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बेनियाज़ी पर ग़ज़लें

बे-नियाज़ या बे-परवाह

होना जैसे आशिक़ के जज़्बात की कोई ख़बर ही न हो माशूक़ की अदाओं में शुमार होता है। यह अदा इतनी जान- लेवा होती है कि आशिक़ के गिले शिकवे कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेते। यही बे-नियाज़ी सन्तों, सूफियों और फक़ीरों में भी होती है जो कभी कभी किसी शायर के जिस्म में भी बिराजमान होते हैं। बे-नियाज़ी शायरी ऐसे तमाम जज़्बों और रवैय्यों को ज़बान देती है। हाज़िर हैं चंद नमूने आपके लिए भी।

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