यादा ईमानदार, खरा, लायक़, सच्चा, उम्मीद दिलाने वाला, मुआमला फहम, क़ुव्वत-ए-इरादी वाला, बहादुर, फ़तह दिलाने वाला, दुश्मन के दाँत खट्टे करने वाला, ग़रीबों का ख़ैर-ख़्वाह और नेक किरदार, शोबदे बाज़ कहीं से भी नहीं मिलेगा।

    सब लोगों ने ताईद में सर हिलाया और ख़ुशी और उम्मीद से उनके चेहरे तमतमा उठे।

    सुबह-सवेरे अलबत्ता सबकी राय बदल गई क्योंकि शोबदे बाज़ तमाशा दिखा कर और पैसा उठा कर स्टेज पर पड़ी पूरी किताब को फाड़ कर जा चुका था और सूरज-मुखी खड़ा इन मज़दूरों को दुरुश्त लहजे में कुछ अहकामात दे रहा था जो मुस्तइद्दी के साथ कनातें लपेट रहे थे।

    अगले साल जब सिविल ना-फ़रमानी के हंगामे ज़ोरों पर थे।। ब्रिटिश सरकार गांधी जी को जेल में डाल चुकी थी, ख़ालू दिल्ली से वापसी पर एक बड़ा इश्तिहार ले के गए।

    ’’देखो तो फ़रीदा इस साल आगरा से ऐसा शोबदा बाज़ आने वाला है जो आठ आने में मिट्टी से सोना बना ने की तरकीब सबको बता देगा।। सिर्फ आठ आने में।। सुना तुमने।।। मुझे तो अब की बार ये लगता है हमारे सारे मसाइल ख़त्म हो जाएंगे और जो लोग नवाले नवाले को तरस रहे हैं।। मुफ़्त ईलाज मुआलिजा।। मुफ़्त तालीम।। मिट्टी से सोना।। सुना तुमने? सब के दिन फिर जाऐंगे।। मिट्टी से सोना'।

    ख़ालू अपने ख़्यालात में गुम बार-बार मिट्टी और सोना कहते रहे।

    ख़ाला ने कतरी हुई छालिया और सरौता एक तरफ़ रखा।

    ’’हाँ हाँ सब के मसाइल ज़रूर ख़त्म किए उसने आठ आने में, ये बुते ये किसी और को दे। अरे मैं कल मोई कहती हूँ उस को क्या पड़ी है कि सबको माला-माल करे। अरे मैं कहती हूँ वो ख़ुद क्यों आगरा में मिट्टी से सोना नहीं बनाता जो इधर रहा है आठ आने के तमाशे के लिए ?

    अरे भाड़ में जाये ये शोबदा बाज़, पहले प्याज़ काटते आँखें सूजती थीं और अब ख़रीदते हुए।। इस मोए सिक्के को देखें।। शाह की मूरत वही है, वज़न घट गया इसका।। इन शोबदा बाज़ों से अल्लाह समझे, ग़ारत करे उन्हें''

    फिर एक लंबी सांस ली और शहादत की उंगली तेज़ तेज़ हिलाते ख़ालू को तंबीह की।

    ’’हाँ एक बात आप बस अपना ध्यान रखिये मिट्टी, सोने और अपने दिन फिरने के चक्कर में कहीं आप रेवड़ी के फेर में जाऐं'।

    ये सुना तो मैं वहां एक मिनट भी नहीं रुका और घर आकर हाँपते हाँपते अम्मी को मिट्टी से सोना बनाने वाले शोबदा बाज़ की सारी बात तफ़सील से बताई। इसी शाम ज़ोरों की बारिश हुई और फिर अम्मी और अब्बू किसी बात पर लड़ पड़े। मैंने उन्हें साफ़ साफ़ बता दिया कि मैं ख़ाला के घर नहीं जाउंगा।

    ये सुनकर दोनों ने एक दूसरे को यूं देखा जैसे मैंने उनका कोई शोबदा पकड़ लिया हो।

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