aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
अब्बा जान भी बच्चों की कहानियाँ सुनकर हंस रहे थे और चाहते थे कि किसी तरह हम भी ऐसे ही नन्हे बच्चे बन जाएँ। न रह सके... बोल ही उठे... “भई हमें भी एक कहानी याद है। कहो तो सुना दें।” “आहा जी आहा! अब्बा जान को भी कहानी याद है। अब्बा जान भी कहानी सुनाएँगे।
जापान में ये ख़्याल आम है कि भूत-प्रेत अक्सर बिल्ली, लोमड़ी या बिज्जू की शक्ल में फिरा करते हैं। बिल्ली और लोमड़ी वाले भूत तो ख़तरनाक समझे जाते हैं लेकिन बिज्जू वाला भूत किसी को सताता नहीं बल्कि वो हल्की-फुल्की शरारतें कर के लोगों का दिल बहलाता है और
बाजी आज-कल महसूस कर रही थीं कि बुशरा अब कुछ उलझी-उलझी और परेशान रहने लगी है। हालाँकि अब्बा जी ने सेंट एंस कॉनवेंट में उसे दाख़िल करा के उसकी ये ज़िद पूरी कर दी थी कि वो अंग्रेज़ी स्कूल में अंग्रेज़ बच्चों के साथ पड़ेगी। अब उसे क्या परेशानी थी, बाजी यही
अमजद बहुत प्यारा गोल मटोल सा लड़का था। वो पांचवीं जमात में पढ़ता था। अपना सबक़ फ़रफ़र सुनाता तो उस्ताद बहुत ख़ुश होते। घर में अपनी अम्मी के कामों में मदद करता तो वो ख़ुश हो कर उसे अपने सीने से चिमटा लेतीं। शाम को उस के अब्बा जान घर आते तो वो दौड़ कर उनसे
गधा कई कहावतों में शामिल है। जब किसी आदमी को बेवक़ूफ़ कहना हो तो हम झट कह देते हैं कि वो गधा है। किसी शख़्स के चुप-चाप कहीं से उड़न-छू हो जाने पर कहते हैं कि वो ऐसा ग़ायब हुआ जैसे गधे के सर से सींग। तुम्हें मा’लूम है कि गधे के पहले सींग थे फिर उसके सींग
जब मैं अपने उस्तादों का तसव्वुर करता हूँ तो मेरे ज़ह्न के पर्दे पर कुछ ऐसे लोग उभरते हैं जो बहुत दिलचस्प, मेहरबान, पढ़े लिखे और ज़हीन हैं और साथ ही मेरे मोहसिन भी हैं। उनमें से कुछ का ख़्याल कर के मुझे हंसी भी आती है और उन पर प्यार भी आता है। अब मैं बारी-बारी
बड़ा सुनसान जज़ीरा था। ऊँचे-ऊँचे और भयानक दरख़्तों से ढका हुआ। जितने भी सय्याह समुंद्र के रास्ते उस तरफ़ जाते, एक तो वैसे ही उन्हें हौसला न होता था कि उस जज़ीरे पर क़दम रखें। दूसरे आस-पास के माही-गीरों की ज़बानी कही हुई ये बातें भी उन्हें रोक देती थीं कि उस
हसन और रोहन की दोस्ती गाँव भर में मशहूर थी। बचपन के दोस्त थे, जवानी में भी दोस्ती क़ायम थी। दोनों के मिज़ाज में इतनी हम-आहंगी थी कि एक चीज़ एक को पसंद आती तो दूसरा भी उसे पसंद करने लगता। किसी बात से एक नाराज़ होता तो दूसरा भी उस तरफ़ से रुख़ फेर लेता। दोनों
चचा राग अलापते हुए हवेली में दाख़िल हुए, “बेगम ज़रूर लाटरी निकलेगी मेरे नाम... आमीन तुम कहो, मैं ख़ुदा से दुआ करूँ...” चचा की अलाप सुन कर चची ने पूछा, “ये लाटरी निगोड़ी कौन है बन्नो के अब्बा जिसके फ़िराक़ में आप इस तरह गला फाड़ रहे हैं?” चचा सुर में
गर्मियों की एक तपती दोपहर में जब सूरज आग बरसा रहा था और लू के थपेड़े सूखे पत्तों को बगूलों की शक्ल में उड़ा रहे थे, फज़लू अपने आम के बाग़ में तोतों को उड़ाने में मशग़ूल था। शरीर तोते हरे-हरे पत्तों में छुपे चोरी-चोरी आम कुतर रहे थे। फज़लू मिट्टी का ढेला
बंगाल का एक ख़ास फल कटहल है। ये इतना बड़ा होता है कि कोई फल तो क्या सब्ज़ी की कोई चीज़ भी इसका मुक़ाबला नहीं करती। एक कटहल कम से कम दस बारह सेर का होता है। खाने में बेहद मीठा और ज़ायक़े-दार होता है। लेकिन इसका शीरा बहुत लेस-दार होता है। आम तौर पर इसे खाने
किसी बस्ती से दूर खुले मैदान में एक हरा-भरा तनावर नीम का पेड़ था। उसकी घनी छाओं में कई परिंदे आ कर चहचहाते और मस्ती में एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकते रहते। सुबह-ओ-शाम चिड़ियों की चहकार से पेड़ गूँज उठता था। उस पेड़ की मर्कज़ी शाख़ पर एक कोयल बसी हुई थी,
एक दफ़ा' का ज़िक्र है कि चाँदनी रात में एक दुबले-पतले, सूखे-मारे भूके भेड़िए की एक ख़ूब खाए पीए, मोटे-ताज़े कुत्ते से मुलाक़ात हुई। दुआ-सलाम के बाद भेड़िए ने उससे पूछा, “ऐ दोस्त तू तो ख़ूब तर-ओ-ताज़ा दिखाई देता है। सच कहता हूँ कि मैंने तुझसे ज़्यादा मोटा-ताज़ा
“बदतमीज़!” एक थप्पड़... “नाकारा!” दूसरा थप्पड़... “पाजी” और फिर तो जैसे थप्पड़ों की बारिश ही होने लगी और दिन में तारे नज़र आने लगे। दीवार पर लटकी कबीर, ग़ालिब और आइन्स्टाइन की तस्वीरें एक दूसरे में गड-मड हो कर नाच रही थीं और फिर तो चेहरे और गंजे सर पर
फ़र्रुख़ ने पर्दा सरकाया, सुबह की ताज़ा हवा के साथ ही असली घी के गर्मा-गर्म पराठों की ख़ुशबू उसके नथनों से टकराई। यक़ीनन शैख़ साहब के घर गर्म-गर्म पराठे बन रहे थे। उसने सोचा और देर तक ये ख़ुशबू अपनी साँसों में उतारता रहा। “आहा कितना मज़ा आएगा ये पराठे
भरपूर चौमासे के दिन खेतों की बात न पूछिए... बाजरे की हरी बालें, उनमें दूधिया दाने और उन पर सुनहरी कूँ कूँ, जैसे मोतीयों पर किसी ने सोने का पानी चढ़ा दिया हो। तरबूज़ की हरी-हरी बेलों की नालें दूर-दूर तक फैली हुई थीं। नंग-धड़ंग रहने वाली सुनहरी रेत ने अपने
जाड़े की रात। खाना ख़त्म हुआ। लिहाफ़ के अंदर दादी ने जब अपने पैर गर्म किये तो उन्हें घेर कर सारे बच्चे बैठ गए और कहानी सुनाने का इसरार करने लगे। दादी ने सब से छोटे पोते को गोद में बिठाया और हमेशा की तरह कहा बीच कहानी में कोई नहीं बोलेगा। जी दादी कई
जाजी का अस्ली नाम तो किसी को मालूम नहीं, अलबत्ता सब उसे पेटू मियां कहते थे। पेटू भी ऐसे कि सारा बावरीचीख़ाना चट कर के भी शोर मचाते थे। ‘‘हाय मैं कई दिनों से भूका हूँ और कमज़ोर हो रहा हूँ, कोई भी मुझ ग़रीब पर तरस नहीं खाता।’’ और अम्मी झट से उस के आगे मुख़्तलिफ़
टन-टन... टन-टन... टन-टन... स्कूल में छुट्टी का घंटा बजा। उस्तादों ने अपनी-अपनी जमात के बच्चों को क़तार में खड़े होने का हुक्म दिया। बच्चों ने घंटा की आवाज़ के साथ-साथ उस्तादों के हुक्म को इंतिहाई ख़ुशी से सुना और झट-पट मुन्ने-मुन्ने हाथों अपने-अपने बस्ते
पेरिस में इबराहीम नाम का एक आदमी अपनी बीवी-बच्चों के साथ एक झोंपड़ी में रहता था। वो एक मामूली औक़ात का अयाल-दार था। मगर था बहुत ईमानदार और सख़ी। उसका घर शहर से दस मील दूर था। उसकी झोंपड़ी के पास से एक पतली सी सड़क जाती थी। एक गाँव से दूसरे गाँव को मुसाफ़िर
जब तुम सभों का बाबा साईं कॉलेज में पढ़ रहा था, गर्मी की ता’तील में अपने चंद दोस्तों के साथ सैर के लिए बीकानेर गया, बस यूँ ही घूमने फिरने सैर-सपाटे के लिए। ख़ूब सैर की। बीकानेर के नज़दीक ‘कोलावजी’ नाम का एक गाँव है, बाबा साईं का एक दोस्त गुनधर इसी गाँव
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