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तीन पैसे की छोकरी

क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार

तीन पैसे की छोकरी

क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार

MORE BYक़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसी लड़की की दास्तान है, जो मछुवारों के साथ महज़ तीन पैसे में सो जाती है। वह इतनी हसीन है कि उसके हुस्न का चर्चा हर तरफ होने लगता है। यहाँ तक कि बादशाह भी उसका आशिक़ हो जाता है। बादशाह के साथ जाने के बदले में वह उससे सब कुछ ले लेती है। बादशाह की मौत के बाद वह हर रात अपने पसंद के मर्द के साथ बीताती है और फिर उसे क़त्ल करवा देती है।

     

    (अलिफ़)
    आज से पंद्रह सौ बरस पहले!

    बाई ज़िंता के शाही सरकस में, बादशाह के वहशी जानवरों का दारोग़ा एक बूढ़ा शख़्स था। बहुत बूढ़ा मगर अपने काम में बहुत होशियार। उसने अपने बुढ़ापे का सहारा एक बारह-साला छोकरी को बना लिया था। जिसको न मा'लूम वो कहाँ से लाया था। वो न उसकी बेटी थी न पोती, न रिश्तेदार न उसकी हम वतन। लेकिन उसने उसको मुँह बोली बेटी बना लिया था और बेटी ही की तरह चाहता था। किसी को मा'लूम न था कि उस छोकरी की क़ौम क्या है। उसका मज़हब क्या है और वो किस तरह बूढ़े के पास पहुँची।

    बाई ज़िंता के अज़ीमुश्शान दारुस्सल्तनत में शहंशाह जुस्टिनिन का परचम-ए-इक़बाल बुलंद था। उस ज़माने की तहज़ीब और बाई ज़िंती मख़लूक़ का तमद्दुन, ख़ुसूसन उमरा और अमाइदीन की मुआशरत, यूनान-ओ-रोमा, की क़दीम तहज़ीब से भी दस-पाँच क़दम आगे थी।

    शहंशाह और उसके उमरा-ओ-अराकीन-ए-सल्तनत के असबाब-ए-तफ़रीह-ओ-त'अय्युश में से एक ये सरकस भी था जिसमें हज़ारों क़िस्म के वहशी और जंगली जानवर पाले जाते थे। 12 बरस की छोकरी को दुनिया में कोई काम न था। सिवाय इसके कि सरकस के दरिंदों में सुबह से शाम तक खेलती रहती। वो हसीन भी थी और शोख़ भी और दिल उसका ऐसा ही बे-ख़ौफ़ था जैसा कि वहशी दरिंदों का। उसे मा'लूम ही न था कि ख़ौफ़ किस चीज़ का नाम है। वो शेरों के बाल पकड़ कर लटक जाती थी और दोपहर को खेलते-खेलते अक्सर हाथी के पेट के नीचे लेट कर सो जाती थी। उसकी दुनिया में उसके रफ़ीक़ और यार, शेर और हाथी और रीछ ही थे।

    दिन-भर बूढ़ा सर्कस के जानवरों की ख़िदमत में मसरूफ़ रहता और छोकरी अपने खेल में। शाम को वो दोनों घर चले जाते। मगर एक दिन शाम को छोकरी सर्कस से तो चली गई। लेकिन घर न पहुँची। रात भर बूढ़ा उसका इंतज़ार करता रहा, रात भर वो ग़ायब रही। सुबह को वो हँसती हुई घर आई और बूढ़े के हाथ पर तीन चमकती हुई अशर्फ़ियाँ रख दीं। ये उसके हुस्न का पहला सौदा था। ये उसकी जवानी का पहला मुनाफ़ा था। गुज़री हुई शाम और मौजूदा सुबह के दर्मियान, गुज़िश्ता शब की तारीकी में, बूढ़े की छोकरी औरत बन गई।

    रातों को ग़ायब रहने का सिलसिला जारी रहा और सर्कस के दरिंदों के साथ जो खेल-कूद हुआ करता था। वो अब दूसरी क़िस्म के हैवानों के साथ खेला जाने लगा! ये आग़ाज़ था, मल्लिका बाई ज़िंता की हुकूमत का!

    थोडोरा की जवानी अब हर तरफ़ से आँखों, नज़रों और दिलों को खींच रही थी। वो शाही सर्कस में नाचा करती थी और बाई ज़िंता के हज़ार-हा नज़र-बाज़ हर शाम को उसके हुस्न की ख़ातिर सर्कस में जमा हुआ करते थे। शाही दरबार के रुकन-ए-रुकीन, बिशब-ओ-जलीस ने तो एक दिन थोडोरा को नाचते हुए देख कर बे-इख़्तियार कह दिया,

    घास का ये फुदकता हुआ कीड़ा किसी दिन सारे बाई ज़िंता में उछलेगा... देखना!

    लेकिन उस वक़्त बिशब को भी ख़बर न थी कि वो क्या कह रहा है। सितम-ज़रीफ़ क़ुदरत इस नाचने वाली को न मालूम कहाँ से कहाँ तक उछालने वाली थी।

    थोडोरा सर्कस के नज़र-बाज़ों से थक गई। एक ही खेल का बार-बार खेलना उसको कभी भाता न था। अब वो मंज़र-ए-आम पर थिरकने की बजाय मख़सूस ख़लवतों में एक बुलंद-नशीन हुस्न फ़रोश बन बैठी। हुस्न-फ़रोशी उस अह्द की तहज़ीब में कोई ऐसी मा'यूब बात न थी बल्कि हुस्न-ओ-हवस के ये खेल-तमाशे तो बाई ज़िंती तहज़ीब के जुज़्व-ए-लाज़मी थे। उमरा तवाइफ़ों की निगह-ए-इल्तिफ़ात को सरमाया-ए-इफ़्तिख़ार समझते थे और अवाम की ज़िंदगी इन रंगीन तितलियों के बग़ैर बे-रंग हो जाती थी। हसीन थोडोरा अपनी दुकान-ए-हुस्न खोलते ही दिलों की मालिक, आँखों का तारा कलेजों की ठंडक और घरों का चिराग़ बन गई। उमरा उसके संग-ए-आस्ताना पर जबीन-ए-नियाज़ रखते। दिल-जले सिपाही ओर मैदान-ए-जंग के सूरमा उसके इशारा-ए-अब्रू का इंतज़ार करते। उनकी ख़ून-आशाम तलवारें, उसके क़दमों में पड़ी ठोकरें खाया करतीं! अह्ल-ए-इल्म और अह्ल-ए-मज़हब भी उस देवी के स्थान पर सर झुकाते थे और सर्कस की नाचने वाली छोकरी बाई ज़िंता की हुस्न परस्त दुनिया में एक मलिका-ए-आलम थी। कि उसका सिक्का हर तरफ़ जारी था।

    नौजवान शहंशाह जुस्टीनिन बारहा उसको थियेटर में नाचते, बाग़ों में अठखेलियाँ करते और बास्फ़ोर्स के साहिल पर एक हुजूम-ए-आशिक़ाँ के साथ चहल-पहल करते देख चुका था। उस के दिल में ख़लिश थी। तीर अपने निशाने पर बैठ चुका था।

    एक शब शहंशाह ने अपने मुहाफ़िज़ दस्ते के कप्तान को मोतियों का एक बेश-क़ीमत हार दे कर थोडोरा के घर भेजा और पयाम दिया कि वो शाही ख़लवत में आए। आधी रात के क़रीब शाही कप्तान थोडोरा के दरवाज़े पर आया। उस वक़्त थोडोरा की ख़लवत में उसका कोई चाहने वाला मौजूद था। उसने कप्तान को घर के अंदर न बुलाया बल्कि ख़ुद दरवाज़े पर आ गई। शहंशाह का पयाम सुन कर उसने कहा,

    शहंशाह की याद-फ़रमाई का बहुत-बहुत शुक्रिया, मगर ये हार वापस ले जाइए। मैं बिकाऊ नहीं हूँ, शहंशाह से कह दीजिये कि इस हार से किसी दूसरी हसीन छोकरी का हुस्न ख़रीद लें... मेरी क़ीमत इस हार से बहुत ज़ियादा है।

    अब वो सर्कस की बजाय एक अज़ीमुश्शान सल्तनत के शेर और हाथी से बे-ख़ौफ़ हो कर खेल रही थी!

    उसी शब फिर एक शाही मुसाहिब, शहंशाह का पयाम, बहुत से तहाइफ़ और इकराम-ओ-अल्ताफ़ के बहुत से वा'दे ले कर आया। थोडोरा ने दूसरा पाँसा फेंका,

    शहंशाह से कह दीजिये कि वो इस कनीज़ के तालिब हैं तो इसके सियाह-ख़ाना पर तकलीफ़ फ़रमाएँ।

    बाई ज़िंता के शहंशाह से, जिसकी ख़ाक-ए-पा बादशाहों और गर्दन-कशों की सजदा-गाह थी, ये गुस्ताख़ाना सवाल-ओ-जवाब, मौत से खेलना था। मगर थोडोरा ने बहुत बड़ी बाज़ी लगाई थी...

    शब की आख़िरी साअतों में बिल-आख़िर शहंशाह ख़ुद उसके दरवाज़े पर आया। जिस वक़्त वो अंदर दाख़िल हुआ तो उसने देखा कि थोडोरा एक सलीब के सामने झुकी हुई इबादत में मशग़ूल है। बहुत देर बाद उसने इस तरह कि वो गोया किसी दूसरे आलम में है, नज़र उठा कर शहंशाह की तरफ़ देखा।

    तुम ही थोडोरा हो? शहंशाह ने सवाल किया।

    हाँ हुज़ूर! मेरा नाम थोडोरा है। मैं शहंशाह के सर्कस में नाचा करती थी।

    तुम वही हो जिस को हर मल्लाह तीन पैसे में ख़रीद लिया करता है? शहंशाह के तेवर बिगड़े हुए थे।

    थोडोरा ने कहा,

    जी हाँ! मैं वही हूँ!

    फिर तुम शहंशाह की ख़लवत में आने से क्यों इन्कार करती हो? अब जुस्टिनिन का ग़ुस्सा तेज़ होता जाता था।

    हुज़ूर! थोडोरा ने दस्त-बस्ता अर्ज़ क्या। मल्लाह के पास में इस लिए जाती हूँ कि उसकी जेब में तीन ही पैसे होते हैं और वो सब मैं ले लेती हूँ। वो तीन पैसा दे कर अपना सारा सरमाया मुझे दे डालता है।

    तो क्या तुम अपने चाहने वालों से जो कुछ उनके पास हो सब ही ले लेती हो?

    हाँ हुज़ूर! मैं यही करती हूँ और यही मेरी क़ीमत है!

    तो फिर मुझसे तुम क्या माँगती हो?

    आपका ताज-ओ-तख़्त! ऐ बाई ज़िंता के शहंशाह!

    इस तरह चंद रोज़ बाद ये तीन पैसे की छोकरी शहंशाह-ए-बाई ज़िंता की मशहूर-ए-आलम मल्लिका थोडोरा बन कर इस ज़माने की सबसे बड़ी और अज़ीमुश्शान सल्तनत के सियाह-ओ-सफ़ेद की मालिक बनी।

    वो अपना हुस्न बेचते-बेचते ममलिकाका-ए-आलम बनी और मलिका-ए-आलम बन कर, जब उसको हुस्न-फ़रोशी की ज़रूरत न रही। तो उसने बाई ज़िंता के ख़ूब-रू नौजवानों की जवानी ख़रीदना शुरू कर दी! उसकी हवस-परस्ती की दास्तानें उसी क़दर मशहूर हैं जिस क़दर उसका हुस्न।

    (ब)
    मसीह की पैदाइश के पाँच सौ बरस बाद

    बाई ज़िंता के दारुस्सल्तनत में

    शहंशाह जुस्टिनिन और उसकी ऐश-परस्त मल्लिका थोडोरा का ज़माना

    बाई ज़िंता की शाहराह पर तमाशाइयों का हुजूम है। शंहशाह और मलिका-ए-आलम की रियाया सड़क के दोनों तरफ़ हज़ारों की तादाद में जमा है। ये वो सड़क है जो शाही महल अया-सूफ़िया को जाती है। दोरूया सिपाही खड़े हैं। सिपाहियों के अक़ब में अह्ल-ए-शहर, उमरा और रउसा सब-सब मल्लिका आलम की सवारी के मुंतज़िर हैं।

    हफ़्ते में एक दफ़ा मल्लिका थोडोरा, अयासोफ़िया में इबादत करने जाया करती हैं। ये जुलूस क़ाबिल-ए-दीद होता है। मलिका-ए-आलम के शानदार जुलूस को देखने वाले घंटों पहले से सड़कों पर जमा होते हैं और दारुस्सल्तनत में हफ़्ते का ये एक दिन गोया एक आम यौम-ए-ता'तील होता है... वो मल्लिका आलम की इबादत का दिन है!

    दिगर या के मुहाफ़िज़ दस्ते का हिरावल, सुर्ख़ वर्दियाँ पहने, शानदार घोड़ों पर सवार, आहिस्ता-आहिस्ता चला आता है। सवारों की वर्दियाँ और उनके चमकते हुए असलहे धूप में इस क़दर चमक रहे हैं कि देखने वालों की आँखें बंद हो जाती हैं। उस दस्ते के पीछे एक मुरस्सा तख़्त रवाँ है और उस तख़्त-ए-रवाँ पर एक मुत्तला शामियाने के नीचे मलिका-ए-आलम तशरीफ़ रखती हैं। तख़्त-ए-रवाँ के सामने उमरा और अराकीन-ए-सल्तनत की नौजवान और हसीन लड़कियाँ हाथों में फूलों के गजरे लीए और आठ छोकरियाँ हाथों में चाँदी की घंटियाँ लिए हुए चल रही हैं। चाँदी की घंटियाँ थोड़े-थोड़े वक़्फ़े के बाद बजाई जाती हैं। तख़्त-ए-रवाँ के सामने शाही मन्सब-दार क़िर्मिज़ी रंग का लंबा कपड़ा बिछाते हुए आते हैं और मल्लिका की सवारी जब उस कपड़े पर गुज़र जती है तो उसको लपेट लेते हैं। मन्सब-दारों की जमातें ये ख़िदमत अंजाम देती आती हैं ताकि मलिका-ए-आलम के तख़्त-ए-रवाँ का साया नापाक ज़मीन पर न पड़ने पाए।

    तख़्त-ए-रवाँ, जवाहर और सोने-चाँदी की ज़ियाकारी का एक अजीब-ओ-ग़रीब नमूना है। उसकी चमक में सूरज की शुआओं ने गोया आग लगा दी है। इस तरह बाई ज़िंता की मल्लिका, दो-रूया ख़लाइक़ के सलामों का जवाब सर के इशारे से देती हुई मसीह की दरगाह में जा रही है।

    सल्तनत के देहाती इलाक़े का रहने वाला एक ख़ूबसूरत नौजवान इस्तीफ़ जो चंद रोज़ हुए दारउस्सल्तनत की सैर करने आया था। उस वक़्त एक कुंएँ की दीवार पर खड़ा हुआ शाही जुलूस का तमाशा देख रहा है। उसके क़रीब उसका एक शहरी दोस्त खड़ा है। सवारी क़रीब आ गई। दफ़अ'तन मलिका-ए-आलम की नज़र उस देहाती नौजवान पर पड़ी, मगर वो न समझा, वो समझा कि ये ग़लत-अंदाज़-नज़र बर-सर-ए-राह थी। मगर वो ख़ुश था कि आज उसने मलिका-ए-आलम को अच्छी तरह देख लिया। बादशाहों का दीदार अक़ीदत-मंद रियाया के दिलों को फूल की तरह खिला देता है।

    इस्तीफ़ बेचारे ने अपनी उम्र में पहले कभी शाहाना तनतना का ये मुज़ाहिरा कब देखा था। वो इस नज़ारे में मह्व था कि मल्लिका की सवारी बिल्कुल उसके सामने आ गई। एक लम्हे के हज़ारवें हिस्से में उसने ये महसूस क्या कि गोया उसकी नज़र मलिका-ए-आलम की नज़र से मिली है। घबरा कर उसने नज़रें नीची कर लीं। उतनी ही देर में सवारी आगे निकल गई। इस्तीफ़ का दिल धड़क रहा था, उसको पसीना आ गया था।

    शाही सवारी के पीछे-पीछे एक मन्सब-दार चाँदी के फूल लुटाता हुआ जा रहा था। ग़रीब और अमीर बढ़-बढ़ कर उन फूलों को लूट रहे थे। जिसके हाथ एक फूल आ गया उसको गोया बड़ी सआदत नसीब हुई। मन्सब-दार जब बढ़ते-बढ़ते इस्तीफ़ के क़रीब पहुँचा तो उसने अपना हाथ लोगों के ऊपर से इस्तीफ़ की तरफ़ बढ़ाया। उसके हाथ में चाँदी के फूल और एक ताज़ा गुलाब था। इस्तीफ़ ने... जैसे कोई मख़मूर हो या आलम-ए-ख़्वाब में... हाथ बढ़ा कर गुलाब ले लिया, वो चाहता था कि कुछ कहे, शुक्रिया अदा करे लेकिन उतनी ही देर में मन्सब-दार बहुत आगे निकल चुका था।

    सवारी-ए-बाद-ए-बहारी गुज़र गई, मजमा मुंतशिर हो रहा है, इस्तीफ़ गुलाब का सुर्ख़ फूल हाथ में लिए जा रहा है। उसकी समझ में नहीं आता कि आख़िर शाही मन्सब दार ख़ास तौर पर उसकी तरफ़ क्यों माइल हुआ। हज़ार-हा आदमियों के मजमे में गुलाब का फूल तन्हा उसी को क्यों दिया गया?

    गुलाब बहुत बड़ा और बहुत ख़ूबसूरत था। वो इस क़िस्म का फूल था जिसके चंद ही दरख़्त शाही बग़ीचे में थे और शाही बग़ीचे के अलावा कहीं न थे। ये गुलाब बाई ज़िंता में शाही महल के इलावा कहीं मुयस्सर न आ सकता था।

    मजमे से बाहर निकल कर इस्तीफ़ ने ब-ग़ौर उस फूल को देखा। उसकी पत्तियों के नीचे एक पुर्ज़ा बँधा हुआ था। उस पुर्ज़े पर सुर्ख़ रंग से ये अलफ़ाज़ लिखे हुए थे,

    शाही महल के जुनूबी दरवाज़े पर... आज दस बजे... ये फूल ले कर आओ... इस फूल से तुम्हारी क़िस्मत का दरवाज़ा खुलेगा।

    इस्तीफ़ शश्दर था, वो कुछ भी न जानता था, कुछ न समझ सकता था कि इस वाक़िए के मानी क्या हैं। वो क्यों महल के दरवाज़े पर जाए। उसकी क़िस्मत का दरवाज़ा क्यों कर खुल सकेगा। उसका दिल कहता था,

    जाना चाहिये। अगर ये शाही इकराम-ओ-अल्ताफ़ का इशारा है तो तेरी क़िस्मत जाग जाएगी। क्या मा'लूम तू शाही दरबार में मन्सब-दार बना दिया जाए। क्या मा'लूम तू क्या हो जाए... जाना चाहिये।

    अक़्ल कहती थी,

    कोई धोका, कोई फ़रेब तो नहीं। भला कहाँ मलिका-ए-आलम, कहाँ तू ग़रीब दहक़ानी, मन्सब-दार ने तेरे गंवार-पन का मज़ाक़ न उड़ाया हो। या किसी दुश्मन ने तुझे धोका दे कर न बुलाया हो...

    अक़्ल और दिल का झगड़ा ख़त्म न होता था। लेकिन क़दम दिल के फ़रमाँ-बरदार थे, अक़्ल का ज़ोर उन पर न चल सका। वक़्त-ए-मुक़र्ररा से कुछ पहले इस्तीफ़ के क़दम बिला-इरादा शाही महल की तरफ़ बढ़ने लगे। कभी अपने दिल की, कभी अपनी अक़्ल से उलझता हुआ वो चला जा रहा था... दिल कहता,

    तेरा इंतज़ार किया जा रहा है। क़दम बढ़ा।

    अक़्ल कहती,

    तू बेवुक़ूफ़ है, तेरा और इंतिज़ार! दीवाने! सिपाहियों और दरबानों की ठोकरें खाएगा!

    जवानी का ख़ून गर्म था। दिल की हरकत तेज़ थी, चेहरे पर सुर्ख़ी झलक रही थी। पेशानी पर पसीने के क़तरात थे। इस तरह इस्तीफ़ शाही महल के दरवाज़े पर पहुँचा। उसको ये ख़बर न थी कि दरवाज़ा मग़रिबी है या मशरिक़ी! वो बढ़ा चला गया!

    शाही मुहाफ़िज़ का एक दस्ता बड़े दरवाज़े में दाख़िल हो रहा था। उसके क़दमों की आवाज़ और तलवारों की चमक इस्तीफ़ को अपने साथ खींचे हुए अंदर ले गई। वो महल के पहले बरामदे में दाख़िल हुआ। जहाँ शाही दरबान मुसल्लह खड़े थे। एक क़वी-उल-जस्सा हब्शी बारगाह के सरा पर्दे के पास एक बरहना तेग़ हाथ में लिए खड़ा हुआ था। इस्तीफ़ ने आगे बढ़ कर सुर्ख़ गुलाब उसके सामने पेश किया... उसकी समझ में न आता था कि कहे क्या?

    दरबान मुस्कुराया, बेवक़ूफ़ आदमी! मुझे कोई हसीन छोकरी समझा है तूने? गधा!

    इस्तीफ़ के बदन में इन तहक़ीर-आमेज़ अल्फ़ाज़ ने आग लगा दी। वो बे-इख़्तियार हो गया। उसे ख़बर नहीं थी कि किस तरह उसने दरबान के सियाह-ताब गाल पर एक चाँटा मारा! ... सारे बरामदे में शोर मच गया। मुहाफ़िज़ दस्ते के सिपाहियों ने अपनी तलवारों के क़ब्ज़ों से मार-मार कर इस्तीफ़ को फ़र्श पर गिरा दिया। चंद मिंट में उसका ख़ातमा हो जाता मगर हंगामे की आवाज़ सुन कर दरबानों का दारोग़ा कमरे से निकल आया। उसको देख कर सिपाहियों ने हाथ रोका।

    अरे तू कोन है, दहक़ानी? दारोग़ा ने कहा।

    इस्तीफ़ झुँझलाया हुआ उठा। उसका गुलाब ज़मीन पर गिर गया था। उसकी चंद पत्तियाँ मुंतशिर हो चुकी थीं। झुक कर उसने गुलाब को ज़मीन से उठा लिया और उठा कर दारोग़ा के सामने पेश कर दिया।

    हाँ! सुर्ख़ गुलाब को देख कर दारोग़ा मुस्कुराया। बेवुक़ूफ़ आदमी! इस फूल को ले कर यहाँ क्यों आए?

    फिर उसने मजमे की तरफ़ देख कर सिपाहियों को झिड़का,

    जाओ अपना काम करो, क्या कुछ तमाशा बनाया है? जब सिपाही हट गए तो उसने इस्तीफ़ के कँधे पर हाथ रख कर दबी ज़बान से कहा,

    ये हिमाक़त की तुम ने, इस फूल को ले कर यहाँ घुस पड़े। तुम्हें जहाँ ये फूल ले कर जाना चाहिये ये वो जगह नहीं।

    ये कह कर वो इस्तीफ़ को अपने साथ एक दूसरे दरवाज़े पर ले गया और वहाँ के चोब-दार को आवाज़ दे कर कहा,

    लो ये एक बे-वुक़ूफ़ फूल वाला आया है। इसको अंदर पहुँचाओ। ये आदमी हमारी तरफ़ का नहीं है। तुम्हारी तरफ़ का है!

    मल्लिका के चोब-दार ने फूल पर नज़र की और इस्तीफ़ को पीछे आने का इशारा करके मल्लिका के महल के दरवाज़े में दाख़िल हो गया।

    आरास्ता और ख़ूबसूरत बरामदों से गुज़र कर... आगे-आगे चोब-दार और उसके पीछे इस्तीफ़... दोनों एक पुर-फ़िज़ा बग़ीचे में दाख़िल हुए, जिस के वस्त में एक फ़व्वारा जारी था। उसके पानी की सतह पर सैंकड़ों रंगीन फूल तैर रहे थे। बग़ीचे से गुज़र कर मलिका-ए-आलम की ख़ास महल-सरा थी। महल-सरा के बरामदों में नौ-उम्र और ख़ूबसूरत लड़के, ज़र्क़-बर्क़ लिबास पहने हुए, हसीन मामाएँ और बाँदियाँ, ख़ौफ़नाक शक्ल के ख़्वाजा-सरा और हब्शी ग़ुलाम जिनके सरों पर ज़र्द पगड़ियाँ बँधी हुई थीं। कुछ बैठे, कुछ लेटे, कुछ टहल रहे थे। कुछ छोकरियाँ क़दम बढ़ाए इधर-उधर जा रही थीं। इस्तीफ़ के दहक़ानी वज़ा और फिर उसके हाथ में सुर्ख़ गुलाब के फूल को जिसने देखा, वो मुँह फेर कर मुस्कुरा दिया। शाही ख़्वासें अपने हाथ के पंखों की आड़ में एक दूसरे को इशारे कर रही थीं और कम-उम्र लड़के मुँह पर हाथ रख-रख कर अपनी हँसी को रोक रहे थे।

    इस्तीफ़ को अपने गिर्द-ओ-पेश इन हरकात की कुछ ख़बर न थी। वो चोब-दार के पीछे-पीछे पर्दा उठा कर शाही महल सरा के ख़ास कमरों में दाख़िल हुआ।

    एक मुज़य्यन कमरे के एक गोशे, में, रेशम के क़िर्मिज़ी पर्दों की आड़ में, बड़े-बड़े गद्दों और तकियों पर मल्लिका थोडोरा आराम फ़रमा रही थी। एक रंगीन फ़व्वारा कमरे के वस्त में जारी था। छोटी मेज़ों पर ताज़ा फूलों की ढेरियाँ रखी हुई थीं जिनकी महक से तमाम कमरा मुअत्तर था।

    कुछ ऐसी हल्की रौशनी, रेशमीं पर्दों से छन-छन कर कमरे में आ रही थी जैसी कि रात के ख़त्म होते और दिन के शुरू होने के वक़्त होती है... वो सब जन्नत का एक तख़य्युल था। जिसको इस्तीफ़ ने आज अपनी उम्र में पहली दफ़ा अपनी आँखों से देखा... रेशम के पर्दों की आड़ से उस धुँधली रौशनी में मल्लिका ने इशारा क्या। कमरे के सुकून-ए-कामिल में, रोमी क़ालीनों पर इस्तीफ़ के क़दमों की आवाज़ गुम थी। वो अदब के साथ आगे बढ़ा और उसने मलिका-ए-आलम थोडोरा का आग़ोश-ए-मोहब्बत अपने लिए खिला हुआ पाया!

    तुम्हारे जाने का वक़्त आ गया। नज़रें नीची किए हुए मल्लिका ने फ़रमाया।

    इस्तीफ़ के जिस्म में एक अजीब लर्ज़िश, एक अजीब सनसनाहट थी। जो आज से पहले उसने कभी महसूस न की थी।

    वो अभी तक मल्लिका के आग़ोश की मस्तियों से मख़मूर था। उसका दिल धड़क रहा था। जब उसने कहा,

    क्या फिर कभी मुलाक़ात नसीब होगी?

    मल्लिका मुस्कुराई! इस्तीफ़ अपने सवाल के जवाब का मुंतज़िर था कि यकायक वही ख़्वाजा-सरा जो उसको अंदर लाया था, कमरे में दाख़िल हुआ। इस्तीफ़ चौंका। उसको मोहब्बत की ख़लवत में ख़्वाजा-सरा की ये दर-अंदाज़ी ना-गवार गुज़री। गोया ये सियाह-फ़ाम हब्शी उसकी इस नई मोहब्बत के राज़ को फ़ाश किए देता है। लेकिन मल्लिका से अपने सवाल का जवाब न पा कर वो यक गूना मायूस हुआ और सर झुकाए दरवाज़े की तरफ़ हटने लगा। मल्लिका के होंट हिलते देख कर वो फिर ज़रा रुका।

    इस्तीफ़ कल फिर आओ।

    मल्लिका के शीरीं लबों से ये शीरीं प्याम-ए-उलफ़त किस क़दर रूह-परवर और दिल-नवाज़ मा'लूम हुआ।

    उस धुँधली रौशनी में मल्लिका... न जाने किस तरह... उस कमरे से जा चुकी थी। इस्तीफ़ ने उसको जाते न देखा। लेकिन उसकी जगह ख़ाली थी और इस्तीफ़ वादा-ए-फ़रदा की मुसर्रतों से झूमता हुआ दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा।

    उसके और दरवाज़े के दरमियान चंद क़दम बाक़ी थे कि एक हब्शी ग़ुलाम की नोक-दार छुरी उसकी पुश्त पर चमकी और चश्म-ओ-ज़न में उसकी पुश्त की तरफ़ से सीने के पार हो गई। वो सिर्फ़ एक हिचकी ले कर दरवाज़े के सामने फ़र्श पर औंधा गिर गया।

    ग़ुलाम ने चंद लम्हे अपनी छुरी को उसके गर्म जिस्म में आराम लेने दिया। उसके बाद उसके ख़ून आलूद फल को बाहर खींच लिया। इस्तीफ़ के सर के लम्बे बालों से उस हब्शी ने अपनी छुरी का ख़ून साफ़ क्या। फिर लाश की टाँग पकड़ कर उसको खींचता हुआ कमरे के बाहर ले गया।

    उस कमरे के फ़र्श पर, जहाँ इस्तीफ़ ने एक लम्हे के लिए थोडोरा के आग़ोश में मोहब्बत की एक बाज़ी लगाई थी। सुर्ख़ गुलाब की पत्तियाँ बिखरी हुई रह गईं और उन पत्तियों में से एक पर इस्तीफ़ की जवानी के गर्म ख़ून का सिर्फ़ एक क़तरा जमा हुआ रह गया।

    उसी शाम को जब चंद मल्लाह अपनी कश्तियाँ साहिल की तरफ़ ला रहे थे। शाही महल के चोर दरवाज़े से बास्फ़ोर्स के पानी में एक सिर-बंद थैला, जो ख़ून आलूद भी था, फेंका गया।

    मल्लाहों ने देखा और अपने पतवार तेज़ी से चलाने लगे। उनके लिए इस क़िस्म के थैले कोई नई चीज़ न थे। हर रोज़ सुबह शाम वो देखा करते थे कि शाही महल से बास्फ़ोर्स की भूकी मछलियों की ये मख़सूस ग़िज़ा पानी पर फेंकी जाती है। उनको ये भी मा'लूम था और बाई ज़िंता में किसको मा'लूम न था कि रह्म-दिल मलिका-ए-आलम हुस्न की दावत के बाद बास्फ़ोर्स की मछलियों के लिए अपने हुस्न के दस्तर-ख़्वान से ताज़ा ग़िज़ाएँ पहुँचाया करती हैं!

     

    स्रोत:

    तीन पैसे की छोकरी (Pg. 6)

    • लेखक: क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार
      • प्रकाशक: मकतबा शाहराह, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1959

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