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वक़्फ़ा

नैयर मसूद

वक़्फ़ा

नैयर मसूद

MORE BYनैयर मसूद

    स्टोरीलाइन

    अतीत की यादों के सहारे बे-रंग ज़िंदगी में ताज़गी पैदा करने की कोशिश की गई है। कहानी का प्रथम वाचक अपने स्वर्गीय बाप के साथ गुज़ारे हुए वक़्त को याद कर के अपनी बिखरी ज़िंदगी को आगे बढ़ाने की जद-ओ-जहद कर रहा है जिस तरह उसका बाप अपने घर बनाने के हुनर से पुरानी और उजाड़ इमारतों की मरम्मत करके क़ाबिल-ए-क़बूल बना देता था। नय्यर मसऊद की दूसरी कहानियों की तरह इसमें भी ख़ानदानी निशान और ऐसी विशेष चीज़ों का ज़िक्र है जो किसी की शनाख़्त बरक़रार रखती हैं।

    गुज़ाशतेम-ओ-गगुज़शीतेम-ओ-बूदनी हमा बूद

    शुदेम-ओ-शुद सुख़न-ए-मा फ़साना-ए-इतफ़ाल

    ये निशान हमारे ख़ानदान में पुश्तों से है। बल्कि जहां से हमारे ख़ानदान का सुराग़ मिलना शुरू होता है वहीं से इसका हमारे ख़ानदान में मौजूद होना भी साबित होता है। इस तरह उस की तारीख़ हमारे ख़ानदान की तारीख़ के साथ साथ चलती है।

    हमारे ख़ानदान की तारीख़ बहुत मरबूत और क़रीब क़रीब मुकम्मल है, इसलिए कि मेरेअज्दाद को अपने हालात महफ़ूज़ करने और अपना शिजरा दरुस्त रखने का बड़ा शौक़ रहा है। यही वजह है कि हमारे ख़ानदान की तारीख़ शुरू होने के वक़्त से लेकर आज तक उस का तसलसुल टूटा नहीं है। लेकिन इस तारीख़ में बा’ज़ वक़फ़े ऐसे आते हैं...

    मेरा बाप अनपढ़ आदमी था और मामूली पेशे किया करता था। उसे कई हुनर आते थे। बचपन में तो मुझे यक़ीन था कि उसे हर हुनर आता है, लेकिन उसका असल हुनर मे’मारी का था, और यही उस का असल पेशा भी था, अलबत्ता अगर मौसम की ख़राबी या किसी और वजह से उसको मे’मारी का काम ना मिलता तो वो लकड़ी पर नक़्क़ाशी या कुछ और काम करने लगता था।

    मेरी परवरिश उस के ज़ानुओं पर हुई और आँखें खोलने के बाद मैंने मुद्दतों तक सिर्फ उसी का चेहरा देखा। मुझे अपनी माँ याद नहीं, हालाँकि मुझे उस वक़्त तक की बातें याद हैं जब मैं दूध पीता बच्चा था। इस वक़्त में रोता बहुत था लेकिन मेरा बाप मुझे बहलाने के बजाए मुझको अपने ज़ानू पर लिटाए ख़ामोशी के साथ देखता रहता था यहां तक कि मैं उसका चेहरा देखते देखते आप ही आप चुप हो जाता। ज़ाहिर है मेरी परवरिश तन्हा उसने नहीं की होगी इसलिए कि उसे काम पर भी जाना होता था, लेकिन उस ज़माने की यादों में, जिनका कोई भरोसा भी नहीं, अपने बाप के सिवा किसी और चेहरे का नक़्श मेरे ज़हन में महफ़ूज़ नहीं और वो भी सिर्फ इतना कि एक दोहरे दालान में वो गर्दन झुकाए चुप-चाप मुझे देख रहा है और मुझको उसके चेहरे के साथ ऊंची छत नज़र रही है जिसकी कड़ीयों में सुर्ख़और सब्ज़ काग़ज़ की नुची खुची सजावट झूल रही है।

    जब मैंने कुछ होश सँभाला तो मुझे एहसास होने लगा कि मेरा बाप देर देर तक घर से ग़ायब रहता है। ये उस का ऐसा मामूल था कि जल्द ही मुझको घर से उसके जाने और वापस आने के वक़्तों का अंदाज़ा हो गया। मैं उन दोनों वक़्तों पर, बल्कि उनसे कुछ पहले ही, एक हंगामा खड़ा कर देता था। उसके जाते वक़्त मैं सेहन में जमा मलबे के ढेर में से ईंटों के टुकड़े उठा उठा कर उसे मारता रहता यहां तक कि पड़ोस की कोई ख़स्ता-हाल बुढ़िया आकर मुझे गोद में उठा लेती। ऐसी औरतें मेरे मकान के आस-पास बहुत थीं। जितनी देर मेरा बाप घर से बाहर रहता, उनमें से एक दो औरतें मेरे पास मौजूद रहतीं। कभी कभी उनके साथ मैले कुचैले बच्चे भी होते थे। बाप के जाने के कुछ देर बाद मेरा ग़ुस्सा कम हो जाता और मैं बुढ़ियों से कहानियां सुनने या बच्चों के साथ खेलने में लग जाता, लेकिन उसकी वापसी का वक़्त क़रीब आता तो मेरा मिज़ाज फिर बिगड़ने लगता था। और जैसे ही वो घर के सेहन में क़दम रखता, में लपक कर उस की तरफ़ जाता और अपने छोटे छोटे कमज़ोर हाथों से उसे मारना शुरू कर देता। उस वक़्त मेरा बाप मुझसे भी ज़्यादा हंगामा करता और इस तरह चीख़ता और तड़पता था गोया मैंने उसकी हड्डियां तोड़फोड़ कर रख दी हैं। आख़िर मेरा ग़ुस्सा कम हो जाता और में उसका इलाज शुरू करता। वो तुतला तुतलाकर मुझे बताता कि उसको कहाँ कहाँ पर चोटें आई हैं और मैं उसके बदन को कहीं दबाता, कहीं सहलाता और कहीं पर फूँकता, उसके फ़र्ज़ी ज़ख़मों से बहता हुआ फ़र्ज़ी ख़ून पोंछता और ख़्याली शीशियों से ख़्याली दवाएं उस के मुँह में उंडेलता, जिनकी कड़वाहट ज़ाहिर करने के लिए वो ऐसे बुरे बुरे मुँह बनाता कि मुझे हंसी जाती थी।

    उस वक़्त तक, बल्कि उसके आख़िरी वक़्त तक, मुझे इल्म नहीं था कि वो मेरा हक़ीक़ी बाप है। मैं समझता था कि वो मेरे ख़ानदान का कोई पुराना मुलाज़िम है जिसने वफ़ादारीके साथ मेरी परवरिश की है। इस ग़लतफ़हमी की ज़िम्मेदारी मुझसे ज़्यादा ख़ुद उस पर थी। उसका बरताव मेरे साथ वाक़ई ऐसा था जैसे में इस का आक़ा ज़ादा हूँ। इसलिए मेरा बरताव उसके साथ बुरा था। लेकिन में अपने वहशयाना अंदाज़ में उससे मुहब्बत भी करता था जिसकी वजह से उसका बदन ख़राशों से कभी ख़ाली ना रहता।

    जब मैं कुछ और बड़ा हुआ तो उसका घर से निकलना मुझे और ज़्यादा नागवार गुज़रने लगा। अब में कभी उस के औज़ारों का थैला छुपा देता, कभी उसमें से कुछ औज़ार निकाल कर उनकी जगह ईंटों या लकड़ी के टुकड़े रख देता, यहां तक कि उसने थैला एक मचान पर छुपा कर रखना शुरू कर दिया। और जब मैं उस मचान तक भी पहुंचने लगा तो एक दिन थैला ग़ायब हो गया। उसके बाद कई दिन तक मेरा बाप घर से बाहर नहीं निकला, और दोहरे दालान की सुर्ख़ सब्ज़ सजावट वाली छत के नीचे बैठा लकड़ी पर नक़्क़ाशी करता रहा। इसमें उसका इन्हिमाक ऐसा था कि मैं उसके काम में मुख़िल होते डर रहा था, लेकिन इससे ज़्यादा मुझे इस बात का डर था कि जल्द ही वो नक़्क़ाशी का काम छोड़ देगा और औज़ारों का थैला निकाल कर फिर घर से बाहर जाना शुरू कर देगा, इसलिए में इस फ़िक्र में लग गया कि थैला तलाश कर के उसे हमेशा के लिए ग़ायब कर दूं। अपने बाप को बताए बग़ैर कि मुझे किस शैय की तलाश है, मैं थैले को मकान के एक एक हिस्से में ढूंढता फिरा। मकान के अंदरूनी दालानों में ज़्यादा-तर दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल थे और मुझे पता नहीं था कि उनके पीछे क्या है। पुरानी वज़ा’ के ज़ंगआलूद क़ुफ़्लों को देखकर गुमान होता था कि उन्हें मुद्दत से खोला नहीं गया है बल्कि उनकी कुंजियाँ भी कब की ग़ायब हो चुकी होंगी, इसलिए मैंने फ़ैसला कर लिया कि थैला इन दरवाज़ों के पीछे नहीं है। लेकिन मकान में ऐसे दरवाज़े भी बहुत थे जो मुक़फ़्फ़ल नहीं थे। उनके पीछे मुझे ख़ाली कमरे और कोठरियां नज़र आईं। साफ़ मालूम होता था कि उनमें का सामान हटा कर हाल ही में उनकी मरम्मत की गई है। बा’ज़ बा’ज़ के फ़र्श पर तो अभी पानी तक मौजूद था। मुझे ताज्जुब हुआ कि मेरा बाप घर पर भी किसी वक़्त मे’मारी का काम करता है। यही ताज्जुब करता हुआ मैं मकान की मग़रिबी दीवार के क़रीब एक बड़े दरवाज़े के पास पहुंच गया। उस दरवाज़े के दोनों पट्टों पर लकड़ी की दो मछलियाँ उभरी हुई थीं। मुझे नहीं मालूम था कि मेरे मकान में कोई ऐसा दरवाज़ा भी है। मैं देर तक उसपर हाथ रखे सोचता रहा कि उस के पीछे क्या होगा। मुझको यक़ीन था कि ये किसी ख़ाली कमरे का दरवाज़ा नहीं है। मज़ीद यक़ीन के लिए मैंने उसे थोड़ासा खोल कर अंदर झाँका। अव़्वल अव़्वल मुझको सिर्फ़ लकड़ी के लंबे लंबे मचान नज़र आए। फिर मैंने देखा कि उन मचानों पर बहुत बड़ी बड़ी किताबें तर्तीब के साथ सजी हुई हैं। मैंने अभी पढ़ना शुरू नहीं किया था, ताहम मुझे उन किताबों में कुछ दिलचस्पी सी पैदा हुई और उन्हें क़रीब से देखने के लिए मैं दरवाज़े से अंदर दाख़िल हो गया। मैंने देखा कि सामने वाली दीवार के क़रीब फ़र्श पर भी किताबें ढेर हैं। उन्हें नज़दीक से देखने के लिए मैं आगे बढ़ा और किताबों की तरफ़ से मेरी तवज्जो हट गई। ढेर के इस तरफ़ दीवार से मिली हुई चटाई पर एक बूढ़ा आदमी आँखें बंद किए चित्त पड़ा हुआ था। पुराने काग़ज़ों की ख़ुशबू के बीच में वो ख़ुद भी एक बोसीदा किताब मालूम हो रहा था।

    मैं एक क़दम पीछे हटा। दूर पर मेरे बाप की हथौड़ी की हल्की हल्की आवाज़ सुनाई दे रही थी और मैं चटाई पर पड़े हुए आदमी को ग़ौर से देख रहा था। अपने बालों और लिबास से वो मुझे कुछ फ़क़ीर सा मालूम हुआ। उसे और ग़ौर से देखने के लिए मैं घुटनों पर हाथ रखकर झुका ही था कि उसने आँखें खोल दीं, कुछ देर तक चुप-चुप मुझको तकता रहा, फिर उस के होंट हिले।

    “आओ शहज़ादे”, उसने कहा, “सबक़ शुरू किया जाये?”

    पागल! मैंने सोचा और भाग कर अपने बाप के पास गया। वो उसी तरह अपने काम में मुनहमिक था। उसके बाएं हाथ की उंगलियों में चांदी का तार लिपटा हुआ था और दाहिने हाथ में एक नाज़ुक सी हथौड़ी थी। लकड़ी की एक हश्त पहल थाली उसके सामने थी जिस पर उसने तरह तरह से मुड़ी हुई पत्तियाँ उभारी थीं और अब उन पत्तियों की बारीक रगों में चांदी का तार बिठा रहा था। मुझे अपने क़रीब महसूस कर के उसने गर्दन उठाई और आहिस्ता से मुस्कुराया।

    “आईए,” वो धीरे से बोला, “कहाँ घूम रहे थे आप?”

    “वहां... वो बूढ्ढा कौन है?” मैंने पूछा।

    “तो आपने अपने उस्ताद को ढूंढ निकाला”, वो बोला और फिर पत्तियों की रगों में तार बिठाने लगा।

    “उस्ताद?” मैंने पूछा।

    “लेकिन आप ढूंढ क्या रहे थे?” जवाब में उसने भी पूछा और मुझे याद गया।

    “थैला...!” मैंने कहा, “औज़ारों का थैला कहाँ है?”

    “वो आपको नहीं मिलेगा”।

    अब मुझे ग़ुस्सा आने लगा।

    “कहाँ है?” मैंने फिर पूछा।

    “नहीं मिलेगा”।

    मुझे और ग़ुस्सा आया, लेकिन उसी वक़्त उसने पूछा:

    “आज कौन दिन है?”

    मैंने उसी ग़च्चे में बता दिया और फिर पूछा:

    “थैला कहाँ है?”

    “परसों से आपका सबक़ शुरू होगा,” उसने बड़े सुकून के साथ कहा। मैंने उसे बुरा भला कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उसने दोनों हाथ आगे बढ़ा कर मुझे अपने क़रीब खींच लिया। देर तक वो मेरा चेहरा देखता रहा। उस की आँखों में उम्मीद और अफ़्सुर्दगी की ऐसी आमेज़िश थी कि मैं अपना सारा ग़ुस्सा भूल गया। उसकी मज़बूत उंगलियां मेरी कलाई और शाने में गड़ी जा रही थीं और बदन धीरे धीरे लरज़ रहा था। इस हालत में वो मुझे हमेशा बहुत अच्छा मालूम होता था।

    “छोड़, बुड्ढे!” मैंने हंसते हुए कहा और लकड़ी की मुनक़्क़श थाली पर हल्की सी ठोकर लगाई। एक पति की रग में बैठा हुआ तार थोड़ा उखड़ आया और मेरे बाप ने जल्दी से मुझे छोड़ दिया। इस की उंगलीयों में लिपटे होई तार ने मेरी कलाई पर जाली का सा नक़्श बना दिया था। मैंने कलाई उस की आँखों के सामने की। वो तार के नक़्श को देर तक सहलाता और फूँकता रहा, फिर बोला:

    “परसों से,” और फिर बोला, “परसों से”।

    2

    सबक़ शुरू होने का ख़्याल मुझे अच्छा नहीं मालूम हुआ था इसलिए दूसरे दिन मैं अपने बाप से ख़फ़ा-ख़फ़ा सा रहा, लेकिन शाम होते होते मुझे अपने उस्ताद के बारे में तजस्सुस पैदा हुआ, और तीसरे दिन में अपने बाप के पीछे पीछे क़दरे इश्तियाक़ के साथ मछलियों वाले दरवाज़े में दाख़िल हुआ। उस्ताद चटाई पर दोज़ानू बैठा हुआ था। बाप ने मुझे उसके सामने बिठा दिया और ख़ुद फ़र्श पर ढेर किताबों को उठा उठा कर मचानों पर सजाने लगा, यहां तक कि फ़र्श पर सिर्फ एक किताब पड़ी रह गई।

    “इसे आप उठाइए, शाबाश!” उसने मुझसे कहा। मुझे ये सब एक दिलचस्प तमाशा मालूम हो रहा था। किताब का वज़न ज़्यादा था, ताहम मैंने उसको उठा लिया और बाप के इशारे पर उसे उस्ताद के सामने रख दिया। उस्ताद किताब पर हाथ रखकर आहिस्ता से मुस्कुराया और मुझे हैरत हुई कि परसों वो मुझको फ़क़ीर क्यों मालूम हुआ था।

    “इसे खोलो, शहज़ादे,” उसने कहा।

    किताब के चंद इबतिदाई सफ़्हों को छोड़कर बाक़ी वर्क़ सादा थे। उस दिन पहले सादा वर्क़ पर उस्ताद ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझसे कुछ लिखवाया। इतनी बड़ी सी किताब पर अपने हाथ की तहरीर मुझे बहुत अच्छी मालूम हुई। मैं चाहता था उस्ताद मुझसे कुछ और लिखवाए लेकिन मेरे बाप ने दोनों हाथ आगे बढ़ा कर मुझे अपने क़रीब खींच लिया। उसका बदन फिर धीरे धीरे लरज़ रहा था। इसी हालत में देर तक वो उस्ताद से चुपके चुपके बातें करता रहा, लेकिन वो दोनों मालूम नहीं किन इशारों में गुफ़्तगु कर रहे थे कि मेरी समझ में उनकी एक बात भी नहीं आई और मैं अपने बाप के हाथों के हलक़े में घिरा हुआ, मचानों पर सजी बड़ी बड़ी किताबों पर नज़रें दौड़ाता रहा। आख़िर मेरा बाप मुझे लेकर बाहर गया।

    उसके बाद से मेरा ज़्यादा वक़्त उस्ताद के साथ गुज़रने लगा और मैं अपने बाप को भूल सा गया, यहां तक कि कुछ दिन तक मुझे ये भी एहसास नहीं हुआ कि उसने फिर से औज़ारों का थैला लेकर काम पर जाना शुरू कर दिया है। मछलियों वाले दरवाज़े के पीछे मोटी किताबों में घिरा हुआ उस्ताद मुझे हर वक़त मौजूद मिलता था। वो शायद वहीं रहता था। मैं अक्सर उसे देखता कि फ़र्श पर ढेर किताबों के पास आँखें बंद किए चित्त पड़ा है और फ़क़ीर मालूम हो रहा है। मेरी आहट सुनकर वो आँखें खोलता और हमेशा एक ही बात कहता:

    “आओ, शहज़ादे, सबक़ शुरू किया जाये”।

    लेकिन उसने मुझे पढ़ाया कुछ नहीं, अलबत्ता लिखना बहुत जल्दी सिखा दिया। हर-रोज़ लिखने की बाक़ायदा मश्क़ कराने के बाद मुझे अपने सामने बिठा कर वो बोलना शुरू करता। किसी किसी दिन वो मुझे पुराने वक़्तों और दूरदराज़ के इलाक़ों की दिलचस्प बातें बताता, लेकिन ज़्यादा-तर वो मेरे अपने शहर के बारे में बातें करता था। वो शहर के मुख़्तलिफ़ महलों में बसने वाले ख़ानदानों का हाल सुनाता था कि किस मुहल्ले का कौन ख़ानदान किस तरह आगे बढ़ा और क्योंकर तबाह हुआ और अब उस ख़ानदान में कौन कौन लोग बाक़ी हैं और किस हाल में हैं। ये दिलचस्प क़िस्से थे लेकिन उस्ताद उन्हें बेदिली से बयान करता था इसलिए वो मुझे महज़ बेरब्त टुकड़ों की तरह याद रह जाते थे, अलबत्ता शहर के मुहल्लों का ज़िक्र वो इस अंदाज़ से करता था कि हर मुहल्ला मुझे एक इन्सान नज़र आता था जिसका मिज़ाज और किरदार ही नहीं, सूरत शक्ल भी दूसरे मुहल्लों से मुख़्तलिफ़ होती थी। जोश में आकर उस्ताद ये दावा भी करने लगता था कि वो शहर के किसी भी आदमी को देखते ही बता सकता है कि वो किस मुहल्ले का रहने वाला है या किन किन मुहल्लों में रह चुका है। उस वक़्त मैं उसके इस दावे पर हँसता था लेकिन अब देखता हूँ कि ख़ुद मुझमें ये सिफ़त कुछ-कुछ मौजूद है।

    कभी कभी उस्ताद बातें करते करते चटाई पर चित्त लेट कर आँखें बंद कर लेता तो मैं फ़र्श पर ढेर किताबों के वर्क़ उल्टने पलटने लगता। उन्हीं वर्क़ गरदानियों में मुझे मालूम हुआ कि मैं पढ़ भी सकता हूँ। लेकिन हाथ की लिखी हुई वो भारी भारी किताबें मेरी समझ में नहीं आईं। उनमें बा’ज़ तो मेरी अपनी ज़बान ही में नहीं थीं, बा’ज़ की इबारतें और बा’ज़ की तहरीरें इतनी गुन्जुलक थीं कि बहुत ग़ौर करने पर भी उनका बिलकुल धुँधला सा मफ़हूम मेरे ज़हन में आता और फ़ौरन निकल जाता था। ऐसे मौक़ों पर मुझे अपने उस्ताद पर ग़ुस्सा आने लगता और कई मर्तबा मैंने उससे बड़ी बदतमीज़ी के साथ बात की। एक-बार वो आँखें बंद किए चुप-चाप पड़ा मेरी बातें सुन रहा था कि अचानक मेरे सर के अंदर चमक सी हुई। मैंने चिल्ला कर कहा:

    “बहरा हो गया है, फ़क़ीर?” और एक भारी किताब उठा कर उस के सीने पर फेंक दी।

    उस के दूसरे दिन मुझे अपने मकान के क़रीब की एक छोटी सी दर्सगाह में पहुंचा दिया गया।

    उस के बाद में शहर की मुख़्तलिफ़ दर्सगाहों में पढ़ता रहा। शुरू शुरू में मेरा बाप बड़ी पाबंदी के साथ मुझको दर्सगाह तक पहुँचाता और वहां से वापस लाता था। छुट्टी होने पर मैं बाहर निकलता तो देखता कि वो दर्सगाह के फाटक से कुछ फ़ासले पर किसी दरख़्त के तने से टेक लगाए ख़ामोश खड़ा है। मुझे देखकर वो आगे बढ़ता, मेरी किताबें सँभालता, और कभी कभी मुझको भी गोद में उठाने की कोशिश करता लेकिन मैं उसे नोच खसोट कर अलग हो जाता था। अगर किसी दिन उसे आने में देर हो जाती तो मैं ख़ुशी ख़ुशी सैर करता हुआ तन्हा घर लौटता और दूसरे दिन अकेले जाने की ज़िद करता था। आख़िर रफ़्ता-रफ़्ता मैंने तन्हा जाना और वापस आना शुरू कर दिया। फिर मैं ख़ाली वक़्त और छुट्टी के दिनों में भी घर से बाहर निकलने लगा और उसी ज़माने में अच्छी बुरी सोहबतों से भी आश्ना हुआ. मैंने शहर के इन तमाम मुहल्लों के चक्कर लगाए जिनके बारे में उस्ताद बताता था कि कौन रयाकार है, कौन बुज़दिल, कौन चापलूस और कौन फ़सादी। उन्हीं गर्दिशों के दौरान एक दिन मैंने अपने बाप को बाज़ार में देखा।

    वो बाज़ार के उस हिस्से में खड़ा हुआ था जहां हर-रोज़ सुबह के वक़्त मज़दूर और कारीगर काम की तलाश में आकर जमा होते थे। औज़ारों का थैला ज़मीन पर अपनी दोनों टांगों के बीच में रखे वो आस-पास के लोगों से आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रहा था कि उस की नज़र मुझ पर पड़ गई। थैला ज़मीन पर छोड़कर वो लपकता हुआ मेरी तरफ़ आया।

    “क्या हुआ?” उसने पूछा।

    “कुछ नहीं,” मैंने जवाब दिया।

    वो कुछ देर तक मुझे सवालिया नज़रों से देखता रहा, फिर बोला:

    “कोई बात हो गई है?”

    “कुछ नहीं,” मैंने फिर कहा।

    “हमें देखने आए थे?” उसने पूछा, फिर ख़ुद ही बोला, “ऐसा ही है तो हमें काम पर देखिए”। फिर वो आहिस्ता से हँसा।

    उसी वक़्त किसी मज़दूर ने उसका नाम लेकर पुकारा और वो अपने थैले की तरफ़ लौट गया जहां उधेड़ उम्र का एक शख़्स उस के इंतिज़ार में खड़ा हुआ था। उसने मेरे बाप से कुछ पूछा, फिर देर तक उसे कुछ समझाता रहा। वो बार-बार अपने हाथों से हवा में मेहराब या गुंबद की सी शक्ल बनाता था। इस की उंगलियों में बड़े बड़े नगीनों वाली कई अँगूठियां थीं जिन्हें वो जल्दी जल्दी अंगूठे से घुमाता था। बहुत सी आवाज़ों के बीच में इसकी ऊंची खरखराती हुई आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी लेकिन ये समझ में नहीं आता था कि वो कह क्या रहा है। कुछ देर बाद मेरे बाप ने औज़ारों का थैला उठाया और उस शख़्स के पीछे पीछे चल दिया। मुझे ख़्याल आया कि उस के थैले में किसी औज़ार की जगह मेरा रखा हुआ लकड़ी या ईंट का टुकड़ा नहीं होगा। लेकिन इस ख़्याल से मुझको ख़ुशी के बजाए कुछ अफ़्सुर्दगी सी महसूस हुई। इस अफ़्सुर्दगी पर मुझे ताज्जुब भी हुआ. मैं सीधा घर वापस गया, और अगरचे वो पूरा दिन मैंने उस्ताद के साथ फ़ुज़ूल बहसों में गुज़ारा लेकिन तमाम वक़्त मुझे घर में बाप की कमी महसूस होती रही। ये ख़्याल भी मुझे बार-बार आया कि मैंने अभी तक उस को मे’मारी का काम करते नहीं देखा है और ये मुझे अपनी बहुत बड़ी कोताही मालूम हुई मगर उसकी तलाफ़ी का ख़्याल मुझे नहीं आया।

    एक दिन सह पहर के क़रीब घूमता फिरता मैं अपनी एक पुरानी दर्सगाह के सामने पहुंच गया। ये दर्सगाह मुद्दतों पहले एक तारीख़ी इमारत में क़ायम की गई थी और अब भी उस इमारत में थी। इमारत बोसीदा हो चुकी थी और जब मैं वहां पढ़ता था तो उसकी एक छत बैठ गई थी जिसके बाद मेरे बाप ने मुझे इस दर्सगाह से उठा लिया, इसलिए कि कुछ देर पहले तक मैं उसी छत के नीचे था। इतने दिन बाद इधर आया तो मैंने देखा कि दर्सगाह की टूटी हुई चारदीवारी दुरुस्त कर दी गई है। लकड़ी का वो बैरूनी फाटक ग़ायब था जिसके पट्टों में लोहे के फूल जड़े हुए थे और बाएं पट में नीचे की तरफ़ छोटा सा एक पिट का दरवाज़ा था। अब इस फाटक की जगह लोहे का कटहरेदार फाटक था जिसके पीछे असल इमारत में दाख़िले वाली ऊंची मेहराब नज़र रही थी। मेहराब के पीछे लोग चल फिर रहे थे, हालाँकि वो छुट्टी का दिन था। ये सोच कर कि शायद उन लोगों में कोई मेरी जान पहचान वाला मिल जाये, मैं फाटक से गुज़र कर मेहराब की तरफ़ बढ़ा। क़रीब पहुंच कर मैंने देखा कि मेहराब की पेशानी पर बिलकुल वैसी ही दो मछलियाँ उभरी हुई हैं जैसी मेरे मकान में उस्ताद वाले कमरे के दरवाज़े पर थीं। मुझको हैरत हुई कि इस दर्सगाह में इतने दिन तक आने जाने के बावजूद इन मछलियों पर कभी मेरी नज़र नहीं पड़ी। अब मैंने उन्हें ग़ौर से देखा। मेहराब की शिकस्ता पेशानी की मरम्मत की जा चुकी थी। मछलियाँ भी जगह जगह से टूटी हुई थीं। दाहिनी तरफ़ वाली मछली की दुम ग़ायब थी। उसकी जगह नया नारंजी मसाला भर दिया गया था और मेरा बाप दो आड़ी बल्लियों पर टिका हुआ उस मसाले को मछली की दुम की शक्ल में तराश रहा था। वो सर पर एक कपड़ा लपेटे हुए था जिसकी वजह से मैं उसे पहचान नहीं सका। मैंने उसे उस के थैले से पहचाना जो मेहराब के दाहिने पाए से लगा हुआ रखा था और उसमें से कुछ औज़ार बाहर झांक रहे थे। देर तक उसे अपने काम में खोया हुआ देखते रहने के बाद मैंने ज़मीन पर से पुराने टूटे हुए मसाले का एक टुकड़ा उठा कर उस की तरफ़ उछाला। टुकड़ा उस के पैर के पास बल्ली से टकरा कर वापस गिरा और उसने नीचे की तरफ़ देखा, आहिस्ता से हँसा, फिर बोला:

    “तो आपने हमको ढूंढ निकाला?”

    मुझे उस की आवाज़ शिकस्ता मछली के खुले होई मुँह से आती मालूम हुई। वो फिर अपने काम की तरफ़ मुतवज्जा हो गया।

    “अभी कितनी देर है?” मैंने पूछा।

    “वक़्त तो हो चुका,” उसने बताया, “काम थोड़ा बाक़ी है, ज़्यादा देर नहीं है”।

    कुछ देर बाद वो नीचे उतरा। इस के हाथ में छोटे औज़ार थे जिन्हें उसने क़रीब ही बने होई एक आरिज़ी हौज़ में धोया, सर पर लिपटा हुआ कपड़ा खोल कर उस से औज़ारों को पोंछा और मेरी तरफ़ देखकर थके हुए अंदाज़ में मुस्कुराया। मैंने औज़ार इस से लेकर थैले में रख दिए और हम दोनों साथ साथ कटहरेदार फाटक की तरफ़ चले। आधा रास्ता तै कर के वो रुक गया। अपनी जगह पर खड़े खड़े गर्दन मोड़ कर उसने अपने दिन-भर के काम को देखा, फिर फाटक की तरफ़ बढ़ गया।

    चौथे या पांचवें दिन मैंने उसे थैला लेकर घर से बाहर निकलते देखा तो पूछा:

    “आज कहाँ काम लगाया है?”

    “वहीं,” उसने कहा, फिर बोला, “आज भी देर में लौटना होगा”।

    लेकिन उस दिन दोपहर से ज़रा पहले कुछ तालिब-ए-इल्मों के झगड़े में मेहराब से लगी हुई बल्लियां इस तरह हिलीं कि मेरे बाप का तवाज़ुन बिगड़ गया और वो मछलियों की ऊंचाई से दर्सगाह के संगी फ़र्श पर गिरा।

    उस वक़्त मैं घर ही पर था और उस्ताद से किसी फ़ुज़ूल बात पर बेहस कर रहा था। दो तीन मज़दूर उसे सहारा देकर लाए। इन्होंने अपनी दहक़ानी बोली में हादिसे की मुब्हम सी तफ़सील बताई और काम पर वापस चले गए। उस के बदन पर कोई ज़ख़म नहीं था लेकिन उसकी आँखों से मालूम होता था कि वो करब में है। मैंने और उस्ताद ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

    कई दिन तक मेरा बाप चुप-चाप बिस्तर पर पड़ा रहा और मेरा उस्ताद चुप-चाप उस के सिरहाने बैठा रहा। पड़ोस की ख़स्ता-हाल बुढ़ियां उन दोनों की ख़बरगीरी करती रहीं। मैं इस अर्से में कई बार घर से बाहर निकला लेकिन थोड़ी ही दूर जा कर वापस गया।

    एक दिन वापस आते हुए मुझे उस मेहराब और उस की पेशानी की शिकस्ता मछलियों का ख़्याल आया और मैं दर्सगाह की तरफ़ लौट गया। वो भी छुट्टी का दिन था। मैं मेहराब के सामने जा कर खड़ा हो गया। एक मछली दुरुस्त हो चुकी थी। इस की पुश्त पर सफ़नों का जाल इस तरह तराशा गया था कि मालूम होता था एक एक सफ़ने को अलग अलग ढाल कर मछली के बदन में बिठाया गया है। हर सफना बीच में हल्का सा उभरा हुआ, किनारों पर धँसा हुआ और दूसरे सफ़नों में फंसा हुआ नज़र आता था। मछली की आँख की जगह एक गोल सुराख़ था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मछली मुँह खोले हुए मुझे घूर रही है। मैंने उस पर से नज़र हटाली।

    दूसरी मछली का सारा ऊपरी मसाला तोड़ दिया गया था और अब उसके नीचे की पतली पतली ईंटें नीम दायरे की शक्ल में उभरी रह गई थीं, लेकिन उन उभरी हुई ईंटों से भी एक मछली का ख़ाका बनता था। दाहिनी तरफ़ वाली मुकम्मल मछली के मुक़ाबिल उस ख़ाके की वजह से मेहराब की पेशानी कुछ टेढ़ी और कुछ शिकन आलूद मालूम होने लगी थी। बल्लियां उसी तरह लगी हुई थीं। मैंने एक बल्ली को पकड़ कर आहिस्ता से हिलाया। उसकी ऊपरी सिरे पर आड़ी बंधी हुई बल्ली हल्की आवाज़ के साथ मेहराब से टकराई। ये आवाज़ भी मुझे मछली के खुले हुए मुँह से आती महसूस हुई। फिर ये आवाज़ एक इन्सानी आवाज़ में बदल गई जो दहक़ानी बोली में मेरे बाप की ख़ैरियत दरयाफ़त कर रही थी। इसी वक़्त मेरी नज़र मेहराब के नीचे खड़े हुए एक शख़्स पर पड़ी। ये उन्हीं मज़दूरों में से एक था जो मेरे बाप को घर लाए थे। मैंने उस के सवाल का मुख़्तसर जवाब दिया और वो देर तक मेरे बाप की कारीगरी की तारीफ़ें करता रहा। इस में उसने मे’मारी की कई ऐसी इस्तेलाहें इस्तिमाल कीं जिनके मफ़हूम से मैं वाक़िफ़ नहीं था। फिर उसने शहर की बा’ज़ मशहूर तारीख़ी इमारतों के नाम लिये जिनकी मरम्मत और दुरुस्ती में वो मेरे बाप के मातहत काम कर चुका था। उसने अपना नाम भी बताया और ताकीद की कि मैं अपने बाप को बता दूं कि इस नाम का मज़दूर उसे पूछ रहा था। फिर मुझे ठहरे रहने का इशारा कर के वो पास की एक कोठड़ी में दाख़िल हुआ और मेरे बाप का थैला लिए हुए बाहर आया। थैला मेरे हाथ में देते होई उसने लंबी सांस खींची। वो मेरे बाप से बहुत ज़्यादा उम्र का मालूम होता था। एक और लंबी सांस खींचने के बाद वो कुछ कहने ही को था कि दर्सगाह के अंदरूनी हिस्सों से किसी ने इस को आवाज़ दी। मैंने उसे मेहराब में दाख़िल होते और बाएं तरफ़ मुड़ते देखा। थैले के औज़ारों में हल्की सी खड़खड़ाहट हुई और अगरचे मेरी नज़रें ज़मीन पर थीं लेकिन मुझे फिर महसूस हुआ कि दाहिनी तरफ़ वाली मछली मुँह खोले होई अपनी आँख के सुराख़ से मेरी तरफ़ देख रही है। मैंने उस की तरफ़ देखे बग़ैर औज़ारों को थैले में ठीक से रखा और दर्सगाह के कटहरेदार फाटक से निकल कर सड़क पर गया। घर पहुंच कर थैला मैंने उस्ताद वाले कमरे में किताबों के एक ढेर पर रख दिया और कमरे से बाहर निकल आया।

    दोहरे दालान में बिस्तर पर मेरा बाप उसी तरह चुप-चाप लेटा हुआ और उस्ताद इसी तरह चुप-चाप उस के सिरहाने बैठा हुआ था।

    3

    दर्सगाह में गिरने के बाद मेरा बाप फिर काम पर नहीं जा सका बल्कि बिस्तर से उठ भी ना सका। कुछ दिन तक वो इस तरह गुम-सुम पड़ा रहा कि ख़्याल होता था उसे दिमाग़ी चोट आई है और वो अपने हवास खो बैठा है, लेकिन एक-बार जब मैंने चाहा कि उस का बिस्तर किताबों वाले कमरे में कर दूं तो इस की आँखों से ज़ाहिर होने लगा कि वो इस दोहरे दालान से हटना नहीं चाहता जहां अभी तक उसने हर मौसम गुज़ारा था। आख़िर रफ़्ता-रफ़्ता उसने धीमी आवाज़ में बोलना शुरू किया। एक दिन उसने मुझको इशारे से अपने क़रीब बुलाया और उस्ताद जो उसके सिरहाने बैठा हुआ था, उठकर किताबों वाले कमरे में चला गया।

    “मेरा काम ख़त्म हो गया है,” वो मुझे बिस्तर पर बैठने का इशारा करते हुए बोला। मुझे उस का गर्दन मोड़ कर अपने दिन-भर के काम को देखना याद आया और मैंने उस के सिरहाने बैठ कर उस का सर अपने ज़ानू पर रख लिया।

    “एक मछली अभी बाक़ी है,” मैंने गर्दन झुका कर उसे देखते हुए कहा।

    वो कुछ बोले बग़ैर मेरी तरफ़ देखता रहा। मुझे उस की आँखों में अपने चेहरे के साथ छत की कड़ीयों से झूलती हुई सजावट नज़र आई, या शायद ये मेरा सिर्फ़ वहम था। उसी वक़्त उसने अपनी गर्दन मोड़ ली और बोला:

    “मुझे बिठा दो”।

    कई तकियों के सहारे बैठने के बाद वो किसी ख़्याल में डूब गया। इस से पहले वो मुझे सोचने वाला आदमी नहीं मालूम होता था, लेकिन इस वक़्त कई तकियों से टेक लगाए, क़ाएदे का साफ़सुथरा लिबास पहने वो कुछ सोच रहा था। और इस वक़्त पहली बार मुझे ख़फ़ीफ़ सा शुबहा हुआ कि वो मेरा हक़ीक़ी बाप है।

    “जब सिर्फ ये मकान और तुम बाक़ी रह गए,” उसने छत की तरफ़ देखते हुए कहा, “तो मैंने सोचा अब मुझे कुछ ना कुछ करना चाहिए”।

    मुझे यक़ीन था कि वो अपनी ज़िंदगी की कहानी सुनाने वाला है, लेकिन वो ख़ामोशी के साथ छत को घूरता और कुछ सोचता रहा। फिर दूसरी तरफ़ गर्दन मोड़ कर बोला:

    “जाओ, कहीं घूम आओ”।

    “जी नहीं चाहता,” मैंने कहा।

    उसने मेरा शाना पकड़ कर आहिस्ता से अपनी तरफ़ खींचा। इस की गिरफ़त कमज़ोर और हाथ में लर्ज़िश थी।

    “सामान कम रह गया था”, उसने तक़रीबन सरगोशी में कहा, “मैंने उसे और कम नहीं होने दिया। तुम्हें वो बहुत मालूम होगा”।

    मुझे ज़ंगआलूद क़ुफ़्लों वाले बंद दरवाज़े याद आए। मैंने कहा:

    “सामान मुझको नहीं चाहिए”।

    “मैंने उसमें कुछ बढ़ाया भी है”।

    “मुझे कुछ नहीं चाहिए”।

    “इसी में कहीं वो भी है,” उसने कहा, “मैंने उसे तलाश नहीं किया। तुम ढूंढ लेना, फिर कुछ रुक कर बोला, “वो किताबों में भी होगा”, ये कहते कहते उस की हालत कुछ बिगड़ गई। मैं दौड़ता हुआ उस्ताद के कमरे में गया। वो मुझे देखते ही उठ खड़ा हुआ और मैं उसे हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ बाप के बिस्तर तक लाया। उसने गर्दन घुमा कर उस्ताद को देखा, फिर मुझे। मेरी तरफ़ देखते देखते उसने अपनी नाहमवार साँसों पर क़ाबू पाया और बोला:

    “उसे अलग मत करना, वो हमारा निशान है”।

    मैंने उस्ताद की तरफ़ देखकर इशारे से पूछा कि मेरा बाप किस चीज़ का ज़िक्र कर रहा है, लेकिन उस्ताद इस तरह गुम-सुम बैठा था जैसे ना कुछ सुन रहा हो, ना देख रहा हो। अलबत्ता मेरे बाप की आँखें, जिनकी चमक मांद पड़ गई थी, कुछ देखती मालूम हो रही थीं।

    “वो क्या चीज़ है?” मैंने उस पर झुक कर पूछा।

    “उसकी ख़ातिर ख़ानदान में ख़ून बहा है,” वो धीमी आवाज़ में बोला और उस की मुट्ठीयाँ भिंच गईं। इस की सांस जो हमवार हो चली थी, फिर नाहमवार हो गई।

    उस्ताद इसी तरह गुम-सुम बैठा था और मेरी समझ में नहीं रहा था कि इस मौके़ पर मुझे क्या करना चाहिए। मैंने बाप के दोनों कंधे पकड़ लिये। अब मुझे यक़ीन हो गया था कि मैं उसका हक़ीक़ी बेटा हूँ, और मेरी समझ में ये भी नहीं रहा था कि उसे क्या कह के पुकारूँ, इसलिए मैं उसके कंधे पकड़े ख़ामोशी के साथ उस के चेहरे के बदलते होई रंगों को देखता रहा। कुछ देर बाद उस की हालत अपने आप सँभल गई और वो बिलकुल ठीक मालूम होने लगा। उसने बहुत साफ़ और मो’तदिल आवाज़ में कहा:

    “जाओ, घूम आओ”।

    इस बार मैं इनकार नहीं कर सका और उस के कंधे छोड़कर मकान से बाहर निकल आया।

    मेरा बाप बहुत दिन ज़िंदा नहीं रहा। आख़िरी दिनों में वो ज़्यादा-तर ख़ामोश पड़ा रहता था, सिर्फ कभी कभी आहिस्ता-आहिस्ता कराहने लगता लेकिन पूछने पर बताता नहीं था कि उसे क्या तकलीफ़ है। एक-बार जब मैंने बहुत इसरार से पूछा और उस के ख़ामोश रहने पर ख़ुद को ग़ुस्से में ज़ाहिर किया तो उसने सिर्फ इतना बताया:

    “कुछ नहीं”।

    इस के दूसरे या तीसरे दिन दोपहर के वक़्त में सो रहा था कि उस्ताद ने मुझे झिंझोड़ कर जगा दिया। आँख खुलते ही मैंने समझ लिया कि मेरा बाप ख़त्म हो गया है। लेकिन जब मैं दौड़ता हुआ उस के बिस्तर के पास पहुंचा तो वो मुझे ज़िंदा मिला। मुझको देखते ही उसने एक हाथ आगे बढ़ाया और मेरा शाना पकड़ कर जल्दी जल्दी कुछ कहने लगा। उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी। मैं ठीक से सुनने के लिए इस पर झुक गया, फिर भी मेरी समझ में नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। बहुत झुक कर सुनने पर सिर्फ इतना समझ में आया कि वो तुतलाकर बोल रहा है। उसी वक़्त वो बेहोश हो गया, और उसी बेहोशी में किसी वक़्त उस का दम निकल गया।

    बाप के मरने के बाद देर तक मैं बिलकुल पुरसुकून रहा। मैंने बड़ी संजीदगी के साथ उस के आख़िरी इंतिज़ामात के सिलसिले में उस्ताद से सलाह मश्वरा किया और हर बात का ख़ुद फ़ैसला किया। लेकिन जब वो इंतिज़ाम शुरू हो गए तो मेरे सर के अंदर कोई चीज़ हिली और मुझ पर एक जोश तारी हो गया। मैंने उसी जोश में फ़ैसला कर लिया कि मौत मेरे बाप की नहीं, मेरी हुई है; फिर ये फ़ैसला किया कि बाप भी मैं ख़ुद ही हूँ। फिर मुझको ये दोनों फ़ैसले एक मालूम होने लगे और मैंने अजब वाहियात हरकतें कीं; सेहन से ईंटों के टुकड़े उठा उठा कर दोहरे दालान में फेंके और ख़ुद को मुख़ातिब कर के तुतलाना शुरू कर दिया, मेरे बाप का मुर्दा नहलाने के लिए जो पानी भरा गया था उस में से कुछ अपने ऊपर उंडेल लिया और बाक़ी में कूड़ाकरकट मिला दिया; उस के बदन पर लपेटने के लिए जो सफ़ैद कपड़ा मंगाया गया था उसे खोल कर ख़ुद को इस में लपेट लिया; और जब उसे लेकर जाने लगे तो इस में भी ऐसी ऐसी रुकावटें डालीं कि कई बार उस की मय्यत ज़मीन पर गिरते गिरते बची। मैंने इतना हंगामा किया कि लोग उस के मरने पर अफ़सोस ज़ाहिर करना भूल गए। आख़िर मुझे ज़बरदस्ती पकड़ कर वापस लाया गया और घर में बंद कर दिया गया जहां सोती हुई ख़स्ता-हाल बूढ़ियों की तसल्ली आमेज़ बातें सुनकर मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि कुछ देर के लिए मैं अपने बाप की मौत को भूल गया। लेकिन मैंने उन बढ़ियों पर अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर नहीं होने दिया और तवक़्क़ो के बिलकुल ख़िलाफ़ मुझे नींद गई।

    मैं दूसरे दिन तक सोता रहा। मैंने कई ख़्वाब भी देखे लेकिन उनका मेरे बाप या उस की मौत से कोई ताल्लुक़ नहीं था।

    तीन दिन तक मैं खोया खोया सा रहा। उस्ताद दिन में कई बार आता और कुछ देर तक मुझे ख़ामोशी के साथ देखते रहने के बाद वापस चला जाता था। चौथे दिन मुझे याद आया कि मेरे बाप ने मुझसे कुछ ढूँढने को कहा था, और मैंने बेसमझे बूझे घर भर में उसे तलाश करना शुरू कर दिया। उसी तलाश में फिरता हवा में मछलियों वाले दरवाज़े में दाख़िल हुआ और मचानों पर सजी हुई किताबें खींच खींच कर ज़मीन पर गिराए और पढ़े बग़ैर उनके वर्क़ पलटने लगा। फ़र्श पर ग़ुबार फैल गया और काग़ज़ खोर रुपहली मछलियाँ किताबों के अंदर से निकल निकल कर ज़मीन पर इधर उधर भागने लगीं। उसी में मेरी नज़र चटाई के क़रीब किताबों के ढेर पर रखे हुए औज़ारों के थैले पर पड़ी। मैं उसके क़रीब बैठ गया, देर तक बैठा रहा और रात हुई तो वहीं सो गया।

    उस रात मैंने ख़्वाब में अपने बाप को देखा कि दर्सगाह की मेहराब के आगे खड़ा हुआ है और गर्दन मोड़ कर अपनी दरुस्त की हुई मछली को देख रहा है और मछली की आँख चमक रही है और वो भी मेरे बाप को देख रही है।

    दूसरे दिन मैंने औज़ारों का थैला उठाया, घर से निकला और बाज़ार में अपने बाप की जगह पर जा खड़ा हुआ। देर हो गई थी और सब लोग वहां से जा चुके थे, फिर भी मैं बहुत देर तक उसी जगह खड़ा रहा और किसी ने मेरी तरफ़ तवज्जो नहीं की, यहां तक कि मेरा उस्ताद मुझे ढूँढता हुआ वहां पहुंचा और मेरा हाथ पकड़ कर घर वापस ले आया। रास्ते में जब उसने मुझको समझाने बुझाने की कोशिश की तो मैंने उस के कपड़े फाड़ डाले।

    कई रोज़ तक इसी तरह उस्ताद से मेरा झगड़ा चलता रहा, आख़िर उसने मेरे यहां आना छोड़ दिया, लेकिन मेरा खाना वो दोनों वक़्त पाबंदी से भिजवाता रहा। मैली कुचैली आवारागर्द छोकरियां और हिलती हुई गर्दनों वाली बूढ़ी औरतें मकान का सदर दरवाज़ा खटखटातीं और खाने की पोटली मेरे हाथ में थमा कर चुप-चाप लौट जातीं। मगर एक दिन मैंने देखा कि खाना लाने वाली एक छोकरी के पीछे उस के कंधे पर हाथ रखे मेरा उस्ताद खड़ा है। मुझे देखकर वो आगे बढ़ आया, कुछ देर तक ख़ामोशी के साथ मेरी तरफ़ देखता रहा, फिर अपने सीने की तरफ़ उंगली से इशारा कर के बोला:

    “अब मैं ख़त्म हो रहा हूँ!”

    इस दिन मैंने रोशनी में पहली बार उसे ग़ौर से देखा। इस के चेहरे पर झुर्रियों का जाल था और वो हमेशा से ज़्यादा फ़क़ीर मालूम हो रहा था। देर तक हम दोनों बग़ैर कुछ बोले आमने सामने खड़े रहे और इस के साथ की छोकरी दोनों हाथों से अपना सर खुजाती रही। उलझे हुए बालों में उस के बढ़े हुए नाख़ुनों की रगड़ से ख़रख़राहट की ऐसी आवाज़ पैदा हो रही थी जिसे सुनकर मुझे बहुत सी अँगूठियों वाला वो शख़्स याद गया जो मेरे बाप को बाज़ार से अपने साथ ले गया था, फिर मुझे बाप के औज़ार लेकर अपना बाज़ार जाना और उस्ताद का मुझको वापस लाना याद आया।

    “मैंने तुम्हारे साथ अच्छा सुलूक नहीं किया,” मैंने आहिस्ता से कहा।

    उसने मेरी बात या तो सुनी नहीं, या सुनकर अनसुनी कर दी और मेरी तरफ़ इस तरह देखता रहा जैसे मुझसे किसी बात की तवक़्क़ो कर रहा हो। इस तरह वो मेरी तरफ़ पहले भी कभी कभी देखने लगता था जिस पर मुझे ख़्वाह-मख़ाह ग़ुस्सा जाता था। उस वक़्त भी मुझे उलझन सी महसूस हुई और मैंने उस के चेहरे पर से नज़रें हटा लीं। मैं उससे कुछ कहना चाहता था लेकिन इस से पहले ही उसने मुड़ कर छोकरी के कंधे पर हाथ रखा।

    “अब ताहिरा बीबी, उसने छोकरी को बताया और उस के पीछे धीरे धीरे चलता हुआ वापस हो गया।

    जब वो दोनों मेरी निगाहों से ओझल हो गए तो मुझे ख़्याल आया कि मैंने उस्ताद से घर के अंदर चलने को नहीं कहा।

    मुझे उस का घर नहीं मालूम था। पड़ोस की बढ़ियों ने महिज़ अंदाज़े से इस के अलग अलग पत्ते बताए, लेकिन जब में इन पत्तों पर पहुंचा तो वहां कोई उस्ताद का जानने वाला ना निकला। मैंने इस तलाश में कई दिन ज़ाए किए, अलबत्ता इस तरह एक-बार फिर मैंने क़रीब क़रीब पूरे शहर का चक्कर लगा लिया। इस गर्दिश में अपने शहर की तारीख़ी इमारतों को मैंने खासतौर पर देखा। मैंने उन इमारतों के मरम्मत शूदा हिस्सों का ग़ौर से जायज़ा लिया और उनमें कई जगह मुझे अपने बाप का हाथ नज़र आया। इन इमारतों के किसी ना किसी दरवाज़े या दाख़िले के फाटक पर मुझे मछलियाँ ज़रूर बनी हुई नज़र आईं। शहर के पुराने गिरते हुए मकानों के दरवाज़े भी मछलियों से ख़ाली नहीं थे और हर मछली मुझे अपने बाप की बनाई हुई मालूम होती थी और हर शिकस्ता मछली को देखकर मुझे अपनी दर्सगाह की मेहराब पर बनी हुई मुकम्मल मछली याद आती थी।

    उन्हीं सैरों में मुझे यक़ीन हुआ कि मछली मेरे शहर का निशान है। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने मुबहम से मुअम्मे का हल दरयाफ़त कर लिया है, लेकिन इस के साथ मुझे ये भी महसूस होने लगा कि हल असल मुअम्मे से भी ज़्यादा मुबहम है। अपने बाप का ख़्याल मुझको बार-बार आने लगा, यहां तक कि एक गुमनाम तारीख़ी इमारत के खन्डर की तरफ़ बढ़ते बढ़ते में पलट पड़ा। घर पहुंच कर मैंने उस्ताद के कमरे वाली चटाई उठाई और दोहरे दालान में अपने बाप के आख़िरी बिस्तर की जगह बिछा दी। चटाई के ऐन ऊपर छत की कड़ीयों में सुर्ख़ सब्ज़ काग़ज़ की सजावट झूल रही थी। मैंने देखा कि इस दालान की भी मरम्मत हुई है और छत में जगह जगह नया मसाला भरा गया है। लेकिन छत का वो हिस्सा जहां पर ये सजावट थी, बेमरम्मत रह गया था और उसके पुराने फूले हुए मसाले को देखकर गुमान होता था कि ये बहुत जल्द गिरने वाला है। मैंने ख़्वाहिश की कि ये अभी गिर जाये, और चटाई पर लेट कर आँखें बंद कर लीं। उसी वक़्त मकान के सदर दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।

    आख़िरी बार उस्ताद के साथ आने वाली छोकरी दरवाज़े के सामने खड़ी थी। वो एक हाथ से सर खुजाए जा रही थी, दूसरे हाथ में एक बड़ा सा फ़सली फल था जिस पर वो इधर उधर दाँत लगा रही थी।

    “क्या बात है?” मैंने पूछा।

    वो कुछ देर तक फल पर मुँह मारने के लिए मुनासिब जगह तलाश करती रही, फिर बोली:

    “ताहिरा बीबी ने कहलाया है, आपके उस्ताद नहीं रहे”।

    एक लम्हे के लिए मुझे वहम हुआ कि उस्ताद उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ा है। मैं देर तक छोकरी की तरफ़ देखता रहा यहां तक कि वो शरमाने लगी।

    “कब?” आख़िर मैंने पूछा।

    “कई दिन हो गए। हम तीन बार आए, आप मिले नहीं”।

    “उनके घर में कौन कौन है?” मैंने पूछा।

    “उस्ताद के घर में? कोई भी नहीं”।

    “उनकी देख-भाल कौन करता था?”

    “ताहिरा बीबी जाती थीं”।

    “ताहिरा बीबी उनकी कौन हैं?”

    “पता नहीं”।

    “वो रहती कहाँ हैं?”

    “ताहिरा बीबी? पता नहीं”।

    इसके बाद वो वापस जाने के लिए मुड़ गई। कुछ देर बाद मैंने सदर दरवाज़ा बंद कर लिया और मुड़ रहा था कि फिर दस्तक हुई। मैंने दरवाज़ा खोल दिया। छोकरी सामने खड़ी थी। अब उस के हाथ में फल की जगह सुर्ख़ कपड़े का गोला सा था।

    “हम भूल गए थे,” उसने मुझे देखते ही कहा और गोला मेरी तरफ़ बढ़ा दिया, ये रख़ लीजीए, कुंजियाँ हैं”।

    “कैसी कुंजियाँ?”

    “पता नहीं, ताहिरा बीबी ने दी हैं”।

    मैंने सदर दरवाज़ा बंद लिया।

    स्रोत:

    Itr-e-Kafur (Pg. 102)

    • लेखक: नैयर मसूद
      • प्रकाशक: नैयर मसूद
      • प्रकाशन वर्ष: 1990

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