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सुर्ख़ गुलाब

ग़ुलाम अब्बास

सुर्ख़ गुलाब

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    दिमागी तौर पर माजू़र एक यतीम लड़की की कहानी, जो गाँव के लोगों की सेवा करके किसी तरह अपना पेट पालती है। गाँव के पास ही चन शाह की मज़ार थी और वहाँ हर साल मेला लगता था। उस साल वह भी चन शाह की मज़ार पर लगे मेले में गई थी और उसे हमल ठहर गया। जब गाँव वालों को उसके हमल के बारे में पता चला तो उन्होंने से उसे गाँव से बाहर निकाल दिया। अगले साल वह अपने नवजात बच्चे के साथ फिर से चन शाह की मज़ार पर नमूदार हो गई।

    उसका अपना घर तो कोई था ही नहीं मगर गाँव के हर घर को वो अपना ही घर समझती थी। दिन में वो कभी किसी घर में दिखाई देती कभी किसी घर में। कभी ज़ैलदार के हाँ तंबाकू कूट रही होती कभी शम्मे गूजर के हाँ छाछ बिलो रही होती। कभी माई ताबाँ के साथ उस कच्ची दीवार पर जिसने सारे गाँव का अहाता कर रखा था, उपले थापती दिखाई देती। ग़रज़ जब देखो वो गाँव वालों के किसी किसी काम में जुटी ही नज़र आती।

    किसी-किसी रोज़ वो गाँव वालों की बकरीयाँ उस पहाड़ी पर चराने ले जाती जिस पर चन शाह वली का मज़ार था। और जहाँ पेड़ों और झाड़ियों पर रंग-बिरंगे झंडे बारह महीने लहराया करते। ये झंडे आस-पास के देहात के उन ज़ाइरीन ने बाँधे थे जिनकी मुरादें चन शाह वली के फ़ैज़ से पूरी हो गई थीं।

    ये वो सारे काम हंसी-ख़ुशी किया करती, और सिले का कभी ख़्याल तक उसके ज़हन में आता। किसी ने कुछ रूखा-सूखा दे दिया तो खा लिया। कहीं से कोई फटा पुराना कपड़ा मिल गया तो पहन लिया, वरना अपने हाल में मस्त रहा करती। उसकी ओढ़नी में जगह-जगह छेद थे जिनमें से उसके लंबे भूरे बाल धूल और तिनकों से अटे हुए किसी साधू की जटा की तरह दिखाई देते।

    वो इसी गाँव की एक नाइन की बेटी थी। बाप की उसने सूरत नहीं देखी थी। चार बरस की हुई तो माँ भी चल बसी और कोई रिश्तेदार था नहीं, बस गाँव ही में रुल-रुला कर पल गई। गाँव की हर औरत ख़्वाह वो ज़ैलदारनी होती या मिहतरानी उसकी ‘चाची‘ थी। और गाँव का हर मर्द उसका ‘चाचा।‘

    पंद्रह बरस की उम्र को पहुँच कर उसने ख़ूब हाथ पाँव निकाले, रूप भी निखर आया। आँखें बड़ी-बड़ी और रसीली जैसी हिरनियों की। शुरू-शुरू में जिस किसी ने देखा हैरान रह गया और दिल में कहने लगा, “अरे ये वही नाइन की चुंधी लौंडिया काकी है जो छः सात बरस उधर नंग-धड़ंग नालियों में लोटा करती थी!”

    काकी की उम्र चार पाँच बरस ही की थी कि उसमें मज्ज़ूबियत के आसार नज़र आने लगे थे। अगर माँ बाप ज़िंदा होते तो शायद उसके ईलाज की कुछ फ़िक्र करते। या कम से कम उसे शऊर की कुछ बातें ही सिखाते। गाँव वालों को तो उसकी पर्वा थी ज़रूरत। उनकी हमदर्दी तो बस यहीं तक थी कि कभी-कभी उसके हाथ में गुड़ की भेली या गाजर पकड़ा दी। वो जूँ-जूँ बड़ी होती गई उसके और आज़ा तो नश्व-ओ-नुमा पाते रहे मगर दिमाग़ कमज़ोर ही रहा। जवानी को पहुँच कर भी वो मज्ज़ूब की मज्ज़ूब ही रही। मगर उसका ये मर्ज़ गाँव वालों के लिए बड़े फ़ायदे का मूजिब था। क्योंकि वो दिन-भर उससे तरह-तरह के काम लेते रहते, जिन्हें वो ना-समझी में बे-तकान करती रहती।

    काकी ने अपने दिमाग़ की कमज़ोर की बावजूद एक बात में बड़ी तरक़्क़ी की थी वो ये कि उसकी ज़बान ख़ूब चलने लगी थी। जिस घर में भी जाती अपनी ऊटपटाँग बातों से उसके मकीनों का दिमाग़ चाट जाया करती। जब बात करने को कोई मिलता तो आप ही आप बोलती रहती। कभी-कभी उसे मारा पीटा भी जाता। मगर जल्द ही घर की कोई बड़ी बूढ़ी अपनी मीठी-मीठी बातों से उसे बहला लेती, और ये ख़तरा दूर हो जाता कि कहीं वो नाराज़ हो कर इस घर का आना-जाना ही बंद कर दे।

    जब काकी के कपड़े बहुत मैले हो जाते तो पटवारी की बीवी उसे साबुन का एक टुकड़ा देकर कहती, “काकी तेरे कपड़ों से बड़ी बदबू आने लगी है। जा अंगनाई में बैठ कर उन्हें धो ले।” काकी इन्कार करती तो पटवारन ज़बरदस्ती उसके कपड़े उतरवा कर उससे धुलवाती। शलवार या कुरता कहीं से फटा होता तो उसे सूई-धागा दिया जाता मगर काकी सीना पिरोना जानती थी। इस पर पटवारन को ख़ुद ही उसके फटे हुए कपड़े सीने पड़ते। मगर उसके इवज़ काकी को घंटों पटवारन की कमर दाबनी पड़ती।

    जिस रोज़ काकी गाँव वालों की बकरीयाँ चराने ले जाती, उसे किसी किसी घर से बेसन की दो रोटियाँ और थोड़ा सा मक्खन एक पोटली में बाँध कर दे दिया जाता। पहाड़ी पर पहुँच कर बकरीयाँ अपने आप चरती रहतीं और वो ख़ुद भी उन्ही की तरह इधर-उधर घूमती रहती। वो ऊँचे-ऊँचे सपाट टीलों पर बे-धड़क चढ़ जाती। कभी किसी दरख़्त की ऊँची डाल पर चढ़ बैठती, कभी किसी झाड़ी के नीचे ठंडी ठंडी ज़मीन पर लेट जाती और आप ही आप बातें करने लगती, या दूर से आती हुई रहट की घूँ-घूँ सुनती रहती। कभी पहाड़ की चोटी पर जा पहुँचती, जहाँ से एक तरफ़ चन शाह वली के मक़बरे का सब्ज़-गुम्बद नज़र आता और दूसरी तरफ़ गाँव का बड़ा सुहाना मंज़र दिखाई देता।

    मनाली की आबादी चार-पाँच सौ नुफ़ूस से ज़्यादा थी। ये वैसा ही कच्चे घरौंदों का बे-तरतीब मजमूआ था जैसे पँजाब के और गाँव होते हैं। गिर्दा-गिर्द कच्ची दीवार जिस पर उपले थपे हुए, बीचों-बीच बे-ढंगी सड़क कहीं से तंग कहीं से कुशादा, पेच खाती और क़रीब-क़रीब हर घर के आगे से गुज़रती हुई। सड़क के दोनों तरफ़ बैल गाड़ियों के पहीयों ने मुस्तक़िल तौर पर नालियाँ सी बना दी थीं। जब कीचड़ होती तो उन नालियों में पहीए बड़ी रवानी से चलते और बैलों को ज़ोर लगाना पड़ता। गाँव की दीवार पर सुबह ही से बहुत से कव्वे बैठते और दिन-भर काएँ-काएँ का शोर बरपा रखते। उनके इलावा गाँव के लड़के भी खद्दर के मैले-कुचैले कुर्ते पहने, नंगी टाँगें, बाज़ लंगोटी और बाज़ सिर्फ एक धागा सा कमर पर बाँध कर दीवार पर एक टाँग इधर एक टांग उधर घोड़े की सी सवारी करते नज़र आते।

    मनाली में दो तीन मकान पुख़्ता ईंटों के बने हुए भी थे। मगर ये गाँव की दीवार से बाहर खेतों के बीच में थे। उनमें एक बड़ा मकान तो ज़ैलदार का था, और दूसरा उससे ज़रा फ़ासले पर छोटा मकान पटवारी का।

    काकी का आना जाना ज़्यादा-तर उन्हीं दो मकानों में रहता था। मनाली था तो छोटा सा गाओं मगर चन शाह वली के मज़ार के बाइस उसकी शोहरत दूर-दूर फैली हुई थी। हर साल चैत की पच्चीसवीं तारीख़ को बड़ी धूम-धाम से उर्स मनाया जाता, जिसमें शामिल होने के लिए पचास-पचास कोस से ज़ाइरीन बच्चों समेत आया करते थे।

    चन शाह बड़े ज़बरदस्त वली माने जाते थे। मशहूर था कि जो कोई उर्स के रोज़ उनके मज़ार पर आकर मुराद माँगे, ख़ासकर औलाद की मुराद, तो वो जल्द ही या कुछ अर्से बाद पूरी हो के रहती थी। यही वजह थी कि देहाती औरतें खासतौर पर चन शाह वली की बड़ी मोअतक़िद थीं। उनकी एक करामत ये भी थी कि मुराद माँगने वाली को पहले ही से मालूम हो जाता कि मेरी तमन्ना बर आएगी या नहीं। अगर बर आने वाली होती तो चन शाह वली ख़ुद साइला के ख़्वाब में आकर उसकी बशारत देते। ये बशारत क्या थी सुर्ख़ गुलाब का एक फूल। वली सफ़ेद घोड़े पर सवार हाथ में फूल थामे, जिसे वो बार-बार सूँघते, साइला के पास से गुज़रते, और वो फूल उसकी झोली में फेंक देते। आँख खुलने पर जब साइला घर के लोगों को ये मुज़्दा सुनाती तो सब उसे मुबारक बाद देने लगते। चन शाह वली की इन करामतों के तज़किरे गाँव के हर घर में अक्सर होते रहते थे। काकी बड़े ग़ौर से उन बातों को सुना करती। कभी कभी वो ख़ुद भी कोई बात पूछने लगती।

    “अच्छा चाची जब चन शाह वली ने तेरी झोली में फूल फेंका तो वो पैदल था या घोड़े पर?”

    “घोड़े पर।”

    “वो शक्ल-ओ-सूरत का कैसा था? बुड्ढा था या जवान?”

    “चुप कर पगली, कुँवारी लड़कियाँ ऐसी बातें मुँह से नहीं निकालतीं।”

    “क्यों कुँवारी लड़कियों को क्या होता है?”

    घर की मालिका के पास इसका कोई जवाब होता और उधर काकी जवाब का इंतेज़ार किए बग़ैर चन शाह के बारे में कोई और बात पूछने लगती और मालिका को ख़्वाह-म-ख़्वाह कोई काम पैदा करके काकी को उसमें उलझा देना पड़ता।

    तीसरे पहर वो बकरीयों को हाँकती हुई पहाड़ी पर से उतरती। गाँव में पहुँच कर बकरीयाँ तो अपने-अपने ठिकाने पर ख़ुद-ब-ख़ुद चली जातीं और वो सीधी मौले गँडेरी वाले की दुकान पर पहुँचती और उससे गाँठें माँगती। मौला गंडेरियाँ तो गन्ने के मौसम ही में बेचा करता था मगर सारा साल वो इसी नाम से याद किया जाता था, ख़्वाह उस ने गुड़ की रेवड़ियों, मीठे चनों और दाल मोंठ का ख़्वाँचा ही क्यों लगा रखा हो। ये शख़्स स्याह फ़ाम और बद-रु था। इस पर चेचक में उसकी एक आँख भी जाती रही थी। चालीस के क़रीब उम्र थी। दस साल हुए उसकी बीवी मर गई थी मगर उसने दूसरी शादी नहीं की थी। बस दिन-भर अपनी एक आँख से गाँव की लड़कियों को घूरा करता।

    वो काकी को उस वक़्त से जानता था जब वो पाँच छः बरस की बच्ची थी और उमूमन नंगी फिरा करती थी। उसी वक़्त से वो उसके पास गाँठें माँगने आने लगी थी। काकी को देखकर वो हैरान होता कि लड़कियाँ कितनी जल्दी जवान हो जाती हैं। इसके साथ ही उसकी निगाहें काकी के जगह-जगह से फटे हुए कपड़ों पर पड़तीं, जिनमें से उसके सुडौल घुटने या सफ़ेद सीने का कुछ हिस्सा दिखाई दे रहा होता और उसका दिल-ख़्वाह-म-ख़्वाह काकी से हुज्जत बाज़ी करने को चाहता।

    “गाँठें नहीं हैं, फिर आना।”

    “वो जो पड़ी हैं चाचा तेरे घुटने के नीचे।”

    “ये मैंने अपने लिए रखी हैं।”

    “तू गंडेरियाँ क्यों नहीं चूसता चाचा?”

    “वाह। गंडेरियाँ चूसूँ तो बेचूँ क्या... मैं कहता हूँ काकी, तू दिन-भर जिन लोगों के काम करती रहती है, उनसे पैसे क्यों नहीं माँगती। फिर तू जितनी चाहे गंडेरियाँ चूस सकती है। गाँठों से तेरे दाँत नहीं दुखते।”

    “नहीं अल्लाह की सौं। मुझे गाँठें ही अच्छी लगती हैं... ला चाचा जल्दी गाँठें दे दे। देर हो रही है।”

    और मौला दो-चार गाँठें उसे दे ही देता।

    चैत का महीना निस्फ़ से ज़्यादा गुज़र चुका था। चन शाह वली के उर्स की तारीख़ क़रीब रही थी। चूँकि ये उर्स ऐसे ज़माने में होता जब देहाती फ़सल की कटाई से फ़ारिग़ हो चुके होते और अपनी मेहनतों का सिला पाकर ख़ुशहाली की एक हल्की सी झलक उनकी ज़िंदगीयों में नज़र आने लगती। इसलिए वो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी-अपनी बिसात के मुताबिक़ उर्स की तैयारीयाँ करने लगते।

    चन शाह के मज़ार का पुराना मुजाविर जिस का नाम जीवन साईं था, मज़ार के आस-पास की ज़मीन को झाड़-झनकार से साफ़ करता नज़र आने लगा। उसने गाँव वालों से दो जवान मांगे और उनकी मदद से मज़ार की दीवारों और बुर्जियों पर सफ़ेदी की और गुम्बद पर सब्ज़ रंग किया। उधर गाँव की औरतों में हर वक़्त चन शाह वली ही का ज़िक्र रहने लगा। वो हर-रोज़ पहले से भी ज़्यादा बे-ताबी के साथ उर्स के दिन का इंतेज़ार करने लगीं।

    अब के जिन औरतों को मुराद माँगनी थी, उनमें गाँव के ज़ैलदार की बीवी भी थी, जिसका नाम ख़ैर-उन-निसा था। वो एक मोटी, फुफ्फुस, बदमिज़ाज और ग़ुस्सा वर औरत थी। चंद महीनों से वो काकी को बहला फुसला कर ज़्यादा-तर अपने पास ही रखने लगी थी। वो उससे तरह-तरह की मेहनत मशक़्क़त के काम लिया करती। जब उर्स के दिन क़रीब आए तो उसने कुछ तो काकी की ख़िदमत गुज़ारियों के सिले में और कुछ मुराद माँगने की ख़ुशी में उसे घटिया जापानी रेशम का एक सूट सिलवा दिया, जिस पर गुलाब के बड़े-बड़े फूल छपे हुए थे।

    जब उर्स का दिन आया तो ख़ैर-उन-निसा ने काकी को गर्म पानी से ख़ूब नहलवाया। घर की एक बूढ़ी औरत ने उसके सर में सरसों का तेल डाल कर कंघी की और एक सुर्ख़ चुटल्ला उसकी चोटी में गूँधा गया, जो उसके भूरे बालों पर ख़ूब सजने लगा। उसकी आँखों में काजल डाला गया। रेशमी कपड़ों और बनाओ सिंघार से उसका रूप कई गुना बढ़ गया और वो किसी ज़मींदार की बहू बेटी मालूम होने लगी।

    “काकी!” ज़ैलदारनी ने कहा, “तू मेरे साथ-साथ ही रहियो।”

    “अच्छा चाची।“

    “जाने किन-किन गाँव से लोग आएँगे। उनमें शरीफ़ भी होंगे, बदमाश भी। और कहीं कोई तुझे भगा ले जाये।“

    “नहीं चाची।”

    “और जब मैं मज़ार पर दुआ माँगने बैठूँ, तो तू भी मेरे पास ही बैठ जाइयो।”

    “चाची तेरी तो औलाद है तू मुराद क्यों मांगेगी?”

    “मेरे अब तक लड़कियाँ ही हुई हैं। मेरी तमन्ना है चन शाह वली मुझे एक चाँद-सा बेटा भी दें।”

    काकी किसी गहरी सोच में डूब गई।

    “चाची मैं भी मुराद माँगूंगी”,

    “हट पगली तेरा अभी ब्याह ही कब हुआ है।”

    “तो मेरा ब्याह कब होगा?”

    “चुप कमबख़्त कैसी बातें मुँह से निकालती है।”

    काकी कुछ और पूछना चाहती थी कि ख़ैर-उन-निसा ने ज़ोर से उसकी चुटिया खींच कर उसे चुप करा दिया।”

    चन शाह वली का मज़ार ज़्यादा दूर नहीं था। इसलिए ज़ैलदारनी, काकी और चंद रिश्तेदार औरतों के साथ पैदल ही पहाड़ी की तरफ़ रवाना हो गई। उस रोज़ अभी तड़का ही था कि दूर-दूर के गाँव से औरतों और बच्चों से भरी हुई बैल गाड़ियाँ आनी शुरू हो गई थीं। मर्द साथ-साथ पैदल चल रहे थे। उनमें कुछ घोड़ों पर भी सवार थे ये गाँव के बांके सजीले नौजवान थे। रंग-दार लुंगियाँ बाँधे, बोसकी की क़मीसें पहने, चांदी के बटन लगाए ख़्वाह-म-ख़्वाह घोड़े को एड़ बताते और टख-टख करते चले आते थे। कभी ये भी देखने में आता कि मियाँ आगे घोड़े पर बैठा है, बीवी पीछे बैठी है। बीवी ने एक हाथ से मियाँ की कमर पकड़ रखी है और दूसरे हाथ से बच्चे को सहारा दे रखा है जो उन दोनों के बीच माँ की छाती से चिमटा दूध पी रहा है।

    बहुत सी औरतें जिनके गाँव क़रीब ही थे, टोलियाँ बना कर पैदल रही थीं। उनमें हर उम्र की औरतें थीं। नई नवेलियाँ पोर-पोर मेहंदी रची हुई, सुर्ख़ जोड़ा, सुर्ख़ दुपट्टा जिसमें चुन्नटें पड़ी हुईं, किनारों पर गोटा टिका हुआ, होंट कसरत से दनदासा मलने की वजह से स्याही माइल प्याज़ी हो गए थे और आँखों से काजल बहा जाता था। अधेड़ उम्र की देहातनें, लंबी तड़ंगी, उनकी और ही वज़ा थी। मोटी मलमल के कुरते, खद्दर की शलवारें जिन्हें हल्का-हल्का नील दिया हुआ। सर और सीने को लट्ठे की चादर में छुपाए। चलते वक़्त उनकी गर्दन सीधी और निगाहें सामने रहती थीं। ये आदत उन्हें साल-हा-साल सर पर बदने और मटके या अनाज की गठरियां बग़ैर हाथों के सहारे उठाकर चलने के बाइस आप ही आप पड़ गई थी।

    मज़ार से ज़रा फ़ासले पर एक जगह को हमवार करके मैदान सा बना लिया गया था, जहाँ लंगर की देग़ें चढ़ा दी गई थीं। आस-पास के छोटे-छोटे क़स्बों से कुछ दुकानदार सस्ते खिलौने ले आए थे और ज़मीन पर चादरें बिछाकर दुकानें सजा दी थीं। कुछ लोग बाँस की छतरियों पर ग़ुब्बारे, फिरकियाँ, पहिए, बबुए वग़ैरा धागों से लटकाए ख़ुद बीन बाजा बजाते हुए मेले की रौनक बढ़ा रहे थे।

    एक तरफ़ पहाड़ी के नीचे चर्ख़ और गंडोले गड़े थे। जिनकी चर्रख़-चूँ से पैहम एक गूँज सी सुनाई दे रही थी। बच्चों के इलावा ख़ासी बड़ी उम्र वाले मर्द भी चर्ख़ पर बैठे शोर-ओ-ग़ुल मचा रहे थे। कभी-कभी दो-चार मनचली औरतें भी हिंडोलों में बैठ जातीं और जब हिंडोला ऊपर आसमान की तरफ़ जाता तो वो डर कर चीख़ने लगतीं और अपने बच्चों को और भी भींच कर सीनों से चिमटा लेतीं। कई पेड़ों में झूले पड़े थे। जिनमें कहीं औरतें और कहीं मर्द पींगें बढ़ा रहे थे।

    सेह-पहर होते-होते इतनी मख़लूक़ जमा हो गई कि पहाड़ी पर चलना-फिरना मुश्किल हो गया। ज़मीन के इलावा पहाड़ी के सब पेड़ों की डालों पर भी आदमी ही आदमी नज़र आने लगे। जो ज़ाइरीन मुराद माँगने आए थे वो पहाड़ी पर चढ़ कर मज़ार के अंदर पहुँचते और क़ब्र कर सिरहाने या पाँयती जहाँ भी जगह मिल जाती, बैठ कर ख़ुज़ूअ-ओ-ख़ुशूअ के साथ दुआ में मशग़ूल हो जाते। क़ब्र पर सब्ज़-रंग की नई रेशमी चादर डाल दी गई थी। ज़ाइरीन फूल और चढ़ावे उसी पर चढ़ाते थे।

    ज़ैलदारनी ने अपने क़ाफ़िले के साथ एक घने पेड़ के नीचे डेरा जमाया था। वो शाम के क़रीब फूलों की चादर, लड्डू और नज़्र की दूसरी चीज़ें लेकर मुराद माँगने गई। काकी और दो एक औरतें उसके हमराह थीं। क़ब्र के सिरहाने थोड़ी सी ख़ाली जगह देखकर उन्होंने जल्दी से उस पर क़ब्ज़ा जमा लिया और ठुँस ठुंसा कर वहीं बैठ गईं। फिर ज़ैलदारनी और दूसरी औरतों ने दुआ के लिए हाथ उठाए। काकी ने भी उनकी पैरवी की और मुँह ही मुँह में बड़बड़ाने लगी। आख़िर दुआ ख़त्म हुई और ये औरतें मज़ार से निकल कर फिर उसी पेड़ के नीचे अपने ठिकाने पर पहुँच गईं।

    अब शाम का अंधेरा फैलने लगा था। हर चंद गैसों का इंतेज़ाम किया गया था मगर उनकी तादाद दो-तीन से ज़्यादा थी। एक गैस मज़ार की कोठरी के बाहर सेहन में रखा गया था। एक पहाड़ी रास्ते के बीचों-बीच ताकि ज़ाइरीन को ठोकर लगे। और एक उस जगह जहाँ लंगर तक़सीम किया जाना था। बाक़ी तमाम जगहों पर तेल की कुप्पियाँ, चिराग़ या मशअलें जलाई गईं थीं। कुछ लोग घर से लालटेन ले आए थे, वो भी कहीं-कहीं रौशन थीं। मगर इन सबकी रौशनी इतनी मद्धम थी कि हर तरफ़ नीम तारीकी छाई हुई थी।

    रस्म के मुताबिक़ सब ज़ाइरीन को रात यहीं गुज़ारनी थी। देहात के लोग और ख़ास तौर पर औरतें रात को जल्द ही सो जाने की आदी होती हैं। उस पर मेला देखने और घूमने-फिरने से वो थक कर चूर हो गई थीं। बाज़ ने तो लंगर का भी इंतेज़ार किया और दरियों और चटाईयों पर जहाँ जगह मिली, पड़ कर सो गईं। रात को नौ बजे के क़रीब लंगर तक़सीम किया गया और मेले में एक मर्तबा फिर चहल-पहल पैदा हो गई। आख़िर दस बजते-बजते ये हंगामा भी ख़त्म हो गया और इसके साथ ही ज़ाइरीन की बेशतर तादाद को नींद ने बे-सुध कर दिया।

    काकी ज़ैलदारनी के पाँयती लेटी हुई थी। उर्स की रेल-पेल, हंगामे, खेल कूद, शोरग़ुल, भाँत-भाँत की सूरतों, औरतों का चन शाह वली के मज़ार पर जाना और औलाद की मुराद माँगना, दिन-भर ये सब तमाशे देख देखकर उसके कमज़ोर दिमाग़ में एक हैजान पैदा हो गया था, जिससे उसकी नींद उड़ गई थी। कुछ देर तो वो यूँ ही पड़ी रही। फिर उठकर बैठ गई। पहाड़ी पर अब भी कहीं-कहीं लोग हंस बोल रहे थे। एक तरफ़ ज़रा फ़ासले पर मलंगों की मंडली जमी हुई थी और कुछ लोग मटके ले के साथ गा रहे थे।

    “चल संताँ दे संग नी जे तूँ होना सन्त नी।”

    उस मंडली से बार-बार एक शोला अंधेरे में लपकता और लम्हे भर को बाज़ शक्लों को उजागर कर देता। काकी कुछ देर ये मंज़र देखती रही। फिर वो उठकर खड़ी हो गई। इस वक़्त ज़ैलदारनी और दूसरी औरतें नींद में मदहोश थीं। वो आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाती हुई इस मंडली की तरफ़ जाने लगी। जब ज़रा क़रीब पहुँची तो एक गिरे हुए दरख़्त का तना नज़र आया और वो उस पर बैठ गई। यहाँ से उसे वो शोला ज़्यादा रौशन और ऊपर उठता हुआ दिखाई देने लगा और वो पहले से भी ज़्यादा इन्हिमाक के साथ ये तमाशा देखने लगी।

    थोड़ी देर में उस मंडली में से एक आदमी उठा और ज़ोर-ज़ोर से खॉँसता हुआ उस तरफ़ आने लगा जिधर काकी दरख़्त के तने पर बैठी थी। काकी ने उसे झट पहचान लिया “चाचा मौला तू यहाँ क्या कर रहा है?”

    “तो कौन है?”

    “वाह मुझे नहीं पहचाना।”

    मौले ने अपनी वाहिद आँख को मला और बे-इख़्तियार बोल उठा “ओहो होहो। भई वाह ये तो अपनी काकी है।” उसने काकी को हमेशा बुरे हाल में देखा था। मगर अब उसका रंग-ढंग देखकर वो हक्का-बक्का रह गया।

    “भई रब की सों काकी, तू इन कपड़ों में बड़ी ख़ूबसूरत लग रही है।”

    “चाचा ये कपड़े ज़ैलदारनी ने सिलवाए हैं।”

    “अच्छा शाबाश है भई।”

    “चाचा तुझे एक बात बताऊँ।”

    “बता।”

    “जब ज़ैलदारनी ने लड़के की मुराद मांगी, तो मैंने भी लड़के की दुआ माँगी। आहा हाजी। चाचा ये बात ज़ैलदारनी को बताना।”

    मौले ने कुछ जवाब दिया। उसका दिमाग़ कुछ और ही सोच रहा था। ऐन उस वक़्त मंडली से फिर एक शोला लपका। काकी उसे देखते ही चिल्ला उठी।

    “चाचा। ये आग सी क्या निकलती है?”

    “कौन सी आग?”

    “वो देखो फिर निकली।”

    इस अस्ना में कई शोले पै-दर-पै लपके। मौले ने देखा तो मुस्कुराने लगा “इसको लाट कहते हैं पगली। तूने ये लाट पहले कभी नहीं देखी?”

    “कभी नहीं। चाचा चल मुझे दिखा।”

    मौला घबरा सा गया।

    “आज नहीं फिर कभी सही।”

    “नहीं। मैं आज ही देखूँगी।”

    “अच्छा ठहर!” उसके जिस्म में एक कपकपी सी दौड़ रही थी।

    “एक शर्त है।”

    “क्या?”

    “किसी को बताएगी तो नहीं।”

    “कभी नहीं।”

    “क़सम खा चन शाह वली की।”

    “चन शाह वली की सों किसी को नहीं बताऊंगी।”

    “याद रख तूने क़सम तोड़ दी, तो चन शाह वली तुझ पर ग़ुस्से होगा और तेरी मुराद कभी पूरी नहीं करेगा।

    “कह जो दिया चाचा नहीं बताऊंगी।”

    “अच्छा तो ठहर। मैं वो लाट यहाँ लाता हूँ...”

    अलस्सुबाह ज़ैलदारनी, काकी को, जो दरी से ज़रा हट कर ज़मीन पर बेहोश पड़ी थी, झिंझोड़-झिंझोड़ कर जगा रही थी। मगर उसकी आँख खुलने में आती थी। साथ-साथ वो कहती जाती, “ख़ंदी ने एक ही दिन में ज़मीन पर लोट-लोट कर कपड़ों का क्या नास कर दिया। अरी उठती है या दूँ एक लात।”

    “उठती हूँ चाची।” आख़िर बड़ी मुश्किल से काकी ने अपनी आँखें खोलीं, जो उस वक़्त बहुत सुर्ख़ हो रही थीं।

    “ओ ना-शुदनी उठ। मेला ख़त्म हो गया। सब लोग जा रहे हैं। जल्दी से बर्तन सँभाल। दरी लपेट। ज़ैलदार साहब इंतेज़ार कर रहे होंगे।

    काकी का सिर दर्द से फटा जाता था। प्यास से हल्क़ सूख रहा था। वो जैसे-तैसे उठी। मगर खड़ी हुई तो टांगें लड़खड़ाने लगीं। गिरती-पड़ती दरख़्त के तने के पास पहुँची। जहाँ पानी की मटकी रखी थी और लोटा भर कर पानी पिया। फिर मुँह पर छींटे दिए। रफ़्ता-रफ़्ता उसके हवास दरुस्त होने लगे।

    चन शाह वली के उर्स को अभी एक महीना ही गुज़रा था कि गाँव की औरतों ने काकी के मिज़ाज में एक तबदीली देखी। वो ये कि उसे खाने पीने की रग़बत रही। कहाँ तो ऐसी पेटू कि दिन में कई-कई मर्तबा खाना खाती और छाज के गड़वे के गड़वे पी डालती। या अब ये हाल कि खाना देखकर उसे मतली होने लगती। वैसे भी उसे दिन रात उबकाईयाँ आती रहतीं। ये कैफ़ियत चार पाँच हफ़्ते तक रही। उसके बाद मनाली की औरतें ये देखकर दम-ब-ख़ुद रह गईं कि काकी का पेट रोज़ ब-रोज़ फूलता जा रहा है।

    सबसे पहले ज़ैलदारनी पर इस हक़ीक़त का इन्किशाफ़ हुआ।

    “ओ काकी की बच्ची। तुझे तो हमल है कम्बख़्त।”

    ज़ैलदारनी की बात उसकी समझ में आई और वो हैवानों की तरह उसका मुँह तकने लगी।

    “काकी सच-सच बता, तू किस आदमी से मिली थी?”

    “किसी से भी नहीं चाची।”

    “तो फिर रंडी ये हराम का बच्चा तेरे पेट में कैसा है?”

    “मेरे पेट में बच्चा है चाची?” यक बारगी काकी की आँखें रौशन हो गईं। “तू सच कहती है चाची? आहा फिर तो चन शाह वली ने मेरी मुराद पूरी कर दी।”

    दो-चार दिन में ये ख़बर सारे गाँव में फैल गई। वो जिस तरफ़ भी जाती मर्द उसको घूरते, और औरतें उस पर सवालों की बौछार कर देतीं। मगर काकी को अब झिड़कियों का डर था मारपीट का ख़ौफ़ उस पर हर वक़्त अब एक जज़्ब की कैफ़ियत तारी रहने लगी। वो अक्सर अपने आपसे बातें करती रहती।

    कभी इस तरह ख़िताब करने लगती जैसे कोई उसके सामने खड़ा है। जिसको वो तो देख रही है मगर कोई और देख पाता। कभी हँसने लगती तो हंसते ही चली जाती। और रोने लगती तो घंटों रोती ही रहती। गाँव के अक्सर घरों में अब भी उसका फेरा रहता। मगर कहीं चंद मिनट से ज़्यादा टिकती। कभी आप ही आप कह उठती।

    “हाँ चाची, मेरे पेट में बच्चा है। मुझे चन शाह वली ने दिया है। वो उस रात मेरे पास आया था। उसने दाँतों में सुर्ख़ गुलाब का फूल दाब रखा था। मुझे देखा तो मुस्कुराने लगा। फिर उसने वो फूल मेरी झोली में फेंक दिया...”

    और शम्मे गूजर की बीवी से, जो हमेशा उससे शफ़क़त से पेश आती थी उसने कहा “चन शाह वली हर रात मेरे पास आता है। एक दफ़ा वो अपने सफ़ेद घोड़े पर सवार था। मैंने कहा चन शाह वली मुझे सैर करा। उसने कहा अच्छा। फिर उसने मुझे अपने पीछे बिठा लिया। और दूर-दूर की सैर कराई। उसका घोड़ा दरियाओं के ऊपर चलता था। पहाड़ों पर चढ़ता था। आसमान पर उड़ता था। मैंने चन शाह वली की कमर को दोनों हाथों से पकड़ रखा था। चन शाह ने कहा, काकी डर नहीं। तू गिरेगी नहीं।”

    और पटवारी की नई बीवी से जो उम्र में काकी से तीन चार साल ही बड़ी थी उसने कहा “तुझे पता नहीं है चाची चन शाह वली बुड्ढा नहीं। उसके डाढ़ी है। वो बड़ा गबरू जवान है। उसके लंबे-लंबे घुंगराले बाल हैं। जो उसके शानों पर लटकते हैं। एक दिन मुझसे कहने लगा, काकी तेरे बाल बड़े उलझे हुए हैं। ला मैं इन्हें सुलझा दूँ। और वो अपनी उंगलियों से मेरे बालों में कंघी करने लगा...”

    कभी-कभी वो मौले गँडेरी वाले की दुकान पर भी जाती।

    “चाचा मौला देखा चन शाह वली ने मेरी मुराद पूरी कर दी। ला थोड़ी सी गाँठें तो दे।” मौले के चेहरे का रंग यक-बारगी ज़र्द पड़ जाता। और वो घबराहट में बहुत सी गंडेरियाँ उसकी झोली में डाल देता।

    एक दिन वो ज़ैलदारनी के घर पहुँची तो ख़ैर-उन-निसा ने पहले तो उसे सैंकड़ों गालियाँ दीं। फिर चुटिया पकड़ कर ख़ूब घसीटा, और बहुत सी लातें और थप्पड़ भी रसीद किए।

    “ख़बरदार रंडी अगर फिर कभी मेरे घर में क़दम रखा।”

    “चाची” काकी ने बिलक-बिलक कर रोते हुए कहा, “तूने मुझे मारा है। रात चन शाह आएगा। तो मैं उससे कहूँगी। ज़ैलदारनी बहुत बुरी है उसकी मुराद कभी पूरी करना।”

    और फिर गाँव वालों ने पंचायत की। जिसमें गाँव के सब छोटे-बड़े शामिल हुए। और फ़ैसला किया गया कि चूँकि काकी की वजह से गाँव की सख़्त बदनामी हो रही है। इसलिए उसे गाँव से निकाल दिया जाये। इस फ़ैसले को अमल में लाने के लिये अलस्सबाह एक बैलगाड़ी का इंतेज़ाम किया गया। और उसमें काकी के हाथ-पाँव बाँध कर उसे सवार कर दिया गया। ये बैलगाड़ी दिन-भर ना-मालूम राहों से गुज़रती रही और शाम को एक उजाड़ मुक़ाम पर पहुँच कर रुक गई। वहाँ काकी के हाथ पाँव खोल दिए गए और उसे ज़बरदस्ती बैलगाड़ी से उतार दिया गया।

    मनाली में कुछ दिनों इस वाक़िए का चर्चा रहा। मगर जब दो तीन महीने गुज़र गए और काकी को तो किसी ने देखा और उसकी कोई ख़बर ही आई तो ये बात आप से आप गाँव वालों के ज़हन से उतर गई।

    दिन पर दिन गुज़रते गए। यहाँ तक कि फिर चैत का महीना गया। ज़मीन से हर तरफ़ फिर बिहार की महक उठने लगी। किसान फसलों की कटाई से फ़ारिग़ हुए और एक-बार फिर चन शाह वली के उर्स की तैयारियाँ होने लगीं।

    पिछले बरस ख़ैर-उन-निसा की मुराद तो पूरी नहीं हुई थी मगर उसी गाँव की दो औरतों पर चन शाह की नज़र करम हो गई थी। ज़ैलदारनी को अपनी महरूमी का रंज तो बहुत था, मगर वो मायूस नहीं हुई थी। उसे यक़ीन था कि अब के चन शाह वली ज़रूर ख़्वाब में अपना दीदार कराएँगे।

    आख़िर उर्स का दिन पहुँचा। इस दफ़ा पिछले साल से भी ज़्यादा ज़ोर शोर से मेला भरा। शाम को चन शाह वली की क़ब्र पर मुराद माँगने वाली औरतों का इस क़दर जमघट हो गया कि साँस लेना मुश्किल था मगर ये फ़र्त-ए-अक़ीदत से और भी क़ब्र पर पिली पड़ती थीं। इनका ख़्याल था कि हम जिस क़दर ज़्यादा तकलीफ़ उठाएँगी उसी क़दर जल्द हमारी मुराद पूरी होगी।

    उस हुजूम में ख़ैर-उन-निसा भी वली की क़ब्र के सिरहाने बैठी थी। वो चढ़ावा चढ़ा चुकी थी और बहुत मिन्नत-ओ-ज़ारी से बेटे के लिए दुआ भी माँग चुकी थी। वो दरगाह से उठने ही को थी कि एक औरत जिसकी वज़ा फ़क़ीरनियों की सी थी, हुजूम को चीरती हुई क़ब्र के क़रीब पहुँचने की कोशिश करने लगी। उसकी गोद में तीन चार महीने का बच्चा था। दुबला-पतला हड्डियों का माला। वो या तो सो रहा था या उसमें इतनी सकत ही थी कि आँख खोले।

    उस औरत की नज़र जैसे ही ख़ैर-उन-निसा पर पड़ी। उसकी आँखें एक दम चमक उठीं।

    “देख ज़ैलदारनी मेरा बेटा देख। ये मुझे चन शाह ने दिया है।”

    ये कह कर उसने अपना बच्चा बड़े फ़ख़्र से ख़ैर-उन-निसा को दिखाया। ज़ैलदारनी ने काकी को फ़ौरन पहचान लिया।

    “ओ बे-हया, बे-शरम ये तू है? दूर हो यहाँ से हराम का पिल्ला लेकर।”

    “आ हाहाहा। तू मुझसे जलती है ज़ैलदारनी। क्योंकि चन शाह ने तुझे बेटा नहीं दिया। उसने मुझे बेटा दया। हाहाहा।”

    काकी के चेहरे से वहशियाना ख़ुशी ज़ाहिर हो रही थी। ज़ैलदारनी ग़ुस्से से काँपने लगी। उसने चाहा कि आगे बढ़ कर काकी का मुँह नोच ले मगर दरमयान में कई औरतें हाइल थीं जो हैरत से कभी ज़ैलदारनी का मुँह तकती थीं कभी काकी का।

    “ठहर तो जा रंडी। अभी तुझे इस गाँव से फिर निकलवाती हूँ। अब के तेरा सर मूँढा जाएगा। और तेरा मुँह काला करके तुझे गधे पर सवार किया जाएगा।

    मगर काकी पर ज़ैलदारनी की इन धमकियों का कुछ असर हुआ। वो ख़ैर-उन-निसा को चिढ़ाने के लिए बराबर कहे जा रही थी “तू मुझसे जलती है ज़ैलदारनी। क्योंकि चन शाह वली तेरे पास रातों को नहीं आता। वो तेरे बालों में अपनी उंगलियों से कंघी नहीं करता। वो तुझे अपने सफ़ेद घोड़े पर बिठाकर आसमान की सैर नहीं कराता। तू हमेशा जलती भुनती रहेगी ज़ैलदारनी। चन शाह तुझे कभी बेटा नहीं देगा।”

    वो औरतें जो पहले ताज्जुब से काकी को देख रहीं थीं, और जिनमें से बाज़ को शायद उससे कुछ-कुछ हमदर्दी भी पैदा हो गई थी। उसकी ज़बान से अब चन शाह वली की शान में गुस्ताख़ाना बातें सुनकर दाँतों से अपनी उंगलियाँ काटने लगीं।

    इतने में दरगाह का मुतवल्ली जीवन साईं जो बाहर दालान में चटाई पर बैठा था, शोर सुनकर अन्दर गया। ज़ैलदारनी ने उसे देखते ही चिल्लाना शुरू किया “देख साईं बाबा। ये काकी बे-हया जाने कहाँ से हराम का पिल्ला ले आई है। और दरगाह की बे-अदबी कर रही है। उसे चुटिया से पकड़ कर निकाल दे।”

    जीवन साईं था तो अधेड़ उम्र मगर था ख़ूब हट्टा-कट्टा। वो आगे बढ़ा ही था कि काकी ने सहम कर चीख़ मारी “चन शाह। ये लोग मुझे मार रहे हैं। मुझे बचा मुझे बचा।”

    मगर कोई उसकी मदद को पहुँचा। उधर जीवन साईं औरतों को आगे से हटाता हुआ क़रीब आता जा रहा था। अचानक काकी ने गोद के बच्चे को जो अभी तक सोया हुआ था, चन शाह वली की क़ब्र के नरम नरम फूलों पर लिटा दिया। और ख़ुद एक हिरनी की तरह तरारा भर दरगाह से निकल भागी।

    उसकी ये हरकत ऐसी ग़ैर मुतवक़्क़े थी कि सब लोग देखते के देखते रह गए। आख़िर ज़ैलदारनी और दो-तीन औरतों ने “पकड़ लो पकड़ लो” का शोर मचाया। इस पर कुछ देहाती काकी के पीछे भागे। मगर वो कूदती फाँदती पहाड़ी के एक ऐसे टीले पर चढ़ गई जो बिल्कुल स्पाट था और जिस पर चढ़ना सख़्त ख़तरनाक समझा जाता था। लोग कुछ देर नीचे खड़े उसे देखते रहे। मगर किसी को उसके पीछे जाने की जुर्रत हुई। आख़िर दो एक मनचले नौजवानों ने हिम्मत की। मगर अभी उन्होंने आधा फ़ासला ही तय किया था कि काकी ने टीले के दूसरी तरफ़ पहुँच कर, जिस के नीचे एक खाई थी, बे-झिझक छलाँग लगा दी। शायद उसे कुछ चोट गई थी। क्योंकि वो कुछ देर ज़मीन पर बैठी रही। आख़िर वहाँ से उठी और उस तरफ़ का रुख किया जहाँ से खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता था। फ़स्ल की कटाई के बाद ये जगह अब एक खुला मैदान बन गई थी।

    अब गाँव से कई आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़ पड़े थे। मगर वो उनके आगे-आगे ही रही। हाँ एक दफ़ा दो आदमीयों ने उसे पकड़ ही लिया होता मगर उसमें जाने कहाँ से एक मुँह-ज़ोर घोड़ी की सी ताक़त गई थी। कि उसने झटक कर अपने हाथ छुड़ा लिए। और फिर तेज़ी से भागना शुरू कर दिया। सारी रात उसका तआक़ुब जारी रहा। सुबह को जब सूरज निकल रहा था तो वो एक मैदान में अपना पीछा करने वालों में ऐसी घिर गई कि फ़रार की कोई सूरत रही। जब उसे पकड़ा गया तो वो एक दरिंदे की तरह हाँप रही थी। ख़ारदार झाड़ियों में उलझ-उलझ कर उसके कपड़ों की धज्जियाँ उड़ गई थीं। और अब उसके जिस्म पर एक तार भी रहा था।

    उसे कई आदमीयों ने दबोच रखा था। एक आदमी अपने सर से पगड़ी उतार कर उसके हाथ बाँधने लगा। वो पहले तो चुप-चाप अपने हाथ बंधते देखती रही फिर यक-बारगी जोश आया और उसने वहशियाना जद्द-ओ-जहद से अपने हाथ छुड़ाने की कोशिश की मगर कामयाबी हुई। इस पर उसने उस शख़्स की तरफ़ जिसने उसके हाथ बाँधे थे, ग़ज़ब नाक नज़रों से देखा, और फिर पेशतर इसके कि वो कुछ मुदाफ़अत कर सके, उचक कर उसका कान अपने दाँतों में ले लिया और चबा डाला।

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 412)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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