aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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ख़ुश-बयानी पर शेर

लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान दे

जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूँ

बशीर बद्र

वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें

तवील रहना भी लगता है मुख़्तसर रहना

वज़ीर आग़ा

ख़ुदा की उस के गले में अजीब क़ुदरत है

वो बोलता है तो इक रौशनी सी होती है

बशीर बद्र

बोलते रहना क्यूँकि तुम्हारी बातों से

लफ़्ज़ों का ये बहता दरिया अच्छा लगता है

अज्ञात

अजब लहजा है उस की गुफ़्तुगू का

ग़ज़ल जैसी ज़बाँ वो बोलता है

अज्ञात

फूल की ख़ुशबू हवा की चाप शीशे की खनक

कौन सी शय है जो तेरी ख़ुश-बयानी में नहीं

अज्ञात

उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक

शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो

मोमिन ख़ाँ मोमिन

लय में डूबी हुई मस्ती भरी आवाज़ के साथ

छेड़ दे कोई ग़ज़ल इक नए अंदाज़ के साथ

अज्ञात

चराग़ जलते हैं बाद-ए-सबा महकती है

तुम्हारे हुस्न-ए-तकल्लुम से क्या नहीं होता

हामिद महबूब

उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के

वो चहकता था तो हँसते थे पर-ओ-बाल उस के

वज़ीर आग़ा

मेरी ये आरज़ू है वक़्त-ए-मर्ग

उस की आवाज़ कान में आवे

ग़मगीन देहलवी

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