aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

उबाल

MORE BYउपेन्द्र नाथ अश्क

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे युवा लड़के की कहानी है, जो जवानी की तरफ़ बढ़ रहा है। वह जिस घर में काम करता है, उसके मालिक की हाल ही में शादी हुई है और वह उसे उसकी बीवी के साथ कई बार आपत्तिजनक हालत में देख लेता है। जब भी वह उन्हें ऐसी हालत में देखता है तो उसे अपने जिस्म में एक तरह का उबाल उठता महसूस होता है। एक रात वह शहर में घूमने निकल जाता है और घूमता हुआ एक रंडी के कोठे पर जा पहुँचता है।

    जब दूध उबल-उबल कर कोयलों पर गिरने लगा और शाँ... शाँ की आवाज़ के साथ एक तेज़ सी बू उठी तो चंदन ने हड़बड़ा कर पतीली की तरफ़ हाथ बढ़ाया। कोयलों की तपिश से सुर्ख़ हो रही थी। बे-बसी के अंदाज़ में चंदन ने जल्द-जल्द इधर-उधर देखा... कोई कपड़ा पास था। उसने चाहा, पानी का छींटा ही दे-दे, लेकिन लोटे के पानी में अभी-अभी उसने आटे वाले हाथ धोए थे। दूध उबल रहा था और जली हुई झाग की बू कमरे में फैलने लगी थी। अंदर उसके मालिक और माल्किन आपस में आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रहे थे। बे-बसी के इस लम्हे में चंदन के बढ़े हुए हाथ और आगे बढ़ गए और लहज़ा भर में तपती-जलती पतीली खट से फ़र्श पर गई। चंदन की उँगलियों की पूरें जल गईं, उबलता हुआ दूध उसके हाथों पर गिर गया और जलन की वजह से उसके होंटों से बे-साख़्ता एक 'सी' निकल गई।

    पतीली को खट से फ़र्श पर रखते हुए थोड़ा सा दूध फ़र्श पर भी गिर गया था। उसी आटे के पानी से उसने उसे धो डाला और उँगलियों की जलन को जैसे झटक कर उतारता हुआ वो ग़ुस्ल-ख़ाने की तरफ़ भागा। पानी की धार के नीचे हाथ रखे-रखे उसने सर को हल्का सा झटका दिया और मुस्कुराया। जब भी कभी उससे कोई बेवक़ूफ़ी सरज़द हो जाती थी, वो उसी तरह सर हिला कर होंटों के बाएं कोने में मुस्कुराया करता था और होंट कटे होने के बाइस उसके दाँत दिखाई देने लगते थे। बात यूँ हुई कि दूध को अँगेठी पर रख कर वो अपने मालिक और माल्किन की बातें सुनने में मह्व हो गया था। दिन काफ़ी चढ़ आया था और चंदन ने दोपहर के खाने के लिए आटा तक गूँध लिया था। लेकिन वो दोनों अभी बिस्तर ही में थे और कुछ ही देर पहले उसके मालिक ने वहीं से चंदन को चाय बनाने का हुक्म दिया था।

    इसने दूध की पतीली को अँगीठी पर रख दिया था और दरवाज़े की तरफ़ कान लगाए अपने मालिक और माल्किन की बातें सुनने लगा था। जब से उसके मालिक की शादी हुई थी वो देर से उठता था। इससे पहले वो अलस्सुबह उठने का आदी था। नूर के तड़के उठ कर वो चंदन को उठाता। मालिश करवाता। वर्ज़िश करता। बारहा सैर को भी जाता। लेकिन अब वो अपनी इस नई बीवी के साथ दिन चढ़े तक सोया रहता। जब जागता तो वहीं लेटे-लेटे उसे चाय बनाने का हुक्म दे कर अर्सा तक बीवी से बातें करने में मसरूफ़ रहता। चंदन को इन बातों में रस आने लगा था। वो बिस्तर पर लेटे-लेटे आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रहे होते, वो बैठा उन्हें सुनने की कोशिश क्या करता। आँच की तेज़ी के बाइस पतीली में दूध बे-तरह बल खा रहा था और चंदन उस तरफ़ से बे-ख़बर हमा-तन गोश अपने मालिक और माल्किन की बातें सुनने की कोशिश में मसरूफ़ था।

    में मजबूर हो जाता हूँ। तुम्हारे गाल ही ऐसे हैं...

    आपके हाथों का तो कोई क़सूर नहीं।

    इतने अच्छे हैं तुम्हारे गाल कि...

    जलने लगे हैं आपकी चपतों से।

    लो मैं उन्हें ठंडा कर देता हूँ।

    और चंदन को ऐसा महसूस हुआ, जैसे नर्म-ओ-नाज़ुक फूल रेशम के फ़र्श पर जा पड़ा हो। तसव्वुर ही तसव्वुर में उसने देखा कि उसके मालिक ने अपने होंट अपनी बीवी के गालों से चिपका दिए हैं। वहीं बैठे-बैठे उसका जिस्म गर्म होने लगा। उसके आ’ज़ा तन गए और तसव्वुर ही तसव्वुर में अपने मालिक की जगह उसने ले ली। हाथ धोकर उसने सर को फिर झटका दिया और होंटों के बाएं कोने से मुस्कुराता हुआ वो अंदर गोदाम में गया। उसने ज़रा-सा सरसों का तेल लेकर अपने हाथों की मैली, सियाह जलती हुई पुश्त पर इस जगह लगाया जहाँ जलन हो रही थीं। फिर जा कर वो बावर्ची-ख़ाने में बैठ गया और उसने चाय की केतली अँगीठी पर रख दी। लेकिन हाथ जलाने और अपनी उस मह्वियत पर दोबारा सर हिलाकर मुस्कुराने के बावजूद उसके कान फिर कमरे की तरफ़ जा लगे और उसका तसव्वुर अपनी तमाम यक-सूई के साथ उसके सामेआ की मदद पर हो गया और उसकी आँखों के सामने फिर कई तस्वीरें बनने और मिटने लगीं।

    चंदन! उसके आक़ा ने चीख़ कर आवाज़ दी और फिर कहा, वहीं मर गया क्या? आक़ा की आवाज़ सुन कर वो चौंका। जल्द-जल्द चाय और तोस तैयार करके अंदर ले गया। उसकी माल्किन और मालिक हस्ब-ए-दस्तूर बिस्तर पर पड़े थे। वो दोनों हम-आग़ोश तो थे, लेकिन फिर भी दोनों एक-दूसरे से लगे, तकिये के सहारे लेटे हुए थे। लिहाफ़ इन दोनों के सीने तक था और मालिक का बाज़ू अभी तक माल्किन की गर्दन के नीचे था।

    उधर रख दो!

    चंदन ने ट्रे तपाई पर रख दी। एक नज़र देख कर मालिक ने कहा, तुम्हें हो क्या गया है? दूध का जग कहाँ है?

    जी अभी लाया। और सर को एक-बार झटका दे कर होंटों के बाएं कोने से मुस्कुराता हुआ वो रसोई घर की तरफ़ भागा। दूसरे लम्हे उसने दूध का बर्तन लाकर रख दिया। लेकिन उसे फिर गालियाँ सुनना पड़ीं। क्योंकि दोबारा देखने पर मालिक को मालूम हुआ कि छलनी भी नहीं है। चंदन ने छलनी लाकर रख दी और लम्हे भर के लिए वहीं खड़ा रहा। उसकी दबी हुई निगाह अपनी माल्किन के चेहरे पर जा पड़ी... ख़ूबसूरत लम्बे खुले बालों की लटें उसकी गोरी पेशानी पर बिखरी हुई थीं। होंट सूखे होने के बावजूद गीले-गीले थे। मुस्कुराती सी आँखों में ख़ुमार की बारीक सी लकीर थी और चेहरे पर हल्का सा इज़्मिहलाल छाया हुआ था। उसके मालिक ने बड़े प्यार से कहा, चाय बना दो ना जान! लेकिन जान ने रूठे हुए करवट बदल ली।

    मैं कहता हूँ चाय पियोगी। उसे मनाते हुए मालिक ने कहा।

    मुझे नहीं पीनी चाय। गाल को मसलते हुए माल्किन ने जवाब दिया। गर्दन के नीचे का बाज़ू उठा और माल्किन अपने मालिक की आग़ोश में भिंच गई।

    क्या करते हो शर्म नहीं आती। चंदन का दिल धक-धक करने लगा और उसके मालिक का क़हक़हा कमरे में गूँज उठा।

    उठो ना बना दो चाय। मालिक ने बड़ी मुलायमियत से हाथ को ढ़ीला छोड़ते हुए कहा, तुम्हारे गाल ही ऐसे प्यारे हैं कि ख़्वाह-मख़्वाह उन पर चपतें लगाने को जी चाहता है। तड़प कर माल्किन ने फिर करवट बदल ली।

    चंदन तुम बनाओ चाय। शिद्दत-ए-एहसास से काँपते हुए हाथों से चंदन ने चाय की प्याली बनाई। प्याली उठा कर अपनी जान को आग़ोश में भींचे हुए उसके मालिक ने प्याली उसके होंटों से लगा दी। ये 'जान' का लफ़्ज़ था, या उसके मालिक का, उसके सामने बीवी को आग़ोश में लेने का तरीक़ा कि जब दोपहर को चंदन काम-काज से फ़ारिग़ होकर अपनी कोठरी में जा लेटा तो उसके सामने ज़ोहरा जान की तस्वीर खींच गई और उसने इज़्तिरारी तौर पर सरसों के तेल और मिट्टी में सुने हुए बे-ग़िलाफ़ के ख़स्ता और बोसीदा तकिए को अपनी आग़ोश में भींच लिया।

    अचानक उबल कर ऊपर आजाने वाले दूध की तरह, जाने ज़ोहरा की ये तस्वीर किस तरह उसके बचपन के गहरे दबे ग़ारों से निकल कर उसके सामने गई... वही बूटा सा क़द। भरा-भरा सा गुदाज़ जिस्म। बड़ी-बड़ी चँचल आँखें। पान की लाली से रंगे होंट। भरे कूल्हे। वही सीने का उभार और वही मुस्कुराहट जिसके मम्बा का पता ही चलता था कि आया पहले उसकी आँखों में शुरू होती है या होंटों पर। वो उस वक़्त बहुत छोटा था और माँ-बाप के मर जाने की वजह से अपनी मौसी के पास रहा करता था। उसकी ये मौसी एक सेठ के बच्चों की दाया थी। ये सेठ चावड़ी बाज़ार में ग्रामोफ़ोन और दूसरे साज़ों की दुकान करता था। उसी दुकान के साथ ज़ोहरा का चौबारा था और सेठ की दुकान के बाजे आहिस्ता-आहिस्ता चाँदी के सिक्के बन कर वहाँ पहुँचा करते थे।

    चंदन अपने बड़े भाई और पंडित जी के बड़े लड़के के साथ कभी-कभी ज़ोहरा के चौबारे पर चला जाता था। ज़ोहरा पंडित जी के लड़के को प्यार किया करती थी। मिठाई वग़ैरा देती थी और उसका कुछ जूठा हिस्सा उन दोनों भाइयों को भी मिला करता था। कई बार वो दूसरे बच्चों के साथ चौबारे के बाहर आँगन में खेल रहा होता और सेठ जी ज़ोहरा के पास जा बैठते। उसे आग़ोश में ले लेते या उसके ज़ानुओं पर सर रख कर लेट जाते। उसकी ये माल्किन भी तो ज़ोहरा से मिलती-जुलती थी। वैसा ही बूटा सा क़द। वैसे ही भरे-भरे कूल्हे। उमडी हुई छातियाँ। गोल-गोल रस भरे गाल। बड़ी-बड़ी आँखें और गीले होंट... कौन कह सकता है कि उस एक लम्हे में मालिक के पहलू में उसे लेटे हुए देख कर ही उसे ज़ोहरा की याद गई होती।

    तसव्वुर ही तसव्वुर में चंदन ज़ोहरा के बाला-ख़ाने पर पहुँच कर सेठ की तरह उसके ज़ानुओं पर लेट गया और ज़ोहरा प्यार से उसके बालों पर हाथ फेरने लगी... वो भूल गया कि उसके टख़नों तक मैल चढ़ी हुई है। ख़ुश्की के बाएस टाँगों की जिल्द घुटनों तक पपड़ी सी बन गई है। उसका नीला नेकर, जो उसके मालिक ने मुद्दत हुई दिया था, मैल से काला हो गया है। उसकी क़मीज़ कई जगह से फटी हुई है। उसके साँवले माथे पर चोट का एक निहायत बदनुमा दाग़ है। उसका निचला होंट कटा हुआ है और उसके सर के बाल छोटे-छोटे, खड़े-खड़े और रूखे हैं... वो मस्त लेटा रहा और ज़ोहरा उसके बालों पर हाथ फेरती रही... वहीं उसके ज़ानुओं पर लेटे-लेटे उसने करवट बदली और प्यार से कहना चाहा, ज़ोहरा तुम कितनी अच्छी हो... लेकिन उसकी कमर में कोई सख़्त सी चीज़ चुभी और उस वक़्त उसे मालूम हुआ कि वो नंगे फ़र्श पर लेटा हुआ है। वो चीज़ जिस पर उसका सर रखा है ज़ोहरा का ज़ानू नहीं बल्कि एक बोसीदा सड़ा-गला तकिया है।

    चंदन ने सर को झटका दिया, लेकिन वो मुस्कुराया नहीं। उठ कर दीवार के साथ पीठ लगा कर बैठ गया। बैठे-बैठे उसकी आँखों के सामने पिछले कई बरस उड़ते हुए से गुज़र गए। सेठ जी तो अपनी सब जायदाद चौबारों के हुस्न की नज़र करके अपने नाना के गाँव चले गए थे, जो वसत-ए-पंजाब में कहीं अपनी सादगी, ग़लाज़त और ना-ख़्वांदगी की गोद में लेटा हुआ था। चंदन की मौसी अलवर अपने गाँव चली गई थी और चंदन इस छोटी उम्र ही में तीन रूपये माहवार पर उन सेठ साहब के एक दोस्त के हाँ नौकर हो गया था। उसके बाद उसकी ज़िंदगी उस कंबल की तरह थी जिसे एक जगह से रफ़ू किया जाए तो दूसरी जगह से फट जाए, दूसरी जगह से सिया जाए तो तीसरी जगह से चाक हो जाए। अपने उस मालिक के हाँ पहुँच कर उसने सुख का साँस लिया था... और महसूस किया था कि ऐसा ज़िंदा-दिल, ख़ुश-मिज़ाज़... और खुली तबियत का मालिक गुज़श्ता बारह साल की नौकरी में उसे नहीं मिला। लेकिन उसके मालिक की ये खुली तबियत उसके लिए मुसीबत बन गई थी। उसका मालिक उसके सामने ही अपनी बीवी को प्यार करने में ज़रा भी झिझकता था। जैसे चंदन गोश्त-पोस्त का इंसान हवा-मिट्टी का लोंदा हो।

    चंदन ने सोचा उस शादी से पहले वो कितने इत्मीनान से रहता था। ये बे-चैनी सी, ये गर्मी-गर्मी सी, ये आ’ज़ा का तनाव सा, ये शब-बेदारी सी, उसने कभी महसूस की थी। पहले वो सोता था तो उसे दीन-दुनिया का होश रहता था। लेकिन जब से उसके मालिक ने शादी की थी और उसकी ये नई माल्किन आई थी, उसकी नींद उड़ सी गई थी। उसे अजीब-अजीब तरह के ख़्वाब आते थे... रात उसने कासनी को देखा था। कासनी उसके पहले मालिक की लड़की थी। कच्ची नाशपातियों की सी उसकी छातियाँ थीं। टख़नों से ऊँचा लहँगा और बंडी पहने वो नंगे सर घूमा करती थी। यही लड़की ख़्वाब में उसके साथ लेटी थी कैसे? कहाँ? उसे कुछ याद नहीं, लेकिन वो जाग उठा था। उसका जिस्म गर्म था। उसके आसाब तने हुए थे। उसे पसीना गया था... फिर वो सो सका था। कुछ भी समझ में आने से अपनी बेवक़ूफ़ी पर उसने सर हिलाया, लेकिन वो मुस्कुराया नहीं। उसका मालिक दफ़्तर गया हुआ था। माल्किन अंदर कमरे में गहरी नींद सोई हुई थी। वो उठा और पड़ोस में राय साहब के नौकर बैठो की कोठरी की तरफ़ चल पड़ा।

    चैत की पूर्णमाशी का चाँद बड़ के पीछे से आहिस्ता-आहिस्ता निकल रहा था। नौ-उम्र केकरी के पत्ते उसकी किरणों के लम्स से चमक उठे थे। चंदन आहिस्ता-आहिस्ता अपनी कोठरी से निकला। सामने कोठी के पोर्च पर फैले हुए वोगन बेलिया के सुर्ख़ गुल-अनारी फूल चाँदनी में हल्के सियाही-माएल मालूम होते थे। एक तरफ़ गुल-मोर का पुराना दरख़्त जिसका तना पारसाल दरमियान में से काट दिया गया था अपनी चंद एक शाख़ों के सरों पर पत्तों और फूलों के गुच्छे लिए झूम रहा था। दूर से ये गुच्छे बादलों के नन्हे-नन्हे पारे से मालूम होते थे। ककरौंदे और करने के फूलों की ख़ुशबू फ़िज़ा में बसी हुई थी। अगरचे अभी तक वो सब अंदर कमरे में सोते थे, लेकिन आमद-ए-बहार के बाइस सर्दी ज़ियादा रही थी। चंदन एक आलम-ए-मह्वियत में गूँदनी के दरख़्त के पास जा खड़ा हुआ। उसने बे-ख़्याली में एक-दो नन्ही-नन्ही गूँदनियाँ तोड़ कर मुँह में डाल लीं। पूरी तरह पक्की थीं। उसका मुँह बे-मज़ा हो गया। एक लम्हे तक वो शश-ओ-पंज की सी हालत में वहीं खड़ा रहा। फिर वो बरामदे में गया और उसने बड़ी एहतियात से दीवान-ख़ाने का दरवाज़ा खोला।

    सोने का कमरा मर्दाने के साथ ही था और दीवान-ख़ाना आम तौर पर खुला रहता था। उसका एक दरवाज़ा वो बाहर से बंद कर लिया करता था और एक उसके मालिक अंदर से बंद कर लेते थे। उसने आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। मालिक के सोने के कमरे में हल्की सी रौशनी थी। उसका अक्स दरवाज़े के शीशे पर पड़ा था। ऐसा मालूम होता था जैसे किसी ने गदली रौशनी का बरश दरवाज़े के शीशों पर फेर दिया हो। आहिस्ता-आहिस्ता दरी पर पाँव रखता हुआ चंदन बढ़ा और जा कर दरवाज़े के साथ पंजों के बल खड़ा हो गया। अंदर छत में लाल रंग का बल्ब रौशन था। उसकी मद्धिम रौशनी में वो आँखें फाड़-फाड़ कर देखने लगा। लेकिन दूसरे ही लम्हे में वो भागा। उसका जिस्म गर्म होने लगा था। आ’ज़ा तन्ने लगे थे। उसका गला और होंट ख़ुश्क हो गए थे और उसकी नसों में जैसे दूध उबलने लगा था। पंजों के बल भाग कर वो बाहर आया। आहिस्ता से उसने दरवाज़ा बंद किया और बाहर चाँदनी में खड़ा हुआ। सामने गुल मोर का तना खड़ा था। उसके जी में आई कि अपने सीने की एक ही ज़र्ब से वो तने को गिरा दे।

    कोठी के सामने लॉन में फ़व्वारे के गिर्द सुरमई माइल पीले-पीले फूलों के बे-शुमार पौदे लहरा रहे थे, जिनके चौड़े-चौड़े पत्तों पर पानी की बूँदें फिसल पड़ा करती थीं। ककरौंदे की ख़ुश्बू और भी तीखी हो कर फ़िज़ा में बस गई थी। चंदन ने जाकर फ़व्वारे की टोंटी घुमा दी। फरर-फरर एक मीठी सी फुहार उस पर पड़ने लगी। वो जेठू के हाँ क्यों गया? वो सोचने लगा... दोपहर के वक़्त इर्द-गिर्द की कोठियों के नौकर जेठों की कोठरी में जमा होते थे। कभी ताश खेलते कभी चूसर की बाज़ी लगाते। कभी अपने-अपने मालिकों और मालकिनों की नक़्लें उतारते। कभी कभार जेठू अपने चचा से एक पुराना ग्रामोफ़ोन माँग लाता जो उसने कभी एक कबाड़ी की क्लियरिंग सेल में ख़रीदा था। उसकी आवाज़ ऐसी थी जैसे असहाल का मरीज़ बच्चा रिरया रहा हो। लेकिन वो सब मज़े से उस पर गोरी तेरे गोरे गाल पा, या 'तो से लागी नजरिया रे' सुना करते। हाल ही में जेठू चार्ली का एक नया रिकॉर्ड ले आया था और दोपहर उसकी कोठरी में तेरी नज़र ने मारा... तेरी नज़र ने मारा... एक। दो। तीन-चार। पाँच-छः। सात-आठ। नौ-दस-ग्यारह... तेरी नज़र ने मारा... होता रहता। लेकिन चंदन कभी उधर गया था। उसे वक़्त ही मिलता था। सुबह-सवेरे ही उसका मालिक उसे जगा दिया करता था। वो उसके मालिश करता। उसके लिए नहाने का पानी तैयार करता। चाय बनाता। उसके दफ़्तर चले जाने के बाद दोपहर के खाने का इंतिज़ाम करता। खाना बनाकर दफ़्तर ले जाता। आकर नहाता, खाता और सो जाता... ऐसी गहरी नींद सोता कि बारहा ग़ुरूब-ए-आफ़ताब तक सोता रहता और उसके मालिक को ठोकरें मार-मार कर उसे जगाना पड़ता। लेकिन आज अपनी बे-ख़्वाबी से हार कर जब वो दोपहर को जेठू की कोठरी में गया तो उसने ऐसी बातें सुनीं कि उसकी रही-सही नींद भी हराम हो गई।

    फुहार के पड़ते ही उसके जिस्म में झुरझुरी सी उठी, वो ज़रा चौंका। कहीं उसे बुख़ार तो नहीं हो गया। रुत बदल रही है और वो पानी के नीचे खड़ा भीग रहा है। अगर उसे निमोनिया हो गया तो! उसने सर को एक-बार झटका दिया लेकिन मुस्कुराया नहीं और फ़व्वारे को खुला छोड़ कर ही अपनी कोठरी में जाकर लेट गया। लेकिन जल्द ही उसकी आँख खुल गई। उसका सर भारी-भारी था। जिस्म पर बुख़ार की सी कैफ़ियत तारी थी और आँखें कुछ उबलती हुई महसूस हो रही थीं। उसने फिर एक ख़्वाब देखा था। कच्ची नाशपातियों के गुच्छे उसके सर के गिर्द घूम रहे हैं। वो एक वीरान से मकान में खड़ा उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहा है। पास ही पानी का नल चल रहा है और उसके पास एक बच्चा खड़ा चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है 'मेरा खिलौना मत तोड़ो, मेरा खिलौना मत तोड़ो!' वो सर उठाकर उधर देखता है। वो बच्चा कासनी बन जाता है और वो सुनता है, 'मेरी नाशपातियाँ मत तोड़ो। मेरी नाशपातियाँ...'

    चंदन पागलों की तरह उठा। जेठू के अलफ़ाज़ उसके कानों में गूँज गए। उसने कुर्ता पहना। मिट्टी के एक पुराने मैले कूज़े में से ख़स्ता सा बटुआ निकाल कर जेब में रखा। कोठरी को कुंडी लगाई और आहिस्ता-आहिस्ता कोठी से बाहर निकल गया। चाँदनी एक वसीअ शामियाने की तरह प्रेड-ग्राउंड पर फैली हुई थी और सड़कों के नियम जैसे उस शामियाने को थामे खड़े थे। उनके घने पत्तों में से बिजली के क़ुमक़ुमे टिमटिमा उठते थे और दूर से देखने पर ऐसा मालूम होता था जैसे उन दरख़्तों के परे कोई अलाव जल रहा हो। चंदन कुइन मेरी रोड पर हो लिया। दाईं तरफ़ कोठी से ककरौंदे, करने, गुल श्यो और मौलसिरी की मिली-जुली महक का एक झोंका आया और सड़क पर दरख़्तों के नीचे बिछे हुए रौशनी और साय के जाल हिले।

    तीस हज़ारी के चौरस्ते पर वो रुका कि शायद कोई ट्राम आती हुई मिल जाए। लेकिन शायद ग्यारह कभी के बच चुके थे। सड़क बिल्कुल सुंसान थी। गंदगी की एक गाड़ी उफ़ूनत फैलाती हुई उसके पास से गुज़र गई। चंदन का दिमाग़ भन्ना गया। भाग कर वो मिठाई के पुल पर हो लिया। जिस चबूतरे पर सिपाही खड़ा रहता है वो टूटा हुआ था। शायद किसी मोटर वाले ने सिपाही की करख़्तगी का बदला उस मासूम चबूतरे से लिया था। पुल पर बिल्कुल सन्नाटा था। ऊपर चाँद चमक रहा था और पुल के नीचे गहराई और तारीकी में रेल की लाइनें और सामने कुछ दूर लाल सिग्नल चुप-चाप टिमटिमा रहे थे। चंदन पुल की दीवार के साथ सर लगाए लम्हा भर तक मबहूत साकित उन नागिनों सी लाइनों और उन टिमटिमाते हुए सिग्नलों को देखता रहा। फिर वो आगे चल पड़ा।

    सड़क बिल्कुल सुंसान थी। दोनों तरफ़ की दुकानें बंद थीं और पटरी पर कहीं-कहीं मैले से लिहाफ़ लिए दुकानदार सोए हुए थे... मैली-कुचैली धोतियों में उनके ज़र्द-ज़र्द आ’ज़ा पूर्णमाशी के चाँद की उस रौशनी में साफ़ दिखाई दे रहे थे। तेली-बाड़े के सामने पटरी पर एक टूटा हुआ ताँगा पड़ा था, और कूड़ा उठाने वाली दो तीन ख़ाली गाड़ियाँ खड़ी थीं। बाईं तरफ़ दूर तक एक सफ़ेद सी दीवार चली जाती थी, जिसके पीछे कभी किसी गाड़ी के तेज़-तेज़ गुज़रने की आवाज़ जाती थी और दाईं तरफ़ दुकानों के बाहर कहीं बाँसों के गट्ठे पड़े थे। कहीं चारपाइयाँ और कहीं लकड़ी की ख़ाली पेटियाँ!

    चंदन चुप-चाप अपने ख़्यालात में मह्व क़ुतुब रोड के चौरस्ते पर गया। सदर बाज़ार बिल्कुल बंद हो चुका था। सिर्फ़ कोने के हलवाई की दुकान खुली थी। चंदन की भड़की हुई तबियत यहाँ तक आते क़रीब-क़रीब ठंडी हो गई थी। सिर्फ़ उसके दिल में एक हल्का सा इश्तियाक़ का जज़्बा मौजूद था और इसी के मातहत उसने हलवाई की दुकान से आध सेर गर्म-गर्म दूध पिया। फिर जैसे एक नई उमंग पाकर वो और आगे बढ़ा। दोनों तरफ़ की दुकानें बंद थीं। बाईं तरफ़ के माशाअल्लाह होटल में होटल का एक मुलाज़िम बैठा रोटी खा रहा था। दाएं-बाएं कहीं-कहीं किसी पनवाड़ी या हजाम की दुकान खुली थी। एक दुकान में एक मज़दूर (जिसे दिन में शायद फ़ुर्सत मिलती थी) बैठा सर पर उस्तुरा फिरवा रहा था।

    काठ बाज़ार के सिरे पर चंदन एक लम्हे के लिए रुका, ताँगों के टवे पर एक-दो ताँगे वाले अभी घूम रहे थे। ताँगा शेड के ‘ऐन ऊपर चाँद चमक रहा था और उस चाँदनी में गर्द और धुएं का हल्का सा ग़ुबार भी मिला हुआ था। वो काठ बाज़ार में दाख़िल हुआ और हैरान सा एक चौबारे की तरफ़ देखने लगा जिसमें गैस की रौशनी के सामने एक ख़ूबसूरत लड़की बैठी थी। चंदन की मरी हुई उमंग फिर जाग उठी। लेकिन यहाँ अभी तक कई आदमी खड़े थे। इतने आदमियों के सामने इतनी रौशनी में उसके लिए मा’मले की बात करना मुश्किल था। उसने नीचे की कोठरियों की तरफ़ देखा। हर कोठरी के आगे एक लैंप लटक रहा था और एक औरत खड़ी या बैठी थी। कभी-कभी किसी कोठरी का दरवाज़ा बंद हो जाता और किसी शख़्स के पीछे लैंप उठाए उस कोठरी की औरत एक मैले से पर्दे के अंदर चली जाती थी। लम्हे भर के लिए उभरी हुई उमंग चंदन को फिर डूबती हुई महसूस होती। वो ज़रा आगे बढ़ कर एक लोहे की कुर्सी पर बैठ गया, जो ‘ऐन चौक में बिछी हुई थी और जिसके पास एक मेज़ पर रंग-बिरंगी बोतलें रखे एक दो चम्पी करने वाले बैठे थे।

    चम्पी कराओगे? चंदन ने ग़ैर-इरादी तौर पर सर हिला दिया। पास ही एक और ऐसी दुकान थी और उसके साथ बिछे हुए बेंच पर एक शख़्स बैठा चम्पी करवा रहा है। उसके परे एक लम्बे बरामदे में अपनी-अपनी कोठरियों के सामने औरतें खड़ी अपने ग्राहकों को बुला रही थीं। थक जाने या सीने का उभार दिखाने के ख़्याल से उन्होंने छत से रस्सियाँ लटका रखी थीं, जिनके सहारे वो खड़ी थीं। चंदन के सर में तेल के गिरने से बिजली की सी सरसराहट हुई और फिर हजाम लड़का चम्पी करने लगा। चम्पी करने के बाद उसने चंदन की पेशानी और गर्दन को एक मैले से तौलिए से पोंछ कर उसके बाल बना दिए।

    चंदन जब वहाँ से उठा तो उसे नाक में सस्ते ख़ुशबूदार तेल की तीखी सी बू रही थी और उसकी उमंग फिर जैसे बेदार हो गई थी। चौक छोड़ कर वो एक गली में हो गया। यहाँ लोग कम थे और रौशनी भी इतनी ज़ियादा थी। वो एक गली के दूसरे सिरे तक जाकर मुड़ आया। उसकी समझ में आता था कि वो कैसे बात-चीत शुरू करे। वो तो उनसे आँखें भी मिला सकता था। महज़ ख़्याल ही से उसका दिल धक-धक करने लगता था। उसने सोचा वापस चला जाए। उसे जेठू के साथ आना चाहिए था। उसने फ़ैसला किया कि गली में से होता हुआ दूसरी तरफ़ से निकल जाएगा। मगर इतनी दूर आकर वो यूँ ही वापस जाना भी चाहता था। उसी वक़्त एक कोठरी के आगे क़द्रे अँधेरे में बैठी हुई एक मोटी सी थुल-थुल पुल-पुल औरत ने उसकी मुश्किल हल कर दी। उसके पास दो छोटी-छोटी लड़कियाँ फ़र्श पर ही दरी बिछाए लेटी हुई थीं। बिल्कुल कासनी ही के सिन की।

    आओ इधर आओ। प्यार से इसने कहा। चंदन बढ़ा। सरगोशी में उसने कहा, आओ सोचते क्या हो। बारह आने लगेंगे। इशारा उस कोठरी के सामने कुर्सी पर बैठी हुई औरत की तरफ़ था, जो सिर्फ़ एक बनियान और काली साड़ी पहने बैठी थी। जिसकी बग़्लों के बाल तक नज़र आते थे और जिसकी छातियाँ मुरझाई हुई ककड़ियों की तरह लटक रही थीं। चंदन ने उसके पास फ़र्श पर आधी लेटी आधी बैठी हुई लड़की की तरफ़ हसरत-भरी नज़र से देखा, जिसकी नाक में एक छोटी-सी नथ थी। समझ कर मोटी औरत ने कहा, ये तो अभी छोटी है। ये अभी ये बातें क्या जाने। चंदन के दिमाग़ में कच्ची नाशपातियाँ घूम गईं। फिर कासनी और फिर कच्ची नाशपातियाँ और मोटी औरत ने कहा, दो रुपय लगेंगे।

    चंदन चुप रहा। वो कहना चाहता था, दो रूपये बहुत हैं। तभी मोटी औरत ने कहा, अच्छा तो डेढ़ रूपया ही दे दो। अभी तो नथ भी नहीं उतरी। चंदन की नसों में दूध उबलने लगा। उसका जिस्म गर्म होने लगा। दूसरे लम्हे वो उस मैले पर्दे के अंदर चला गया और उसके पीछे उस लड़की को लिए हुए वो मोटी औरत...

    एक हफ़्ते बाद सर पर अपना बोरिया बिस्तर उठाए चंदन पोर्च में खड़ा था और अंदर कमरे में उसका मालिक अपनी बीवी को हिदायत दे रहा था, मैं अभी डॉक्टर को भेजता हूँ। निहायत मूज़ी मरज़ सहेड़ लिया साले ने। सारे मकान को डिस-इन्फ़ेक्ट करा लेना। सब जगह तो जाता रहा है कमबख़्त!

    और चंदन बे-बसी की हालत में खड़ा सोच रहा था। लेकिन लड़की की उम्र तो तेरह साल की भी होगी और उसकी तो अभी तक नथ भी उतरी थी।

    स्रोत:

    Terrace Par Baithi Sham (Pg. 131)

    • लेखक: उपेन्द्र नाथ अश्क
      • प्रकाशक: उपेन्द्र नाथ अश्क
      • प्रकाशन वर्ष: 1987

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए