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ठंडी आग

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    मुख़तार साहब ने अख़बार की सुर्ख़ियों पर तो नज़र डाल ली थी और अब वो इतमीनान से ख़बरें पढ़ने की ‎नीयत बांध रहे थे कि मनी अंदर से भागी-भागी आई और बड़ी गर्म-जोशी से इत्तिला दी कि “आपको अम्मी ‎अंदर बुला रही हैं।”

    मिनी की गर्म-जोशी बस उसकी नन्ही सी ज़ात ही तक महदूद थी। पोस्ट मास्टर साहब इसी तरह ग़म-सुम ‎बैठे रहे। मुख़तार साहब ने आहिस्तगी से अख़बार उनकी तरफ़ बढ़ा दिया और उन्होंने इसी आहिस्तगी से ‎अख़बार अपने सामने चारपाई पर बिछाया। उतारी हुई ऐनक फिर चढ़ाई और अख़बार पर झुक गए। ‎मुख़तार साहब इक ज़रा बेदिली से उठ खड़े हुए।

    मुख़तार साहब के अंदर जाने और बुलाए जाने का ये पहला मौक़ा नहीं था। लेकिन ये वाक़िया इस लिहाज़ से ‎ज़रूर अहम था कि इसके बाद उनके अंदर जाने और बुलाए जाने का सिलसिला तेज़ से तेज़तर होता चला ‎गया। रही ये बात कि ये सिलसिला कब और कैसे शुरू हुआ तो एक यही क्या मुख़तार साहब की ज़िंदगी के ‎किसी भी सिलसिले की इब्तेदा नहीं मिलती थी। दरअस्ल उनकी ज़िंदगी में तेज़ किस्म का मोड़ कभी नहीं ‎आया था। रस्ते ज़रूर बदले थे मगर ग़ैर महसूस तौर पर। उनकी ज़िंदगी में जो भी तबदीली आई इसका ‎पता उस वक़्त चला जब वो जीने का ढर्रा बन चुकी थी। ख़ुद पोस्ट मास्टर साहब से उनके ताल्लुक़ात की ‎नौइय्यत कुछ इसी तरह की थी। पोस्ट मास्टर साहब बिरादरी के एक फ़र्द ज़रूर थे लेकिन मुख़तार साहब ‎बिरादरी के किसी शख़्स से मिलते थे जो उनसे ही मिलते... पोस्ट मास्टर साहब की मिलनसारी को तो ‎शायद डाकखाने ने चूस लिया था। जब तक उनकी पैंशन नहीं हुई थी। उनका तौर ये रहा कि सुबह नौ बजे ‎घर से निकलना, सारे दिन मनी आर्डरों, रजिस्ट्री के लिफ़ाफ़ों और पार्सलों में ग़र्क़ रहना और शाम को ‎ख़ामोश सर न्यौढ़ाये घर वापिस आना। शुरू में ज़माने ने इतनी मोहलत ना दी कि शादी कर लेते। जब ज़रा ‎फ़राग़त हुई तो दिल मर चुका था। उनकी ज़िंदगी में इतनी तबदीली भी आई कि मुलाज़मत के सिलसिले ‎में कहीं तबादला ही हो जाता। अपने क़स्बे के छोटे से डाकखाने में तयनात हुए और उसी डाकखाने से ‎पैंशन लेकर निकले। तड़के उठना, नमाज़ पढ़ना और बाहर बैठक के चबूतरे पे मूँढे पर बैठना। ‎अख़बार वाला उर्दू का अख़बार डाल जाता, डिब्बे से ऐनक निकालते और बड़ी सुर्ख़ी से लेकर प्रिंट लाईन ‎तक पूरा अख़बार पढ़ते और हुक़्क़ा पीते रहते।

    बराबर में ननवा हलवाई की दुकान थी। दरअस्ल ननवा हलवाई की दुकान ही की मार्फ़त मुख़तार साहब ‎की इन तक रसाई हुई थी। वर्ना पहले तो महज़ दूर की अलेक सलेक थी। मुख़तार साहब ने नाश्ता हमेशा ‎जलेबियों का किया। तारों की छाओं में उठते और सीधे अपने खेतों का रुख़ करते। वापसी में ननवा हलवाई ‎की दुकान पर पड़ाव करते। दोना भर जलेबियाँ ख़रीद खड़े-खड़े खाते और फिर अकेले घर में पड़ते।

    ननवा की दुकान पर सुबह को जलेबियाँ ख़रीदने वालों का अच्छा-ख़ासा झमगटा हो जाता था, इसलिए ‎अक्सर उन्हें ख़ासी देर खड़ा भी रहना पड़ता था। सुबह ही सुबह अख़बार देखकर किस का जी नहीं ‎ललचाता। एक-आध दफ़ा ऐसा भी हुआ कि मुख़तार साहब दुकान से हट कर चबूतरे के पास खड़े हो गए ‎और दूर से ख़बरों की सुर्ख़ियों पर उड़ती सी नज़रें डाल लें। फिर पोस्ट मास्टर साहब को इसका एहसास ‎हुआ तो एक दो मर्तबा उन्होंने बीच का सफ़ा निकाल कर उन्हें दे दिया। रफ़्ता-रफ़्ता मुख़तार साहब ने ये ‎शेवा इख़्तेयार किया कि जलेबियाँ बनने में देर होती तो वो आहिस्ता से चबूतरे पर पोस्ट मास्टर साहब के ‎मूँढे के बराबर खड़े होते और हुक़्क़ा पीने लगते। पोस्ट मास्टर साहब पहले बीच का और फिर पहला ‎और आख़िरी सफ़ा उन्हें थमा देते और वो खड़े-खड़े पढ़ते रहते। ननवा की आवाज़ पे मुख़तार साहब ‎ख़ामोशी से अख़बार चारपाई पर रखते और सलाम-ओ-दुआ किए बग़ैर वहाँ से सरक जाते। आते वक़्त ‎ज़रूर अलेक सलेक होती थी। बाक़ी रही गुफ़्तगु तो अगर अख़बारों के सफ़्हों के तबादले को गुफ़्तगु कहा ‎जा सकता है तो इसमें गुफ़्तगू ज़रूर होती थी। एक-आध दफ़ा मुख़तार साहब ख़ुद ही बे-ध्यानी में मूँढे पे ‎बैठ गए। पोस्ट मास्टर साहब ने कभी उनसे बैठ जाने की दरख़्वास्त नहीं की थी, मगर उनके बैठ जाने पर ‎किसी बे-कली का इज़हार भी नहीं किया और किसी किस्म की ख़ुशी ज़ाहिर की।

    मुख़तार साहब मूँढे पर बैठ कर अख़बार पढ़ने के ख़ुद ही आदी बन गए। रफ़्ता-रफ़्ता ये ख़ामोश ताल्लुक़ ‎ख़ुद अपने ज़ोर पर ज़्यादा गहरा और ज़्यादा पुख़्ता होता चला गया। इस ताल्लुक़ से ज़्यादा गहरे और पुख़्ता ‎होने का इज़हार दो तरीक़ों से हुआ। एक तो इस तरह कि आते ही जो रस्मी अलेक सलेक होती थी वो ख़त्म ‎हो गई। दूसरे इस तरह कि जलेबियों का दोना अब चबूतरे पे ही जाता था। मुख़तार साहब आते ही ‎दुकान पे एक नज़र डालते। इस वक़्त बिलउमूम चूल्हे पर घी कड़कड़ा रहा होता था। ननवा को वो एक ‎नज़र इस अंदाज़ से देखते गोया कह रहे हूँ कि भई मैं गया हूँ और ननवा की नज़र उसी लहजे में इस ‎नज़र का जवाब देती। मुख़तार साहब ख़ामोशी से चबूतरे पर पहुँचते और मूँढे पर डट जाते। पोस्ट मास्टर ‎साहब के चेहरे पे बशाशत की एक ख़फ़ीफ़ सी लहर दौड़ जाती और फिर अख़बार का पहला सफ़ा उनके ‎हाथ में थमा देते। अख़बार पढ़ने के दौरान ही में दुकान से ननवा की आवाज़ आती। मुखत्यार साहब अपनी ‎जलेबियाँ ले लो। और मुख़तार साहब मूँढे से उठकर दो नाले आते। मूँढे पे फिर बैठते। दोने से जलेबियाँ ‎खाते और दोना चबूतरे से बाहर फेंक कर जहाँ बिलउमूम एक बदरंग काला कुत्ता उसका मुंतज़िर होता। वो ‎फिर अख़बार का सफ़ा उठा लेते। फिर इतने में अंदर से मनी निकल कर आती और कहती, “मामूँ जान ‎अम्मी जान कह रई एं नाश्ता कर लीजिए।” पोस्ट मास्टर साहब ख़ुशी से उठ खड़े होते, अंदर जाकर नाश्ता ‎करते और फिर बैठते।

    अख़बार पढ़ते पढ़ते बिलउमूम दोनों की आँखें ब-यक-वक़्त थकतीं। पोस्ट मास्टर साहब ऐनक उतार के ‎सामने खड़ी चारपाई पे रख देते और आसमान को तकने लगते। ताँबा सा आसमान, धूप से चमकते हुए ‎सफ़ेद-सफ़ेद बादल जो आहिस्ता-आहिस्ता तैरते रहते। इतनी आहिस्ता गोया अब रुके और अब थमे और ‎फिर हौले हौले उनकी शक्लें बदलतीं। अफ़्रीक़ा का जुनूबी हिस्सा, ख़लीज का बंगाल, लोमड़ी। पोस्ट मास्टर ‎साहब बड़ी आहिस्तगी से गोया अपने आप से कह रहे हों। कहने लगते, “बड़ी घमस है। मीना पड़ेगा।”

    और मुख़तार साहब हौले से गोया अपने आपको जवाब दे रहे हों बोल उठते। “इस वक़्त बारिश हो गई तो ‎फ़स्ल बड़ी अच्छी हो जाएगी।

    फिर ख़ामोशी छा जाती। पोस्ट मास्टर साहब इसी तरह आसमान को तकते रहते। और मुख़तार साहब ‎ऊँघने लगते। आँखें बंद होने लगतीं, सर झुकने लगता और फिर अचानक चौंक पड़ते। उनका हाथ चेहरे ‎की तरफ़ उठ जाता। “इस दफ़ा इतनी मक्खियाँ जाने कहाँ से गई हैं।”

    और जवाब में पोस्ट मास्टर साहब बड़बड़ाने लगते। “दिन को मक्खियाँ, रात को मच्छर। एक पल को नींद ‎नहीं आती... जान ज़ैक़ में है।”

    धूप रेंगती रेंगती चारपाई की पाँयती से लगती। मुख़तार साहब बड़बड़ाते हुए उठ खड़े होते, “तपिश हो ‎गई।”

    पोस्ट मास्टर साहब मूँढे उठाकर दालान में डालते, फिर चारपाई और हुक़्क़ा उठाकर दालान के अंदर वाली ‎कोठरी में ले जाते, फिर अन्दर जाते। बेवा बहन खाना सामने लाकर रख देती। ख़ामोशी से खाना खाते और ‎कोठरी में जाके सूराते।

    मुख़तार साहब ख़ाली हाथ ही आते थे और ख़ाली हाथ ही जाते थे मगर भुट्टों के ज़माने में कभी-कभी ऐसा ‎भी हुआ कि वो चलते चलते खेत से तीन चार भुट्टे तोड़ लाते और जब मणि बाहर आती तो उसके हाथ में ‎थमा देते। फिर जाड़ों में एक दो मर्तबा उन्होंने रस के घड़े भी भिजवाए थे। शायद उसकी ख़ैर की तक़रीब ‎ही से उन्हें अंदर जाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ था। मुख़तार साहब ऐसे बुज़ुर्ग सही मगर बुज़ुर्गों वाली संजीदगी ‎चेहरे पे चली थी। कनपटी के आस-पास के बाल ख़ासी तादाद में सफ़ेद हो गए थे। सर के आगे के बाल ‎उड़ जाने की वजह से पेशानी ख़ासी कुशादा हो गई थी और होती चली जा रही थी। मुख़्तसर ये कि वो बूढ़े ‎तो नहीं हुए थे मगर बुढापे का दो-राहा ही कहना चाहिए। इस उम्र में बिरादरी के मर्दों से बिलउमूम पर्दा ‎उठ जाया करता है। फिर भी मुख़तार साहब जब भी अंदर आए, रुक़य्या इक ज़रा घूँघट निकाल लेती थी। ‎उस वक़्त वो मशीन पर कपड़े सी रही थी। मुख़तार साहब को आते देखकर उसने हाथ रोका और आहिस्ता ‎से घूँघट निकाल लिया।

    ‎“अजी आपको मुबारक हो। अकेले ही अकेले बेटी का ब्याह कराए। हमें झूटों भी ना पूछा।”

    रुक़य्या ने शादी का ज़िक्र बड़ी गर्म-जोशी से छेड़ा था। मगर मुख़तार साहब ने बड़ी मुर्दादिली से जवाब ‎दिया। “अजी ब्याह व्याह काहे का है। चार बोल निकाह के पढ़ गए। बस ठीक है।”

    ‎“ए वाह ये बचने का अच्छा बहाना है।” रुक़य्या ने उसी जोश से बात की। “ना मुख़तार साहब हम ना मानेंगे। ‎ब्याह में बुलाया तो अब मुँह मीठा भी करोगे।” और मुँह मीठा करने की बात करते हुए उन्होंने ‎यकायक सवाल किया। “अजी जहेज़ में क्या-क्या दिया?”

    ‎“जहेज़? क्या था जहेज़ वहेज़... कौन सा छकड़ा भर के सोना दे दिया?”

    ‎“ए है ये क्या बात हुई। छकड़ा भर के सोना तो राजा महाराजा भी नहीं देते। अल्लाह रखे बाप साहिब-ए-‎जायदाद है। भइया भी कमा रहा है। जहेज़ क्या ऐसा वैसा होगा... और हाँ महर कितने का बंधा?” रुक़य्या ने ‎जहेज़ की बात करते करते एक और सवाल कर डाला।

    ‎“जहेज़?” मुख़तार साहब सट पटाए और फिर उसी बे-एदतिनाई से बोले। “बी-बी मुझे तो महर वहर का ‎पता नहीं।”

    ‎“ए लो कैसे बेटी के बाप हैं। आप को महर का पता नहीं है?” रुक़य्या ने ताज्जुब का इज़हार ज़रूर किया ‎लेकिन उसे कोई ख़ास ताज्जुब नहीं हुआ था। बीवी बच्चों से मुख़तार साहब की बे-एदतिनाई कोई ढकी ‎छिपी बात तो नहीं थी। ये बे-एदतिनाई कोई नई थी। उनकी उम्र उतनी ही थी जितनी उनकी शादी की। ‎माँ बाप ने शादी कर दी। उन्होंने शादी करली। शादी के ख़िलाफ़ तो उन्होंने एहतिजाज किया और ‎उसके बारे में गर्मजोशी दिखाई। सहरा बंध गया, दुल्हन घर में गई और बे-एदतिनाई बरक़रार रही। ‎शादी के शुरू के ज़माने में बीवी बे-शक घर ही में रही थी मगर जब बच्चों ने होश सँभाला तो उन्होंने अपने ‎आपको नाना के घर में पाया। अलबत्ता बड़े लड़के ज़ाहिद के ज़ह्न में बाप के घर का एक धुँदला सा नक़्शा ‎ज़रूर मौजूद था। मुख़तार साहब को तो बीवी से कोई ख़ास रग़बत थी ना औलाद का चाव पैदा हुआ। हर ‎महीने बाक़ायदगी से ख़र्च ज़रूर भेज देते थे। मगर ख़ुद कभी महीनों भी जाके नहीं भटकते थे। तीज ‎त्यौहार के मौक़े पर जाते भी तो ब-तौर मेहमान। अपनी औलाद की तक़रीबों में हमेशा इस अंदाज़ से ‎शिरकत की जैसे रिश्तेदारों की तक़रीबात में शरीक होते हैं और औलाद बल्कि ख़ुद बीवी भी कुछ यही ‎समझती कि कोई रिश्तेदार आया हुआ है। दो-चार दिन टिकते और बग़ैर किसी वजह के चल खड़े होते। ‎बीवी से ज़ोर शोर की लड़ाई कभी नहीं हुई। बा-हमी कशीदगी ख़फ़गी की हद से कभी आगे नहीं बढ़ी और ‎अब वो बे-एदतिनाई की शक्ल में मुस्तक़िल हो कर रह गई थी। बीवी बाप के घर को अपना घर समझती थी ‎और जवान औलाद के साथ ख़ुश थी। मुख़तार साहब बीवी से कोसों दूर अपने शहर में अकेले मकान में ‎मुत्म”इन थे और किसी दूसरे वजूद की ज़रूरत महसूस नहीं करते थे। गाड़ी के दोनों पहिए अपनी अपनी ‎राह चल रहे थे और बग़ैर किसी हादसे के ख़दशे के जब कोई काज होता तो मुख़तारनी, ज़ाहिद से कह ‎देतीं कि “बेटा अपने बाप को भी ख़त लिख दे और हाँ ये भी लिख दीजो कि अब के रुपये ज़्यादा भेजें।”

    बेटी की शादी के रुक़्क़े पर भी यही हुआ। ज़ाहिद ने शादी की तारीख़ों से इत्तिला दे दी थी। मुख़तार साहब ‎शादी से दो दिन पहले पहुँच गए थे, ये अलग बात है कि बाहर वालों ने ब्याह के घर में सबको चलते-फिरते ‎लपकते झपकते देखा, और नहीं देखा तो मुख़तार साहब को। बारात का इस्तिक़बाल करने वालों की ‎क़ियादत दुल्हन के नाना कर रहे थे। दूल्हे के बाप ने कई मर्तबा मुख़तारनी से तक़ाज़ा भी किया कि “अजी ‎हमारे समधी कहाँ हैं।” मुख़तारनी ने हर मर्तबा यही जवाब दिया कि “यहीं कहीं होंगे मगर एक मर्तबा जल ‎कर कह ही दिया कि “अजी वो तो मानस गंद हैं, कहीं कोने बिचाले में अलग पड़े होंगे।” मगर दरअस्ल वो ‎उस वक़्त किसी कोने बिचाले में नहीं थे। जिस किसी का बावर्ची-ख़ाने में गुज़र हुआ, उसने एक संजीदा ‎सूरत अधेड़ उम्र के शख़्स को मूँढे पे ग़म मथान बने हिस्से की ने होंटों में दबाए देखा। ये उन्हें निकाह के ‎वक़्त पता चला कि ये बेटी के बाप हैं। निकाह के बाद मुख़तार साहब फिर ग़ायब हो गए और रुख़्सती के ‎वक़्त तक किसी को नज़र नहीं आए। मुख़्तसर ये कि मुख़तार साहब ने शादी ख़ुद नहीं देखी, रुक़य्या को ‎क्या बताते और क्या हाल सुनाते। उसका ज़ौक़-ए-जुस्तजू प्यासा ही रहा। उसने हार कर शादी के ‎मुताल्लिक़ पूछ-गछ ही ख़त्म कर दी और दूसरी बात शुरू कर दी।

    ‎“मुख़तार साहब अब बेटी का बोझ उतर गया है। अब बेटे का भी ब्याह कर डालिए। बहुत कमाई खाई ‎आपने उसकी।” दरअस्ल ये ज़िक्र रुक़य्या को शादी का तमाम अहवाल सुनने के बाद छेड़ना चाहिए था, ‎मगर मुख़तार साहब की तरफ़ से मायूस हो कर उसे चंद बातों के बाद ही ये ज़िक्र छेड़ देना पड़ा। मुख़तार ‎साहब ने इस पर भी ऐसी गर्मी का इज़हार नहीं किया। क़दरे बेज़ारी से बोले, “अजी हम कौन ब्याह करने ‎वाले, ख़ुद ब्याह करेंगे।”

    रुक़य्या ने बात को दूसरा ही रंग दे दिया। कहने लगी। “हाँ... असली बोझ तो बेटी का होता है। बेटों का क्या ‎है। लड़का लायक़ हुआ अच्छी लड़की हर वक़्त मिल जाती है।”

    रुक़य्या ने मुख़तार साहब के इस अफ़्सुर्दगी आमेज़ बेज़ार-कुन अंदाज़ को मवाक़िफ़ मतलब नहीं पाया था। ‎लेकिन बाद में वो इससे ऐसी मानूस हुई कि मुख़तार साहब जब भी अंदर आते। वो अदबदा के उनके बीवी ‎बच्चों का ज़िक्र छेड़ती। कभी कहने लगती “अजी अब आप बेटी को कब बुलवा रहे हैं। ससुराल में उसका ‎जी घबराता होगा। पहली दफ़ा छुटी है।”

    मुख़तार साहब बड़ी सर्द-मेहरी के साथ आहिस्ता से कहते, “आ जाएगी।” और फिर चुप हो जाते।

    फिर रुक़य्या ज़ाहिद की शादी का ज़िक्र छेड़ देती। “अजी हमने सुना है कि आप के ज़ाहिद की मंगनी हो ‎रही है।”

    ‎“हो रही होगी, उसकी माँ जाने,” मुख़तार साहब उसी सर्द-मेहरी के साथ आहिस्ता से कहते और फिर ‎ऊँघने लगते।

    रुक़य्या फ़ौरन बोलती। “अजी ये क्या बात कही आपने कि उसकी माँ जाने। आख़िर आप भी तो बाप हैं। ‎बाप क्यों जाने।”

    मुख़तार साहब ठंडी साँस भरते हुए कहते। “अजी कौन बाप वाप। हम किसी के बाप हमारी कोई ‎औलाद।”

    ‎“ए लो ये अच्छी रही।” और रुक़य्या को एक अजीब सी नामालूम क़िस्म की आसूदगी महसूस होती।

    मुख़तार साहब का अंदर का आना जाना रोज़ बढ़ता ही गया। लेकिन इतनी आहिस्तगी से कि उसका ‎एहसास तो पोस्ट मास्टर साहब को हुआ रुक़य्या को और ख़ुद उन्हें। अख़बार पढ़ते-पढ़ते वो ‎आहिस्तगी से हुक़्क़े की ने होंटों में दबा लेते। निगाहें अख़बार से हट कर सामने वाली दीवार पर जम जातीं, ‎आहिस्ता-आहिस्ता हुक़्क़े का घूँट लेते, दीवार पे नज़रें जमी रहतीं और किसी गहिरी सोच में डूब जाते। ‎अचानक मनी किसी तरफ़ से खेलती हुई निकलती और वो ख़्यालात की रौ को एक तरफ़ झटक कर ‎सवाल करते, “बेटी तेरी माँ क्या कर रही है।” और जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर इसी तरह हाथ में अख़बार ‎लिए हुए उठते और आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाते हुए अंदर चले जाते। रुक़य्या का वो पहले वाला हिजाब ‎ख़त्म हो चुका था। घूँघट छोटा होते होते बिलकुल ख़त्म हो चुका था। हाँ सर खुला होता और वो अक्सर खुला ‎होता था तो मुख़तार साहब को देखकर ढक लिया जाता। फिर रफ़्ता-रफ़्ता एहतियात सीने तक महिदूद हो ‎कर रह गई। रुक़य्या का जिस्म ढल गया था। लेकिन ढलता हुआ दिन भी अपना अलग हुस्न रखता है। रोटी ‎पकाते हुए जब उसके नीम बरहना बाज़ू गर्दिश करते थे तो साफ़ पता चलता था कि उनकी गोलाई ज़ाइल ‎हो चुकी है। मगर इन ढलते हुए गोरे बाज़ुओं से एक अजब हलावत की कैफ़ीयत पैदा होती थी। मुख़तार ‎साहब की निगाहें कभी-कभी बे-ध्यानी से उन पर जा पड़ती थीं मगर फ़ौरन ही झुक जाती थीं।

    मुख़तार साहब ने इस हद तक एहतियात हमेशा बरती कि चौखट में क़दम रखने से पहले ख़ंकार देते थे। ‎रुक़य्या चूल्हे पर रोटी पकाने इस अंदाज़ से बैठती थी कि दुपट्टा सामने वाली खूँटी पर टांगा, आसतीनें ‎कहनी से ऊपर बाज़ुओं तक चढ़ाईं और फिर आटे के पेड़े बनाने शुरू कर दिए। चूल्हे के सामने ज़रा देर ‎बैठने से चेहरा तमतमाने लगता। कोई लट बिखर कर रुख़्सार पे पड़ती। और पसीने से चिपक जाती। ‎भरी-भरी पुश्त ऐसी भीग जाती कि कुरता उसपे चिपकने लगता। मुख़तार साहब की ख़ंकार सुनकर वो ‎जल्दी से खूँटी से दुपट्टा उतारती और बरा-ए-नाम सर पर डाल लेती मगर इस एहतियात से कि कम अज़ ‎कम सीना ज़रूर ढक जाये। मुख़तार साहब अंदर दाख़िल होते ही ये सवाल करते।

    ‎”मनी की माँ क्या पका लिया?”

    ‎“अजी उर्द की दाल पकाई है।”

    ‎“उर्द की दाल। बी-बी ये दालों का मौसम नहीं है... अच्छा कल हम करेले लाके देंगे।”

    और दूसरे दिन जब मुख़तार साहब आते तो साथ में सेर डेढ़ सेर हरे-हरे करेले लाते। दरअस्ल अब हर ‎दूसरे तीसरे दिन मुख़तार साहब के खेतों से कोई हरी गीली चीज़ पोस्ट मास्टर साहब के यहाँ पहुँचने लगी ‎थी। पोस्ट मास्टर साहब जैसे ख़ुश्क थे वैसे ही ख़ुश्क उनका सहन नज़र आता था। लेकिन अब कभी ख़र ‎बूज़ों के बीच और छिलके बिखरे नज़र आते। कभी भिंडियों की फिरकनी जैसी जड़ें, कभी तुरई की छीलन, ‎कभी भुट्टों के छिलके और कभी-कभी आमों की ज़र्द ज़र्द गुठलियाँ।

    मुख़तार साहब और पोस्ट मास्टर साहब चबूतरे पर अब भी उसी तरह ग़म मथान बने बैठे रहते। पोस्ट ‎मास्टर साहब अख़बार पढ़ते-पढ़ते थक जाते और ऐनक उतारते हुए ज़ोर से जमाही लेते और मुख़तार ‎साहब अख़बार हाथ में लिए लिए ऊँघने लगते। लेकिन फिर खट से अख़बार उनके हाथ से गिर पड़ता और ‎वो चौंक पड़ते। कभी-कभी यूँ लगता कि मुख़तार साहब और पोस्ट मास्टर साहब की जगह उनके दो बुत ‎रखे हैं। फिर एक बुत में हरकत होती और हुक़्क़े की ने की तरफ़ हाथ बढ़ता। चिलम ठंडी हो गई। पोस्ट ‎मास्टर साहब बड़बड़ाते और मुख़तार साहब चिलिम उठाकर आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाते हुए अंदर ‎चले जाते।

    अंदर पहुँच कर मुख़तार साहब का अंदाज़ अब बदल भी जाया करता था। वो हूँ हाँ करते-करते अचानक ‎बातें करनी शुरू कर देते और करते चले जाते, फसलों की ख़राबी, बारिश की कमी, किसानों की शरारतें, ‎गेहूँ की महंगाई... जाने किस-किस मौज़ू पर वो गुफ़्तगु करते और रुक़य्या हर गुफ़्तगु को पूरी यकसूई से ‎सुनती। जिस शौक़ से वो ये ख़बर सुनती कि इस मर्तबा ख़रबूज़ों की फ़स्ल अच्छी है, उसी इन्हिमाक से ये ‎बात सुनती कि अगले बरस मुख़तार साहब के रहट के लिए बैलों की नई जोड़ी ख़रीदी जाएगी। वाक़िया यूँ है ‎कि अब रुक़य्या की वीरान मिज़ाजी में भी फ़र्क़ चला था। घर के दर-ओ-दीवार अब भाँय-भाँय नहीं ‎करते थे और आँगन ख़ाली-ख़ाली दिखाई नहीं देता था। महज़ इस वजह से नहीं कि मुख़तार साहब के खेतों ‎से आई हुई तर्कारियों के छिलके जा-बजा बिखरे रहते थे बल्कि इस वजह से भी कि मुख़तार साहब अक्सर ‎औक़ात ख़ुद इस आँगन में चूल्हे के क़रीब ही मूँढे पे बैठे नज़र आते थे। “अरे मिहतरानी तेरी बेटी का गोना ‎कब हो रहा है।”

    ‎“बतूलन तेरा धोबी अब तुझसे लड़ता तो नहीं है।”

    ‎“बी-बी ज़रा दो-घड़ी बैठ जा में अकेली हूँ। कम्बख़्त अकेले घर में दम उल्टने लगता है।”

    अब इस अंदाज़ की बातें करने की ज़रूरत ख़ासे दिनों से पेश नहीं आई थी। एक हाथ मशीन के हत्थे पे है। ‎मनी के फ़्राक पे बख़िया हो रही है, निगाहें सूई पे जमी हुई, और ज़बान ज़ाहिद की मुतवक़्क़े शादी के ज़िक्र ‎में मसरूफ़ है। फ़्रॉक का कपड़ा देखकर मुख़तार साहब को उस कपड़े का भाव पूछने का ख़्याल आता ‎और फिर वो कपड़े की महंगाई पर तफ़सील से गुफ़्तगु करनी शुरू कर देते। चूल्हे पे बैठे-बैठे रुक़य्या को ‎किसी अजनबी सी तरकारी बहुत कम इस्तेमाल होने वाले साग के मुताल्लिक़ ख़्याल जाता कि अब के ‎बरस उसकी सूरत नहीं देखी। मुख़तार साहब सुनते और दूसरे दिन उस तरकारी का ढेर का ढेर ला के रख ‎देते। अरवियों की पत्तियों का रुक़य्या को इसी अंदाज़ से ख़्याल आया था और दूसरे दिन चूल्हे के बराबर ‎सैनी में अरवी के उबले के सब्ज़ पत्तों की थई की थई रखी हुई थी।

    मुख़तार साहब को अरवी के तले हुए पत्तों से क्या, किसी भी खाने की चीज़ से ऐसी वा-बस्तगी थी लेकिन ‎चूँकि रुक़य्या ने अपने हाथ से तले हुए पत्तों की तारीफ़ की थी और ख़ास तौर पर उन्हें चखने की दावत दी ‎थी और फिर कुछ सही अंदर जाने और बातें करने का एक बहाना तो था ही, इसलिए उन्होंने अच्छी तरह ‎हुक़्क़ा भी तो नहीं पिया और उठकर अंदर चले आए। रुक़य्या को उनकी आहट की ऐसी पहचान हुई थी ‎कि उनकी ख़ंकार सुनते ही उसे पता चल जाता था कि मुख़तार साहब रहे हैं। सैनी में अरवी के पत्ते फैले ‎रखे थे। कूँडे में मत्था हुआ बेसन रखा था। चूल्हे में आग तेज़ थी और कढ़ाई में तेल कड़कड़ बोल रहा था। ‎रुक़य्या ने हसब-ए-दसतूर दुपट्टा उतार चूल्हे के पीछे वाली खुंटी पे डाल रखा था। मुख़तार साहब की ‎आहट पर वो चूंकि और हड़-बड़ा कर खूंटी की तरफ़ हाथ बढ़ाया। चूल्हे की आग तेज़ थी। उठते हुए शोलों ‎ने लटकती हुई आसतीन को छू लिया। रुक़य्या के औसान ख़ता हो गए। और मुँह से एक चीख़ निकली। ‎मुख़तार साहब ख़ंकारना वख़ारना भूल, जल्दी से अंदर चले आए। तुरत-फ़ुरत उन्होंने आग बुझाई। आग ‎ऐसी ज़्यादा तो नहीं लगी थी। बस आसतीन जली थी और पूरे बाज़ू पे सुर्ख़-सुर्ख़ आबले पड़ गए थे। मगर ‎रुक़य्या के हवास ऐसे गुम हुए थे कि सुध-बुध की ख़बर रही। मुख़तार साहब कहने लगे “कोई बात नहीं ‎है। अभी ठीक हो जाएगी। चूल्हे से उठ जाओ।” रुक़य्या चूल्हे से उठकर चारपाई पे बैठी, पास ही ‎पानदान रखा था। मुख़तार साहब ने जल्दी से पानदान खोल हथेली पे सारा चूना उलट रुक़य्या के बाज़ुओं पे ‎मल दिया। जहाँ-जहाँ आबले नज़र आए वहाँ-वहाँ ख़ूब लेप कर दिया और फिर बोले कि बस अब आराम ‎करो। अल्लाह ने चाहा तो थोड़ी देर में बाज़ू बिलकुल ठीक हो जाएगी और मुख़तार साहब ख़ुद उठकर ‎बाहर चले गए। मुख़तार साहब दूसरे दिन हसब-ए-दस्तूर अपने वक़्त पे आए, जलेबियाँ खाईं, अख़बार ‎पढ़ने लगे, हुक़्क़े के दो एक घूँट लिए। फिर उन्हें ख़्याल आया कि कल रुक़य्या का बाज़ू जल गया था और ‎इस ख़्याल के साथ वो उठकर हमेशा की तरह आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाते हुए ज़नान ख़ाने की तरफ़ ‎चले गए।

    रुक़य्या उस वक़्त चौकी पर बैठी सीने की मशीन चला रही थी। मुख़तार साहब की आहट सुनकर उसने ‎शाने पर बाक़ायदगी से दुपट्टे को सरका कर सीने तक नीचा किया और फिर मशीन चलाने में मसरूफ़ हो ‎गई। उल्टे हाथ की आसतीन बग़ल के क़रीब तक चढ़ी हुई थी और उस पर चूने का लेप जो अब ख़ुश्क हो ‎चुका था। इसी तरह चढ़ा हुआ था। मुख़तार साहब पूछने लगे, “कोई तकलीफ़ तो नहीं होती अब?”

    ‎“नहीं,” रुक़य्या ने मशीन चलाते-चलाते कहा।

    ‎“अजी ये तो तेज़ ब-हदफ़ ईलाज है। कैसा ही आदमी जल जाये चूना लगाइये बस फ़ौरन ठंडक पड़ जाती ‎है।”

    ‎“अजी अल्लाह ने ख़ैर ही कर दी।” रुक़य्या कहने लगी। “मैं तो समझी कि बस में जल ही गई।”

    ‎“हाँ बुरा वक़्त आते देर नहीं लगती। ख़ैर आज बाज़ू को धो डालना, कोई फ़िक्र की बात नहीं है।”

    रुक़य्या ने सूई का उलझा हुआ धागा दुरुस्त किया और फिर मशीन चलानी शुरू कर दी।

    मनी बहुत देर से चुपकी बैठी बातें सुन रही थी। बाज़ू के सफ़ेद लेप को देखकर पूछने लगी, “अम्मी जी ‎आपके ये भभूत मला किस ने है?”

    रुक़य्या इस सवाल पर कुछ चौंक सी पड़ी। मशीन के हत्थे को घुमाता हुआ हाथ रुक गया। उसने बाज़ू को ‎देखा और जल्दी से दुपट्टा का आँचल उसपे डाल लिया। मुख़तार साहब की अख़बार पे जमी हुई आँखें ‎ऊपर उठ गईं। रुक़य्या की घबराई हुई आँखें मुख़तार साहब की आँखों से बस एक लम्हा के लिए लड़ी ‎होंगी और फिर मशीन की सूई पर झुक गईं। मशीन तेज़ी से चलने लगी। कानों की लवें लाल पड़ गईं। एक ‎लट सुर्ख़ होते हुए रुख़्सार पर पड़ी और चूने से लिपे हुए पूरे बाज़ू में एक सनसनी सी दौड़ गई। मुख़तार ‎साहब की नज़रें फिर अख़बार पर जम गईं थीं। मगर शायद वो कोई ख़ास ख़बर नहीं पढ़ रहे थे। चूने के ‎लेप करने का पूरा अमल उनकी आँखों के सामने फिर गया और उनकी उंगलियों में एक नरम और शीरीं ‎सी कैफ़ीयत मन्मनाती हुई सी महसूस हुई। वो चंद मिनट तक अख़बार पे नज़रें जमाए बैठे रहे और फिर ‎ख़ंकार के आहिस्तगी से उठे और इधर-उधर देखे बग़ैर बाहर चले गए।

    एक सुरूर की कैफ़ीयत ,कुछ शर्मिंदगी सी, एक नदामत का सा एहसास, इसी के साथ एक अजीब किस्म ‎की मुसर्रत, तबीयत में आहिस्ता-आहिस्ता पैदा होती हुई एक महक, उंगलियों और मुट्ठियों में शीरीनी सी ‎घुलती हुई, पोरों में नरमी और गर्मी की किसी अजीब से इमतिज़ाज को छूने का एहसास, मुख़तार साहब ‎अजब आलम में घर पहुँचे। रस्ता कैसे कटा, किन-किन गलियों से वो निकल कर आए, किस दुकानदार ने ‎उन्हें सलाम क्या, किसी बात का उन्हें पता चला। हाँ मगर घर पहुँच कर ये पूरी कैफ़ीयत पल-भर में ‎ज़ाइल हो गई। ज़ाहिद बिलकुल ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर आया था। बेटे को देखकर वो ख़ुश हुए हों या हुए ‎हों। हैरान बहुत हुए।

    ‎“मेरा तबादला हो गया है। बुआ जी बीमार हैं, घर पे उनकी कोई ख़बर लेने वाला नहीं है। आप थोड़े दिनों ‎को वहाँ चले चलें।”

    ‎“मैं... मगर मैं तो...” मुख़तार साहब से जवाब ना बन पड़ा। “घर अकेला... हाँ फ़स्ल तैयार खड़ी है।”

    ज़ाहिद बिगड़ कर बोला। “देखा जाएगा फ़स्ल वस्ल का... आख़िर घर पे कोई तो देख-भाल करने वाला हो।”

    रुक़य्या रात करखरी चारपाई पे बहुत देर तक करवटें बदलती रही। एक अजब सा इज़तिराब एक मुबहम ‎ख़ौफ़ और इस ख़ौफ़ और इज़तिराब की तह से उभरती हुई हसरतें जिस्म में सुलगने की धीमी धीमी ‎कैफ़ीयत बेदार हो चली थी। जिस्म जो सो चुका था उस जिस्म को सुलाने के लिए उसे किस-किस कर्ब से ‎गुज़रना पड़ता था और तरसती हुई तबीयत पे कैसे-कैसे जब्र करने पड़ते थे और जब जिस्म सो गया तो उसे ‎ये भी याद रहा कि वो कभी बेदार भी था। चूल्हे की आग बिलकुल ठंडी नहीं हुई थी, राख अंदर से गर्म ‎निकली। उसे दस साल पहले की बीती बातें फिर याद रही थीं, मगर एक धुँदला सा ख़्वाब बन कर। कई ‎मर्तबा उसका जी चाहा ये ख़्वाब, इस ख़्वाब का कोई मंज़र फिर ज़िंदा हो जाये मगर फिर उसका जी डूबने ‎लगा और एक मलाल और अफ़्सुर्दगी की कैफ़ीयत उसके ऊद करते हुए जज़्बे पर छाती चली जाती।

    सुबह को जब वो सोकर उठी तो उसपे ख़ुद मुलामती की कैफ़ीयत तारी थी। रात के परागंदा ख़्यालात का ‎जब उसे ध्यान आता तो शर्म से पानी-पानी हो जाती और अपने आप पर नफ़रीन भेजने लगती। उसने पूरी ‎कोशिश से उन ख़्यालात को अपने ज़हन से ख़ारिज किया, उल्टे बाज़ू को जिसे वो कल भी धो चुकी थी, एक ‎मर्तबा फिर धोया। बाज़ू ठीक हो गया था। बस कहीं कहीं दुखन बाक़ी थी। घड़ौंची पे से कल की ख़रीदी हुई ‎तुरइआँ उठाईं और हंडिया के लिए उन्हें छीलने बैठ गई। इस वक़्त उसकी ज़हनी हालत तक़रीबन मामूल ‎पर गई थी। एक दफ़ा यूँ ही बे-ध्यानी में उसे ख़्याल आया भी कि मुख़तार साहब अब बैठे होंगे और ‎अख़बार पढ़ रहे होंगे, मगर फिर फ़ौरन ही उसने इस ख़्याल को ज़हन से ख़ारिज कर दिया और तुरइआँ ‎ज़्यादा इन्हिमाक से छीलने लगी।

    इतने में पोस्ट मास्टर साहब एक छोटी सी गठड़ी लिए अंदर आए और चारपाई पे रखते हुए बोले। “ये ‎अम्बीयाँ मुख़तार साहब के घर से आई हैं और वो तो गए हुए हैं।”

    ‎“गए हुए हैं? ... कहाँ?” रुक़य्या ने तुरई छीलते-छीलते पोस्ट मास्टर साहब की तरफ़ नज़र उठाई।

    पोस्ट मास्टर साहब आहिस्ता से बोले। “मुख़तार साहब की अहलिया बीमार है। उनका बेटा आया था। साथ ‎ले गया है। थोड़े दिन वो वहीं रहेंगे।”

    चाक़ू तुरई पे चलते-चलते रुक गया। रुक़य्या पोस्ट मास्टर साहब को तकने लगी। फिर फ़ौरन ही उसकी ‎नज़रें अपने हाथ की तुरई पे उतर आईं और चाक़ू आहिस्ता-आहिस्ता चलने लगा... “मनी“ वो आहिस्ता से ‎बोली... “जी अम्मी जी।”

    ‎“मनी... ये अंबियें अंदर दालान में रख दो।” रुक़य्या की आवाज़ में उदासी की एक ख़फ़ीफ़ सी धारी शामिल ‎थी।”

    तुरइआँ फिर छीलने लगीं। चाक़ू आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा था।

    पोस्ट मास्टर साहब बाहर आकर फिर मूँढे पे बैठ गए। दूसरा मूँढा ख़ाली पड़ा था। उन्होंने अख़बार ख़ाली ‎मूँढे पे रख दिया और हुक़्क़े की ने होंटों में ले ली मगर चिलम ठंडी हो चुकी थी। हुक़्क़े की ने उन्होंने एक ‎तरफ़ की, ऐनक की डिबिया से ऐनक निकाल कर लगाई, मूँढे पे रखे हुए अख़बार के पेज का सफ़ा ‎आहिस्ता से निकाला और पढ़ी हुई ख़बरों को एक-बार फिर देखना शुरू कर दिया।

    ‎ ‎

    स्रोत:

    (Pg. 176)

      • प्रकाशक: एजुकेशनल बुक हाउस, अलीगढ़

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