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वो जो खोए गए

इन्तिज़ार हुसैन

वो जो खोए गए

इन्तिज़ार हुसैन

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    ज़ख़्मी सर वाले आदमी ने दरख़्त के तने से उसी तरह सर टिकाए हुए आँखें खोलीं। पूछा, “हम निकल आए ‎हैं?”

    बारीश आदमी ने इतमीनान भरे लहजा में कहा। “ख़ुदा का शुक्र है हम सलामत निकल आए हैं।”

    उस आदमी ने जिस के गले में थैला पड़ा था ताईद में सर हिलाया, “बेशक, बेशक कम अज़ कम हम अपनी ‎जानें बचाकर ले आए हैं।” फिर उसने ज़ख़्मी सर वाले के सर पर बंधी हुई पट्टी की तरफ़ देखा। पूछा। “तेरे ‎ज़ख़्म का अब क्या हाल है?”

    ज़ख़्मी सर वाला बोला, “मुझे लगता है कि ख़ून अभी थोड़ा थोड़ा रिस रहा है।”

    बारीश आदमी ने फिर उसे इतमीनान भरे लहजा में कहा। “अज़ीज़ फ़िक्र मत कर। ख़ून रुक जाएगा और ‎ज़ख़्म अल्लाह चाहे तो जल्द फिर जायेगा।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने पूरी आँखें खोल कर एक-एक को देखा। फिर उंगली उठाकर एक-एक को गिना, बारीश ‎आदमी को, थैले वाले आदमी को, नौजवान को। फिर ताज्जुब से बोला “एक आदमी कहाँ है?”

    नौजवान चौक पड़ा, “क्या...? एक आदमी कम है?”

    बारीश आदमी ने नौजवान को ग़ुस्सा से देखा, फिर ज़ख़्मी सर वाले को नरम लहजे में सरज़निश की, ‎‎“अज़ीज़ हम इतनी तादाद में नहीं हैं कि तू गिनने में घपला करे।”

    थैले वाले ने बारीश आदमी की ताईद की, फिर एतिमाद के साथ-एक एक को गिना, बारीश आदमी को, ‎ज़ख़्मी सर वाले को, नौजवान को, फिर ठिठक गया। बोला, “एक आदमी कहाँ है?”

    नौजवान ने हिरासाँ हो कर थैले वाले को देखा। फिर ख़ुद एक-एक को गिना, बारीश आदमी को, थैले वाले ‎को, ज़ख़्मी सर वाले को, फिर तशवीश के लहजा में बोला। “कहाँ गया, एक आदमी?”

    बारीश आदमी ने ग़ुस्सैली नज़रों से तीनों को देखा। फिर ख़ुद उंगली उठाकर एक-एक को देखा। ज़ख़्मी ‎सर वाले को, थैले वाले को, नौजवान को, ठिठक गया। फिर गिना, फिर ठिठका, तीसरी बार फिर बड़ी ‎एहतियात से गिना और फिर ठिठक गया। धीरे से बड़बड़ाया, “अजीब बात है।”

    फिर चारों ने एक हिरास भरी हैरत से एक दूसरे को देखा। फिर वही एक फ़िक़रा एक वक़्त में चारों की ‎ज़बान पर आया, कुछ सरगोशी की कैफ़ीयत लिए हुए, “अजीब बात है।” फिर चुप हो गए।

    वो एक लंबी चुप थी। मगर दूर कहीं एक कुत्ता भौँकने लगा था। नौजवान ने ख़ौफ़ भरी नज़रों से सबको ‎देखा। फिर आहिस्ता से बोला। “ये कुत्ता कहाँ भौक रहा है?”

    ज़ख़्मी सर वाले ने बे-तअल्लुक़ी से पूछा, “कौन होगा?”

    ‎“वही होगा”, बारीश आदमी ने एतिमाद से ऊंची आवाज़ में कहा। “उसे ज़्यादा दूर नहीं होना चाहिए। वो ‎यहीं कहीं हमसे बिछड़ा है।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने पास पड़ी हुई लाठी उठाई और उठते हुए बोला। “अगर ये वही है और कुत्ते ने उसका ‎रस्ता रोका हुआ है तो मैं मर जाता हूँ और उसे लेकर आता हूँ।”

    ज़ख़्मी सर वाला लाठी लेकर उस तरफ़ चला गया। जिस तरफ़ से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ रही थी। वो ‎तीनों चुप बैठे रहे। फिर थैले वाला बोला, क्या वाक़ई वही होगा।”

    बारीश आदमी बोला, “उसके सिवा इस ग़ैर वक़्त में इस ग़ैर जगह और कौन हो सकता है।”

    ‎“हाँ वही होगा”, थैले वाला अब किसी क़दर इतमीनान के लहजा में बोला। “वो आगे भी कुत्ते से डरता था। ‎रस्ते में कहीं नज़र जाता तो वो रुक कर खड़ा हो जाता था।”

    नौजवान फिर शक भरे लहजा में बोला, “मगर क्या तुमने ग़ौर किया कि अब कुत्ते की आवाज़ नहीं रही।”

    थैले वाले ने थोड़ी देर कान लगाकर सुनने की कोशिश की, फिर कहा, “हाँ अब आवाज़ नहीं रही है। ‎जाने क्या बात है।”

    बारीश आदमी ने इतमीनान दिलाने के लहेजा में कहा, “कुत्ते को दोनों ने मिलकर भगा दिया है। अब वो ‎रहे होंगे।”

    फिर तीनों चुप हो गए। जिस तरफ़ ज़ख़्मी सर वाला गया था उसी तरफ़ उनकी आँखें लगी हुई थीं। थैले वाला ‎उस तरफ़ टिकटिकी बाँधे देखता रहा। फिर जैसे कुछ देख लिया हो कहने लगा। “वो तो अकेला ही रहा ‎है।”

    ‎“अकेला?” बारीश आदमी ने सवाल किया।

    ‎“हाँ अकेला।”

    तीनों ज़ख़्मी सर वाले को देखते रहे। ज़ख़्मी सर वाला आया। लाठी अलग रखते हुए बैठा और बोला, “वहाँ ‎तो कोई भी नहीं है।”

    थैले वाले ने ताज्जुब से सवाल किया, “फिर कुत्ता किस पर भौंका था?”

    नौजवान बोला, “कुत्ते ख़ला में तो नहीं भौंकते।”

    ज़ख़्मी सर वाला कहने लगा। “मगर वहाँ तो कोई भी नहीं था।”

    ‎“बड़ी अजीब बात है”, थैले वाले ने कहा।

    नौजवान ने फिर कान खड़े किए। फिर बोला, “क्या ख़्याल है ये कुत्ते के भौंकने की आवाज़ नहीं है।”

    सब कान लगाकर सुनने लगे। फिर बारीश आदमी ज़ख़्मी सर वाले से मुख़ातिब होते हुए बोला, “तुम कहाँ ‎निकल गए थे कुत्ते की आवाज़ तो इस तरफ़ से रही है।”

    थैले वाले ने ज़ख़्मी सर वाले के क़रीब पड़ी हुई लाठी उठाई। खड़े होते हुए बोला, “में जाकर देखता हूँ।”

    बारीश आदमी भी उठ खड़ा हुआ, “सब चल कर क्यों ना देखें।”

    ये सुनकर बाक़ी दो भी उठ खड़े हुए। चारों मिल कर उस तरफ़ गए जिस तरफ़ से अभी-अभी कुत्ते के ‎भौंकने की आवाज़ आई थी। दूर तक गए। कुछ नज़र आया। थैले वाला चलते चलते बड़बड़ाया, “यहाँ तो ‎कोई भी नहीं है।”

    बारीश आदमी ने उसकी हिम्मत बंधाई। कहा कि “पुकार कर देखो। उसे यहीं कहीं होना चाहिए। आख़िर ‎छलावा तो नहीं था कि ग़ायब हो गया।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने किसी क़दर मायूसाना लहजा में कहा, “हाँ पुकार कर भी देख लो।” और उसने पुकारने ‎की नीयत से झुरझुरी ली। फिर अचानक ठिठका। थैले वाले से मुख़ातिब हुआ, “मेरे ज़हन से तो उसका ‎नाम ही उतर गया। क्या नाम था उसका?”

    ‎“नाम?” ज़ख़्मी सर वाले ने ज़हन पर-ज़ोर डाला। ”नाम तो उसका मुझे भी याद नहीं रहा।” फिर नौजवान ‎से मुख़ातिब हुआ, “नौजवान तुझे याद होगा?”

    नौजवान ने जवाब दिया, “नाम कैसा, मुझे तो उसकी सूरत भी याद नहीं।”

    ‎“सूरत भी याद नहीं।” थैले वाला सोच में पड़ गया। बोला अजब बात है उसकी सूरत मुझे भी याद नहीं ‎रही। फिर बारीश आदमी से मुख़ातिब हुआ, “ऐ बुज़ुर्ग तुझे तो उसकी सूरत याद होगी, और नाम भी।”

    बारीश आदमी सोच में पड़ गया। ज़हन पर-ज़ोर डाल कर सोचता रहा। फिर मुतफ़क्किर लहजे में बोला, ‎‎“अज़ीज़ो पलट चलो कि अब ढ़ूँढ़ने में जोखों है।”

    ‎“क्यों?”

    ‎“यूँ कि अब हमें उसका नाम याद है सूरत याद है। ऐसी सूरत में क्या ख़बर कौन मिल जाये। हम समझें ‎कि वो है। और वो, वो हो, कोई और हो। ये ग़ैर वक़्त है और हम रास्ते में हैं।”

    चारों पलट पड़े। चलते-चलते फिर वहीं गए जहाँ से चले थे। फिर उन्होंने आग रौशन की और थैले वाले ने ‎थैले से मोटा झोटा निकाला और आग पर पकाया।

    खाने पीने के बाद उन्होंने आग पर हाथ तापे और उन्हें याद करके आबदीदा हुए जिन्हें वो छोड़ आए थे।

    ‎“मगर वो आदमी कौन था?” नौजवान ने सवाल किया।

    ‎“सबने अनजाने पन में पूछा, “कौन आदमी?”

    ‎“वो जो हमारे हमराह था और फिर हमसे टूट गया।”

    ‎“वो आदमी” अच्छा वो आदमी... “उसे तो हम भूल ही चले थे। कौन था वो?”

    ‎“अजीब बात है”, थैले वाला कहने लगा। “न हमें उसका नाम याद रहा सूरत याद रही।”

    ‎“तो क्या वो हम में से नहीं था?”

    नौजवान के इस सवाल पर सब सन्नाटे में गए। फिर थैले वाला बोला, “अगर वो हम में से नहीं था तो फिर ‎किन में से था। और किस मक़सद से हमारे साथ लगा हुआ था। उसका यूँ यकायक ग़ायब हो जाना यूँ ‎यकायक ग़ायब हो जाना... यूँ यकायक ग़ायब हो जाना...” वो कहते-कहते चुप हो गया। एक दूसरे को ‎तकने लगे जैसे सोच में पड़ गए हों कि आख़िर हमराह चलते-चलते यूँ ग़ायब हो जाना, क्यों, कैसे, किस ‎लिए।

    आख़िर बारीश आदमी ने हौसला पकड़ा और कहा कि “अज़ीज़ो शक मत करो कि शक में हमारे लिए ‎आफ़ियत नहीं है। वो बे-शक हमें में से था मगर ये कि जिस क़यामत में हम घरों से निकले हैं। इसमें से ‎कौन किस को पहचान सकता था। और कौन किस को शुमार कर सकता था।

    ‎“क्या हमें ये याद नहीं।” नौजवान ने फिर सवाल किया, “कि जब हम चले थे, तब कितने थे।”

    ‎“और कहाँ से चले थे।” नौजवान ने टुकड़ा लगाया।

    बारीश आदमी ने अपने ज़हन पर-ज़ोर डाला। फिर बोला, “मुझे बस इतना याद है कि जब मैं ग़रनाता से ‎निकला हूँ।।

    ‎“ग़रनाता से”, एक दम से सब चौंक पड़े और बारीश आदमी को ताज्जुब से देखने लगे।

    फिर थैले वाले ने ज़ोर-ज़ोर से हँसना शुरू कर दिया। बारीश आदमी सब के चौंक पड़ने पर सिटपिटा गया ‎था। अब इस हंसी से बिलकुल ही सिटपिटा गया। वो हँसे जा रहा था फिर बोला, “ये ऐसी ही बात है कि मैं ‎हाँकने लगूँ कि जब मैं जहाँ आबाद से निकला हूँ तो...”

    ‎“जहानाबाद से”, फिर सब चौंक पड़े।

    थैले वाला ख़ुद भी कि अभी तक बारीश आदमी पर हँसे जा रहा था। सिटपिटाकर चुप हो गया। ये याद ‎रखने से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं ग़रनाता से निकला हूँ या जहानाबाद से निकला हूँ या बैतुल-मुक़द्दस से ‎या और कश्मीर से...” कहते-कहते वो रुका।

    ज़ख़्मी सर वाले की इस बात से सब अजीब तरह मुतास्सिर हुए कि चुप से हो गए मगर बारीश आदमी ‎आबदीदा हुआ और ये कलाम ज़बान पर लाया कि “हम अपना सब कुछ तो छोड़ आए थे मगर क्या हम ‎अपनी यादें भी छोड़ आए हैं।”

    थैले वाला आदमी बहुत सोच कर बोला, “मुझे अब बस इस क़दर याद है कि हमारे घर धड़-धड़ जल रहे थे ‎और हम बाहर निकल रहे थे, भाग रहे थे।”

    नौजवान का दिल भर आया। बोला, “मुझे बस इतना याद है कि उस वक़्त मेरा बाप जा-नमाज़ पे बैठा था ‎और हाथ में इसके तस्बीह थी, होंट उसके हिल रहे थे और घर में धुआँ ही धुआँ था...”

    बारीश आदमी ने रिक़्क़त भरी आवाज़ में कहा, “तेरा बाप ये कुछ देखने के लिए ज़िंदा रहा।”

    नौजवान ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों में आँसू डबडबा रहे थे।

    थैले वाला बहुत सोच कर बोला “मुझे बस अब इस क़दर याद है कि घर धड़-धड़ जल रहे थे और हम ‎सरासीमा-ओ-बदहवास निकल रहे थे।”

    ज़ख़्मी सर वाले पर कोई असर ना हुआ। बोला तो ये बोला कि “दोस्त यादों में क्या रखा है। मेरे लिए ये याद ‎रखने से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मेरे सर पर बल्लम पड़ा था, या लाठी पड़ी थी या उसे तलवार ने दो नीम ‎किया था। मेरे लिए अस्ल बात ये है कि इस वक़्त मेरा सर बे-तरह दुख रहा है और ख़ून इससे हनूज़ रिस ‎रहा है।

    सब हमदर्दाना ज़ख़्मी सर को देखने लगे।

    बारीश आदमी ज़ख़्मी सिरवाले को तकता रहा फिर बोला, “मेरा सीना तेरे सर से ज़्यादा ज़ख़्मी है।” आह-ए-‎सर्द भरी। फिर बोला, “क्या बस्ती थी कि जल गई।”

    ‎“क्या ख़लक़त थी कि नज़रों से ओझल हो गईं”, नौजवान अफ़्सुर्दा हो कर बोला। वो यादों ही यादों में दूर तक ‎गया, उस साअत तक जिस साअत उसने अपनी ज़िंदगी का पहला बोसा किसी लब पर सब्त किया था। ‎और उसने वो ऐलानात किए जो ऐसी साअत में किए जाते हैं कि इस साअत में तो वक़्त और मुआशरा दोनों ‎हेच दिखाई देते हैं और मुहब्बत का रास्ता जावेदाँ नज़र आता है। उस साअत को उसने एक उदासी के ‎साथ याद किया। फिर बड़बड़ाया

    ‎“अगर वो इस वक़्त यहाँ होती तो हम पूरे होते।”

    ‎“होती?” बारीश आदमी ने उसे ताज्जुब से देखा, “कौन होती?”

    ‎“वो”

    ‎“वो कौन?”

    नौजवान ने कोई जवाब नहीं दिया। वो टिकटिकी बाँधे ख़ला में देख रहा था। बारीश आदमी और थैले वाला ‎उसे ग़ौर से देखते रहे थे। ज़ख़्मी सर वाले ने दरख़्त के तने से टेक लगाई और आँखें मूंद लीं जैसे वो इस सारे ‎क़िस्से से थक गया है। थैले वाला नौजवान को देखता रहा, फिर आहिस्ता से बोला, ”क्या वो औरत थी?”

    ‎“औरत” बारीश आदमी चौंक पड़ा।

    ज़ख़्मी सर वाले ने भी चौंक कर आँखें खोल दीं।

    ‎“अगर वो औरत थी”, थैले वाला बोला। “तो ख़ुदा की क़सम हम एक अच्छे हमसफर से महरूम हो गए हैं।”

    बारीश आदमी ने ग़ुस्से से उसे देखा और कहा, “अगर वो औरत थी तो ख़ुदा की क़सम उसकी हमसफ़री ‎हमें बहुत ख़राब करती।”

    ज़ख़्मी सर वाला तल्ख़ हंसी हंसा और कहा, “अब हम ख़राब नहीं हैं?”

    ‎“मगर वो ख़राबी दर ख़राबी होती।”

    तब ज़ख़्मी सर वाले ने किसी क़दर दुरुस्त लहजे में उसे मुख़ातिब किया, “ऐ बूढ़े आदमी, औरत की बदौलत ‎ख़राब होना इससे बेहतर है कि हम बिला-सबब-ओ-बिला वजह ख़राब फिरें।” फिर उसने आँखें मूंद लीं ‎और सर तने पर टिका दिया।

    देर तक ख़ामोशी रही। थैले वाले ने आस-पास से ईंधन जमा किया और अलाव में डाल दिया। चुप-चाप ‎अपने अपने ख़यालों में गुम अपने-अपने वस्वसों में ग़लताँ वो बैठे रहे। हाथ तापते रहे। फिर बारीश आदमी ‎बड़बड़ाया, “अजीब बात है, उसका नाम याद रहा, सूरत याद रही। याद रहा कि वो औरत थी या मर्द ‎था।”

    थैले वाला ज़हन पर-ज़ोर डालते हुए कहने लगा, “समझ में नहीं आता कि कौन आदमी था। कौन हो सकता ‎है।”

    थैले वाले ने शक भरे लहजे में कहा, “और हो सकता है कि आदमी ही हो।”

    ‎“आदमी ही हो”, नौजवान चकरा सा गया।

    बारीश आदमी ने ताम्मुल किया। फिर आहिस्ता से कहा, “हाँ ये भी हो सकता है।”

    इस पर ख़ामोशी छा गई। मगर नौजवान कि वस्वसे में फंस गया था बोला, “अगर वो आदमी नहीं था तो फिर ‎कौन था?”

    बारीश आदमी और थैले वाला आदमी दोनों ही इस सवाल पर सोच में पड़ गए। ज़ख़्मी सिर वाले ने आँखें ‎खोलीं, नौजवान को देखा। कहा, “अगर वो औरत नहीं थी तो मेरी बला से वो कौन बला थी।” और फिर आँखें ‎मूंद लीं।

    ‎“बला”, तीनों चौंक पड़े।

    थोड़े ताम्मुल के बाद बारीश आदमी ने कहा, “अज़ीज़, ऐसा मत कह, मबादा आदमी पर से हमारा एतबार ‎उठ जाये।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने आँखें खोल कर बारीश आदमी को देखा, अपने मख़सूस तल्ख़ अंदाज़ में हंसा और बोला, ‎‎“ऐ बुज़ुर्ग, आदमी पर तेरा एतबार अभी तक क़ायम है।” फिर उसने आँखें मूंद लीं और सर ढक कर तने पर ‎टिक गया।

    बारीश आदमी ने उसे तशवीश से देखा और पूछा, “अज़ीज़ क्या तेरा सर ज़्यादा दर्द कर रहा है।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने उसी तरह आँखें मूँदे हुए नफ़ी में सर हिलाया और साकित हो गया।

    बारीश आदमी ने फिर पूछा, “तुम्हें कुछ याद है कि तुम्हें ज़र्ब किस चीज़ से आई और तुम नर्ग़े से कैसे ‎निकले।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने अज़ीयत भरे लहजा में आँखें मूँदे-मूँदे कहा, “मुझे कुछ याद नहीं है।”

    ‎“अजीब बात है,“ नौजवान बोला।

    ‎“कोई अजीब बात नहीं है”, बारीश आदमी कहने लगा। “चोट ज़्यादा शदीद हो तो दिमाग़ सुन्न हो जाता है ‎और हाफ़िज़ा थोड़ी देर के लिए मुअत्तल हो जाता है।”

    ‎“मेरे सर में कोई चोट नहीं लगी”, थैले वाला बोला,। “फिर भी मुझे ख़ासी देर तक यूँ लगा जैसे मेरा दिमाग़ ‎सुन्न हो गया है।”

    बारीश आदमी ने उसे समझाया, “ऐसे हालात में ऐसा हो जाता है। आदमी दहल जाता है।” ये कहते-कहते ‎बारीश आदमी चौंका। कुछ देर यूँ बे-हिस-ओ-हरकत बैठा रहा जैसे कुछ सुनने की कोशिश कर रहा है। ‎फिर सवालिया नज़रों से थैले वाले को देखा। “ये वही आवाज़ नहीं है।”

    थैले वाला कान लगाए सुनता रहा, फिर बोला, “वही आवाज़ है।”

    तीनों कुछ देर तक कान लगाए कुछ सुनते रहे। फिर उन्होंने ख़ौफ़ भरी नज़रों से एक दूसरे को देखा। ‎देखते रहे। फिर बारीश आदमी उठ खड़ा हुआ। थैले वाला और नौजवान भी उठ खड़े हुए। जब वो चलने ‎लगे तो ज़ख़्मी सर वाले ने आँखें खोल कर उन्हें देखा। एक तकलीफ़ के साथ उठा और पीछे-पीछे हो लिया।

    दूर तक गए, एक सिम्त में फिर दूसरी सिम्त में। फिर वो हैरान हुए। और थैले वाला बोला, “यहाँ तो दूर तक ‎कोई दिखाई नहीं देता।”

    बारीश आदमी बोला, “मगर कोई तो है जो कुत्ता बार-बार भौंकता है।”

    ‎“तो फिर कुत्ता कहाँ है?” नौजवान ने सवाल किया।

    इस सवाल पर सब चकरा गए। ये तो किसी ने अब तक सोचा ही नहीं था कि कुत्ता भी अभी तक नज़र नहीं ‎आया था।

    थैले वाले ने कहा, “अब कुत्ता भी मुअम्मा बन गया।”

    बारीश आदमी बोला, “मुअम्मा कुत्ता नहीं है, आदमी है।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने बे-तअल्लुक़ी से टकरा लगाया, “बशर्ते के हम दोनों में फ़र्क़ क़ायम रख सकें।”

    बारीश आदमी ने उसकी बात सुनी अन-सुनी की फिर दफ़्अ‘तन पल्टा, “चलो वापिस।”

    ‎“क्यों?”

    ‎“ज़्यादा दूर जाना ठीक नहीं।”

    और वो पलट पड़े। चुप-चाप चलते रहे। और फिर वहीं आकर पसर गए जहाँ से चले थे। नौजवान ने बैठते ‎ही ख़ौफ़-ज़दा आवाज़ में कहा। “हम उसका पीछा कर रहे हैं या वो हमारा पीछा कर रहा है।”

    ‎“वो हमारा पीछा कर रहा है”, थैले वाले आदमी ने डरी हुई आवाज़ में कहा।

    ‎“ये तुझे कैसे गुमान हुआ।”

    ‎“मुझे ये ऐसे गुमान हुआ कि जब हम वापिस रहे थे तो लगा कि कोई पीछे-पीछे चल रहा है।”

    ‎“तूने मुड़ कर देखा?”

    ‎“नहीं।”

    बारीश बुज़ुर्ग ने उसे दाद दी, “नौजवान, ये तूने अच्छा किया। पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए।”

    ज़ख़्मी सर वाला कि आते ही थक कर लेट गया था ये सुनकर दफ़्अ‘तन उठ बैठा। आँखें फाड़-फाड़ कर ‎नौजवान को देखा। फिर बोला, “ये तो मेरे साथ भी हुआ था। जब में उसे ढ़ूढ़ने गया था तो पलटते हुए मुझे ‎लगा कि कोई लंबे-लंबे डग भरता पीछे रहा है।”

    बारीश बुज़ुर्ग ने तशवीश से कहा, “मगर अज़ीज़ ये तो तुझे उसी वक़्त बताना चाहिए था।”

    ‎“मैं तो भूल ही गया था, अब नौजवान के कहने पर याद आया।” कहते-कहते ठिठका और सोच में पड़ ‎गया।

    ‎“क्यों, क्या हुआ।”

    ‎“ठहरो याद कर लेने दो।” याद करने की कोशिश करता रहा। फिर गोया नाकाम हो कर... “अज़ीज़ों तुम्हें ‎याद हो तो बताओ। जब मैं गिन रहा था तो मैंने अपने आपको गिना था या नहीं गिना था।”

    ‎“अपने आपको” थैले वाले ने चकराकर कहा।

    ज़ख़्मी सर वाला सोचता रहा। फिर बोला, “शायद मैंने अपने आपको नहीं गिना था... हाँ बिलकुल। मैं अपने ‎आपको तो गिनना भूल ही गया था।”

    तीनों इस पर चकरा से गए। बोले, “अच्छा फिर?”

    ‎“तो फिर यूँ है कि जो एक आदमी कम है वो मैं था।”

    ‎“तो?” सब ने चौंक कर उसे देखा।

    ‎“हाँ मैं।”

    ये बात सुनकर सब सन्नाटे में गए और ज़ख़्मी सर वाले को तकने लगे। फिर नौजवान दफ़्अ‘तन चौंका। ‎उसे याद आया कि गिनते हुए उसने भी अपने आपको नहीं गिना था। और उसने कहा कि “जो आदमी कम ‎है वो मैं हूँ।”

    ये कलाम सुनते-सुनते थैले वाले आदमी ने याद किया कि गिनते हुए तो उसने भी ख़ुद को नहीं गिना था। ‎उसने सोचा कि कम हो जाने वाला आदमी वो है। बारीश आदमी देर तक फ़िक्र में ग़लताँ रहा। फिर वो बाद ‎तज़बज़ुब के ये हर्फ़ ज़बान पर लाया कि “अज़ीज़ो मुझे ये चूक नहीं होनी चाहिए थी। मगर मुझे भी हुई। मैंने ‎गिनते हुए सबको गिना, मगर ख़ुद को फ़रामोश किया। तो जो एक आदमी कम हुआ है वो ये बंदा-ए-‎कमतरीन है।”

    तब सब चक्कर में पड़ गए और ये सवाल उठ खड़ा हुआ कि आख़िर वो कौन है जो कम हो गया है। इस ‎आन ज़ख़्मी सर वाले को फिर वो वक़्त याद आया जब कम हो जाने वाले आदमी को ढूंढ कर पलट रहा था। ‎कहने लगा, “उस वक़्त मुझे लगा कि वो आदमी तो यहीं कहीं है मगर मैं नहीं हूँ।”

    बारीश आदमी ने उसे समझाते हुए कहा, “अज़ीज़ तू है।” ये सुनकर ज़ख़्मी सर वाले ने एक एक साथी को यूँ ‎देखा जैसे उसे बारीश के बयान पर एतबार नहीं आया है। एक-एक साथी ने उसे यक़ीन दिलाया कि वो है। ‎तब उसने ठंडा साँस भरा और कहा कि “चूँकि तुमने मेरी गवाही दी इसलिए मैं हूँ। अफ़सोस कि मैं अब ‎दूसरों की गवाही पर ज़िंदा हूँ।”

    इस पर बारीश आदमी ने कहा, “ऐ अज़ीज़ शुक्र कर के तेरे लिए तीन गवाही देने वाले मौजूद हैं। उन लोगों ‎को याद करो जो थे मगर कोई उनका गवाह बना। सो वो नहीं रहे।”

    ज़ख़्मी सर वाला बोला, “सो अगर तुम अपनी गवाही से फिर जाओ तो मैं भी नहीं रहूँगा।”

    ये कलाम सुनकर फिर सब चकरा गए और हर एक दिल ही दिल में ये सोच कर डरा कि कहीं वो तो वो ‎आदमी नहीं है जो कम हो गया है। और हर एक उस मख़म्मसे में पड़ गया कि अगर वो कम हो गया है तो ‎वो है या नहीं है। दिलों का ख़ौफ़ आँखों में आया। आँखों ही आँखों में उन्होंने एक दूसरे को देखा। फिर ‎डरते-डरते अपना-अपना शक बयान किया। फिर उन्होंने एक दूसरे का हौसला बंधाया और एक दूसरे पर ‎गवाह बने। दूसरे से गवाही लेकर और दूसरे की गवाही देकर मुतमइन हो गए। मगर नौजवान फिर शक में ‎पड़ गया। “ये तो बड़ी अजीब बात है कि चूँकि हम एक दूसरे पर गवाह हैं इसलिए हम हैं।”

    ज़ख़्मी सर वाला हंसा। रफ़ीक़ों ने पूछा कि यार तू क्यों हंसा। उसने कहा कि “मैं ये सोच कर हंसा कि मैं ‎दूसरों पर तो गवाह बन सकता हूँ मगर अपना गवाह नहीं बन सकता।”

    इस कलाम ने फिर सबको चकरा दिया। एक वस्वसे ने उन सबको घेरा और उन सबने नए सिरे से अपने ‎आप को गिनना शुरू कर दिया। इस बार हर गिनने वाले ने गिनने का आग़ाज़ अपने आप से किया मगर ‎जब गिन चुका तो गड़बड़ा गया और बाक़ीयों से पूछा कि “क्या मैंने अपने आपको गिना था?”

    एक ने दूसरे को, दूसरे ने तीसरे को और तीसरे ने चौथे को गड़बड़ाया। आख़िर नौजवान ने सवाल किया कि ‎‎“हम थे कितने?” इस सवाल ने दिलों में राह की। हर एक ने हर एक से पूछा। “आख़िर हम थे कितने?” ‎बारीश आदमी ने सबकी सुनी। फिर यूँ गोया हुआ कि अज़ीज़ो में सिर्फ इतना जानता हूँ कि जब चले थे तो ‎हम में कोई कम नहीं था। फिर हम कम होते चले गए। इतने कम हुए इतने कम हुए कि उंगलियों पर गिने ‎जा सकते थे। फिर हमारा अपनी उंगलियों पर से एतबार उठ गया। हम ने एक-एक करके सबको गिना ‎और एक को कम पाया। फिर हम में से हर एक ने अपनी अपनी चूक को याद किया और अपने आपको ‎कम पाया।”

    नौजवान ने एक शक के साथ कहा, “तो क्या हम सब कम हो गए हैं?”

    बारीश आदमी ने नौजवान को ग़ुस्से से देखा जो सुलझी हुई डोर को फिर उलझाए दे रहा था, “कोई कम ‎नहीं हुआ है। हम पूरे हैं।”

    नौजवान ने अल्हड़पन से फिर सवाल किया, “हम कैसे जानें कि हम पूरे हैं। आख़िर हम थे कितने?”

    ‎“कब कितने थे?” बारीश आदमी ने बरहम हो कर पूछा।

    ‎“जब हम चले थे।”

    ज़ख़्मी सर वाले ने नौजवान को घूर कर देखा, “हम कब चले थे?”

    नौजवान ज़ख़्मी सर वाले को तकने लगा। फिर उसकी आँख भर आई। बोला, “कुछ याद नहीं पड़ता कि ‎कब चले थे। बस इतना याद है कि घर में धुआँ अटा हुआ था और मेरा बाप उस घड़ी जा-नमाज़ पर बैठा था। ‎उसकी आँखें बंद थीं और होंट हिल रहे थे और उंगलियों में तस्बीह गर्दिश कर रही थी।”

    ज़ख़्मी सर वाला नौजवान को टिकटिकी बाँधे देखता रहा। फिर उसने बड़ी हसरत से कहा, “नौजवान तुझे ‎बहुत कुछ याद है। मुझे तो अब कुछ भी याद नहीं।”

    नौजवान ने अफ़्सुर्दा हो कर कहा, “मगर मुझे बिलकुल याद नहीं आता कि वो उस वक़्त कहाँ थी।”

    बारीश आदमी आबदीदा हुआ और बोला, “काश हम याद रख सकते कि हम कहाँ थे कब निकले थे और ‎कैसे निकले थे?”

    ‎“और क्यों निकले थे?” नौजवान ने टुकड़ा लगाया।

    ‎“हाँ और क्यों निकले थे”, बारीश आदमी ने ताईदी लहजे में कहा जैसे ये बात उसके ज़हन से उतर गई थी ‎और नौजवान ने याद दिलाई है।

    नौजवान फिर किसी फ़िक्र में गलताँ हो गया। कहने लगा, “अगर मैं वाक़ई जहाँनाबाद से निकला था तो मुझे ‎बस इतना याद है कि रुत बरसात की गुज़र चुकी थी और कोयल आम के बाग़ों से जा चुकी थी और झूला ‎हमारे आँगन वाले नीम से उतर चुका था।” ये कहते-कहते वो ख़यालों में खो गया। लहजा धीमा हो गया जैसे ‎अपने आप से बातें करता हो, “मगर वो तो झूला उतर जाने के बाद भी हमारे घर आती रही थी। ख़यालों ही ‎ख़यालों में वो दूर तक गया, सावन में भीगे इन दिनों तक जब आँगन में खड़े हुए उस घने नीम तले पीली ‎पीली बिनोलियाँ ही बिनोलियाँ बिखरी पड़ी रहतीं और झूले में बैठ कर वो लंबे झोंटे लेती और गाती, नन्ही ‎मुन्नी बूँदीयाँ रे। सावन में मेरा झूलना, मगर वो तो बरसात के बाद भी हमारे घर आती रही थी... हाँ बिलकुल... मगर उस रोज़ कहाँ थी।” वो याद करने की कोशिश करता रहा। फिर थक गया। बोला, “कुछ याद नहीं ‎आता कि उस रोज़ वो कहाँ थी।”

    ज़ख़्मी सर वाला फिर नौजवान को टकटकी बाँधे देखता रहा।

    थैले वाला आदमी बोला, “और अगर तू जहाँनाबाद से ना निकला हो तो?”

    ‎“यानी?” नौजवान ने उसे हैरत से देखा।

    ‎“मसलन जैसा कि हमारे बुज़ुर्ग ने कहा हम ग़रनाता से निकले हों तो?” थैले वाले ने ये बात ऐसे लहजे में कही ‎जैसे वो बहुत मज़हका ख़ेज़ बात हो और जैसे वो बारीश आदमी का मज़ाक़ उड़ा रहा हो मगर नौजवान ‎तज़बज़ुब में पड़ गया। “ग़रनाते से?” सोचता रहा। फिर अफ़सोस के साथ कहने लगा, “अगर मैं ग़रनाता से ‎निकला हूँ तो फिर मुझे कुछ याद नहीं है।”

    ‎“अगर हम ग़रनाता से निकले हैं”, बारीश आदमी ने दबे से लहजे में कहा, और सोच में पड़ गया। फिर ‎कहने लगा, “मुझे याद आता है कि अभी सुबह का धुँदलका था, और मस्जिद अक़सा के मीनार...”

    थैले वाला बेसाख़ता हंसा, “मस्जिद-ए-अक़सा के मीनार, ग़रनाता में।”

    बारीश आदमी सिटपिटाकर चुप हो गया। नौजवान ने बारीश आदमी को यूँ देखा जैसे कुछ समझा हो। ‎‎“मस्जिद-ए-अक़सा?” बड़बड़ाया और चुप हो गया।

    ज़ख़्मी सर वाला बदमज़ा हो गया, “मैं उखड़ चुका हूँ। अब मेरे लिए ये याद करने से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि ‎वो कौन सी साअत थी और कौन सा मौसम था और कौन सी बस्ती थी।”

    ‎“हाँ अब ये याद करने से क्या फ़र्क़ पड़ता हैकि वो कौन सी साअत थी और वो कौन सी मस्जिद के मीनार ‎थे।” बारीश आदमी ने ठंडा साँस भरी। “फिर भी अच्छा होता अगर हम याद रख सकते कि हम कब निकले ‎थे और कहाँ से निकले थे।”

    ‎“और क्यों निकले थे।” नौजवान ने टुकड़ा लगाया।

    ‎“हाँ ये भी कि क्यों निकले थे।”

    ‎“और ये कि” नौजवान ने मज़ीद टुकड़ा लगाया, “जब हम निकले थे तो कितने थे।”

    बारीश आदमी ने नौजवान को समझाने के लहजा में कहा, “हम उस वक़्त पूरे थे।”

    नौजवान ने बारीश आदमी की बात ग़ौर से सुनी फिर पूछा। “क्या वो निकलते वक़्त हमारे साथ था?”

    ‎“कौन?” बारीश आदमी ने ताज्जुब से पूछा

    ‎“वो जो हम में से कम हो गया था?”

    ‎“वो?” बारीश आदमी ने नौजवान को देखा। वो कोई नहीं था।

    कोई नहीं था। एक ने दूसरे को और दूसरे ने तीसरे को देखा। सबकी हैरत और ख़ौफ़ था और ग़म से बैठे ‎थे।

    ऐसे जैसे अब कभी नहीं बोलेंगे।

    नौजवान ने थोड़ी जुंबिश की और कान खड़े किए। कुछ सुनने की कोशिश करने लगा। उसे देखकर दूसरों ‎के कान भी खड़े हुए। सब कान लगाए हुए थे और कुछ सुनने की कोशिश कर रहे थे।

    ‎“कोई है?” नौजवान ने सरगोशी में कहा।

    ‎“हाँ साथियो कोई है जब कुत्ता भौंक रहा है”, थैले वाले ने कहा।

    चारों एक दूसरे को तकने लगे। फिर नौजवान ने आहिस्ता से कहा, “कहीं वही हो?”

    ‎“कौन?”

    ‎“वही”

    बारीश आदमी ने घूर कर नौजवान से कहा। सोच में पड़ गया। फिर दफ़्अ‘तन उठ खड़ा हुआ। दूसरे भी ‎उठ खड़े हुए। जिस तरफ़ से आवाज़ आई थी। फिर उसी तरफ़ सब चल खड़े हुए।

    स्रोत:

    (Pg. 286)

      • प्रकाशक: एजुकेशनल बुक हाउस, अलीगढ़

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