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सियाह आसमान

इकरामुल्लाह

सियाह आसमान

इकरामुल्लाह

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    अँधेरी सीढ़ियाँ पांव से टटोल टटोल कर चढ़ते चढ़ते दम फूल गया तो सांस बहाल करने के लिए दीवार का सहारा ले कर रुक गया और हाथ यूंही ग़ैर इरादी तौर पर सर के इर्द-गिर्द कसे लोहे के कड़े को छूने लगा। मैं इस बिल्डिंग में बाक़स के फ्लेट पर पहले हज़ार मर्तबा चुका हूँ मगर पहले तो सीढ़ियाँ कभी इतनी अँधेरी पाईं और इस क़दर लक़-ओ-दक़ ख़ाली। यूं हुआ करता था कि यही कोई बीस पच्चीस सीढ़ियाँ चढ़े, एक गैलरी सी में से गुज़रे और सामने उसके फ़्लैट का रौशन दरवाज़ा खुला होता था, आज अब तक अग़लबन कोई दो सौ सीढ़ियाँ तो चढ़ चुका हूँ गा। मगर वो गैलरी आई ना कहीं कोई रौशन दरवाज़ा नज़र पड़ा। इस बिल्डिंग में इतने बहुत से आबाद फ़्लैट हैं। लेकिन अजीब बात है कि आज कोई ऊपर जा रहा है और नीचे आरहा है। क्या ये वही बिल्डिंग है? बिल्डिंग तो बहरहाल वही है। तो फिर इसके बासी नक़्ल-ए-मकानी करके कहीं चले गए होंगे। बाक़ी बासी तो ख़ैर फ़ानी इन्सान हैं किसी ख़तरे की बू सूंघ कर भाग लिये होंगे। मगर बाक़स तो एक देवता है, अमर, अज़ली, अबदी उसे उन ख़तरों से क्या ख़ौफ़। वो जब चाहे एक खित्ते में स्वर्ग निकल जाये और जब चाहे इस लोक में लौट आए। अजीब इत्तिफ़ाक़ है कि उसके फ़्लैट तक जाने वाली सीढ़ियाँ आज यक दम यूं लंबी खिंच गई हैं जैसे रबड़ का ग़ुब्बारा पहले तो महज़ एक ज़रा सा छिछड़ा होता है। जब कोई बच्चा उसमें हवा भरना शुरू करता है तो हैरानकुन हद तक लंबा होता चला जाता है।

    इन सीढ़ियों पे ज़रूर किसी ने ऐसा ही कोई अमल किया है। अब वो तिफ़्लनादान मामूल के मुताबिक़ दोहरा हो हो कर ज़ोर लगाता हुआ उसमें अपनी गंदी सांस ठूंसता जाएगा, हत्ता कि ग़ुब्बारा भक से उड़ जाएगा और ये सीढ़ियाँ हमेशा के लिए ग़ायब हो जाएंगी, उसके बाद इन्सान कभी ऊपर जा सकेंगे और वो तिफ़्ल नादान उदास चेहरा लिये घर चल देगा। मैं इस अंधेरे और तन्हाई में यूं खड़ा था जैसे लहद में पड़ा मुर्दा और हैरानी की बात है कि मैं इसकी तरह अपनी तन्हाई से बे-ख़बर भी था। वो अपने कफ़न में मगन होता है। मैं अपने अंधेरे में मगन था। सांस क़दरे दुरुस्त हुआ तो फिर बाज़ू फैला कर दोनों दीवारों का सहारा लेता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। कहाँ गई वो मंज़िल जहाँ बाक़स रहता था। रोती हुई वायलिनों और आहें भरती हुई गिटारों की आवाज़ दूर बहुत दूर ऊपर कहीं से आरही थी। उनकी लय से हट कर एक बहुत बेहंगम, बेताल धम धम की आवाज़ भी आरही थी। ये आवाज़ें सुनकर मुझे एक यक़ीन तो हो गया कि वो खलंडरा हमें मदऊ करना बिसरा कर ख़ुद स्वर्ग नहीं निकल गया। उसे दावत देना याद रहा है और वो इसी बिल्डिंग में अपने फ़्लैट में मौजूद हमारा मुंतज़िर है। ये इतनी बेहंगम धम धम की आवाज़ क्या है? ड्रम होगा। नहीं इतना बे ताला नहीं हो सकता क्या बाक़स सर-ए-शाम इतना मदहोश हो गया कि नाचने भी लगा? क्या उसने मेहमानों का इंतिज़ार किए बग़ैर पीना शुरू कर दिया होगा? ख़ैर! पीता तो वो हर वक़्त ही रहता है। लेकिन क्या वो बाक़स जिसके नाच के असर से बे सुरे साज़ ख़ुद बख़ुद सुर हो जाते हैं, नाच के नाम पर बेहंगम तौर पर कूद रहा होगा? हरगिज़ नहीं, ये कोई और ही आवाज़ है, जो यक़ीनन किसी और जगह से आरही है। उसका फ़्लैट क़तअन ऐसी ग़लीज़, नंगी और फ़ुहश आवाज़ का मंबा नहीं हो सकता। मुम्किन है मेरे सिवा बाक़ी सब जमा हों और उन्होंने सोचा हो कि क्या पता वो पहुंच भी पाता है या नहीं और ज़िंदगी ने इसरार किया हो कि देर मुनासिब नहीं रुसूमात शुरू कर दो और उन्होंने शुरू कर दी हों। ज़िंदगी तो अपनी बेवफ़ाई में वैसे भी ज़रब-उल-मिस्ल है।

    दोनों तरफ़ दीवारें मेरे साथ साथ बुलंद से बुलंद तर होती जा रही थीं और दर्मियान में पड़ी पेच दर पेच सीढ़ियाँ ऊपर ही ऊपर चली जा रही थीं कहीं किसी रुख़ उनसे निकलने की कोई राह सुझाई नहीं देती थी। ठंडी हवा तो चल ही रही थी। मगर दफ़्अतन एक तेज़ झक्कड़ अँधेरी सीढ़ियों में शाँ शाँ का शोर करता यूं गुज़रने लगा कि मेरे क़दम उखड़ से गए और बड़े कोट के दोनों पट किसी उड़ते हुए बड़े परिंदे के परों की तरह हवा में तन गए। इन सीढ़ियों में कोई उड़ थोड़ा ही सकता है ये जाली तौर पर तने हैं इसलिए मैंने उन्हें ज़ोर से खींच कर अपने कपकपाते बदन के इर्दगिर्द लपेटते हुए जल्दी से बटन बंद कर लिये। सर्दी जो पिछले कई महीनों से बढ़ती जा रही थी। अब बहुत बढ़ गई थी। मगर इस झक्कड़ ने चल कर तो गोया कुर्राह ज़महरीर में पहुंचा दिया। मैंने अपने सर के इर्द-गिर्द किसे लोहे के कड़े को हाथ लगा के देखा वो अब भी उतना तंग और सर्द था कि मेरे सर और माथे की खाल के अंदर घुसा जा रहा था। धातें सर्दी से सिकुड़ जाती हैं न। इसी लिए शायद और तंग हो गया था। इस शहर में जब से ये अनदेखी और अनजानी सर्दी पड़नी शुरू हुई थी। हर ज़न-ओ-मर्द के सर के इर्दगिर्द ख़ुदा मालूम क्यों और कैसे लोहे के कड़े ख़ुद बख़ुद कसे गए जो रोज़ बरोज़ तंग से तंग तर होते चले जाते हैं। बच्चों के सरों पर तो लोहे के पूरे पूरे ख़ुद कस गए हैं और नवमौलूद तो ख़ैर अब पैदा ही ख़ुदों समेत होते हैं अगरचे अभी तक इन कड़ों के सबब कोई इन्सानी मौत वाक़े नहीं हुई ताहम इत्तिलाआत मिली हैं कि कई लोगों के कड़े इस क़दर तंग हो गए हैं कि उन्हें हस्पतालों में दाख़िल करना पड़ा है और उनमें से चंद एक के कड़े इस क़दर तंग होते होते इस क़दर तंग हो गए हैं कि अंदेशा है कि किसी लम्हे उनकी खोपड़ियाँ तड़ख़ जाएं और भेजें बाहर उबल पड़ें। कोई डाक्टर या साइंसदान इस आफ़त के अस्बाब-ओ-इलाज ढ़ूढ़ने की कोशिश नहीं कर रहा क्योंकि उनका ख़याल है कि जो लोग कड़ों के तंग से तंग होने की शिकायत करते हैं दरअसल उनकी खोपड़ियाँ बढ़ती जा रही हैं और वो एक लाइलाज मर्ज़ है अलबत्ता उसके सद-ए-बाब के तौर पर फ़ित्रत ने ख़ुद राह तलाश करली है और बच्चों के सरों पर मुकम्मल ख़ुद चढ़ गए हैं। आइन्दा पंद्रह बीस साल बाद इनशा अल्लाह किसी को लोहे के कड़ों की तंगी की शिकायत रहेगी क्योंकि उस वक़्त तक हर शिकायत करने वाले का भेजा तड़खी हुई खोपड़ी में से उबल कर ख़ारिज हो चुका होगा ये तो हुकमा की राय है लेकिन हक़ीक़त ये है कि एक मख़्लूक़-ए-ख़ुदा अज़िय्यत में मुब्तला है।

    मैं सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते जब दोबारा बेहाल हो गया तो ये जानने के लिए कि मैं अभी फ़्लैट से कितनी दूर हूँ, मैंने पूरी तवज्जो से कान लगा कर वावलों और गिटारों की आवाज़ सुनने की कोशिश की, आवाज़ें उतनी ही मद्धम थीं जितनी पहले, मगर अब ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो नीचे से आती हुई मालूम होती थीं और वह धम धम की बेहंगम बेहुदा आवाज़ भी अभी तक आरही थी और वो भी नीचे से ही आती महसूस हो रही थी तो मैं बहुत ऊपर निकल आया, सीढ़ियां उतरने से पहले दम लेने के लिए वहीं बैठ गया। मैं इन सिली अंधी सीढ़ियों में बहुत देर तक बैठा कपकपाता सांस दुरुस्त करता रहा। मुझे रंज आरहा था कि इस बिल्डिंग में इतने बहुत से फ़्लैट हैं और उनमें इतनी बड़ी तादाद लोगों की रहती है। अगर ये लोग सीढ़ियों में थोड़ी सी रौशनी का इंतिज़ाम करलें तो क्या हर्ज की बात है मगर वहां तो किसी खिड़की, रौशन दान, दरवाज़े की दराड़ में से भी रौशनी नहीं आरही थी।

    तुम्हें पता नहीं जब से कड़े कसे गए हैं। रौशनियां बंद कर दी गई हैं। तुमने किसी सड़क, गली कूचे में रौशनी देखी है? किसी मकान, दुकान में रौशनी देखी?

    ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर अपने क़रीब ये आवाज़ सुनके मैं घबरा के बोला, तुम कौन हो?

    मेरा नाम मसऊद था। अब मेरा नाम ना मसऊद है।

    तुम यहां क्या कर रहे हो?

    जो तुम कर रहे हो।

    मैं तो पिछले कई घंटों से बाक़स के फ़्लैट की तलाश में सीढ़ियां चढ़ रहा हूँ। उसने आज शाम के लिए मुझे बुलाया था।

    मैं भी उसके फ़्लैट की तलाश में हूँ, मुझे भी उसने बुलाया था, शायद जिसे हम सीढ़ियां चढ़ना समझते रहे हैं वो असल में सीढ़ियां उतरना था, हम नीचे कहीं तहतुस-सरा के नज़दीक हैं... ग़ौर से सुनो! साज़ों की आह-ओ-बक़ा की आवाज़ जो सिर्फ़ बाक़स के फ़्लैट से ही आसकती है। कितनी बुलंदी से आती हुई मालूम होती है और साथ ही एक गंदी धमक की आवाज़ भी चली आरही है।

    रौशनी ये कहते हुए ना मसऊद हंसा फिर कहा, हमने बाहर से बहुत सा काला पेंट मंगवाया है। इतना बहुत सा कि उसके ऊपर फैले हुए पूरे आसमान पर हम उसको थोप देंगे फिर दिन को सूरज निकला करेगा, रातों में चांद चमकेगा। सितारे दमकेंगे। दिन रात ये शहर इन सीढ़ियों की तरह अंधेरे में डूबा रहेगा।

    ना मसऊद जो वक़्त अभी नहीं आया तो उसके ख़याल से मुझे क्यों हिरासाँ करता है।

    वक़्त अभी नहीं आया? क्या बकता है। पेंट पहुंच चुका है, ठेका दे दिया गया है काम शुरू हो।

    अच्छा ये सब ठीक है। मगर लम्हे की भी तो कोई क़ीमत होती है। उसको समझो, अब जब कि वो आख़िरी रह गया है तो और भी क़ीमती हो गया है दिल मसोस, बस जल्दी कर, बाक़स अगर अभी ज़िंदा है और उसका फ़्लैट ढह नहीं गया तो हम आज उसकी तलाश करके रहेंगे।

    इस के बाद पता नहीं कितनी मर्तबा हम दोनों उन सीढ़ियों की लामतनाही लंबाइयों में उतरते चढ़ते रहे उसके फ़्लैट तो क्या मिलना था सीढ़ियों का ज़मीन पर पहुंचने वाला सिरा भी ग़ायब था, हमने पूरी ताक़त से दीवारों को धक्के दिये और वह उतनी ही ताक़त से हमें पीछे उछाल देतीं हमने लोहे के कड़ों में कसे अपने सरों को उनसे पटख़ा तो कोई दीवार फटी और ना ही सीढ़ियों ने हमें कोई राह दिया हमें यक़ीन सा हो गया कि हम दो चूहों की तरह दीवारों के पिंजरे में दौड़ते दौड़ते थक के सीढ़ियों पर गिर जाएंगे और मर जाएंगे। मगर बदस्तूर भागम भाग सीढ़ियां चढ़ रहे थे, उतर रहे थे और हमारे दम सीनों में समा नहीं रहे थे। मैंने तेज़ी से सीढ़ियां उतरते ना मसऊद का बाज़ू पकड़ कर कहा, ज़रा रुको, आओ एक आख़िरी कोशिश के तौर पर दोनों मिलकर पूरे ज़ोर से बाक़स को पुकारते हैं अगर उसने हमारी आवाज़ सुन ली तो वो आकर राह सुझाते हुए हमें अपने फ़्लैट में ले जाएगा।

    मैंने एक दो तीन कहा और तीन पर हम दोनों ने अपनी पूरी जानें मुज्तमा करके आवाज़ लगाई।

    बाक़स से तेज़ हवा की शाँ शाँ में हमारी आवाज़ ग़तरबूद हो गई। वक़्फ़े वक़्फ़े से हमने दो तीन बार और पुकारा कोई नतीजा बरामद हुआ। हम पर मायूसी छा गई। इतने में चुप रास्त की पुर हैबत तहक्कुमाना आवाज़ पर बहुत भारी भरकम बूटों की एक ताल में रची धमक से सीढ़ियां लरज़ने लगीं। या इलाही ये क्या माजरा है? हम ख़ौफ़ से दुबक कर दीवार के साथ लग कर खड़े हो गए जब वो मार्च करते हुए एक एक करके हमारे पास से गुज़र कर आगे बढ़ गए तो हम दबे-पाँव उनके पीछे पीछे चल पड़े एक जगह जा कर हाल्ट की आवाज़ पर वो सब रुक गए। हुक्म देने वाले शख़्स ने आगे बढ़कर दरवाज़ा यूं पीटा कि हम समझे कि दरवाज़ा तीली तीली हो कर बिखर जाएगा। वो चिंगाड़ा:

    बाक़स दरवाज़ा खोलो।

    अंदर से बाक़स की आवाज़ आई, तुम कौन हो?

    हम कोई रौशनी नहीं... तुम्हें किसी ने ग़लत बताया है।

    तुमने अंदर ज़िंदगी छुपाई हुई है।

    यहां कोई ज़िंदगी नहीं।

    तुम्हें बख़ूबी इल्म है कि मौसीक़ी कभी की मर चुकी।

    तुम दरवाज़ा खोलो हम तुम्हारे घर की तलाशी लेना चाहते हैं।

    तुम्हें मेरे घर की तलाशी लेने का कोई हक़ नहीं, ये मेरी चारदीवारी है और इसमें किसी अजनबी को दाख़िल होने का इख़्तियार नहीं।

    हर ख़ाना ख़ाना मा अस्त कि ख़ाना ख़ुदाए मा अस्त, हमें तलाशी लेने का पूरा पूरा हक़ और इख़्तियार है, दरवाज़ा खोल दो नहीं तो हम इसे तोड़ कर अंदर दाख़िल हो जाएंगे।

    अगर तुम दरवाज़ा तोड़ोगे तो मैं बंदूक़ से इसकी हिफ़ाज़त करूँगा, फिर उन्हें सुनाते हुए बुलंद आवाज़ से अपने मुलाज़िम को आवाज़ दी, मशरिक़ी! अपनी बंदूक़ लाना जो तू शिर्क़ में चलाया करता था, उसके बग़ैर ये बाज़ नहीं आएँगे।

    मशरिक़ी ने इस तरह बुलंद आवाज़ में जवाब दिया, ये लीजिए बंदूक़।

    इस पर मैंने और ना मसऊद ने एक दूसरे की तरफ़ देखा क्यों कि हमें पता था कि मशरिक़ी और बाक़स, दोनों के पास कोई बंदूक़ नहीं अगर उन्होंने दम खाया तो बाक़स मारा गया।

    हुक्म देने वाले शख़्स ने कहा, बाक़स तू अच्छा नहीं कर रहा, तुझे पछताना पड़ेगा, कल हम डायनामाइट ले कर आएंगे और तेरे फ़्लैट को उड़ा देंगे फिर तुझे पता चलेगा।

    ठीक है, ले आना तब बात करेंगे।

    वो शख़्स अपने दस्ते को उसी तरह परेड कराता हुआ वापस ले गया।

    मैंने पूछा, ना मसऊद क्या बाक़स की इस जुरात पर तेरा कड़ा भी कुछ ढीला पड़ा, कहने लगा, हाँ कोई हवा भर फ़राख़ी महसूस तो होती है।

    हमने जा कर आहिस्ता से दरवाज़ा खटखटाया, बाक़स ने पर्दा हटाकर हमारे चेहरे देखे और दरवाज़ा खोल दिया, अन्दर वाक़ई रौशनी थी जो ज़िंदगी की रोती हुई आँखों से निकल निकल कर कमरे में उजाला कर रही थी और कमरे के वस्त में घुटनों तक कटी अगली टांगों वाली भैंस ने नाच के नाम पर कूद कूद कर एक ऊधम मचा रखा था। अच्छा तो वो ग़लीज़ और मकरूह धमक की आवाज़ इसके नाचने की थी, इसकी अगली टांगें कहाँ गईं? ओह याद आया नीचे जहां सीढ़ियां शुरू होती हैं वहां क़स्साब की दूकान की दीवार की ओट में उबलते पानी के एक कनस्तर में जो भैंस की दो घुटनों तक कटी टांगें पड़ी थीं वो उसकी थीं और उन्हें वहां इसलिए छोड़ आई ताकि इस सर्दी में नाचते नाचते कहीं शल हो जाएं अब यहां से फ़ारिग़ हो कर जब जाएगी तो नीचे पहुंच कर अपनी गर्म-गर्म टांगें और पांव पहनेगी और चल देगी, मय से भरा ख़म कोने में पड़ा था। फ़क़ीर सहरा सूफ़ी स्याह पोश, सितारा गुल मस्ताना ज़हरा और हत्ता कि बॉक्स भी हाथों में ख़ाली जाम पकड़े दीवारों के साथ लगे खड़े कटी टांगों वाली बे-तहाशा कूदती भैंस को फटी फटी आँखों से देख रहे थे और उसे रोकने से क़तई क़ासिर थे। हम भी ख़ाली जाम हाथों में पकड़ कर उन्हें की तरह दीवार के साथ लग कर उसे देखने लगे। ज़िंदगी एक कोने में सबसे अलग-थलग बैठी अपनी आँसू बहाती आँखों से सिर्फ़ छत को तके जा रही थी। ज़िंदगी को यूं ज़ारो क़तार रोते देखकर मैं सन्नाटे में आगया, ज़िंदगी मैं तुझसे शर्मिंदा हूँ। मेरे बुलाने पे तू आज शाम यहां आई और तेरी तज़्लील हुई, उसने कोई जवाब दिया, उसी तरह आँसू बहाती रही और भैंस उसी तरह ऊधम मचाती रही।

    ना मसऊद कहने लगा, दोस्तो! इस भैंस को तो कमरे से निकालने की कोई तदबीर की होती।

    बाक़स ने जवाब दिया, हम सब तो अपनी सी कर चुके, मगर ये नहीं निकलती, पहले डंडे मारे फिर आहें भरती हुई मौसीक़ी को बंद किया, उसके बाद दरवाज़े में खड़े हो कर चारा दिखाया लेकिन ये किसी तौर मानती ही नहीं, बस इसी तरह कूदे जाती है अब तुम आए हो कोई चारा करके देखो।

    बाक़स! तुम्हारी देवताई शक्ति भला किस काम की जो एक अपाहिज भैंस को बाहर नहीं निकाल सकती।

    उसने ठंडी आह भरते हुए इक़रार किया, हाँ! मैं तो सिर्फ मय और रक़्स का देवता हूँ, भैंस मेरे बस में नहीं।

    मुझे एक तदबीर सूझी है, इसे किताब दिखा कर देखते हैं। ये कहते हुए ना मसऊद दूसरे कमरे में दौड़ता हुआ गया और बहुत सी किताबें बाज़ुओं में भर के ले आया, उसने कुछ वर्क़ फाड़ कर उस के सामने किए तो वो कूदना भूल कर निहायत रग़बत से उन्हें खाने लगी वो इसी तरह वर्क़ फाड़ फाड़ के खिलाता हुआ उसे कमरे से बाहर ले गया फिर घर की एक एक किताब ले जाकर वरक़-वरक़ कर के सीढ़ियों में नीचे तक फैला दी। वो तेज़ी से इधर उधर मुँह मारती वरक़-वरक़ चरती नीचे उतर गई। आँ दफ़्तर रागाओ ख़ुर्द-ओ-गाव रा क़साब बुरद, हालाँकि इस क़िस्से में क़स्साब गाव से पहले निपट चुका था हम ना मसऊद के बहुत ममनून-ओ-मशकूर थे उसपे वाह वाह के डोंगरे बरसाए गए कि आख़िर उसकी तदबीर की बदौलत सबकी इस बेहूदा भैंस से गुलू ख़लासी हुई।

    बाक़स ने ख़म की तरफ़ नज़र भर के देखा और आन वाहिद में तमाम ख़ाली जाम-ए-मय से छलक उठे। अफ़्सुर्दा और मायूस चेहरों पे मुस्कुराहट खिल उठी उसने जाम बुलंद करते हुए ज़िंदगी की तरफ़ देखकर जोश से कहा, बनाम ज़िंदगी वो कोना जहां भरपूर जवान ज़िंदगी छत को तकती हुई आँखों से आँसू बहा रही थी। अब भायं भायं करता ख़ाली पड़ा था, हम सबने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई मगर ज़िंदगी का कहीं कोई सुराग़ था। अगर नूर जामों से मुनाकिस हो रहा होता तो पूरा कमरा तारीकी में डूब चुका होता। बाक़स का उठा हुआ हाथ नीचा हो गया और वह इस शदीद सदमे से सँभलने के लिए दीवार से कमर लगा कर ख़ामोश गर्दन नीची किए खड़ा अपने ग़म में डूब गया सब पर एक सकता सा तारी हो गया।' तदबीर कुंद बदह तक़दीर कुंद ख़ंदा' कुछ देर के बाद बाक़स सँभला और कहा, जिसकी ख़ातिर ये सब किया धरा था वो तो चली गई। अब बोलो दोस्तो।

    फ़क़ीर सहरा ने कहा, बाक़स यूं लगता है जैसे मेरी आत्मा का अतीत मोंट ऐवरैस्ट की चोटी पे जाकर बर्फ़ का तोदा बन गया हो, वहां से कभी बर्फ़ पिघल सकती है और कभी मेरी आत्मा का अतीत वापस लौट सकता है तुम जानते हो मैं तो फ़ानी हूँ। सूरज के सवा नेज़े पे आने का कहाँ तक इंतिज़ार कर सकता हूँ।

    सूफ़ी स्याह पोश ने कहा, हर इन्सान के अंदर एक छोटा सा बच्चा होता है जो उसके अंदर मरते दम तक ज़िंदा रहता है और यूं उसके ख़मीर में मासूमियत और हैरत के उन्सुर को क़ायम रखता है। मेरे अंदर वो नन्हा बच्चा अब मर गया है और उस का ज़हर इतना फैल गया है कि आहिस्ता-आहिस्ता मेरी रूह के अंदर सरायत करता महसूस हो रहा है।

    मस्ताना ज़ोहरा बोलने लगा तो उसकी आवाज़ इस अंदाज़ में निकल रही थी जैसे कोई आलम-ए-नज़अ में बोलने की कोशिश कर रहा हो, मैं तो सांस भी कानों के रास्ते लेता था। अब उनमें सीसा भर दिया गया। सितारा गुल ने कहा, सैंकड़ों सदियों के सर्फ़ से मैंने जो मुस्कुराने का फ़न सीखा था। वो मेरे ज़ह्न से अब क़तई माऊफ़ हो गया है। मैं महज़ पत्थर का एक टुकड़ा रह गया हूँ जो रोता है हँसता है। गुलनार अलम मेरे हाथ से गिरकर कहीं सहराओं की रेत तले दब गया है अगर ज़िंदगी हमें सैंकड़ों सदियां पीछे फेंक गई है तो हमें वापस आने में चंद सदियां तो ज़रूर लगेंगी। अगर मैं नहीं हूँगा तो क्या हुआ जब ज़िंदगी मेहरबान होगी तो कोई और आएगा और रेत में से मेरा गुलनार अलम निकाल कर फिर कंधे पर रखकर आगे बढ़ेगा।

    बाक़स ने कहा, दोस्तो! अपने अपने जाम बनाम ज़िंदगी ख़ाली करो और फिर भरो और लुंढाते चलो। मैं ज़िंदगी को पहले भी कई बार अपने परस्तारों से मायूस हो कर रूठ कर जाते देख चुका हूँ। साबित-क़दम रहो, वो वापस आएगी और हम उसकी शान में बहुत बड़ा जश्न करेंगे। मुझे पता है आसमान पे थोपे जाने वाला स्याह पेंट आख़िर पिघल कर गिर जाएगा रौशनी के आगे बंद बांधने की ये अव्वलीन कोशिश तो नहीं, पहले भी बहुत लोग कर चुके हैं, नूर के सैलाब के आगे हर रुकावट पर काह की मिस्ल बह जाती है। तुम्हारे सुरों के गिर्द कसे हुए आहनी कड़े कोई हमेशा क़ायम तो नहीं रख सकता?

    हम सब यक ज़बान हो कर पुकारे, तब तक क्या करें?

    बताया जो है। जाम रौशन रखो। उसने निहायत मतानत से जवाब दिया। पता नहीं वो बाक़स था कि मयूज़ थी कि दोनों थे।

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