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सियाह-ओ-सफे़ेद

ग़ुलाम अब्बास

सियाह-ओ-सफे़ेद

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    28 बरस की मैमूना बेगम एक स्कूल में उस्तानी है। अपनी तनख़्वाह में से धीरे-धीरे करके सौ रुपये जोड़ लेती है। उस रुपये से वह अपने लिए कोई गहना बनवाना चाहती है लेकिन तभी उसकी बहन का ख़त आता है और वह उसे दिल्ली घूमने के लिए बुलाती है। मैमूना हवा-बदली और सैर-तफ़रीह की ग़रज़ से दिल्ली चली जाती है। वहाँ कनॉट प्लेस पर घूमते हुए उसे एक नौजवान दिखता है। पहले दिन वह उसे देखकर खुश होती है लेकिन दूसरे दिन उसकी असलियत जानकर घबरा जाती है। दिल्ली से वापस जाते हुए अपने सौ रुपये का यूँ बर्बाद हो जाना उसे बहुत खलता है।

    जी. ए. वी. मिडल स्कूल की उस्तानी मैमूना बेगम आईने के सामने खड़ी अपने बालों में कंघी कर रही थी। और साथ ही साथ सोच रही थी कि पिछले कई बरस में अपनी क़लील तनख़्वाह में से दो-दो तीन-तीन रुपय बचाकर जो सौ रुपया जमा कर लिया है उसका कौन सा ज़ेवर बनाऊँ कि अचानक उसे अपनी बाएं पेशानी के क़रीब एक लट में एक सफ़ेद बाल नज़र आया और उसके ख़यालों का सिलसिला टूट गया।

    उसने जल्द ही आईने की मदद से उस बाल को लट से अलग कर लिया और खींच कर निकाल डाला। उसे याद नहीं रहा था कि अब तक वो ऐसे कितने सफ़ेद बाल यूँ ही खींच-खींच कर निकाल चुकी थी। अलबत्ता इस एहसास ने कि वो रोज़ बरोज़ बूढ़ी होती जा रही है, पहले से ज़्यादा शिद्दत से उसकी रूह को झिंझोड़ दिया।

    उसका बाप एक ग़रीब मुदर्रिस था। जिसने मरने से पहले अपनी बे-माँ की बेटियों को घर ही पर पढ़ा लिखा कर इस क़ाबिल कर दिया था कि अगर ज़रूरत पड़े तो वो नविश्त-ओ-ख़्वांद के ज़रीये अपना पेट पाल सकें। बड़ी बेटी साजिदा को जो निसबतन क़ुबूल-सूरत थी, ज़्यादा तकलीफ़ उठानी पड़ी। उसके बाप के एक दूर के रिश्तेदार ने जो दार-उल-सलतनत दिल्ली के एक दफ़्तर में ओहदा-दार था, कुछ तो रिश्तेदारी के ख़्याल से, कुछ नेकी का काम समझ कर और कुछ ये कि उसने लड़की की ख़ुश जमाली की तारीफ़ सुन रखी थी, अपने बेटे की शादी उससे कर दी। बड़ी बेटी की तरफ़ से मुतमइन होके बूढ़े मुदर्रिस को छोटी बेटी की फ़िक्र हुई। मगर उसकी शादी का बंद-ओ-बस्त होने से पहले ही वो चल बसा। ग़नीमत ये हुआ कि मरने से थोड़े ही दिन पहले उसकी पुरानी ख़िदमात और असर-ओ-रसूख़ के तुफ़ैल मैमूना को पैंतीस रुपय माहवार पर लाहौर के क़रीब एक क़स्बे के ज़नाना स्कूल में उस्तानी की जगह मिल गई।

    बाप के मरने के बाद मैमूना इसी स्कूल के बोर्डिंग हाऊस उठ आई। वो दिन-भर स्कूल में लड़कियों को पढ़ाती और जब छुट्टी होती तो बोर्डिंग हाऊस में जाती। शुरू-शुरू में उसे ये काम मुश्किल भी मालूम हुआ और दिलचस्प भी मगर दो ही साल में वो इससे बेज़ार हो गई। दिन-भर ना-समझ और चंचल लड़कियों के साथ मग़ज़ मारने के सिवा और इसमें रखा ही क्या था।

    कभी-कभी शाम को वो दूसरी उस्तानियों के साथ स्कूल से बाहर चहल क़दमी करने भी जाती मगर इससे उसे कोई लुत्फ़ हासिल होता। भला क़स्बे में उसकी दिलचस्पी की क्या चीज़ हो सकती थी। मर्द अक्खड़ और अनपढ़। औरतें मैली कुचैली और ज़बान दराज़। सड़कें कच्ची और गर्द-आलूद। और मकान मिट्टी के बने हुए बे-ढंगे बे-ढंगे। बाज़ दफ़ा किसी अमीर ज़मींदार की लड़की की माँ उसे और दूसरी उस्तानियों को खाने पर बुला लेती। या कभी-कभार दो-चार उस्तानियाँ मिलकर कपड़ा वग़ैरा ख़रीदने शहर चली जातीं। इसके सिवा उस खुले बन्दी-ख़ाने से निकलने की और कोई सूरत थी। कभी-कभी वो अपनी इस बे-रंग ज़िंदगी से सख़्त दिल बर्दाश्ता हो जाती मगर फिर सोचती अभी उम्र पड़ी है। क्या पता कोई बेहतरी की सूरत निकल आए... इसी तरह दस साल बीत गए थे।

    सुबह के वाक़िआ ने मैमूना के दिमाग़ को दिन-भर परेशान रखा। स्कूल में वो लड़कियों को बात-बात पर झिड़कती रही। कई लफ़्ज़ों के मअनी भी वो ठीक तौर पर समझा सकी। बोर्डिंग हाऊस में आकर भी उसका जी किसी काम में लगा। वो सर-ए-शाम ही से आकर बिस्तर पर लेट गई और अपनी हालत पर ग़ौर करने लगी। सोचते-सोचते वो इस नतीजे पर पहुँची कि उसकी जवानी के ढलने की ये वजह है कि उसे अपनी ज़िंदगी से कोई ख़ुशी हासिल नहीं हुई। उसकी तफ़रीह का कोई सामान नहीं। उसे किसी से उन्स नहीं, लगाव नहीं। दिन-भर वो थी और लड़कियों का शोर। जिससे वो सख़्त नफ़रत करती थी। क्योंकि इससे अक्सर उसके सर में दर्द होने लगता था।

    बड़े दिन की छुट्टियों से कोई आठ रोज़ पहले उसे साजिदा का ख़त मिला। ये ख़त कई साल के बाद आया था और वो नहीं जानती थी कि उसकी बहन आजकल कहाँ है। साजिदा ने लिखा था कि उसके मियाँ का तबादला दिल्ली हो गया है। वो नई दिल्ली के एक सरकारी क्वार्टर में रहते हैं। उसने दिल्ली की क़दीम-ओ-जदीद इमारतों, सैर गाहों, नई दिल्ली के खेल तमाशों, पुर-फ़िज़ा पार्कों, सरकारी बैंड, दुकानों और होटलों की गहमा-गहमी और दूसरी दिलचस्पियों का हाल ऐसी ख़ूबी से लिखा था कि नावल का सा समाँ बाँध दिया था। आख़िर में लिखा था, “क्यों तुम क्रिसमिस की छुट्टीयों में आकर मुझसे मिल जाओ। और सारे शहरों की रानी, हिंद की राजधानी दिल्ली की सैर भी कर जाओ।“

    मैमूना का दिल ललचा उठा। क्या अजब वहाँ उसे वो तफ़रीह-ओ-ख़ुशी मयस्सर जाए जिसकी आरज़ू वो अर्से से दिल में दबाए हुए थी। ये भी मुम्किन था कि इस सफ़र से उसकी ज़िंदगी में कोई अचम्भा कोई ख़ुश-गवार तग़य्युर पैदा हो जाए... लम्हा भर ही में उसने दिल्ली जाने का इरादा कर लिया। सफ़र के ख़र्च के लिए उसके पास रुपया मौजूद था ही, किसी रिश्तेदार से इजाज़त लेने की ज़रूरत थी कोई पाबंदी। उसी दिन साजिदा को लिख भेजा कि फ़ुलाँ तारीख़ फ़ुलाँ गाड़ी से रवाना हो जाऊँगी।

    चलने से एक रोज़ पहले उसने शहर जाकर कई चीज़ें ख़रीद लीं। रूमाल, जुराबें, रेशमी मफ़लर, ऊँची एड़ी का बूट, जड़ाऊ क्लिप जिस पर तितली बनी हुई थी, नेल पालिश, लिपस्टिक वग़ैरा। इलावा अज़ीं उसने बहन के लिए मुल्तान के बने हुए चाँदी के बुंदों की एक जोड़ी भी ख़रीद ली। २३ दिसंबर की शाम को उसने अपना सूटकेस, अटैची केस और बिस्तर ताँगे में रखवाया। स्कूल के बूढ़े चौकीदार को साथ लिया कि स्टेशन तक पहुँचा आए और वो रवाना हो गई।

    वो गाड़ी के चलने से काफ़ी पहले गई थी। इसलिए उसे ज़नाना दर्जे में हस्ब-ए-मंशा खिड़की के पास जगह मिल गई। वो अकेली थी। और ये उसका पहला रेल का सफ़र था। इस पर भी उसके चेहरे पर घबराहट या परेशानी के कोई आसार थे। उसे इस सफ़र से ऐसी ही ख़ुशी हो रही थी जैसी बच्चों को होती है।

    जब तक गाड़ी रवाना हो हुई, वो खिड़की से बराबर प्लेटफार्म की सैर देखती रही। मुसाफ़िरों का गठरियाँ उठाए भागना दौड़ना, औरतों का पीछे-पीछे घिसटते आना, क़ुलियों की लड़ाईयाँ, प्लेटफ़ॉर्म के नल पर मुसाफ़िरों को जमघटा, ख़्वाँचे वालों की सदाएँ, मुतहर्रिक दुकानें, यूरोपियनों का सबसे अलग-थलग ऐसी बेफ़िकरी की शान से फिरना गोया कोठी के बरामदे में टहल रहे हैं, और उन सब के पस मंज़र में इंजन का रह-रह के भाँत-भाँत की आवाज़ें निकालते रहना, ये सारा समाँ मैमूना के लिए इंतेहाई दिलचस्पी लिए हुए था। इलावा अज़ीं एक अधेड़ उम्र का ठिंगने क़द का मोटा सा गार्ड जिसकी आँखें कोएले के रेज़े पड़ पड़ कर दाइमी तौर पर सुर्ख़ हो गई थीं और पपोटे सूजे हुए थे, स्याह वर्दी पहने सिगार के कश लगाता, धुएँ उड़ाता एक छोटे से इंजन की तरह बार-बार उसके डिब्बे के सामने से गुज़र जाता था। एक मर्तबा उसने सीधा मैमूना की खिड़की का रुख किया मगर वो रुका नहीं। बस उसे घूरता हुआ पास से निकल गया। मैमूना उसकी ये हरकात देख देखकर अजीब तिफ़लाना शोख़ी से मुस्कुराती रही।

    गाड़ी चलते-चलते वो डिब्बा औरतों से खचा-खच भर गया। रास्ते में कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र वाक़ेआ पेश आया। सिवाए इसके कि उसके डिब्बे में तीन-चार लड़कियाँ बहुत शोख़ थीं। जिन्होंने घंटे डेढ़ घंटे तक ख़ूब ऊधम मचाए रखा और फिर थक कर सो गईं।

    अगले रोज़ वो नई दिल्ली में अपनी बहन के हाँ मुक़ीम थी। साजिदा की शादी के बाद उन दोनों बहनों की ये पहली मुलाक़ात थी। मगर उसे साजिदा की तेज़ी-ए-गुफ़्तार का कमाल कहिए कि उसने दो ही घंटों में अपनी बहन को पिछले बारह बरस के वाक़ियात से ज़रूरी और गै़र ज़रूरी तफ़ासील के साथ वाक़िफ़ कर दिया था। उसके तीन लड़कियाँ और दो लड़के थे। बड़ी लड़की की उम्र दस बरस थी। मंझली की सात बरस और छोटी बच्ची अभी दूध पीती थी। लड़कों में एक की उम्र नौ बरस की थी, वो चौथी में पढ़ता था। और छोटा बेटा चार साल का था। उसने शरमाते हुए बताया कि चंद हफ़्तों में वो फिर माँ बनने वाली है।

    इसके बाद उसने हर एक बच्चे की पैदाइश, उस मौक़े के दर्द-ओ-कर्ब, हस्पताल की नर्सों की दोस्ती वग़ैरा का हाल सुनाया। हर एक बच्चे की आदतें, ख़सलतें, ज़हानत, शरारतें, बीमारियाँ, जिस-जिस शहर में उसके साहब को मुलाज़मत के सिलसिले में रहना पड़ा था, वहाँ की ख़ुसूसियतों और साहब की दफ़्तरी मस्रूफ़ियतों का हाल सुनाया। आख़िर में उसने उदास लहजे में रुपय की क़िल्लत और अपनी तंग-दस्ती का ज़िक्र किया। उसका मियाँ सौ रुपय पाता था। जो नई दिल्ली की रिहाइश, खेल तमाशों, बच्चों की तालीम वग़ैरा के अख़राजात में हफ़्ता ही भर में उठ जाते थे। और बाक़ी सारा महीना हिसाब पर कटता था। उसने तसल्ली देते हुए कहा “फ़िक्र करो। उन्होंने किसी दोस्त को रुपय क़र्ज़ दे रखे हैं। जो आज ही कल में मिलने वाले हैं। बस रुपय मिलते ही हम टैक्सी लेंगे। और तुम्हें दिल्ली की सैर कराएंगे।

    जब दो दिन गुज़र गए और साजिदा का मियाँ अपने दोस्त से रुपय वसूल करने में कामयाब हो सका तो मैमूना ने बहन के रोकने के बावजूद अपने ख़र्च से टैक्सी मँगवाई। और उसमें दोनों बहनें, मैमूना का बहनोई और पांचों बच्चे लद के दिल्ली के क़ाबिल-ए-दीद मुक़ामात देखने गए। मगर बच्चों के गुल ग़पाड़े और उनकी देख-भाल मैं मैमूना को सैर का कुछ लुत्फ़ आया, और वो निहायत बद-दिल हो कर वापस आई।

    अगले रोज़ शाम को उसे उदास देखकर साजिदा ने अपने साहब से कहा “तुम जानते हो मैं तो पैदल चल नहीं सकती। तुम जाके ज़रा मैमूना को कनॉट पैलेस की सैर तो करा लाओ।” उसने बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता हामी भर ली। वो पैंतीस छत्तीस बरस का दुबला-पतला नौजवान था। एक बेचैन रूह। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में हर वक़्त एक तिश्नगी और वोशत सी झलकती रहती थी। वो ख़ासा ख़ुश शक्ल था। मगर अपनी नादारी की वजह से अपनी साली के सामने कुछ झेंपा-झेंपा सा रहता था। एक दो दफ़ा उसने तन्हाई में अपनी बीवी को मलामत भी की थी कि ऐसी तंग-दस्ती की हालत में तुमने उसे बुलवाया ही क्यों। जिस वक़्त वो रवाना होने लगे तो साजिदा ने एहतियात के तौर पर अपनी बड़ी बेटी क़मर-अल निसा को भी उनके हमराह कर दिया।

    सर्दी ख़ासी पड़ने लगी थी। मैमूना ने सारी के ऊपर ओवरकोट पहन लिया था। ज़रा सी देर में वो चहल क़दमी करते हुए कनॉट प्लेस पहुँच गए। यहाँ की रफ़ी उल-शान इमारतें, फ़्लैटों में रहने वाली मख़लूक़, दुकानों की सज-धज और उनकी झिलमिलाती हुई रंगारंग रौशनीयाँ, मशरिक़ी और मग़रिबी आर्ट के नमूने, सिनेमाघरों की गहमा-गहमी, होटलों और क़हवा-ख़ानों में बुलंद होने वाले क़ह-क़हे, पार्कों में कहीं उजाला कहीं अंधेरा और कहीं नूर और साया बाहम गुथे हुए और सबसे बढ़कर यहाँ के ख़ुशपोश नौजवानों और रंग-बिरंगी सारियों वाली लड़कियों के झुरमुट। जिधर से ये झुरमुट गुज़र जाते, फ़िज़ा जवानी के नशे से महक उठती। मैमूना इन सब चीज़ों को एक महवियत के आलम में देख रही थी। दिल्ली आने पर अब तक उसे जो कोफ़त हुई थी, उसका ख़्याल एक दम दिल से निकल गया था। लड़कियों को किसी मर्द की सर-परस्ती के बग़ैर आज़ादाना और दिलेरी से फिरते देखकर उसे ताज्जुब भी हुआ और ख़ुशी भी।

    कुछ देर इधर-उधर घुमा फिराकर बहनोई उसे एक जगमगाते हुए क़हवा ख़ाने में ले गया। जिसकी बड़ी सिफ़त ये थी कि वहाँ चीज़ों के दाम बहुत कम लिए जाते थे। ये क़हवा ख़ाना आला दर्जा के फ़र्नीचर से मुज़य्यन था, और इतना फ़राख़ कि पच्चास साठ आदमी ब-यक-वक़्त उसमें समा सकें। जिस वक़्त वो अपनी साली और बेटी को लेकर अंदर पहुँचा तो ये क़हवा ख़ाना गाहकों से खचाखच भरा हुआ था। एक कोने में एक मेज़ को ख़ाली होते देखकर वो लपक कर उसकी तरफ़ बढ़ा और उस पर क़ब्ज़ा जमा लिया।

    थोड़ी देर में क़हवा गया। मैमूना ने उसकी चुसकियाँ लेना और अपने इर्द-गिर्द देखना शुरू किया। हिन्दुस्तानी , ऐंगलो इंडियन और यूरोपीयन मर्द-ओ-ज़न बढ़िया से बढ़िया लिबास पहने मज़े से क़हवा पी रहे और ख़ुश गपीयाँ कर रहे थे। वो जूँ-जूँ इन्हें देखती गई, उसकी दिलचस्पी बढ़ती चली गई। जब वो क़हवा पी चुके तो उसका बहनोई एक दोस्त को टेलीफ़ोन करने का बहाना करके काउंटर के पास गयाऔर चुपके से बिल भी अदा कर आया। चूँकि उन्हें घर से निकले दो घंटे हो चुके थे इसलिए यहाँ से निकल कर उन्होंने सीधा घर का रुख़ किया।

    जब वो घर पहुँचे तो साजिदा ने बहन से पूछा “क्यों पसंद आया कनॉट प्लेस?”

    “हाँ।” मैमूना ने अपने जोश को दबाते हुए कहा, “बहुत दिलचस्प मुक़ाम है।”

    दूसरे दिन शाम को साजिदा के मियाँ को कोई काम था और वो सर-ए-शाम ही घर से निकल गया। उधर मैमूना बनाओ सिंघार करके और नई सारी पहन के तैयार हो गई। साजिदा ने पूछा, “कहाँ की तैयारी है?”

    “ज़रा घूमने जाऊँगी।”

    “ईं अकेली?”

    “और क्या अकेली को कोई पकड़ लेगा।”

    क़ब्ल इसके कि साजिदा आज फिर अपनी बड़ी बेटी या बेटे को हमराह ले जाने की हिदायत करती, वो क्वार्टर से बाहर थी। कनॉट प्लेस पहुँच कर उसने पार्क का रुख़ किया, जिसके बीचों-बीच एक गोल चबूतरे पर पुलिस का बैंड बज रहा था, और सैंकड़ों मर्द औरतें और बच्चे उसके गिर्द जमा थे। थोड़ी देर वहाँ की चहल-पहल देखने के बाद जब वो दुकानों की तरफ़ लौट रही थी तो उसने महसूस किया जैसे कोई शख़्स उसके बिल्कुल पीछे-पीछे चल रहा है। उसने पलट कर देखा तो ये एक पच्चीस-छब्बीस साल का नौजवान था, जिसने सब्ज़ फ़्लैट हैट और फ़ाख़्ती रंग का सूट पहन रखा था। लंबा क़द। गोरा चिट्टा रंग। पतली-पतली तरशी हुई मूँछें। लंबी-लंबी क़लमें। आँखों से इल्म का नूर और चाल से शाइस्तगी टपकती थी। वो नौजवान तेज़-तेज़ क़दम उठाता हुआ उसकी तरफ़ देखे बग़ैर उसके पास से गुज़र गया मगर थोड़ी ही दूर चल के उसने एक दम अपनी रफ़्तार सुस्त कर दी और अब के मैमूना को उसके पास से गुज़रना पड़ा।

    अब वो उस चौराहे में पहुँच गई थी जहाँ से दुकानों की क़तारें दाहिने-बाएं एक दायरे की सूरत में गई थीं। मैमूना एक क़तार की तरफ़ ज़्यादा रौशनी देखकर चल दी। थोड़ी दूर चलने के बाद उसने पलट कर देखा तो वो नौजवान भी उसी सिम्त आता दिखाई दिया। अब के उसे देखकर जाने क्यों मैमूना का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। वो नौजवान कुछ दूर तक तो उसके पीछे-पीछे रहा, और फिर तेज़ी से उसके पास से गुज़र गया। अब के उसने अपनी नज़रें मैमूना के चेहरे पर गाड़ रखी थीं। चंद क़दम चल कर वो एक बुक स्टॉल पर ठहर गया, और अख़बारों की सुर्ख़ियाँ पढ़ने लगा। मैमूना को फिर उसके पास से गुज़रना पड़ा।

    ये माजरा कई बार पेश आया कि कभी तो वो नौजवान उसके आगे-आगे चलने लगता, और कभी मैमूना को उसके आगे-आगे चलना पड़ता। उसने सोचा ज़रा देखूँ तो ये नौजवान सच-मुच मेरा पीछा कर रहा है, या ये मेरा वहम ही वहम है।

    वो एक चीनी आर्ट की दुकान में दाख़िल हो गई और वक़्त गुज़ारे के लिए चीनियों की बनाई हुई तस्वीरें, खिलौने, ज़रूफ़ और कपड़े वग़ैरा देखने लगी। पाँच मिनट के बाद जब वो दुकान से निकली तो वो नौजवान इधर-उधर टहल रहा था। दोनों की निगाहें मिलनी थीं कि उस नौजवान ने हैट के किनारे को छूकर सर की एक ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश के साथ सलाम किया।

    ये हरकत उससे ऐसी ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर सरज़द हुई थी कि मैमूना बे-साख़्ता मुस्कुरा दी। उसके बाद उसने कनॉट प्लेस के दो तीन चक्कर और लगाए और फिर घर की तरफ़ रवाना हो गई। इस दौरान में वो नौजवान ब-दस्तूर उसका पीछा करता रहा। जब उसके बहनोई का क्वार्टर चंद क़दम के फ़ासले पर रह गया तो उसने अचानक पलट कर नौजवान की तरफ़ देखा, और एक अंदाज़ शोख़ी से भाग कर क्वार्टर में चली गई।

    साजिदा उसकी राह तक रही थी। उसे देखकर बोली “शुक्र है तुम गईं। मुझे बड़ा फ़िक्र हो रहा था। कहो कहाँ-कहाँ घूम आईं?”

    “यहीं कनॉट प्लेसज़ तक गई थी।”

    “औरत ज़ात, फिर तन्हा, फिर ना-वाक़िफ़। फ़िक्र की बात ही थी... तुम हंस क्यों रही हो?”

    “नहीं तो।” वो खिलखिला कर हंस पड़ी।

    उस रात उसने ख़ुशी-ख़ुशी सब के साथ मिलकर खाना खाया। वो देर तक बच्चों से बातें करती रही। आज बच्चे उसे यकायक दिलचस्प मालूम होने लगे थे। उसने छोटी बच्ची को गोद में लिया। प्यार किया। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसे हवा में उछालने लगी। कमरा किलकारियों से गूंज उठा। अगले रोज़ सेह पहर ही से उसने बनाओ सिंघार शुरू कर दिया। अपनी सबसे बढ़िया सारी निकाली, जो उसकी एक अमीर शागिर्द की माँ ने अपनी बेटी के पास होने की ख़ुशी में उसे तोहफ़े में दी थी।

    क्वार्टर से निकल कर वो सीधी उस सैलून में पहुँची जहाँ बिजली के ज़रिये बालों में लहरें पैदा की जाती थीं। ये अंग्रेज़ी दुकान उसने कल के गश्त में देख ली थी। जब उसके घने बालों में लहरें पड़ चुकीं और ताज़ा-तरीन मग़रिबी फ़ैशन के मुताबिक़ उनकी आराइश हो चुकी तो वो आईने में पहले-पहल अपनी सूरत पहचान सकी। वो ज़्यादा से ज़्यादा बीस बरस की मालूम होती थी। असली उम्र से आठ बरस कम। उसके पीछे इस सैलून की बूढ़ी मश्शाता जो एक फ़्रांसीसी ख़ातून थी, उसे ऐसी शफ़क़त भरी नज़रों से देख रही थी, जैसे माँ अपनी दुल्हन बेटी को सिंघार के बाद देखती है।

    शाम के झुटपुटे में मैमूना अपनी ख़ुशी को दबाए झेंपती हुई सैलून से निकली और कनॉट प्लेस के पार्क की तरफ़ हो ली। वो कोई घंटा भर तक पार्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में फिरती रही। फिर उसने दुकानों का गश्त लगाना शुरू किया। मगर वो कल वाला नौजवान उसे कहीं नज़र आया। वो उस क़हवा ख़ाने के पास पहुँची जहाँ वो पहले रोज़ अपने बहनोई के साथ गई थी। क़हवा-ख़ाना आज भी खचा-खच भरा हुआ था। उसे अंदर जाते कुछ झिजक सी मालूम हुई मगर उसने दिल को मज़बूत किया और किसी की तरफ़ देखे बग़ैर अंदर जाकर एक ख़ाली मेज़ के पास बैठ गई और मुलाज़िम से क़हवा मंगवाया।

    रफ़्ता-रफ़्ता उसने कनखियों से अपने आस-पास के लोगों का जायज़ा लेना शुरू किया। हर तरफ़ छोटी-छोटी महफ़िलें मुनअक़िद थीं। कहीं अहम मुल्की मुआमलात पर गर्मा-गर्म बहस हो रही थी तो कहीं बज़्लासंजी और लतीफ़ा गोई। एक कोने में दो बंगाली लड़कियाँ जिनकी चोटियों के सिरों में सुर्ख़-सुर्ख़ रिबन बंधे हुए थे, सर से सर जोड़ कर चुपके-चुपके बातें कर रही थीं। उनके क़रीब ही दूसरी मेज़ पर एक नौजवान ब-ज़ाहिर अख़बार में मुनहमिक मालूम होता था मगर दर अस्ल वो उन लड़कियों को घूर रहा था। ये सब कुछ था मगर वो सब्ज़ फ़्लैट हैट और फ़ाख़्ती रंग का सूट वाला नौजवान कहीं था।

    आध घंटे के बाद वो क़हवा ख़ाने से निकल आई। उस वक़्त ख़ासी रात हो चुकी थी। ठंडी और तेज़ हवा चल रही थी। उसने मफ़लर को अपने गले के गर्द लपेट कर ओवर कोट के बटन बंद कर लिए और फिर दुकानों की तरफ़ चल दी। जैसे ही वो चौराहे के पास पहुँची। उसने देखा कि एक सड़क के दरमयान जहाँ मोटरें वग़ैरा ठहराई जाती हैं, एक स्याह सेलोन कार खड़ी है। उसमें दो-तीन नौजवान अंग्रेज़ी सूट पहने बैठे हैं। और दो-तीन बाहर खड़े उनसे बातें कर रहे हैं। जब वो ज़रा क़रीब पहुँची तो उसी जत्थे में उसे वो कल वाला नौ-जवान नज़र गया। आज उसने चैस्टर पहन रखा था और सर से नंगा था। वो मोटर के दरवाज़े के पास खड़ा अपने साथियों से कुछ कह रहा था, जिसे वो सर जोड़े ग़ौर से सुन रहे थे। जैसे ही उस नौजवान की नज़र मैमूना पर पड़ी वो घबरा सा गया। और अपने एक साथी को जो चश्मा लगाए पास ही खड़ा था, कोहनी से टहोके देने लगा। यक-बारगी सब के चेहरे इश्तियाक़ से चमक उठे। मगर ब-ज़ाहिर उन्होंने मैमूना की तरफ़ तवज्जो की, और एक बे-पर्वाई का सा अंदाज़ इख़्तेयार किए आपस ही में बातें करते रहे।

    मैमूना ने उनकी ये सब हरकात भाँप ली थीं। उसका चेहरा यक-लख़्त तमतमा उठा। उसकी पेशानी पर पसीना गया, और वो मुँह ही मुँह में हिक़ारत से कह उठी “ओह ये बात थी!”

    जब वो ज़रा दूर निकल गई तो वो नौजवान अपने साथियों से जुदा हुआ, और तेज़ी से क़दम उठाता हुआ दुकानों की क़तार के उस सिरे की तरफ़ चल दिया, जिस तरफ़ मैमूना जा रही थी। सिरे पर पहुँच कर वो ठहर गया और जेब से सिगरट निकाल सुलगाने लगा। मैमूना ने उसे दूर ही से देख लिया था। आज उसका अंदाज़ कल से बिल्कुल बदला हुआ था। कल वो बहुत ग़म-ज़दा और उदास मालूम होता था। मगर आज उसकी आँखों में शोख़ी और बेबाकी थी। मैमूना का गुज़श्ता शब अपने क्वार्टर के सामने पलट कर उसकी तरफ़ देखना, मुस्कुराना और भाग जाना उसे दिलेर बनाने के लिए काफ़ी था। और फिर आज का ये सिंघार, बालों में ये लहरें, ज़ुल्फ़ों में ये पेच-ओ-ख़म। मैमूना को आज उस नौजवान के चेहरे में कोई ख़ास बात नज़र नहीं रही थी। वो ऐसा ही था जैसे उसके और लफ़ंगे साथियों के चेहरे जिन पर एक जैसी अय्यारी, हवस-कारी, पाजीपन और बेवक़ूफ़ी बरस रही थी। वो हैरान थी कि कल वो उसे क्यों भा गया था।

    उसे यक़ीन था कि जब वो उसके पास से गुज़रेगी तो वो ज़रूर कोई हरकत करेगा, या कुछ नहीं तो कोई फ़िक़रा ही कसेगा। मगर उसने इसका मौक़ा ही दिया। जब उसके और नौजवान के दरमयान कोई बीस क़दम का फ़ासला रह गया तो वो एक दुकान के शोकेस मैं झूट-मूट लेसों और फ़ीतों के नमूने देखने ठहर गई। और पल-भर के बाद वो जिस तरफ़ से आई थी उसी तरफ़ लौट गई। चंद ही क़दम चली थी कि उसे सामने से सड़क पर वही स्याह सेलून कार आती दिखाई दी। उसमें इस वक़्त चार आदमी सवार थे। उन्होंने ऐसी नज़रों से उसे घूरा कि वो एक दम घबरा गई। बिलाशुबा ये कार हल्की रफ़्तार से साथ-साथ सड़क पर उसका पीछा कर रही थी। तरह-तरह के वोशत-नाक ख़्याल उसके दिल में आने लगे। जो उसे सहमाए देते थे। वो रह-रह के अपनी कल की हरकतों पर अपने को मलामत कर रही थी। परदेस का मुआमला था। इज़्ज़त का ख़ुदा ही निगहबान था।

    सामने से एक अंग्रेज़ इन्सपैक्टर को मोटर साईकल पर आते देखकर उसकी ढारस बंधी। उसने दिल को मज़बूत किया और ये सोच कर तसल्ली दी कि जब तक मैं ख़ुद मौक़ा दूँगी, इन कुत्तों की मजाल नहीं कि मेरे क़रीब भी फटकने पाएँ। जब तक वो दुकानों के आगे के लंबे मेहराब-दार बरामदे में गुज़रती रही नौजवान ने बहुतेरी कोशिश की कि किसी तरह वो उसे अपनी तरफ़ मुतवज्जा करे। वो उसके कभी आगे-आगे कभी पीछे-पीछे कभी साथ-साथ चलता रहा। मगर मैमूना ने एक-बार भी उसकी तरफ़ देखा। एक जगह कोने में दो बड़े-बड़े गोल सतूनों के दरमयान एक तंग मोड़ था, जिसमें से एक वक़्त में सिर्फ दो एक आदमी ही गुज़र सकते थे। जब वो इन सतूनों में से गुज़रने लगी तो देखा कि नौजवान उसका रास्ता रोके खड़ा है। इस वक़्त इत्तेफ़ाक़ से और कोई आदमी आस-पास नहीं था। मैमूना लम्हा भर के लिए रुक गई। और मुंतज़िर रही कि वो हटे तो गुज़रूँ। मगर वो अपनी जगह से हिला। उस पर यक-बारगी वही कैफ़ियत तारी हो गई। जैसी स्कूल में किसी ज़िद्दी और सरकश देहाती लड़की की हट-धर्मी पर हो जाया करती थी। उसकी आँखों से इंतेहाई ग़ैज़ बरसने लगा और उसने हिक़ारत से तहक्कुमाना लहजे में कहा “हटो रास्ता छोड़ो। बेवक़ूफ़ आदमी।” वो नौजवान दुबक कर एक तरफ़ हो गया।

    उस वक़्त आठ बज चुके थे और वो कनॉट प्लेस के चक्कर से निकल कर उस बड़ी सड़क पर पहुँच गई थी जो सीधी उसके बहनोई के क्वार्टर को जाती थी। उधर शिकार को हाथ से निकलते देखकर उस नौजवान ने ज़्यादा सरगर्मी से उसका पीछा करना शुरू कर दिया था। जब आस-पास कोई होता तो वो ज़ोर-ज़ोर से आहें भरने लगता। दो-एक दफ़ा उसने आशिक़ाना अशआर भी गुनगुनाए मगर मैमूना ने रसीद तक दी। इस पर वो खुल्लम-खुल्ला उसे बाज़ारी खिताबों से पुकारने लगा। मैमूना ने अपनी रफ़्तार तेज़ कर दी।

    जब वो एक चौक में से गुज़र रही थी तो वही सियाह-रंग मोटर फ़र्राटे भर्ती हुई बिल्कुल उसके क़रीब से होके निकल गई। अगर वो जल्दी से एक तरफ़ हट जाती तो अजब था कि उसकी टाँग मोटर के पहिए के नीचे जाती। इधर वो हटी, उधर मोटर में से आवाज़ आई “ओह वेरी सौरी!”

    मैमूना ने अब सँभल कर और सड़क के बिल्कुल किनारे हो कर फिर तेज़-रफ़्तार से चलना शुरू कर दिया था। उधर वो नौजवान भी उसके साथ-साथ तेज़-तेज़ क़दम उठाता आशिक़ाना फ़िक़रे कसता और आहें भरता चला रहा था। थोड़ी देर में वो मोटर चक्कर काट कर फिर उसके पास से गुज़री। अब के उसके कान के पास इस ज़ोर का हॉर्न बजा कि वो डर कर उछल पड़ी। मोटर में से आवाज़ आई “पैदल कब तक चलिएगा। मोटर में तशरीफ़ ले आईए सरकार!”

    मैमूना का क्वार्टर अब सिर्फ डेढ़ फ़र्लांग के फ़ासले पर रह गया था। जूँ-जूँ उसका घर क़रीब आता जाता था नौजवान की आह-ओ-फ़ुग़ाँ में ज़्यादा से ज़्यादा जोश-ओ-ख़रोश पैदा होता जाता था। मैमूना ने अपनी रफ़्तार और भी तेज़ कर दी। और भी तेज़। यहाँ तक कि वो क़रीब-क़रीब दौड़ने लगी। उसके पीछे लगातार एक शोर सुनाई देता रहा मगर उसने बिल्कुल ध्यान दिया, पलट कर देखा। वो हाँप रही थी। फिर भी उसने अपनी रफ़्तार में कमी आने दी। आख़िर-ए-कार वो अपने क्वार्टर में पहुँच ही गई।

    साजिदा ने उसे लंबे लंबे साँस लेते हुए देखा तो पूछा “तुम घबराई हुई क्यों हो? दम क्यों चढ़ा हुआ है?”

    “नहीं तो।” मैमूना ने मरी हुई आवाज़ में कहा। और अपने जिस्म को एक आराम कुर्सी पर गिरा दिया।

    उस रात ख़ासी देर तक रह-रह के इसके क्वार्टर के सामने हॉर्न बजता रहा। मगर मैमूना ने अपनी किसी हरकत से ये ज़ाहिर होने दिया कि उसका इससे कोई ताल्लुक़ है।

    31 दिसंबर की शाम को वो दिल्ली के स्टेशन पर रेल के ज़नाना दर्जे में बैठी वापस जा रही थी। उसके मिनी बैग में सिर्फ चंद रुपय और कुछ रेज़गारी रह गई थी। सौ रुपय के यूँ बेकार बे-मसरफ़ उठ जाने पर उसका दिल भर-भर आता था। क्या ये अच्छा होता कि वो उसका कोई ज़ेवर बना लेती। जो आड़े वक़्त में उसके काम भी आता... वो खिड़की से लगी बैठी हर चीज़ को बड़ी बे-तवज्जुही से देख रही थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वो पाँच बरस और बूढ़ी हो गई हो।

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 199)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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