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वो बुढ्ढा

MORE BYराजिंदर सिंह बेदी

    स्टोरीलाइन

    एक जवान और खू़बसूरत लड़की की कहानी है, जिसकी मुठभेड़ एक रोज़ सड़क पर चलते हुए एक बुड्ढे से हो जाती है। बुड्ढ़ा उसकी खू़बसूरती और जवानी की तारीफ़ करता है तो पहले तो उसे बुरा लगता है लेकिन रात में जब वह अपने बिस्तर पर लेटती है तो उसे तरह-तरह के ख़्याल घेर लेते हैं। वह उन ख़्यालों में उस वक़्त तक गुम रहती है जब तक उसकी मुलाक़ात अपने होने वाले शौहर से नहीं हो जाती।

    मैं नहीं जानती। मैं तो मज़े में चली जा रही थी। मेरे हाथ में काले रंग का एक पर्स था, जिसमें चांदी के तार से कुछ कढा हुआ था और मैं हाथ में उसे घुमा रही थी। कुछ देर में उचक कर फुटपाथ पर हो गई, क्योंकि मेन रोड पर से इधर आने वाली बसें अड्डे पर पहुँचने और टाइम कीपर को टाइम देने के लिए यहाँ कर एक दम रास्ता काटती थीं। इसलिए इस मोड़ पर आए दिन हादसे होते रहते थे।

    बस तो ख़ैर नहीं आई लेकिन उस पर भी एक्सीडेंट हो गया। मेरे दाएं तरफ़ सामने के फुटपाथ के उधर मकान था और मेरे उल्टे हाथ स्कूल की सीमेंट से बनी हुई दीवार, जिसके उस पार मिशनरी स्कूल के फादर लोग ईस्टर के सिलसिले में कुछ सजा संवार रहे थे। मैं अपने आप से बेख़बर थी, लेकिन यकायक जाने मुझे क्यों ऐसा महसूस होने लगा कि मैं एक लड़की हूँ जवान लड़की। ऐसा क्यों होता है, ये मैं नहीं जानती। मगर एक बात का मुझे पता है हम लड़कियाँ सिर्फ़ आँखों से नहीं देखतीं। जाने परमात्मा ने हमारा बदन कैसे बनाया है कि उसका हर पोर देखता, महसूस करता, फैलता और सिमटता है। गुदगुदी करने वाला हाथ लगता भी नहीं कि पूरा शरीर हंसने-मचलने लगता है। कोई चोरी चुपके देखे भी तो यूँ लगता है जैसे हज़ारों सुइयाँ एक साथ चुभने लगीं, जिनसे तकलीफ़ होती है और मज़ा भी आता है अलबत्ता कोई सामने बेशर्मी से देखे तो दूसरी बात है।

    उस दिन कोई मेरे पीछे रहा था। उसे मैंने देखा तो नहीं, लेकिन एक सनसनाहट सी मेरे जिस्म में दौड़ गई। जहाँ मैं चल रही थी, वहाँ बराबर में एक पुरानी शेवरलेट गाड़ी कर रुकी, जिसमें अधेड़ उम्र का बल्कि बूढ़ा मर्द बैठा था। वो बहुत मो'तबर सूरत और रोब-दाब वाला आदमी था, जिसके चेहरे पर उम्र ने ख़ूब लड्डू खेली थी। उसकी आँख थोड़ी दबी हुई थी, जैसे कभी उसे लक़वा हुआ हो और विटामिन सी और बी काम्पलेक्स के टीके वग़ैरा लगवाने, शेर की चर्बी की मालिश करने या कबूतर का ख़ून मलने से ठीक तो हो गया हो, लेकिन पूरा नहीं। ऐसे लोगों पर मुझे बड़ा तरस आता है क्योंकि वो आँख नहीं मारते और फिर भी पकड़े जाते हैं। जब उसने मेरी तरफ़ देखा तो पहले मैं भी उसे ग़लत समझ गई, लेकिन चूँकि मेरे अपने घर में चचा गोविंद उसी बीमारी के मरीज़ हैं, इसलिए मैं असल वजह जान गई। देर तक मैं अपने आप को शर्मिंदा सी महसूस करती रही। उस बुढ्ढे की दाढ़ी थी जिसमें रुपये के बराबर एक सपाट सी जगह थी। ज़रूर किसी ज़माने में वहाँ उसके कोई बड़ा सा फोड़ा निकला होगा जो ठीक तो हो गया लेकिन बालों को जड़ से ग़ायब कर गया। उसकी दाढ़ी सर के बालों से ज़्यादा सफ़ेद थी। सर के बाल खिचड़ी थे। सफ़ेद ज़्यादा और काले कम, जैसे किसी ने माश की दाल थोड़ी और चावल ज़्यादा डाल दिए हों। उसका बदन भारी था, जैसा कि इस उम्र में सब का हो जाता है। मेरा भी हो जाएगा क्या मैं टर्न गों कगी? लोग कहते हैं तुम्हारी माँ मोटी है, तुम भी आगे चल कर मोटी हो जाओगे अ'जीब बात है कि कोई उम्र के साथ आप ही आप माँ हो जाए या बाप। बुढढे के क़द का अलबत्ता पता चला, क्योंकि वो मोटर में ढेर था। कार रुकते ही उसने कहा, सुनो।

    मैं रुक गई, उसकी बात सुनने के लिए थोड़ा झुक भी गई।

    मैंने तुम्हें दूर से देखा, वो बोला।

    मैंने जवाब दिया, जी।

    मैं जो तुम से कहने जा रहा हूँ उस पर ख़फ़ा होना।

    कहिए, मैंने सीधी खड़ी हो कर कहा।

    उस बुढढे ने फिर मुझे एक नज़र देखा, लेकिन मेरे जिस्म में सनसनाहट दौड़ी, क्योंकि वो बुढ्ढा था। फिर उसके चेहरे से भी कोई ऐसी वैसी बात नहीं मा'लूम होती थी, वर्ना लोग तो कहते हैं कि बुढ्ढे बड़े ठर्की होते हैं।

    तुम जा रही थीं। उसने फिर बात शुरू की, और तुम्हारी ये नागिन, दायाँ पाँव उठने पर बाएँ तरफ़ और बायाँ पाँव उठने पर दाएँ तरफ़ झूम रही थी।

    मैं एक दम कांशस हो गई। मैंने अपनी चोटी की तरफ़ देखा जो उस वक़्त जाने कैसे सामने चली आई थी। मैंने बगै़र किसी इरादे के सर को झटका दिया और नागिन जैसे फुन्कारती हुई फिर पीछे चली गई। बुढ्ढा कहे जा रहा था, मैंने गाड़ी आहिस्ता कर ली और पीछे से तुम्हें देखता रहा और आख़िर वो बुढ्ढा एक दम बोला तुम बहुत ख़ूबसूरत लड़की हो।

    मेरे बदन में जैसे कोई तकल्लुफ़ पैदा हो गया और मैं करवट-करवट बदन चुराने लगी। बुढ्ढा मंत्र मुग्ध मुझे देख रहा था। मैं नहीं जानती थी उसकी बात का क्या जवाब दूँ? मैंने सुना है, बाहर के देसों में किसी लड़की को कोई ऐसी बात कह दे तो वो बहुत ख़ुश होती है, शुक्रिया अदा करती है लेकिन हमारे यहाँ कोई रिवाज नहीं। उल्टा हमें आग लग जाती है। हम कैसी भी हैं, किसी को क्या हक़ पहुँचता है कि हमें ऐसी नज़रों से देखे? और वो भी यूँ सड़क के किनारे, गाड़ी रोक कर। बिदेसी लड़कियों का क्या है, वो तो बुड्ढों को पसंद करती हैं। अठ्ठारह बीस की लड़की साठ सत्तर के बूढ़े से शादी कर लेती है।

    मैंने सोचा, ये बुढ्ढा आख़िर चाहता क्या है?

    मैं उस ख़ूबसूरती की बात नहीं करता। वो बोला, जिसे आ'म आदमी ख़ूबसूरती कहते हैं, मसलन वो गोरे रंग को अच्छा समझते हैं।

    मुझे झुरझुरी सी आई। आप देख ही रहे हैं मेरा रंग कोई इतना गोरा भी नहीं सांवला भी नहीं बस बीच का है। मैंने तो मैं तो शर्मा गई।

    आप? मैंने कहा और फिर आगे पीछे देखने लगी कि कोई देख तो नहीं रहा?

    बस दनदनाती हुई आई और यूँ पास से गुज़र गई कि उसके और कार के दरमियान बस इंच भर का फ़ासला रह गया लेकिन वो बुढ्ढा दुनिया की हर चीज़ से बेख़बर था। मरना तो आख़िर हर एक को है लेकिन वो इस वक़्त की बेकार और फ़ुज़ूल मौत से भी बेख़बर था। जाने किन दुनियाओं में खोया हुआ था वो?

    दो तीन घाटेरामा लोग वहाँ से गुज़रे। वो किसी नौकरी पगार के बारे में झगड़ा करते जा रहे थे। उन का शोर जो इस्टर की घंटियों में गुम हो गया। दाएँ तरफ़ के मकान की बालकनी पर एक दुबली सी औरत अपने बालों में कंघी करती हुई आई और एक बड़ा सा गुच्छा बालों का कंघी में से निकाल कर नीचे फेंकती हुई वापस अन्दर चली गई। किसी ने ख़याल भी किया कि सड़क के किनारे मेरे और उस बूढ़े के दरमियान क्या मुआ'मला चल रहा है। शायद इसलिए कि लोग उसे मेरा कोई बड़ा समझते थे। बूढ़ा कहता रहा, तुम्हारा ये सौंलाया हुआ, कुंदनी रंग, ये गठा हुआ बदन हमारे मुल्क में हर लड़की का होना चाहिए और फिर यकायक बोला, तुम्हारी शादी तो नहीं हुई?

    नहीं। मैंने जवाब दिया।

    करना भी तो किसी गबरू जवान से।

    जी।

    अब ख़ून मेरे चेहरे तक उबल उबल कर आने लगा था। आप सोचिए आना चाहिए थे या नहीं?

    लेकिन इससे पहले कि मैं उस बुढ्ढे को कुछ कहती उसने एक नई बात शुरू कर दी।

    तुम जानती हो, आज कल यहाँ चोर आए हुए हैं?

    चोर? मैंने कहा, कैसे चोर।

    जो बच्चों को चुरा कर ले जाते हैं उन्हें बेहोश कर के एक गठड़ी में डाल लेते हैं। एक वक़्त में चार-चार, पाँच पाँच।

    मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैंने कहा भी तो सिर्फ़ इतना, तो? मेरा मतलब है मुझे मेरा इस बात से क्या ता'ल्लुक़ ?

    उस बुढ्ढे ने कमर से नीचे मेरी तरफ़ देखा और बोला, देखना कहीं पुलिस तुम्हें पकड़ कर ले जाए।

    और इसके बाद उस बुढ्ढे ने हाथ हवा में लहराया और गाड़ी स्टार्ट कर के चला गया। मैं बेहद हैरान खड़ी थी चोर गठड़ी, जिसमें चार-चार, पाँच-पाँच बच्चे जब ही मैंने ख़ुद भी अपने नीचे की तरफ़ देखा और उसकी बात समझ गई। मैं एक दम जल उठी पाजी, कमीना शर्म आई उसे? मैं उसकी पोती नहीं तो बेटी की उम्र की तो हूँ ही और ये मुझसे ऐसी बातें कर गया, जो लोग बिदेस में भी नहीं करते। उसे हक़ क्या था कि एक लड़की को सड़क के किनारे खड़ी कर ले और ऐसी बातें करे एक इ'ज़्ज़त वाली लड़की से। ऐसी बातें करने की उसे हिम्मत कैसे हुई? आख़िर क्या था मुझ में? ये सब उसने मुझसे ही क्यों कहा? बेइ'ज़्ज़ती के एहसास से मेरी आँखों में आँसू उमड आए मैं क्या एक अच्छे घर की लड़की दिखाई नहीं देती? मैंने लिबास भी ऐसा नहीं पहना जो बाज़ारी क़िस्म का हो, क़मीस अलबत्ता फ़िट थी, जैसी आ'म लड़कियों की होती है और नीचे शलवार। क्यों ये ऐसा क्यों हुआ? ऐसे को तो पकड़ कर मारना और मार मार कर सुवर बना देना चाहिए। पुलिस में उसकी रपट करनी चाहिए। आख़िर कोई तुक है? उसकी गाड़ी का नंबर? मगर जब तक गाड़ी मोड़ पर नज़रों से ओझल हो चुकी थी। मैं भी कितनी मूर्ख हूँ जो नंबर भी नहीं लिया। मेरे साथ ऐसा ही होता है, हमेशा ऐसा ही होता है। वक़्त पर दिमाग़ कभी काम नहीं करता, बाद में याद आता है तो ख़ुद ही से नफ़रत पैदा होती है। मैंने साईकॉलोजी की किताब में पढ़ा है, ऐसी हरकत वही लोग करते हैं जो दूसरों की इ'ज़्ज़त भी करते हैं और अपनी भी। इसीलिए मुझे वक़्त पर नंबर लेना भी याद आया। मैं रुखी सी हो गई। सामने से पोदार कॉलेज के कुछ लड़के गाते, सीटियाँ बजाते हुए गुज़र गए। उन्होंने तो एक नज़र भी मेरी तरफ़ देखा मगर ये बुढ्ढा?

    मैं दर-अस्ल दादर ऊन के गोले ख़रीदने जा रही थी। मेरा फ़स्ट कज़िन बेगल स्वीडन में था, जहाँ बहुत सर्दी थी और वो चाहता था कि मैं कोई आठ प्लाई की ऊन का स्वेटर बुन कर उसे भेज दूँ। कज़िन होने के नाते वो मेरा भाई था, लेकिन था बदमाश। उसने लिखा, तुम्हारे हाथ का बना हुआ स्वेटर बदन पर रहेगा तो सर्दी नहीं लगेगी! मेरे घर में और कोई भी तो था। बी.ए. पास कर चुकी थी और पापा कहते थे, आगे पढ़ाई से कोई फ़ायदा नहीं। हाँ अगर किसी लड़की को प्रोफ़ैशन में जाना हो तो ठीक है लेकिन अगर हर हिंदोस्तानी लड़की की शादी ही उसका प्रोफ़ैशन है तो फिर आगे पढ़ने से क्या फ़ायदा? इसलिए मैं घर में ही रहती और आलतू-फ़ालतू काम करती थी, जैसे स्वेटर बुनना या भय्या और भाभी बहुत रोमांटिक हो जाएँ और सिनेमा का प्रोग्राम बना लें तो पीछे उनकी बच्ची बिन्दू को संभालना, उसके गीले कपड़ों, पोतड़ों को धोना सुखाना वग़ैरा लेकिन बुढ्ढे से इस मुडभेड़ के बाद मैं जैसे हिल ही सकी। मेरे पांव में जैसे किसी ने सीसा भर दिया। पता नहीं आगे चल कर क्या हो? और बस मैं घर लौट आई।

    इतनी जल्दी घर लौटते देख कर माँ हैरान रह गई। उसने समझा कि मैं ऊन के गोले ख़रीद भी लाई हूँ लेकिन मैंने क़रीब क़रीब रोते हुए उसे सारी बात कह सुनाई। अगर गोल कर गई तो वो चार-चार, पाँच-पाँच बच्चों वाली बात। कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जो बेटी माँ से भी नहीं कह सकती। माँ को बड़ा ग़ुस्सा आया और वो हवा में गालियाँ देने लगी। औरतों की गालियाँ जिन से मर्दों का कुछ नहीं बिगड़ता और जो उन्हें और भी मुश्तअ'ल करती हैं। आख़िर माँ ने ठंडी सांस ली और कहा, अब तुझे क्या बताऊँ बेटा। ये मर्द सब ऐसे होते हैं क्या जवान क्या बुढ्ढे।

    लेकिन माँ, मैंने कहा, पापा भी तो हैं।

    माँ बोली, अब मेरा मुँह खोलवाओ।

    क्या मतलब?

    देखा नहीं था उस दिन? कैसे रामालिंगम की बेटी से हंस-हंस कर बातें कर रहे थे।

    कुछ भी हो, माँ के उस मर्द को गालियाँ देने से एक हद तक मेरा दिल ठंडा हो गया था मगर बुढ्ढे की बातें रह रह कर मेरे कानों में गूँज रही थीं और मैं सोच रही थी कहीं मिल जाए तो मैं और उसके बाद मैं अपने बेबसी पर हँसने लगी। ज़रा देर बाद में उठ कर अंदर गई। सामने क़दे आदम आइना था। मैं रुक गई और अपने सरापे को देखने लगी। कूल्हों से नीचे नज़र गई तो फिर मुझे उसकी चार-चार, पाँच-पाँच बच्चों वाली बात याद गई और मेरे गालों की लवें तक गर्म होने लगीं। वहाँ कोई नहीं था। फिर मैं किससे शर्मा रही थी? हो सकता है बदन का यही हिस्सा जिसे लड़कियाँ पसंद नहीं करतीं, मर्दों को अच्छा लगता हो। जैसे लड़के सीधे और सुतवां बदन का मज़ाक़ उड़ाते हैं और नहीं जानते वही हम औरतों को अच्छा लगता है। इसका ये मतलब नहीं कि मर्द को सूखा-सड़ा होना चाहिए। नहीं उनका बदन हो तो ऊपर से फैला हुआ। मतलब चौड़े कांधे, चकली छाती और मज़बूत बाज़ू। अलबत्ता नीचे से सीधा और सुतवां ही होना चाहिए।

    इतने में पापा बीच वाले कमरे में चले आए, जहाँ मैं खड़ी थी। मेरे ख़यालों का वो तार टूट गया। पापा आज बड़े थके-थके से नज़र आए थे, कोट जो वो पहन कर दफ़्तर गए थे, कांधे पर पड़ा हुआ था। टोपी कुछ पीछे सरक गई थी। उन्होंने अंदर कर ऐसे ही कहा, बेटा और फिर टोपी उठा कर अपने गंजे सर को खुजाया। टोपी फिर सर पर रखने के बाद वो बाथरूम की तरफ़ चले गए, जहाँ उन्होंने क़मीस उतारी। उनका बनियान पसीने से तर था। पहले उन्होंने मुँह पर पानी के छींटे मारे, फिर ऊपर ताक़ से यूडीक्लोन निकाल कर बग़लों में लगाई। एक नैपकिन से मुँह पोंछते हुए लौट आए और जैसे बेफ़िक्र हो कर ख़ुद को सोफे में गिरा दिया। माँ ने पूछा, सिकंजी लोगे? जवाब में उन्होंने कहा, क्यों? व्हिस्की ख़त्म हो गई? अभी परसों ही तो लाया था, मेकन की बोतल।

    जब मैं बोतल और गिलास लाई तो माँ और पापा आपस में कुछ बात कर रहे थे। मेरे आते ही वो ख़ामोश हो गए। मैं डर गई। मुझे यूँ लगा जैसे वो उस बुढ्ढे की बातें कर रहे हैं लेकिन नहीं वो चचा गोविंद के बारे में कह रहे थे। आख़िरी बात से मुझे यही अंदाज़ हुआ चचा अंदर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और।

    फिर खाना-वाना हुआ जिसमें रात हो गई। बीच में बे-मौसम की बरसात का कोई छींटा पड़ गया था और घर के सामने लगे हुए अशोक पेड़ के पत्ते, ख़ाकी ख़ाकी, लंबोतरे पत्ते, ज़्यादा हरे और चमकीले हो गए थे। सड़क पर कमेटी की बत्ती से निकलने वाली रौशनी उन पर पड़ती थी तो वो चमक-चमक जाते थे। हवा मुसलसल नहीं चल रही थी। ऐसा मा'लूम होता था कि वो एक एक झोंका करके रही है और जब अशोक के पत्तों से झोंका कर टकराता और शाँ-शाँ की आवाज़ पैदा होती तो यूँ लगता जैसे सितार का झाला है। हमारे नानकू ने बिस्तर लगा दिया था। मेरी आ'दत थी कि इधर बिस्तर पर लेटी, उधर सो गई, लेकिन उस दिन नींद थी कि ही नहीं रही थी। शायद इसलिए कि सड़क पर लगे बल्ब की रौशनी ठीक मेरे सिरहाने पर पड़ती थी और जब मैं दाएं करवट लेटी तो मेरी आँखों में चुभने लगती थी। मैंने आँखें मूंद कर देखा तो बिजली का बल्ब एक छोटा सा चांद बन गया। जिसमें हॉले से बाहर किरनें फूट रही थीं। मैंने उठ कर बेड को थोड़ा सा सरका लिया लेकिन इसके बावजूद वो किरनें वहीं थीं फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि अब वो ख़ुद मेरे अपने अंदर से फूट रही थीं। आप तो जानते हैं ज्योति शब्द हो जाती है और शब्द ज्योति। वो किरनें भी आवाज़ में बदल गईं उसी बुढ्ढे की आवाज़ में!

    धत! मैंने कहा और उसी करवट लेटे-लेटे मन में गायत्री का पाठ करने लगी लेकिन वही किरनें छोटे-छोटे, गोल-गोल, गदराए-गदराए बच्चों की शक्ल में बदलने लगीं। उनके पीछे एक गबरू जवान का चेहरा नज़र रहा था, लेकिन धुंदला धुंदला सा। वो शायद उन बच्चों का बाप था। उसकी शक्ल उस बुढ्ढे की शक्ल से मिलती थी नहीं तो फिर उस नौजवान की शक्ल साफ़ होने लगी। वो हंस रहा था। उसकी बत्तीसी कितनी सफ़ेद और पक्की थी। उसने फ़ौज की लेफ़्टीनेंट की वर्दी पहन रखी थी। नहीं पुलिस इंस्पेक्टर की नहीं सूट, इवनिंग सूट, जिसमें वो बेहद ख़ूबसूरत मा'लूम हो रहा था। अपनी नींद वापस लाने के लिए मैंने टीचर का बताया हुआ नुस्ख़ा इस्तेमाल करना शुरू किया। मैं फ़र्ज़ी भेडें गिनने लगी। मगर बेकार था, सब कुछ बेकार था। परमात्मा जाने उस बुढ्ढे ने क्या जादू जगाया था, या मेरी अपनी ही क़िस्मत फूट गई थी। अच्छी भली जा रही थी, बीगल के लिए ऊन के गोले ख़रीदने। बीगल! धत वह मेरा भाई था। फिर गोले के ऊन के मोटे मोटे बने हुए धागे पतले होते गए और मकड़ी के जाल की तरह मेरे दिमाग़ में उलझ गए। फिर जैसे सब साफ़ हो गया। अब सामने एक चटियल मैदान था, जिस में कोई वली अवतार भेडें चरा रहा था। वो बुशर्ट पहने हुए था, तंदुरुस्त, मज़बूत और ख़ूबसूरत। लाउबालीपन में उसने शर्ट के बटन खोल रखे थे और छाती के बाल साफ़ और सामने नज़र रहे थे, जिनमें सर रख कर अपने दुखड़े रोने में मज़ा आता है। वो भेडें क्यों चरा रहा था? अब मुझे याद है वो भेड़ें गिनती में तिहत्तर थीं मैं सो गई।

    मुझे कुछ हो गया। सिर्फ़ ये कि मैं बार बार ख़ुद को आइने में देखने लगी बल्कि डरने भी लगी। बच्चे बुरी तरह मेरे पीछे पड़े हुए थे और मैं पकड़े जाने के ख़ौफ़ में काँप रही थी। घर में मेरे रिश्ते की बातें चल रही थीं। रोज़ कोई कोई देखने को चला आता था, लेकिन मुझे उन में से कोई भी पसंद था। कोई मरा मर घुला था और कोई तंदरुस्त था भी तो उसने कंवेक्स शीशों वाली ऐनक लगा रक्खी थी। उस साहब ने कैमिस्ट्री में डाक्टरेट की है। की होगी। नहीं चाहिए कैमिस्ट्री। उन में से कोई भी ऐसा था जो मेरी नज़र में जच सके वो नज़र जो अब मेरी थी, बल्कि उस बुढ्ढे की नज़र हो चुकी थी। मैंने देखा कि अब सिनेमा तमाशे को भी जाने को मेरा दिल नहीं चाहता था, हालाँकि शहर में कई नई और अच्छी पिक्चरें लगी थीं और वही हीरो लोग उन में काम करते थे जो कल तक मेरे चहेते थे लेकिन अब वो यकायक मुझे ससी दिखाई देने लगे। वो वैसे ही पेड़ के पीछे से घूम कर लड़की के पास आते थे और अजीब तरह की ज़नाना हरकतें करते हुए उसे लुभाने की कोशिश करते थे। भला मर्द ऐसे कहाँ होते हैं? औरत के पीछे भागते हुए हश्त! वो तो उसे मौक़ा ही नहीं देते कि वो उनके लिए रोए, तड़पे। हद है ना, मर्द ही नहीं जानते कि मर्द क्या है? उन में से एक भी तो मेरी कसौटी पर पूरा नहीं उतरता था जो मेरी कसौटी भी थी।

    उन्ही दिनों मैंने अपने आप को प्रीज के मैदान में पाया जहाँ हिंद और पाकिस्तान के बीच हाकी मैच हो रहा था। पाकिस्तान के ग्यारह खिलाड़ियों में से कम अज़ कम चार पाँच ऐसे थे जो नज़रों को लूट लेते थे। उधर हिंद की टीम में भी उतनी ही तादाद में ख़्वाबों के शहज़ादे मौजूद थे चार पाँच, जिन में से दो सिख थे। चार पाँच ही क्यूँ? मुझे हंसी आई पाकिस्तान का सैंटर फ़ारवर्ड अब्दुल बाक़ी क्या खिलाड़ी था! उसकी हाकी क्या थी? चुंबक पत्थर थी, जिस के साथ गेंद चिम्टी ही रहती थी। यूँ पास देता था जैसे कोई बात ही नहीं। चलता तो यूँ जैसे मेन्ज़ लैंड में जा रहा है। हिंदोस्तानी साईड के गोल पर पहुँच कर ऐसा निशाना बिठाता कि गोली की सब मेहनतें बेकार और गेंद पोस्ट के पार! गोल! तमाशाई शोर मचाते, बंबई के मुसलमान नारे लगाते, बग़लें बजाते। यही नहीं उत्तरी भारत के हिंदोस्तानी भी उनके साथ शामिल हो जाते। हिंदोस्तानी टीम का शिंगारा सिंह था क्या कॉर्नर लेता था! जब उसने गोल किया तो उस से भी ज़्यादा शोर हुआ। अब दोनों तरफ़ के खिलाड़ी फ़ाउल खेलने लगे। वो आज़ादाना एक दूसरे के टख़ने घुटने तोड़ने लगे लेकिन मैच चलता रहा।

    पाकिस्तानी टीम हिंदोस्तानी पर भारी थी। उन में से किसी के साथ लौ लगाना मेरे लिए ठीक भी था लेकिन हर वो चीज़ इंसान को भड़काती है जिसे करने से मना किया गया हो। हिंदू लड़की किसी मुसलमान से शादी कर लेती है या मुसलमान लड़की सिख के साथ भाग जाती है तो कैसा शोर मचता है! कोई नहीं पूछता उस लड़की से कि उसे क्या तकलीफ़ थी। चाहे वो लड़की ख़ुद ही बाद में कहे क्या हिंदू, क्या मुसलमान और क्या सिख सब एक ही से कमीने हैं।

    हिंदूस्तानी टीम में एक खिलाड़ी स्टैंड बाई था जो सब से ज़्यादा ख़ूबसूरत और गबरू जवान था। उसे खेला क्यूँ नहीं रहे थे? खेल के बाद जब मैं आटोग्राफ़ लेने के लिए खिलाड़ियों के पास गई तो मैंने अपनी कापी उस स्टैंड बाई के सामने भी कर दी। वो बहुत हैरान हुआ। वो तो खेला ही था। मैंने उस से कहा तुम खेलोगे। एक दिन खेलोगे। कोई बीमार पड़ जाएगा, मगर तुम खेलोगे। सब को मात दोगे, टीम के कैप्टन बनोगे!

    स्टैंड बाई का तो जैसे दिल ही पिघल कर बाहर गया। नम आँखों से उसने मेरी तरफ़ देखा जैसे मैं जो कुछ कह रही हूँ वो इलहाम है! और शायद वो इलहाम था भी, क्यूँकि वो सब कुछ मैं थोड़ा ही कह रही थी। मेरे अंदर की कोई चीज़ थी जो मुझे वो सब कुछ कहने को मजबूर कर रही थी। फिर मैंने उसे चाय की दावत दी, जो उसने क़ुबूल कर ली और मैं उसे साथ लेकर लार्ड पहुँच गई। जब मैं उसके साथ चल रही थी तो एक सनसनाहट थी जो मेरे पूरे बदन में दौड़ दौड़ जाती थी। कैसे डर ख़ुशी बन जाता है और ख़ुशी डर। मैंने चंदेरी की जो साड़ी पहन रक्खी थी, बहुत पतली थी। मुझे शर्म रही थी और शर्म ही शर्म में एक मज़ा भी। कभी कभी मुझे याद आता था और फिर भूल भी जाती थी कि लोग मुझे देख रहे हैं। उस वक़्त दुनिया में कोई नहीं था, मेरे और उस स्टैंड बाई के सिवा जिस का नाम जय किशन था लेकिन उसे सब परन्टू के नाम से पुकारते थे। हम दोनों लार्ड पहुँच गए और एक सीट पर बैठ गए। एक दूसरे की क़ुरबत से हम दोनों शराबी हो गए थे। हम साथ लग के बैठे थे कि अलग हट गए और फिर साथ लग कर बैठ गए। बदनों में से एक बू लपक रही थी सोंधी सोंधी, जैसे तन्नूर में पड़ी हुई रोटी से उठती है। मैं चाहती थी कि हम दोनों के दरमियान कुछ हो जाए। प्यार, जैसे प्यार कोई आला कारत डिश होती है। चाय आई जिसे पीते हुए मैंने देखा कि वो चोर नज़रों से मुझे देख रहा है मेरे बदन के उसी हिस्से को जहाँ उस बुढ्ढे की नज़रें टिक्की थीं। वो बुढ्ढा था? माँ ने कहा था मर्द सब एक से ही होते हैं, क्या जवान क्या बुढ्ढे?

    हो सकता था हमारी बात आगे बढ़ जाती, लेकिन प्रिंटो ने सारा क़िला ढेर कर दिया। पहले उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और उसे दबा दिया। इस हरकत को मैंने प्यार की अठकेली समझा लेकिन उसके बाद वो सब की नज़रें बचा कर अपना हाथ मेरे शरीर के उस हिस्से पर दौड़ाने लगा, जहाँ औरत मर्द से जुदा होने लगती है। मेरे तन बदन में आग सी लपक आई। मेरी आँखों से चिनगारियाँ फूटने लगीं नफ़रत की, मोहब्बत की। मेरा चेहरा लाल होने लगा। मैं बातें भूलने लगी। मैंने उसका हाथ झटका तो उसने मायूस हो कर रात को बैक पे में चलने की दावत दी, जिसे फ़ौरन मानते हुए मैंने एक तरह इनकार कर दिया। वो मुझे, औरत को बिल्कुल ग़लत समझ गया था, जो ढर्रे पे तो आती है मगर सीधे नहीं। उसकी तो गाली भी बेहया मर्द की तरह सीधी नहीं होती। उसका सब कुछ गोल मोल, टेढ़ा मेढ़ा होता है। रौशनी से वो घबराती है, अंधेरे से उसे डर लगता है। आख़िर अंधेरा रहता है डर, क्यूँकि वो उन आँखों से परे, उन रौशनियों से परे एक ऐसी दुनिया में होती है जो सांसों की दुनिया, योग की दुनिया होती है, जिसे आँखों के बीच की तीसरी आँख ही घूर सकती है। गे लार्ड से बाहर निकले तो मेरे और प्रिंटो के दरमियान सिवा तंदरुस्ती के और कोई बात मुश्तर्क रही थी। मेरे खिसियाए होने से वो भी खिसिया चुका था। मैंने सड़क पर जाती हुई एक टैक्सी को रोका। प्रिंटो ने बढ़ कर मेरे लिए दरवाज़ा खोला और मैं लपक कर अंदर बैठ गई।

    बैक बे। प्रिंटो ने मुझे याद दिलाया।

    मैंने तोते की तरह रट दिया बैक बे और फिर टैक्सी ड्राईवर की तरफ़ मुँह मोड़ते हुए बोली माहिम।

    बैक बे नहीं? वो बोला।

    नहीं मैंने करख़त सी आवाज़ में जवाब दिया माहिम। आप तो अभी

    चलो, जहाँ मैं कहती हूँ।

    टैक्सी चली तो प्रिंटो ने मेरी तरफ़ हाथ फैलाया जो इतना लंबा हो गया कि मोहम्मद अली रोड, बाईकल्ला, परेल, दादर, माहिम, सीतला देवी, टेंपल रोड तक मेरा पीछा करता रहा और मुझे गुदगुदाता रहा। आख़िर मैं घर पहुँच गई।

    अन्दर यादव भय्या एक झटके के साथ भाभी के पास से उठे मैं समझ गई, क्यूँकि माँ का कड़ा हुक्म था कि मेरे सामने वो इकट्ठे बैठा करें घर में जवान लड़की है। मैंने लपक कर बिन्दू को झूले में से उठाया और उस से खेलने लगी। बिन्दू मुझे देख कर मुस्कुराई। एक पल के लिए तो मैं घबरा गई जैसे उसे सब कुछ मालूम था। कुछ लोग कहते हैं कि बच्चों को सब पता होता है, सिर्फ़ वो कहते नहीं।

    घर में गोविंद चाचा भी थे जो पापा के साथ स्टडी में बैठे थे और हमेशा की तरह से माँ की नाक में दम किए हुए थे। अजीब था देवर भाभी का रिश्ता। जब मिलते थे एक दूसरे को आड़े हाथों लेते थे। लड़ने, झगड़ने, गाली ग्लोच के सिवा कोई बात ही होती। पापा उनकी लड़ाई में कभी दख़ल देते थे। वो जानते थे कि एक रोज़ की बात हो तो कोई बोले बके भी, लेकिन रोज़ रोज़ का ये झगड़ा कौन निमटाएगा? और वैसे भी सब कुछ ठीक ही तो था। क्यूँकि इस सारी ले दे के बावजूद माँ ज़रा भी बीमार होती तो हमेशा गोविंद ही को याद करती और भी तो देवर थे माँ के, जिन से उसका पाए लॉगिन और जीते रहो के सिवा कोई रिश्ता था। वो माँ को तोहफ़ों की रिश्वत भी देते थे, लेकिन कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। देना तो एक तरफ़ गोविंद चचा तो माँ को उल्टा ठगते ही रहते थे लेकिन इस पर भी वो उसे सब से ज़्यादा समझती थी और वो लेकर उल्टा माँ को ही एहसास दिलाते थे जैसे उसकी सौ पुश्तों पर एहसान कर रहे हैं। कई बार माँ ने कहा गोविंद इसलिए अच्छा है कि उसके दिल में कुछ नहीं और पापा हमेशा यही कहते थे दिमाग़ में भी कुछ नहीं और माँ इस बात पर लड़ने मरने पर तैय्यार हो जाती और जब वो गोविंद चाचा से अपनी देवरानी के बारे में पूछती। तुम अज ताया को क्यूँ नहीं लाए? तो जवाब यही मिलता क्या करूँ ला कर? तुम से उसकी चोटी खिंचवाना है? जली कटी सुनवाना है? माँ जवाब में गालियाँ देती, गालियाँ खाती और चाचा के चले जाने के बाद धाड़ें मार मार कर रोती और फिर वही कहाँ है गोविंद? उसे बुलाओ। मेरा तो इस घर में वही है। अपने पापा का क्या पूछती हो? वो तो हैं भोले महेश, गोबर गणेश। उनके तो कोई भी कपड़े उतरवा ले और ये मैंने हर जगह देखा है, हर बीवी अपने मियाँ को बहुत सीधा, बहुत बेवक़ूफ़ समझती है और वो चुप रहता है। शायद इसी में उसका फ़ायदा है।

    उस दिन गोविंद चाचा डायरेक्टर जनरल शिपिंग के दफ़्तर में काम करने वाले किसी मिस्टर सोलंकी की बात कर रहे थे और इसरार कर रहे थे मेरी बात आप को मानना पड़ेगी।

    तुम बख्स में होना। माँ कह रही थी इस में भी कोई स्वार्थ होगा तुम्हारा। इस पर गोविंद चचा जल भुन गए। उन्होंने चिल्लाते हुए कहा तुम क्या समझती हो? कामिनी तुम्हारी ही बेटी है, मेरी नहीं है। अब मुझे पता चला कि मिस्टर सोलंकी के लड़के के साथ मेरे रिश्ते की बात चल रही है और इस के बाद किसी कंडम इस्पन्डल की तरह और भी धागे खुलने लगे, जिन का मुझे आज तक पता था। गोविंद चचा के मुँह में झाग थी और वो बक रहे थे तो तू ने अजीता के साथ मेरी शादी कर दी। मैं ने आज तक कभी चूँ चराँ की? कहती थी, मेरे माइके की है, दूर के रिश्ते से मेरे मामा की लड़की है ये बड़ी बड़ी आँखें। अब इन आँखों को कहाँ रक्खूँ? बोलो कहाँ रक्खूँ? ज़िंदगी क्या आँखों से बताते हैं? वही आँखें अब वो मुझे दिखाती है और तो और तुझे भी दिखाती है।

    पहली बार मैंने गोविंद चाचा का ब्रेक डाउन देखा। मैं समझती थी वो आदर्श आदमी हैं और अजीता चाची से प्यार करते हैं। आज ये राज़ खुला कि उनके हाँ बच्चा क्यूँ नहीं होता। फ़ैमिली प्लानिंग तो एक नाम है।

    माँ ने कहा, कामिनी तुम्हारी बेटी है इसीलिए तो नहीं चाहती कि उसे भी किसी गढ़े में फेंक दो। मेरा ख़याल था कि इस पर और तू तू मैं मैं होगी और गोविंद चाचा बाएँ बाज़ू की पार्टी की तरह वाक आउट कर जाएँगे, लेकिन वो उल्टा क़स्में खाने लगे, तुम्हारी सौगन्द भाबी। इस से अच्छा लड़का तुम्हें मिलेगा। वो बड़ौदा की सैंटर्ल रेलवे की वर्कशॉप में फोरमैन है। बड़ी अच्छी तनख़्वाह पाता है।

    मैं सब कुछ सुन रही थी और अंदर झल्ला रही थी हो लड़का अच्छा है, तनख़्वाह अच्छी है लेकिन शक्ल कैसी है, अक़्ल कैसी है, उम्र क्या है? इस के बारे में कोई कुछ कहता ही नहीं। फोरमैन बनते बनते बरसों लग जाते हैं। ये हमारा देस है। पच्चास साल का मर्द भी ब्याह ने आए तो यहाँ की बोली में उसे लड़का ही कहते हैं। उसकी सेहत कैसी है? कहीं इन्टलैक्चुअल तो नहीं मालूम होता? उसी दम मुझे प्रिंटो का ख़याल आया जो इस वक़्त बैक बे पे मेरा इंतिज़ार कर रहा होगा स्टैंड बाई! जो ज़िंदगी भर स्टैंड बाई ही रहेगा। कभी खेलेगा। उसे खेलना आता ही नहीं। उस में सब्र ही नहीं। फिर मुझे उस ग़रीब पर तरस आने लगा। जी चाहा भाग कर उसके पास चली जाऊँ। उसे तो मैंने देखा और पसंद भी किया था, लेकिन उस फोरमैन को जो बैकग्राउंड में कहीं मुस्कुरा रहा था फिर जैसे मन के अंधेरे में मच्छर भनभनाते हैं मिस गुप्ता से मिसेज़ सोलंकी कहलाई तो कैसी लगूंगी बकवास!

    गोविंद चाचा कह रहे थे, लड़का तले का उजला है, मन का उजला है उसकी आत्मा कितनी अच्छी है, उसका इस बात से पता चलता है कि वो बच्चों से प्यार करता है। बच्चे उस पर जान देते हैं, उसके इर्द गिर्द मंडलाते हैं, ही ही, हो हो, हाहा करते रहते हैं और वो भी उनके साथ ग़ी ग़ी, गो गो, गाँ गाँ बस मैं अंदर के किसी सफ़र से इतना दिखा चुकी थी कि रात को मुझे भेड़ें गिनने की भी ज़रूरत पड़ी। एक स्पाट, बेरंग, बेख़्वाब सी नींद आई ऐसी नींद जो लंबे रत जगों के बाद आती है।

    दो ही दिन बाद वो लड़का हमारे घर पर मौजूद था। अरे! ये सब अंदाज़े कितने ग़लत निकले! वो हाकी टीम के सब लड़कों क्या खेलने वाले और क्या स्टैंड बाई सब से ज़्यादा गबरू, ज़्यादा जवान था। उसने सिर्फ़ कसरत ही नहीं की थी, आराम भी किया था। उसका चेहरा अंदर की गर्मी से तिमतिमाया हुआ था। रंग कुंदनी था मेरी तरह। मज़बूत दहाना, मज़बूत दाँतों की बाढ़ जैसे बेशुमार गिने चूसे हों, गाजर, मूलियाँ खाई हों, शायद कच्चे शलजम भी। वो एक तरफ़ घबराया हुआ था और दूसरी तरफ़ अपनी घबराहट को बहादुरी की ओट में छिपा रहा था। आते ही उसने मुझे नमस्ते की, मैंने भी जवाब में नमस्ते कर डाली। फिर उसने माँ को प्रणाम किया। जब वो मेरी तरफ़ देखता था तो मैं उसे देख लेती थी। ये अच्छा हुआ कि किसी को पता चला कि मेरी टांगें कपकपाने लगी हैं और दिल धड़ाम से शरीर के अंदर ही कहीं नीचे गर गया है। आज कल की लड़की होने के नाते मुझे हिस्टीरिया का सबूत नहीं देना था, इसलिए डटी रही। बीच में मुझे ख़याल आया कि बेकार की बग़ावत की वजह से मैंने तो अपने बाल भी नहीं बनाए थे।

    उसके साथ उसकी माँ भी आई थी। वो बिछी जा रही थी, जैसे बेटों की शादी से पहले माएं बिछती हैं। मुझे तो यूँ लगा जैसे वो लड़का नहीं, उसकी माँ मर मिट्टी है और जाने मुझ में अपने मुस्तक़बिल का क्या देख रही है? उसकी अपनी सेहत बहुत ख़राब थी और वो अपनी कभी की ख़ूबसूरती और तंदरुस्ती की बातें कर के अपने बेटे के लिए मुझे मांग रही थी। यूँ मालूम होता था कि जैसे उसे अपनी माँ पर भरोसा नहीं वो भिकारन कह रही थी। लड़कों की ख़ूबसूरती किस ने देखी है? लड़के सब ख़ूबसूरत होते हैं बस अच्छे घर के हों, कमाऊ होनहार वो अपनी माँ की तरफ़ यूँ देख रहा था जैसे वो उसके साथ कोई बहुत बड़ा ज़ुल्म कर रही है। मेरी माँ के कहने पर वो कुछ शर्माता हुआ मेरे पास कर बैठ गया और बातें करो के हुक्म पर मुझ से बातें करने लगा।

    पहले तो मैं चुप रही। फिर जब बोली तो सिर्फ़ ये साबित हुआ कि मैं गूंगी नहीं हूँ। सफ़ैद क़मीस, सफ़ैद पतलून और सफ़ैद ही बूट पहने वो क्रिकेट का खिलाड़ी मालूम हो रहा था। वो कैप्टन नहीं तो बैटस्मैन होगा। नहीं बॉलर बॉलर, जो थोड़ा पीछे हट कर आगे आता है और बड़े ज़ोर के स्पिन से गेंद को फेंकता है और विकेट साफ़ उड़ जाती है। हाँ बैटस्मैन अच्छा हो तो चौकसी के साथ गेंद को बाउन्डरी से भी परे फेंक देता है, नहीं तो ख़ुद ही आउट!

    माँ के इशारे पर मैंने उस से पूछा, आप चाय पिएँगे?

    जी? उसने चौंक कर कहा और फिर जैसे मेरी बात कहीं धरती के पूरे करे का चक्कर काट कर उसके दिमाग़ में लौट आई और वो बोला, आप पिएँगी?

    मैं हंस दी, मैं पियूँगी तो क्या आप नहीं पिएँगे?

    आप पिएँगी तो मैं भी पी लूँगा।

    मैं हैरान हुई, कि वो भी ऐसा ही था जैसे माँ के सामने मेरे पापा लेकिन ऐसा तो बहुत बाद में होता है। वो शुरू में ही ऐसा था।

    चाय बनाने के लिए उठी तो सामने आईने पर मेरी नज़र गई। वो मुझे जाते देख रहा था। मैं ने साड़ी से अपने बदन को छुपाया और फिर उस बुढ्ढे के अलफ़ाज़ याद गए, आज कल यहाँ चोर आए हुए हैं देखना कहीं पुलिस ही पकड़ ले तुम्हें

    बस कुछ ही दिन में मैं पकड़ी गई। मेरी शादी हो गई। मेरे घर के लोग यूँ तो बड़े आज़ाद ख़याल हैं, लेकिन दीन पर बिठाते हुए उन्होंने जैसे मुझे बोरी में डाल रखा था ताकि मेरे हाथ पाँव पर किसी की नज़र भी पड़े। मैं पर्दा पसंद करती हूँ, लेकिन सिर्फ़ इतना जिस में दिखाई भी दे और शर्म भी रहे। ज़िंदगी में एक बार ही तो होता है कि वो दबे पाँव आता है और काँपते हुए हाथों से उस घूंघट को उठाता है जिसे बीच में से हटाए बिना परमात्मा भी नहीं मिलता।

    शादी के हंगामे में मैंने तो कुछ नहीं देखा कौन आया, कौन गया। बस छोटे सोलंकी मेरे मन में समाए हुए थे। मैंने जो भी कपड़ा, जो भी ज़ेवर पहना था, जो भी अफ़्शाँ चुनी थी, उन्ही की नज़रों से देख कर, जैसे मेरी अपनी नज़रें ही रही थीं। मैं सब से बचना, सब से छुपना चाहती थी ताकि सिर्फ़ एक के सामने खुल सकूँ, एक पर अपना आप वार सकूँ। जब बरात आई तो मेरी सहेलियों ने बहुत कहा, बालकोनी पर जाओ, बरात देख लो। लेकिन मैंने एक ही ना पकड़ ली। मैंने एक रूप देखा था जिस के बाद कोई दूसरा रूप देखने की ज़रूरत ही थी।

    आख़िर मैंने ससुराल की चौखट पर क़दम रक्खा। सब मेरे स्वागत के लिए खड़े थे। घर की सब औरतें, सब मर्द बच्चों की हंसी सुनाई दे रही थीं और वो मुझे घूंघट में से धुँदले धुँदले दिखाई दे रहे थे। सब रस्में अदा हुईं जैसी हर शादी में होती हैं लेकिन जाने क्यूँ मुझे ऐसा लगता था जैसे मेरी शादी और है, मेरा घूंगट और, मेरा बर और। घर के इष्टदेव को माथा टिकाने के बाद मेरी सास मुझे अपने कमरे में ले गई ताकि मैं अपने सुसर के पाँव छुऊँ, उनके चरणों को हाथ लगाया। उन्होंने मेरे सर पर हाथ रक्खा और बोले, सो तुम गईं बेटी?

    मैंने थोड़ा चौंक कर उस आवाज़ के मालिक की तरफ़ देखा और एक बार फिर उनके क़दमों पर सर रख दिया। कुछ और भी आँसू होते तो मैं उन क़दमों को धो धो कर पीती।

    स्रोत:

    Hath Hamare Qalam Huye (Pg. 163)

    • लेखक: राजिंदर सिंह बेदी
      • प्रकाशक: मकतबा जामिया लिमिटेड, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1974

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