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उधमपुर की रानी

रहमान मुज़्निब

उधमपुर की रानी

रहमान मुज़्निब

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    अगर डेरादारनी और टकियाई के दरमियान में कोई चीज़ हो सकती थी तो वो सुल्ताना थी, जिसने होशियारपुर में पूरा होश सँभाला। वहीं पली, बढ़ी, जवान हुई। उसकी आवाज़ और बदन के साज़ दोनों में सात सुर लग गए, फिर भी वो बेसुरी रही। ठुमरियों के नगर में रहते हुए भी ठुमरी गा सकी रगा भी सकती तो सुनने का यारा किसे था? वैसे वो आप भी ठुमरी थी। पिया बिन नाही आवत चैन। बेकल, बेक़रार रहने वाली ठुमरी।

    बड़े-बड़े ख़ान साहिबान की शागिर्द बनी। यूँ कहिए बड़े-बड़े ख़ान साहिबान ने उसे शागिर्द बनाया, मग़ज़ खपाया लेकिन वो सा रे गा मा पा धा नीकी तरकीबें हिफ़्ज़ कर सकी। बदन का गुदाज़ उसकी आवाज़ को ले डूबा। हर सुबह जब बाज़ार में हारमोनियम, सारंगी और तानपुरे की संगत में औरतों और लड़कियों की तानें उभरतीं तो वो लम्बी ताने पड़ी सोती रहती। सच तो ये है, उसका इतना क़सूर था। सुर ज्ञान रोज़-बरोज़ कम हो रहा बल्कि एक्सपोर्ट हो रहा था। पाकिस्तान के बेमिसाल गवैये बड़े ग़ुलाम अली ख़ां भारत जा चुके थे। उधर रेडियो और फ़िल्म की अलमदारी हुई तो कोठों के मुजराख़ानों के बुरे दिन आए। ख़्याल, तराने, ठुमरियाँ, दरवाज़े खंडर हुए।

    लोग आवाज़ की बजाय उसके बदन पर लपकते। वो शोख़ियों और शरारतों से अपने बोलते हुए बदन को चार चाँद लगा लेती। पुरानी क़दरें ग़ुरूब और नई क़दरें तुलूअ हुईं। आवाज़ की बजाय जिस्म की बिक्री बढ़ी। उसका मुजराख़ाना ख़ाली रहने लगा। उस्ताद साहिबान कोठों पर चले गए, जहाँ अब भी बदन के साथ आवाज़ भी बिक जाती। उसकी लड़कियाँ नादिरां और समीना ख़ाला के यहाँ रहने लगीं।

    तमाशबीन आने-जाने लगे। शुरू-शुरू में मुतवस्सित तबक़े के लोगों ने सरपरस्ती की। फिर बड़े लोग उसके कोठे का रुख़ करने लगे। उसके बदन की शोहरत जंगल की आग बन कर फैली। उसकी आँच ऊधमपुर के शिकारी कुत्तों तक भी पहुँची। उनकी आमद-ओ-रफ़्त हुई और वो उसे छोटे मिर्ज़ा की जागीर पर जाने के लिए वरग़लाने लगे।

    नवाब मुराद बख़्श की मौत के बाद मिर्ज़ा राहत बेग को गद्दी मिली क्योंकि वो सबसे बड़ा लड़का था। नवाबज़ादा अज़ीज़ बेग छोटा था और जितना छोटा था उतना ही खोटा था। दोनों सौतेले भाई थे। इसकी वजह से सौतेली माओं में आसाबी जंग रहती। छोटी बेगम, छोटे मिर्ज़ा को नवाब मरहूम का जानशीन बनाने की फ़िक्र में रहती। ज़हीन औरत ऊधमपुर में हो या बाज़ार में, ऊधम ही मचाती है। शिकारी कुत्तों ने यक़ीन दिलाया कि अंजामकार जागीर छोटे मिर्ज़ा को मिलेगी लेकिन सुल्ताना को अंजाम मशकूक लगा। वो हर्राफ़ों की बातों में आई।

    गर्मियों की एक दोपहर को जब चील अंडा छोड़ रही थी, मख़लूक़-ए-ख़ुदा घरों में मुँह छुपा रही थी और सड़कें सुनसान पड़ी थीं, सुल्ताना रईस-ए-शहर राजा ग़रीब नवाज़ के पहलू में बैठी उसे व्हिस्की पिला रही थी। बलनोश राजा, पूरी बोतल पीने के बाद भी कहे जा रहा था। सुल्ताना ने हाथ खींच लिया और क़ाबिल-ए-एतराज़ हालत में जाने को तैयार हुई। इतने में चौबारे तले जीप आकर रुकी। किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मुलाज़िम लपक कर आया। उसने बोल्ट उतार कर थोड़ा सा दरवाज़ा खोला। शिकारी कुत्तों ने धक्का दे के हटाया। मकान में दाख़िल हुए। उन्होंने ख़ाली फ़ेर किए और सुल्ताना को राजा की गिरफ़्त में से नोच कर ले गए। बाज़ार देखता रह गया। यही उसकी रीत थी।

    वो ऊधमपुर में छोटे मिर्ज़ा की रुसवाए ज़माना महल सरा में जा पहुंची जहाँ कितनी ही हरामज़ादियाँ और शरीफ़ज़ादियाँ पहले से मौजूद थीं। पता नहीं चलता कि बेगम कौन, दाश्ता कौन और कनीज़ कौन है। हर एक को अपना मक़ाम ख़ुद बनाना पड़ता। सुल्ताना को माहौल अच्छा। उसने बेमिसाल हुस्न-ओ-जमाल और कमाल होशमंदी के बाइस ख़ातून अव़्वल का दर्जा पा लिया। हर तक़रीब में वही पेश-पेश होती।

    छोटे मिर्ज़ा को माँ के लाड़ ने बिगाड़ा और वो बाप की नक़ल मुताबिक़ असल निकला जिसके महल की पच्चीस औरतों में से आधी से ज़्यादा हिंदुस्तान के बाज़ारों से लाई गई थीं। उनमें इधर उधर से पकड़ी धकड़ी हुई बेड़नियाँ (पीरनियाँ) भी थीं। नवाब की वफ़ात ने निज़ाम-ए-निसवां दरहम-बरहम किया। औरतें खिसक गईं। बेशतर छोटे जागीरदारों से चिमट और चिपक गईं। बड़ी बेगम और छोटी बेगम लड़ने के लिए महल में रह गईं। नवाब मरहूम के शिकारी कुत्ते छोटे मिर्ज़ा के पास आगए थे। बाज़ारों की फेरी लगाने और हेरा फेरी करने लगे।

    सयानी कनीज़ों ने सुल्ताना को अज़ राह-ए-हमदर्दी ऊधमपुर के महल की रिवायत से मुत्तला किया कि यहाँ औरत हँसने खेलने, रोने पीटने और खंडर होने के बाद बसूरत नाश बाहर जाती और ठिकाने लगती है लेकिन उसने कहा,मैं ठिकाने लगने नहीं आई, हर एक को ठिकाने लगाने आई हूँ। ख़ातून-ए-अव़्वल हूँ।

    इस दौरान भतीजे की मसरुफ़ियात से परेशान होकर छोटे मिर्ज़ा के चचा ने शिकायतन कहा,छोटी बेगम! शहज़ादे को समझाओ, नवाब मरहूम के नक़्श-ए-क़दम पर चल निकला है। औरतों में इतनी दिलचस्पी लेना ठीक नहीं। छोटी बेगम बोली,भैया, तुम अपनी सी करो, छोटे मिर्ज़ा को उसके हाल पर छोड़ दो। आखिर नवाबज़ादा है, रईस है। उसके यहाँ दिल बहलाने के खिलौने हैं तो क्या मुज़ाइक़ा है। मैं नहीं चाहती कि मेरा लाल ग़मज़दा रहे। चचा अपना सा मुँह लेकर चले गए और फिर उन्होंने भतीजे के बारे में कभी कुछ कहा।

    सुल्ताना दबंग औरत थी। ठस्से से रहती और किसी को ख़ातिर में लाती। क़द-ओ-क़ामत में सबसे बुलंद-ओ-बाला थी। वैसे भी बालाख़ाने से आई थी। उसने छोटे मिर्ज़ा को मुट्ठी में ले लिया। व्हिस्की पीने बैठती तो छोटे मिर्ज़ा को पीछे छोड़ जाती। सब शुरकाए महफ़िल अधमुए हो जाते तो उठ कर पाईं बाग़ में टहलने चली जाती। ये सुक़रात की अदा थी जो रात भर शुरफ़ाए शहर के साथ शराब पीता और जब सब होश गंवा बैठते तो ये आज़ाद मर्द उठ कर हमाम में चला जाता।

    सुल्ताना ने पर पुर्ज़े निकाले और महल सरा की जुग़राफ़ियाई हदूद से सवा होगई। उसे अपनी ज़ात को दरियाफ़्त करने और मख़्फ़ी सलाहियतें जानने का मौक़ा मिला। उसे पता चला कि वो कितनी ऊँची है और अपना मेयार कितना ऊँचा कर सकती है। उसे अपने इख़्तियार का भी इल्म हुआ। बादशाहगर बन गई। उसने नाल बंद दीन मोहम्मद को अस्तबल का दारोग़ा बना दिया और अपने लिए घुड़ सवारी की तरतीब पर मामूर कर लिया। बावर्चीख़ाने के मुहतमिम ख़ास नियाज़ ख़ां से ख़ास तअल्लुक़ात क़ायम किए। अब्दुल हकीम के अत्तार ख़ाने की सरपरस्ती की। महल सरा के लिए अर्क़, शरबत, मुरब्बे, ख़मीरे वहीं से आते। तबीब-ए-ख़ास हस्ब उल हुक्म माजूनें, जवारिशें, इतरीफ़लें, लऊक़, रुब वहीं से बनवाते। ये सब लोग होशियारपुर से आए या बुलवाए गए थे। सुल्ताना उनपर भरोसा कर सकती थी। सुल्ताना से सब औरतें जलने लगीं। उन्होंने एक कनीज़ को आगे किया। कनीज़ छोटे मिर्ज़ा के हरम की ख़ातून-ए-अव्वल के ख़िलाफ़ अफ़साने घड़ने और बातें बनाने लगी। सुल्ताना ने नियाज़ ख़ान (मुहतमिम मतबख़) से कह कर उसे ज़हर दिलवा दिया और लाश को कुत्तों के आगे फिकवा दी। बात छोटे मिर्ज़ा तक पहुँची लेकिन वो कुछ बोले। गद्दी के मसले पर दोनों भाइयों में मुक़दमेबाज़ी छिड़ी थी और सुल्ताना अंग्रेज़ जज के बँगले पर जाकर रातों कष्ट काटती थी।

    तनातनी बहुत बढ़ गई। छोटे मिर्ज़ा ने नवाब राहत बेग के तीन आदमी मार दिए। अदालती दौड़ धूप उन्ही के दम क़दम से थी। नवाब के आदमियों ने जवाबन ग़ज़ल के तौर पर हमला किया। दो दरबान, दो शिकारी कुत्ते, एक कनीज़ और एक दाश्ता जहन्नुम रसीद हुई। तनातनी और बढ़ी तो हिफ़ाज़ती इक़दामात भी बढ़े। हिफ़ाज़ती इक़दामात में वो ख़ुद को ग़ैर महफ़ूज़ समझने लगी। बग़ावत के आसार नमूदार हुए। छोटे मिर्ज़ा की परेशानियाँ बढ़ीं। औरतों के हौसले बढ़े और वो मनमानी करने लगीं। छोटे मिर्ज़ा को इस्लाह-ए-अहवाल की फ़ुर्सत थी। उनका वतीरा देख कर बस इतना कह कर रह जाते,औरत हरामिन होजाए तो फ़रिश्तों को भी बहका ले। उसके आगे शराफ़त नहीं ठहरती। और महल सरा की औरतों ने तमाम फ़रिश्तों को गुमराह किया।

    और सुल्ताना उन सब पर बाज़ी ले गई। मशहूर किया गया कि उसके क़ब्ज़े में जिन्न हैं, जो आधी रात के बाद इसके पास पाईं बाग़ में आते हैं। छोटे मिर्ज़ा ने कहा, मुक़दमा जीत लेने दो। फिर उसके सारे जिन्न निकाल दूंगा। लेकिन मुक़दमा जीतने से पहले वो एक जिन्न के साथ भाग गई। उसे ऊधमपुर में जान का ख़तरा लाहक़ था। दुश्मन ने अंग्रेज़ जज से मिलने का राज़ पा लिया था।

    महल सरा की चार दिन की बादशाहत से उसपर कुछ-कुछ नवाब ज़ादियों का रंग चढ़ गया। लाहौर आई तो उसने बड़े कड़े का सबसे बड़ा मकान लिया जो ज़्यादा किराये यानी मुबलिग़ पचास रूपये माहवार के बाइस अक्सर ख़ाली रहता। उसने रियासती वज़ा और वज़ादारी बरक़रार रखी, तंग पाजामा तंग फ़्रॉक, नौलखा हार, हीरे जड़ी अँगूठियाँ और मोतियों वाली जोधपुरी जूती पहनती। पान खाती मगर कल्ले साफ़ रखती। नादिरां और समीना को भी बहन के घर से पास बुलवा लिया। बड़े कड़े में ख़ालिस शुरफ़ा के पहलू पहलू नोचियाँ, ख़ानगियाँ, टकियाइयाँ और लुच्ची लफ़ंगी औरतें भी रहतीं। ये सूरत गली के क़ुर्ब के सबब से थी। गली की औरतों ने थकन उतारने और टूटे-फूटे बदनों की मरम्मत के लिए यहाँ टूटी फूटी कोठरियाँ ले रखी थीं। उन्हें बमुश्किल चंद घंटे मिलते जिनमें अगली बैठक के लिए थोड़ी बहुत तवानाई इकट्ठी कर लेतीं लेकिन होता यूं कि ज़्यादा तवानाई ज़ाइल और कम तवानाई हासिल होती। आख़िर बेचारियाँ अल्लाह की मारियाँ घिस पिस कर जवानी के दिन पूरे किए बग़ैर ही बूढ़ी हो जातीं।

    हमारा घर बड़े कटड़े की आख़िरी सरापा था। ताहम उस मिली जुली मईशत और मुआशरत से क़दरे महफ़ूज़ था।

    सुल्ताना भरपूर औरत थी। तीस के पेटे में होगी लेकिन अभी तक शोख़ और चंचल जवानी की तनाबें थामे हुए थी। बदन के ख़ुतूत, पेच-ओ-ख़म और ज़ावियों में आग़ाज़-ए-शबाब की कशिश थी। बड़ा खिचाव तनाव था। अंग-अंग में लाम्बे-लाम्बे बालों की सियाही अंधी रातों के अंधेरों से आँख-मिचौली खेलती। भरे-भरे होंटों से शराब टपकती। अफ़रोदाइती का उर्याँ मुजस्समा उसके आज़ा की तराश-ख़राश से हम आहंग होगया। मरमरीं रानें, मरमरीं पिंडलियाँ, मरमरीं बाँहें। बोलती हुई मिट्टी के गुदाज़ में देवी ढल गई। चंद ही दिन में वाज़ेह होगया कि उस भरपूर औरत को बेबाकी से जीना भी आता है और आबरू सँभालना भी। वो शेरनी थी जो अपने जाह-ओ-जलाल के बल पर उन दो लड़कियों नादार और समीना की हिफ़ाज़त करती जो परपुर्ज़े निकाल रही थीं, उनके बदन बोलने लगे थे। उनमें से छोटी वाली तो एड़ियाँ उठा उठाकर दिवार के उस पार देखने भी लगी थी। ये नादिरां थी।

    दिवार से दिवार मिली थी। ज़रा-ज़रा सी बात सुन लो। उसके घर, बरामदे, आँगन में मेरी तांक झाँक एक क़िस्म का मामूल थी। उसमें शर और शरारत का कोई पहलू था। उस तांक झाँक ने एक दिन मुझे शर्मसार किया। मेरे ऊपर परी आन गिरी। नई नकोर और सुद्ध थी। घर में ढेरों लूटी हुई पतंगें थीं लेकिन उस दिन परी भली लगी। उसे उड़ाने ममटी पर जा पहुंचा। बिला इरादा नीचे आँगन में नज़र पड़ी जहाँ कई बार नादिरां और समीना के साथ डरंगे लगाए, पेड़ पर चढ़-चढ़ कर छलांगें लगाईं, आँख-मिचौली खेली लेकिन आज जैसी कैफ़ियत से कभी पाला पड़ा।

    शेरनी नीम उर्याँ खड़ी बाल सँवार रही थी और उसकी आधी शराफ़त अलगनी पर लटक रही थी। उसका मुँह दूसरी तरफ़ था। मुझपर एक दम शर्म-ओ-हया का पर्दा पड़ा और मेरे अंदर की ताक़त ने धक्का दे कर मुझे परे फेंक दिया। मंज़र नज़रों से ओझल हुआ लेकिन फिर भी भरपूर आज़ा वाला बदन आँखों में तुल गया। ख़्याल आया ये कैसी औरत है? दोबारा मुंडेर पर आया तो वो अंदर जा चुकी थी। बैठ कर हुस्न की लकीरें गिनने लगा जिन्हें वो हवा में मचलने को छोड़ गई थी। लड़कियाँ आँगन में आईं तो उनकी निगाहें मुझपर पड़ीं बल्कि हुआ यूँ कि एड़ियाँ उठा उठाकर दिवार से उस पार देखने वाली ने पहले गर्दन उठाकर मुझे देखा और फिर बहन को दिखाया।

    तुम यहाँ क्या कर रहे हो? नादिरां ने चीख़ कर कहा। मैंने जवाब में उसे परी पतंग दिखाई।

    कितने बेशर्म हो तुम! कम गो समीना ने जलाल में आकर कहा।

    अरे किसे बेशर्म बना रही है? सुल्ताना अंदर से बोली और बाहर आगई। उसने एक उटंगा सा तौलिया लपेट रखा था।

    देखो तो अम्मी! ये ऊपर बैठा तकता रहा और तुम्हें ख़बर भी हुई। नादिरां ने कहा।

    बुरा किया तो उसने, अज़ाब कमाया तो उसने, तुम क्यों आपे से बाहर हुई जाती हो? शरीफ़ों के यहाँ शोर नहीं मचता। सुल्ताना ने लड़कियों को अंदर ढकेलते हुए कहा।

    मैं घर से निकला तो शरीफ़ों की ड्योढ़ी से चीख़ें सुनाई दीं। लपक कर अंदर गया तो अलाउउद्दीन अलमारूफ़ लावा निहायत शराफ़त से शरीफ़ों के हाथ पिट रहा था। शराफ़त का सबूत देने के लिए मैं भी उसपर पिल पड़ा। ये पूछने की ज़हमत ही गवारा नहीं की कि पिटने वाले से क्या गुनाह सरज़द हुआ। उसकी ज़बान से फ़क़त इतना सुना,बीबी जी! फिर कभी नहीं करूंगा। इस वाज़ेह जुमले में मुझे अपने जारिहाना इक़दाम की वजह-ए-ज़वाज़ पिन्हाँ मिली। मैंने हक़-ए-हमसाएगी अदा किया और बिसात से कुछ बढ़ कर ही अदा क्या। नादिरां और समीना ने भी जौहर दिखाए। जब वो धक्के खाकर बाहर निकला तो माथा फूट रहा था और अच्छी तरह चल भी सकता था। गुनाह के बोझ तले दबा जारहा था।

    मैंने अपनी मुक़फ़्फ़ा और मुसज्जअ शराफ़त का इज़हार करते हुए कहा,साले! ये शरीफ़ों का मोहल्ला है। लुच्चों, लफ़ंगों का उधर मोहल्ला है। यहाँ शरीफ़ बन कर रहेगा तो चैन पाएगा वरना जूते खाएगा। उसने जवाब में सड़क के पत्थर को ठोकर मारी, सर झटका, तंज़िया लहजे में हुंहकहा और चला गया। खाट से जा लगा। तीन दिन बाद जब बर्फ़ बेचने बैठा और सामने छज्जे पर नादिरां आकर मुस्कुराई तो वो भी मुस्कुरा दिया।

    सुल्ताना से पता चला कि कमीने ने नादिरां पर हाथ साफ़ करना चाहा था जिसके बाइस टूट फूट ज़रूरी हुई। एक दिन बाग़ में मोलसरियाँ बटोरता मिला। मोलसरियों के पेड़ चिकनी रविशों पर साया डाल रहे थे और मलगजे रंग की भीनी-भीनी ख़ुशबू वाली मोलसरियाँ उनके नीचे बिखरी पड़ी थीं।

    ये क्या किया तूने लावे उस दिन? आपे में रह सका? मैं यूँ मुख़ातिब हुआ जैसे अलिफ़ से ये तक वाक़िए की तफ़सील जानता था हालांकि सुल्ताना ने सिर्फ़ उसकी अबजद से आगाह किया था।

    मियाँ जी! मैंने कुछ नहीं किया। ये सब झूट है। वो जो छोटी वाली है ना नादिरां, आफ़त की परकाला है। उसी ने तोहमत बाँधी है, उसी ने ये सब कुछ किया।

    अच्छा तो शरारत तेरी नहीं उसकी थी?

    और क्या, गश्तियों ने जो कुछ बताया वो सारा झूट है।

    हूँ, तो ये बात है।

    हाँ मियाँ जी, उस हर्राफ़ा ने छज्जे में आकर बर्फ़ पकड़ा जाने को कहा। बर्फ़ लेकर गया तो सीढ़ियों में आकर मुझे घेर बैठी। कसं मौला की, मैंने कुछ नहीं किया। वही दरिंदी बदन में दांत गाड़ती रही बस ये समझ, आँधी थी। जितना अपने आपको छुड़ाता आँधी उतना ही जकड़ लेती, अल्लाह जाने बड़ी लच्चर निकली। इधर तंग सीढ़ियाँ, हाथ में बर्फ़ और उधर ये आफ़त। मेरे तो होश ही गुम करदिए कुत्ती ने। छुड़ाने की बड़ी कोशिश की पर उसमें तो जैसे जिन्न समाया हुआ था, छोड़ने का नाम ही लेती। एक तरफ़ हटा तो सर ठाह करके दिवार से जा लगा। बर्फ़ गिर गई। शेरनी सर पर आकर गरजी,ये क्या हरामीपन है?

    ये मुझे छोड़ता ही नहीं। बदज़ात नादिरां बोली। वो एक दम धक्का दे कर अलग हुई और मेरी पिटाई होने लगी।

    लावे में ख़ासा कस बल था। मैंने पूछा,तुम चाहते तो तीनों को पछाड़ फेंकते, पिट कैसे गए?

    वो ज़नानियाँ थीं ज़नानियों से कैसे मुक़ाबला करता?

    लेकिन तू तो मुझसे भी पिट गया।

    मियाँ जी! उस वक़्त तो तुम भी मुझे ज़नानी लगे थे।

    हम बातें करते रहे। एक बात मैंने उसे समझा दी,पगले ऊधमपुर की मुँह चढ़ी बेगम है, बच के रहना। कप्तान आता है उसके यहाँ। ये ऊँचा क़द और ये बड़ी-बड़ी मूंछें हैं उसकी। उसे कह कहीं गोली से मरवा दे।

    रहने दो मियाँ जी! मैं सब कुछ जान गया हूँ। गली की जूठ है। गली से उठ कर गई थी ऊधमपुर। बड़ी बनी फिरती है रानी। उसकी बातों में ख़ौफ़ का शाइबा तक था। वैसे उस दिन कोई अनोखा वाक़िआ हुआ था। ड्योढ़ियों, सीढ़ियों और ग़ुस्ल ख़ानों में ऐसी वारदातें होती रहतीं और वहीं दम तोड़ कर रह जातीं, अलबत्ता मुंशी इलाही बख़्श के कानों में भनक पड़जाती तो फिर कुछ कुछ हो रहता। उन्होंने ख़ुद को मुहतसिब के फ़राइज़ पर मामूर कर रखा था। उनके सामने कोई गर्दन उठाकर सीना तान कर चल सकता। उन्होंने लावे को अपनी कचहरी में तलब किया। यहाँ के फ़ैसलों का एहतराम किया जाता। एक बार उसी कचहरी के फ़ैसले पर मुरली शाह क़लंदर को थड़े पर बैठ कर बाआवाज़ बुलंद लच्छे कुँवार गँदले गाने पर लावे से पिटवाया गया था और आज लावा बतौर मुल्ज़िम उसी कचहरी में पेश हुआ था।

    सच कहता है, तू बे-ख़ता है? मुंशी इलाही बख़्श ने कड़क के कहा।

    मुंशी साहब जी! मैं ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर जान कर क़िबला मुँह कहता हूँ कि मेरी कोई ख़ता नहीं। उसने क़िबला रू होते हुए कहा।

    क़ुरान उठा लेगा।

    नहीं मुंशी साहब जी! जान से मार डालो। दो जहानों के वाली को नहीं उठाऊँगा। ख़ासा पेचीदा केस था। पूरे वाक़िए का कोई गवाह था। मेरी गवाही अधूरी थी। मैंने लावे के सिर्फ़ ये अल्फ़ाज़ दोहराए,बीबी जी! फिर कभी नहीं करूंगा। लेकिन इसपर लावे ने कहा,मरता क्या करता? जान छुड़ाने के लिए कुछ तो कहना ही पड़ता था। बहरहाल मामला तूल पकड़ सका।

    मुंशी इलाही बख़्श जिस बात को दबाना चाहते वो दब जाती जिस बात को उठाना चाहते वो उठ जाती। सुल्ताना की बात उन्होंने दबा दी लेकिन माई फिरो जाँ जो शोशा छोड़े बग़ैर रहती निचली बैठी। बड़ी घाग औरत थी। सात परदों में छुपे हुए राज़ निकाल लाती। कई लड़कियों के पेट साफ़ किए उसने। कई को मौत के घाट उतारा। उसे दूसरों के पेट में घुसना और दादी नानी बन कर महफ़ूज़ तरीन राज़ उगलवाना आता था, एक दम दुखती रग पर हाथ रखती और दिल की धड़कनें गिन कर मरज़ का पता लगा लेती। लावे की पिटाई का सुन कर उसकी तजस्सुस वाली रग फड़की और हक़ीक़त की तह तक पहुँचने के लिए बेक़रार हुई। उसने सुल्ताना और नादिरां से अलग अलग मुलाक़ातें कीं। इनकी बातों को उलटाया पलटाया, छाना फटका और तक़ाबुली मुताला करके अपनी पड़ोसन से कह डाला, माँ का शिकार बेटी के हत्थे चढ़ा। भला माँ का हुआ बेटी का। लावे की मुफ़्त ठुकाई हुई।

    होंटों निकली कोठों चढ़ी। बात फैल गई लेकिन सुल्ताना की पैज़ार से। उसने अपने मामूलात में सर-ए-मू फ़र्क़ आने दिया। बल्कि उल्टा प्रोपेगेंडा शुरू किया और कहा,हरामज़ादी आई थी, क्या मीठी बन के राज़ ले गई। चुड़ैल है, निरी चुड़ैल।

    सुल्ताना आँधी थी तो हकीम अब्दुल हकीम हवा की नर्म रू लहर थे जिन्होंने अपनी नाम निहाद बीवी के मामलों में कभी दख़ल दिया। वो अपने अहद के आधे सुक़रात थे। सुक़रात की बीवी सुल्ताना की तरह ज़ोर आवर थी। सुक़रात ने उसे बर्दाश्त किया और छोड़ दिया लेकिन ऊधमपुर के शाही अत्तार हकीम अब्दुल हकीम ने उसे बर्दाश्त ही नहीं किया बल्कि उसे अपने हाल पर छोड़ दिया। ऊधमपुर की ख़ातून अव्वल टपके का आम थी जो ख़ुश नसीबी से अपने आप उनकी झोली में गिरा। वो उसके एहसानमंद थे। तबअन भले आदमी थे। अत्तार ख़ाने पर हर उम्र और हुस्न-ओ-रानाई के एतबार से हर क़िस्म के मुजस्समे आते। सीधी-साधी औरतें जो बदन का तीखापन मोटी-मोटी तहों में ढाँप लेती और सेक़ल की हुई कटारें ढीली ढाली चादर में रख लेतीं, हकीम अब्दुल हलीम के सामने आकर बैठ जातीं।

    वो हर औरत को बग़रज़ शनाख़्त सरसरी तौर पर देखते और नज़रें झुकाकर काम करने लगते। वो उन्हें हकीम जी कहतीं हालांकि वो सिर्फ़ अत्तार थे अगरचे होशियार और तजुर्बेकार थे। ऊधमपुर में रह कर उन्होंने कितने ही क़राबादीनी नुस्ख़े हिफ़्ज़ किए थे। लम्हात फ़ुर्सत में कश्मीरी बाज़ार की शाएशुदा कारआमद और ग़ैर कारआमद किताबें पढ़ते, सोना बनाने के तजुर्बे भी करते। औरतें आकर चुप बैठतीं लेकिन वो हत्तल इमकान चुप रहते। कोई शोख़ चंचल ज़्यादा ही सताती तो वो आँखें झुकाए कहते,यहाँ कच्चा टपकाने नहीं आई जो यूँ कुलकुल लगा रखी है तूने, सब्र कर।

    होहाय। वो शोख़ चंचल चमक कर कहती,हकीम जी, शर्म नहीं आती सबके सामने ऐसी नंगी बातें करते हैं? वो उसी तरह नज़रें नीची किए कहते,शर्म भ्रम कुछ नहीं। चौदहवीं सदी है। ये कटड़ी है। मेरी बातें बुरी लगती हैं तो किसी दूसरे मुहल्ले में जारहो। यहाँ की बोली तो ऐसी ही है।

    वाक़ई चौदहवीं सदी थी और ऐसी ही थी जैसी हकीम अब्दुल हकीम बयान करते और कटड़ी का तो चौदहवीं सदी से भी ज़्यादा शहरा था। शरीफ़ और परले दर्जे के लोग यहाँ रहते थे तो ऐसी बे-निकाही औरतें भी आबाद थीं जो यारों के साथ भाग कर आई थीं। कटड़ी वालियाँ हकीम जी की सरपरस्ती करतीं। अलावा अज़ीं टिब्बी की टकियाइयाँ और बाज़ार शेख़ोपुरियाँ की डेरादारनियाँ भी उन्हीं के यहाँ से शरबत, मुरब्बे और चटनियाँ मँगवातीं। वो बहुतेरा कमाते। सब कुछ सुल्ताना को थमाते। वो साटन, ज़रबफ़्त, मख़मल और शंघाइयाँ ख़रीदती। वन सोने कपड़े सिलवाती और ऊधमपुरी शान दिखाती।

    अत्तार ख़ाना कामयाबी से चलता रहता लेकिन फिर हवा का रुख़ बदला। उन्होंने ग़लती से अपना तैयार किया हुआ कुश्ता-ए-शंगर्फ़ खा लिया। यह ठीक नहीं बना था। तरह-तरह के नुस्ख़े बरते लेकिन मौत पर कब कोई नुस्ख़ा चला है। मरहूम हुए और अत्तार ख़ाना उनके शागिर्द-ए-अज़ीज़ मुसम्मी अब्दुल ख़ालिक़ की तहवील में चला गया।

    सुल्ताना ने सोग मनाया। मोहल्लेदारनियाँ आतीं। हर एक की ज़बान पर कम-ओ-बेश उसी मफ़हूम के अल्फ़ाज़ आए,जो कुछ हुआ, अल्लाह के हुक्म से हुआ। तक़दीर का लिखा कौन टाले? फिर मुहल्ले की नेक नाम बेवाओं की तरह शराफ़त की चादर ओढ़ कर ख़ामोश ज़िंदगी गुज़ारने का मशवरा दिया। तक़रीबन सब ने शरीफ़न का हवाला ज़रूर दिया जो मुत्तफ़िक़ा तौर पर मुहल्ले की मिसाली बेवा थी। शरीफ़न अपने मुक़ाम से आगाह थी। वो बड़ी बनके आई और बोली,बहन! मियाँ मरे बीस साल हुए। क़सम ले लो जो आज तक किसी के आगे हाथ फैला हो। घर-घर काम करके पेट पालती हूँ। ख़ुदा ने इज़्ज़त से इतना गुज़ार दिया। थोड़ा सा रह गया है वो भी गुज़र जाएगा।

    शरीफ़न ने बेवगी का कठिन सफ़र तै करने की आज़मूदा तरकीब उस औरत को समझाई जो ऊधमपुर में फ़ातिहाना शान से रही। जो बदन को सीधा खींच कर बसद नाज़ ग़ुलाम गर्दिशों में से गुज़रती तो उसे देख कर कुछ औरतें रास्ता छोड़ देतीं और कुछ जल कर राख हो जातीं। माई फिरोजां भी अपना पार्ट अदा करने से चूकी। उसने आकर एक-एक बेवा का भांडा फोड़ा। साफ़-साफ़ बताया कि किस किस ने उससे पेट साफ़ करवाया। किस किस का पेट उसने छुपाया। उसने इन्किशाफ़ किया कि नाम निहाद मिसाली बेवा अंदरून-ए-ख़ाना मौलवी ज़ुहूर दीन की दाश्ता है। वो उसके दो हरामी बच्चे ठिकाने लगा चुकी है। देखो तीसरे की बारी कब आए।

    सुल्ताना ने सबकी बकवास सुनी। संजीदगी से सोग मनाया और शराफ़त की चोखी गाढ़ी चादर ओढ़े रखी। चालीस दिन पूरे हुए। चालीस दिन के बाद ज़च्चा नई नवेली हो जाती है। चालीस ही दिन में मुर्दा ठिकाने लगता है। चालीस दिन के बाद उसने शराफ़त की चादर तह करके बड़े संदूक़ में रख दी और नई नवेली होगई। नये इरादों की छावनी में अज़ सर-ए-नौ सुबह तुलूअ हुई। जवानी की लकीरें जो चालीस दिन तक धुँधलाती रहीं फिर निखर आईं।

    नादिरां भी ख़ूब थी। माँ के सारे गुन उसमें मौजूद थे। नफ़सियातदान थी। ज़रूरत के तहत नहीं बग़रज़ तस्ख़ीर छज्जे में जल्वागर हुई। लावा छज्जे की तरफ़ देखता। मोतिये के फूलों वाली ख़ुशबूदार मुस्कुराहट देखते ही तमाम ग्राहकों को नज़रअंदाज़ करदेता और किसी लड़के को बर्फ़ का डला थमाकर भेज देता। पिटाई के बाद बदन के ज़ख़्म मुंदमिल हुए तो दिल में ज़ख़्म पड़ गए और गुदगुदाने लगे। नादिरां की मुस्कुराहटों से खेलना चाहता था लेकिन रास्ते में सुल्ताना खड़ी थी।

    लावे की दुकान ऊँची थी, वो ब्लैक भी करने लगा था लेकिन सुल्ताना का मेयार ज़रा उससे बहुत ऊँचा था। ऊधमपुर की महल सरा में जो चार दिन गुज़ारे, उससे मिज़ाज़ शाहाना होगया और वो सिर्फ़ उन लोगों को ख़ातिर में लाती जो दौलत वाले होते या दौलतमंद बनने की सलाहियत रखते। लावा अभी उसकी मंज़िल से कोसों दूर था।

    सुल्ताना का तरकश कभी ख़ाली हुआ। उसके पास कई तीर थे। उसने मिस्त्री दीन मोहम्मद को अपने क़ुर्ब का शरफ़ बख़्शा। ऊधमपुर के बाद एक बार फिर उसकी क़िस्मत चमकी। चमकती बग्घी पर रियासती शान से सुल्ताना आईना देखती, बाल सँवारती, चुस्त पाजामा ठीक करती, फ़्रॉक खींच कर सलवट निकालती और ऊधमपुर की शहज़ादी बन कर दहलीज़ पर आन खड़ी होती। बिस्मिल्लाह, माशा अल्लाह कह-कह कर मुस्कुराती और मिस्त्री दीन मोहम्मद के हाथ से वो टोकरी ले लेती जो कभी-कभी मिठाई और कभी फल से लदी फंदी होती। घटे हुए जिस्म और अधेड़ उम्र का सेहतमंद आदमी था। कनपटियाँ चिट्टी थीं। रंगत पुख़्ता सांवली थी। उसने वो परेशानी दूर करदी जो रियासती वज़ीफ़े की बे-क़ाइदगी और हकीम अब्दुल हकीम की मौत से सुल्ताना को लाहक़ हुई थी। बला की ख़र्चीली औरत थी। मिस्त्री दीन मोहम्मद की भरी जेबें आसानी से ख़ाली कर लेती और सारी रक़म उड़ाकर हथेली फैला देती। वो अत्तार ख़ाने की आमदनी भी ठिकाने लगा देती।

    सुल्ताना के लिए हर जगह ऊधमपुर थी। हर इलाक़ा उसका मफ़्तूहा इलाक़ा था। उसने बड़े कटड़े में तिरिया राज क़ायम कर लिया। मोहरे मिल गए जिन्हें वो हस्ब-ए-मंशा आगे पीछे सरकाने लगी। लावा और अब्दुल ख़ालिक़ भी मोहरे थे लेकिन प्यादे थे। वज़ीर और घोड़े नहीं बने थे। दोनों बराबर का जोड़ थे मिल कर तकिए में जाते। वर्ज़न करते, अखाड़े में उतर जाते, ख़ूब पकड़ें होतीं। दोनों ने एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर अपना-अपना बदन कमाया, चमकाया, दमकाया। तबअन दोनों मुख़्तलिफ़ थे। अब्दुल ख़ालिक़ की आँखें दिन भर औरतों के मुखड़ों से सजी रहतीं लेकिन मैली होतीं। लावे की आँखों में ख़ुशबूदार मुस्कुराहटें तैरती रहतीं और जमाले का चेहरा मचलता रहता।

    इस वक़्त जमाले का टहका था। इलाक़े में सब उसे किंग कहते। जुआख़ाना खोल रखा था। सैंकड़ों रोज़ कमाता, थाने में उसका नाम शुहरा-ए-आफ़ाक़ हस्तियों की फ़ेहरिस्त में दर्ज था। फिर भी उसकी आरज़ू थी कि बस्ता बे से तरक़्क़ी करके बस्ता अलिफ़ में आजाए। अख़बारों की शह सुर्ख़ी बने और ख़तरनाक ग़ुंडा कहलाए। शेख़ोपुरियाँ बाज़ार की औरतें उसके तरक़्क़ीयाती मंसूबों और ऊँचे अज़ाइम से मरऊब होकर उसे सलाम करतीं और झुक-झुक कर कोर्निश बजा लातीं। वो जिस कोठे पर चाहता चला जाता, जिस खिलौने से चाहता जी बहलाता। बस्ता अलिफ़ में आने के लिए एक आँच की कसर थी कि लावे को ख़बर मिल गई। नादिरां को जमाला एक आँख भाता। एक दिन लौंडा बर्फ़ लेने लावे के अड्डे पर आया। नादिरां छज्जे पर आई। जमाला खड़ा था। नादिरां को देख कर मुस्कुराया। फिर उसने सिगरेट सुलगाया और खाँस खंकार कर गला साफ़ किया और लम्बा कश लेकर उसकी तरफ़ मुँह करके धुआँ छोड़ा। नादिरां जूती दिखाकर पीछे हट गई। जमाला चला गया। लावा मौजूद था। आया तो लड़के ने सारा क़िस्सा सुनाया। उसके दिल पर बिजली गिरी। आगे चल कर बिजली फिर कड़की, फिर गिरी।

    जमाला जानां की कोठरी में बैठा शराब पी रहा था कि बर्फ़ ख़त्म होगई। जानां ने लड़का भेजा कि जमाले का नाम लेकर लावे से बर्फ़ ले आए। लड़का आया। लावा बर्फ़ दे देता लेकिन छज्जे में से नादिरां की मुस्कुराहट बिजली बन कर गिरी तो उसने लड़के को गालियाँ दे कर भगा दिया। लड़का मुँह लटकाए ख़ाली हाथ आया। पूछा तो बोला,लावे ने माँ बहन की गालियाँ दी हैं और कहा है पिछली पाँच सेर बर्फ़ के पैसे दिए नहीं, आगे से बर्फ़ लाने को भेज दिया। नादिरां को छज्जे में देख कर और भी फैल गया। जानां ख़फ़ीफ़ हुई और बोली,जमाले। ये माँ का यार! सुल्ताना की छोकरी के यहाँ तो पल-पल बर्फ़ भेजता है और तेरी यार को नहीं देता। मार उसके मुँह पर पैसे। बदलिहाज़ कहीं का!

    पैसे निकालने और लावे के मुँह पर मारने की बजाय जमाले ने कड़कड़िया चाक़ू निकाला और खड़ा होगया। घड़ी आगई है। आज मैं बस्ता अलिफ़ का बदमाश बन के रहूँगा। अच्छा हुआ जो लावा आड़े आया।

    अड़िया कुछ कर बैठना। जानां ने चमकदार चाक़ू देख कर कहा।

    हट गश्ती! जमाला उसे धक्का दे कर बाज़ार में गया।

    लावा आने वाले तूफ़ान से बेख़बर था। तूफ़ान ज़द पर आया तो उसने पूरी क़ुव्वत से ईंट उठाके मारी जो तूफ़ान के लगी। आँख फूटी, सर ज़ख़्मी हुआ। शराब का नशा, ईंट की चोट, तूफ़ान चकरा कर गिरा। चाक़ू काम आया तो जमाले ने बड़ी सुबकी महसूस की। छज्जे में बिजली जल्वागर हुई। लावे ने तेज़ नुकीला सुवा सँभाल लिया और अपने थड़े पर बसद जाह-ओ-जलाल खड़ा रहा। बाज़ार में हुजूम हो गया और वो जो हर आन नये हीरो की तलाश में रहते एक दम निगाहें फेर गए। किसी ने जमाले को तवज्जो के क़ाबिल समझा। सब लावे के गिर्द जमा होगए। उन्होंने तो जैसे नविश्ता-ए-दिवार पढ़ लिया था।

    फ़ीक़े फ़राडिए ने कहीं से गुलाब का हार पैदा किया और लावे के गले में डाल दिया, फिर बोला,जी ख़ुश कर दिया मेरे यार! आज से टकसाली दरवाज़े में तेरा सिक्का चलेगा प्यारे। वही जो उसे घास डालते थे अब उसे हार पेश करने लगे। अब वो इलाक़े का नया किंग था। छज्जे की अप्सराएं किंग को देख-देखकर मुस्कुराईं। एक दिन यहाँ से उसके दिल पर जो बिजली गिरी थी, वही अब जमाले के सर पर ईंट बन कर गिरी। जमाले के शागिर्द आए और उसे उठाकर अपने साथ ले गए। जाते-जाते उन्होंने दबे-दबे लफ़्ज़ों में कहा,जमालो पहलवान ठीक होजाए, फिर निमट लेंगे।

    फिर क्या? जिस माँ के यार को निमटना है अभी निमट ले। लावे ने ललकार कर कहा। जमालो और उसके शागिर्द बड़बड़ाते चले गए। जमाले का ख़ून थम नहीं रहा था। नादिरां ख़ुश हुई कि उसके खाते में सफ़-ए-अव्वल के एक बदमाश का लहू शामिल हुआ और दास्तान को रंगीन कर गया।

    लावा पोज़ीशन मुस्तहकम करने की ग़रज़ से गली में जाने लगा। मुस्तनद ग़ुंडा बनने के लिए गली की तस्ख़ीर ज़रूरी थी। लावा औरतों के मुँह पर सिगरेट का धुआँ फेंकता और उनके लब-ओ-रुख़सार का मेकअप ख़राब करता, जिसपर उनकी कारोबारी ज़िंदगी का दार-ओ-मदार था। जिसपर मेहरबान होता उसे मज़बूत बाज़ुओं में उठाकर झुलाता, घुमाता। नाटे क़द वाली पहाड़न को हवा में उछाल कर कैच करता।

    लावा चाक़ू निकाल कर हवा में लहराता और इलाक़े के नये ताजदार की हैसियत से उन ग़ुंडों को ललकारता जो गली में उसे देखते ही खिसकने लगते। जमाला अपनी यार जानां को लेकर नक़ल मकानी कर गया। लावा जिधर जाता, फ़तह उसके क़दम चूमती बल्कि पाँव पड़ती। मास्टर अल्लाह रखा प्रोपराइटर ऑल इंडिया सोडा वाटर फ़ैक्ट्री, उधार पट्टे पर माल सप्लाई करने लगा। लोग बतौर ख़ुशामद उसके बर्फ़ लगे गोली वाले अद्धे पीने लगे।

    वो तरक़्क़ीयाती मंसूबे बनाने और एक-एक करके उन्हें अमली जामा पहनाने लगा। उसके ख़फ़ीफ़ से इशारे पर बराबर वाली दुकान ख़ाली होगई और उसने उसे चाय ख़ाना बना लिया। चादर फैली तो नादिरां ने भी पाँव फैलाए। अब उसके यहाँ लेमन सोडा, केक, चाय, बालाई की प्यालियाँ जाने लगीं। फिर जब चायख़ाने को होटल बनाया तो स्पेशल खाने भी जाने लगे। बीते लम्हे बेदार होकर लावे की सोच में चमकने लगे। उसे वो घड़ी रह-रह के याद आती जब नादिरां ने उसे शरफ़-ए- क़बूलियत बख़्शना चाहा और पिट कर गया।

    नादिरां छज्जे में आकर उसके दिल में तूफ़ान उठा देती। नादिरां लड़की नहीं, झक्कड़ थी। रंगत सुर्ख़ सांवली थी। आँखें नशीली थीं। लाम्बी-लाम्बी पलकों पर संगीनियों का पहरा था। लाम्बे-लाम्बे सुनहरी बाल कमर पर झूलते। दिल उनमें अटक कर रह जाता। जूं-जूं ऊपर चढ़ता गया तूँ -तूँ जज़्बे के इज़हार की क़ीमत बढ़ती गई।

    सुल्ताना ने ऊधमपुर से आने के बाद सज धज में फ़र्क़ आने दिया। उसका घर अजायब ख़ाना था। कमरे में ज़ीनादार अलमारियाँ थीं, ख़ुशनुमा स्टैंड थे जिनकी चमकती दमकती खूंटियों पर हर फ़ैशन के कपड़े टँगे रहते। क़ालीन थे, सोफ़े थे। ये इन्क़लाब का अमल था। उन दिनों अपने आप इन्क़लाब चला आरहा था लेकिन ये कोई चीन का इन्क़लाब था। था ये भी इन्क़लाब लेकिन बड़ा अनोखा था। जो कभी दस के नोट को तरसते थे वो सौ के नोट पर काह के बराबर समझते और जगह बेजगह फेंकते फिरते। इस इन्क़लाब ने खोल बदल दिए और हर पैकर-ए-तस्वीर पर नोटों के काग़ज़ी पैरहन चढ़ गए। शैतान खूँटे से खेल गया और बड़कें मारने लगा।

    सुल्ताना के यहाँ मिस्त्री दीन मोहम्मद और मिस्त्री दीन मोहम्मद के यहाँ वर्कशॉप इन्क़लाब लाई। सयाना था। मिट्टी से सोना बनाने लगा लेकिन फिर एक मौक़े पर ये मर्द इन्क़लाब सुल्ताना के हाथों सोने बनाने से मिट्टी हुआ। ये भी किंग ही था और सुल्ताना किंग से कमतर दर्जे के किसी आदमी को घास डालती।

    एक रोज़ सुल्ताना और समीना शॉपिंग को निकलीं, नादिरां घर पर रही। मिस्त्री दीन मोहम्मद ने तन्हाई से फ़ायदा उठाया। सुल्ताना आई तो उसने लड़की को बेतौर पाया। बात गोल कर गई और मिस्त्री दीन मोहम्मद से और भी ज़्यादा घुल मिल गई। उसने मुतालिबात-ए-ज़र बढ़ा दिए, इस हद तक बढ़ा दिए कि मिस्त्री की हैसियत से आगे निकल गए। वो मुतालिबात के सेल के आगे ठहर सका। बहरहाल सनम के रूबरू सर बसजूद रहा। उसने बिल्डिंग बेची, मशीनें बेचीं, वर्कशॉप ठिकाने लगाई और खकल होगया। सुल्ताना ने उसे पटरी से उतार दिया।

    लावे को नई दुनिया मिली। वो पागल हो गया और अपनी सल्तनत की सरहदें बढ़ाने, फैलाने में लग गया। सुल्ताना का रसूख़ काम आया। ऊधमपुर से राबिता क़ायम होगया और चरस का धंदा चल निकला। हर शै में मिलावट होने और मिलावटी अशिया हाथों हाथ बिकने लगीं तो वो भी मिलावटी चरस बेचने लगा। अफ़्यून और कोकीन के बादशाह के मुक़ाबिल चरस का बादशाह बनना चाहता था। पट्ठों का अड्डा ख़ाली हुआ तो उसने क़ब्ज़ा जमा लिया। काम अपने आप बढ़ता चला गया। उसने अपने बिज़नेस कंप्लेक्स में कई कारिंदे शामिल कर लिए और जीप ले ली। माल भरता और इधर से उधर पहुँचता। बहार हो कि ख़िज़ाँ, दिन हो कि रात, दौड़ता भागता रहता। वो चलती-फिरती टकसाल बन गया। बाज़ार में कम ही आता।

    एक दिन घड़ी दो घड़ी के लिए होटल पर आया। जीप में बैठे-बैठे चाय पी कर एक सौदे के लिए जाने को था कि नादिरां छज्जे में आई, ऊपर आने का इशारा करके ग़ायब होगई। वो काम तो क्या, सब कुछ भूल गया। ख़ुशी से फूला समाया। ये सौदा सब सौदों से बड़ा था। नादिरां से मिलने गया। सुल्ताना से मुड़भेड़ हुई जिसने पेटीकोट पहन रखा था। पिंडलियाँ चमक रही थी। रानों के ख़त वाज़ेह थे, शमीज़ में से जिस्म का जलाल छन रहा था। उंगलियाँ हीरों जड़ी अँगूठियों से दमक रही थीं। ये ऊधमपुर की निशानियाँ थीं। लावा फटी-फटी आँखों से सुल्ताना का धाँसू पिंडा देखने लगा। सुल्ताना ने हाथ पकड़ कर उसे सोफ़े पर बिठा लिया और वो अपने दिल में ख़ातून अव्वल के बदन की मुलाइम-मुलाइम, ख़ुशबूदार हरारत जज़्ब करने लगा।

    सुल्ताना बोली,अड़िया, वो मिस्त्री है ना, दीना कमीना! कंजर को फ़क़ीर से अमीर मैंने किया और अब मुझी को आँखें दिखा रहा है। भाई बन के आता है। ख़सम बन के रहता है। निरी चाम चिट्ठ है। कंबल की तरह चिमट गया है। घर की एक-एक शै प्लीद कर रहा है। धेले की मदद नहीं कर सकता। उल्टी धौंस जमाता है।

    हुक्म कर! उसका पेट फाड़ दूँ, गोली मार दूँ! लावे ने यक़ीन महकम से कहा।

    नहीं वे। सुल्ताना ने सख़्ती से टोक कर कहा,इतने बड़े क़ज़िए की ज़रूरत नहीं। वैसे ही उसे डरा धमका दे।

    डराने धमकाने से बात बनी फिर? लावे ने जेब में से पिस्तौल निकाल लिया।

    फिर जो चाहे करना।

    लावे के ऑर्डर पर होटल में मुर्ग़ भूने और कबाब बनाए गए, नमकीन लस्सी और मैंगो आइस क्रीम का बंदोबस्त हुआ। ताश की बाज़ी जमी और लावे की हार से आग़ाज़ हुआ। सुल्ताना के अध नंगे पिंडे ने जलती पर तेल का काम किया। पत्तों की बजाय उसकी नज़रें सुल्ताना की नंगी बाँहों और पतली-पतली उँगलियों से खेल रही थीं जिन्हें गुलाबी होंटों की मुस्कुराहटें कुमुक पहुंचा रही थीं। लावा दानिस्ता नो सौ रुपये हारा। किंग बनने के बाद उसने जितने सौदे किए वो जीत के सौदे थे। ये पहला हार का सौदा था।

    खेल और खाने के बाद ये लोग क़ालीन, सोफ़े और पलंग पर दराज़ हुए। क़ैलूले के बाद नहा धोकर फ़ालूदे के प्यालों पर टूट पड़े। मिस्त्री दीन मोहम्मद आया तो लावे ने चिल्ला कर कहा,माँ के यार, बहन भगार। यहाँ क्या लेने आया है।

    वो हक्का-बक्का रह गया। इस अंदाज़ तख़ातुब से सकी रियासती शान मिट्टी में मिल गई। उसने अपनी हस्ती खंडर कर ली, जज़्बा-ए-मोहब्बत बरक़रार रखा लेकिन निरा जज़्बा-ए-मोहब्बत किस काम का था? इससे तो सुल्ताना के लिए एक वक़्त के मेकअप का सामान भी आसकता था। बेचारा हवास भी दुरुस्त कर पाया था कि लावे ने उसे ताबड़तोड़ मुक्कों से नवाज़ा और फिर उठाकर ज़मीन पर पटख़ा। लोहे की लट्ठ था लेकिन लोहा ख़ासा भुरभुरा होचुका था और फिर ग़ैर नस्तालीक़ आदमी से पाला पड़ा था। लावे ने अधमुआ कर दिया और सीढ़ियों से लुढ़का कर ख़त-ए-नस्ख़ बना दिया। फिर जब लावे ने कड़कड़िया चाक़ू खोला तो नादिरां ने उसे रोक लिया। मिस्त्री दीन मोहम्मद कराहता चला गया और हमेशा-हमेशा के लिए फ़ेड आउट हो गया।

    उसने उधर, लावे ने इधर रुख़ क्या। लावे की ख़ातिर सुल्ताना ने ज़रूरतन रियासती अंदाज़ बदला। बनारसी साढ़ी और तंग पाजामे के साथ लाचा भी पहनने लगी क्योंकि लावा उसके लिए कई लाचे लाया था।

    मैं भी आटे में नमक था और नमक की तरह पूरी ज़िंदगी में मौजूद था। अगरचे वो दाख़िल ख़ारिज होकर बड़ी हद तक ऊधमपुर के दफ़्तर बेमानी में शामिल मिसल हो चुकी थी पर वहाँ का तिरिया राज भूली थी। छोटे मिर्ज़ा की महलसरा खंडर हुई। कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र औरत ज़ीनत-ए-महफ़िल रही बल्कि महफ़िल ही रही फिर भी उसके दिल से बीते दिनों की कसक गई। हालात जानने के लिए मुझसे ख़त लिखवाती और आख़िर में ये ताकीद लिखने को कहती,फ़र्स्ट लेडी ऑफ़ ऊधमपुर।

    मुझे अपने ख़ानदान में शरीक करने की आरज़ूमंद थी शरीफ़ और ख़ानदानी कहलाने के लिए, कम से कम एक शरीफ़ और ख़ानदानी लड़का तो उसके अह्ल-ए -ख़ाना में होना ही चाहिए था। अनपढ़ नादिरां को ठिकाने लगाने की ग़रज़ से मुझसे ब्याहना चाहती थी लेकिन ये मुझे ठिकाने लगाने की तदबीर थी। मेरे नज़दीक इस सियासी मिलाप की इफ़ादीयत मशकूक थी। मैंने हिदायत नामा ख़ावंद तो नहीं पढ़ा था लेकिन घर और पड़ोस में अच्छी बीबियाँ देखी थीं। नादिरां में ऐसी कोई बात थी जिससे अच्छी बीबी का तसव्वुर क़ायम होता। वो हर दम अपने जिस्म के गिर्द घूमती। हर दम जिस्म को घूमाने की फ़िक्र में रहती। रही उसकी बहन समीना। सो वो निरी गाय थी। उसे किसी से सरोकार था। बिल्कुल कोल्ड थी वैसे कोल्ड क्रीम थी, मुलाइम और चिकनी। एक बूढ़ी मरियल औरत हाथ बटाती और वो घर-भर का काम करलेती, मुहल्ले के बेकार लौंडे ऊपर का काम करदेते। नादिरां घर का कोई काम करती, बस हर वक़्त आईने के रूबरू लहराती बल खाती और दिलआवेज़ ज़ाविए बनाती रहती, जैसे तस्ख़ीर आलम की तैयारी कर रही हो लेकिन फिर एक दम सारी अदाएं हवा होने लगीं। मिस्त्री दीन मोहम्मद की कारगुज़ारी दिखाई देने लगी।

    लावा ऊपर ही ऊपर गया। उधर अब्दुल ख़ालिक़ भी ख़ूब तरक़्क़ी कर गया। सुल्ताना को चारे की आमदनी मिलने लगी तो उसने अत्तार ख़ाने का ख़्याल भुला दिया और अब्दुल ख़ालिक़ को सियाह-ओ-सफ़ेद का मालिक बना दिया। सबके चेहरों पर सुर्ख़ी और दिलों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई लेकिन मुहल्ले के छुट भय्ये जो ख़ुद को अशराफ़-ए-दौरां और जद्दी पुश्ती नजीबों की आला नस्ल के जानवर समझते, दिल में उन सूरतों से प्यार और ज़ाहिरन नफ़रत का इज़हार करते। मिल बैठते तो बुरा-भला कहते और मौक़ा मिलता तो बुरा भला करने से चूकते।

    पहाड़ी लड़का सुल्ताना के लिए होटल से रिपोर्टें लाने और ताज़ा ताज़ा ख़बरें सुनाने पर मामूर था। सुल्ताना शिकायत करती तो लावा टाल देता। दाना था। कहता,बीबी! छोड़ उन कमीनों को। ये असील कुत्ते दो टके के हैं। भूके मरते और अकड़ते हैं। बैठने को जगह नहीं मिलती तो मेरे होटल में बैठते हैं। पहाड़िए से बातें करके जी बहलाते हैं। दो-दो घंटे बैठे रहते हैं एक प्याली चाय ले कर।

    लावे की बदौलत रूपों के और पहाड़ी लड़के की वसातत से रिपोर्टों के ढेर लगते गए। उधर ख़ुशी और इधर ग़म का पहाड़ खड़ा हुआ। सब लोग मद्धम सुरों में बात करते। मुंशी इलाही बख़्श ऊँचे सुरों में बोलते। वो तो मौसम बेमौसम की रागिनी थे। मुहल्ले के हर लावे को थप्पड़ मार सकते। चौक में आकर कहते,कैसा ज़माना आन लगा है? क्या होगया है बीबियों को, खिलौना बन के रह गई हैं। घर और चकला एक होगए हैं। फिर सुल्ताना के मकान की तरफ़ इशारा करके कहते,बस चले तो इसकी ईंट से ईंट बजा दूँ। ये औरत नहीं, ख़ानगी है। शरीफ़ों में रहती है और नोचियों वाले काम करती है। इसके कच्चे पक्कों का हिसाब ही नहीं। उनकी आवाज़ सुनते ही सुल्ताना चिक़ की ओट में बैठती और उनके मलफ़ूज़ात सुनती।

    किसकी मजाल थी कि ज़बान पकड़ता। शराफ़त के दौर-ए-ज़वाल की आख़िरी यादगार थे। बाल सफ़ेद, चेहरा अंगारा, आवाज़ में कड़क, उम्र सौ से ऊपर थी। गो सुल्ताना को गज़ंद पहुँचने का एहतमाल था फिर भी उनकी बातों से दिल पर दुर्रे लगते। पैसे की अर्ज़ानी से उसमें रवानी आगई। पैसा वजह निशात तो बना, वजह सुकून बना। वो उस दुख से निजात पाना चाहती जो उसकी सोच को डंक मारता रहता। लावे से शिकायत की तो वो कान पर हाथ धर कर बोला,ना बाबा! कुछ नहीं किया जासकता। वो मेरे बाप को थप्पड़ मारते थे। उसकी माँ बहन एक कर देते थे। भले लोके! मेरा बाप हँस देता था। जिसका उसे लिहाज़ था उसका मैं क्या बिगाड़ सकता हूँ? मैं मुंशी इलाही बख़्श के सामने ज़बान नहीं खोल सकता। डरोट। सब्र कर।

    सुल्ताना मायूस भी हुई और हैरान भी। इलाक़े का जवाँ साल किंग सद साला बुड्ढे के सामने ज़बान खोल सकता था। आख़िर मसला हल हो ही गया। नवाबाना ठाट की एक हवेली थी। लावे ने वो सुल्ताना के लिए ख़रीद ली। सुल्ताना ने तरमीम-ओ-इस्लाह करवाके उसे ऊधमपुरी तर्ज़ का करलिया। पेशानी पर हस्ब-ए-मामूल हाज़ा मन फ़ज़ल-ए-रब्बी की लौह लगवाई। नाम राज रखा। ख़ातून अव्वल बन के रहने लगी। आख़िर इलाक़े के किंग की दाश्ता थी। ड्योढ़ी पर बुलडॉग बाँधा। उसके लिए जो हट्टा कट्टा लड़का रखा वो भी बुलडॉग ही था।

    नादिरां हल्की फुल्की होकर ख़ाला के यहाँ से आगई। वो पहले की तरह शादाब-ओ-ताबदार थी। बदन में वही पहली सी छनक थी। सुल्ताना उसे लावे के क़रीब भी फटकने देती। वो तो लावे को अपने बदन की लकीरों और ख़्यालों के तानों बानों में उलझाए रहती। बदन की चमकती दमकती हरारत से उसने लोहे को मोम कर लिया।

    लावा मार धाड़ की मुहिम पर निकलता तो सुल्ताना किंग बन जाती। होटल, बर्फ़ के अड्डे और पुट्ठों की दुकान का चार्ज सँभालती। लावा स्मगलिंग के फ़न में ताक़ होगया। कारिंदे मंझे हुए थे। उसकी हिदायत पर फ़्रंट लाइन सँभालते। लावा उन्हें कवर देता। सुल्ताना थर्ड लाइन पर रहती। हर फेरे में ढेरों नोट लाकर सुल्ताना के सामने फेंक देता, देगें चढ़तीं, खाना बटता।

    सुल्ताना पहले भी कम तीखी थी। हवेली के सुनहरे माहौल, पैसे के अंधे नशे और ऊँचे मेयार ज़िन्दगी ने और भी तीखा कर दिया। वो ख़ुद को रानी समझने लगी। इतनी ऊँची होगई कि मुंशी इलाही बख़्श मअ ऊँची आवाज़ के दब कर रह गए। वो पहले से ज़्यादा जवाँ फ़िक्र होगई। माल रोड पर अंग्रेज़ी सैलून में बाल बनवाने जाती। बदन में लचक थी, कसे हुए तबले की खनक थी। तमाम आज़ा हुस्न का जली उनवान थे लेकिन होंट शह सुर्ख़ी थे। उसने कमर को मुबालग़ा आमेज़ हद तक पतला करलिया। जन्नत में रहने लगी। मैं कभी कभी जाता तो वहाँ बदनों की जहन्नुम सुलगती देखता। मेरी सोच में गड़बड़ थी। उसमें कोई मुंशी इलाही बख़्श छुपा बैठा था। वैसे मेरी बड़ी आवभगत होती। जिस दिन ख़त लिखवाना या पढ़वाना होता, उस दिन लंबी नशिस्त होती। लावा बड़ा लिहाज़ करता, क्योंकि वो मेरे सामने थड़े से उठ कर किंग बना था। क़ालीन सोफ़े और फ़ोम के बिछौने रौंदने लगा।

    एक रोज़ गया तो ठंडे कमरे को बंद पाकर लड़कियों के कमरे की जानिब हो लिया, जिधर से क़हक़हों का नुक़रई शोर आरहा था। लावे ने दर्ज़ में से देख कर बुला लिया। कमरे में गया। बियर की बोतलें खुली थीं।

    लड़का क़ाबू नहीं आता। सुल्ताना ने शिकायतन कहा।

    वाह उसकी, अज़ीज़ मियाँ की क्या बात है। ये तो अपनागाढ़ा यार है। इकट्ठे कबड्डी खेले, पल गोलियाँ खेलें, पतंग डोर लूटी। फ़स क्लास है। बस एक ही नुक़्स है। ज़रा भला मानस है। मेरे साथ मिल जाए तो महीने के अंदर-अंदर सोने-चाँदी के तौल का होजाए।

    सोचा था, नादिरां से चार कलमे पढ़वादो, पर ये किसी तल पर नहीं आता।

    पर मैं कैसे आता उसके तौल पर? मेरे घराने का नाम मुझसे भी ऊँचा था। सुल्ताना की सतह पर पहुँचने के लिए मुझे बहुत कुछ ग़ारत करना पड़ता। फिर उन लोगों की ज़िंदगी में गहराई और संजीदगी थी। कोई हसीन अंजाम भी पेश नज़र था, जिस्म की बाज़ीगरी के सिवा उन्हें और आता भी क्या था? उनके जिस्मानी करतबों से बदन में सनसनी तो आजाती लेकिन सोच ज़ब्ह होजाती। उनकी सोच ऊँची थी। फिर नादिरां प्रॉब्लम गर्ल थी। उसे पल भर कल पड़ती। वहाँ तो धमाचौकड़ी ही धमाचौकड़ी थी।

    लावे ने बियर का ग्लास ग़टाग़ट चढ़ा कर मुँह साफ़ किया और दूसरी बोतल खोलते-खोलते कहा,मेरा यार लिखा पढ़ा है और नादिरां चिट्टी अनपढ़ है। जोड़ ठीक है। और अगर ये चिट्टी अनपढ़ क़ाफ़ से बढ़ कर चिट्टी होती तो भी फ़र्क़ पड़ता। मेरा अहद जाहिलियत इतना जाहिलाना नहीं था। मैंने रेफ़्रिजरेटर में से बोतल निकाली और ग्लास लेकर बैठ गया। सुल्ताना ने दो बोतलें ख़ाली कीं और दो बार बाथरूम में गई। कुछ-कुछ नशा चढ़ा। लावे से उलझने लगी। मैं उठने लगा तो उसने हाथ पकड़ कर मुझे अपनी तरफ़ खींचा। लावे ने उसकी चुटिया खींची और ढेर सारी बाज़ारी गालियाँ सुनाईं। फिर दोनों नॉन स्टॉप होगए। मैं उठ कर लड़कियों के कमरे में आगया जहाँ धमाचौकड़ी हो रही थी। लड़कियों ने मुझे भी उसमें मिलाया। साँस फूले तो धमाचौकड़ी थमी। हम सब बेतौर होकर क़ालीन पर गिरे।

    सुल्ताना के कमरे का बोल्ट चढ़ने की आवाज़ आई तो नादिरां बोली,हूँ, हक़ मेरा था। माँ ने मार लिया। समीना सेब छीलने लगी। नादिरां नंगी तस्वीरों वाले अंग्रेज़ी रिसाले देखने लगी जिनके लिए एक कबाड़ी से बाँध लगी थी। इतने में अत्तार ख़ाने के सियाह-ओ-सफ़ेद का मालिक अब्दुल ख़ालिक़ भी गया। वो दो वक़्त फ़र्ज़ के तौर पर डंड पेलता और सपाटे लगाता। सेब और गाजर के मुरब्बे चाँदी के वरक़ में लपेट-लपेट कर खाता। घर और बाहर मुँह मारता रहता और दूध पीने के मुक़ाबलों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता। अपने आपको तैयार रखता। ग़ुंडों के बाज़ार में जीने का यही क़रीना था। वो जान बनाता। सुल्ताना पीठ ठोंकती। जूं-जूं क़दर आवर हुआ, घर में उसकी आमद-ओ-रफ़्त बढ़ी और वो धमाचौकड़ी कारकुन बन गया। अगरचे समीना कम गो थी और उसमें चंचलपन भी ज़्यादा नहीं था लेकिन धमाचौकड़ी में वही पहल करती। धमाचौकड़ी के तीनों चारों रुक्न तबअन अलग-अलग थे लेकिन मिल बैठते तो नरताला चौताला लगता। ठुमरियाँ, दादरे एक होजाते।

    एक दिन धमाचौकड़ी ज़ोरों पर थी। समीना को जाने क्या सूझी, उसने अब्दुल ख़ालिक़ को इस ज़ोर से बाज़ू में काटा कि वो बिलबिला उठा। ख़ून निकल आया। ज़ख़्मी हालत में सीधा सुल्ताना के पास गया और बोला, बीबी! समीना बोल पड़ी है। उससे मेरा ब्याह करदे! सुल्ताना ने खींच कर तमांचा मारा और कहा,दूर दफ़ान, दल्ला कहीं का। नौकर बन के आया और घर का मालिक बनने लगा। उसने सुल्ताना के पीर पकड़ लिये और कहा,मौला जाने! मैं अब भी नौकर हूँ। मैंने कड़कड़ी वाला चाक़ू ले लिया है। हुक्म कर! जिसकी आँतें निकाल दूँ।

    सुल्ताना ने बड़ी दिलचस्पी से उसकी बातें सुनीं। वो उसके आहनी बदन और बाज़ुओं में तैरती पत्थर की मछलियों को देखती रही। मछलियों की शौक़ीन थी। शौक़ से खाती। वो बोला,बीबी, तू धन दौलत वाली है। तेरे सौ दुश्मन। लावा अब दुश्मनों का मुक़ाबला नहीं करसकता। और सुल्ताना को वाक़ई अब्दुल ख़ालिक़ में नया, जी दार लावा नज़र आया। वो फिर बोला,तुझे तो पता है। लावा नख़ालिस चरस पीता है। मैं उसे उठा कर हवा में उछाल सकता हूँ। स्मगलिंग करता है। किसी दिन नाहक़ मारा जाएगा। फिर कौन तेरा पहरा देगा बीबी! सोच तो सही! मैं तेरा ग़ुलाम, मैं तेरा पहरा दूंगा।

    सुल्ताना ने नये लावे के बाल पकड़के ज़ोर-ज़ोर से झिंझोड़ा और पत्थर की मछलियों पर तान कर घूंसे मारे। उल्टा हाथ पकड़ कर रह गई। नया लावा हाथ दबाने लगा तो बोली,धीरे-धीरे दबा। पता है तुझे जवानी चुभने लगी है। घबरा नहीं, तेरा भी तिया पांचा करदूँगी।

    ऊधमपुर से कारिंदे आते। चरस और ख़बरें लाते रहते। ताज़ा सूरत-ए-हाल ये थी। छोटे मिर्ज़ा की माँ ने जंग छेड़ी और चौमुखी लड़ने लगी। बड़ी काँटा औरत थी। जंग ख़ूब ज़ोरों पर हुई। महल सरा की रौनक़ लुट गई। कुछ औरतें भाग गईं। कुछ भागने के लिए पर तौलने लगीं। बहरतौर सुल्ताना ख़ुद को ऊधमपुर की ख़ातून अव्वल समझती लेकिन सरे दस्त जहन्नुम में जाने के लिए तैयार थी। ऊधमपुर का ज़िक्र उसे तड़पाता। चार दिन की बादशाहत याद आती तो दिल मचल-मचल जाता। अपनी फ़ुतूहात का ज़िक्र करती। ऊधमपुर का नाम बड़े जोश-ओ-ख़रोश से लेती। उसकी ज़िंदगी में जोश-ओ-ख़रोश के सिवा और रखा ही क्या था। वो तो अपने क़ुर्ब की आँच से ठंडे पत्थरों में जोश-ओ-ख़रोश भर देती।

    नादिरां भी जोश-ओ-ख़रोश की ज़िंदगी बसर करने के लिए बेताब रहती लेकिन सुल्ताना की ज़ेर दरख़्ती होकर रह गई। उसकी शिकायत जूं की तूँ रहती। जब भी सुल्ताना बोल्ट चढ़ाती, नादिरां के मुँह से बेइख़्तियार ये जुमला फैल जाता,हक़ मेरा था, माँ ने मार लिया। आख़िर इस जुमले की भनक पहले लावे और फिर सुल्ताना के कान में पड़ी। सुल्ताना ने मुझसे कहा, अज़ीज़ उसे समझा। बक बक करती रहती है। उसके अंदर क्यों आग लगी है। ऐसा ही है तो उसे कह, किसी के साथ भाग जाए।

    यही बात मनो अन मैंने नादिरां से कह दी। उसने पलट कर कहा,चल तेरे साथ चलती हूँ। कर जुर्रत। लेकिन मैं कैसे जुर्रत करता? इस काम की तरबियत ही नहीं ली थी। घर की तारीख़ में दूर-दूर तक ऐसे किसी वाक़िए का सुराग़ मिला जो अग़वा के लिए वजह-ए-ज़वाज़ बनता और फिर अग़वा की ज़रूरत ही क्या थी? सुल्ताना तो उसे बसद मसर्रत मेरे हवाले करने पर राज़ी थी। जवाब देने की बजाय मैंने धमाचौकड़ी शुरू करदी और मामला गोल होगया। लेकिन वो जुमला, हक़ मेरा था, माँ ने मार लिया। रंग लाया। एक दिन कमरा बंद करके माँ ने बेटी को बुरी तरह पीटा। बाज़ारवालों ने चीख़ें सुनीं लेकिन कौन बोलता, लावे के घर का मामला था। लावा आया तो बुलडॉग वाले मुहाफ़िज़ से हाल मालूम हुआ। सुल्ताना से पूछा तो इसने परदा डाला। उस दिन लावा आया तो सिर्फ़ दो घंटे घर रहा और ये वक़्त भी उसने सोकर गुज़ारा। उठ कर मुहिम पर चला गया। उसने सुल्ताना से बात नहीं की, अलबत्ता नादिरां का जुमला, हक़ मेरा था, माँ ने मार लियाउसके कानों में गूँजता रहा।

    उधर अब्दुल ख़ालिक़ का जोश-ओ-ख़रोश बढ़ता रहा। वो जब भी सुल्ताना से कहता,बीबी! समीना से मेरा ब्याह करदे! वो उसके बाल नोचती और पत्थर की मछलियों पर मुक्के मारती। हाथ दर्द करने लगता। अब्दुल ख़ालिक़ हाथ दबाने लगता। जब बहुत तंग आई तो बोली,कंजरा सब्र कर। समीना को रहने दे अभी मेरे पास।

    बीबी! मैं उसे कहाँ ले जाऊंगा। वो तेरे पास ही रहेगी।

    अच्छा, बक बक बंद कर। उसने बक बक बंद करदी। बातचीत के कई सेशन हुए। हर बार बातचीत नाकाम हुई।

    मुहिम तूल पकड़ गई। लावा आठ दिन के बाद लौटा। मुहिम नाकाम रही। किसी ने मुख़बिरी करदी। बॉर्डर पुलिस से मुक़ाबला होगया। उसके दो जी दार कारिंदे मारे गए। लावा किसी किसी तरह जान बचाकर गया। ख़ासा माल ज़ाए गया। साथियों की मौत और मुहिम की नाकामी में नादिरां का जुमला शामिल हुआ तो दिमाग़ फटने लगा। उसने आते ही बोतल को मुँह लगाया। सुल्ताना को मुँह लगाया। पहले ही हिले में चौथाई बोतल चढ़ा गया। मूड पहले ही ख़राब था। अब और भी ख़राब होगया। सुल्ताना ने जब कहा, नीट पी लाविया। तो वो ग़ज़बनाक होकर बोला, चुप रह गश्तिये। सुल्ताना के कलेजे में तीर लगा। समझ गई, हवा का रुख़ फिर गया है।

    लावा कमरे से बाहर आया। सुल्ताना भी बाहर आगई तो चिल्लाकर बोला, नोची ख़ानगी! माल धुर करती रही, आफिर गई है। ख़ाना ख़राबे। नादिरां से काहे का साड़ा था? उसे क्यों मारा था? उसने हक़ की बात की तो मिर्चें लग गईं। कंजरिए टाँग पर टाँग रख कर चीर दूंगा। दूर हो सामने से! तेरा अब मुझसे कोई वास्ता नहीं। चाक़ू खोल कर वो लड़कियों के कमरे में चला गया। सुल्ताना सहम गई और बरामदे में सतून से लग कर खड़ी होगई। वो नादिरां को खींच कर कमरे में ले आया। सुल्ताना धाड़ें मार-मार के रोने लगी और रोने की आवाज़ में बोल्ट की आवाज़ कड़की।

    सदमा कम था लेकिन एक और पहाड़ टूटा। अब्दुल ख़ालिक़ ने देखा, सुल्ताना मुर्दा लकड़ी होकर रह गई है और चोट नहीं लगा सकती तो समीना को ले भागा। अत्तार ख़ाना बंद होगया। ग़म की आग पर आग भड़की लेकिन वो उसमें जल मरने पर आमादा हुई। एक दिन मेरे यहाँ आई कपड़ों में उजलाहट थी उसमें बाँकपन था। एक वो हाल कि मेरे पास से गुज़रे तो ख़ूशबुएं बिखर जाएं और एक ये हाल कि बदन बासी, चेहरा मुरझाया हुआ। हँसी की ख़फ़ीफ़ सी लहर होंटों पर उभरी। मैं घर में अकेला ही था। सुल्ताना आते ही धड़ाम से पलंग पर गिरी और फूट-फूट कर रोने लगी, मैंने दिलासा दिया और कहा, बीबी। अपनी सोच ठीक करो। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। सब कुछ ठीक हो सकता है।

    अज़ीज़! बस इतना बतादे! वो हरामी मौत समनियाँ को लेकर कहाँ चला गया है?

    सुना है, चौड़ी खोई के सामने उसने चौबारा लिया है, वहीं समीना को ले गया है।

    मुझे उससे मिलना है।

    ज़रूर मिलो लेकिन झगड़ा मोल लेना। दूसरा लावा बल्कि उसका भी बावा है। मीठी बन के रहो। आख़िर उसकी ख़ुशदामन हो। लावे ने हरमज़दगी की है। उसने हलाल किया है।

    उसने हिक्मत-ए-अमली से काम लिया। नर्मी से फुसलाकर समीना और अब्दुल ख़ालिक़ को अपने यहाँ ले आई। फ़ौरी तौर कशीदगी बढ़ी। सुल्ताना बेशतर वक़्त मज़ारों पर और अब्दुल ख़ालिक़ के पास गुज़ारती। अब्दुल ख़ालिक़ से हमेशा अलैहदगी में बात करती। अत्तार ख़ाना खुल गया। अब्दुल ख़ालिक़ सारी कमाई सुल्ताना के हवाले करने लगा। लावे को अब्दुल ख़ालिक़ खटकता। हवेली उसकी थी और अब वो नादिरां के सिवा सबको ग़ैर समझने लगा था। वो उसे अपने यहाँ बर्दाश्त करने को तैयार था। एक दिन लावा अत्तार ख़ाने पर गया। बोला, ख़ालिक़ी! अपना बंदोबस्त कर। मेरी हवेली में तेरा कोई काम नहीं।

    काम तो है, बड़ा काम है। लावे को ये जवाब पसंद आया। उसने सिगरेट का लम्बा कश लिया जैसे मोराल ऊँचा और ख़ुद-एतमादी का मुज़ाहिरा करना चाहता है। इस तरह अहसास-ए-बरतरी भी उभरा। सुल्ताना आकर अत्तार ख़ाने पर बैठ गई।

    ले! तेरी हमियतन भी आगई है। लावे ने तहक़ीर के अंदाज़ में कहा।

    हाँ आगई है, मेरी माँ है। अब्दुल ख़ालिक़ संजीदगी से बोला।

    तेरी माँ की। लावे ने ग़लीज़ गाली दी। पूरे बाज़ार ने सुनी। ाली सुनते ही अब्दुल ख़ालिक़ छलाँग लगाकर थड़े से उतरा और लावे से गुत्थम गुथा होगया। नादिरां और समीना बालकोनी में आगईं। सुल्ताना ने लावे पर गालियों की बोछाड़ करदी। फिर चाक़ू खोल कर अब्दुल ख़ालिक़ को थमा दिया।

    निकाल दे कुत्ते की आँतें बाहर। और उसने कुत्ते की आँतें बाहर निकाल दीं। पेट चाक होगया और लावे ने अंतड़ियाँ समेट कर पेट में रख लीं। लड़खड़ा कर गिर गया। लोग तेज़ी से दुकानें बंद करने लगे। बाज़ार सूना होने लगा। किंग के दिन पूरे हुए। सुल्ताना अपने ताज़ा कारनामे पर नाज़ाँ हुई। इसने आज फिर इंसानों की क़ीमत बनाने बिगाड़ने का हुनर आज़माया। मुतमइन थी कि वो जब चाहे, जिसे चाहे, अपनी मर्ज़ी से ऊपर तले करसकती है, वो यक़ीनन बड़ी औरत है। लहू की होली खेलने में ताक़ होचुकी और मनात देवी बन चुकी थी जिसकी प्यास सिर्फ़ लहू से बुझती थी।

    ऊधमपुर से लम्बी तड़ंगी, चमकती दमकती कार आई। सुल्ताना लपक कर गई। फ़राश ख़ाने के मुहतमिम ख़ास ने ख़ुशख़बरी सुनाई। छोटी बेगम ने नवाब राहत बेग और बड़ी बेगम को ज़हर दे कर मरवा दिया है और फ़ातिहाना शान से छोटे मिर्ज़ा को गद्दी पर बिठाया है। सब औरतें महल सरा में लौट आई हैं।

    छोटी बेगम भी जैसे सुल्ताना थी। ऊधमपुर की ख़ानदानी सुल्ताना। क्या फ़र्क़ था दोनों में?

    मुहतमिम ख़ास ने चलने की दावत दी सुल्ताना ने अपने मफ़्तूहा इलाक़े पर मचलती हुई नज़र डाली। किंग तड़प-तड़प कर ठंडा हो चुका था। सुल्ताना के लिए नये मसाइल पैदा होगए थे। नये किंग को फ़ातिहाना शान से गद्दी पर बिठाना था। क़ानून से उलझना था। नया सिक्का चलाना था।

    छोटे मिर्ज़ा को मुबारक दीजिए और मेरा बहुत-बहुत सलाम कहिए, मैं जल्द आऊँगी, बहुत जल्द आऊँगी। यहाँ के काम मुकम्मल करलूँ।

    सच?

    बिल्कुल सच। आख़िर ऊधमपुर की ख़ातून अव्वल बनना है मुझे! घबराएं नहीं।

    अपनी नई ज़िम्मेदारियों के बाइस वो सरे दस्त बाहर जासकती थी। उसने बादल नाख़्वास्ता ऊधमपुर के एलचियों को अपनी पुरानी मफ़्तूहा सल्तनत की तरफ़ रवाना किया।

    स्रोत:

    Khushboo-Dar Aurtain (Pg. 36)

    • लेखक: रहमान मुज़्निब
      • प्रकाशक: रहमान मुज़्निब अदबी ट्रस्ट, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2002

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