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तीसरा सिग्रेट

बलवंत सिंह

तीसरा सिग्रेट

बलवंत सिंह

MORE BYबलवंत सिंह

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जिसका दोस्त ब्लैक में रबर बेचने वाले एक व्यापारी को पकड़ने के लिए उसका इस्तेमाल करता है। वह व्यापारी के लिए एक दावत का इंतिज़ाम करता है, जिसमें एक लड़की भी शामिल होती है। लड़की की तलाश में कनॉट प्लेस में खड़ा हुआ वह तीसरा सिगरेट पी ही रहा होता है कि एक आदमी उसके पास आता है और बात पक्की करके चला जाता है। बाद में वह आदमी उस शख़्स के दफ़्तर में नौकरी माँगने आता है और बताता है कि वह लड़की जो उसने उसे लाकर दी थी, वह कोई और नहीं उसकी बहन थी।

    जब देव राज ने देखा कि सब हमा तन गोश बने बैठे हैं तो उसने मुँह क़दरे ऊपर को उठा कर सिगरेट का धुआँ एक फ़र्राटे के साथ छोड़ना शुरू किया... और हम उस के गोल मुँह में से धुआँ तेज़ी से निकलते और फ़िज़ा में तहलील होते देखते रहे...

    ये उसकी मख़सूस आदत थी कि बात शुरू की और जब दोस्त मुतवज्जा होते तो वो अपनी दास्तान में बड़े तवील वक़्फ़े पैदा करने लगता। वो ऐसा क्यों करता था। इसके बारे में वसूक़ से कुछ नहीं कहा जा सकता। शायद सामईन के शौक़ को तेज़ से तेज़तर करना मक़सूद हो या शायद वो पुरानी फ़िज़ा में खो जाना चाहता था या उन वक़्फ़ों में तफ़सीलात फ़राहम करता था, मक़सद ख़्वाह कुछ भी हो लेकिन हमें ये वक़्फ़े बुरे नहीं लगते थे। उससे मुलाक़ात अक्सर काफ़ी हाऊस में होती थी। काफ़ी हाऊस में बैठने का एक ही मक़सद होता था यानी फ़ुर्सत के लम्हात को गुज़ारना।

    उस वक़्त काफ़ी हाऊस में ख़ासा शोर मचा हुआ था, देव राज के ख़ूबसूरत गोल चेहरे पर ज़ेह्नी अज़ीयत के आसार पैदा हुए और उसने हम सबकी जानिब मुतवज्जा हो कर कहा, यार! बहुत शोर हो रहा है।

    हम सबने हामी भरी लेकिन हमारी सूरतों से उस पर वाज़ह हो गया कि बावजूद शोर के हमारी दिलचस्पी कम नहीं हुई थी। मालूम होता है कि इससे उसके दिल को तस्कीन सी हासिल हुई और उसने सिलसिला कलाम जारी किया। ये दिसंबर 1945 का क़िस्सा है। मैं बेकार था। तुम लोग जानते ही हो कि पहले मैं ख़ूब मज़े में था। लेकिन अब कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। भाई कभी कभी तो फ़ेट (FATE) क़िस्मत का क़ाइल होना ही पड़ता है। हालाँकि कई बा रसूख हज़रात से मरासिम थे। लेकिन हर्फ़-ए-मुद्दआ ज़बान तक लाते हुए हिचकिचाहट सी महसूस होती थी। और एक-आध दोस्त जिनसे कोई पर्दा नहीं था कोशिश में मस्रूफ़ थे। अभी रोज़गार की कोई सूरत पैदा नहीं हुई थी कि एक दिन कनॉट प्लेस में एक पुराने हमजमाअत से मुलाक़ात हो गई... ये बजा-ए-ख़ुद एक दिलचस्प वाक़िया है।

    यहां तक पहुंच कर उसने फिर ताम्मुल किया फिर एक तवील कश लेकर सीटी बजाने के अंदाज़ से उसने होंटों को गोल किया और उन में से धुआँ छोड़ना शुरू कर दिया।

    धुआँ निकलता रहा। वो अपने ध्यान में और हम अपनी कुर्सीयों में मगन।

    बात शुरू हुई... मैं रेस्तोराँ में बैठा था... रेस्तोराँ का नाम जान कर किया करेंगे आप... और में अपने दोस्त का नाम बताऊँगा... वो सी. आई.डी. के ऐन्टी करप्शन महकमे में मुलाज़िम था। ख़ैर! अब वो वाक़िया सुनिए...! रेस्तोराँ के गोशे में मैंने एक निहायत हसीन ख़ातून को देखा। हसीन सूरत को देखना कोई जुर्म तो नहीं लेकिन मुसलसल देखते रहना यक़ीनन मायूब है... हुआ ये कि मैं माली उलझनों में गिरफ़्तार था... मेरे ज़ेह्न ने उस हसीना के वजूद का एहसास तो ज़रूर किया लेकिन मैं उस वक़्त दूसरे ही मूड में था। मुझे ख़ूबसूरत लड़कियों से उस वक़्त क़तअन कोई दिलचस्पी महसूस नहीं हो सकती थी। अलबत्ता मेरी निगाह बज़ाहिर उसी तरफ़ जमी रही और ज़ेह्न नज़ारगी के लुत्फ़ से ख़ाली था... औरत को यूं महसूस हुआ कि मैं बेहूदापन से मुसलसल उसकी जानिब घूर रहा हूँ। उसने इस अमर की इत्तिला पास बैठे हुए अपने ख़ावंद को दी। उसने मुझे घूर कर के देखा लेकिन मैं चूँकि ख़ाली-उल-ज़ेह्न था इसलिए मेरी टकटकी में कोई फ़र्क़ नहीं आया। इस पर वो उठा और क़रीब आकर उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने घूम कर देखा तो अपने सामने एक ख़शमगीं चेहरा पाया। नाक के मस्से की वजह से वो और भयानक दिखाई दे रहा था। मैं कुछ समझ पाया। बे इख़्तियार कहा, तशरीफ़ रखिए, मैंने इस्बात में जवाब दिया और साथ ही उसे पहचान लिया। हम कई बरस के वक़्फ़े बाद मिले थे। चुनांचे बड़ा पुरतपाक मुसाफ़ा हुआ और वो मुझे अपनी बग़ल में लिये बीवी के पास पहुंचा और क़हक़हा लगा कर बोला, भई ये अपना देव राज है। लो बैठो यार! ये तुम्हारी भावज है, देखना है तो क़रीब से देखो। मैं इस पर शरमाया। उसकी बीवी सिर्फ़ हसीन और पढ़ी लिखी थी बल्कि सचमुच बाज़ौक़ ख़ातून थी। मैंने माज़रत करते हुए कहा, इसमें तो शुबहा नहीं कि आप क़ाबिल-ए-दीद हैं लेकिन यक़ीन कीजिए, मैं अपनी उलझनों में गिरफ़्तार था। ये अलग बात है कि मेरा चेहरा आपकी जानिब था... भई में यक़ीन करता हूँ। मेरे दोस्त ने हामी भरी। अरे हमने कॉलेज में भी कई रोमांस लड़ाए लेकिन देव राज बेचारा तो ख़ुद ही निस्फ़ लड़की था। हसीनों से आँखें चार होते ही शरमाने में पहल उन्हीं की तरफ़ से होती थी... इस पर सब खिलखिला कर हंस पड़े...

    अब फिर वक़्फ़ा... लेकिन इस वक़्फ़े में हम इस दिलचस्प हादिसे पर क़हक़हे लगाते रहे और देव राज को धुआँ उड़ाने के लिए आज़ाद छोड़ दिया।

    कुछ दिनों के बाद फिर मेरी अपने उसी दोस्त से मुलाक़ात हुई। अब हम दोनों तन्हा थे। इरादा ये हुआ कि दोपहर का टाइम बियर पीने में गुज़ारा जाये। देव राज ने फिर अपना क़िस्सा जारी किया, बियर के दो दो मग ख़त्म हो गए तो मेरे दोस्त ने मेरी बेकारी के बारे में पूछगछ शुरू की। मैं हिचकिचा रहा था लेकिन उसे इसरार था। क़िस्सा मुख़्तसर ये कि सारे हालात सुनकर उसने ज़रा ताम्मुल किया और फिर कहा, यार! तुम्हें एक तर्कीब बताता हूँ। लेकिन शर्त ये है कि ख़्वाह मख़्वा शराफ़त से काम लेना। मैंने ये शर्त मंज़ूर कर ली। उसने कहा, देखो जहां तुम रहते हो, वहीं पर सेठ धनी राम की कोठी है। तुमने उनकी काली भुजंग सूरत अक्सर देखी होगी। बल्कि शायद तुम्हारी कभी उनसे अलैक सलैक भी होजाती हो। हमारे महकमे को क़ाबिल-ए-एतिबार ज़राए से इल्म हुआ है कि वो रबर गुडज़ में ब्लैक मार्केटिंग करता है और इस धंधे में लाखों रुपया पैदा किया है उसने। अब अगर तुम ज़रा अपनी रिवायती शराफ़त को छोड़कर कमर हिम्मत बाँधो तो आम के आम गुठलियों के दाम हासिल कर सकते हो... मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ, पूछा कि आख़िर मैं क्या कर सकता हूँ...?

    दोस्त, तुम भी एक बार ब्लैक मार्केटिंग कर डालो।

    वो कैसे?

    वो मैं बताता हूँ... सेठ जी इतना तो जानते ही हैं कि तुम उन्हीं के मुहल्ले के निहायत शरीफ़ बाल-बच्चेदार इन्सान हो। तुम एक रोज़ उनके पास जाओ और उनसे कहो कि तुम उनकी मदद से रोज़गार शुरू करना चाहते हो। कह देना कि पंद्रह बीस हज़ार रुपया तुम्हारे पास है। अगर यक़ीनी फ़ायदे की सूरत नज़र आए तो इतना ही रुपया तुम और इकट्ठा कर सकते हो...। उसको तुम पर शुबहा भी नहीं हो सकता और वो राज़ी हो जाएगा... बस फिर चांदी ही चांदी समझो...

    मेरे होंटों पर ख़ुश्क हँसी पैदा हुई। कहा, तुम भी घन चक्करों की सी बातें करते हो। वाह, पंद्रह-बीस हज़ार की भी ख़ूब रही... यहां मेरे पास पंद्रह-बीस कौड़ियाँ भी नहीं हैं...

    मेरे दोस्त ने बेसब्री से मुझे टोका, अरे तुम कुछ नहीं समझे। मगर तुम तो मुझे बात ख़त्म ही नहीं करने देते... रुपये की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। बस ज़बानी बातचीत हो जाएगी... लेकिन अब असल बात सुनो। एक अलग-थलग मकान का इंतिज़ाम किया जाये। कुछ शराब हो नौजवान लड़की हो। खाने-पीने का सामान हो। वहां सेठ साहिब को बुला लाओ। कहना कि मेरे एक दोस्त का मकान है जो बाल बच्चों समेत किसी की शादी पर चंद रोज़ के लिए बाहर चले गए हैं।

    यार! जाने में पागल हूँ या तुम। आख़िर ये शराब। खाने का सामान और फिर एक नौजवान लड़की... मैं ये चीज़ें कहाँ से लाऊँगा...

    उसका इंतिज़ाम हम करेंगे।

    अच्छा अब समझा... फिर क्या होगा?

    होगा ये कि थोड़ी सी शराब पी कर वो तुमसे खुल जाएगा। कारोबारी बातचीत साफ़ साफ़ हो जाएगी और ये सारी बातचीत हम साथ वाले कमरे में रिकार्ड कर लेंगे। मुजरिम ख़ुद जाल में फंस जाएगा...

    भई तुम सच-मुच बहकी बहकी बातें कर रहे हो। माना उस अलिफ़ लैला की कहानी की सब चूलें ठीक बैठ जाएं तो फिर मुझे क्या हासिल होगा?

    वो भी सुनो। सेठ जी फंस जाएं तो तुम उनसे कहना कि अगर दस हज़ार रुपया दिलवाईए तो मुआमला रफ़ा दफ़ा करवा दूँगा।

    अच्छा तो रुपया लेकर उसे छोड़ दिया जाये।

    अरे नहीं छोड़ेंगे नहीं... सी.आई.डी. ऐसे बदमाशों को छोड़ नहीं सकती। मैं उस रुपये में कुछ लूंगा, वह तो महज़ तुम्हारी जेब में जाएगा।

    मैंने झेंप कर जवाब दिया, माफ़ करो दोस्त, मुझसे ये नहीं हो सकेगा।

    इस पर मेरे दोस्त को ग़ुस्सा आया बोला, देखो इस क़िस्म के लोग पब्लिक के दुश्मन हैं। उन्होंने मुल्क को जो नुक़्सान पहुंचाया है तुम उसका अंदाज़ा तक नहीं लगा सकते। उनको सज़ा दिलवाना तो ऐसा ही है जैसे ताऊन के चूहों को हलाक करना। मैंने कहा, ये सब ठीक है, मैं तुम्हारी मदद करने को तैयार हूँ लेकिन मैं किसी से ठगी करने को तैयार नहीं हूँ।

    भई, ये ठगी नहीं। ये तुम्हारा हक़ है। मेहनत का हक़। हमको देखो, हम पब्लिक के दुश्मनों को चकमा देकर गिरफ़्तार करते हैं और हुकूमत हमको तनख़्वाहें देती है। भई अगर तुम्हारा हक़ मेहनत मुजरिम ही की जेब से निकल आए तो इसमें बुराई ही क्या है, ग़रज़ मेरे दोस्त ने अमली दुनिया के नशेब-ओ-फ़राज़ इस अंदाज़ से समझाए कि मुझे आख़िर कहना पड़ा, लेकिन दोस्त ये तो सोचो कि मैं इस क़िस्म की तिकड़म बाज़ी में बिल्कुल ही कोरा हूँ, भला मुझमें इतनी चालाकी कहाँ कि इतनी लंबी चौड़ी स्कीम को कामयाब बना सकूँ।

    तुम लंबी-चौड़ी स्कीम की बात को छोड़ो। पहले तो तुम्हें सेठ के पास जाकर उसे दावत देनी है। समझे?

    मैं उसके दलायल के सामने ठहर सका। लेकिन मैंने सोचा कि उसके कहने से मैं सेठ के पास चला जाता हूँ। ज़ाहिर है कि सेठ मेरे जाल में नहीं फंसेगा... क्योंकि मैं इस मुआमले में बिल्कुल उल्लू था। बस यहीं पर बात ख़त्म हो जाएगी।

    फिर देव राज ने ताम्मुल किया। हमें उसकी दास्तान में दिलचस्पी महसूस हुई। मगर हम इन वक़्फ़ों के आदी हो चुके थे। हमने एक एक सिगरेट जला लिया और उसके बोलने का इंतिज़ार करने लगे। आख़िर उसने फिर कहना शुरू किया... मैं दूसरी शाम सेठ जी के वहां पहुंचा। दिल धक धक कर रहा था, आवाज़ तक काँप रही थी। लेकिन अजीब बात ये हुई कि सेठ जी ने बड़ी आसानी से मेरी दावत क़बूल कर ली। उनके दावत क़बूल करने से मुझे ख़ुशी होने की बजाय और परेशानी हुई।

    जब मेरे दोस्त ने मेरी कामयाबी के बारे में सुना तो उछल पड़ा बोला, बस अब पौ बारह समझो।

    मैंने मरी हुई आवाज़ में कहा, यार ये काम मुझसे नहीं हो सकेगा।

    अरे भई! अब कौन काम बाक़ी रह गया है। मैं तुम्हें चंद सवाल और चंद नुक्ते समझा दूँगा बस सेठ से गुफ़्तगु करने में उन्हीं बातों को ध्यान में रखना। बस मुर्ग़ा ख़ुद ही फंस जाएगा।

    मैंने उस के रास्ते में रोड़ा अटकाने के ख़्याल से कहा, तो भई ये लड़की-वड़की का इंतिज़ाम कैसे करूँगा।

    वो भी सुनो। आज ही शाम कनॉट प्लेस जाओ। जहां एक छोटा सा लाल लैटर बाक्स है, वहां चिराग़ जले खड़े होजाना। एक ही जगह खड़े खड़े सिगरेट फूँकते रहना। जब ज़्यादा से ज़्यादा तीसरे सिगरेट पर पहुँचोगे तो कोई कोई ख़िज़्र-ए-राह दिखाई देगा। बस मुआमला तय कर लेना।

    मुझे इस बात का यक़ीन आया लेकिन चूँकि मेरे लिए कोई ख़ास झंझट नहीं था। इसलिए अंधेरा होते ही मैं इस जगह पर जा खड़ा हुआ और पहला सिगरेट जलाया। कश पर कश लगाता रहा। सैंकड़ों लोग इधर से उधर गुज़र गए। किसी ने मुझसे कुछ पूछा। पहला सिगरेट ख़त्म होने को आया तो उसी से दूसरा जला लिया। मुझे यक़ीन था कि मेरे दोस्त का ख़्याल ग़लत निकलेगा और मैं ख़ुश था कि इस तरह मैं इस क़ज़िये को ख़त्म कर दूंगा। अभी दूसरा सिगरेट पी रहा था कि एक साहिब और मेरे क़रीब आकर खड़े हो गए। मैं उनकी मौजूदगी से घबराया कि उनके रूबरू अगर कोई मुआमला तय करने वाला आगया तो बहुत मुश्किल पेश आएगी।

    मैंने चुपके से उसकी जानिब देखा। वो इकहरे बदन का कमज़ोर शख़्स था। उम्र लग भग अट्ठाईस बरस। बाल ख़ुश्क, गाल अंदर को धंसे हुए। हाथों की नसें उभरी हुई। घटिया सी मैली टाई, पुराना कोट, पुरानी पतलून। अजीब हुलिया था वो, या तो पुराना शराबी कबाबी और अय्याश था या मसाइब दुनिया का सताया हुआ। लेकिन मैं जल्द ही उसके किरदार का तज्ज़िया करने से उकता गया। दूसरा सिगरेट ख़त्म हो रहा था। तीसरा निकाला और सोचा कि बस चंद कश और इसके बाद चल दूँगा घर को। दफ्अतन आवाज़ आई, कुछ चाहिए बाबू जी?

    मैंने चौंक कर देखा। ये आवाज़ कहाँ से आई थी। नौ वारिद चुपचाप खड़ा था। मुझे शुबहा हुआ शायद मेरे ही कान बज रहे थे।

    मैं आप ही से कह रहा हूँ।

    नौ वारिद ही बोल रहा था।

    आप...! मैं घबरा गया कुछ... क्या... ओह हाँ... जी हाँ।

    मैं उसकी जानिब देख रहा था लेकिन उसकी नज़रें दूसरी जानिब थीं। वो जंगले पर झुका सड़क की जानिब पीठ किए चुप चाप सिगरेट पी रहा था। मैंने सोचा आख़िर मैं उसकी जानिब क्यों देखूं। चुनांचे मैंने सड़क की जानिब मुँह फेर लिया।

    क़दरे ताम्मुल के बाद आवाज़ आई, कब?

    कल रात... कैसी है?

    इस पर नौ वारिद चुप रहा। फिर बोला, बिल्कुल जवान है।

    बात ये है कि... मैंने गला साफ़ करते हुए कहा, मैं इन बातों का शौक़ीन नहीं हूँ। सरकारी मुआमला है, इसलिए ज़रा ठीक ठाक होना चाहिए...

    ये कह कर मुझे ख़्याल आया कि आख़िर मुझे उस शख़्स को ये यक़ीन दिलाने की क्या ज़रूरत थी कि लड़की मुझे अपने लिए दरकार नहीं थी... इसे मेरा अनाड़ीपन कहना चाहिए।

    फिर आवाज़ आई, कल किस टाइम?

    दस बजे रात से सुबह तक... पाँच बजे तक।

    पच्चीस रुपे...

    ठीक... कहाँ पर?

    इंडिया गेट...

    ओके इंडिया गेट दस बजे शार्प।

    मेरे दोस्त ने जब ये बात सुनी तो मेरी पीठ पर धौल जमा कर बोला, यार! तुम तो छुपे रुस्तम निकले। वाह वा। अच्छा अब कल शाम को पाँच बजे मिलो ताकि तुम्हें मकान-दुकान दिखा दूं। और तुम्हें बाक़ी बातें भी समझा दूं।

    दूसरे रोज़ शाम को वक़्त मुक़र्रर पर मैं अपने दोस्त से मिला। उसने एक उम्दा बड़ी सी टैक्सी में मुझे बिठाया और हम मंज़िल-ए-मक़्सूद की जानिब रवाना हो गए। एडवर्ड रोड के आख़िर में एक सुनसान सी कोठी थी। लेकिन जगह पुर फ़िज़ा थी। मुझे वो मख़सूस कमरा दिखाया गया जो ड्राइंगरूम की सूरत में सजा हुआ था। दो कमरे और भी थे जो निस्बतन छोटे थे। कोठी के बाक़ी कमरों के बारे में मुझे हिदायत दी गई कि सेठ जी से कह दूं कि वो मेरे दोस्त बंद करके चले गए हैं। सिर्फ़ ये कमरे मैंने तफ़रीह-ए-तबा के लिए रखे हैं... ड्राइंगरूम की दरी और ग़ालीचों के नीचे ही नीचे तारें कोठी के एक दूर उफ़्तादा कमरे तक चली गई थीं, वहां सारी गुफ़्तगु को रिकॉर्ड करने का इंतिज़ाम किया गया था।

    जब मेरे दोस्त सब हिदायात दे चुके तो कहा कि, आओ अब मुझे कनॉट प्लेस में छोड़ दो। और फिर ये टैक्सी तुम्हारे सपुर्द कर दी जाएगी। पहले लड़की को ले आना और फिर ड्राईवर को सेठ साहिब को लाने के लिए भेज देना। ख़ातिर जमा रखो। बाक़ी खाने पीने का इंतिज़ाम बिल्कुल मुकम्मल होगा। ये ड्राईवर और नौकर-चाकर सब अपने आदमी हैं। इसलिए जो कुछ भी कहना सुनना हो इन्हीं से कहना।

    रात के दस बजे तक मैंने वक़्त इधर उधर घूम कर गुज़ार दिया। ऐन दस बजे मैं टैक्सी समेत इंडिया गेट पहुंचा। लेकिन वहां कुछ लाने वाले साहिब को पाया। इंतिज़ार ज़रूरी था। टैक्सी से निकल कर मैं इधर उधर टहलने लगा। एक एक लम्हा पहाड़ हो रहा था, ये भी फ़िक्र थी कहीं वो हज़रत आए तो बड़ी भद्द होगी।

    कोई आठ मिनट बाद वो साहिब साईकल पर सवार आते दिखाई दिए। तारीकी में पहले तो उन्हें तन्हा देखकर परेशानी हुई लेकिन उनके पीछे कैरियर पर बैठी लड़की को देखकर जान में जान आई।

    लड़की के ख़ुद्द-ओ ख़ाल देखकर मायूसी हुई, वो बहुत आम सूरत की लड़की थी। अलबत्ता जिस्म गट्ठा हुआ मालूम होता था। हाथों की बनावट अच्छी थी रंगत भी बुरी नहीं थी। उधर हमारे सेठ कौन परीज़ाद थे, ये कह कर मैंने अपने दिल को तस्कीन दी।

    वो आदमी ताख़ीर के लिए माज़रत कर रहा था लेकिन मैंने उसकी कोई बात नहीं सुनी जल्दी से पच्चीस रुपे उसके हाथ में थमाए और बोला, अब और देर नहीं होनी चाहीए... चलिए बैठिए कार में।

    आदमी ने लड़की को आगे को धकेला तो लड़की ऐसे बढ़ी जैसे घर से मार पीट कर ज़बरदस्ती लाई गई हो।

    टैक्सी चली तो वो आदमी हाथ उठा कर बोला, सुबह पाँच बजे शार्प।

    पाँच बजे शार्प, मैंने जवाब दिया और फिर ड्राईवर से कहा, भई तेज़ी से चलो। आगे ही काफ़ी देर हो गई है।

    रास्ते में लड़की से कोई बात नहीं हुई। मैंने देखा कि उसके चेहरे पर गहरी उदासी छाई हुई है। उसका मेक अप बेपरवाही से किया गया था अगरचे ज़्यादा लीप पोत नहीं की गई थी। मुझे वो बेहद अल्हड़, शरीफ़, ना तजुर्बेकार और घरेलू टाइप की दिखाई दी, उसने एक-आध बार माथे पर गहरा बल डाल कर मुझे उचटती हुई नज़र से देखा। जैसे मैं भेड़ीया हूँ, जो भेड़ को उठाए लिए जा रहा हूँ। मैं दिल ही दिल में बेहद शर्मिंदा हो रहा था। बे इख़्तियार जी चाह रहा था कि उससे कहूं, भैन जी! में आपको अपने लिए नहीं ले जा रहा हूँ।

    लेकिन मेरे दिल की दिल में ही रही। यहां तक कि हम कोठी जा उतरे।

    ड्राईवर वहीं से सेठ को लेने चला गया।

    मैं लड़की को लेकर ड्राइंगरूम में पहुंचा तो देखा एक मुलाज़िम खड़ा है, कुछ ढके हुए डोंगे परे मेज़ पर रखे हैं। व्हिस्की की दो बोतलें भी मौजूद हैं। रेडियो बज रहा है। ग़रज़ फ़िज़ा ख़ासी दिलचस्प हो रही थी।

    लड़की एक सोफ़े पर बैठ गई। मैंने पानी-वानी के बारे में पूछा तो उसने इनकार कर दिया।

    नौकर के इशारे पर मैं बाहर गया तो अपने दोस्त को पुलिस के चंद और लोगों के हमराह गप्पें हांकते पाया। उसने कहा कि लड़की का इंतिख़ाब अच्छा नहीं है। मैंने माज़ूरी ज़ाहिर की। इन्होंने कहा कोई मज़ाइक़ा नहीं। शराब का दौर ख़ूब चलना चाहिए फिर सब कुछ हसीन नज़र आने लगेगा। सेठ से कुरेद कुरेद कर बातें पूछना ताकि पक्का सबूत फ़राहम हो सके।

    उसके बाद मुझे फ़ौरन कमरे में वापस भेज दिया गया और वो ख़ुद भी अपनी कमीन गाह में घुस गए।

    सेठ साहिब के पहुंचने का वक़्त क़रीब रहा था मैंने एक नज़र कमरे में दौड़ाई और महसूस किया कि सिवा उस लड़की के बाक़ी सब चीज़ें दुरुस्त थीं। लड़की बिल्कुल ठस थी। शक्ल की बात तो रही अलग तेवर ही बेढब हो रहे थे और फिर मुँह कुप्पा। बातचीत, मुस्कुराहटें क़हक़हे।

    इसी अस्ना में लॉन पर कार के रुकने की आवाज़ आई। मैं बाज़ू फैलाए बाहर निकला और सेठ साहिब का बड़ा पुरजोश ख़ैर मक़्दम किया। सेठ साहिब ने इधर उधर देखकर कहा, साहिब बड़ी सुनसान जगह है लेकिन है पुरफ़िज़ा।

    जी जी, मैंने जवाब दिया।

    सेठ साहिब स्याह फ़ाम होने के इलावा यूं भी बड़े बेडौल और बद सूरत इन्सान वाक़ा हुए थे। क़द छोटा, गोल मोल, काले कलूटे, भद्दे नुक़ूश, कल्ले में पान।

    मैंने सेठ साहिब को भी उसी लंबे सोफ़े पर बिठा दिया जिस पर कि लड़की बैठी थी। सेठ साहिब ने इधर उधर के चंद सवालात किए जिनके माक़ूल जवाबात पहले ही से घड़े घड़ाए मौजूद थे।

    व्हिस्की का दौर शुरू हुआ। चार चार पैग हलक़ से नीचे उतर गए। लेकिन सेठ बिल्कुल संजीदा और अटल बैठे थे। आँखें चढ़ीं बहके। हँसे, सोफ़े के एक सिरे पर लड़की चुप चाप बैठी थी और दूसरे सिरे पर

    सेठ साहिब। दोनों टस से मस नहीं हो रहे थे। उन दोनों के दरमियान मेरी जान ज़ैक़ में थी। अजब लोग थे ये।

    यूं सेठ साहिब ने व्हिस्की पीने से इनकार नहीं किया लेकिन क्या मजाल जो लम्हा भर को भी बहकें।

    मैं कुछ देर उन्हें लड़की के साथ तन्हा छोड़कर बाहर चला गया। और तारीकी में से खिड़की की दराड़ में से अंदर झाँकता रहा मगर दोनों चुप चाप थे। सेठ साहिब पैग लूँढाए जा रहे थे और सिगरेट का धुआँ उड़ा रहे थे। यूं कभी-कभार एक निगाह लड़की पर भी डाल लेते।

    तंग आकर मैं फिर अन्दर पहुंचा। लड़की ने शराब पीने से इनकार कर दिया था लेकिन इसरार करने पर खाने में शामिल हो गई। अब मैंने बिज़नस की बात की। लेकिन सेठ साहिब कुछ बोले। मैंने निहायत बेज़रर और मासूम सवालों से गुफ़्तगु का आग़ाज़ किया। लेकिन सेठ साहिब को खुलना था वो खुले। बड़ी कोफ़्त हो रही थी। वो हर सवाल का जवाब हूँ-हाँ दे के टाल देते। मैं कहता,

    सेठ साहिब! मैं मामूली आदमी हूँ किसी किसी तरह से पंद्रह-बीस हज़ार रुपया इकट्ठा किया है। अगर कामयाबी हुई तो बड़ी मुश्किल का सामना होगा।

    सेठ साहिब भोलपन से कहते, जी हाँ, बिज़नस में ऐसा भी होजाता है।

    मैं लंबी चौड़ी गुफ़्तगु के बाद पूछता, तो सेठ साहिब आपसे क्या उम्मीद रखूं?

    जवाब मिलता, उम्मीद तो भगवान से रखनी चाहिए।

    ग़रज़ ये कि उन्होंने किसी तरह पुट्ठे पर हाथ रखने दिया। शराब ने कुछ काम किया और लड़की ने।

    हर दाव और हर घात से काम लेकर भी जब कामयाबी हासिल हुई तो सेठ साहिब को टैक्सी पर वापस भेज दिया गया। टैक्सी में बैठते वक़्त सिर्फ़ इतना कहा, बहुत बहुत शुक्रिया। जो कुछ मेरी क़ुव्वत में है, सो वो मैं आपके लिए ज़रूर करूँगा।

    सेठ साहिब के चले जाने के बाद लड़की तो ड्राइंगरूम में बैठी रही और मैं अपने दोस्त और उस के साथियों में जा मिला। हम सेठ जी के घागपन का मातम करते रहे। लड़की सोफ़े पर ऊँघती रही।

    पाँच बजने से कुछ पहले मैंने लड़की को जगाया और उसे टैक्सी में बिठा कर इंडिया गेट की तरफ़ चल दिए।

    लड़की ने रास्ते में बात तो कुजा मेरी जानिब देखा भी नहीं, मुझे उस पर ग़ुस्सा भी रहा था और रहम भी। और सबसे बढ़कर मैं अपने पर लानत भेजता रहा।

    इंडिया गेट के क़रीब उसका साथी खड़ा था। इंजन रोके बग़ैर टैक्सी ठहर गई मैंने दरवाज़ा खोला तो लड़की शोले की तरह बाहर निकली और साथी से कहने लगी, अब आइन्दा तुमने ऐसा किया तो ज़हर खालूँगी।

    टैक्सी चल दी।

    देव राज चुप हो गया। हस्ब-ए-आदत हमें कहानी दिलचस्प तो ज़रूर लगी लेकिन बे तुकी सी... हमारी तरफ़ मुतलक़न ध्यान दिए बग़ैर देव राज ने नया सिगरेट होंटों में दबाया और मुस्कुरा कर बोला, ये मेरा तीसरा सिगरेट है... कहानी ख़त्म नहीं हुई, उसका इख्तितामिया बाक़ी है।

    अच्छा? हमने बैक ज़बान हैरत का इज़हार किया।

    देव राज ने गहरे गहरे कश लिये और कहना शुरू किया, चंद माह बाद मुझे नौकरी मिल गई, अच्छी मुलाज़मत थी। गज़ेटेड। मुझे अपने लिए एक मुआविन रखने की इजाज़त थी। उस असामी के लिए इश्तिहार दिया गया। टेक्नीकल काम था, ज़्यादा अर्ज़ीयां नहीं आईं। जो आईं उनमें सिर्फ़ एक ही शख़्स काम का मालूम हुआ, ताहम मैंने निस्फ़ दर्जन उम्मीदवारों को इंटरव्यू के लिए बुला लिया। इंटरव्यू मुझे ख़ुद ही लेना था।

    इंटरव्यू वाले दिन में वक़्त से ज़रा पहले दफ़्तर पहुंच गया ताकि काग़ज़ात पर एक निगाह दौड़ा लूं।

    दो सिगरेट पी कर मैंने चपड़ासी को पहला नाम बताया। तीसरा सिगरेट मेरे होंटों ही में था कि सामने वही हज़रत... यानी लड़की वाले दिखाई दिए।

    नज़रें मिलते ही हम दम-ब-ख़ुद रह गए।

    बिलआख़िर मैंने कहा, तुम क़ाबिल शख़्स मालूम होते हो, बल्कि सब उम्मीदवारों से भी काबिल... लेकिन वो लड़की...

    उसने ज़मीन की तरफ़ देखते हुए जवाब दिया, मेरी बहन थी... यक़ीन कीजिए वो उसका पहला मौक़ा था और आख़िरी... मैं उसे आपके सामने ला सकता हूँ... वो ख़ुद इस अमर की गवाही देगी.. ये ना पूछिए कि उस रात किन हालात से मजबूर हो कर वो हरकत की...

    मैं नहीं पूछूँगा... मेरे दिल से बोझ सा उतर गया फिर मैंने कहा, देखो! उस रात भी किसी ने उसे छुवा तक नहीं।

    उसकी आँखों में आँसू आगए। मैंने कहा, मैंने फ़ैसला कर लिया है कि मैं तुम्हीं को मुंतख़ब करूँगा। अब जाओ... वो सिसकियाँ भरता हुआ चला गया।

    फिर देव राज ने मुस्कुरा कर हम सबकी तरफ़ देखकर कह,

    उस रोज़ तीसरा सिगरेट पीने का जो लुत्फ़ आया वो फिर कभी नहीं आया।

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