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ज़ात का मुहासिबा

बानो कुदसिया

ज़ात का मुहासिबा

बानो कुदसिया

MORE BYबानो कुदसिया

    स्टोरीलाइन

    "वर्तमान समय की भाग दौड़ वाली ज़िंदगी ने इंसान को इतना बहुउद्देशीय और व्यस्त कर दिया है कि उसे कभी ख़ुद को देखने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। ज़ात का मुहासिबा एक ऐसे ही पात्र ज़ीशान की कहानी है जिसकी ज़िंदगी इस क़दर मशीनी हो गई है कि वो आरा की मुहब्बत के जज़्बों की तपिश भी महसूस नहीं कर पाता और अपने सुनहरे भविष्य के लिए विदेश चला जाता है। आख़िर जब एक दिन एयरपोर्ट पर ज़ीशान और आरा की मुलाक़ात होती है तो आरा को संतुष्ट और निश्चिंत देखकर ज़ीशान को झटका लगता है, वो अपना लेखा जोखा करता है तो सिवाए नुकसान के उसे कुछ नज़र नहीं आता।"

    खुली गठरी की तरह वो बिखरा रहता था। उसने कई रातें हमसाए के छत्नारे दरख़्त को खिड़की में से देखकर गुज़ारी थीं। ज़ीशान को उस दरख़्त के पत्ते, डालियां चांदनी रातों में ख़ामोश चमक के साथ बहुत पुरअसरार वहदत लगती थीं। वो सोचता कि इतने सारे पत्तों के बावुजूद दरख़्त की इकाई कैसे क़ायम रहती है। अगर ये पत्ते डालियों से अलैहदा हो जाएं तो इन बिखरे पत्तों को कैसे समेटा जा सकता है?

    तब तक उसे मालूम नहीं था कि पत्ते दरख़्त के अपने वुजूद से पैदा होने वाले थे और वो जिन ख़्वाहिशात की वजह से बिखरा था वो सब उसके बैरून से आई थीं। कभी कभी कार चलाते हुए उसे एहसास होता कि जिस तरह जापानी ख़ुदकुशी करते हैं और हारा केरी करते वक़्त अपनी खुखरी के साथ तमाम अंतड़ियां और पेट के अज़लात निकाल फेंकते हैं, ऐसे ही उसके भी किसी अमल से उसका अंतड़ पटिया बिखर गया और अब वो जिल्द और पुट्ठों की मज़बूत ढाल नहीं थी जिसमें उसके बिखरे हुए वुजूद को मंढा जाता। इस बात का एक-बार उसे हल्का सा ख़्याल इन छः माह की छुट्टियों में आया था, जब उसने एफ़.ए का इम्तिहान देकर बी.ए के दाख़िले से पहले अपने लिए बहुत लंबे चौड़े प्लान बनाए थे। सुबह स्वीमिंग फिर वर्ज़िश फिर गिटार के सबक़, शाम को फ़्रैंच की क्लासें, राइडिंग वग़ैरा तमाम दोस्तों के साथ फ़र्दन फ़र्दन सच का रिश्ता, माँ-बाप की इज़्ज़त, बहन-भाईयों से मुहब्बत, रिश्तेदारों का पास।

    एफ़.ए के इम्तिहानों से पहले उसे दूसरों से इतनी तवक़्क़ुआत थीं ही वो अपने वुजूद को इस क़दर गाँठ कर रखता था लेकिन इम्तिहानों के दिनों में उसने बड़ी मेहनत की। पर्चे अच्छे हुए और पहली बार उसे एहसास हुआ कि वो अपनी ज़ात का मुहासिबा और मुवाख़िज़ा किए बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकता। मुहासिबा चाहे किसी ग़ैर का हो या अपना हो हमेशा कड़ा होता है। इसमें चवन्नी दुअनी की छूट नहीं मिलती। इस मुहासिबे तले वो बहुत जल्द कसीर-उल-मकासिद होता चला गया लेकिन एफ़.ए पास था इसलिए उसे इल्म हो सका कि फ़व्वारे की तरह वो बहुत से छेदों से निकल कर फुवार तो बन सकता है आबशार की सूरत इख़्तियार नहीं कर सकता। जब तमाम तिजारतों का गीदड़ बनने की ख़ातिर उसे अपना सोना, खाना-पीना, आराम, गपबाजी तर्क करना पड़ती तो अंदर आजिज़ जाने का ख़्याल उभरता। उसे लगता जैसे वो किसी मुबहम से आरिज़े में मुब्तला है लेकिन उसने अपने आपसे ऐसी तवक़्क़ुआत वाबस्ता कर रखी थीं कि अपने बनाए हुए ज़ाबते से बाहर निकलना उसके बस की बात भी थी।

    एक रोज़ वो इलेक्ट्रॉनिक की हाबी में मशग़ूल अपने इर्द-गिर्द बहुत से सर्किटों के काग़ज़ चीसें तारें गत्ते का दिया फैलाए बैठा था कि मामूं आगए। मामूं ख़ुश ज़बान, मुतवस्सित तबक़े के कुछ बे फ़िक्रे, कुछ ज़िम्मेदार आदमी थे। उन्होंने अपनी कायनात इस क़दर नहीं फैला रखी थी कि इसके नीचे उन्हें ख़ौफ़ आने लगे।

    “मछली का शिकार खेलने जा रहे हैं, चलोगे?”

    “कहाँ मामूं... मैं ये छोटा सा सर्किट मुकम्मल करलूं।”

    मामूं आराम से कुर्सी में बैठ गए।

    “ज़ीशान।”

    “जी मामूं!”

    “तुम बहुत अच्छे आदमी हो।”

    “थैंक यू मामूं।”

    “बावुजूद कि तुम्हारे अब्बू-अम्मी ने तुम पर ज़्यादा तवज्जो नहीं दी, तुम में एक अच्छा इंसान बनने की तमाम खूबियां और ख़राबियां मौजूद हैं।”

    “थैंक यू मामूं।”

    “बात ये है बेटा Activity बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन कसीर-उल-मकासिद इंसान इतना ही परागंदा होजाता है जिस क़दर सुस्त-उल-वुजूद काम से नफ़रत करने वाला पोस्ती... अपने आपको कहीं धज्जियों में बांट देना... सालिम रहना... सालिम।”

    वो मामूं की बात बिल्कुल समझता था फिर भी उसने सवाल किया, ''वो कैसे मामूं, आज की ज़िंदगी में सालिम कैसे रहा जा सकता है?”

    बस ख़्वाहिशात का जंगल पालो... आरज़ू का एक पौदा हो तो आदमी मंज़िल तक भी पहुंचता है और बिखरता भी नहीं।”

    ज़ीशान चूँकि गोश्त-पोस्त का बना हुआ इंसान था और इंसान जो भी सीखता है या तो ज़ाती लगन से सीखता है या अपने तजुर्बे की रोशनी में ख़ौफ़ से सीखता है। इसलिए तजुर्बे की कमी के बाइस ज़ीशान को मामूं की बातें किताबी लगतीं। फिर ये बात भी थी कि मामूं मुतवस्सित तबक़े का आदमी था। उसकी क़मीज़ के कालर पर हल्की सी मैल होती। मामूं का रहन-सहन मामूली था। ऐसे लोगों की बातें सुनी तो जा सकती हैं लेकिन उनकी सच्चाई पर अमल नहीं किया जा सकता।

    ज़ीशान के लिए ज़िंदगी एक दौड़ की शक्ल इख़्तियार करती गई। ऐसी दौड़ जो सीधी नहीं थी। कई रास्तों, कई पगडंडियों, कई सर-निगूँ में से हो कर निकलती थी। अपनी दस्तारबन्दी में वो इतना मशग़ूल था कि उसे इल्म हो सका कि कब उसने इकनॉमिक्स का एम.ए कर लिया। किस वक़्त वो आला क़िस्म का डिबेटर भी हो गया। उसे ड्रामों में भी ट्रॉफ़ियाँ मिल गईं, फोटोग्राफी के मुक़ाबलों में भी उसकी तस्वीरों को ईनाम मिलने लगा। खेलों में भी उसका नाम बोलने लगा। मुख़्तलिफ़ रिसालों में उसकी ग़ज़लें भी छप छपाकर काबिल-ए-ज़िक्र कहलाने लगीं। दो एक अख़बारों में ख़ुसूसी नुमाईंदा बने रहने की वजह से उसकी जनरल नॉलिज शहरी वाक़ियात के मुताल्लिक़ बहुत भरपूर हो गई।

    उसके साथ साथ इन चार सालों में उसने तीन-चार अधूरे पूरे इश्क़ भी किए। उन मोहब्बतों का उसकी ज़ात पर गंभीर असर हो सका क्योंकि जिन लड़कियों से उसने मोहब्बत की थी उनके भी इश्क़ के इलावा कई मशाग़ल थे। वो भी कसीर-उल-मक़ासिद थीं और पुराने ज़माने की महबूबाओं की तरह तो हारसिंगार ही को अपना शआर समझती थीं ही अटवांटी खट्वांटी लेकर पड़ी रहती थीं... उन्हें भी कॉलेज जाना होता। शॉपिंग के लिए वक़्त निकालना पड़ता। ब्यूटी पार्लर से फ़ैशन कराने होते। सहेलियों मरजानियों का दिल रखने के लिए लंबे-लंबे फ़ोन करने होते। फिर सोशल लाईफ़ थी। कुछ उनके वालिदैन की, कुछ उनकी अपनी... कुछ ख़्वाब थे शादी के, कुछ ख़्वाब थे Career के...

    उन लड़कियों के साथ जो मुआशक़े हुए उनमें ज़्यादा वक़्त फ़ोन पर गुज़रा, या फिर अच्छे होटलों में जहां ज़बान के लुत्फ़ के साथ साथ अच्छी ख़ुशबुओं, ख़ूबसूरत लिबासों की चमक के इर्दगिर्द रोशनियों में एक दूसरे के टेस्ट पर एतराज़ात के साथ साथ लड़ाईयां भी हुईं... अच्छी प्यारी प्यारी बातें भी की गईं... और आख़िर में दोस्तों की तरह एक दूसरे को अलविदा भी कहा गया।

    ये शिकम सेर क़िस्म के इश्क़ नहीं थे जो दुख या सुख की आख़िरी सरहदों को छुवा करते हैं। ये नूरा कुश्ती से मुशाबेह थे कि ख़ूब धप धपय्या के बाद अखाड़े से ब्रीफ़ में पसीने में शराबोर नक़ली ज़ख़्मों से चूर निकले और अपने अपने रास्ते पर यूं चल दिए जैसे कुछ हुआ ही हो।

    उन्ही दिनों जब उसकी शादी की बातें कॉमन टॉपिक थीं, रिश्ते भी आरहे थे और अफेयर्ज़ भी चल रहे थे, उसकी फूफीज़ाद बहन का रिश्ता भी आया। फूफी अर्से से ग़ैर थीं। वो अपने ससुराल में रच बस गईं थीं लेकिन ज़ीशान की लियाक़तों के शोहरे सुनकर वो भी उम्मीदवार थीं कि उनकी आरा का कुछ जोड़ तोड़ ज़ीशान से हो जाए। नाम तो फूफीज़ाद का पता नहीं, नसरीन आरा या शमीम आरा या जहां आरा था लेकिन बुलाते सभी उसे आरा थे। ज़ीशान को ये धान पान सी लड़की शुरू से ही लकड़ी चीरने वाला आरा ही लगी।

    आरा बिल्कुल माडर्न थी। सतही तौर पर दिलचस्प और अंदर से ठस सी लड़की। वो मेक-अप, कपड़े, बी.ए की डिग्री, ब्यूटी पार्लर, वी.सी.आर पर देखी हुई फिल्मों का मलग़ूबा थी। दो-चार मुलाक़ातों के बाद खुलता कि उसकी पसंद-नापसंद कुछ ज़ाती थी बल्कि फ़िल्म एक्ट्रसों, शायरों, अदीबों और क्रिकेटरों के इंटरव्यू पढ़ पढ़ कर मुरत्तब की गई थी।

    ऐसे ही उसके कुछ नज़रियात थे जो हर्गिज़ किसी ज़ाती काविश या तदब्बुर का नतीजा थे बल्कि बड़ों की महफ़िलों में बैठ बैठ कर अख़्ज़ किए गए थे। वो देखने, सुनने और चाहने में बड़ी जाज़िब थी लेकिन कुछ मुलाक़ातों के बाद उस रोग़नी हांडी का असलीपन ज़ाहिर होने लगता और लोग उसे प्रेशर कुकर के ज़माने में बिल्कुल वैसे ही भूलते जैसे वो रोग़नी हांडी को भूलते हैं।

    ज़ीशान को आरा में वाक़ई कोई दिलचस्पी थी लेकिन कुछ मुलाक़ातें दिलचस्प रहीं और फिर बुख़ार टूट गया। उन ही दिनों वो दो-चार नौकरीयों के लिए भी कोशिश कर रहा था। अब्बा जी की वो ज़मीन जो वाहगे के क़रीब थी, उसकी देख भाल भी उसकी ज़िम्मेदारी थी। फिर दो लड़कियां और भी थीं जिनको कभी कभी ड्राईव पर ले जाना, होटल में ट्रीट देना उसका सिरदर्द था।

    इन मशाग़ल के इलावा उसकी अम्मी की सेहत भी गिर रही थी और उन्हें जुमला डाक्टरों को दिखाना, दवाईयां लाना, टेस्ट ऐक्सरे कराना, अम्मी की दिलजुई और रिश्तेदार ख़वातीन को बीमारी की तफ़सीलात मुहय्या करना, उसके मशाग़ल थे। इन मशाग़ल के इलावा उसे वी.सी.आर पर फिल्में देखने का भी बहुत शौक़ था। क्रिकेट मैच और वीडीयो फिल्मों को देखने के लिए जब उसे वक़्त निकालना पड़ता तो कभी कभी बड़ी उलझन का सामना होता।

    ऐसे ही वक़्त में जब वो वी.सी.आर पर एक धमाकेदार मार-धाड़ की फ़िल्म देख रहा था और उसकी अम्मी ने फ़ोन पर अपनी ननद को जवाब दे दिया था तो आरा उनके घर आई। ज़ीशान की तमाम-तर तवज्जो उस वक़्त फ़िल्म में थी लेकिन आरा रूठी हुई लगती थी। वो उसके पास आकर सोफ़े पर बैठ गई और चुपचाप मार-धाड़ की फ़िल्म देखने लगी।

    ज़ीशान को मालूम नहीं था कि उसकी अम्मी इस रिश्ते के लिए इनकार कर चुकी हैं। अगर उसे मालूम भी होता तो भी कुछ इतनी ज़्यादा हसरत उसके दिल में जगह पाती। वो कभी कभी तकल्लुफ़ के साथ आरा को मुस्कुरा कर देख लेता और फिर फ़िल्म देखने में मशग़ूल हो जाता। आरा की हालत उससे मुख़्तलिफ़ थी। वो अंदर ही अंदर कुछ जुमले बना-सँवार रही थी। कुछ पूछना चाह रही थी, कुछ बताने पर आमादा थी।

    जब फ़िल्म में वक़फ़े के बाद चंद इश्तिहार आने शुरू हो गए तो ज़ीशान ने फ़राख़ दिली से पूछा, “क्या हाल हैं?”

    “आपको मालूम होगा, क्या हाल हो सकते हैं?”

    “क्यों ख़ैर तो है, बड़ी मायूस सी लगती हो।”

    आरा की जानिब से बड़ा लंबा ख़ामोशी का वक़फ़ा आगया जिस वक़फ़े में ज़ीशान ने अपने अंदर ही अंदर आने वाले चार घंटों का प्रोग्राम मुरत्तब किया और वो रूट बनाया जिस पर कार ले जाने से उसे दोहरे तिहरे फेरे पड़ने का एहतिमाल हो।

    “मामी जी ने तो इनकार कर दिया है आज सुबह।” वो चंद लम्हे समझ सका कि किस लिए किसको और किस बात से मामी जी ने इनकार कर दिया है।

    “आपको तो शायद कुछ फ़र्क़ पड़े।” अब बात कुछ-कुछ उसकी समझ में आने लगी।

    “आरा... देखो मैं तुमसे झूट नहीं बोलूँगा... ये बेहतर है कि अब मैं तुम्हें छोटा सा ज़ख़्म दूं, बनिस्बत इसके कि बाद में तुम्हें सारी उम्र तकलीफ़ देता रहूं। अभी मैं Settle होना नहीं चाहता। मैं अभी तै नहीं कर सका कि मैं क्या करना चाहता हूँ। किधर और किस के साथ जाना चाहता हूँ।”

    आरा यक़ीनन एक माडर्न लड़की थी लेकिन माडर्न लड़कियों के भी कई ग्रेड होते हैं और उसका ग्रेड चपरासियों का सा था जो इनकार सुनकर ज़्यादा इसरार नहीं कर सकते। वो उठी और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगी। फिर उसने दो क़दम ज़ीशान की जानिब बढ़ाए और कहा, “ज़ीशान, तुम्हारी Activities ज़्यादा हैं। इतने मशाग़ल हों तो आदमी बटा रहता है। कभी कभी ख़ाली बैठ कर अपने साथ भी वक़्त गुज़ारा करो... काफ़ी धुंद छट जाती है और दूर तक नज़र आने लगता है, फिर फ़ैसले अपने भी होते हैं और आसान भी...”

    ज़ीशान ने आरा की बात पर कोई तवज्जो दी क्योंकि उसे मालूम था कि आरा ज़्यादा-तर बातें नामवर अदीबों के इक़तिबासात याद करके करती है। आरा उसकी ज़िंदगी से निकल गई। ग़ालिबन वो कभी आई ही थी। उसके बाद उसकी शादी हो गई और शादी के बाद मशाग़ल में और इज़ाफ़ा हो गया।

    उसकी बीवी एक खाते-पीते घराने की ख़ुद-साख़्ता लाडली थी। वो भी एक मुतमव्विल ख़ानदान का पढ़ा लिखा ख़ूबसूरत फ़र्द था। कभी सुसर की गाड़ी, कभी बाप की कार, कभी अपनी कभी बीवी आतका की गाड़ी में कई जगहों पर जाना पड़ता। कहीं काम, कहीं तफ़रीह... लेकिन मिल-जुल, आना-जाना, समेटना-फैलाना इस क़दर था कि फ़ुर्सत के लम्हात सुकड़ते गए और वो अपने आपसे कभी मिल सका।

    एक बात तै पा गई की पाकिस्तान में रह कर ख़ातिर-ख़्वाह तरक़्क़ी नहीं हो सकती। यहां वसाइल और मवाक़े की बहुत कमी है। ये नहीं कि ज़ीशान को माली तौर पर किसी तरक़्क़ी की ज़रूरत थी लेकिन ज़िंदगी जुमूद का नाम भी तो नहीं हो सकता। पाकिस्तान में ज़ीशान और आतका की ज़िंदगी एक रूटीन का शिकार हो चुकी थी और इतने सारे मशाग़ल की पैरवी ने उन्हें चिड़चिड़ी बिल्ली की तरह हर खम्बे को नोचना सिखा दिया था। जब भी उन्हें फ़ुर्सत का कुछ वक़्त मिलता, वो एक दूसरे से किसी किसी तौर की शिकायत ही करते।

    कभी तमाम उलझनों की वजह ये थी कि पाकिस्तान में ट्रैफ़िक ठीक नहीं। यहां का तालीमी निज़ाम पसमांदा है। तमाम सिस्टम काम नहीं करते। वक़्त बहुत ज़ाए होता है। फिर ख़ानदान वाले बेजा मुदाख़िलत करते हैं। शख़्सी आज़ादी का नाम-ओ-निशान कहीं नहीं। दोस्त रियाकार मुनाफ़िक़ हैं, असली रिश्तों की पहचान गुम हो गई है। नक़ली रिश्ते बहुत ज़्यादा हैं...

    दफ़्तरों में गपबाजी और फाईल सिस्टम बहुत ज़्यादा है। ब्यूरोक्रेट की सरदारी है। माँ-बाप मुशफ़िक़ कम हैं, मुतालबाती ज़्यादा हैं। बहन-भाईयों की अपनी अपनी दिलचस्पियाँ हैं। वो अपने अपने मदार पर हैं। ग़रज़ ये कि जब ज़ीशान और आतका को पाकिस्तान से और पाकिस्तान में बसने वालों से इतनी शिकायात हो गईं कि उन्हें उन शिकायात का कोई हल मिल सका तो उन्होंने अपनी बेक़रारी का हल सिर्फ़ यही सोचा कि वो लंदन चले जाएं और वहां क़िस्मत आज़माऐं।

    लंदन जाने से पहले एक रोज़ फूफीजान से मिलने गया। आरा एक कुंद क़ैंची से गुलाब का फूल काट कर अपनी टोकरी में डाल रही थी। वो ज़ीशान से ऐसे मिली जैसे उन दोनों के दरमियान कभी कुछ था ही नहीं लेकिन जब ज़ीशान चलने लगा तो आरा कुछ चुप सी हो गई।

    “वापस कब आओगे?”

    “बस आता जाता रहूँगा।”

    “अच्छा?” आरा ने सवालिया नज़रों के साथ पूछा।

    “भई, आता जाता रहूँगा। ये भी कोई पूछने वाली बात है। अम्मी-अब्बू से तो मिलने आऊँगा ही।”

    “कभी कभी अपने आपसे भी मिल लेना ज़ीशान... तन्हाई में... जो शख़्स अपने साथ नहीं रह सकता वो किसी के साथ भी नहीं रह सकता।”

    ज़ीशान ने आरा की तरफ़ देखा। वो जानता था कि आरा ऐसी बातें इक़तिबासात से अख़्ज़ करके बोला करती थी, इसलिए उसने जब आरा को ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा तो साथ ही उसकी बात को भी भुला दिया।

    उसके बाद पूरे बीस साल तक उसकी मुलाक़ात अपने आपसे हो सकी। लंदन की ज़िंदगी में मशाग़ल और भी गूना-गूं हो गए। पाकिस्तान में माली, बावर्ची, धोबी, जमादारनी ऐसे बहुत से वाफ़र लोग मौजूद थे जो उसकी घरेलू ज़िंदगी को सहल बनाते थे। लंदन में ये घरेलू काम भी उन दोनों पर पड़े।

    आतका और वो दोनों काम करते थे। दोनों मिलकर खाना पकाते थे, दोनों मिलकर सफ़ाई करते थे, दोनों मिलकर बच्चे पालते थे। दोनों तमाम छुट्टियां यूरोप में गुज़ारते थे। छुट्टियों का प्रोग्राम बनाना... सस्ते टिक्टों की तलाश... सस्ते होटलों का सुराग़... अनगिनत मसरुफ़ियात थीं। घर से काम, काम से घर, फिर घर पर घरेलू काम।

    उसकी ज़िंदगी मुकम्मल तौर पर अपनी ज़रूरियात, अपने पेशे की ज़रूरियात, अपने ख़ानदान की किफ़ालत की नज़र हो गई और बीस साल बाद उसे पता चला कि वो अंदर से बिखर चुका है... तब उसने फ़ैसला किया कि वो अपने दोनों बेटों को लेकर वापस पाकिस्तान चला जाएगा।

    आतका इस तबदीली पर रज़ामंद थी। वो एक खाते-पीते घराने की लड़की थी। पाकिस्तान में उसे अपने हाथ से अपने ज़ाती काम करने की भी आदत थी। मग़रिब में रहना उसने इसलिए पसंद किया था कि यहां ज़ीशान उसका घरेलू मुलाज़िम था। वही Groceries लाता, कार चलाता, तमाम बिल अदा करता, चूँकि उनके फ़्लैट में लिफ़्ट उमूमन ख़राब रहती थी इसलिए तीसरी मंज़िल पर तमाम भारी सामान उठाकर ले जाना भी ज़ीशान की शानदार ड्यूटी थी। मग़रिब में खाते-पीते घरानों के ऐसे लड़कों के लिए मुश्किल ज़िंदगी थी जो अय्याश थे। पाकिस्तान में कोठी, कार, मुलाज़िम तमाम चीज़ें मुहय्या थीं और उनके लिए कोई जद्द-ओ-जहद या तग-ओ-दो करना पड़ती थी।

    ज़ीशान के लिए मग़रिब की ज़िंदगी एक बड़ी बेकार जद-ओ-जहद का नाम था। लंबी रूटीन जिसमें छुट्टियां भी मामूलात के तहत आतीं लेकिन आतका पाकिस्तान वापस जाना चाहती थी। वो मग़रिबी तर्ज़-ए-मुआशारत में अपने लिए एक छोटी सी आज़ादी, एक छोटा सा मुक़ाम हासिल कर चुकी थी। इस मुक़ाम और आज़ादी के लिए उसे बहुत मेहनत करना पड़ी थी लेकिन वो वापस जाना नहीं चाहती थी।

    जब ज़ीशान ने फ़ैसला कर लिया कि वो पाकिस्तान वापस जा कर बिज़नेस के इमकानात देखेगा, तो आतका और बच्चे पीछे रह गए और इस सफ़र के दौरान उसे दुबई एयरपोर्ट पर आरा मिली। वो इन बीस सालों में भारी हो गई थी लेकिन उसके चेहरे पर बड़ी शांति थी। उसकी आँखों में किसी क़िस्म के गिले या शिकायतें थीं। वो दोनों ड्यूटी फ़्री शाप पर सेंट देख रहे थे जब अचानक उनकी नज़रें मिलीं, “अरे तुम आरा!”

    “हाय ज़ीशान, तुम तो मोटे हो रहे हो और बाल भी ग्रे कर लिए हैं।”

    बड़ी मुद्दत के बाद मिलने से जो तपाक की फ़िज़ा पैदा हुई, उसके तहत वो दोनों लाऊंज में इनडोर प्लांटर में घिरी एक बेंच पर बैठ गए, कहाँ जा रही हो?”

    “अमरीका... और तुम ज़ीशान?”

    “मैं वतन... पाकिस्तान।”

    “अमरीका में रहती हो?” बड़ी लंबी ख़ामोशी के बाद ज़ीशान ने सवाल किया। उसे कुछ धुँदला सा याद था कि आरा का शौहर शिकागो में कैश ऐंड कैरी का बिज़नेस करता है।

    “हाँ।”

    “ख़ुश हो? अमरीका में?”

    “हाँ, जिस क़दर ख़ुशी मुम्किन है।” आरा ने आहिस्ते से कहा और फिर चंद सानिए रुक कर बोली, “और तुम, तुम ख़ुश हो लंदन में?”

    “पता नहीं... मैं कुछ कह नहीं सकता। मुझे लगता है जैसे मेरी ज़िंदगी रूटीन की नज़र हो गई है। छोटी छोटी धज्जियों में बिखर गई है...। अच्छा खाना, साफ़ सुथरे घर में रहना, अच्छे बाज़ारों में घूमना... हर वक़्त सफ़ाई का ख़्याल रखना... ज़िंदगी क्या यही कुछ है? इसके क्या यही मानी हैं?” आरा मुस्कुराती रही।

    “आतका भी काम ही करती रही है। मैं भी उलझा ही रहा हूँ कामों में, हालाँकि अपने वतन में हमें सब कुछ मयस्सर था... और उसके बदले में मुझे क्या मिला है? ऊंचा मेयार-ए-ज़िंदगी... लेकिन मेयार-ए-ज़िंदगी है क्या चीज़? और जो कुछ मुझे मिला है, उसके इवज़ मैं अंदर से इस क़दर क्यों बिखर गया हूँ आरा... तुमने भी तो सारी उम्र अमरीका में गुज़ारी है, क्या तुम भी अपनी ज़िंदगी को इतना बेमानी समझती हो? क्या तुम भी बिखरी हो अंदर से?”

    “नहीं।”

    “पर मैं... मैं क्यों इतना खोखला हो गया हूँ?”

    “इसलिए कि तुम कसीर-उल-मक़ासिद थे ज़ीशान... एक वक़्त में कई आरज़ुऐं पाल कर जीने वाला टूटेगा नहीं तो और क्या होगा?”

    “और तुम... तुम भी तो इस बेहूदा दौर की पैदावार हो, जब आरज़ुऐं हर सुबह कुकुरमुत्ते के खेत की तरह उगती हैं, तुमने अपने आपको कैसे बचाया?”

    “अंदर वाले को तो अंदर ही से बचाया जा सकता है, ज़ीशान।”

    “पर कैसे... कैसे?”

    “मैंने सारी उम्र एक अरमान पाला... और अंदर सिर्फ़ उसको सींचा। उसकी ख़ातिर जीती रही... बाक़ी सारी Activity तो फ़ुरूई थी... जब ख़्वाहिश एक हो और उसकी सिम्त देखते रहें तो बाक़ी भाग-दौड़ अंदर असर नहीं करती।”

    “वो अरमान... पूरा हो गया तुम्हारा?”

    “नहीं, लेकिन ख़्वाहिश पूरी हो हो, ये ज़रूरी नहीं है। ख़्वाहिश एक ही रहे... एक वक़्त में तो इंतिशार पैदा नहीं होता... तोड़ फोड़ नहीं होती।”

    ज़ीशान ने ताज्जुब से आरा को देखा और फिर डरते डरते सवाल किया, “और वो ख़्वाहिश... वो अरमान क्या था? क्या मैं पूछ सकता हूँ?”

    आरा ने चंद सानिए ज़ीशान को देखा, जैसे बीस साल पीछे लौट गई हो। हल्का सा मुस्कुराई और ड्यूटी फ़्री शाप की तरफ़ बढ़ते हुए बोली, “ज़ीशान, अगर तुम्हें भी मालूम नहीं तो बताने से फ़ायदा... और फिर मैं सोचती हूँ, अरमान तो सेंट की बंद शीशी की तरह होता है। इज़हार हो जाये तो ख़ुशबू उड़ जाती है। ख़्वाहिश बाक़ी नहीं रहती।”

    आरा ड्यूटी फ़्री शाप में इस तरह दाख़िल हो गई जैसे झूमती-झामती हथिनी सुंदरबन में ग़ायब हो जाये। ज़ीशान सोचता रहा कि इस आख़िरी उम्र में... इतने इंतिशार के बावुजूद वो किस इकलौती ख़्वाहिश के धागे में अपनी तस्बीह के दाने पिरो सकता है?

    स्रोत:

    ख़्वातीन अफ़्साना निगार (Pg. 71)

      • प्रकाशक: नियाज़ अहमद
      • प्रकाशन वर्ष: 1996

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